सिद्धं सिद्धत्थाणं ठाणमणोवमसुहं उवगयाणं।
कुसमयविसासणं सासणं जिणाणं भवजिणाणं।।
—(आचार्य सिद्धसेन, सम्मइसुत्तं (सन्मतिसूत्र))
अर्थ—संसार को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान का शासन अनुपम सुख के स्थान को प्राप्त है, प्रमाणप्रसिद्ध अर्थों का स्थान है और मिथ्यामत का निवारण करने वाला स्वत:सिद्ध है।
उद्दीपीकृतधर्मतीर्थमचलं ज्योतिर्ज्वलत्केवला—
लोकालोकितलोकालोकमखिलैरिन्द्रादिभिर्वन्दितम्।
वंदित्वा परमार्हतां समुदयं गां सप्तभंगीविधि:,
स्याद्वादामृतगर्भिणी प्रतिहतैकांतान्धकारोदयाम्।।
—(अकलंकदेव अष्टशती)
अर्थ—जिन्होंने धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया है और प्रज्वलित होती हुई अचल ज्योतिरूप केवलज्ञान के आलोक (प्रकाश) से लोक और अलोक को देख लिया है तथा जो समस्त/इन्द्रों से वन्दित हैं, उन अरिहन्तों के समूह को नमस्कार हो। जिसने एकान्तरूपी अन्धकार को दूर कर दिया है ऐसी सप्तभंगीरूप स्याद्वादरूपी अमृत से पूर्ण वाणी को भी नमस्कार हो।
प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थ—बोध—दीधिति—मालिने।
नम: श्रीजिनचन्द्राय, मोह—ध्वान्त—प्रभेदिने।।
—(आचार्य विद्यानन्दि, आप्तपरीक्षा)
अर्थ—जो समस्त पदार्थ प्रकाशक ज्ञानकिरणों से विशिष्ट हैं (यानी भूत, भावी और वर्तमान सम्पूर्ण जीवादि पदार्थों के ज्ञाता है) और मोहरूपी अन्धकार के प्रभेदक हैं यानी मोहनीय कर्म के नाश करने वाले हैं उन श्री जिनरूप चन्द्रमा के लिए नमस्कार हो, यानी अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार हो।
देवागम—नभोयान—चामरादि—विभूतय:।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान्।
—(आचार्य समन्तभद्र, आप्तमीमांसा)
अर्थ—(हे वीर जिन!) देवों के आगमन के कारण, आकाश में गमन के कारण और चामरादि विभूतियों के कारण आप हमारे गुरु—पूज्य अथवा आप्त पुरुष नहीं हैं, क्योंकि ये अतिशय मायावियों में भी देखे जाते हैं। आप तो दोषों से रहित वीतराग और सर्वज्ञ हैं, अत: प्रणम्य हैं।
गुणानां विस्तरं वक्ष्ये, स्वभावानां तथैव च।
पर्यायाणां विशेषेण, नत्वा वीरं जिनेश्वरम्।।
—(आचार्य देवसेन, आलाप—पद्धति)
अर्थ—महावीर भगवान को नमस्कार करके मैं गुणों और स्वभावों के तथा विशेषरूप से पर्यायों के विस्तार को कहूँगा।
प्रणम्य सर्वविज्ञानमहास्पदमुरुश्रियम्।
निर्धूतकल्मषं वीरं, वक्ष्ये तत्त्वार्थवार्तिकम्।।
—आचार्य अकलंकदेव, तत्त्वार्थवार्तिक)
अर्थ—सर्वविज्ञानमय, बाह्य—अभ्यंतर लक्ष्मी के स्वामी और परम—वीतराग श्री महावीर को प्रमाण करके तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थ को कहता हूँ।
श्रीवर्धमानमाध्याय, घातिसंघातघातनम्।
विद्यास्पदं प्रवक्ष्यामि, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम्।।
—(आचार्य विद्यानन्दि, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार)
