जो रत्नत्रय को धारण करने वाले नग्न दिगंबर मुनि हैं वे गुरु कहलाते हैं। इनके आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीन भेद माने हैं। ये तीनों प्रकार के गुरु अट्ठाईस मूलगुण के धारक होते हैं। उनको बताते हैं-
वदसमिदिंदियरोधो लोचो आवासयमचेलमण्हाणं।
खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च।।
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।
एत्थ पमादकदादो अइचारादो णियत्थो हं,
छेदोवट्ठावणं होदु मज्झं।।
पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रिय निरोध, लोच, छह आवश्यक क्रिया, अचेल-वस्त्र का त्याग, अस्नान, पृथ्वी पर सोना-घास,चटाई पाटा या जमीन पर सोना, दंतधावन नहीं करना, स्थितिभोजन-खड़े होकर भोजन करना, एकभक्त-दिन में एक बार भोजन करना, ये अट्ठाईस मूलगुण हैं। जिनेन्द्रदेव ने श्रमणों के लिये इनका प्रतिपादन किया है।
इनमें से आचार्य के इन मूलगुणों के साथ-साथ छत्तीस मूलगुण और होते हैं। जो ये हैं-
द्वादश तप दश धर्मयुत, पालें पंचाचार।
षट् आवश्यक गुप्ति त्रय, आचारज गुणसार।।
२ तप, १० धर्म, ५आचार, ६ आवश्यक और तीन गुप्ति ये छत्तीस मूलगुण हैं।
अनगार धर्मामृत में अन्य प्रकार से ३६ मूलगुण कहे हैं-
आचारवत्त्व आदि ८, तप १२, स्थितिकल्प १० और आवश्यक ६ ये छत्तीस गुण आचार्य के होते हैं।
उपाध्याय के २५ गुण होते हैं जो कि ११ अंग और १४ पूर्वरूप से ज्ञानस्वरूप माने गये हैं।
युग की आदि में भगवान आदिनाथ से लेकर आज तक मुनियों की चर्या अट्ठाईस मूलगुणरूप से चली आ रही है और पंचमकाल के अंत तक चलती रहेगी । पहले भी दिगंबर मुनि दो महीने से चार महीन तक में केशलोंच करते थे, आज भी ऐसे ही केशलोच करते हैं। पहले भी मुनि दिन में एक बार खड़े होकर करपात्र में आहार में लेते थे, आज भी वही चर्या है। पहले भी मुनि स्नान नहीं करते थे, वस्त्र नहीं पहनते थे आज भी हीन संहनन में भी मुनि स्नान नहीं करते हैं, वस्त्र नहीं पहनते हैं इत्यादि ।
चतुर्विध संघ के अधिनायक आचार्य कहलाते हैं, उनका संक्षिप्त लक्षण बतलाते हुए श्री कुंदकुंददेव कहते हैं-
संग्गहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारओ पहियकित्ती।
किरिआचरणसुजुत्तो गाहुय आदज्जवयणो य ।।५८।।
गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मपहावणासीलो ।
खिदिससिसायरसरिसो कमेण ते सो दु संपत्तो।।५९।।
वे आचार्य संग्रह और अनुग्रह में कुशल, सूत्र के अर्थ में विशारद, कीर्ति से प्रसिद्धि को प्राप्त, चारित्र में तत्पर और ग्रहण करने योग्य एवं उपादेय वचन को बोलने वाले होते हैं। जो गंभीर हैं, दुर्धर्ष हैं, शूर हैं और धर्म की प्रभावना करने वाले हैं, भूमि, चन्द्रमा एवं समुद्र के गुणों के सदृश हैं, इन गुण विशिष्ट आचार्य पद को मुनि प्राप्त करते हैं। शिष्यों को दीक्षा आदि देकर अपना बनाना संग्रह है और ऐसे ही शिष्यों को शास्त्रादि पढ़ाकर उन्हें संस्कारित करना अनुग्रह है। इन संग्रह और अनुग्रह कार्य में कुशल आचार्य परमेष्ठी ‘‘संग्रहानुग्रहकुशल’’ कहलाते