आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती रचित द्रव्यसंग्रह ग्रंथ में ध्यान का वर्णन निम्न प्रकार से आया है-
जो निश्चय औ व्यवहार रूप, निश्चित ही पा लेते उनको।।
अतएव प्रयत्न सभी करके, तुम ध्यानाभ्यास करो नित ही।
सम्यक् विधि पूर्वक बार-बार, अभ्यास सफल होता सच ही।।
मुनिराज निश्चित ही ध्यान के द्वारा व्यवहार और निश्चय इन दोनों प्रकार के मोक्ष के कारण को प्राप्त कर लेते हैं इसलिए हे भव्य! तुम भी प्रयत्नपूर्वक चित्त को एकाग्र करके उस ध्यान का अभ्यास करो।
निश्चयरत्नत्रय ही निश्चयमोक्षमार्ग है और व्यवहाररत्नत्रय व्यवहारमोक्षमार्ग है। इनमें निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है। साधन से ही साध्य की सिद्धि होती है, इस नियम के अनुसार मुनिराज व्यवहार रत्नत्रय के द्वारा निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त करते हैं। इन दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग को ध्यान के बल पर ही प्राप्त किया जाता है इसलिए यहाँ आचार्यदेव ने ध्यान के लिए प्रेरणा दी है।
सब इष्ट अनिष्ट पदार्थों में, मत मोह करो मत राग करो।
मत द्वेष करो इन तीनों का, जैसे होवे परिहार करो।।
इस विध के ध्यान सुसाधन के, हेतू यदि तुम अपने मन को।
स्थिर करना चाहो तो तुम, बस सब विभाव से दूर हटो।।
यदि तुम अनेक प्रकार का ध्यान सिद्ध करने के लिए मन को स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह मत करो, राग मत करो और द्वेष मत करो।
माता, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, मकान, चंदन, तांबूल, वस्त्र, आभूषण आदि पाँचों इन्द्रियों के लिए रुचिकर सामग्री इष्ट विषय है। इनसे विपरीत सर्प, विष, कांटा, शत्रु, रोग आदि अप्रिय वस्तुएँ अनिष्ट हैं।
मोह, राग और द्वेष इन इष्ट-अनिष्ट विषयों में ही होता है। इनके छोड़े बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि ये सब वस्तुएँ और मोहादि आकुलता को उत्पन्न करते रहते हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के इच्छुक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मन की एकाग्रता के लिए इन विषयों का त्याग कर देवे।
ध्यान के चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इन चारों के भी चार-चार भेद हैं।
इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, वेदना और निदान।
अपने इष्ट का वियोग हो जाने पर बार-बार उसके प्राप्त होने की चिंता करना इष्टवियोगज आर्तध्यान है।
अनिष्ट का संयोग हो जाने पर, यह मेरे से वैâसे दूर हो ? ऐसा बार-बार सोचते रहना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है। रोग आदि के हो जाने पर, यह वैâसे मिटे ? ऐसा चिंतन करते रहना वेदनाजन्य आर्तध्यान है। आगामी काल में भोगों की वांछा करना निदान आर्तध्यान है। ये चारों आर्तध्यान तरतमता से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों तक पाए जाते हैं। इनमें निदान आर्तध्यान मुनियों के नहीं होता है। यद्यपि ये दुर्ध्यान हैं और मिथ्यादृष्टि आदि जीवों को तिर्यंचगति में ले जाने वाले हैं फिर भी सम्यग्दृष्टि, देशव्रती अथवा महाव्रती मनुष्य अपनी शुद्ध आत्मा को ही उपादेय मानते हैं इसलिए विशेष भावना के बल से उनके परिणामों में तिर्यंचगति के लिए कारण ऐसा संक्लेश नहीं होता है।
हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और विषयसंरक्षणानन्द।
हिंसा करने में आनन्द मानना हिंसानंद है। झूठ बोलने में आनंद मानना मृषानन्द है। चोरी करने में आनंद मानना चौर्यानंद है और पंचेन्द्रियों के विषयों के संरक्षण में आनंद मानना विषयसंरक्षणानंद है। इसे परिग्रहानंद रौद्रध्यान भी कहते हैं।
यह तरतमता से पहले गुणस्थान से लेकर पाँचवें गुणस्थान तक जीवों के होता है। यह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीवों के नरकगति का कारण है तो भी जिस सम्यग्दृष्टि ने नरक आयु बांध ली है उसके सिवाय अन्य सम्यग्दृष्टियों के नरकगति का कारण नहीं होता, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के देवायु के सिवाय अन्य आयु का बंध नहीं होता यह नियम है और इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि निज शुद्ध आत्मा को ही उपादेय मानता है अत: उसके नरकगति या तिर्यंचगति के लिए कारणभूत ऐसे तीव्र संक्लेश परिणाम नहीं हो सकते हैं।
यह दोनों ध्यान अप्रशस्त कहलाते हैं। इन्हें संसार का हेतु ही कहा है अत: इन दुर्ध्यानों से बचने के लिए धर्मध्यान का अवलम्बन लेना चाहिए।
आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। यह ध्यान तरतमता से असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत श्रावक, प्रमत्तसंयत मुनि और अप्रमत्तसंयत मुनि तक इन चार गुणस्थानों में होता है। यह मुख्यरूप से पुण्यबंध का कारण होते हुए भी परम्परा से मुक्ति का कारण है।