अर्थ—अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरंगलक्ष्मी और समवसरण आदि बाह्यलक्ष्मी से सहित हो रहे इष्टदेव श्री वर्धमान स्वामी चौबीसवें तीर्थंकर को, जिन्होंने चारों घातिकर्मों की सैंतालीस प्रकृतियों तथा इनकी उत्तरोत्तर अनेक प्रकृतियों का क्षायिक रत्नत्रय से समूल—चूल क्षय कर दिया है और जो मेरे अवलम्ब हैं, उनका मन, वचन, काय से ध्यान करके तत्त्वार्थश्लोक-वार्तिक नामक ग्रंथ को कहूँगा।
दव्वा विस्ससहावा, लोगागासे सुसंठिया जेिंह।
दिट्ठा तिलायविसया, वंदेऽहं ते जिणे सिद्धे।।
—(माइल्लधवल, द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र (णयचक्को)
अर्थ—जिन्होंने लोकाकाश में सम्यव्âरूप से स्थित विश्वस्वरूप त्रिकालवर्ती द्रव्यों को देखा, उन जिनों और सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूँ।
श्रीवर्द्धमानमर्हन्तं, नत्वा बालप्रबुद्धये।
विरच्यते मित—स्पष्ट—सन्दर्भ—न्यायदीपिका।।
—(श्रीमदभिनव—धर्मभूषण यति, न्यायदीपिका)
अर्थ—श्री वर्द्धमान स्वामी को अथवा ‘अन्तरंग’ और ‘बहिरंग’ विभूति से प्रकर्ष को प्राप्त समस्त जिन—समूह को नमस्कार करके मैं जिज्ञासु बालकों (मन्द जनों) के बोधार्थ विशद् संक्षिप्त और सुबोध ‘न्यायदीपिका’ को बनाता हूँ।
पंचाध्यायावयवं मम कर्तुर्ग्रन्थराजमात्मवशात्।
अर्थालोकनिदानं यस्य वचस्तं स्तुवे महावीरम्।।
—(कविवर पं. राजमल्ल, पंचाध्यायी)
अर्थ—अवयवरूप से ५ अध्यायों में विभक्त ग्रन्थराज को आत्मवश होकर बनाने वाले मेरे लिए जिनके वचन पदार्थों का प्रतिभास कराने में मूल कारण हुए, उन महावीर स्वामी की मैं (ग्रन्थकार) स्तुति करता हूँ।
श्रीवर्द्धमानमानम्य, स्याद्वादन्यायनायकम्।
प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थं, पत्रवाक्यं विचार्यते।।
—(आचार्य विद्यानन्दि, पत्रपरीक्षा)
अर्थ—स्याद्वाद न्याय के नायक, समस्त पदार्थों को जानने वाले, श्री वर्द्धमान भगवान को नमस्कार करके ‘पत्रवाक्य’ का विचार करता हूँ।
प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्यय:।
इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म, सिद्धमल्पं लघीयस:।।
—(आचार्य माणिक्यनन्दि, परीक्षामुख)
अर्थ—प्रमाण से पदार्थों का निर्णय होता है और प्रमाणाभास से पदार्थों का निर्णय नहीं होता। इसलिए मन्दबुद्धि बालकों के हितार्थ उन दोनों के संक्षिप्त और पूर्वाचार्य प्रसिद्ध लक्षण कहता हूँ।
जयन्ति निर्जिताशेष—सर्वथैकान्तनीतय:।
सत्यवाक्याधिपा: शश्वद्विद्यानन्दा जिनेश्वरा:।।
—(आचार्य विद्यानन्दि, प्रमाणपरीक्षा)
अर्थ—जिन्होंने सम्पूर्ण सर्वथा एकान्त नयों को जीत लिया है, जो सत्यवाक््â (अनवद्य/हितकारी वचन) के स्वामी हैं तथा जो सदा केवलज्ञानरूपी विद्या से आनन्दित हैं—ऐसे जिनराज जयवन्त हैं।
श्रीवर्धमानं सुरराजपूज्यं, साक्षात्कृताशेषपदार्थतत्त्वम्।
सौख्याकरं मुक्तिपिंत प्रणम्य, प्रमाप्रमेयं प्रकटं प्रवक्ष्ये।।
—(आचार्य भावसेन त्रैविद्यदेव, प्रमाप्रमेय)
अर्थ—देवाें के राजा, इन्द्र द्वारा पूजित, सुख के आकर (भण्डार) श्रेष्ठ निधि, मुक्ति के स्वामी तथा समस्त पदार्थों के स्वरूप को जिन्होंने साक्षात्—प्रत्यक्ष जाना है, उन श्री वर्धमान महावीर जिन को प्रणाम करके मैं प्रमाप्रमेय तथा उसके विषयों का स्पष्ट वर्णन करूँगा।
