व्यक्ति स्वातंत्र्य का विचार आधुनिक युग का अत्यन्त क्रांतिकारी और लोकप्रिय विचार माना जाता है। भारत सहित विश्व के अनेक देशों में व्यक्ति स्वातन्त्र्य का अधिकार (राइट टू फ्रीडम) को संविधान की पुस्तकों में व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है जिसका तात्पर्य है कि धर्म और समाज की परम्परागत मान्यताएं भी कानूनी दृष्टि से संविधान प्रदत्त मनुष्य के इस व्यक्ति स्वातंत्र्य सम्बन्धी मौलिक अधिकार पर किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं। आज विज्ञान द्वारा आविष्कृत नवीन अवधारणाओं और पश्चिमी संस्कृति के परिवेश में पाली—पोसी गई देहवादी दार्शनिक मान्यताओं के परिणाम स्वरूप ईश्वरवाद और अध्यात्मचेतना के स्थान पर अब क्रमश: व्यक्तिवाद और भौतिकवादी चेतना का प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जा रहा है। जगद् गुरु के नाम से विख्यात यह भारत जैसे अध्यात्मवादी देश के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए कि धर्म की प्रभावना से समूची मानव सभ्यता को सुसंस्कृत और संस्कारवान बनाने का जो सामाजिक दायित्व हजारों वर्षों से हमारे देश के ऋषि—मुनियों तथा वीतरागी तपस्वियों के द्वारा निर्वाहित किया जाता रहा है, तुच्छ उपभोक्तावाद की जमीन पर उपजने वाले ये भौतिकवादी दर्शन भारतीय धर्म—चिन्तन पर अनेक प्रकार के प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं। आज उपभोक्तावादी जीवन दर्शन ने हम सबको इतना संमोहित कर लिया है कि सैक्स और िंहसा को अश्लील एवं बीभत्स रूप से परोसने वाले टी. वी. चैनलों की टी. आर. पी. दिनों दिन बढ़ती जा रही है तथा धर्म और संस्कृति से जुड़े चैनलों का ग्राफ नीचे गिरता जा रहा है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के सन्दर्भ में इस प्रश्न पर भी गहराई से विचार किया जाना चाहिए कि भारतवर्ष के तमाम धर्म और दर्शन सत्य, अिंहसा, अपरिग्रह आदि सभ्यता के मूल्यों को आज सामाजिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने में अप्रासंगिक क्यों सिद्ध हो रहे हैं ?
धर्म के प्रति जनसामान्य की अरुचि या उदासीनता के बारे में जैनाचार्य समन्तभद्र ने तीन कारणों की ओर संकेत किया है जिन्हें जानना आधुनिक युग सन्दर्भों में धर्म संस्था के ह्रास को समझने के लिए बहुत जरूरी है। इनमें से पहला कारण है कलिकाल का दुष्प्रभाव जिसके कारण लोक कल्याणकारी सत्य धर्म का प्रसार कठिन होता जा रहा है। दूसरा कारण है रागद्वेष से कलुषित मनोवृत्ति वाले लोगों में आत्मकल्याण के प्रति जिज्ञासा का अभाव, जिसके फलस्वरूप धर्मोपदेशों के प्रति लोगों की रुचि और आस्था कम होती जा रही है। तीसरा महत्त्वपूर्ण कारण यह बताया गया है कि धर्म के लोक कल्याणकारी स्वरूप का युग परिस्थितियों के सन्दर्भ में उद्घाटित करने की वक्तृत्व क्षमता धर्मप्रवक्ताओं में शिथिल होती जा रही है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार ये ही तीन मुख्य कारण हैं जिनकी वजह से व्यक्ति स्वातंत्र्य को सर्वाधिक महत्त्व देने वाला जैनधर्म जैसा सर्वोदयी समाज व्यवस्था से जुड़ा धर्म भी विश्वव्यापी नहीं बन पाया है—
काल:कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतु: प्रवक्तुर्वचनान्न यो वा।
त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मी: प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतु:।।