हैं। जो सूत्र और अर्थ में विशारद हैं, सूत्रों का, उनके अर्थ का विस्तार से प्रतिपादन करने वाले हैं वे सूत्रार्थविशारद कहलाते हैं। जिनका सुयश सर्वत्र पैâल रहा है। जो पांच परमेष्ठियों को नमस्कार, षट्आवश्यक क्रिया, आसिका और निषेधिका इन तेरह प्रकार की क्रियाओं में तथा पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र में सम्यक् प्रकार से लगे हुए हैं, आसक्त हैं। जिनके वचन ग्राह्य और आदेय हैं अर्थात् जिनके वचनों को सर्वजन प्रेम से ग्रहण करते हैंंं ‘‘जो कुछ गुरु ने कहा है यह ऐसा ही है,’’ इस प्रकार से उनके वचनों को ग्रहण करना ग्राह्य है और आदेय-प्रमाणीभूत वचन आदेय या उपादेय हैं। इन सर्व गुणों से सहित ही आचार्य परमेष्ठी होते हैं।
जो क्षुभित नहीं होने से अक्षोभ्य हैं और गुणों से अगाध हैं वे गंभीर कहलाते हैं। जिनका प्रवादियों के द्वारा तिरस्कार नहीं किया जा सकता है वे दुर्धर्ष कहलाते हैं। शौर्य गुण से सहित अर्थात् समर्थ को शूर कहते हैं। जो गंभीर हैं, प्रवादियों से अजेय हैं, समर्थ हैं और धर्म की प्रभावना करने वाले हैं। जो क्षमागुण में पृथ्वी के सदृश हैं, सौम्यगुण में चंद्रमा के सदृश हैं, निर्मलता गुण में समुद्र के समान हैं। इन गुण विशिष्ट आचार्य का मुनि आश्रय लेते हैं।
भव्य: किं कुशलं ममेति विमृशन् दु:खाद्भृशं भीतिमान् ।
सौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभव: श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् ।।
धर्मं शर्मकरं दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितम् ।
गृण्हन् धर्मकथां श्रुतावधिकृत: शास्यो निरस्ताग्रह: ।।७।।
जो भव्य है ‘‘मेरा हित किसमें है ? ऐसा विचार करने वाला है, दु:ख से अतिशय भयभीत है, सुख का इच्छुक है, उपदेश को सुनने, धारण करने आदि बुद्धि के वैभव को धारण करने वाला है, गुरु के उपदेश को सुनकर अच्छी तरह विचार करके धर्म को ग्रहण करने वाला है। धर्म सुख को करने वाला है, दया आदि गुणों से सहित है, युक्ति और आगम से स्थित है, ऐसे धर्म को और धर्म कथाओं को सुनने का अधिकारी, दुराग्रह से रहित और अनुशासन के योग्य व्यक्ति ही शिष्य होता हैै।
ऐसा शिष्य गुरु के पास इच्छाकार, मिथ्याकार आदि सामाचारी विधि में कुशल होता है। इन सामाचारी विधि में एक गुण है ‘‘उपसंपत्’। उसका लक्षण बताते हैं-
‘‘तुम्हमहंति गुरुकुले आदणिसग्गो दुउवसंगा।
गुरुकुल अर्थात् गुरुओं के आम्नाय में- संघ में, गुरुओं के विशाल पादमूल में ‘‘मैं आपका हूँ।’’ इस प्रकार से आत्मस्ामर्पण कर देना, उनके अनुकूल ही सारी प्रवृत्ति करना यह उपसंपत् है। गाथा में ‘‘तु’’ शब्द अत्यर्थ का वाचक है अर्थात् अतिशय रूप से गुरु को अपना जीवन समर्पित कर देना, यह उपसंपत् नाम का एक गुण है।
आचार्यश्री के संघ में ये शिष्यवर्ग मुनि, आर्यिका और श्रावक,श्राविका रूप चतुर्विध संघ के नाम से रहते हैं। इन शिष्यों में से ही आगे की आचार्य परंपरा और आर्यिकाओं में से गणिनी परंपरा चलती है। जो बड़े मुनि सर्वगुण योग्य होते हैं वे आचार्य के पद पर आचार्य बनते हैं और जो आर्यिका प्रधान-गुणों में योग्य होती हैं वे ही ‘‘गणिनी’’ बनाई जाती हैं, जो आर्यिकाओं का अनुशासन करते हुये ब्राह्मी-सुंदरी,चंदना आदि आर्यिका की परंपरा को अक्षुण्ण बनाती हैं।
