हे भगवन् ! सूत्र (आगम) के मूलपदों की और उत्तर पदों की आसादना (अवहेलना) होने पर जो कोई दोष उत्पन्न हुआ है उस दोष के निराकरण करने की इच्छा करता हूँ। तद्यथा इसके द्वारा वही कहते हैं—
णमो अरहंताणं इत्यादि पंचनमस्कारपद, अर्हंतपद, सिद्धपद, आचार्यपद, उपाध्यायपद, साधुपद, चत्तारिमंगलं इत्यादि मंगलपद, चत्तारि लोगोत्तमा इत्यादि लोकोत्तमपद, चत्तारिसरणं पव्वज्जामि इत्यादि शरण पद, करेमि भंते! सामाइयं इत्यादि सामायिकपद, उसहमजियं च वंदे इत्यादि चतुर्विंशति तीर्थंकरपद सिद्धानुद्धूत इत्यादि और जयति भगवान् इत्यादि वन्दनापद, पडिक्कमामि भंते इत्यादि प्रतिक्रमणपद, भन्ते पच्चक्खामि इत्यादि प्रत्याख्यानपद, नवसंख्या प्रमाण पंचनमस्कार का उच्चारण, लक्षण तथा अठारह, सत्ताईस, छत्तीस, एक सौ आठ इत्यादि संख्या लक्षण कायोत्सर्गपद, असहिय, निसहिय पद, इन सब पदों में आसादना होने पर तथा आचारादि अंगपद, अंगों के अधिकारपद, संख्या आदि अंगांगपद, उत्पाद पूर्वादि, पूर्वांग वस्तुप्रभृति पूर्व पूर्वांग, प्रकीर्णक, प्राभृत, प्राभृतप्राभृत, पूर्वकृत षडावश्यकादि कर्म अथवा शुभ और अशुभ मन, वचन और काय के व्यापार अथवा तन्निबन्धन पुण्य पापकर्मरूप कृतकर्म भूत-
अविद्यमान और वर्तमान में उक्त षडावश्यक कर्म इन उक्त सब में उत्पन्न दोष का प्रतिक्रमण करने की इच्छा करता हूँ तथा ज्ञान की आसादना, दर्शन की आसादना, चारित्र की आसादना, तप की आसादना और वीर्य की आसादना सम्बन्धी दोष का प्रतिक्रमण करता हूँ। तथा अनेक तीर्थंकरों के गुणों का वर्णन करने वाले स्तवों में, एक तीर्थंकर के गुण वर्णन करने वाली स्तुतियों में, चरित—पुराण प्रतिबद्ध अर्थाख्यानों में, करणानुयोगादि अनियोगों में और कृतिवेदनादि चौबीस अनियोगद्वारों में अक्षरहीन, पदहीन, स्वरहीन, अर्थहीन और ग्रंथहीन दोष का प्रतिक्रमण करने की इच्छा करता हूँ। अर्हन्त, भगवान्, तीर्थंकर, त्रिलोकनाथ ने जो जीवादि पदार्थ आगम में प्रतिपादन किये हैं उनका श्रद्धान करता हूँ, प्राप्त करता हूँ, रुचि करता हूँ, विश्वास करता हूँ। उनका श्रद्धान करने वाले, प्राप्त करने वाले, रोचने वाले, विश्वास करने वाले जो मेरे दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरिक में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार आभोग, अनाभोग दोष लगा, अकाल में स्वाध्याय किया, स्वाध्याय काल में स्वाध्याय नहीं किया, सहसा किया, बिना विचारे जल्दी जल्दी उच्चारण किया, मिथ्या अविद्यमान के साथ मिलाया, अन्य अवयव को अन्य अययव के साथ जोड़कर पद्य उच्चध्वनियुक्त का नीच ध्वनि से और नीच ध्वनियुक्त पाठ का उच्चध्वनि से पढ़ा, अन्यथा कहा, अन्यथा ग्रहण किया यानि सुना, आवश्यकों में परिहीनता की इन सब दोषों से उत्पन्न मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे।१