बीसवीं शताब्दी के युगद्रष्टा, राष्ट्र सन्त आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म की दशा और दिशा का आकलन करते हुए अपने ‘उपदेश सार संग्रह’ नामक ग्रंथ में यह उद्गार व्यक्त किया है कि ‘जगत का सबसे अधिक लाभ करने वाला, प्राणिमात्र का उद्धार करने वाला, साधारण आत्मा को महात्मा और परमात्मा बना देने की क्षमता रखने वाला, सदाचार को आरम्भ से लेकर सर्वोच्च सीमा तक ग्रहण, धारण, पालन, रक्षण करने की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से बनाने वाला धर्म ‘जैनधर्म’ है। जिसको कि हमारे पूज्य तीर्थंकरों ने अपने सांसारिक सुखमय राज्य, भोग परिवार का परित्याग करके शारीरिक मोह से विरक्त होकर वन, पर्वत, गुफा आदि एकान्त प्रान्त में कठोर तपस्या और महान् परिषह सहन करने के पश्चात् आत्मा की पूर्ण शुद्धि के अनन्तर स्व—अनुभव से प्राप्त किया था और उस विश्व हितकारी धर्म को जनता के समक्ष बड़ी उदारता के साथ जनसाधारण की वाणी में रखकर उस जैनधर्म का प्रचार किया था। पर आचार्यश्री ने चिन्ता यह व्यक्त की है कि ‘विश्व उद्धारक उस जैन धर्म का प्रचार जिस तरह भगवान् आदिनाथ से लेकर भगवान् महावीर तक हमारे परम पूज्य २४ तीर्थंकरों ने तथा उनके उत्तरवर्ती उनकी शिष्य परम्परा ने किया और उसे विश्व व्यापक बनाया, वह व्यापक प्रचार आज नहीं पाया जाता है। विभिन्न धर्मानुयायी अपने गुड़ को भी मिश्री के रूप में संसार के सामने अपने—अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैं तब जैन समाज अपने मिश्री के समान अन्दर—बाहर से पूर्ण मिष्ट जैन धर्म को भी संसार के समक्ष यथेष्ट रूप से रखने में संकोच क्यों कर रहा है?
आचार्य श्री देशभूषण जी ने श्री समन्तभद्राचार्य द्वारा निर्दिष्ट उपर्युक्त धर्म के ह्रास से सम्बन्धित तीन कारणों की जांच पड़ताल करते हुए कहा कि पहले दो कारणों का सुधार करना हमारे हाथ में नहीं क्योंकि कलिकाल को हम किसी तरह चौथा काल नहीं बना सकते, परन्तु इतना अवश्य है कि इस कलिकाल में भी सत्यखोजी और भद्रपरिणामी सज्जनों की कमी नहीं है जो अपने बाहु आयामी धर्म–दर्शन, बहुभाषा ज्ञान तथा प्रभावशाली वक्तृत्व शक्ति के द्वारा जैनधर्म को लोकप्रिय बना सकते हैं। यदि कोई प्रचारक जनता के समक्ष जैनधर्म के सत्य सिद्धान्तों का अच्छे ढंग से प्रचार करे तो इस कलिकाल में भी भद्र जनता जैनधर्म को हृदय से स्वीकार कर सकती है और उस पर आचरण भी कर सकती है।
वास्तव में, आचार्य श्री ने आधुनिक युगमूल्यों के सन्दर्भ में जैनधर्म के जिस प्रचार व प्रसार की बात की है समाजशास्त्रीय दृष्टि से वह धर्म के परिवर्तनशील मूल्यों की युगानुसारी व्याख्या है। सिद्धान्तत: प्रत्येक धर्म में दो प्रकार के मूल्य होते हैं—कूटस्थ मूल्य और परिवर्तनशील मूल्य। वास्तविकता यह है कि विश्व के तमाम लोकप्रिय धर्मों ने युग परिस्थितियों के सन्दर्भ में धर्म के कूटस्थ मूल्यों की रक्षा करते हुए ही धर्म के परिवर्तनशील मूल्यों को युग परिस्थितियों के सन्दर्भ में ढालने का प्रयास किया है। प्रारम्भिकावस्था में जैनधर्म ने वर्णव्यवस्था का सिद्धान्तत: विरोध किया है किन्तु वर्णव्यवस्था की सामाजिक लोकप्रियता को देखते हुए सातवीं शताब्दी में रविषेणाचार्य ने और नौवीं शताब्दी में जिनसेनाचार्य ने वर्णव्यवस्था को शास्त्रीय मान्यता प्रदान की है। सिद्धान्त रूप से जैनधर्म मानववादी और समत्ववादी धर्म है। इस कूटस्थ सत्य को स्वीकार करते हुए भी आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में जातिव्यवस्था और वर्णव्यवस्था का वर्णन किया है—
मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा।
वृत्तिभेदाहिताद् भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते।।
ब्राह्मणा: व्रतसंस्कारात् क्षत्रिया: शस्त्रधारणात्।
वणिजोऽर्थार्जनान्याप्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात्।।
