अद्ध्रुवमसरणमेगत्त-मण्णसंसारलोगमसुचित्तं।
आसवसंवर णिज्जर, धम्मं बोिंह च चिंतेज्जो।।
(द्वादशानुप्रेक्षा गाथा-२)
—शंभु छन्द—
अध्रुव-अशरण-एकत्व और, अन्यत्व तथा संसार-लोक।
अशुचित्व तथा आस्रव संवर, निर्जरा-धर्म अरु ज्ञान बोध।।
इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं का, चिंतन साधू जो करते हैं।
उनकी आत्मा में तीव्ररूप, वैराग्यभाव परिणमते हैं।।
अर्थ—अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि, ये बारह अनुप्रेक्षाएं हैं। इनका हमेशा चिंतवन करना चाहिये।
भावार्थ—इन बारह भावनाओं का जो क्रम है, उसी क्रम से एक-एक का विस्तार से वर्णन किया गया है। यही क्रम श्री आचार्यदेव ने मूलाचार में भी रखा है। आज प्रसिद्धि में जो बारह भावनाओं का क्रम है, वह तत्त्वार्थसूत्र के आधार से है। इन भावनाओं के चिंतवन करने से वैराग्य की उत्पत्ति होती है और व्यक्ति मुनि, आर्यिका आदि दीक्षा लेकर मोक्षमार्गी बन जाता है। तीर्थंकर भी इन बारह भावनाओं का चिंतवन करके दीक्षा धारण करते हैं, इसलिये ये बारह भावनाएँ महान हैं।
णियमेण य जं कज्जं, तण्णियमं णाणदंसणचरित्तं।
विवरीयपरिहरत्थं, भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।
(नियमसार गाथा-३)
जो नियम से करने योग्य कार्य, वह ‘नियम’ शब्द से कहलाता।
वह दर्शनज्ञान चरित्र ही करने, योग्य कार्य है कहलाता।।
विपरीत अर्थ परिहार हेतु, उसमें भी ‘सार’ शब्द जोड़ा।
तब ‘नियमसार’ यह पद सार्थक, बन गया मुक्तिपथ का मोड़ा।।
अर्थ—नियम से जो करने योग्य है वह ‘नियम’ है, वह दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही है। विपरीत को दूर करने के लिये इसमें ‘सार’ शब्द जोड़ा गया है। इस प्रकार यह ‘नियमसार’ पद सार्थक है—सम्यक् रत्नत्रय का वर्णन करने वाला है।
भावार्थ—‘नियमसार’ ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्यदेव ने नियम का अर्थ रत्नत्रय करके ‘सार’ का अर्थ ‘समीचीन’ किया है अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और ‘मिथ्याचारित्र’ का परिहार करने के लिये ‘सार’ पद है। नियमसार ग्रन्थ में व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकार के रत्नत्रय का वर्णन है।
दंसणणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।
(समयसार गाथा-१६)
साधू को दर्शन-ज्ञान-चरित का, सेवन नित करना चहिये।
व्यवहार रत्नत्रय के बल पर, आत्माराधन करना चहिये।।
निश्चय रत्नत्रय ध्यान में ही, होता यह जिनवर वाणी है।
साधन व्यवहार साध्य निश्चय, यह कुन्दकुन्द की वाणी है।।
अर्थ—साधु को नित्य ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सेवन करना चाहिए और निश्चयनय की अपेक्षा से इन तीनों को आत्मा ही जानना चाहिए।
भावार्थ—व्यवहारनय से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीन हैं और निश्चयनय से इनसे परिणत—एकरूप हुई आत्मा ही निश्चय रत्नत्रय है अत: व्यवहार रत्नत्रय को धारण कर निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त करना चाहिए। यह निश्चय रत्नत्रय ध्यान में होता है अत: व्यवहार साधन है और निश्चय साध्य है, ऐसा आगे कहा गया है।
