जीव के दु:खों का मूल कारण एक ही है—अज्ञान, मिथ्याज्ञान, अत: दु:खनिवृत्ति का भी मूल कारण एक ही है—ज्ञान, सम्यग्ज्ञान। तथा यह सम्यग्ज्ञान न्याय के द्वारा ही सम्भव है, अन्यथा नहीं। अत: न्याय का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।
वैसे तो हमारे देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही न्यायविद्या का बहुत अधिक महत्त्व माना जाता रहा है और जीवन के हर क्षेत्र में उसकी महती उपयोगिता स्वीकार की गई है, जैसा कि महाकवि कौटिल्य ने लिखा है—
‘‘प्रदीप: सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम्।
आश्रय: सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।।’’
अर्थ—आन्वीक्षिकी विद्या (न्यायविद्या) शाश्वत काल से ही सर्व विद्याओं का प्रदीप, सर्वकर्मों का उपाय और सर्वधर्मों का आश्रय मानी गई है।
परन्तु यहाँ हम उतने विस्तार में नहीं जाना चाहते हैं। बस, इतना ही जोर देकर निवेदन करना चाहते हैं कि हमें रुचि लेकर न्याय का ज्ञान अवश्य करना चाहिए, क्योंकि उसी के द्वारा तत्त्व का समीचीन ज्ञान होता है और फिर उस समीचीन तत्त्वज्ञान के द्वारा ही दु:खनिवृत्तिरूप मूल प्रयोजन सिद्ध होता है। अन्य कोई विधि नहीं है।
न्यायविद्या के लिए शास्त्रों में अनेक पर्यायवाची शब्द प्रचलित रहे हैं। यथा—परीक्षा, अन्वीक्षा, आन्वीक्षिकी, युक्ति, समीक्षा, तर्कविद्या, वादविद्या, हेतुविद्या, हेतुवाद, न्याय, नीति, औचित्य, विवेक, विचार, चिन्तन, परख इत्यादि। ये सभी तत्त्वान्वेषण में न्याय के विशेष महत्त्व को ही प्रकट करते हैं, अत: न्याय का ज्ञान अवश्य ही करना चाहिए।
किन्तु कुछ लोग मोक्षार्थी होकर भी, समीचीन तत्त्वजिज्ञासु होकर भी अनेक बहाने बनाकर न्याय के ज्ञान से बचने का प्रयत्न करते हैं, जो ठीक नहीं है। यहाँ उन्हीं के मन की शंकाओं का समाधान करने का प्रयत्न करते हैं। यथा—
शंका—कुछ लोग कहते हैं कि न्यायशास्त्र का ज्ञान तो शास्त्रार्थ या वाद—विवाद या येन—केन प्रकारेण स्वमतमण्डन और परमतखण्डन के लिए आवश्यक है, उसका आत्महित या तत्त्वज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं।
समाधान—ऐसी धारणा सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि न्यायशास्त्र का असली उद्देश्य समीचीन तत्त्वज्ञान के द्वारा आत्महित ही है, शास्त्रार्थ, वाद—विवाद या येन—केन प्रकारेण स्वमतमण्डन और परमत—खण्डन नहीं।
जो लोग न्यायशास्त्र का उद्देश्य शास्त्रार्थ या वाद—विवाद या स्वमतमण्डन और परमतखण्डन मात्र समझते हैं, वे वस्तुत: न्याय की परिभाषा ही नहीं जानते। न्यायशास्त्र के धुरन्धर विद्वान् आचार्य अकलंकदेव ने तो ऐसे लोगों को ‘गुणद्वेषी’ और ‘न्यायशास्त्र के मलिनकर्ता’ तक कहा है। यथा—
‘‘बालानां हितकामिनामतिमहापापै: पुरोपार्जितै—
र्माहात्म्यात्तमस: स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभि:।
न्यायोऽयं मलिनीकृत: कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते,
सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरै:।।’’