प्रारम्भ में जैनधर्म के प्रचार व प्रसार की भाषा प्राकृत भाषा थी किन्तु जैनधर्म को विश्वव्यापी तथा लोकप्रिय बनाने के लिए रविषेणाचार्य ने संस्कृत भाषा में जैन रामायण ‘पद्मचरित’ की रचना की जो एक प्रकार से प्राकृत भाषा में रचित ‘पउमचरिउ’ का ही संस्कृत रूपान्तरण था। आचार्य रविषेण तथा आचार्य जिनसेन से प्रेरणा लेते हुए सोमदेवाचार्य ने कूटस्थ और परिवर्तन शील धर्म का दो प्रकार से स्पष्ट विभाजन ही कर दिया—१. पारलौकिक धर्म और २. लौकिक धर्म। पारलौकिक धर्म आगमाश्रित होता है और लौकिक लोकाश्रित। इस द्विविध विभाजन के सन्दर्भ में आचार्य सोमदेव ने लौकिक धर्म के अन्तर्गत श्रुति और स्मृति को प्रमाण मान लेने पर भी जैनधर्म के सम्यक्त्व की कोई हानि नहीं मानी है—
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधि:।
यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम्।।
इस प्रकार रविषेणाचार्य से लेकर जिनसेनाचार्य और सोमदेवाचार्य के काल तक तथा आधुनिक काल में भी अनेक आचार्य जैनधर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से अत्यन्त उदारतापूर्वक धर्मप्रभावना को दिशा देते आए हैं। पर देखने की बात यह है कि इन आचार्यों ने धर्म के शाश्वत तथा कूटस्थ मूल्यों—सत्य, अिंहसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि सिद्धान्तों के साथ किसी प्रकार का समझौता नहीं किया है।
जैनधर्म अपने उद्भव काल से ही व्यक्ति और समाज दोनों का हितैषी धर्म रहा है। जैनधर्म को व्यक्ति सापेक्ष और समाज निरपेक्ष धर्म कहना अयुक्तिसंगत होगा। जैनधर्म के २४ तीर्थंकरों का इतिहास साक्षी है कि एक सर्वोदयी समाज व्यवस्था की अपेक्षा से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम असि, मसि, कृषि आदि का उपदेश देकर मानव समाज को सभ्यता का पहला पाठ पढ़ाया। ये आदि तीर्थंकर ही थे जिन्होंने लिपिकला, शिल्पकला आदि विविध कलाओं की शिक्षा देकर समाज को सांस्कृतिक मूल्यों के द्वारा संस्कारवान बनाया।
प्रसिद्ध इतिहासकार एच. जी. वेल्स के मतानुसार ईस्वी पूर्व की जिस छठी शताब्दी में वर्धमान महावीर का जन्म हुआ वह धार्मिक और सामाजिक आन्दोलनों को प्रेरित करने वाली महत्त्वपूर्ण शताब्दी थी। इसी समय जहां एक ओर चीन में लाओत्से और कंफ्यूशियस तथा यूनान में सुकरात और प्लेटो ने अपने देश की रूढ़िवादी परम्पराओं के विरुद्ध वैचारिक आन्दोलनों का सूत्रपात किया, वहीं भारत में भगवान महावीर और गौतम बुद्ध ने क्रमश: जैन तथा बौद्ध धर्म को जन—आन्दोलन का रूप देकर धार्मिक संस्था के इतिहास में अभूतपूर्व क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया।
जैनधर्म के सन्दर्भ में व्यक्ति स्वातन्त्र्य की अवधारणा को समझने से पहले यह जान लेना भी बहुत जरूरी है कि आधुनिक व्यक्ति स्वातन्त्र्य का विचार विशुद्ध रूप से एक पश्चिमी विचार है। अस्तित्ववाद तथा साम्यवाद के पश्चिमी विचारकों की यह देन है जिसकी पृष्ठभूमि में उपभोक्तवादी तथा भौतिकवादी चमक—दमक के कारण आज अध्यात्मवाद से अघाए भारतवासियों को बहुत तेजी से व्यक्ति—स्वात्रन्त्र्य का विचार संमोहित कर रहा है। किन्तु वास्तविकता यह है कि यह विचार धर्म तथा आध्यात्मिक हस्तक्षेप का घोर विरोधी है। आधुनिक व्यक्ति स्वातंत्र्य के विचार का इतिहास मध्य युगीन यूरोप की धर्मचेतना की प्रतिक्रिया का परिणाम है जो धर्म और ईश्वर के नाम पर तरह—तरह के अन्धविश्वास और दुराचार पैâलाती आई है। ईश्वर और मनुष्य के मध्य धर्म संस्थाओं से जुड़े बिचौलिए भोली भाली जनता को स्वर्ग या नरक का लालच या भय दिखाकर धर्म संस्था की छवि बिगाड़ते आए हैं। यही कारण है कि साम्यवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने मध्ययुगीन धार्मिक आडम्बरों तथा पाखण्डी चरित्र को लक्ष्य करके ‘धर्म’ की कटु आलोचना की है। धर्म की इन्हीं विकृतियों की प्रतिक्रिया स्वरूप आधुनिक विज्ञान ने विश्व और उनकी समस्याओं को समझने के लिए तर्क और परीक्षण का नया रास्ता दिखाया। विज्ञान ने यह स्पष्ट किया कि यह विश्व किसी ईश्वरीय शक्ति की इच्छा का परिणाम नहीं है। विज्ञान ने बताया कि विश्व के सभी पदार्थ कार्य—कारण भाव से सम्बद्ध हैं। विज्ञान की दृष्टि से जगत् में किसी पदार्थ का नाश नहीं होता केवल उसका रूपान्तरण होता है। इसलिए जीव या जगत को उत्पन्न करने वाली किसी ईश्वर जैसी शक्ति का कोई औचित्य नहीं नजर आता।
