दिगंबर जैन संप्रदाय में पांच परमेष्ठी के अंतर्गत आचार्य, उपाध्याय और साधु इन परमेष्ठियों को दिगंबर मुनिमुद्रा का धारक ही माना है। इन दिगंबर मुनियों के दो भेद होते हैं ऐसा आगम में कथन है। यथा-
‘‘जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के जिनकल्प और स्थविरकल्प ऐसे दो भेद कहे हैं।’’
जो उत्तम संहननधारी हैं उनके जिनकल्प होता है। जो मुनि पैर में कांटा लग जाने पर या नेत्र में धूलि पड़ जाने पर स्वयं नहीं निकालते हैं, यदि कोई निकाल देता है तो मौन रहते हैंं। जलवर्षा हो जाने पर गमन रुक जाने से छह मास तक निराहार रहते हुये कायोत्सर्ग से स्थित हो जाते हैं। अशेष कषायों को छोड़ चुके हैं, मौनव्रती हैं और गिरि कंदराओं में निवास करने वाले हैं। जो बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह से रहित, स्नेह रहित, नि:स्पृही, यतिपति, जिन (तीर्थंकर) के समान विचरण करते हैं, वे ही श्रमण जिनकल्प में स्थित हैं अर्थात् जिनकल्पी होते हैं।
जिनेंद्रदेव ने अनगारों के लिये स्थविरकल्प भी बताया है। वह ऐसा है-पांच प्रकार के वस्त्रों का त्याग करना, अिंकचन वृत्ति धारण करना और प्रतिलेखन-पिच्छिका ग्रहण करना । पांच महाव्रत धारण करना, स्थितिभोजन और एकभक्त करना, भक्ति सहित श्रावक के द्वारा दिया गया आहार करपात्र में ग्रहण करना, याचना करके भिक्षा नहीं लेना । बारह प्रकार के तपश्चरण में उद्युक्त रहना, छह आवश्यक क्रियाओं को सतत पालना, भूमिशयन करना, शिर के केशों का लोच करना । जिनेन्द्रदेव की मुद्रा (नग्नमुद्रा) को धारण करना। संहनन के हीन होने की अपेक्षा से इस दु:षमाकाल में पुर, नगर और ग्राम में निवास करना । ऐसी चर्या करने वाले साधु स्थविरकल्प में स्थित हैं अर्थात् वे स्थविरकल्पी मुनि कहलाते हैं।
ये वही उपकरण रखते हैं कि जिससे चारित्र भंग न होवे, अपने योग्य पुस्तक को ही ग्रहण करते हैं। ये स्थविरकल्पी साधु समुदाय में संघ सहित विहार करते हैं। अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की प्रभावना करते हुये भव्यों को धर्मोपदेश सुनाते हैं और शिष्यों का संग्रह करके उनका पालन भी करते हैं। इस समय संहनन अतिहीन है, दु:षमकाल है और मन चंंचल है , फिर भी वे धीर वीर पुरुष ही हैं, जो कि महाव्रत के भार को धारण करने में उत्साही हैं। पूर्व में-चतुर्थकाल में जिस शरीर से एक हजार वर्ष में जितने कर्मों की निर्जरा की जाती थी, इस समय हीन संहनन वाले शरीर से एक वर्ष में ही उतने कर्मों की निर्जरा हो जाती है१।
यही बात भद्रबाहु चरित२में भी वर्णित है।
इस प्रकरण से यह स्पष्ट है कि उत्तम संहननधारी मुनि ही जिनकल्पी होते हैं और इस पंंचमकाल में उत्तम संहनन का अभाव है, तीन हीन संहनन ही होते हैं अत: आज के युग में जिनकल्पी मुनि न होकर स्थविरकल्पी मुनि ही होते हैं। श्री कुंदकुंददेव आदि महामुनि भी जिनकल्पी नहीं थे, चूंकि न इनके उत्तम संहनन ही था, न ये ग्यारह अंगों, चौदह पूर्वों के ज्ञाता ही थे, न ये छह-छह मास तक कायोत्सर्ग में स्थित रह सकते थे, न ये सदा मौनव्रती ही रहते थे और न ये सदा गिरि,गुफा, पर्वतों पर ही रहते थे क्योंकि इस स्थिति में ग्रंथों के लेखन आदि का कार्य और संघ संचालन आदि का कार्य संभव नहीं हो सकता था।
