भारतीय दर्शनों में सबसे अधिक प्राचीन अर्थात् अनादिनिधन जैनदर्शन है और उसके अपने मौलिक सिद्धान्त भी हैं, जो अन्य दर्शनों की अपेक्षा अनेक विशेषताओं को लिये हुए हैं। सभी भारतीय दर्शनों के चिन्तन का आधार केन्द्र आत्मा रहा है। सभी दर्शनों ने अपने—अपने ढंग से आत्मा के अस्तित्व और स्वरूप का चिन्तन किया है। जैनदर्शन की चिन्तनपद्धति ही अपने आप में विलक्षण है। आत्मसुख की चर्चा करते हुए जैनदर्शन ने एक ही बात कही है कि आत्मा अनादिकाल से संसार परिभ्रमण करते हुए विभिन्न प्रकार के मानसिक, कायिक और आकस्मिक आदि अनेक दु:खों की अबाध चक्की में पिसता रहा है और अब वह दु:खों की शृंखला का नाशकर सुखी होना चाहता है तो सर्वप्रथम उसे इस बात की गवेषणा करनी होगी कि मेरा संसारपरिभ्रमण किन कारणों से हो रहा है और उसका अन्त किस प्रकार हो सकता है। अनादिकालीन संसारपरिभ्रमण का कारण जैनाचार्यों ने मिथ्यात्व को बताया है और मिथ्यात्व का विरोधी सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व जीव की चिन्तनधारा को समीचीनता प्रदान करता है। मिथ्यात्व के कारण जिस संसार परिभ्रमण का कभी अन्त नहीं होता ऐसे अनन्तसंसार का स्वरूप एवं सम्यक्त्व के कारणभूत जीवादि तत्त्वों का चिन्तन करना आवश्यक है।
‘‘संसरणं संसार: परिवर्तनमित्यर्थ:।’’ ‘‘कर्मविपाकवशादात्मन: भवान्तरावाप्ति: संसार:’’ अर्थात् संसरण करने को संसार कहते हैं जिसका अर्थ परिवर्तन है। कर्म के विपाक वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है। अथवा जीव एक शरीर को छोड़ता है और दूसरे नये शरीर को ग्रहण करता है, पश्चात् उसे भी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है। इस प्रकार अनेक बार शरीर को धारण करता है और अनेक बार उसे छोड़ता है। मिथ्यात्व—कषाय आदि से युक्त जीव का इस प्रकार अनेक शरीरों में जो संसरण (परिभ्रमण) होता है उसे संसार कहते हैं।
आत्मा की चार अवस्थाओं का वर्णन भी जैनागम में मिलता है। संसार, असंसार, नोसंसार और इन तीनों से विलक्षण, इस प्रकार चार अवस्थाएँ हैं। अनेक योनियों से युक्त चारों गतियों में परिभ्रमण करना संसार है। पुन: पुन: जन्म नहीं लेना अथवा शिवपद की प्राप्ति या परमसुख की प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिरूप संसारपरिभ्रमण का तो निरोध हो जाना, किन्तु अभी मोक्ष की प्राप्ति नहीं हुई है ऐसी जीवनमुक्त सयोगकेवली की अवस्था ईषत्संसार या नोसंसार है। अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण हैं अर्थात् इनके चतुर्गतिरूप संसारपरिभ्रमण का तथा मुक्तावस्थारूप असंसार का तो अभाव है, किन्तु सयोगकेवली के समान प्रदेश परिस्पन्द का भी अभाव है ऐसी चौथे ही प्रकार की अवस्था अयोगकेवली के पाई जाती है।
संसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव परिवर्तन के भेद से पांच प्रकार का है।
द्रव्य परिवर्तन—नोकर्म द्रव्य परिवर्तन और कर्मद्रव्य परिवर्तन के भेद से द्रव्य परिवर्तन दो प्रकार है—
किसी एक जीव ने तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों का एक समय में ग्रहण किया। अनन्तर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा वर्ण व गन्ध आदि के द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भाव से ग्रहण किये थे उस रूप से अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओं को अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा, गृहीतागृहीतरूप मिश्र परमाणुओं को अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणुओं को अनन्तबार ग्रहण करके छोड़ा। तत्पश्चात् जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किये गये वे ही परमाणु उसी प्रकार के नोकर्मभाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक नोकर्म—द्रव्यपरिवर्तन है।
एक जीव ने आठ प्रकार के कर्मरूप से जिन पुद्गलों को ग्रहण किया वे समयाधिक एक आवलीकाल के बाद द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण हो गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया है उसी क्रम से वे ही पुद्गल उसी प्रकार से उस जीव के जब कर्मभाव को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक कर्मद्रव्यपरिवर्तन होता है। इस प्रकार यह जीव अनन्तबार पुद्गलपरिवर्तनरूप संसार में घूमता रहता है। द्रव्यपरिवर्तन में नोकर्म परिवर्तनकाल तीन प्रकार का होता है—अगृहीत ग्रहणकाल, गृहीत ग्रहणकाल और मिश्रकाल।
क्षेत्र परिवर्तन—क्षेत्र परिवर्तन के स्वक्षेत्र और परक्षेत्र परिवर्तन के भेद से दो भेद हैं—