सामान्य रूप से व्यक्ति स्वातंत्र्य की अवधारणा का विचार देने वाले अस्तित्ववादी दर्शनों, विज्ञान की मान्यताओं और जैनदर्शन की तत्त्वमीमांसा में कुछ तथ्यों के बारे में आम सहमति भी है। जैसे ये तीनों की प्रकृति ईश्वरवादी नहीं है। अस्तित्ववादी दर्शनों और विज्ञान की मान्यताओं के समान जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा के केन्द्र में ‘ईश्वर’ को नहीं बल्कि ‘मनुष्य’ या जीव को प्रतिष्ठित किया गया है। जैनदर्शन से इनकी असहमति इस दृष्टि से है कि विज्ञान सहित आधुनिक पश्चिमी दर्शन न तो कर्म सिद्धान्त में विश्वास करते हैं और न ही मानव कल्याण का एकमात्र लक्ष्य ‘मोक्ष’ ही इन्हें स्वीकार्य है। संक्षेप में आधुनिक व्यक्ति स्वातन्त्र्य का विचार इन्द्रिय सुख और भोग—विलासरूपी बेलगाम घोड़े की ऐसी सवारी है जो अवसर आने पर मनुष्य को पतन के गर्त में डाल सकती है। यहीं से प्रारम्भ होता है जैन दर्शन के व्यक्ति स्वातन्त्र्य का इतिहास।
जीव चेतन है और अजीव अचेतन। दोनों को जोड़ने वाली कड़ी है कर्म। जीव या मनुष्य मूलरूप से शुद्ध चैतन्य तथा स्वतन्त्र है। किन्तु कर्मों की बेड़ी से बंधा होने के कारण वह परतन्त्र कहलाता है। परतन्त्रता भी इतनी गहरी है कि उठना—बैठना, चलना—फिरना, सोना—जागना, सुख—दु:ख की अनुभूति उसकी स्वतन्त्र अनुभूति नहीं बल्कि अजीव तत्त्व भौतिक पुद्गल पदार्थों पर आश्रित है। जन्म—जन्मान्तरों से पौद्गलिक पदार्थो की पराधीनता के अभ्यस्त जीव या मनुष्य की स्थिति उन पालतू तोतों और कबूतरों की भाँति है जिन्हें उनका स्वामी यदि खुले आकाश में मुक्त भी कर देता है तो भी अपनी पराधीनता से गहरा राग और लगाव होने के कारण वे बार—बार उन्हीं पिजरों में वैâद होने के लिए खुशी—खुशी वापस आ जाते हैं।
भारत की पराधीनता का इतिहास साक्षी है कि देश के कुछ स्वार्थी राजाओं ने अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए विदेशी शासकों के समक्ष्ा आत्म—समर्पण किया था। बाद में उसकी भारी कीमत स्वतंत्रता सेनानियों को चुकानी पड़ी थी। आचार्य श्री देशभूषण जी विदेशी शासकों के समक्ष आत्म—समर्पण की इन घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देख रहे थे और उनके सामने अजीव पौद्गलिक सुखों के समक्ष मनुष्य की पराधीन मानसिकता की तर्ज पर बना जैन तत्त्व मीमांसा का इतिहास भी स्पष्ट था। इन्हीं युग मूल्यों से परिसंवाद करती ‘ओ बन्दी देख’ नामक काव्य क्षणिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस काव्य क्षणिका में मानव मन द्वारा इन्द्रियों की दासता ग्रहण करने की दुर्बलताओं को रेखांकित किया गया है। इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषय भोगों से पराभूत होने की मानवीय दुर्बलता को विदेशी शासन की गुलामी के रूपक में बांधा गया है। विदेशी सत्ता का तन और मन दोनों पर अधिकार हो गया है। इस परतन्त्रता की जंजीरों में जकड़ा हुआ, मानव भोग विलास के पुष्प सौन्दर्य से मोहित है और वैâद कर लिया गया है। रूप, रस, गंध के कंटीले तारों से उसकी स्वतन्त्रता अवरुद्ध हो गई है। स्वतंत्रता, मुक्ति, आलोक, और समता से वंचित मानव मन अपने विषय भोगों की लोलुपता के कारण दासता की जंजीरों में जकड़ता ही जा रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में ‘उपदेश सार संग्रह’ की ये काव्य पंक्तियाँ दर्शनीय हैं—
ओ बन्दी ! तू पूछता है—पराजय क्या है ?