सिद्धेर्धाम महारिमोहहननं कीर्त्ते: परं मन्दिरम्,
मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुखं संशीतिविध्वंसनम्।
सर्वप्राणिहितं प्रभेन्दुभवनं सिद्धं प्रमालक्षणम्,
संतश्चेतसि चिन्तयन्तु सुधिय: श्रीवर्द्धमानं जिनम्।।
—(आचार्य प्रभाचन्द्र, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड)
अर्थ—जो सिद्धि मोक्ष के स्थान स्वरूप हैं, मोहरूपी महाशत्रु का नाश करने वाले हैं, कीर्ति देवी के निवास/मंदिर हैं अर्थात् कीर्ति—संयुक्त हैं, मिथ्यात्व के प्रतिपक्षी हैं, अक्षय सुख के भोक्ता हैं, संशय का नाश करने वाले हैं, सभी जीवों के लिए हितकारक हैं, कान्ति के स्थान हैं, अष्ट कर्मों का नाश करने से सिद्ध हैं तथा ज्ञान ही जिनका लक्षण है अर्थात् केवलज्ञान के धारक हैं—ऐसे श्री वर्द्धमान भगवान का बुद्धिमान सज्जन निज मन में ध्यान करें—चिन्तवन करें।
नतामरशिरोरत्नप्रभाप्रोतनखत्विषे।
नमो जिनाय दुर्वारमारवीरमदच्छिदे।।
—(श्रीमल्लघु अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमाला)
अर्थ—नम्रीभूत चतुर्निकाय देवों के मुकुटों में लगे हुए मणियों की प्रभा से जिनके चरण—कमलों के नखों की कान्ति दैदीप्यमान हो रही है और जो दुर्निवार पराक्रम वाले कामदेव के मद को छेदने वाले हैं, ऐसे श्री जिनदेव को हमारा नमस्कार है।
कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमानं, त्वां वर्द्धमानं स्तुतिगोचरत्वम्।
निनीषव: स्मो वयमद्य वीरं, विशीर्णदोषाऽऽशयपाशबन्धम्।।
—(आचार्य समन्तभद्र, युक्त्यनुशासन)
अर्थ—हे वीरजिन! आप दोषों और दोषाशयों के पाशबन्धन से विमुक्त हुए हैं, आप निश्चितरूप से ऋद्धिमान हैं और आप महती कीर्ति से भूमण्डल पर वर्द्धमान हैं। अब आपको स्तुतिगोचर मानकर हम आपको अपनी स्तुति का विषय बनाना चाहते हैं।
धर्मतीर्थंकरेभ्योस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नम:।
वृषभादि—महावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये।।
—(आचार्य अकलंकदेव, लघीयस्त्रय)
अर्थ—स्याद्वादी धर्मतीर्थंकर वृषभनाथ से लेकर अन्तिम महावीर तीर्थंकर के लिए स्वात्म उपलब्धि हेतु बारंबार नमस्कार हो।
विद्यानन्दाधिप: स्वामी, विद्वद्देवो जिनेश्वर:।
यो लोवैâकहितस्तस्मै, नमस्तात् स्वात्मलब्धये।।
—(आचार्य विद्यानन्दि, सत्यशासनपरीक्षा)
अर्थ—केवलज्ञानरूपी विद्या के आनन्द में अग्रणी, स्वामी, विद्वान, देव, जिनेश्वर जो लोक के अनन्य हितैषी हैं, उनको अपने आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिए नमस्कार होवे।
वन्दित्वा सुरसन्दोहवन्दितांघ्रिसरोरुहम्।
श्रीवीरं कुतकात्कुर्वे सप्तभंगीतरंगिणीम्।।
—(पं. विमलदास, सप्तभंगी तरंगिणी)
अर्थ—मैं (विमलदास) सम्पूर्ण देवसमूहों से जिनके चरण—कमल नमस्कृत हैं ऐसे तथा अष्ट महाप्रातिहार्यादि लक्ष्मी और गर्भकल्याणकादि पंच मंगल समयों में इन्द्रों के आसनों की कम्पन आदि श्रीयुक्त महावीर स्वामी को नमस्कार करके कुतूहल में अर्थात् अनायास ही (बिना परिश्रम के) इस ‘सप्तभंगीतरंगिणी’ नामक ग्रंथ को रचता हूँ।
