ङी संज्ञक अंत में है जिसके आप् अंत में हैं जिसके और मृत् रूप से परे त्या संज्ञक होकर सु आदि विभिक्तियां आती हैं। इस विधान से समानरूप से सभी सुआदि का प्रसंग हो जाने पर—‘मिङैकार्थे वा:’ इस प्रकार एवं आदि लक्षण से ‘सु’ आदि का नियम किया जाता है। वैâसे ? देखिये, ‘मिङ्स्त्रिशोऽस्मद्’।१।२।१७९। सूत्र है—मिङ् के तीन भेद हैं, अस्मद्, युष्मद् और अन्य अर्थात् उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष। इनमें प्रत्येक के तीन—तीन भेद हैं–‘सुपश्च’ यह सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है—इसका अर्थ है सुप् में तीन—तीन के विभक्तियों में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन संज्ञक तीन—तीन भेद होते हैं।
सूत्रार्थ—‘भू’ आदि धातु वर्तमान ‘लकार’ मात्र में क्रम से ‘मिप् वस् मस्, सिप् थस् थ, तिप् तस् झि ये परस्मैपदी में आदेश होते हैं। पुनश्च ‘इट् वहि महि, थास् आथां ध्वं, त आतां झङ् ये आत्मनेपदी में आदेश होते हैं।।६४८।।
सूत्रार्थ—यहाँ ‘परस्मैपद’ को ‘म’ एवं ‘आत्मनेपद’ को ‘द’ संज्ञा है। मिङ् तीन-तीन वचन क्रम से होते हैं। ये अस्मद् युष्मद् और अन्य संज्ञक हैं। मिप् वस् मस् ये अस्मद् हैं। ‘सिप् थस् थ’ ये युष्मद् हैं और ‘तिप् तस् झि’ ये अन्य हैं ‘द’ अर्थात् आत्मनेपद में ‘इट् वहि महि’ ये अस्मद् हैं। थास् आथां ध्वं ये युष्मद् हैं और ‘त आतां झङ् ये अन्य हैं।।६५३।।
सूत्र—९५। सुम्मिङंतं पदं।१।२। सुबंतं मिङंतं च यच्छब्दरूपं तत्पदसंज्ञं भवति।
(९५) सुबंत और मिङंत को पद संज्ञा है।१।२।
सुप् हैं अंत में जिनके वे सुबंत कहलाते हैं, मिङ् हैं अंत में जिनके वे मिङ्ंत कहलाते हैं। इस प्रकार सुबंत और मिङ्ंत जो शब्दरूप हैं उनकी पद संज्ञा होती है।
जैनेंद्र व्याकरण के अनुसार ‘मिङन्त’ के उदाहरण देखिये—
(भू—सत्ता अर्थमें) परस्मैपद मेंआत्मनेपद में (एध् बढ़ना)
अन्यत्र व्याकरणों में ‘तिङन्त’ संज्ञा है। वहां भवति से बोलना होता है आत्मनेपदी में ‘एधते’ से पढ़ा जाता है।
आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज कहा करते थे कि देखिये—
जैन व्याकरण में श्री पूज्यपाद स्वामी ने सर्व अपने को लिया है पुन: तुम लोगों को लिया है अनंतर अन्य लोगों को लिया है। इसलिये हमें और आपको, सभी को सर्वप्रथम अपनी ओर लक्ष्य देना चाहिये, अपने को सुधारना चाहिये, पुनश्च आप लोगों को—भक्तों को, अनंतर अन्य जनता की ओर लक्ष्य देना चाहिये।
पहले आत्महित करना चाहिये, यदि शक्य है तो पर का हित भी करना चाहिये। आत्महित और परहित में आत्महित अच्छी तरह करना चाहिये। श्री पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में भी कहा है—
हे भव्यात्मन् ! तुम परोपकार को छोड़कर अपने उपकार में तत्पर होवो, देखो ! संसार में पर का उपकार करते हुये जो देखे जा रहे हैं वे अज्ञानी हैं। इत्यादि।
‘‘सरहीणं वा वंजणहीणं वा।’’ (कातंत्र व्याकरण के अनुसार) सूत्र—सिद्धो वर्णसमाम्नायः।।१।।
सिद्धः१ खलु वर्णानां समाम्नायो२ वेदितव्यः। ते के,-अ आ इ ई उ ऊ ऋ ý लृ ल¸ ए ऐ ओ औ। क ख ग घ ङ। च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न। प फ ब भ म। य र ल व। श ष स ह इति।
सूत्रार्थ—वर्णों का समुदाय अनादिकाल से सिद्ध है।।१।।
इन वर्णों के समूह को आज तक न किसी ने बनाया है और न कोई नष्ट ही कर सकते हैं, ये वर्ण अनादि निधन हैं। उनको जानना चाहिए। वे कौन हैं ? अ आ इ ई उ ऊ ऋ ý ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ। क ख ग घ ङ। च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न। प फ ब भ म। य र ल व। श ष स ह। ये सैंतालीस वर्ण कहलाते हैं।