अत्तागमतच्चाणं, सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं।
ववगयअसेसदोसो, सयलगुणप्पा हवे अत्ता।।
(नियमसार गाथा-५)
जो आप्त-जिनागम-तत्त्वों का, दृढ़तापूर्वक श्रद्धान करे।
उसका निर्मल सम्यग्दर्शन, व्यवहार क्रिया का ज्ञान करे।।
सम्पूर्ण दोष से रहित सकल, गुण सहित आप्त कहलाते हैं।
इनसे अतिरिक्त न आप्त कोई, सर्वज्ञदेव बतलाते हैं।।
अर्थ—आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। सर्व दोषों से रहित और सकल गुणों से सहित आत्मा ही आप्त कहलाती है।
भावार्थ—सम्पूर्ण दोषों से रहित भगवान ही वीतरागी होते हैं। इनमें से क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोष प्रमुख हैं। सर्वगुणों से सहित कहने से सर्वज्ञता और हितोपदेशिता ये दोनों आ जाते हैं क्योंकि उनके द्वारा कथित वचन ही आगम कहलाते हैं, ऐसा आगे कहेंगे इसलिये वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता इन तीन गुणों से युक्त जो होते हैं, वे ही आप्त हैं और वे अर्हंतदेव ही हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं। यहाँ यह व्यवहार सम्यक्त्व का लक्षण द्वितीय प्रकार से कहा गया है।
तस्स मुहग्गदवयणं, पुव्वापरदोसविरहियं सुद्धं।
आगममिदि परिकहियं, तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था।।
(नियमसार गाथा-८)
सर्वज्ञदेव के मुख से निकले, वचन जिनागम कहलाते।
पूर्वापर दोषों से विरहित, निर्दोष वचन वे बतलाते।।
आगम में जो वर्णित होता, वह ही तत्त्वार्थ कहलाता है।
उसमें ही श्रद्धा करने से, सम्यग्दर्शन कहलाता है।।
अर्थ—आप्त के मुख से निकले हुए वचन ही ‘आगम’ कहलाते हैं। यह आगम पूर्व—अपर दोषों से रहित और शुद्ध—निर्दोष है। इस आगम में कहे गये ‘तत्त्वार्थ’ होते हैं।
भावार्थ—सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट और पूर्वाचार्यों द्वारा कथित वाणी ही जिनवाणी है। उसमें छह द्रव्यों का वर्णन है—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। नियमसार में इन छह द्रव्यों को ही ‘तत्त्वार्थ’ कहा है। कालद्रव्य को छोड़कर ये ही पाँच द्रव्य ‘पाँच अस्तिकाय’ कहलाते हैं। नियमसार जैसे अध्यात्म ग्रन्थ में भी आचार्यश्री कुन्दकुन्द देव ने यह सम्यक्त्व का लक्षण व्यवहारप्रधान किया है।
निश्चयनयानुसार जीव के गुणस्थानादि नहीं हैं-
चउगइभवसंभमणं, जाइजरामरणरोयसोका य।
कुलजोणिजीवमग्गण, ठाणा जीवस्स णो संति।।
(नियमसार गाथा-४२)
चारों गतियों में भ्रमण जन्म, अरु मरण जीव यह करता है।
जर-रोग-शोक-कुल-योनि-मार्गणा, गुणस्थान में रहता है।।
व्यवहारनयाश्रित कर्म उदय से, जीव के ही ये भाव कहें।
लेकिन निश्चयनय से कोई भी, भाव जीव के नहीं कहें।।
अर्थ—चार गति में भ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवसमास, मार्गणा, गुणस्थान ये जीव के नहीं हैं।