अब क्रम से इन चारों का लक्षण देखिए-
स्वयं की बुद्धि मंद है और विशेष उपाध्याय गुरु मिल नहीं रहे हैं, ऐसे समय यदि कदाचित् जीव आदि पदार्थों में या अन्य किसी भी विषय में सूक्ष्मता होने से समझ में नहीं आ रहा है, तब यह सोचना कि ‘जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये वाक्य-तत्व सूक्ष्म हैं, उनका किसी हेतु आदि के द्वारा खण्डन नहीं हो सकता है, इसलिए उनकी आज्ञा को प्रमाण मानकर इन पर श्रद्धान करना है क्योंकि ‘नान्यथावादिनो जिना:’’ जिनेन्द्र भगवान असत्यवादी नहीं हैं।’ ऐसा चिंतवन करके जिनेन्द्रदेव की आज्ञा को प्रमाण मानकर प्रवृत्ति करना आज्ञाविचय नाम का धर्मध्यान है।
भेद-अभेद रत्नत्रय की भावना से हमारे अथवा अन्य जीवों के कर्मों का नाश कब होगा ? ऐसा बार-बार सोचना अपायविचय धर्मध्यान है।
यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से यह जीव शुभ -अशुभ कर्म के विपाक फल से रहित है फिर भी अनादिकालीन कर्मबंध के निमित्त से पाप के उदय से अनेक दु:खों को भोग रहा है और पुण्य के उदय से देवादि के सुखों का अनुभव करता रहता है। इस प्रकार कर्मों के उदय-फल, बंध, सत्व आदि का बार-बार चिंतवन करना विपाकविचय धर्मध्यान है।
लोक के आकार का, उसके ऊर्ध्व, मध्य, अधोलोक आदि के विस्तार का, जंबूद्वीप, धातकी खण्ड आदि के स्वरूप का बार-बार चिंतन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है।
सातवें गुणस्थान में निर्विकल्प ध्यान में भी यह धर्मध्यान ही होता है न कि शुक्लध्यान। इस ध्यान का ही सतत अभ्यास करना चाहिए।
पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति।
प्रथम शुक्लध्यान उपशम श्रेणी में चढ़ने वाले मुनि के आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान में होता है। क्षपकश्रेणी में आरोहण करने वाले मुनियों के आठवें, नवमें और दशवें गुणस्थान में होता है।
दूसरा ध्यान बारहवें गुणस्थान में होता है। इसी से घातिया कर्मों का नाश होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
तीसरा शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थान में होता है और चौथा शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थान में माना गया है।
यद्यपि केवलियों के भावमन का अभाव होने से ‘एकाग्रचिंतानिरोध’ लक्षण ध्यान नहीं घटता है फिर भी कर्मों का क्षयरूप कार्य ध्यान से माना है अत: उपचार से केवली भगवान के भी ध्यान कहे गये हैं।
इन चारों ध्यानों में एक धर्मध्यान ही वर्तमान में हम और आपके लिए उपयोगी है। अध्यात्मभाषा से सहज शुद्ध परम चैतन्यस्वरूप, परिपूर्ण आनंद का धारी भगवान आत्मा ही निज आत्मा है, उपादेय बुद्धि करके ‘अनंतज्ञानोऽहं, अनंतसुखोऽहं’’ मैं अनन्तज्ञान का धारक हूँ, मैं अनंत सुखस्वरूप हूँ इत्यादि रूप जो भावना है सो अंतरंग धर्मध्यान है। पंचपरमेष्ठी की भक्ति, पूजा आदि तथा उनकी आज्ञा के अनुकूल शुभ अनुष्ठान का करना बहिरंग धर्मध्यान है। उसी प्रकार निज शुद्ध आत्मा में विकल्प रहित ध्यानावस्था शुक्लध्यान है।
इन सब ध्यान का स्वामी चेतन आत्मा ही है। गुणस्थान की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि श्रावक और मुनि धर्मध्यान के अधिकारी हैं।
धर्मध्यान के अंतर्गत जो चौथा संस्थानविचय भेद है, उसके भी चार भेद माने हैं-पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत।
संक्षेप में इनका लक्षण यह है कि-
‘‘पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिंतनम्।
रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनम्।।’’
अनेक मंत्र वाक्यों का ध्यान करना पदस्थ ध्यान है, अपनी आत्मा का चिंतवन करना पिंडस्थ ध्यान है, जिसमें सर्व चिद्रूप का चिंतवन हो अथवा जिसमें अर्हंत भगवान के स्वरूप का चिंतवन हो वह रूपस्थ ध्यान है और निरंजन परमात्मा का अर्थात् सिद्ध परमात्मा का जो ध्यान है, वह रूपातीत ध्यान है।
ध्यान को रोकने वाले बाधक कारण ध्यान के प्रतिबंधक कहलाते हैं, वे मोह, राग और द्वेष इन तीन भागों में विभाजित हैं।
शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न करने वाला जो मोह है वह दर्शन मोह है जो कि मिथ्यात्व रूप है। इसे ही ‘‘मोह’’ शब्द से जानना चाहिए। यह मोह सतत पर में अपनेपन की बुद्धि को कराने वाला है अत: मूलरूप में यही अनंत संसार का कारण है।
निर्विकार निज आत्मानुभव रूप वीतराग चारित्र है, उसको रोकने वाला जो चारित्रमोह है, वह राग और द्वेष इन दो रूप वाला है।
यहाँ प्रश्न यह होता है कि चारित्र मोह राग, द्वेष रूप कैसे है ?