अर्थ—अहो, आत्महिताभिलाषी जीवों के पूर्वोपार्जित महापाप कर्म के उदय से, अविद्या—अन्धकार के माहात्म्य से और स्वयं कलियुग के प्रभाव से वर्तमान में गुणद्वेषी लोगों ने न्याय को मलिन कर दिया है। तथापि धन्य हैं वे अनुकम्पा—परायण आचार्य जो आज भी उसे किसी प्रकार सम्यग्ज्ञानरूपी जल से प्रक्षलित करते हुए आगे लिए चले जा रहे हैं।
आचार्य अकलंक के उक्त कथन में उनके हृदय की अपार वेदना और साथ ही करुणा भी प्रकट हो रही है, जिस पर हमें गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करना चाहिए।
वस्तुत: यह महान दु:ख का विषय है कि जो न्याय तत्त्वज्ञान का आवश्यक उपाय है, अनिवार्य साधन है, उसे लोगों ने वाद—विवाद एवं जय—पराजय का हेतु बना दिया है और तन्निमित्त छल—निग्रहादि का भी उपदेश दे दिया है। कषाय मिटाने के साधन को कषाय बढ़ाने का साधन बना दिया है।
यह सब देखकर हमारा भी हृदय बहुत दु:खी होता है, पर किया क्या जा सकता है, सिवाय इसके कि आचार्य अकलंकदेव की भाँति हम भी अपनी क्षमतानुसार इसे सम्यग्ज्ञान—जल से प्रक्षालित करते हुए आगे ले चलें। कुछ पात्र जीवों का तो कल्याण होगा ही।
दरअसल वाद—विवाद और परीक्षा—ये दोनों पृथक््â—पृथक््â दो चीजें हैं और दोनों में महान् अन्तर है। जिस प्रकार स्वच्छन्दता और स्वतन्त्रता में बड़ा अन्तर है, ईर्ष्या और स्पर्द्धा में बड़ा अन्तर है, उसी प्रकार वाद—विवाद और परीक्षा में बड़ा भारी अन्तर है। वाद—विवाद अनेक दोषों का दुर्गन्धित भण्डार है और परीक्षा अनेक गुणों का अनमोल खजाना। आचार्यों ने वाद—विवाद को विष कहा है तो परीक्षा को अमृत।
वाद—विवाद हमें मोह—राग—द्वेष में उलझता है जबकि न्याय हमें मोह—राग—द्वेष से ऊपर उठाकर वस्तु के सत्य स्वरूप का दर्शन कराता है।
यह जीव अनादिकाल से मोह—राग—द्वेष के वशीभूत होकर वस्तु के सत्य स्वरूप को उसी प्रकार नहीं देख पाता, जिस प्रकार कोई उन्मत्त पुरुष, परन्तु यह न्यायविद्या का ही परम उपकार है कि वह हमें मोह—राग—द्वेष से युक्त होने पर भी उनसे ऊपर उठकर वस्तु के सत्य स्वरूप को देखने की कला सिखाती है।
वाद—विवाद करने वाले का लक्ष्य येन—केन प्रकारेण स्वमतमण्डन और परमतखण्डन ही होता है, पर न्यायप्रिय व्यक्ति का लक्ष्य असत्य का निराकरण करके सत्य का अनुसन्धान कर लेना होता है। सूत्ररूप में कह सकते हैं कि वाद—विवाद करने वाले का सिद्धान्त होता है—मेरा सो खरा, जबकि न्यायप्रेमी का सिद्धान्त होता है—खरा सो मेरा।
वाद—विवाद करने वाले की दृष्टि सदा जय—पराजय पर ही होती है, जय—पराजय पर ही नहीं, अपनी जय और दूसरे की पराजय पर ही होती है, जबकि न्यायप्रेमी व्यक्ति की दृष्टि सदा सत्यानुसन्धान में लगी रहती है, उसे जय—पराजय से प्रयोजन नहीं होता, सत्यप्राप्ति को ही वह अपनी सबसे बड़ी विजय मानता है।
वाद—विवाद कलहप्रिय लोगों को अच्छा लगता है, जबकि न्याय को शान्तिप्रिय और सत्यान्वेषी लोग पसन्द करते हैं। जिनको न्याय अप्रिय लगता हो, अरुचिकर लगता हो, वे अवश्य आत्मनिरीक्षण करें। ‘छत्रचूड़ामणि’ में कहा है कि न्याय उन्हें अच्छा नहीं लगता जिनका मन ईर्ष्यादूषित है—
‘न ह्यत्र रोचते न्यायमीर्ष्यादूषितचेतसे।’