अनन्तविज्ञानमतीतदोषमबाध्यसिद्धान्तममर्त्यपूज्यम्।
श्रीवर्धमानं जिनमाप्तमुख्यं, स्वयम्भुवे स्तोतुमहं यतिष्ये।।
—(मल्लिषेणसूरि, स्याद्वादमंजरी)
अर्थ—अनन्त ज्ञान के धारक, दोषों से रहित, अबाध्य सिद्धान्त से युक्त, देवों द्वारा पूजनीय, यथार्थ वक्ताओं में (आप्तों में) प्रधान और स्वयंभू ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्र की स्तुति करने के लिए मैं प्रयत्न करूँगा।
अष्टसहस्री के रचयिता टीकाकार श्री विद्यानन्दि आचार्यदेव द्वारा रचित
अष्टसहस्री के दशों अध्याय के मंगलाचरण
श्रीवर्द्धमानमभिवन्द्य समन्तभद्रमुद्भूतबोधमहिमानमनिन्द्यवाचम्।
शास्त्रावताररचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितं कृतिरलङ्क्रियते मयास्य।।
—(आचार्य विद्यानन्दि, अष्टसहस्री)
अर्थ—जो समंत अर्थात् सर्वप्रकार से भद्र अर्थात् कल्याणस्वरूप हैं, जिनके केवलज्ञान की महिमा प्रकट हो चुकी है, जो विद्यानंदमय हैं, जिनके वचन अनिन्द्य अर्थात् अकलंकरूप अनेकान्तमय है, ऐसे श्री अर्थात् अंतरंग—अनन्त—चतुष्टयादि एवं बहिरंग—समवसरणादि विभूति से सहित अंतिम तीर्थंकर श्री वर्धमान भगवान को नमस्कार करके महाशास्त्र‘तत्त्वार्थसूत्र’ के प्रारम्भ में ‘मोक्षमार्गस्य नेतारम्’ इत्यादि मंगलरूप से रचित स्तुति के विषयभूत आप्त की मीमांसा स्वरूप जो ‘देवागम स्तोत्र’ है उसे भाष्यरूप से मैं अलंकृत करता हूँ। (प्रथम परिच्छेद)
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतै: किमन्यै: सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायते ययैव स्वसमयपरसमयसद्भाव:।।
अर्थ—जिसके द्वारा ही स्वसमय और परसमय का सद्भाव जाना जाता है ऐसी अष्टसहस्री को ही सुनना चाहिये अन्य हजारों शास्त्रों के सुनने का क्या प्रयोजन ? अर्थात् इस अष्टसहस्री के पठन श्रवण से ही स्वमत और परमत का ज्ञान हो जाता है इसलिये इसे अवश्य पढ़ना चाहिये। (द्वितीय परिच्छेद)
अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि संक्षेपात्।
विलसदकलज्र्धिषणै: प्रपञ्चनिचितावबोद्धव्या।।
अर्थ—श्री भट्टाकलंकदेव के द्वारा रचित अष्टशती प्रसिद्ध अर्थ से सहित है जो कि शोभायमान अकलंक—निर्दोष बुद्धि के धारक श्री विद्यानन्दि स्वामी के द्वारा अष्टसहस्रीरूप से की गई भी संक्षिप्त ही है। उत्तम बुद्धि धारक पुरुष को उसके अर्थ को और अधिक विस्तार करके समझना चाहिए। (तृतीय परिच्छेद)
जीयादष्टसहस्री देवागमसंगतार्थमकलज्र्म्।
गमयन्ती सन्नयत: प्रसन्नगम्भीरपदपदवी।।
अर्थ—अकलंक—निर्दोष, देवागम से संगत—अनुरूप अर्थ को, अथवा श्री समंतभद्र स्वामी द्वारा किये गये देवागम स्तोत्र पर श्री अकलंक देव के द्वारा रचित अष्टशती टीका के अर्थ को सम्यक््âनयों के प्रयोग से बतलाती हुई, प्रसन्न एवं गम्भीर पद—वाक्यों से सहित, श्री विद्यानन्द स्वामी द्वारा रचित अष्टसहस्री नामक टीका इस पृथ्वी पर चिरकाल तक जयशील होवे।। (चतुर्थ परिच्छेद)
स्फुटमकलज्र्पदं या प्रकटयति पदिष्टचेतसामसमम्।
दर्शितसमन्तभद्रं साष्टसहस्री सदा जयतु।।