उसका उत्तर यह है कि चारित्र मोह की कषायों में क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार भेद हैं। उनमें से क्रोध और मान ये दो कषाय द्वेष के अंग हैं और माया तथा लोभ ये दोनों कषाय राग के अंग हैं। नव नोकषायों में स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य और रति ये पाँच कषायें तो रागरूप हैं और अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये चार कषायें द्वेषरूप हैं। इस प्रकार ये पच्चीस कषायें राग और द्वेष इन दो रूप में विभाजित हो जाती हैं।
प्रश्न-रागादि भाव कर्मों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से ?
उत्तर-जैसे पुत्र माता और पिता दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है अथवा जैसे चूना और हल्दी इन दोनों के मेल से लाल रंग बन जाता है उसी प्रकार जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से ही राग-द्वेष आदि भाव उत्पन्न होते हैं। जब नयों की विवक्षा लगाते हैं तब विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से यह विभाव भाव कर्म से उत्पन्न हुए कहलाते हैं और अशुद्ध निश्चयनय से ये जीव से उत्पन्न हुए कहलाते हैं क्योंकि इनका उपादान कारण जीव ही है। यह अशुद्ध निश्चयनय शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय ही है।
प्रश्न-साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से ये राग द्वेष किसके हैं ?
उत्तर-शुद्ध निश्चयनय से ये रागद्वेष आदि विभाव भाव हैं ही नहीं, क्योंकि इस नय से तो जीव सदा काल शुद्ध ही है। जैसे-स्त्री-पुरुष के संयोग बिना पुत्र की उत्पत्ति नहीं होती है, वैसे ही जीव और कर्म इनके संयोग बिना राग-द्वेष आदि भाव नहीं होते हैं। शुद्ध निश्चयनय संयोगज अवस्था को देखता ही नहीं है इसीलिए ये रागद्वेष न केवल कर्मजनित हैं न जीवजनित, प्रत्युत दोनों से उत्पन्न हुए हैं और इनको कहने वाला अशुद्धनय ही है न कि शुद्धनय।
इस प्रकार से ध्याता, राग-द्वेष आदि से मन को हटाकर धर्मध्यान का अवलंबन लेता है। यहाँ पर ध्यान के अनेक भेद बतलाये हैं, वे सब विचित्र ध्यान हैं।
इन पिण्डस्थ आदि ध्यानों में सबसे सरल पदस्थ ध्यान है उसी को यहाँ आचार्यदेव ने बताया है-
परमेष्ठी के वाचक पैंतिस, अक्षरयुत महामंत्र शाश्वत।
सोलह छह पाँच चार दो औ, एकाक्षर ॐ अकारादिक।।
गुरु के उपदेशों से बहुविध, के अन्य मंत्र को भी पाकर।
नित जाप करो तुम ध्यान करो, जैसे हो मन स्थिरता कर।।४९।।
परमेष्ठी के वाचक पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षर वाले मंत्रों का तथा गुरु के उपदेश से अन्य भी मंत्रों का तुम जाप करो और ध्यान करो।
यहाँ इन मंत्रों में से कुछ मंत्र दिये जाते हैं। वैसे तो इस णमोकार मंत्र से ८४ लाख मंत्र निकलते हैं अथवा सम्पूर्ण द्वादशांग इस मंत्र में भरा हुआ है।
३५ अक्षरी मंत्र-
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
इस महामंत्र में ३५ अक्षर हैं। इसकी एक जाप्य करने से एक उपवास का फल कहा है फिर जो इसका ध्यान करते हैं वे महाफल प्राप्त कर लेते हैं।
१६ अक्षरी मंत्र-अरिहंत सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू।
६ अक्षरी मंत्र-अरिहंत सिद्ध। ॐ नम: सिद्धेभ्य:।
५ अक्षरी मंत्र-अ सि आ उ सा।
२ अक्षरी मंत्र-सिद्ध, अर्हं।
१ अक्षरी मंत्र-‘अ’ अथवा ॐ।
यह ‘ओम्’ शब्द पंचपरमेष्ठी का वाचक है। अरिहंत का ‘अ’, सिद्ध अशरीरी होते हैं अत: अशरीरी का ‘अ’ इस प्रकार अ+अ ‘समान: सवर्णे दीर्घी भवति परश्च लोपम्’ सूत्र के अनुसार अ+अ·आ बन गया। पुन: आचार्य का ‘आ’, आ ±आ इसी सूत्र से ‘आ’ हो गया। उपाध्याय का उ, आ + उ मिलकर ‘उवर्णे ओ’ सूत्र से संधि होकर ‘ओ’ हो गया। पुन: साधु से मुनि लेने पर उसका आदि अक्षर म् लेने से ‘ओम्’ बन गया है।
इन मंत्र पदों का जाप भी करना चाहिए और ध्यान भी करना चाहिए। ये मंत्रपद मंत्रशास्त्र के सभी पदों में सारभूत हैं। इस लोक तथा परलोक में इष्टफल को देने वाले हैं। इन पदों का अर्थ भी गुरुमुख से समझना चाहिए और उस अर्थ का स्मरण करते हुए इन पदों का जाप्य करना चाहिए। यदि स्थिरता रख सकें तो ध्यान में इन मंत्रों का ध्यान करते हुए ध्यानाभ्यास करना चािहए। ललाट में, हृदय में, नाभि में अथवा अन्य किन्हीं भी उत्तम स्थानों में इन ‘णमो अरिहंताणं’ आदि पदों को स्थापित कर बुद्धि से उन्हें देखने का प्रयत्न करना चाहिए।