कोई जीव सूक्ष्मनिगोदिया को जघन्य अवगाहना से उत्पन्न हुआ और अपनी आयुप्रमाण जीवित रहकर मर गया फिर वही जीव प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न हुआ। एक—एक प्रदेश अधिक की अवगाहनाओं को क्रम से धारण करते करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त संख्यातघनांगुल प्रमाण अवगाहना के विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है उतने काल के समुदाय को स्वक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं।
जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशों पर स्थित है, ऐसा एक सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तकजीव लोक के आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य में करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण काल तक जीवित रहकर मर गया। पश्चात् वही जीव पुन: उसी अवगाहना से वहां दूसरी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग में आकाश के जितने प्रदेश प्राप्त हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुDाा। पुन: उसने आकाश का एक एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्मक्षेत्र बनाया। इस प्रकार वह सब मिलकर एक क्षेत्र परिवर्तन होता है।
काल परिवर्तन—काल परिवर्तनरूप संसार में भ्रमण करता हुआ उत्सर्पिणी—अवसर्पिणीकाल के सम्पूर्ण समयों और आवलियों में अनेक बार जन्म—मरण धारण करता है। तद्यथा—कोई जीव उत्सर्पिणी—काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु के समाप्त हो जाने पर मर गया। पुन: वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और अपनी आयु के समाप्त होने पर मर गया, पुन: वही जीव तृतीय उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार क्रम से इसने उत्सर्पिणीकाल के जितने समय हैं उतनी बार उत्सर्पिणीकाल में जन्म लिया और मरण किया तथा उसी प्रकार अवसर्पिणीकाल को भी जन्म—मरण करके पूरा करता है। यह जन्म—मरण का क्रम निरन्तरता की अपेक्षा कहा गया है। यह सब मिलकर एक काल परिवर्तन है।
भवपरिवर्तन—मिथ्यात्व संयुक्त जीव ने नरक की सबसे जघन्य आयु से लेकर उपरिम ग्रैवेयक विमान तक की आयु क्रम से अनेकबार पाकर भ्रमण किया सो भवपरिवर्तन है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि नरकगति में सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। एक जीव उस आयु से वहां उत्पन्न हुआ पुन: घूम फिरकर उसी जघन्य आयु से वहाँ उत्पन्न हुआ। ऐसे १० हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मर गया। इस प्रकार आयु में एक—एक समय बढ़ाकर नरक की ३३ सागर की आयु पूर्ण की। तदनन्तर नरक से निकलकर अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु के साथ तिर्यञ्चगति में उत्पन्न हुआ और एक—एक समय बढ़ाते हुए इसने तिर्यञ्चगति की तीन पल्य की आयु समाप्त की। इसी प्रकार मनुष्यगति सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य आयु से लेकर तीन पल्य प्रमाण उत्कृष्ट आयु को पूर्ण किया। देवगति में नरकगति के समान ही १० हजार वर्ष की जघन्य आयु से ३१ सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु पूर्ण करता है। यहां ३१ सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु पर्यन्त कहने का यही तात्पर्य है कि यह उत्कृष्ट आयु उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त है और पंचपरावर्तनरूप संसार में भ्रमण करने वाला जीव इससे ऊपर नवानुदिश और पंचानुत्तर विमानों में उत्पन्न होता नहीं, क्योंकि वहां सम्यग्दृष्टिजीव उत्पन्न होते हैं। पंचपरावर्तनरूप संसार परिभ्रमण करते हुए उपरिम ग्रैवेयक तक मिथ्यादृष्टिजीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार यह भव परिवर्तन का लक्षण कहा है।
भावपरिवर्तन—इस जीव ने मिथ्यात्व के वशीभूत होकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के कारणभूत जितने प्रकार के परिणाम या भाव है उन सबका अनुभव करते हुए भाव परिवर्तनरूप संसार में अनेक बार भ्रमण किया है।
पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृति की सबसे जघन्य अपने योग्य अन्त: कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति को प्राप्त होता है उसके उस स्थिति के योग्य षट्स्थानपतित असंख्यातलोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थान होते हैं और सबसे जघन्य इन कषायाध्यवसाय स्थानों के निमित्त से असंख्यातलोकप्रमाण अनुभागध्यवसाय स्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्यस्थिति, सबसे जघन्यकषायाध्यवसायस्थान और सबसे जघन्य अनुभागाध्यवसायस्थान को धारण करने वाले इस जीव के तद्योग्य सबसे जघन्ययोगस्थान होता है। तत्पश्चात् स्थितिकषायाध्यवसायस्थान और अनुभागाध्यवसायस्थान