वाद—विवाद जितना हेय है, परीक्षा उतनी ही उपादेय है, अतएव प्राचीन काल से ही प्राय: सभी ऋषि—मुनियों ने वाद—विवाद को अत्यन्त हेय और परीक्षा को अत्यन्त उपादेय कहा है। मात्र कुछ ही लोगों ने परवर्ती काल में अज्ञान या कषाय के वशीभूत होकर वाद—विवाद और परीक्षा में अन्तर न करके न्यायशास्त्र को मलिन कर दिया है, जिससे बचना अत्यन्त आवश्यक है।
‘‘णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी।
तम्हा वयणविवादं सगपरसमएिंह वज्जिज्जो।।’’
अर्थ—नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्ध्यिाँ हैं, अत: स्वसमय—परसमयों के साथ वचन—विवाद नहीं करना चाहिए।
इसी प्रकार आदि शंकराचार्य भी स्पष्ट लिखते हैं—
‘बुधजनैर्वाद: परित्यज्यताम्।’
आचार्य अमितगति ने वाद—विवाद करने को कुतर्क करना कहा है और उसके अनेक दोष गिनाये हैं। यथा—
‘‘बोधरोध: शमापाय: श्रद्धाभंगोऽभिमानकृत्।
कुतर्को मानसो व्याधिर्ध्यानशत्रुरनेकधा।।
कुतर्तेऽभिनिवेशोऽतो न युक्तो मुक्तिकांक्षिणाम्।
आत्मतत्त्वे पुनर्युक्त: सिद्धिसौधप्रवेशके।।’’
अर्थ—कुतर्क ज्ञान को रोकने वाला, शान्ति का विनाशक, श्रद्धा को भंग करने वाला और अभिमान को बढ़ाने वाला मानसिक रोग है, जो कि अनेक प्रकार से ध्यान का शत्रु सिद्ध होता है, अत: मोक्षाभिलाषियों को कुतर्क में अपना मन नहीं लगाना चाहिए।
इस प्रकार प्राय: सभी विद्वानों ने वाद—विवाद या कुतर्क को अत्यन्त हानिकारक एवं हेय कहा है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि तर्क, न्याय या परीक्षा भी हेय है और हमें उससे भी दूर ही रहना चाहिए। हमारे सभी पूर्वाचार्यों ने जहाँ एक ओर कुतर्क या वाद—विवाद को अत्यन्त निन्दनीय और हेय कहा है, वहीं दूसरी ओर तर्क, न्याय या परीक्षा को अत्यन्त आदरणीय और उपादेय भी कहा है। जिन आचार्य अमितगति ने उपरि—उद्धृत श्लोक में कुतर्क के अनेक दोष गिना कर उससे बचने की प्रेरणा दी है, उन्होंने स्वयं ही एक ‘धर्मपरीक्षा’ नामक ग्रंथ भी लिखा है और उसमें पुन: पुन: प्रशंसा करते हुए परीक्षा को अत्यन्त उपादेय कहा है। यथा—
‘‘न बुद्धिगर्वेण न पक्षपाततो मयान्यशास्त्रार्थविवेचनं कृतम्।
ममैव धर्म शिवसौख्यदायिके परीक्षितुं केवलमुत्थित: भ्रम:।।’’
अर्थ—मैंने यहाँ अन्य शास्त्रों के अर्थ का विवेचन (निराकरण) बुद्धि के अभिमानवश या किसी पक्षपातवश नहीं किया है, अपितु मेरा ही धर्म शिवसुखदायक है—इसकी परीक्षा करके लोगों का भ्रम दूर किया है।
अपने ‘श्रावकाचार’ में भी वे परीक्षा का महत्त्व बताते हुए लिखते हैं—
‘‘लक्ष्मी विधातुं सकलां समर्थं सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनं।
परीक्ष्य गृह्णन्ति विचारदक्षा: सुवर्णवद्वंचनभीतचित्ता:।।’’
अर्थ—विचारवान पुरुष तो सर्वसमर्थ लक्ष्मी प्रदान कराने वाले धर्म को ठगाये जाने के भय से स्वर्ण की भाँति परीक्षा करके ही ग्रहण करते हैं।
इसी प्रकार अन्य भी अनेक आचार्यों ने परीक्षा की पुन:—पुन: प्रशंसा करते हुए उसे अत्यन्त उपादेय कहा है। आचार्य यतिवृषभ लिखते हैं कि—
‘‘जो ण पमाणणएिंह णिक्खेवेण णिरिक्खदे अट्ठं।
तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहादि।।’’
अर्थ—जो जीव प्रमाण, नय, निक्षेपों के द्वारा अर्थ की परीक्षा नहीं करता है उसे अयुक्त भी युक्त और युक्त भी अयुक्त की तरह प्रतिभासित होता है।
इसी प्रकार का भाव आचार्य वीरसेन ने भी ‘धवला’ में प्रकट किया है।
आचार्य सोमदेवसूरि ‘यशस्तिलकचम्पू’ में लिखते हैं कि वस्तुस्वरूप को समझने के लिए शपथ की नहीं, परीक्षा की आवश्यकता है—
‘‘एकान्त: शपथश्चैव वृथा तत्त्वपरिग्रहे।
सन्तस्तत्त्वं न हीच्छन्ति परप्रत्ययमात्रत:।।
दाहच्छेदकषा शुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया।
दाहच्छेदकषाऽशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया।।’’
अर्थ—पक्ष और शपथ—दोनों ही तत्त्वबोध के लिए व्यर्थ हैं, क्योंकि ज्ञानी पुरुष परप्रत्ययमात्र से तत्त्व का विश्वास नहीं करते। दहन, छेदन, कर्षण आदि से शुद्ध हुए स्वर्ण में शपथ क्या करेगी ? तथा दहन, छेदन, कर्षण आदि से शुद्ध न हुए स्वर्ण में भी शपथ क्या करेगी ?
आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी अपने ‘लोकतत्त्वनिर्णय’ आदि ग्रंथों में सुन्दर ढंग से परीक्षा का महत्त्व प्रतिपादित किया है। ‘लोकतत्त्व निर्णय’ में वे लिखते हैं—
‘‘पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष: कपिलादिषु।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रह:।।’’
अर्थ—मुझे महावीर से कोई पक्षपात नहीं और कपिलादि से कोई द्वेष नहीं है; परन्तु जिसके वचन युक्तिसंगत हों उसी का ग्रहण करना चाहिए।
आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने भी परीक्षा को महत्त्व देते हुए लिखा है—
‘‘न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचि: परेषु।
यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिता: स्म:।।
यत्र त्ात्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्याभिधया यया तया।
वीतदोषकलुष: स चेद्भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते।।’’
अर्थ—हे वीर प्रभु ! मुझे केवल श्रद्धामात्र से आपके प्रति पक्षपात नहीं है और द्वेषमात्र से दूसरे देवों में अरुचि नहीं है; परन्तु मैंने आप्तत्व की यथावत् परीक्षा करके ही आपका ही आश्रय ग्रहण किया है। किसी भी मत या सम्प्रदाय में हो, वैâसा भी हो, किसी भी नाम से जाना जाता है, परन्तु यदि वह सर्व दोष—कालुष्य से रहित हो गया हो तो हे भगवन्! वह तुम ही हो और तुम्हें ही मेरा नमस्कार हो।
न केवल जैनाचार्यों ने, इतर विद्वानों ने भी परीक्षा के महत्त्व को स्वीकार किया है। महाकवि कालिदास का निम्नलिखित श्लोक अत्यन्त प्रसिद्ध है जिसमें परीक्षाप्रधानी व्यक्ति को ही ज्ञानी (सन्त) और परीक्षा—रहित अन्धविश्वासी को मूढ़ कहा है
‘‘पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:।।’’
अर्थ—सभी पुराना अच्छा और सभी नया बुरा नहीं हो सकता। समझदार व्यक्ति दोनों की परीक्षा करके उनमें से जो समीचीन हो उसे ग्रहण करते हैं। मूढ़ व्यक्ति ही दूसरे के कथन मात्र से विश्वास करता है। एक स्मृति ग्रंथ में भी युक्तियुक्त वचनों को ही ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई है—