भावार्थ—नरक आदि गतियों में भ्रमण करना, जन्म, मरण, रोग, शोक, कुल, चौरासी लाख जातियाँ, चौदह जीवसमास, गति, जाति, आदि मार्गणायें और गुणस्थान आदि जो भी जीव के माने गये हैं, वे सब व्यवहारनय से कर्मों के उदय से ही माने गये हैं निश्चयनय से नहीं, क्योंकि आगे आचार्यदेव स्वयं नय विवक्षा खोल रहे हैं। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि व्यवहारनय से ही संसार और मोक्ष की व्यवस्था है।
असरीरा अविणासा, अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा।
जय लोयग्गे सिद्धा, तह जीवा संसिदी णेया।।
(नियमसार गाथा-४८)
जीवात्मा अशरीरी अविनाशी, और अतीन्द्रिय कहलाता।
निर्मल विशुद्ध आत्मा निश्चय-नय से भगवान कहा जाता।।
जैसे लोकाग्र भाग पर स्थित, सिद्ध मुक्त आत्मा माने।
वैसे ही शुद्ध नयाश्रय से, संसारी भी जाते जाने।।
अर्थ—यह जीव शरीर रहित, अविनाशी, अतीन्द्रिय, कर्ममल रहित है और विशुद्ध है, जैसे लोक के अग्रभाग पर सिद्ध भगवान स्थित हैं वैसे ही संसार में भी ये जीव शुद्ध हैं, ऐसा जानना।
भावार्थ—शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से सभी संसारी जीव सिद्धों के समान ही शुद्ध हैं। यह कथन शक्ति की अपेक्षा से समझना जैसे कि दूध में घी है इत्यादि। व्यवहारनय से अग्नि के संयोग से जल उष्ण है और उष्ण जल भी शुद्धनय से शीतल है, फिर भी उबलते जल को छूने से हाथ जलता ही जलता है अत: व्यवहारनय मिथ्या नहीं है। नहीं तो संसार में ही जीव मुक्त हैं तो पुन: मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ का उपदेश क्यों दिया गया है ?
एदे सव्वे भावा, ववहारणयं पडुच्च भणिदा हु।
सव्वे सिद्धसहावा, सुद्धणया संसिदी जीवा।।
(नियमसार गाथा-४९)
जीवों की यही अवस्थाएँ, व्यवहारनयापेक्षा मानी।
इन संसारी पर्यायों का, वर्णन करती है जिनवाणी।।
नय शुद्ध दृष्टि से संसारी, आत्मा भी सिद्धस्वभावी है।
यदि अपनी शक्ति प्रगट कर लें, तो बनते सिद्धस्वभावी हैं।।
अर्थ—ये सभी भाव व्यवहारनय की अपेक्षा से ही कहे गये हैं। शुद्धनय से तो संसार में सभी जीव सिद्ध स्वभाव वाले ही हैं।
भावार्थ—चार गति आदि में भ्रमण करने आदि रूप सभी अवस्थायें व्यवहार नय की अपेक्षा से ही शास्त्र में कही गई हैं। सारा द्वादशांग जीव की इन संसारी पर्यायों का ही वर्णन करता है फिर भी शुद्धनय से संसार में रहते हुये भी सभी संसारी प्राणी सिद्ध ही हैं। वे चाहे नारकी हों या पशु, चाहे भव्य हों या अभव्य अत: जैन सिद्धान्त के नय कथन को अच्छी तरह समझना चाहिये अन्यथा एकांती निश्चयाभासी होकर अपना ही घात कर लेंगे इसलिये जैनेश्वरी दीक्षा लेकर आत्मा को शुद्ध करना चाहिये।
पंचय महव्वयाइं, समिदीओ पंच जिणवरूद्दिट्ठा।
पंचेविंदियरोहा, छप्पि य आवासया लोओ।।
(मूलाचार गाथा-२)
हैं पाँच महाव्रत पाँच समिति, इन्द्रिय निरोध भी पाँच कहे।
छह आवश्यक अरु केशलोच, मुनियों के ये गुण मूल कहे।।
इनसे संयुक्त दिगम्बर मुनि, संयम उपकरण पिच्छि धरते।
शौचोपकरण प्रासुक जल युत, इक कमण्डलु को भी रखते।।