अर्थ—जो बुद्धिमान पुरुषों के लिये अनुपम, अकलंक—निर्दोष पद को प्रकट करने वाली है अथवा जो भट्टाकलंक देव के द्वारा की गई अष्टशती के अनुपम पदों को स्फुट करने वाली है। एवं जो समंत—चारों तरफ से भद्र—कल्याण को दिखलाने वाली है अथवा श्री स्वामी समंतभद्राचार्य कृत देवागमस्तोत्र नामक मूल स्तुति को दिखाने वाली है। ऐसी श्री विद्यानंदि आचार्य द्वारा विरचित अष्टसहस्री सदा जयशील होवे।। (पंचम परिच्छेद)
पुष्यदकलज्र्वृिंत्त समन्तभद्रप्रणीततत्त्वार्थाम्।
निर्जितदुर्णयवादामष्टसहस्रीमवैति सद्दृष्टि:।।
अर्थ—अकलंक—निर्दोष अर्थ को पुष्ट करने वाली अथवा अकलंकदेव द्वारा रचित अष्टशती नाम की टीका को पुष्ट करने वाली एवं समंतभद्र—कल्याण स्वरूप तत्त्वों के अर्थ का प्रणयन करने वाली अथवा श्री समंतभद्रस्वामी द्वारा रचित देवागमस्तोत्र से तत्त्वों के अर्थ का प्रतिपादन करने वाली इस अष्टसहस्री नाम की टीका को सम्यग्दृष्टिजन दुर्नयवाद को जीतने वाली समझते हैं। (षष्ठ परिच्छेद)
निर्दिष्टो य: शास्त्रे हेत्वागमनिर्णय: प्रपञ्चेन।
गमयत्यष्टसहस्री संक्षेपात्तमिह सामर्थ्यात्।।
अर्थ—श्री स्वामी समन्तभद्राचार्यवर्य कृत मूल देवागमस्तोत्र में जो हेतु और आगम का निर्णय विस्तृतरूप से किया गया है उसी को अपनी शक्ति के अनुसार यह अष्टसहस्री संक्षेप से बतलाती है। (सप्तम परिच्छेद)
ज्ञापकमुपायतत्त्वं समन्तभद्राकलज्र्निर्णीतम्।
सकलैकान्तासंभवमष्टसहस्री निवेदयति।।
अर्थ—जो श्री समन्तभद्र स्वामी के द्वारा ‘देवागम स्तोत्र’ रूप से और श्री भट्टाकलंक देव के द्वारा अष्टशती टीकारूप से निर्णीत है। अथवा जो श्री समंतभद्र स्वामी के द्वारा अकलंक—निर्दोषरूप से निर्णीत है तथा समंतात्—सर्वत: भद्रस्वरूप, श्री अकलंकदेव के द्वारा निर्णीत है। जिसमें एकांत पक्ष असंभव हैं ऐसा ज्ञापक–प्रकाशक ज्ञानरूप उपाय तत्त्व का यह अष्टसहस्री विस्तृत विवेचन करती है। (अष्टम परिच्छेद)
सम्यगवबोधपूर्वं पौरुषमपसारिताखिलानर्थम्।
दैवोपेतमभीष्टं सर्वं संपादयत्याशु।।
अर्थ—अखिल अनर्थों से रहित, सम्यग्ज्ञानपूर्वक हुआ पुरुषार्थ, भाग्य से रहित ही अभीष्ट है और वही शीघ्र ही सम्पूर्ण कार्य को सिद्ध करता है। (नवम परिच्छेद)
श्रीमदकलज्र्विवृतां समन्तभद्रोक्तिमत्र संक्षेपात्।
परमागमार्थविषयामष्टसहस्री प्रकाशयति।।
अर्थ—श्री स्वामी समंतभद्र के देवागमस्तोत्ररूप वचन हैं अथवा समंतात्भद्र को करने वाले वचन हैं उनकी श्री भट्टाकलंक देव ने अष्टशती नाम से टीका की है अथवा जो श्री—अंतरंग, बहिरङ्ग लक्ष्मी से सहित, कलंकरहित निर्दोष हैं एवं परमागम के अर्थ को विषय करने वाले हैं उन्हीं को संक्षेप में अष्टसहस्री नाम की टीका प्रकाशित करती है। (दशम परिच्छेद)
अष्टसहस्री ग्रंथ में हिन्दी टीकाकर्त्री गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित मंगलाचरण
सिद्धान् नत्वार्हतश्चाप्तान्, आदिब्रह्मा स वंद्यते।
युगादौ सृष्टिकर्ता य:, ज्ञानज्योति: स मे दिश।।
अर्थ—सिद्धों को और आप्तस्वरूप अर्हंतों को नमस्कार करके उन आदिब्रह्मा की मेरे द्वारा वंदना की जाती है जो कि युग की आदि में सृष्टिकर्मभूमिरूपी सृष्टि के कर्ता हुये हैं। वे आदिनाथ भगवान् मुझे ज्ञानज्योति प्रदान करें।
