ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम गोत्र और अंतराय ये आठ कर्म है। जो जीव को उस-उस स्थान में – पर्याय में रोके रखे उसे आयु कर्म कहते है। जैसे सांकल अथवा काठ का यंत्र।
तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में आयु कर्म के चार भेद बताए है- नारकतैर्यग्योन मानुष देवानि। नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । जो आत्मा को नरक शरीर में रोके रखे वह नरकायु है। जो आत्मा को तिर्यंच पर्याय में रोक रखे वह तिर्यंचआयु है। जो आत्मा को मनुष्य शरीर में रोक रखे वह मनुष्यायाु और जो आत्मा को देव शरीर में रोके रखे वह देवायु है।
यह नियम है आयु का बंध होने के बाद छूटता नहीं हाँ । कग हो सकता है। जैसे राजा श्रेणिक ने मुनि के गले में मरासर्प डालकर सप्तम नरक ही आयु का बंध कर लिया था। फिर भी भगवान महावीर ने समवसरण मे अनेक प्रश्न पूछकर एवं पश्चाताप करके उन्होनें नरकायु को घटा-घटा कर पहले नरक की कर ली । आयु प्राण का भी एक भेद है। प्राण दस होते है- ५ इन्द्रिय-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ३ बल- मनबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास । एकेन्द्रिय से लेकर पच्चेन्द्रिय तक सभी जीवों में आयु प्राण अवश्य पाया जाता हैै