तत्त्व सात होते है- जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर , निर्जरा और मोक्ष। आत्मा में शुभ अशुभ कर्मोें का आना आश्रव है।
तत्त्वार्थसूत्र की छठी अध्याय में आश्रव का वर्णन किया है- ‘काय वाड़्मन: कर्मयोग काय वचन और मन की क्रिया को योग कहते है। ‘स:आश्रव’ वह योग ही आश्रव है। आश्रव को द्वार की उपमा दी गई है जिस प्रकार नाले आदि के मुख द्वारा सरोवर में पानी आता है उसी प्रकार योग द्वारा ही कर्म और नो कर्म वर्गणाओं का गृहण होकर उनका आत्मा से संबध होता है इसलिए योग को आस्रव कहा है।
शुभ योग से पुण्य कर्म का आस्रव होता है और अशुभ योग पाप कर्म का आस्रव होता है। कषाय सहित योग वाले जीवों के साम्प्ररायिक आस्रव होता है और कषाय रहित वाले जीवों के ईर्यापथ आश्रव होता है। साम्परायिक आस्रव के ३८ भेद है- ५ इन्द्रियां ४ कषाय, ५ अव्रत और २५ क्रियायें ।
द्रव्यासंग्रह ग्रन्थ में आस्रव के दो भेद भी बताए है- द्रव्यास्रव और भावास्रव।
णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि।
दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो।।
ज्ञानावरणादि कर्मों के योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिए। वह अनेक भेदों वाला है। ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। आत्मा के जिस परिणाम से पुद्गल द्रव्यकर्म बनकर आत्मा में आता है उस परिणाम को भावास्रव कहते है।