तीर्थेंशं श्रीत्रिभुवनपिंत वीरनाथं प्रणम्य, श्रीतत्त्वार्थं जिनवरवच:पूतपीयूषगर्भम्।
चित्ते धृत्वा यतिपतिजगत्पत्युमास्वामिसूरि:, मूर्ध्ना नित्यं भुवनमहित: वंद्यते सूत्रकर्ता।।
अर्थ—धर्म तीर्थ के ईश्वर—तीर्थेश्वर श्री—अंतरंग लक्ष्मी अनंतचतुष्टय आदि और बहिरंग लक्ष्मी समवसरणविभूति, उसके स्वामी तथा तीनलोक के नाथ ऐसे महावीर स्वामी को नमस्कार करके जिनेन्द्रदेव के पवित्र वचनरूपी अमृत से गर्भित श्री तत्त्वार्थसूत्र नामक महाशास्त्र को अपने हृदय में धारण करके यतीश्वरों के अधिपति तथा जगत् के स्वामी श्री उमास्वामी आचार्य जो कि जगत् में पूज्य हैं, तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ के कर्ता हैं, शिर झुकाकर नित्य ही मेरे द्वारा उनकी वंदना की जाती है।
श्रीमत्सूत्रावतरणविधौ श्लोकमादौ कृतं यत्,
श्रीमान् स्वामी मुनिगणपति: स्तोत्रमाश्रित्य तर्कात्।
मीमांसां यां जिनपतिमहाप्तस्य सामन्तभद्रीं,
कृत्वा लोके जयति नितरां नम्यतेऽसौ मयात्र।।
अर्थ—श्रीमान-रत्नत्रय लक्ष्मी से विभूषित सूत्र के अवतार की विधि में सर्वप्रथम ग्रंथकार ने जो श्लोक बनाया था। श्रीमान् मुनियों के अधिपति श्री समंतभद्र आचार्य ने उस मंगलस्तोत्र का आश्रय लेकर तर्क–बुद्धि से जिनेन्द्रदेव महाआप्त की मीमांसा की, जो कि श्री समंतभद्राचार्य की कृति और सब प्रकार से भद्र–कल्याण को करने वाली आप्त मीमांसा है उसको रच करके जो लोक में अतिशय जयशील हो रहे हैं, ऐसे श्रीसमंतभद्राचार्य को यहाँ मेरे द्वारा नमस्कार किया जा रहा है।
देवागमस्तवनमाप्तपरीक्षया यत्। तस्योपरि प्रकटिताष्टशती सुटीका।
येनेह तं विजितवादिगणं मुनीन्द्र, वंदे कलंकरहितं ह्यकलंकदेवम्।।
अर्थ—आप्त की परीक्षापूर्वक यह ‘देवागमस्तोत्र’ नाम का जो शास्त्र है उसके ऊपर जिन्होंने ‘‘अष्टशती’’ नाम से टीका बनाई है। वादीजनों को जीतने वाले, कलंक रहित, मुनीन्द्र श्री अकलंकदेव की मेरे द्वारा वंदना की जाती है।
देवागमस्तवं ह्यष्टशतीयुक्तं प्रपद्य यै:।
कृता टीकाष्टसाहस्री, श्रीविद्यानंदिने नम:।।
अर्थ—अष्टशती से युक्त इस देवागमस्तोत्र को प्राप्त करके जिन्होंने ‘अष्टसहस्री’ नाम से टीका रची है उन श्री विद्यानंदि आचार्य को मेरा नमस्कार हो।
अष्टसहस्री वंद्या, सप्तसुभंगैस्तरंगितामृतसरणि:।
यामवगाह्य वचो मे, समन्तभद्रं ह्यकलंकं लघु भूयात्।।
अर्थ—सप्तभंगरूपी तरंगों से सहित अमृत की नदीस्वरूप अष्टसहस्री सदा वंद्य है कि जिसका अवगाहन करके मेरे वचन शीघ्र ही समंतभद्र स्वरूप—सबका हित करने वाले और अकलंक—निर्दोष हो जावें।
भावाभावस्वभावेन, वस्तुतत्त्वं व्यवस्थितं।
या ब्रूते तां स्तुवे नित्यं, प्रक्रियां सप्तभंगिनीं।।
अर्थ—भाव और अभाव के स्वभाव द्वारा वस्तु तत्त्व को व्यवस्थित रूप से बतलाने वाली जो सप्तभंगी प्रक्रिया है, उसकी मैं स्तुति करता हूँ।
दशाध्याये परिच्छिन्ने, प्रोक्ता: स्याद्वादप्रक्रिया:।
नमाम्यष्टसहस्रीं तां, वाक््âशुद्ध्यै नयसिद्धये।।
अर्थ—जिसके अन्दर दश अध्यायों में विभक्त स्याद्वाद प्रक्रिया कही गई है उस अष्टसहस्री की मैं वचन शुद्धि और नय की सिद्धि के लिए नमस्कार करता हूँ।