शुभोपयोग में जो मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति रुक जाती है उस समय धर्मध्यान होता है अथवा तीन गुप्ति से सहित निर्विकल्प ध्यान में शुद्धोपयोग अवस्था में भी इन पाँचों परमेष्ठी का ध्यान होता है।
इन मंत्रों के सिवाय अन्य मंत्र भी गुरु के उपदेश से समझकर जपने चाहिए।
यद्यपि वर्तमान में कई एक मंत्रशास्त्र प्रकाशित हो चुके हैं फिर भी गुरु से ही मंत्र लेकर जाप्य करना उचित है यही शास्त्र की आज्ञा है अन्यथा लाभ के बजाय हानि की संभावना रहती है। इसी प्रकार से लघुसिद्धचक्र, वृहत् सिद्धचक्र इत्यादि पूजन के विधान को दिगम्बर गुरुओं से समझकर उनका भी ध्यान करना चाहिए। यह सब पदस्थ ध्यान का संक्षिप्त स्वरूप कहा है।
इस तरह पाँचों इन्द्रिय और मन को वश में करने वाले मुनिगण या श्रावक ध्याता-ध्यान करने वाले हैं। यथावस्थित पदार्थ ध्येय-ध्यान के विषय हैं। एकाग्र होकर जो विचार करना है वह ध्यान है और कर्मों के संवर तथा निर्जरा का होना यह ध्यान का फल है।
अर्हंत परमेष्ठी का ध्यान करें-
जिन घाति चतुष्टय कर्म हरा, दर्शन सुख ज्ञान वीर्यमय हैं।
सु अनंतचतुष्टयरूप परम, औदारिक तनु में स्थित हैं।।
अष्टादश दोष रहित आत्मा, वे ही अरिहंत परमगुरु हैं।
वे ध्यान योग्य हैं नित उनको, तुम ध्यावो वे त्रिभुवनगुरु हैं।।
जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जो अनंत चतुष्टयमय हैं, जो शुभ-परमौदारिक शरीर में विराजमान हैं, जो शुद्ध-दोष रहित हैं ऐसे आत्मा अरिहंत परमेष्ठी हैं, उनका ध्यान करना चाहिए।
अरिहंत भगवान ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों को नाश करके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन चार चतुष्टयरूप हो चुके हैं। सात प्रकार की धातुओं से रहित परमौदारिक दिव्य-शुभ शरीर में स्थित हैं, यह उनका शरीर हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान है।
क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मरण, स्वेद, खेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद ये १८ दोष हैं। ये इन दोषों से रहित होते हैं इसीलिए शुद्ध कहलाते हैं।
‘अरि’ अर्थात् मोहनीय कर्म, ‘रज’ से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और ‘रहस्य’ से अंतराय। इस प्रकार अरि, रज, रहस्य इन तीनों को हनन करने वाले-नष्ट करने वाले होने से अरिहंत कहलाते हैं तथा इन्द्र आदि देवों द्वारा गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाणकल्याणक के समय की गई महापूजा को प्राप्त होने से ‘अर्हन्’ कहलाते हैं। इनके १००८ नाम आगम में कहे गये हैं। ऐसे अर्हंत जिनेन्द्र भगवान ध्यान के विषय हैं। इनका ध्यान पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान के अंतर्गत है।
सिद्ध परमेष्ठी का ध्यान वैâसे करें ?-
अष्ट कर्म तनु नष्ट किया, औ शाश्वत लोकालोक सकल।
उसके ज्ञाता औ दृष्टा हैं, जो पुरुषाकार तथा निष्कल।।
जो लोकशिखर पर स्थित हैं, वे आत्मा सिद्ध कहाते हैं।
तुम सब जन उनका ध्यान करो, वे सबको सिद्ध बनाते हैं।।
जिन्होंने आठ कर्मरूपी शरीर का नाश कर दिया है, जो लोक-अलोक के जानन्ो और देखने वाले हैं, पुरुषाकार हैं, लोक के अग्रभाग पर स्थित हैं, ऐसे आत्मा सिद्ध परमेष्ठी हैं उनका ध्यान करना चाहिए।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन कर्मरूपी शरीर को जिन्होंने नष्ट कर दिया है तथा नामकर्म के अंतर्गत औदारिक, तैजस, कार्मण आदि शरीर से भी रहित हैं इसलिए अशरीरी हैं, निराकार हैं, फिर भी ज्ञानशरीरी हैं, चैतन्य धातु की मूर्ति स्वरूप हैं। परमज्ञान कांड की भावना के फलस्वरूप निर्मल पूर्ण ज्ञान और दर्शन के द्वारा सर्वलोक-अलोक को तथा उनके अन्तर्गत सम्पूर्ण पदार्थों को और उनकी भूत-वर्तमान-भविष्यत् ऐसी तीनों काल संबंधी पर्यायों को एक साथ जानने और देखने वाले होने से सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं।
