सज्जाति, सदृगृहित्व, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, आर्हन्त्य और परिनिर्वाण ये सप्तपरमस्थान कहलाते है। इनमें से छठा आर्हन्त परमस्थान है। इसका लक्षण यह है कि स्वर्ग से अवतीर्ण हुए परमेष्ठी को जो पंचकल्याणक रूप सम्पदाओं की प्राप्ति होती है उसे ‘आर्हन्त्य’ क्रिया कहते हैं, यह आर्हन्त्य क्रिया तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली है।
भव्यपुरूष प्रथम ही योग्य जाति को पाकर सद्गृहस्थ होता है फिर गुरू की आज्ञा से उत्कृष्ट परिव्राज्य को प्राप्त कर स्वर्ग जाता है, वहाँ उसे इन्द्र की लक्ष्मी प्राप्त होती है तदनंतर वहाँ से च्युत होकर उत्कृष्ट महिमा का धारक अर्हन्त होता है और इसके बाद निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।