स्याद्वादिंचतामणिनामधेया। टीका मयेयं क्रियतेऽल्पबुद्ध्या।
चिंतामणि: चिंतितवस्तुदाने। सम्यक्त्वशुद्ध्यै भवतात् सदा मे।
अर्थ—स्याद्वादिंचतामणि नाम की यह टीका मुझ अल्पबुद्धि के द्वारा की जा रही है। यह चिंतित वस्तु को देने में चिंतामणि ही है, यह चिंतामणि टीका सदा मेरे सम्यक्त्व की शुद्धि के लिये होवे।
उमास्वामिकृतं पूत—मर्हत्संस्तवमंगलं। महेश्वरश्रियं दद्यात्, महादेवपदस्थितं।।
मूलाधारं स्तुतेराप्त—मीमांसाकृतेरिदं। मूलमष्टसहस्र्याश्च, मंगलं मंगलं क्रियात्।।
देवागमस्तवोद्भूता, समंतात् भद्रकारिणी। अकलंकवच:पूता, विद्यानंदं तनोतु मे।।
महापूज्या जगन्माता, स्याद्वादामृतवर्षिणी। अनेकांतमयीमूर्ति:, सप्तभंगतरंगिणी।।
स्वपर—समयज्ञानं, प्रकटीकुरुते सदा। सर्वथैकांतदुर्दांतान्, विमदीकुरुते क्षणात्।।
जिनशासन माहात्म्य—वर्धने पूर्णचंद्रवत्। मिथ्यामतमहाध्वांत—ध्वंसने सूर्यवत् सदा।।
जीयात् कष्टसहस्रैर्या साध्या सर्वार्थसिद्धिदा। पुष्यात्साष्टसहस्री मे, वांछां शतसहस्रिकाम्।।
उमास्वामी के द्वारा कृत, पवित्र अर्हंतदेव का स्तवरूप मंगलाचरण महादेव पद में स्थित ऐसी महेश्वर की लक्ष्मी मुझे प्रदान करे।
भावार्थ—इस श्लोक में श्लेषालंकार है अत: उमा—पार्वती के पति महादेव पक्ष में उमा—लक्ष्मी—तपो लक्ष्मी के स्वामी आचार्य श्री उमास्वामी के द्वारा रचित ‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं……आदि मंगलाचरण मुझे महादेव की लक्ष्मी—‘‘महांश्च चासौ देव: च महादेव:’’ के अनुसार महान् देव देवों के भी देव श्री अर्हंतदेव की लक्ष्मी प्रदान करें। आप्तमीमांसा नाम की स्तुति का मूल आधारभूत और अष्टसहस्री का भी मूल ऐसा यह मंगलाचरण सदा मंगल करे।
‘‘देवागमस्तव’’ से उत्पन्न हुई, समंतात्—सब तरफ से भद्र–कल्याण को करने वाली, अकलंकवचन—निर्दोष वचन से पवित्र यह अष्टसहस्री ग्रंथ मुझे—विद्यानंद ऐसे तीनों आचार्यों का नाम लेकर स्तवन भी कर दिया गया है। जो महान् पूज्य है, जगत् की माता है, स्याद्वादरूपी अमृत को बरसाने वाली है, अनेकांतमयी मूर्ति है, सप्तभंगों के तरंगों से सहित उत्तम नदी है, हमेशा स्वसमय और परममय के ज्ञान को प्रगट करती है। सर्वथा—एकांत दुराग्रहरूपी मत्त हस्तियों के मद को क्षण में दूर करने वाली है। जिनशासन के महात्म्य को बढ़ाने में पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान है। मिथ्यामतरूपी महा अंधकार को नष्ट करने में सदा सूर्य के समान है। जो हजारों कष्टों से सिद्ध होने योग्य है वह अष्टसहस्री सदा जयशील होवे, सर्व अर्थ की सिद्धि को देने वाली होवे और मेरी सहस्रों वांछाओं को सफल करे। (प्रथम परिच्छेद)
अद्वैतद्वैतनिर्मुक्तं, शुद्धात्मनि प्रतिष्ठितम्।
ज्ञानैकत्वं परं प्राप्त्यै, नुम: स्याद्वादनायकम्।।
अर्थ—अद्वैत और द्वैत से रहित, शुद्धात्मा में प्रतिष्ठित, उत्कृष्ट जो ज्ञान का एकत्व है—एकरूपता है उसकी प्राप्ति के लिये हम स्याद्वाद के नायक श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करते हैं। (द्वितीय परिच्छेद)