अर्थ—पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक क्रियाएँ और केशलोंच—ये जिनेन्द्रदेव ने मुनियों के मूलगुण कहे हैं।
भावार्थ—यहाँ बाईस मूलगुणों के नाम हैं, शेष छह अगली गाथा में हैं। इन मूलगुणों के साथ दिगबर मुनि संयम का उपकरण मयूरपंख की पिच्छिका और शौच का उपकरण काठ का कमण्डलु रखते हैं। यह दिगम्बर मुद्रा जिनमुद्रा या अर्हंतमुद्रा कहलाती है। यह मुद्रा तीनों लोकों में पूज्य मानी गयी है।
दिगम्बर मुनियों के शेष मूलगुण—
आचेलकमण्हाणं, खिदिसयणमदंतघंसणं चेव।
ठिदिभोयणेयभत्तं, मूलगुणा अट्ठवीसा दु।।
(मूलाचार गाथा-३)
वस्त्रों को त्याग अचेलक हैं, स्नान नहीं वे करते हैं।
क्षितिशयन अदंतधवन खड्गासन, से वे भोजन करते हैं।।
निजपाणिपात्र में एक बार, दिन में आहार ग्रहण करते।
सब मिल अट्ठाइस मूलगुणों का, यतिवर हैं पालन करते।।
अर्थ—आचेलक्य—वस्त्र का त्याग, अस्नान—स्नान नहीं करना, क्षितिशयन—भूमि पर सोना, अदंतधावन—दंत मंजन आदि का त्याग, स्थितिभोजन—खड़े होकर भोजन करना और एकभक्त—दिन में एक बार भोजन करना, पिछली गाथा से सम्बन्धित महाव्रत आदि ये अट्ठाईस मूलगुण हैं।
भावार्थ—श्री जिनेन्द्रदेव ने पाँच महाव्रत से लेकर एकभक्त तक अट्ठाईस मूलगुण कहे हैं, ये मुनियों के मूलगुण हैं। इसमें भूमिशयन से घास, चटाई, पाटा भी लिये जाते हैं और आचेलक्य से सर्व प्रकार के वस्त्र, आभूषण का त्याग कर दिगम्बर मुद्रा ग्रहण की जाती है।
मरदु व जिवदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा िंहसा।
पयदस्स णत्थि बंधो, हिंसामेत्तेण समिदीसु।।
(प्रवचनसार गाथा-२१७)
जीवों के मरने-जीने में, यदि यत्नाचार नहीं पाला।
प्राणीवध नहीं हुआ तो भी, हिंसा का पाप कमा डाला।।
जो यत्नाचार सहित मुनिवर, समिती में वर्तन करते हैं।
यदि हिंसा भी हो जाए कदाचित्, नहीं बंध वे करते हैं।।
अर्थ—जीव मरे या जिये किन्तु सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति न करने वाले के नियम से िंहसा होती है और प्रयत्नपूर्वक समितियों में प्रवृत्ति करने वाले के हिंसामात्र से भी बंध नहीं होता है।
भावार्थ—मुनिराज चार हाथ आगे जमीन देखकर चलते हैं, कदाचित् उनके पैर के नीचे कोई जीव अकस्मात् आकर मर भी जावे तो भी ईर्या समिति से चलते हुए मुनि को पाप बन्ध नहीं होता है और यदि देखकर नहीं चल रहे हैं तब जीव मरे या न मरे किन्तु िंहसा का पाप लग जाता है अत: सावधानीपूर्वक प्रत्येक क्रिया करनी चाहिए।
खम्मामि सव्वजीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केणवि।।
(मूलाचार गाथा-४३)
सब जीवों पर है क्षमा मेरी, सब जीव मुझे भी क्षमा करें।
सबसे है मैत्री भाव मेरा, निंह वैर किसी से किया करें।।
ऐसी उत्कृष्ट क्षमावाणी, प्रतिदिन साधूगण करते हैं।
प्रतिक्रमण तथा सामायिक में, निज आत्मशुद्धि को करते हैं।।
अर्थ—सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें। सभी जीवों के साथ मेरा मैत्रीभाव है, मेरा किसी के साथ वैरभाव नहीं है।