इससे एक बात यह भी स्पष्ट हो जाती है कि संघ के अधिपति आचार्य संघ में शिष्यों का संग्रह करते हैं और उनका पोषण आदि करते हैं, उन्हें शिक्षा, दीक्षा, प्रायश्चित आदि देते हैं तथा संघ में रहने वाले उपाध्याय उन शिष्यों को पढ़ाते हैं। वे भी जिनकल्प में स्थित नहीं हैं। प्रकारांतर से आत्मसाधना में तत्पर महातपस्वी साधु ही जिनकल्प में स्थित होने के अधिकारी हैं, क्योंकि श्रीकुंदकुंद ने आचार्यों के लिये आदेश दिया है-
‘‘दर्शन ज्ञान का उपदेश करना, शिष्यों का संग्रह और उनका पोषण करना एवं जिनेंद्रदेव की पूजा का उपदेश देना यह सब सरागी मुनियों की चर्या है१।’’ जो कि निंद्य-वर्ज्य नहीं है।
इस प्रकार से आज इस युग में स्थविरकल्पी मुनि होते हैं और वे भावलिंगी होते हैं तथा पंचमकाल के अंत तक होते रहेंगे यह बात श्रीकुंदकुंददेव और यतिवृषभाचार्य आदिकों ने स्पष्ट कही है-
‘‘इस भरतक्षेत्र में दु:षमकाल में मुनि को आत्मस्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है किंतु जो ऐसा नहीं मानता है वह अज्ञानी है। आज भी इस पंचमकाल में रत्नत्रय से शुद्ध आत्मा (मुनि) अपनी आत्मा का ध्यान करके इंद्रपद और लौकांतिक पद को प्राप्त कर लेते हैं
और वहाँ से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं२।’’
श्री पद्मनंदि आचार्य भी इसी बात को कहते हैं-‘‘इस समय भरतक्षेत्र में त्रैलोक्य चूड़ामणि केवली भगवान नहीं हैं। फिर भी लोक को प्रकाशित करने वाले उनके वचन तो यहाँ विद्यमान हैं और उनके वचनों का अवलंबन लेने वाले रत्नत्रयधारी श्रेष्ठ यतिगण भी मौजूद है इसलिये उन मुनियों की पूजा जिनवचनों की पूजा है और जिनवचन की पूजा से साक्षात् जिनदेव की ही पूजा की गई है ऐसा समझना३।’’
श्री गुणभद्रस्वामी कहते हैं-
‘जो स्वयं मोह को छोड़कर कुलपर्वत के समान पृथ्वी का उद्धार अथवा पोषण करने वाले हैं, जो समुद्रों के समान स्वयं धन की इच्छा से रहित होकर रत्नों की निधि-खान अर्थात् स्वामी हैं तथा जो आकाश के समान व्यापक होने से किन्हीं के द्वारा स्पर्शित न होकर विश्व की विश्रांति के लिये हैं, ऐसे अपूर्व गुणों के धारक चिरंतन महामुनियों के शिष्य और सन्मार्ग में तत्पर कितने ही साधु आज भी विद्यमान हैं।१’
पुष्पदंत-भूतबलि आचार्य के समकक्ष महान् प्रामाणिक श्री यतिवृषभ आचार्य कहते हैं।
‘‘पुष्पदंतनाथ से लेकर धर्मनाथ पर्यंत सात तीर्थों में उस धर्म की व्युच्छित्ति हुई थी और शेष सोलह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परंपरा निरंतर बनी रही है अर्थात् वृषभनाथ से लेकर पुष्पदंतनाथ पर्यंत धर्मपरंपरा अविच्छिन्नरूप से चलती रही है पुन: पुष्पदंत के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है। अनंतर जब शीतलनाथ हुये तब धर्मतीर्थ चला, उनके तीर्थ में भी अंत में अर्द्धपल्य तक धर्म का अभाव रहा है। ऐसे ही श्रेयांसनाथ के तीर्थ में पौन पल्य, वासुपूज्य के तीर्थ में एक पल्य, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्य, अनंतनाथ के तीर्थ में अर्द्धपल्य और धर्मनाथ के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है। हुंडावसर्पिणी के दोष से यहाँ सात धर्म के विच्छेद हुये हैं उस समय दीक्षा लेने के अभिमुख होने वालों का अभाव होने पर धर्मरूपी सूर्यदेव अस्तमित हो गया था अर्थात् इन सात तीर्थों के अंतराल में दीक्षा लेने वाला कोई भी नहीं रहा है, उसी का नाम है धर्म का अभाव। शेष शांतिनाथ से लेकर वर्धमान पर्यंत तीर्थंकरों के तीर्थ में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति अविच्छिन्न चलती रही है।