पराजय है विदेशी सत्ता के सामने आत्मसमर्पण !
विदेशी तेरे देश के हर कोने में घुसता जा रहा है
और सोख रहा है तेरी देह से अनवरत रक्त।
यही रक्त सींच रहा है विदेशी शासन के तरुमूल को
ताकि उसमें खिल सकें तरह—तरह के रंग बिरंगे फूल।
देख ! यही तेरी परतन्त्रता है।
विदेशी किस्म के फल—फूलों ने तुझे इतना लुभाया है
देख! यही है तेरी परतन्त्रता का हेतु।
विदेशी सेना तुझे एक ऐसे दुर्ग में बन्दी बना चुकी है
जिसके पाँचों द्वारों में लगे हैं कंटीले तारों के घने जाल।
ओ बन्दी ! माना शासक उदार दिल का है
तो बहुत कुछ सुविधाएँ भी मिल सकती हैं।
फिर भी देख बन्द ही पड़े हैं स्वतन्त्रता के द्वार।
फूलों की जिस सेज में तू सोया है
इनके केशर में उलझ गए हैं तेरे पैर।
जरा देख बन्द ही पड़े हैं, मुक्ति के द्वार।
‘जैन जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि’ में डॉ. दयानन्द भार्गव का मन्तव्य है कि ‘जैन धर्म का वास्तविक सन्देश व्यक्ति की स्वतन्त्रता है। समय का प्रभाव, प्रकृति, परिस्थिति, पूर्वकर्म, जन्म ये सब गौण हैं, व्यक्ति प्रधान है। जो व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्ति पर विश्वास खो देता है उसे ये बाह्य परिस्थितियाँ दबोज लेती हैं। जिस प्रकार मकड़ी अपने द्वारा पैदा किए हुए जाले में स्वयं फंस जाती है, उसी प्रकार व्यक्ति अपनी ही पैदा की हुई परिस्थितियों में स्वयं फंस जाता है और जिस प्रकार वह मकड़ी अपने पैâलाए हुए जाल को स्वयं ही समेट सकती है, उसी प्रकार व्यक्ति भी अपनी पैâलायी हुई परिस्थितियों का स्वयं ही अन्त कर सकता है।’
जैन दर्शन की दृष्टि से यही कर्म है, शेष सब प्रतिकर्म या प्रतिक्रिया कहलाती हैं। कर्मों के कारण ही मनुष्य परिस्थितियों के हाथ की कठपुतली बनता है। एक परिस्थिति उत्पन्न होती है वह एक प्रकार का कर्म कर देता है और दूसरी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो उसकी प्रतिक्रिया में वह दूसरा कर्म कर देता हैं इस दशा में मनुष्य को स्वतन्त्र कैसे कहा जा सकता है। वह परिस्थिति निरपेक्ष होकर कोई कर्म करता ही नहीं केवल परिस्थितियों का दास बनकर ही सारे कर्म करता है। तब क्या यह माना जाए कि मनुष्य स्वतन्त्र होकर कोई कार्य कर ही नहीं सकता ? ऐसा नहीं है, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक््â चारित्र के ज्ञान—चक्षु से पर्यवेक्षित कर्म मनुष्य को परिस्थितियों का दास नहीं बनाने किन्तु अजीव के संसर्ग से प्रेरित कर्म ही मनुष्य को पराधीन बनाते हैं और उसे बन्धन की बेड़ियों से जकड़ देते हैं। आचार्यों ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसकी पराधीनता को शर्बत तथा शराब के दृष्टान्त द्वारा बहुत अच्छी तरह से समझाया है—‘मनुष्य के सामने शराब और शर्बत दोनों पदार्थ रखे हुए हैं। मनुष्य अपनी इच्छानुसार दोनों में से किसी को भी पी सकता है। पीने से पहले उसको स्वतन्त्रता है किन्तु पी लेने के बाद उसकी इच्छा कुछ परिवर्तन नहीं कर सकती। अत: शराब यदि पी ली है तो मनुष्य को न चाहते हुए भी नशा अवश्य आएगा। शराब का असर उसे भुगतना होगा।’