भावार्थ—यह श्लोक दशलक्षण पर्व के क्षमा दिवस पर तो पढ़ा ही जाता है, दशलक्षण पर्व के समापन के समय क्षमावणी के दिन भी इसे ही पढ़कर सभी जैन नर-नारी परस्पर में क्षमा-याचना करते हैं और आपस के वैरभाव को भुलाकर मैत्रीभाव को स्थापित कर लेते हैं तथा साधुवर्ग प्रतिदिन दिन में पाँच बार सामायिक और प्रतिक्रमण के समय इसका पाठ करते हैं। यह क्षमा भावना भव-भव के वैरभाव को दूर कर परस्पर में प्रेम भाव स्थापित करती है।
बावीसं तित्थयरा, सामायियसंजमं उवदिसंति।
छेदुवठावणियं पुण, भवयं उसहो य वीरो य।।
(मूलाचार गाथा-५३५)
बाईस तीर्थंकर ने सामायिक, संयम का उपदेश दिया।
श्रीवृषभदेव महावीर ने, छेदोपस्थापन संयम भी कहा।।
वृषभेश वीर के शिष्य सरल, अति मूढ़ बुद्धि के धारी थे।
बाकी बाईस जिनवर के शिष्य, उत्तम बुद्धी के धारी थे।।
अर्थ—बाईस तीर्थंकर सामायिक संयम का ही उपदेश देते हैं। भगवान श्री वृषभदेव और भगवान महावीर पुन: छेदोपस्थापना संयम का भी उपदेश देते हैं।
भावार्थ—भगवान ऋषभदेव के शिष्य अति सरल और जड़ स्वभावी थे तथा भगवान महावीर के समय के शिष्य अति कुटिल और मूढ़ हैं अत: ये दोनों ही तीर्थंकर छेदोपस्थापना अर्थात् अट्ठाईस भेदरूप चारित्र का उपदेश देते हैं और भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान पार्श्वनाथ तक बाईस तीर्थंकर मात्र एक अभेदरूप सामायिक चारित्र का ही उपदेश देते थे क्योंकि इनके शिष्य बुद्धिमान होते थे।
तवसुत्तसत्तएगत्त – भावसंघडणधिदिसमग्गो य।
परिआआगमबलिओ, एयविहारी अणुण्णादो।।
(मूलाचार गाथा-१४९)
तप सूत्र सत्त्व एकत्वभाव, संहनन धैर्य संयुत मुनिवर।
एकलविहार कर सकते हैं, इनसे संयुत दीक्षित यतिवर।।
ये जिनकल्पी कहलाते हैं, इनको निंह कोई डिगा सकता।
ये परमतपस्वी महामुनी, गुणपार न कोई पा सकता।।
अर्थ—तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्वभाव, संहनन और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण दीक्षा और आगम में बली मुनि एकलविहारी स्वीकार किए गए हैं।
भावार्थ—उत्तम संहनन से सहित तपस्वी, अंग-पूर्व आदि के ज्ञानी महामुनि ही एकलविहारी हो सकते हैं किन्तु आजकल के हीनसंहनन वाले अल्पज्ञानी, धैर्य आदि गुणों से रहित मुनि एकलविहारी नहीं हो सकते हैं। ऐसे मुनियों को संघ में ही रहना चाहिये।
सच्छंदगदागदी-सयणणिसयणादाणभिक्खवोसरणे।
सच्छंदजंपरोचि य, मा मे सत्तूवि एगागी।।
(मूलाचार गाथा-१५०)
आगमन गमन सोएँ बैठें, आहार आदि को ग्रहण करें।
मलमूत्र विसर्जन आदि कार्य में, जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करें।।
स्वच्छंद रुचि से जिनकी, वचनालापों में वृत्ति होवे।
ऐसा कोई मेरा शत्रू, एकलविहारी मुनि नहिं होवे।।
अर्थ—गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मल-मूत्रादि विसर्जन करना, इन कार्यों में जो स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला है और बोलने में भी स्वच्छंद रुचि वाला है, ऐसा मेरा शत्रु भी एकलविहारी न होवे।
भावार्थ—जो मुनि स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला है, वह भले ही मेरा शत्रु ही क्यों न हो किन्तु फिर भी वह एकलविहारी न बने, ऐसी श्रीकुन्दकुन्ददेव की आज्ञा है। यह आज्ञा आज के सभी मुनि-आर्यिकाओं को पालन करनी चाहिये।