वर्धमान भगवान के तीर्थ में गौतमस्वामी से लेकर अंगपूर्व के एकदेश के जानने वाले मुनियों की परंपरा के काल का प्रमाण छह सौ तिरासी (६८३) वर्ष होता है। उसके बाद-
जो श्रुततीर्थ धर्मप्रवर्तन का कारण है वह बीस हजार तीन सौ सत्रह वर्षों में कालदोष से विच्छेद को प्राप्त हो जायेगा अर्थात् ६८३+२०३१७=२१००० इक्कीस हजार वर्ष का यह पंचमकाल है तब तक यह धर्मतीर्थ चलता रहेगा, अंत में व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा।
इतने पूरे समय तक चातुर्वर्ण्य संघ जन्म लेता रहेगा किंतु लोग प्राय: अविनीत, दुर्बुद्धि, असूयक, सात भय और आठ मदों से संयुक्त, शल्य एवं गारवों से सहित, कलहप्रिय,रागिष्ठ,व्रâूर एवं क्रोधी होंगे२।’’
‘‘इस पंचमकाल के अंत में इक्कीसवां कल्की होगा। उसके समय में वीरांगज मुनि,सर्वश्री आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका ये चतुर्विध संघ रहेंगे। एक दिन कल्की की आज्ञा से मंत्री द्वारा मुनि के प्रथम ग्रास को शुल्क रूप से मांगे जाने पर मुनि अंतराय करके वापस आ जायेंगे। उसी समय वे अवधिज्ञान को प्राप्त कर ‘‘दु:षमकाल का अंत आ गया है’’, ऐसा जानकर प्रसन्नचित्त होते हुये आर्यिका और श्रावक युगल को बुलाकर चारों जन चतुराहार का त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लेंगे और तीन दिन बाद कार्तिक कृष्णा अमावस्या के स्वाति नक्षत्र में शरीर को छोड़कर देवपद प्राप्त करेंगे। उसी दिन मध्यान्ह में क्रोध को प्राप्त हुआ कोई असुरकुमार देव राजा को मार डालेगा और सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जावेगी। इसके पश्चात् तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम छठा काल प्रवेश करेगा३।’’
इन तिलोयपण्णत्ति की पंक्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री गौतमस्वामी से लेकर आज तक और आज से लेकर अंतिम होने वाले वीरांगज मुनि तक यह परंपरा अक्षुण्ण रीति से चलती ही रहेगी अत: यदि कोई कहे कि आज के युग में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा में होने वाले या उनसे पहले कोई मुनि सच्चे भावलिंगी नहीं थे सो यह बात आगम से बाधित है।
इन सभी प्रमाणों के देखने से यह निश्चित हो जाता है कि आज के युग में जो भी मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि त्यागीवर्ग दिख रहे हैं। वे सभी द्रव्यलिंगी और मिथ्यादृष्टि नहीं हैं। हाँ, उनमें से कोई द्रव्यलिंगी हों भी, तो उसका निर्णय सर्वज्ञदेव के सिवाय हम और आप के द्वारा संभव नहीं है। प्रत्युत अधिक संख्या में साधु, साध्वी निर्दोषचर्या को पालने वाले हैं और आगे भी होते रहेंगे अत: आगमरूपी दर्पण में इन सभी बातों को देखकर अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखते हुये मुनिपरंपरा की रक्षा में और वृद्धि में अपना सर्वस्व लगा देना चाहिये ।