दिगम्बर जैन परम्परा में चतुर्विध संघ होता है जिसमें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका होते हैं। मुनि के समान ही आर्यिकाओं के भी अट्ठाईस मूल गुण होते है। सभी चर्या मुनि के समान है मात्र इतना अंतर है कि आर्यिकायें २ साड़ी मात्र परिग्रह रखती है और बैठकर आहार ग्रहण करती है। तो भी यह इनका मूलगुण ही है। आर्यिकाएं उपचार से महाव्रती कही जाती है। इनके पंचम गुणस्थान होता है । समय रूप छठा गुणस्थान नहीं होता है। फिर भी ऐलक की अपेक्षा श्रेष्ठ है। एक लंगोटी मात्र धारी ऐलक द्वारा भी वंदनीय है। क्योंकि ऐलक लंगोटी छोड़ सकात है। सागार धर्मामृत में कहा भी है-‘‘ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोटी में ममत्व सहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य नहीं है, किन्तु आर्यिका एक साड़ी मात्र धारण करने पर भी ममत्व रहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य है।’’
जिस प्रकार मुनियों में प्रमुख आचार्य होते है, उसी प्रकार आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनी होती है।