‘युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यम्।’
‘‘तापाच्छेदान्निषात् सुवर्णमिव पण्डिता:।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।।’’
अर्थ—हे विद्वान् भिक्षुओं ! जिस प्रकार स्वर्ण को भलीभाँति तपाकर, काटकर और कसौटी पर कसकर ही ग्रहण किया जाता है; उसी प्रकार तुम भी मेरे वचनों को परीक्षा करके ही ग्रहण करना, न कि गौरव से।
इस प्रकार ये सभी कथन परीक्षा के महत्त्व को प्रकट करते हैं, अत: हमें परीक्षा या न्याय का ज्ञान एवं आश्रय अवश्य करना चाहिए। किसी भी बहाने उससे बचने का आत्मघाती प्रयत्न करना ठीक नहीं। वाद—विवाद ही हेय है, परीक्षा नहीं। परीक्षा तो अत्यन्त उपादेय है।
शंका—कुछ लोग कहते हैं कि सत्य—असत्य की परीक्षा करना तो बहुत कठिन कार्य है, लगभग असम्भव—सा ही है। लोक में असत्य की अधिकता भी इतनी है कि उसमें से सत्य को पहचान लेना और पा लेना तो सोचना भी कठिन लगता है।
समाधान—ऐसे लोग उत्साह हीन हैं। परीक्षा करना कठिन अवश्य है, पर असम्भव कतई नहीं। यदि व्यक्ति स्वार्थ, आग्रह या पक्षपात से ऊपर उठकर एकदम निष्पक्ष होकर सच्ची विधि से परीक्षा करे तो सच्ची परीक्षा सहज हो सकती है, कठिन नहीं है। प्रमादी और आग्रही व्यक्ति ही परीक्षा नहीं कर पाता। आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी लिखते हैं—‘‘सच्ची झूठी दोनों वस्तुओं को कसने से और प्रमाद छोड़कर परीक्षा करने से तो सच्ची ही परीक्षा होती है। जहाँ पक्षपात के कारण भले प्रकार परीक्षा न करे वहीं अन्यथा परीक्षा होती है।’’
अत: परीक्षा के प्रति उत्साह हीन रहना ठीक नहीं। लोक में असत्य की अधिकता है—यह भी चिन्ता का विषय नहीं। किसी भी प्रश्न के असत्य उत्तर अधिक ही होते हैं, सत्य उत्तर तो एक ही होता है। अध्ययनशील विद्यार्थी उनसे घबराते नहीं है। ‘नकली माल बाजार में बहुत है अत: असली भी मत खरीदो’—यह कोई समाधान नहीं है। इसी प्रकार हीरे की परख कठिन ही होती है, परन्तु हीरे का व्यापारी ‘कौन परीक्षा के चक्कर में पड़े’—ऐसा कभी नहीं सोचता, उद्यम करके परीक्षा करता ही है और उससे उसे असली—नकली की पहचान भी होती ही है। जरा कल्पना कीजिए यदि हीरे का व्यापारी कठिन होने के कारण हीरों की परीक्षा करना छोड़ दे या उसमें शिथिलता करे तो क्या होगा ?
अत: उत्साहपूर्वक परीक्षा में प्रवृत्त होना चाहिए। उसी से समीचीन तत्त्वज्ञान का महान लाभ होगा।
शंका—कुछ लोग कहते हैं कि दु:खनिवृत्ति के लिए तो तत्त्वज्ञान आवश्यक है, न्यायज्ञान नहीं, अत: हम तो केवल तत्त्वज्ञान ही करेंगे, न्यायज्ञान नहीं। न्यायज्ञान तो अनावश्यक है।
समाधान—ऐसे लोग भी अज्ञानी हैं। यद्यपि यह सत्य है कि दु:खनिवृत्ति के लिए तत्त्वज्ञान आवश्यक है, परन्तु जैसा कि हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि वह तत्त्वज्ञान न्याय के द्वारा ही समीचीन: हो सकता है, उसके बिना कथमपि नहीं।