निश्चयनय से इन्द्रियों के अगोचर हैं, मूर्तिरहित होने से निराकार हैं फिर भी व्यवहारनय से भूतपूर्व नय की अपेक्षा अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले होने से पुरुषाकार हैं। जैसे मोमरहित मूस के बीच का आकार होता है अथवा छाया के प्रतिबिम्ब का आकार होता है, ऐसे हैं। इसीलिए जिस आसन से-पद्मासन या खड्गासन से मोक्ष गये हैं, उसी आसन से पुरुषाकार हैं।
अंजनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खड्गसिद्ध और मायासिद्ध आदि लौकिक सिद्धि से रहित अपने आत्मा के स्वरूप की उपलब्धिरूप सिद्धि से सहित होने से ही ये सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं।
ये मोहनीय के अभाव से सम्यक्त्व, ज्ञानावरण-दर्शनावरण के अभाव से ज्ञान-दर्शन, अन्तराय के अभाव से वीर्य, वेदनीय के अभाव से अव्याबाध, आयु के अभाव से अवगाहनत्व, नाम के अभाव से सूक्ष्मत्व और गोत्र के अभाव से अगुरुलघुत्व इस प्रकार आठ कर्मों के नष्ट हो जाने से आठ गुणों को प्राप्त कर चुके हैं। यद्यपि ये आठ गुण मुख्य हैं फिर भी इनके अनंतगुण प्रगट हो चुके हैं। ऐसे सिद्ध भगवान लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं, उनका ध्यान करना चाहिए। देखे, सुने, अनुभव में आए ऐसे पंचेन्द्रिय विषयोेंं का त्याग कर सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प को छोड़कर निर्विकल्प अवस्था में तीन गुप्ति से सहित होकर ‘रूपातीत’ धर्मध्यान में एकाग्र होकर इन सिद्धों का ध्यान करना चाहिए।
आचार्य परमेष्ठी भी ध्यान के योग्य हैं-
दर्शन औ ज्ञान प्रधान जहाँ, ऐसे जो वीर्याचार तथा।
चारित्र महातप ये पाँचों, आचार कहाते सौख्यप्रदा।।
इन पंचाचारों में निज को, पर को जो नित्य लगाते हैं।
वे ध्यान योग्य हैं श्रेष्ठ मुनी, वे ही आचार्य कहाते हैं।।
जिनमें ज्ञानाचार-दर्शनाचार प्रधान हैं ऐसे वीर्याचार, चारित्राचार और तप आचार में जो अपने को और पर को लगाते हैं वे आचार्य परमेष्ठी हैं जो कि ध्यान करने योग्य हैं।
निश्चयनय का विषयभूत ‘शुद्ध समयसार’ इस शब्द से वाच्य, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म आदि समस्त परपदार्थों से भिन्न और परम चैतन्य का विलासरूप निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचि का नाम सम्यग्दर्शन है। उसमें जो परिणमन-आचरण है, उसी का नाम दर्शनाचार है।
उसी शुद्ध आत्मा को स्वसंवेदनरूप भेद ज्ञान के द्वारा रागादि पर भावों से भिन्न जानना ज्ञानाचार है।
वीतराग चारित्र के लिए कारण ऐसे व्यवहार चारित्र में प्रवृत्ति करना चारित्राचार है।
समस्त परद्रव्यों की इच्छा के रोकने से तथा अनशन आदि बाह्य तपों को तपते हुए जो आचरण है, सो तप आचार है।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनकी रक्षा के लिए अपनी शक्ति को नहीं छिपाना वीर्याचार है।
आचार्यों के लिए ये पाँच आचार प्रधान हैं। वैसे आचार्य के छत्तीस गुण माने हैं। १२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति ये ३६ गुण हैं। इन गुणों से युक्त आचार्यदेव ध्यान के विषय हैं। इनका ध्यान पदस्थ ध्यान के अन्तर्गत है।
उपाध्याय परमेष्ठी का ध्यान भी औषधिरूप है-
जो रत्नत्रय से युक्त सदा, धर्मोपदेश में तत्पर हैं।
जो यति पुंगव में श्रेष्ठ रहें, सो आत्मा उपाध्याय गुरु हैं।।
उनको नित नमन हमारा है, वे ज्ञानामृत बरसाते हैं।
मोहादी विष से मूर्च्छित को, जिनवच औषधी पिलाते हैं।।
जो रत्नत्रय सहित हैं और नित्य ही धर्मोपदेश देने में तत्पर रहते हैं, वे यतीश्वरों में श्रेष्ठ आत्मा उपाध्याय परमेष्ठी हैं उनको मन में नमस्कार करते हुए ध्यान करें।
जो व्यवहारनय और निश्चयनय इन दोनों का अवलम्बन लेकर शिष्यों को पढ़ाते हैं और धर्म का उपदेश देना ही जिनका एक कार्य है, वे उपाध्याय गुरु हैं। इनके २५ गुण माने हैं। ग्यारह अंग, चौदह पूर्वरूप श्रुत का पढ़ना-पढ़ाना ये ही इनके २५ गुण हैं। ये उपाध्याय परमेष्ठी भी नग्न दिगम्बर साधुओं में ही होते हैं अत: ये भी ध्यान के विषय हैं।