वंदणणमंसणेिंह, अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती।
स्रमणेसु समावणओ, ण णिंदिया रायचरियम्मि।।
(प्रवचनसार गाथा-२४७)
मुनियों को वंदन नमस्कार, उठकर सम्मान आदि करना।
उनके पीछे-पीछे चलना, इत्यादि विनयवृत्ति करना।।
रागी मुनियों के लिये यही, उपचार विनय श्रेयस्कर है।
कर्त्तव्य मानकर करने से, ये पुण्य कार्य क्षेमंकर हैं।।
अर्थ—सराग चारित्र की अवस्था में अपने पूज्य मुनियों की वंदना करना, नमस्कार करना, उन्हें आते हुए देखकर खड़े होना, उनके जाते समय पीछे-पीछे चलना इत्यादि विनय प्रवृत्ति करना तथा उनके श्रम-थकावट को दूर करना यह निंदित नहीं है।
भावार्थ—छठे गुणस्थानवर्ती मुनि-मुनियों की यथायोग्य वंदना करें, उन्हें नमस्कार करें, उन्हें आते देखकर विनय से उठकर खड़े होकर उन्ाका स्वागत करें इत्यादि प्रवृत्तियाँ सरागचारित्रधारी मुनियों के लिये उचित ही हैं। जब मुनियों के लिये यह मार्ग है तब श्रावकों के लिये तो मुनियों की विनय भक्ति, वंदना आदि करना कर्त्तव्य ही है, ये श्रीकुन्दकुन्ददेव के वाक्य हैं।
दंसणणाणुवदेसो, सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं।
चरिया हि सरागाणं, जिणिंदपूजोवदेसो य।।
(प्रवचनसार गाथा-२४८)
दर्शन व ज्ञान उपदेश शिष्य, संग्रह उनका पोषण करना।
जिनवर की पूजा आदि करो, जन-जन को सम्बोधित करना।।
यह सब शुभोपयोगी मुनियों की, चर्या मानी जाती है।
यह मोक्षमार्ग की प्रमुख क्रिया, शास्त्रों से जानी जाती है।।
अर्थ—दर्शन और ज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह करना, उनका पोषण करना तथा जिनेन्द्रदेव की पूजा का उपदेश देना यह सब सरागी मुनि—शुभोपयोगी मुनियों की चर्या है।
भावार्थ—‘‘रत्नत्रयाराधनाशिक्षाशीलानां शिष्याणां ग्रहणं स्वीकारस्तेषामेव पोषणमशनपानादिचिंता।’’ रत्नत्रय की आराधना में तत्पर शिष्यों का संग्रह करना और उनके आहार आदि की चिंता करना इत्यादि संघ व्यवस्था संभालना यह सरागी मुनि आचार्यों की चर्या है, इसके बिना मोक्षमार्ग चल नहीं सकता है। ऐसे ही श्रावकों के लिये दान-पूजा का उपदेश देना शास्त्रसम्मत ही है।
जिणमुद्दं सिद्धिसुहं, हवेइ णियमेण जिनवरुद्दिट्ठा।
सिविणे वि ण रुच्चइ, पुण जीवा अच्छंति भवगहणे।।
(मोक्षपाहुड़ गाथा-४७)
जिनदेव कथित मुनि लिंग नियम, ये सिद्धि सुख का साधन है।
जो इसे ग्रहण कर लेते हैं, वे ही बन जाते पावन हैं।।
जिन जीवों को यह मुनिमुद्रा, निंह स्वप्न मात्र में रुचती है।
वह भव वन में ही भ्रमण करें, उनकी नैया निंह तिरती है।।
अर्थ—जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट जिनमुद्रा—दिगम्बर मुद्रा नियम से सिद्धिसुख स्वरूप है। जिन जीवों को यह मुनिमुद्रा स्वप्न में भी नहीं रुचती है, वे संसाररूपी गहन वन में ही भ्रमण करते रहते हैं।