शुभकर्मों और अच्छे विचारों से उसका सौभाग्य बनता है किन्तु अशुभ कर्मों और बुरे विचार उसे दुर्भाग्य की ओर धकेलते हैं। इस तरह मनुष्य का सौभाग्य और दुर्भाग्य पहले या पिछले समय में बोया हुआ अच्छा या बुरा बीज ही है। यह कर्म का सिद्धान्त कार्यकारणवाद के सिद्धान्त पर आधारित है। जिसका तात्पर्य है ‘जैसा बोओगे वैसा काटोगे।’ यानी आज हम जो काट रहे हैं हमने अवश्य कभी बोया था और आज जो बो रहे हैं उसे काटना भी अवश्य होगा।
भारत के अनेक दार्शनिक चिन्तक इस मत से पूर्णत: सहमत नहीं हैं कि व्यक्ति स्वतन्त्र है। कुछ व्यक्ति को परिस्थिति का दास मानते हैं तो कुछ के अनुसार ईश्वर जैसी अतिमानवीय सत्ता व्यक्ति के सुख—दु:ख का निर्णय करती है। कुछ विचारक स्वयं व्यक्ति को ही अपने सुख—दु:ख के लिए उत्तरदायी मानते हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् में इन तीनों वादों का विवेचन क्रमश: परिस्थितिवाद, ईश्वरवाद और आत्मवाद के रूप में आया है। परिस्थितिवाद के अन्तर्गत भी अनेक मत—मतान्तर प्रचलित हैं जिनमें से कुछ काल को, कुछ स्वभाव को, कुछ नियति को, कुछ यदृच्छा को और कुछ भूत को सुख—दु:ख का कारण मानते हैं। किन्तु जैनदर्शन इन सभी वादों के समन्वय पर बल देता है। इस सम्बन्ध में ‘गोम्मटसार’ का कथन है कि जैनेतर दृष्टियां इसलिए एकान्तवादी हैं कि वे केवल अपने दृष्टिकोण को ही सत्य मानती हैं। किन्तु ये दृष्टिकोण यदि अन्य दृष्टिकोणों के सत्य पर भी ध्यान दें तो सत्य बन जाते हैं—
परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होइ सव्वहा वयणा।
जैणाणां पुणं वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो।।
दरअसल, जैन दृष्टि से स्वतन्त्रता मुक्ति की ओर ले जाने वाली एक दार्शनिक अवधारणा है। स्वतंत्रता का अर्थ है कि कोई दूसरा मेरे मार्ग में बाधा न बने और मैं भी किसी के मार्ग में बाधा न बनूँ। मैं दूसरे के मार्ग में द्वेष करके ही बाधा नहीं बनता बल्कि राग करके भी बाधा पहुँचाता हूँ। इसी प्रकार दूसरे भी राग या द्वेष से मेरी स्वतन्त्रता में बाधक बन जाते हैं। मैं किसी से न राग की अपेक्षा करूं और न द्वेष की किन्तु यह तभी सम्भव है जब मुझे अपनी स्वयं की शक्ति पर विश्वास हो। इसी स्वावलम्बन को जैन दर्शन में स्वातन्त्र्य चेतना के नाम से जाना जाता है। मनुष्य परावलम्बी इसलिए होता है क्योंकि वह अपने आन्तरिक अभावों को बाह्य पदार्थों के संग्रह द्वारा छिपाना चाहता है। मनुष्य में जब प्रेम का अभाव होता है तो वह स्त्री, पुत्र और सम्बन्धियों से प्रेम सम्बन्ध स्थापित करके प्रेमाभाव की पूर्ति करने का प्रयास करता है। मनुष्य में जब ज्ञान का अभाव होता है तो उसकी पूर्ति के लिए उसे शास्त्रों, गुरुओं तथा ज्ञान के अन्य संसाधनों की शरण में जाना पड़ता है। पर ये सभी बाह्य पदार्थ और संसाधन मनुष्य को परावलम्बी और परतन्त्र बनाते हैं।
निम्नलिखित काव्य पंक्तियों में मानव की इसी विवशता अथवा परवशता का वर्णन है जहाँ मनुष्य स्वतन्त्र या मुक्त होने की लालसा तो रखता है। किन्तु कजरारी आखों की घनघटा और गगनचुम्बी अट्टालिकाओं ने उसके ज्ञान और पारदर्शी सम्यक््â दृष्टि को कैद कर लिया है तथा सुनहरे सपनों की मादकता से उसके पैर लड़खड़ा रहे हैं—
ओ सर्वज्ञ ! मैं तेरा मार्ग वैâसे जानूँ ?