मूलाचार ग्रंथ में विनय तप का वर्णन करते हुये पांचवें औपचारिक विनय के तीन भेद किये हैं- कायिक,वाचिक एवं मानसिक। इन तीनों के भी प्रत्यक्ष और परोक्ष की अपेक्षा दो-दो भेद हैं। जब गुरु अपने प्रत्यक्ष में हैं-शिष्य उनके संघ में रहते हैं तब उनकी मन, वचन, काय से शास्त्रविहित विनय करना प्रत्यक्ष विनय है और जब गुरु चक्षु आदि से दूर हैं तब उनकी जो विनय भक्ति की जाती है वह परोक्ष विनय है।
दिगंबर मुनि आचार्यदेव को या अपने से बड़े मुनियों को सामने देखकर, उठकर खड़े होना, भक्ति पाठपूर्वक उनकी वंदना करना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना, आते हुये के सामने जाना और प्रस्थान करते हुए के पीछे चलना, गुरुओं से नीचे या बाईं तरफ खड़े होना, पीछे चलना, नीचे बैठना, नीचे स्थान में शयन करना, गुरु को आसन देना, उन्हें पुस्तक, कमंडलु आदि देना, उन्हें वसतिका आदि प्रासुक स्थान में ठहरने के लिये निवेदन करना। गुरु के अनुरूप उनके अंग का मर्दन आदि करना, उनके अनुरूप क्रिया करना, गुरु के आदेश का पालन करना, गुरु का पाटा, घास, चटाई आदि लगाना, उनके उपकरणों को पिच्छिका से परिमार्जन कर उन्हें देना, इसी प्रकार अन्य और भी जो उपकार गुरू या साधुवर्ग का शरीर के द्वारा यथायोग्य किया जाता है वह सब कायिक विनय है।
गुरु के प्रति पूजा के वचन, हित, मित वचन, मधुरवचन, सूत्रों के अनुकूल वचन, अनिष्ठुर और कर्कशता रहित वचन बोलना वाचिक विनय है। इसी प्रकार कषाय रहित वचन, गृहस्थी के संबंध से रहित वचन, क्रिया रहित, कृषि आदि से रहित और अवहेलना रहित वचन बोलना आदि सब वाचिक विनय है।
हे भट्टारक! या हे भगवन्! हे गुरुवर्य! इत्यादि प्रकार से उच्चारण कर उनके प्रति भक्ति दिखाना, पूजा वचन हैं। उनके समक्ष भक्ति, स्तुति के पाठ द्वारा स्तवन करना भी पूजा वचन हैं। गुरु के निकट व्यंग्य वचन, गुरू के तिरस्कारसूचक वचन आदि न बोलना यह सब वाचिक विनय है।
हिंसादि पाप और सम्यक्त्व की विराधना आदि परिणामों का त्याग करना। गुरुजनों के प्रति मन में अरुचि, अश्रद्धा, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, मान, माया आदि के भाव नहीं रखना। शुद्ध मन से अनुकूल भाव, भक्ति भाव रखना यह सब मानसिक विनय है।
जो दीक्षा गुरु हैं, शिक्षा गुरु हैं, शास्त्र में अधिक ज्ञानी श्रुतगुरु हैं, तप गुरु हैं और एकरात्रि या एक क्षण भी अपने से दीक्षा में बड़े हैं, ये सब गुरु कहलाते हैं। इन सबकी यथायोग्य विनय करना चाहिये।
विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा।
विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं ।।३८५।।
विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं ।
विणएणाराहिज्जदि आइरिओ सव्व संघो य ।।३८६।।