भावार्थ—जो दिगम्बर मुनियों के प्रति स्वप्न में भी द्वेष या अनादर भाव करते हैं वे सम्यग्दर्शन से दूर हैं, उनका संसार भ्रमण नष्ट नहीं होगा क्योंकि यह मुनि—मुद्रा ही मोक्ष के लिये कारण है। मुनि—निंदा और सम्यग्दर्शन ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते, इनमें परस्पर विरोध है, ऐसा आचार्यों ने कहा है।
भरहे दुस्समकाले, धम्मज्झाणं हवेई साहुस्स।
तं अप्पसहावठिदे, ण हु मण्णइ सो वि अण्णाणी।।
(मोक्षपाहुड़ गाथा-७६)
इस भरतक्षेत्र में आज भी, पंचम काल में मुनिवर दिखते हैं।
आत्मस्वभाव में रत होकर, वे धर्मध्यान को करते हैं।।
जो नहीं मानते मुनि उन्हें, अज्ञानी वे कहलाते हैं।
चउविध संघ पंचमकाल, अंत तक रहेगा श्रुत बतलाते हैं।।
अर्थ—इस भरतक्षेत्र में आज दु:षमकाल में आत्मस्वभाव में स्थित हुए साधु को धर्मध्यान होता है, जो उन्हें नहीं मानते हैं वे अज्ञानी हैं।
भावार्थ—आज भी पंचमकाल में भावलिंगी दिगम्बर मुनि हैं और पंचमकाल के अन्त तक रहेंगे, ऐसा जो नहीं मानते हैं और आज के मुनियों को नमस्कार नहीं करते हैं वे अज्ञानी जिनमत से बहिर्भूत हैं। श्रीकुन्दकुन्ददेव के वचनों को नहीं मानने से मिथ्यादृष्टि हैं। पंचमकाल के अन्त तक मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविकारूप से चतुर्विध संघ रहेगा, ऐसा तिलोयपण्णत्ति में भी कहा है।
अज्ज वि तिरयणसुद्धा, अप्पा झाएवि लहहि इंदत्तं।
लोयंतियदेवत्तं, तत्थ चुदा णिव्वुदिं जंति।।
(मोक्षपाहुड़ गाथा-७७)
तीनों रत्नों से शुद्ध दिगम्बर, मुनि आज भी होते हैं।
आत्मा को ध्याकर इन्द्रों का, पद लौकान्तिक भी होते हैं।।
वहाँ से आकर नरभव पाकर, निर्वाण प्राप्त वे कर लेंगे।
इस युग में भी इक भव अवतारी, बनने वाले गुरु होंगे।।
अर्थ—आज भी तीन रत्न से शुद्ध दिगम्बर मुनि आत्मा का ध्यान करके इन्द्रपद और लौकांतिक देव के पद को प्राप्त कर लेते हैं पुन: वहाँ से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
भावार्थ—श्रीकुन्दकुन्ददेव के सामने भी कुछ ऐसे लोग होंगे जो कि मुनियों को नहीं मानते होंगे, तभी उन्होंने ऐसा कहा है कि आज भी रत्नत्रय से पवित्र मुनि होंगे, वे धर्मध्यान के प्रभाव से इन्द्रपद तो क्या लौकांतिक देव भी हो सकते हैं क्योंकि आज पंचमकाल में यहाँ से मोक्ष नहीं है अत: वे वहाँ से आकर उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। इतने विशेष चारित्रधारी मुनि भावलिंगी नहीं तो भला वैâसे होंगे ? अत: आज भी सच्चे मुनि हैं।
सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे विणस्सदि।
तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहि भावए।।
(मोक्षपाहुड़ गाथा-६२)
सुखिया जीवन में किया गया, जो तत्त्वज्ञान सुख देता है।
वह ही सुख थोड़ा दु:ख आने पर, ज्ञान नष्ट कर देता है।।
इसलिये यथाशक्ति दु:खों में, आत्मा का चिन्तवन करें।
जिससे कि परिषह आने पर भी, वे समाधि में रमण करें।।
अर्थ—सुख में भावित किया गया तत्त्वज्ञान दु:ख के आने पर नष्ट हो जाता है अत: योगी यथाशक्ति दु:खों में अपनी आत्मा की भावना करें।