सूत्र—तत्र चतुर्दशादौ ३स्वराः।।२।।
तस्मिन् वर्णसमाम्नाये आदौ ये चतुर्दश वर्णास्ते स्वरसंज्ञा भवन्ति। ते के, अ आ इ ई उ ऊ ऋ ý ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ इति।
सूत्रार्थ—इनमें आदि के चौदह अक्षर स्वर कहलाते हैं।।२।।
इन वर्णों के समुदायों में आदि के जो चौदह अक्षर हैं, वे स्वर संज्ञक हैं। वे कौन-कौन हैं ? अ आ इ ई उ ऊ ऋ ý ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ। ये चौदह स्वर हैं।
सूत्र—कादीनि व्यञ्जनानि१।।११।।
ककारादीनि हकारपर्य्यन्तान्यक्षराणि व्यञ्जनसंज्ञानि भवन्ति। क ख ग घ ङ । च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न । प फ ब भ म। य र ल व। श ष स ह२।।
सूत्रार्थ—‘क’ आदि वर्ण व्यंजन कहलाते हैं।।११।।
ककार से लेकर हकार पर्यंत अक्षर व्यंजन संज्ञक हैं। ये ३३ हैं।
क ख ग घ ङ। च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न । प फ ब भ म। य र ल व। श ष स ह।
सूत्र—ते वर्गाः पञ्च पञ्च पञ्च।।१२।।
ते ककारादयो मावसाना वर्णाः पञ्च पञ्च भूत्वा पञ्चैव वर्गसंज्ञा भवन्ति। क ख ग घ ङ। च छ ज झ ञ। ट ठ ड ढ ण। त थ द ध न । प फ ब भ म।।
सूत्रार्थ—उनमें पाँच-पाँच के पाँच वर्ग होते हैं।।१२।।
ये ककारादि से ‘म’ पर्यंत पाँच-पाँच वर्ण मिलकर पाँच ही वर्ग होते हैं। क ख ग घ ङ ये कवर्ग संज्ञक हैं। कवर्ग कहने से ये पाँचों ही अक्षर आ जाते हैं। उसी प्रकार से चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग होते हैं।
उष्ण धर्म को उत्पन्न करने वालों को ‘ऊष्म’ कहते हैं अर्थात् इनके उच्चारण काल में मुख से कुछ उष्ण वायु निकलती है।
सूत्र—अः इति विसर्जनीयः।।१८।।
येन विना यदुच्चारयितुं न शक्यते स उच्चारणार्थो भवति। अकार इहोच्चारणार्थः। यथा कादिषु। कुमारीस्तनयुगलाकृतिवर्णो विसर्जनीयसंज्ञो भवति।
सूत्रार्थ—‘‘अः’’ यह विसर्ग कहलाता है।।१८।।
जिसके बिना उच्चारण न किया जा सके वह उच्चारण के लिए होता है। यहाँ विसर्ग को बतलाने के लिए ‘अकार’ शब्द उच्चारण के लिए है। जैसे कः आदि में ‘क’ शब्द उच्चारण के लिए रहता है। यह विसर्ग सभी स्वर और व्यंजन में लगाया जाता है।
एक मात्रा ह्रस्व कहलाती है। (।), दो मात्रा को दीर्घ कहते हैं (ऽ), तीन मात्रा को प्लुत कहते हैं—संबोधन में प्लुत कहलाता है और व्यंजन को अर्धमात्रा कहते हैं।
छंदों में मात्रिक छंदों में मात्रायें ह्रस्व और दीर्घ गिनी जाती हैं। वर्णिक छंद में अक्षर गिने जाते हैं। जैसे कि—आर्याछंद मात्रिक है। इसमें प्रथम और तृतीय चरण में १२—१२ मात्रायें हैं और द्वितीय चरण में १८ मात्रायें तथा चतुर्थ चरण में १५ मात्रायें हैं।
उदाहरण—
आर्याछंद में मात्रायें
अर्हत्सिद्धाचार्यो— पाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्य:।
ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ । ऽ ऽ ऽ
(१२ मात्रायें हैं) (१८ मात्रायें हैं)
सर्वजगद्वन्द्येभ्यो, नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्य:।।४।।
ऽ ।। ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽऽ । ऽ ऽ ऽ
(१२ मात्रायें हैं) (१५ मात्रायें हैं)
अनुष्टुप् छंद वर्णिक छंद है। इसमें चारों चरण में ८—८ अक्षर गिने जाते हैं। जैसे कि—
अनुष्टुप् छंद में अक्षरों की गणना—
अर्हतां सर्वभावानां, दर्शनज्ञानसंपदाम्।
(८ अक्षर हैं) (८ अक्षर हैं)
कीर्तयिष्यामि चैत्यानि, यथाबुद्धि विशुद्धये।।१६।।
(८ अक्षर हैं) (८ अक्षर हैं।)
इन अक्षर, पद, व्यंजन से, अर्थ से व ग्रंथ से हीन पढ़ा हो या मात्रा से हीन पढ़ा हो, वह दोष मेरा मिथ्या होवे, ऐसा संबंध लगाना चाहिये।