देखो न ! ये कजरारे बादल मंडरा रहे हैं !
ढांक दिया है इन्होंने मेरी आँखों के प्रकाश को !
ओ सर्वदर्शिन् ! मैं तुझे अब कैसे देखूँ ?
देखो न इन गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को
वैâद कर ली है इन्होंने मेरी पारदर्शी दृष्टि को
ओ निर्विघ्न ! मैं तेरे पास वैâसे आऊँ ?
तेरे सिंहद्वार पर बैठे हैं भयंकर प्रहरी !
बिछा दिए हैं जिन्होंने कांटों के कंटीले जाल
ओ वीतरागी ! मैं तेरे पथ पर कैसे चलूँ ?
उन्मत्त हो चुका हूँ सुनहरे सपनों की मादकता से
मैं आना चाहता हूँ, मगर पैर लड़खड़ा रहे हैं।
‘उपदेश सार संग्रह’ में मछियारे की लड़की और माली की लड़की का एक दृष्टान्त देते हुए बताया है कि एक दिन मछियारे की लड़की अपनी सहेली माली की लड़की के घर मेहमान बन कर आई तो मछियारे की लड़की को उस घर में व्याप्त फूलों की सुगन्ध से रात को नींद नहीं आई। बाद में जब उसने अपनी मछली की टोकरी को सिरहाने में रखा तो उसकी दुर्गन्ध से उसे तुरन्त नींद आ गई। इसी तरह बुरी आदत संसारी जीवों को पड़ी हुई है जिससे आत्मकल्याण की सुगन्ध उन्हें नहीं सुहाती। ‘संघे शक्ति: कलौ युगे’ नामक काव्य क्षणिका में सांसारिक भोग विलास में डूबे हुए लोगों की भेड़चाल की मनोवृत्ति का खुलासा है कि जब भौतिकवादी सुखवाद के शोरगुल में आत्मकल्याण और अध्यात्म चेतना के बोल सुनाई नहीं देते और मनुष्य जानता हुआ भी सांसारिक सुखों में ही आत्मकल्याण मानने लगता है। ‘संघे शक्ति: कलौ युगे’ की भेड़चाल उसे उस पराधीनता की ओर जबरदस्ती धकेल रही है—
उधर मेरे साथी भी तो खड़े हैं। पुकार पुकार कर कह रहे हैं।
अरे ! परलोक किसने देखा है, विजय का आनन्द किसने लूटा है !
ये पौद्गलिक सुख हमें प्रत्यक्ष हैं, ये भाग हमारे नि:सर्ग हैं।
इन्हें पराजय कौन कहता है ? वर्तमान को छोड़ रहा है।
भविष्य के लिए दौड़ रहा है, अरे निपट मूर्ख है !