भावार्थ—सुखिया जीवन में की गयी तत्त्व की चर्चाएँ दु:खों के आ जाने पर नहीं टिक पाती हैं अत: मुनियों को दु:खों को आमंत्रित कर-करके व्रत, उपवास, कायक्लेश आदि कर-करके आत्मतत्त्व की भावना करते रहना चाहिए जिससे उपसर्ग और परिषहों आने पर भी तत्त्वज्ञान काम आ सके और अंतिम समाधि की सिद्धि हो सके।
धुवसिद्धि तित्थयरो, चउणाणजुदो करेइ तवयरणं।
पाऊण धुवं कुज्जा, तवयरणं णाणजुत्तो वि।।
(मोक्षपाहुड़ गाथा-६०)
तीर्थंकर की सिद्धि निश्चित, वे चार ज्ञानधारी होते।
तो भी वे तपस्या करते हैं, उनके बिन सिद्ध नहीं होते।।
इसलिये ज्ञान से युत होकर, तुम भी कुछ तपश्चरण कर लो।
तप का अभ्यास बढ़ा करके, निर्जरा कर्म की भी कर लो।।
अर्थ—तीर्थंकर का मोक्ष जाना निश्चित है, वे चार ज्ञानधारी हैं फिर भी तपश्चरण करते हैं, ऐसा जानकर तुम्हें ज्ञानसहित होकर भी नियम से तपश्चरण करना चाहिये।
भावार्थ—जब तीर्थंकर देव नियम से मोक्ष जाने वाले ही हैं और दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान भी हो जाता है फिर भी वे तपश्चरण करते ही हैं। भगवान आदिनाथ ने एक हजार वर्ष तक तप किया था, अत: हमारा-आपका भी कर्त्तव्य है कि तपश्चरण का अभ्यास बढ़ाते ही रहें। इससे कर्मों की भी निर्जरा होती है और कष्टों में तत्त्वज्ञान बना रहता है।
भिक्खं वक्कं हिययं, सोधिय जो चरदि णिच्च सो साहू।
एसो सुट्ठिद साहू, भणिओ जिणसासणे भयवं।।
(मूलाचार गाथा-१००६)
जो भिक्षा वचन और मन का, शोधन कर नित्य विचरते हैं।
वे ही साधू कहलाते हैं, अर्हन्मुद्रा को धरते हैं।।
जिनशासन में ऐसे सुस्थित, मुनिवर भगवान कहे जाते।
तीनों लोकों में पूज्य यही, सिद्धीकान्ता को हैं पाते।।
अर्थ—जो आहार, वचन और हृदय—मन का शोधन करके नित्य ही आचरण करते हैं, वे ही साधु हैं। जिनशासन में ऐसे सुस्थित साधु भगवान कहे गये हैं।
भावार्थ—आहारशुद्धि, वचनशुद्धि और भावशुद्धि से सहित मुनि यहाँ लोक में विचरण करते हुए भी ‘भगवान’ हैं क्योंकि ये ‘जिनमुद्राधारी’ हैं अत: तीनों लोकों में पूज्य हैं।
एरिसयभावणाए, ववहारणयस्स होदि चारित्तं।
णिच्छयणयस्स चरणं, एत्तो उड्ढं पवक्खामि।।
(नियमसार गाथा-७६)
ऐसी व्यवहार भावना से, व्यवहारिक चारित होता है।
जिनवर की भक्ती से सराग, चारित्र मुनि के होता है।।
इसके आगे निश्चयचारित्र का, निश्चयनय से कथन करूँ।
दोनों प्रकार चारित्र धार मैं, मुनि बन करके कब विचरूँ।।
अर्थ—इस पूर्वकथित भावना से व्यवहारनय का चारित्र होता है, जब इसके आगे निश्चयनय के चारित्र को कहूँगा।
भावार्थ—नियमसार में चौथे अधिकार में तेरह प्रकार के चारित्र का और पंचपरमेष्ठी की भक्ति का वर्णन करके आचार्यदेव ने कहा है कि यहाँ तक मैंने व्यवहारनय का चारित्र कहा है, अब आगे निश्चयनय के चारित्र को कहूँगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारचारित्रधारी मुनि ही निश्चयचारित्र के पात्र हो सकते हैं, न कि गृहस्थ। स्वयं कुन्दकुन्ददेव भी व्यवहार चारित्रधारी महामुनि थे अत: उन्हीं के ग्रन्थों को पढ़कर मुनियों को नहीं मानना श्रीकुन्दकुन्द देव की ही अवमानना है।