ये नित्या नाप्यनित्या वा, स्याद्वादिज्ञानगोचरा:।
अनाद्यनिधना: शुद्धास्तान् सिद्धान् प्रत्यहं नम:।।
अर्थ—जो न नित्य है न सर्वथा अनित्य ही हैं, स्याद्वादीजनों के ज्ञान के विषय हैं, अनादि और अनंत हैं, शुद्ध हैं, उन सिद्धों को हम प्रतिदिन नमस्कार करते हैं। (तृतीय परिच्छेद)
भेदाभेदविनिर्मुक्तं योगिगम्यमगोचरम्।
निर्भेदमप्यनंतं तं शुद्धात्मानं नमाम्यहम्।।
अर्थ—जो भेद—अभेद से रहित है, योगियों के ज्ञानगोचर होकर भी अगोचर है, भेदों से रहित एक होकर भी गुणों की अपेक्षा अनंत है ऐसी शुद्धात्मा को हम नमस्कार करते हैं। (चतुर्थ परिच्छेद)
ज्ञानैकरूपं परमात्मसंज्ञं, स्वायंभुवं स्वात्मगुणौघतुष्टम्।
कर्मारिनाशाय वयं निजानां, तं देवदेवं प्रणुम: सुभक्त्या।।
अर्थ—ज्ञान ही है एक स्वरूप जिनका, जो ‘परमात्मा’ इस नाम को धारण करने वाले हैं, ‘स्वयंभू भगवान हैं और जो अपने आत्मा के गुणों के समूह से संतुष्ट हो चुके हैं, हम अपने कर्म शत्रुओं को नष्ट करने के लिये ऐसे देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव को भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। (पंचम परिच्छेद)
जैनेंद्रवक्त्रांबुजनिर्गता या, भव्यस्य माता हितदेशनायां।
अनंतदोषान् क्षपितुं क्षमापि, तनोतु सा मे वरबोधिलब्धिम्।।
अर्थ—जिनेन्द्र भगवान् के मुख कमल से निकली हुई जो वाणी है वह भव्य जीवों को हितकर उपदेश देने में माता के समान ही है। वह भव्यों के अनंत दोषों को भी नष्ट करने में समर्थ हैं ऐसी वह जिनवाणी मुझे उत्तम बोधि—रत्नत्रय का लाभ प्रदान करे। (षष्ठ परिच्छेद)
अंतस्तत्त्वं बहिस्तत्वं, पश्यंति ज्ञानचक्षुषा।
स्याद्वादस्वामिनो वंदे, स्वात्मतत्त्वस्य सिद्धये।।
अर्थ—जिन्होंने अपने ज्ञान नेत्र के द्वारा अंतरंग तत्त्व और बाह्य तत्त्व को देख लिया हैं ऐसे स्याद्वाद के स्वामी श्री जिनेन्द्रदेव की हम स्वात्मत्त्व की सिद्धि के लिये वंदना करते हैं। (सप्तम परिच्छेद)
धर्मपौरुषतो येन, स्वदैवो मूलतो हत:।
चकास्त्यनंतशक्तया यो, नुमस्तं मोक्षहेतवे।।
अर्थ—जिन्होंने अपने धर्म पुरुषार्थ के बल से अपने दैव को—शुभ अशुभ कर्म को जड़मूल से नष्ट कर दिया है और जो अनंतशक्ति से—अनंतगुणों से शोभित हो रहे हैं, मोक्ष के लिये हम उन्हें नमस्कार करते हैं। (अष्टम परिच्छेद)
पुण्यपापप्रहंतारोऽप्यर्हन्त: पुण्यराशय:।
तीर्थकृत्पुण्यदातार:, स्तुमस्तान् स्वात्मशुद्धये।।
अर्थ—पुण्य और पाप कर्मों के नष्ट करने वाले होते हुए भी जो पुण्य की राशि स्वरूप हैं और तीर्थंकर जैसे पुण्य बन्ध को देने वाले हैं, अपनी आत्मा की शुद्धि के लिए हम उन जिनेन्द्रदेव की स्तुति करते हैं। (नवम परिच्छेद)
सर्वं जानंति सर्वज्ञा: केवलज्ञानचक्षुषा।
तान् नुम: पूर्णज्ञानाप्त्यै, भक्तिरागेण कोटिश:।।
अर्थ—केवलज्ञान रूपी चक्षु के द्वारा जो सर्व लोक—अलोक को जानते हैं वे ‘सर्वज्ञ’ देव कहलाते हैं हम अपने में पूर्णज्ञान को केवलज्ञान को प्राप्त करने के लिये उन सर्वज्ञदेव को भक्ति के अनुराग से करोड़ों बार नमस्कार करते हैं। (दशम परिच्छेद)