साधु परमेष्ठी के ध्यान से आत्म सिद्धि होती है-
जो दर्शन ज्ञान सहित ऐसा, चारित्र कहा शिव का मारग।
जो नित ही शुद्ध कहा जाता, उस रत्नत्रय के जो साधक।।
वे ही साधू कहलाते हैं, जो करें साधना शिवपथ की।
रत्नत्रयमय उन साधू को, हो मेरा नमस्कार नित ही।।
जो मुनि मोक्षमार्ग के स्वरूप दर्शन और ज्ञान से सहित, नित्य ही शुद्ध ऐसे चारित्र को साधते हैं, वे साधु परमेष्ठी हैं, उनको हृदय में धारण करके नमस्कार करते हुए ध्यान करें।
जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान से सहित चारित्र की साधना करते हैं, वे साधु कहलाते हैं। इनके २८ मूलगुण माने हैं-५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियनिरोध, ६ आवश्यक, केशलोंच, आचेलक्य-पूर्ण वस्त्रादि त्याग, अस्नान, पृथ्वी पर शयन, दन्तधावन त्याग, खड़े होकर भोजन और एक बार भोजन ये २८ मूलगुण हैं। इनके पालन करने वाले नग्न दिगम्बर मुनि ही साधु कहलाते हैं। ये दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधना में लगे रहते हैं। सदा व्यवहार-निश्चय चारित्र के बल से शुद्ध आत्मा की साधना करते रहते हैं, इसीलिए ये ध्यान करने योग्य हैं।
महामंत्र णमोकार मंत्र में इन पाँचों परमेष्ठी को ही नमस्कार किया है। ये परमपद में स्थित हैं इसीलिए परमेष्ठी कहलाते हैं। इनमें से अरहंत, सिद्ध ये दो परमेष्ठी तो दिखते नहीं हैं। सिद्ध तो सदा ही नहीं दिख सकते, चतुर्थकाल में अरहंत भगवान का समवसरण दिखता रहता है। आज तो इस पंचमकाल में आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों परमेष्ठी दृष्टिगोचर होते हैं। परोक्ष में अरहंंत, सिद्ध की, प्रत्यक्ष में आचार्यादि की वंदना, स्तुति करना तथा इन्हीं के नाममंत्र की जाप्य करना, एकाग्रचित्त हो ध्यान करना चाहिए, ये ही मोक्षमार्ग हैं इसलिए इनका ध्यान भी मोक्षमार्ग की सिद्धि कराने वाला है।
जब साधूजन एकाग्रमना, होकर जो कुछ भी ध्याते हैं।
वे इच्छारहित तपोधन ही, निज समरस आनंद पाते हैं।।
बस उसी समय निश्चित उनका, वह निश्चय ध्यान कहाता है।
वह ध्यान अग्निमय हो करके, सब कर्म कलंक मिटाता है।।
जब साधु एकाग्रता को प्राप्त होकर जिस किसी भी पदार्थ का चिंतवन करता हुआ इच्छा से रहित हो जाता है, उसी समय उन साधु का वह ध्यान निश्चय ध्यान कहलाता है।
इस पद्य के प्रथम चरण में ध्येय का लक्षण है। द्वितीय चरण में ध्याता का लक्षण है। तृतीय चरण में ध्यान का लक्षण है और चतुर्थ चरण में नयविभाग को दिखलाया है।
ध्येय-ध्यान प्रारंभ करने की अपेक्षा से जो सविकल्प अवस्था है उसमें विषय-कषायों को दूर करने के लिए तथा चित्त को स्थिर करने के लिए पाँचों परमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं। फिर अभ्यास के मन से स्थिर हो जाने पर शुद्ध-बुद्ध अपना चिदानंद स्वरूप आत्मा ही ध्येय रहता है।
ध्याता-बहिरंग और अंतरंग परिग्रह से रहित निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनि ही निस्पृह वृत्ति वाले होते हैं। वे ही यहाँ ध्यान करने के पात्र ध्याता माने गये हैं। कदाचित् श्रावक और अविरत सम्यग्दृष्टि भी ध्याता होते हैं।
ध्यान-एकाग्रता को प्राप्त कर लेना, मन का पूर्वोक्त किसी एक विषय पर स्थिर हो जाना ही ध्यान है। ध्यान में ध्येय की एकता, तन्मयता, एकलीनता हो जाती है।
नयविभाग-यहाँ निश्चय शब्द से प्राथमिक शिष्यों की अपेक्षा व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चयनय लेना तथा जो ध्यान सिद्धि कर चुके हैं ऐसे निष्पन्न योगी महामुनियों की अपेक्षा शुद्धोपयोग लक्षण वाला विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चय लेना है।
तुम कुछ भी तन की चेष्टा को, मत करो वचन भी मत बोलो।
मन से भी चिंतन कुछ न करो, जैसे होवे स्थिर हो लो।।
इस विध जब आत्मा-आत्मा में, स्वयमेव लीन हो जाता है।
तुम समझो जग में यही ध्यान, बस सबसे श्रेष्ठ कहाता है।।
तुम कुछ भी क्रिया मत करो, मत बोलो और मत कुछ सोचो, जिससे कि आत्मा स्थिर होकर आत्मा में ही रत हो जावे, बस यही परम उत्कृष्ट ध्यान कहलाता है।