शब्द—रूप—रस—गन्ध—स्पर्श, सुख—दु:ख के हमारे साथी हैं।
अपन भी सबके साथ चलेंगे, जो सबके साथ होगा, वही अपन का भी सही।
आज भौतिकवादियों और भोगवादियों के संघव्यूह में व्यक्ति स्वातन्त्र्य अथवा आत्म स्वातन्त्र्य, का बोध अभिमन्यु की तरह घिरता जा रहा है। उसके पास शास्त्र, गुरु, धर्म, दर्शन के अस्त्र—शस्त्र तो हैं किन्तु दुर्योधनी षड्यन्त्र से बाहर निकले का मार्ग उसके पास नहीं। ऐसे संकटकाल की परिस्थितियों में भगवान् महावीर द्वारा बताया गया मानव कल्याण का क्रांतिकारी विचार ही उसकी रक्षा कर सकता है। वह विचार है ‘आत्म स्वातन्त्र्य’ का विचार। भगवान् महावीर कहते हैं ‘पुरिसा तुममेव मित्तम्’ अर्थात् मनुष्य तू अपना मित्र स्वयं है। मनुष्य अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र द्वारा उच्चतम विकास अर्थात् मुक्ति के सोपान तक पहुँच सकता है। आत्म स्वान्त्र्य का यही विचार ‘व्यक्ति स्वातन्त्र्य’ की अवधारणा के नाम से प्रसिद्ध है। महावीर स्वामी की दृष्टि में दूसरे के द्वारा अनुभूत सत्य चाहे वह शास्त्रसम्मत ही क्यों न हो उधार लिया हुआ सत्य है। वह अपना सत्य जब तक नहीं बन जाता तब तक आत्म स्वातन्त्र्य और मुक्ति असम्भव है। भगवान् महावीर ने मनुष्य को स्वावलम्बी बनाने के उद्देश्य से कहा है कि व्यक्ति अपनी साधना के बल से इतना ऊँचा उठ सकता है कि देवता भी उसको नमस्कार करते हैं। महावीर का चिन्तन व्यक्ति स्वातंत्र्य का चिन्तन होने के साथ—साथ सर्वोदयी समाज व्यवस्था का भी चिन्तन है। भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह आदि पंच महाव्रतों के आचरण से व्यक्ति स्वावलम्बी बनता है तथा समाज का चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास होता है।
जीव अकेला मरता है और अकेला जन्म लेता है। किन्तु प्रत्येक आत्मा इतना शक्तिशाली है कि वह अपने गुणों का विकास करके स्वयं परमात्मा बन सकता है। भगवान् महावीर ने यह भी कहा है कि यदि आत्म कल्याण चाहते हो तो आत्मा के साथ युद्ध करो, बाहरी युद्ध करने से क्या लाभ ? महावीर के इन उपदेशों से मनुष्य में जहां एक ओर आत्म विश्वास और आत्म स्वाभिमान की भावना प्रोत्साहित होती है वहां दूसरी ओर उसे ईश्वर जैसी किसी बाहरी सत्ता की पराधीनता से भी मुक्ति मिलती है।
जैन धर्म में पञ्च परमेष्ठी की अवधारणा ईश्वर निष्ठा की अवधारणा नहीं बल्कि आत्मनिष्ठा की अवधारणा है। वैदिक परम्परा में भी परमेष्ठी की अवधारणा इसी रूप में जानी जाती है। अथर्ववेद के अनुसार जो व्यक्ति पुरुष में ब्रह्म को जानता है वही परमेष्ठी को जानता है—‘ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदु: परमेष्ठिनम्’ ‘पञ्चास्तिकाय’ में भी कहा गया है कि जिसने आत्म साक्षात्कार नहीं किया चाहे वह पदार्थों का तत्त्वज्ञ भी हो, तीर्थंकरों का भक्त भी हो, शास्त्रों का ज्ञाता हो और संयम तथा तप का पालन भी करने वाला क्यों न हो, किन्तु निर्वाण अभी उससे बहुत दूर है। जैनधर्म में व्यक्ति के स्थान पर आध्यात्मिक विकास के आलोक स्तम्भ के रूप में पञ्च परमेष्ठी को उपास्य माना गया है। ये पञ्च परमेष्ठी हैं—१. अर्हंत, २. सिद्ध, ३. आचार्य, ४. उपाध्याय और ५. साधु। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ये पांचों पद व्यक्तिवाचक न होकर गुणवाचक हैं। इन पञ्च परमेष्ठियों की वन्दना करने वाला जैनधर्म का यह णमोकार मंत्र भी इसलिए परम कल्याणकारी मन्त्र माना जाता है—
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
इन पांच परमेष्ठियों में अर्हंत भगवान् जीवन मुक्त परमात्मा हैं, सिद्ध भगवान् पूर्णमुक्त परमात्मा हैं। अर्हन्त तथा सिद्ध भगवान् के पदचिन्हों पर चलने वाले संसार से विरक्त, महाव्रतधारी आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों परमेष्ठी भी गुरु तुल्य पूज्य माने जाते हैं। इस संसार में आध्यात्मिक गुणों के विकास के कारण ये पाँच परमेष्ठी समस्त संसारी जीवों में श्रेष्ठ होते हैं। आत्मशुद्धि अथवा व्यक्ति स्वातन्त्र्य का इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति इन्हीं पञ्च परमेष्ठियों का आदर्श रखकर आध्यात्मिक विकास की साधना कर सकता है।