विनय से रहित साधु की संपूर्ण शिक्षा निरर्थक है। विद्या अध्ययन का फल विनय है और अभ्युदय तथा नि:श्रेयस मोक्षरूप सर्वकल्याण को प्राप्त कर लेना विनय का फल है अथवा स्वर्गावतरण,जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाण इन पांच कल्याणकों की प्राप्ति होना भी विनय का फल है। यह विनय ही मोक्ष का द्वार है। इस विनय से ही संयम, तप और ज्ञान होता है। विनय से ही आचार्य और सर्वसंघ आराधित किये जाते हैं अर्थात् विनम्र प्रवृत्ति से आचार्य और अन्य साधुगण अपने ऊपर अनुग्रह करने वाले हो जाते हैं।
कित्ती मित्ती माणस्स भंजणं गुरुजणे य बहुमाणं।
तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा।।३८८।।
विनय से ही सर्वव्यापी प्रताप और ख्याति रूप कीर्ति होती है। सभी के साथ मित्रता होती है, गर्व का मर्दन होता है, गुरुजनों की अनुमोदना की जाती है, ये सब विनय के गुण हैं। तात्पर्य यह है कि विनय करने वाले मुनि कीर्ति को प्राप्त होते हैं, उनके प्रति सबको मैत्री भाव होता है। वे अपने मान का अभाव करते हैं, गुरुजनों से बहुमान पाते हैं, विनयी मुनि तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा का पालन करते हैं और सर्व गुणों को अपने में विकसित कर लेते हैं।
इस प्रकार जो मुनि आदि शिष्यगण गुरु के प्रति विनयी होते हैं, अपने पद के अनुरूप मूलगुणों का पालन करते हैं। परस्पर में सहधर्मी साधुवर्गों में वात्सल्य भाव रखते हैं। गुरुपरंपरा को अक्षुण्ण बनाने में प्रयत्नशील रहते हैं वे ही आचार्यवर्य के स्थान को प्राप्त करने के लिये पात्र होते हैं।
इससे विपरीत जो शिष्य गुरु की आज्ञा को पूर्णतया नहीं पालते हैं। आपस में साधुवर्गों में ईर्ष्या करते हैं या असूया, मत्सर आदि दुर्गुणों के वशीभूत हो उनका अपनाम कर देते हैं। असूया का लक्षण है ‘‘दोषारोपो गुणेष्वपि’’ अन्य के गुणों में दोषों का आरोप करना असूया है और अन्य के गुणों को न सहन कर सकना ईर्ष्या है। इसी प्रकार संघ के साधुओं के छिद्रों का अन्वेषण करने वाले, उसे जन-जन में प्रकाशित करने वाले शिष्य भी कुशिष्य कहलाते हैं। इनसे मोक्षमार्ग की परंपरा नहीं चल सकती है।
िंकतु जो शिष्य दुर्जनों के कटु शब्दों को भी सहन कर अपना धैर्य बनाये रखते हैं, क्षमा गुण के भंडार होते हैं, किसी के दोषों को बाहर में न प्रगट कर उपगूहन, स्थितिकरण आदि अंगों का पालन करते हैं। जिनके लिये-
‘‘खलजनजनिता वाक्पथा: कर्णपूरा:’’ इस सूक्ति के अनुसार दुर्जनों के कटु आरोप आदि के वचन कानों के आभूषण के सदृश हो जाते हैं ऐसे महासाधु ही मोक्षमार्ग की परंपरा को चलाने के लिये पात्र माने गये हैं।
इन दिगंबर मुनियों की परंपरा अनादि अनिधन होते हुये भी इस भरतक्षेत्र की अपेक्षा भगवान आदिनाथ से प्रारम्भ होकर पंचमकाल के अंत तक मुनि वीरांगज तक चलती रहेगी । तभी तक चतुर्विध संघ रहेगा और जैनधर्म भी अक्षुण्ण रहेगा। यह दृढ़ विश्वास कर आज के आचार्यों व चतुर्विध संघों के प्रति भक्ति, वात्सल्य,विनय आदि करते हुये मोक्षमार्ग में चलते रहने का उत्तम पुरुषार्थ करना चाहिये।