कुछ भी चेष्टा करना काय की क्रिया है, बोलना वचन की क्रिया है और सोचना मन की क्रिया है। इन तीनों को रोक देने से आत्मा आत्मा में ही तन्मय हो जाता है, बस वही सर्वोत्कृष्ट ध्यान कहलाता है। यहाँ पर शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के मन-वचन-काय के व्यापार को मना किया है। यह तीन गुप्ति से सहित अवस्था महामुनियों के चतुर्थकाल में ही संभव है। आज तो अशुभ योग से मन को रोक कर शुभ में स्थिर कर लेना ही कष्टसाध्य है। इस निश्चय रत्नत्रय से परिणत महामुनियों के जो वीतराग परमानंद सुख प्रतिभासित होता है वही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। उसके अनेक पर्यायवाची नाम हैं उनमें से कुछ नामों को यहाँ दिखाते हैं-
वही शुद्धात्मा का स्वरूप है, वही परमात्मा का स्वरूप है, वही एकदेश में प्रगटरूप विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से निज शुद्ध आत्मा के अनुभव से उत्पन्न सुखरूपी अमृत जल के सरोवर में राग आदि मलों से रहित परमहंस स्वरूप है। यह एकदेश शुद्ध निश्चयनय सभी नामों के साथ संबंधित है, ऐसा समझना।
वही परमब्रह्म स्वरूप है, वही परमविष्णुरूप है, वही परमशिवरूप है, वही परम बुद्ध स्वरूप है, वही परम निज स्वरूप है, वही परम निज आत्मा की उपलब्धिरूप है, वही सिद्ध स्वरूप है, वही निरंजन स्वरूप है, वही निर्मल स्वरूप है, वही स्वसंवेदनज्ञान है, वही परम तत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्म दर्शन है, वही परम अवस्थारूप है, वही परमात्मदर्शन है, वही परम तत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्मज्ञान है, वही ध्यान करने योग्य शुद्ध पारिणामिक भावरूप है, वही ध्यान भावनारूप है, वही शुद्ध चारित्र है, वही अंतरंग तत्त्व है, वही परमतत्त्व है, वही शुद्ध आत्मतत्त्व है, वही परमज्योति है, वही शुद्ध आत्मा की अनुभूति है, वही आत्म प्रतीति है, वही आत्मसंवित्ति है, वही स्वरूप की उपलब्धि है, वही नित्य पदार्थ की उपलब्धि है, वही परमसमाधि है, वही शुद्धात्म पदार्थ के अध्ययनरूप है, वही परम स्वाध्याय है, वही निश्चय मोक्ष का उपाय है, वही एकाग्रचिंता निरोध है, वही परमबोध है, वही शुद्धोपयोग है, वही परमयोग है, वही भूतार्थ है, वही परमार्थ है, वही निश्चय पंचाचार है, वही समयसार है, वही अध्यात्मसार है, वही समता आदि छह आवश्यक स्वरूप है, वही अभेद रत्नत्रय स्वरूप है, वही वीतराग सामायिक है, वही परम शरण, परम उत्तम और परम मंगल है, वही केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण है, वही सकलकर्म के क्षय का कारण है, वही निश्च्ाय चतुर्विध आराधना है, वही परमात्म भावना है, वही शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न सुख की अनुभूतिरूप परमकला है, वही दिव्यकला है, वही परम अद्वैत है, वही परमामृत परमध्यान है, वही शुक्लध्यान है, वही रागादि विकल्प से रहित ध्यान है, वही निष्कल ध्यान है, वही परम स्वास्थ्य है, वही परम वीतराग है, वही परमसाम्य है, वही परम एकत्व है, वही परम भेदज्ञान है और वही परम समरसी भाव है, इत्यादिरूप से समस्त रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित परम आल्हादक सुख लक्षण ध्यान स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग को कहने वाले और भी बहुत से पर्यायवाची हैं।
अभिप्राय यही है कि निश्चयरत्नत्रय, शुद्धोपयोग, परमसमाधि, निर्विकल्पध्यान, एकाग्रपरिणति और निश्चय मोक्षमार्ग ये सब एकार्थवाचक हैं। यह अवस्था सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होती है और बारहवें गुणस्थान में पूर्ण होती है पुन: तेरहवें गुणस्थान में इस शुद्धोपयोग का फल केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। इस निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति के लिए व्यवहार रत्नत्रयरूप निर्ग्रंथ मुनि अवस्था को धारण करना अनिवार्य है और जब तक उस चारित्र को नहीं ग्रहण कर सकते तब तक एकदेश चारित्ररूप अणुव्रत तो ग्रहण ही कर लेना चाहिए। यही मोक्षमार्ग में लगने का क्रम है।
ध्याता कैसा होता है ?