वही रहते हैं, किन्तु योगस्थान दूसरा हो जाता है जो असंख्यातभागवृद्धि संयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योगस्थानों में समझना चाहिए। ये सब योगस्थान चारस्थानपतित होते हैं और इनका प्रमाण श्रेणी के असंख्यातवें भाग है। तदनन्तर उसी स्थिति और उसी कषाय—अध्यवसायस्थान को धारण करने वाले जीव के दूसरा अनुभाग अध्यवसायस्थान होता है, इसके योगस्थान पहले के समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहां भी पूर्वोक्त तीनों बातें ध्रुव रहती हैं, किन्तु योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। इस प्रकार असंख्यातलोकप्रमाण अनुभाग अध्यवसायस्थानों के होने तक तृतीयादि अनुभाग—अध्यवसायस्थानों में जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्यवसान तो जघन्य ही रहते हैं, किन्तु अनुभाग—अध्यवसायस्थान क्रम से असंख्यातलोकप्रमाण हो जाते हैं और एक—एक अनुभाग–अध्यवसायस्थान के प्रति जगच्छ्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं। तत्पश्चात् उसी स्थिति को प्राप्त होने वाले जीव के दूसरा कषाय—अध्यवसायस्थान होता है, इसके अनुभाग—अध्यवसायस्थान और योगस्थान पहले के समान जानना चाहिए। इस प्रकार असंख्यातलोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानों के होने तक तृतीय कषाय—अध्यवसायस्थानों में वृद्धि का क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार सबसे जघन्यस्थिति के कषायादि स्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्यस्थिति के भी कषायादिस्थान जानना चाहिए। इसी प्रकार एक—एक समय अधिक क्रम से तीस कोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण उत्कृष्टस्थिति तक प्रत्येक स्थिति के विकल्प के भी कषायादि स्थान जानने चाहिए। अनन्तभाग वृद्धि आदि वृद्धि के छह स्थान तथा इसी प्रकार हानि भी छह प्रकार की है। इनमें से अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि इन दो स्थानों के कम कर देने पर चार स्थान होते हैं। इस प्रकार सर्व मूल व उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तन का क्रम जानना चाहिए। यह सर्व मिलकर एक भावपरिवर्तन होता है।
अतीतकाल में एक जीव के सबसे कम भाव परिवर्तन के बार होते हैं अर्थात् सबसे कम बार भाव परिवर्तन होता है। भव परिवर्तन के बार भावपरिवर्तन के बारों से अनन्तगुणे हैं। कालपरिवर्तन के बार भवपरिवर्तन के बारों से अनन्तगुणे हैं। क्षेत्र परिवर्तन के बार कालपरिवर्तन के बारों से अनन्तगुणे हैं और पुद्गल परिवर्तन के बार क्षेत्र परिवर्तन के बारों से अनन्तगुणे हैं। पुद्गलपरिवर्तन का काल सबसे कम है, क्षेत्रपरिवर्तन का काल पुद्गलपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। कालपरिवर्तन का काल क्षेत्रपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। भवपरिवर्तन का काल, कालपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। भावपरिवर्तन का काल भवपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है।
इस प्रकार पाँच प्रकार के संसार परावर्तन का स्वरूप जानकर उसके निमित्तरूप मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करना चाहिए। सम्यग्दर्शन की महिमा यही है कि इस पंचपरावर्तनरूप अनन्तसंसार का उच्छेद हो जाता है और उसकी प्राप्ति होने के पश्चात् जीव का संसारपरिभ्रमण काल अधिक से अधिक अर्द्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण शेष रह जाता है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति चारों गति का भव्य, संज्ञी, पर्याप्तक, जागृत, साकारोपयोगी जीव ही क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि में उत्तरोत्तर परिणामविशुद्धि के द्वारा मिथ्यात्वादि सप्तप्रकृतियों (मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध—मान—माया व लोभ) का उपशम करके (उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त) करता है। उपर्युक्त पांच लब्धियों में से करणलब्धि बिना शेष चार लब्धियाँ तो अभव्यजीव के भी हो जाती हैं, किन्तु करणलब्धि के बिना सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इन पांचों लब्धियों में करणलब्धि तो अन्तरंग कारण है और शेष लब्धियाँ बहिरंग कारण हैं ऐसा जिनसेनाचार्य ने महापुराण में कहा है।
उपर्युक्त पाँचों लब्धि में तीसरी देशनालब्धि का लक्षण करते हुए आचार्यों ने कहा है—
‘‘छद्दव्व—णवपदत्थोवदेसो देसाणा णाम।’’ तीए देसणाए परिणदआइरियादीणमुवलंभो, देसिदत्थस्स गहण—धारण—विचारण—सत्तीए समागमो अ देसणलब्धि णाम।’’
छह द्रव्य और नौ पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते हैं।