जय जय श्री जिनदेव, विषय कषाय विजेता। जय जय तुम पद सेव, करते श्रुत के वेत्ता।। प्रभु तुमने छह द्रव्य, गुणपर्याय समेता। दिव्यज्ञान से देख, बतलाते शिवनेता।।१।।
जीव तत्त्व हैं तीन, भेद कहे शुभ कामा। बहिरातम अंतर आतम औ परमात्मामा।। प्रभु मैं दीन अनाथ, मैं दुखिया संसारी। जन्म मरण के दु:ख, मैं भरता अतिभारी।।२।।
मेरा होवे जन्म, मेरा ही मरणा हो। मुझ में इष्ट वियोग, आदिक दुख भरना हो।। मेरे धन जन मित्र, ये परिवार घनेरे। मैं इनका प्रतिपाल, ये सब हैं नित मेरे।।३।।
यह बहिरात्म स्वरूप, दर्शन मोह जनित है। इसके वश हे नाथ ! मैं दुख सहा अधिक है।। निश्चय से मैं एक, चिच्चैतन्य स्वरूपी। परमानंद स्वरूप, अविचल अमल अरूपी।।४।।
शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, सिद्धस्वरूप हमारा। कर्मकलंक विहीन, सकल जगत् से न्यारा। ये वर्णादिक रूप, पुद्गल के गुण मानें। रागादिक भी भाव, औपाधिक ही मानें।।५।।
क्षायोपशमिक सुज्ञान, वे भी कर्म जनित हैं। परम शुद्ध चिद्भाव, मेरा ज्ञान अमित है। मैं भगवान स्वरूप, जनम मरण विरहित हूँ। चिन्मय ज्योति स्वरूप, केवलज्ञान सहित हूँ।।६।।
टंकोत्कीर्ण सुएक, ज्ञायक भाव हमारा। सब प्रदेश में व्याप्त, सब कुछ जानन हारा।। यद्यपि मैं व्यवहार, नय से कर्म सहित हूँ। जनम मरण दुख पूर्ण, नाना व्याधि सहित हूँ।।७।।
फिर भी निश्चय नीति, तत्त्वस्वरूप प्रकाशे। नय व्यवहार सदैव, धर्म तीर्थ को भाषे।। दोनों नय सापेक्ष, वस्तु स्वरूप बतावें। सम्यग्दृष्टि जीव, द्वय नय आश्रय पावें।।८।।
अविरत सम्यग्दृष्टि, जघन्य अंतर आत्मा। पंचम से ग्यारंत, मध्यम अंतर आत्मा।। बारहवें गुणस्थान, मुनिवर क्षीणकषायी। उत्तम अंतर आत्म, जड़ से मोह नशायी।।९।।
श्री अर्हंत जिनेन्द्र, कहें सकल परमात्मा। नित्य निरंजन सिद्ध, रहें निकल परमात्मा।। इस विध जीव सुतत्त्व, बाकी पाँच अजीवा। पुद्गल धर्म अधर्म , नभ औ काल सदीवा।।१०।।
करिये कृपा जिनेन्द्र ! बहिरात्मत्व तजूँ मैं। अंतर आतम होय, पद परमात्म भजूं मैं। जब तक निजपद नािंह, तब तक भक्ति तुम्हारी। अचल रहे हे नाथ ! कभी न होऊं दुखारी।।११।।