जिस कारण से तप, श्रुत औ व्रत, इनका धारक जो आत्मा है।
वह ध्यानमयी रथ की धुर का, धारक हो ध्यान धुरंधर है।।
अतएव ध्यान प्राप्ती हेतू, इन तीनों में नित रत होवो।
तप, श्रुत औ व्रत बिन ध्यान सिद्धि, नहिं होती अत: व्रतिक होवो।।
जिस हेतु से तप, श्रुत और व्रतों का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला हो जाता है उसी कारण ध्यान की प्राप्ति के लिए तप, शास्त्र और व्रत इन तीनों में सदा लीन होने की प्रेरणा दी गई है।
तपश्चर्या, ज्ञानाराधना और व्रतों से विभूषित तपोधन-महाव्रती मुनि ही ध्यानरूप रथ की धुरा को धारण करने में समर्थ हो सकते हैं यही कारण है कि ये मुनि ही ध्यान के स्वामी माने गये हैं। यदि गृहस्थ भी ध्यान में सक्षम हो जावें तो पुन: गृहस्थाश्रम को त्याग कर मुनि बनने की आवश्यकता ही क्यों रहे ? हाँ, गृहस्थ तो ध्यान का अभ्यास करते हैं।
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अभ्यंतर तप हैं। अभ्यंतर तपों की सिद्धि के लिए बाह्य तप साधन हैं और साधन अभ्यंतर तप में कहा गया है। ये बारह तप व्यवहार तप हैं और इनके सहयोग से शुद्ध आत्मा के स्वरूप में प्रतपन करना-स्थिर होना निश्चय तप है।
इसी प्रकार मूलाचार, भगवती आराधना आदि द्रव्यश्रुत हैं, उन शास्त्रोें के आधार से जो निज स्वसंवेदन ज्ञान होता है, वह भावश्रुत है। इसी तरह छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग अहिंसा महाव्रत है और रागादि भावों को दूर कर आत्मा के ऊपर दया करके उसमें लीन होना भाव अहिंसा महाव्रत है, इत्यादि प्रकार सभी में समझ लेना चाहिए।
यहाँ पर तप, श्रुत और व्रत को ही ध्यान के लिए परिकर सामग्री कहा है। अन्यत्र ग्रंथों में भी कहा है-
वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं, नैर्ग्रन्थ्यं समचित्तता।
परीषहजयश्चेति, पंचैते ध्यानहेतव:।।
वैराग्य, तत्वों का विशेष ज्ञान, निर्ग्रंथ दिगम्बर मुनि अवस्था, समताभाव और परीषहों का जय ध्यान के लिए ये पाँच हेतु-साधन माने गये हैं।
श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा है-
अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठित:।
त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन:।।
पहले अव्रतों को छोड़कर व्रतों में स्थित होवे पुन: आत्मा के परमपद को प्राप्त करके उन्हें भी छोड़ देवे।
प्रश्न-भरत चक्रवर्ती ने व्रतों को नहीं पाला फिर भी केवली बन गये ?
उत्तर-ऐसी बात नहीं है, वे भी जैनेश्वरी दीक्षा लेकर विषय कषाय आदि के त्यागरूप व्रत परिणामों के बल से ही शुद्धोपयोगरूप, वीतराग सामायिक नामक निर्विकल्पसमाधि में स्थित होकर केवली हुए हैं।
प्रश्न-इस काल में ध्यान नहीं है क्योंकि उत्तम संहनन का अभाव है और दश पूर्व अथवा चौदह पूर्वरूप श्रुतज्ञान का भी अभाव है ?
उत्तर-शुक्लध्यान नहीं है किन्तु धर्मध्यान है। श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा है-
‘‘भरतक्षेत्र में इस पंचमकाल में ज्ञानी मुनियों को आत्मा के स्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है किन्तु जो ऐसा नहीं मानते, वे अज्ञानी हैं।’’
श्री नागसेन आचार्य ने भी स्पष्ट कहा है-
अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा:।
धर्मध्यानं पुन: प्राहु: श्रेणीभ्यां प्राग्विवर्तिनाम्।।
आज इस काल में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं किन्तु उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से पहले गुणस्थानों में रहने वाले मुनियों के धर्मध्यान कहते हैं।
दश पूर्व या चौदह पूर्वज्ञानी श्रुतकेवलियों के ही ध्यान होता है, यह कथन भी उत्सर्ग है। अपवाद व्याख्यान से पाँच समिति, तीन गुप्ति के प्रतिपादक सारभूत श्रुत से भी ध्यान होता है बल्कि केवलज्ञान भी हो जाता है। कहा भी है-
‘‘तुसमासं घोसंतो सिवभूदी केवली जादो।’’
तुष-माष को रटते हुए शिवभूति मुनि केवली हो गये हैं।
प्रश्न-शिवभूति मुनि को द्रव्यश्रुत तो प्रवचनमातृका मात्र था तो क्या उन्हें भावश्रुत पूर्ण था ?
उत्तर-नहीं, उनके पाँच समिति और तीन गुप्ति इन आठ प्रवचनमातृका रूप तो भावश्रुत था और द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं था अन्यथा वे ‘‘मा तूसह मा रूसह’’ इस एक पद को क्यों नहीं जान सके। यह व्याख्यान कल्पित नहीं है ाfकन्तु चारित्रसार आदि ग्रंथों में भी यह वर्णन है। देखिए-‘‘अंतर्मुहूर्त में जो केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, वे १२वें गुणस्थान में रहने वाले ‘‘निर्ग्रंथ’’ ऋषि कहलाते हैं। उनके उत्कृष्ट से ११ अंग, १४ पूर्व पर्यंत ज्ञान होता है और जघन्यरूप से पाँच समिति, तीन गुप्ति मात्र ही श्रुतज्ञान होता है।
प्रश्न-इस काल में मोक्ष नहीं है पुन: ध्यान की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-आज भी परम्परा से मोक्ष है। देखो, ध्यानी मुनि निज शुद्धात्मा की भावना के बल से संसार की स्थिति को अल्प करके स्वर्ग में जाते हैं और वहाँ से मनुष्य भव में आकर भेदाभेद रत्नत्रय के बल से मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। जो भरत चक्रवर्ती, रामचंद्र, पांडव आदि मोक्ष गये हैं वे सब पूर्व भवों में संसार स्थिति को घटाकर ही आये थे तभी इस भव से मोक्ष गये हैं क्योंकि एक ही भव से सभी को मोक्ष हो जावे यह बहुत कठिन है, कोई विरले जीव ही ऐसे हुए हैं।
निष्कर्ष यह निकला कि अल्प श्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है किन्तु उसके साथ वैराग्यपूर्वक चारित्र और तपश्चरण अवश्य चाहिए।