जिस प्रकार व्यापार तो वस्तुओं के क्रय—विक्रय से ही होता है, परन्तु वस्तुओं का क्रय—विक्रय तराजू आदि पैमानों के बिना ठीक—ठीक नहीं हो सकता, अत: व्यापारी को तराजू आदि पैमानों का भी ज्ञान और आश्रय अवश्य करना चाहिए, उसी प्रकार दु:खनिवृत्ति तो तत्त्वज्ञान से ही होती है, परन्तु वह तत्त्वज्ञान न्याय के बिना समीचीनतया नहीं हो सकता, अत: दुखनिवृत्ति के अभिलाषी को न्याय का भी ज्ञान और आश्रय अवश्य करना चाहिए।
शंका—न्यायशास्त्र के अध्ययन से बचने के लिए कुछ लोग कहते हैं कि जीवन छोटा है, समय कम है और हम अल्पबुद्धि हैं, अत: हम न्याय पढ़ने के चक्कर में नहीं उलझना चाहते। शास्त्रों में भी कहा है—
‘‘अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा।
तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणदि।।
अर्थ—शास्त्रों का अन्त नहीं है, समय कम है और हम भी दुर्बुद्धि हैं, अत: केवल वही सीखना चाहिए जो जन्म—जरा—मरण का क्षय करे।
समाधान—ऐसे लोग भी बड़े भ्रम में हैं, क्योंकि न्याय का ज्ञान तो इसीलिए आवश्यक बताया गया है कि कम समय में हम अल्पबुद्धि वस्तुस्वरूप का समीचीन ज्ञान कर सकें। वस्तुस्वरूप अत्यन्त जटिल है, अनन्तधर्मात्मक है, उसे यूँ ही नहीं समझा जा सकता। न्याय एक ऐसी सुलभ विधि है कि हम अल्पबुद्धि भी उसके द्वारा अनन्तधर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को अल्प समय में समीचीनतया समझ सकते हैं।
न्याय के अवलम्बन से वस्तुस्वरूप को समझना सरल होता है, कठिन नहीं। जिसप्रकार लोक में मीटर, तराजू आदि पैमाने सुलभ रीति से पदार्थों को ठीक–ठाक नापने—मापने का काम करने में हमारी बड़ी सहायता करते हैं, उसी प्रकार न्याय भी सुलभ रीति से वस्तुस्वरूप को ठीक–ठीक समझने में हमारी बड़ी सहायता करता है। अत: इसका ज्ञान अवश्य ही करना चाहिए। न्याय उलझाता नहीं है, सुलझाता है। उलझाता तो वाद—विवाद है, अज्ञान है।
तथा शास्त्रों में जो ऐसा कहा है कि शास्त्रों का अन्त नहीं है, समय कम है और हम अल्पबुद्धि हैं, अत: हमें वही सीखना चाहिए जिससे जन्म–मरण का क्षय हो, उसका अभिप्राय यह है कि लोक में अनेक विद्याएँ हैं, सबके अगणित शास्त्र हैं, हम उन सबको सीखने का प्रयत्न कहाँ तक करेंगे ? तब तक हमारा यह अल्प जीवन तो यूँ ही चला जायेगा और हम जन्म—मरण—रोग—विनाशक समीचीन तत्त्वज्ञान से वंचित रह जायेंगे, अत: दुनिया की अनेक अप्रयोजनभूत विद्याओं को सीखने में दुर्लभ समय और अल्पबुद्धि को मत लगाओ और तत्त्वज्ञान हेतु प्रयोजनभूत विषय पर ही ध्यान दो। कहा भी है—
‘‘गणिकचिकित्सकतार्किकपौराणिकवास्तुशब्दशास्त्रमर्मज्ञा:।
संगीतादिषु निपुणा: सुलभा: न हि तत्त्ववेत्तार:।।’’
अर्थ—गणित, चिकित्सा, तर्क (कुतर्क, वाद—विवाद), पुराण, वास्तु, शब्द और संगीत के शास्त्रों में निपुण लोग तो आसानी से मिल जाते हैं, परन्तु तत्त्व के ज्ञाता पुरुष मिलना बहुत कठिन है।
और भी कहा है कि—
‘‘बहत्तरकलाकुसला पण्डिय पुरिसा अपण्डिया चेव।
सव्वकलाण वि पवरं जे धम्मकलं ण जाणंति।।’’
अर्थ—जो पुरुष बहत्तर कलाओं में कुशल हैं, सभी कलाओं के प्रवर पण्डित हैं, परन्तु धर्मकला को नहीं जानते हैं, वे वास्तव में अपण्डित ही हैं।
अत: शास्त्रों का उपर्युक्त कथन अप्रयोजनभूत लौकिक विद्याओं के सम्बन्ध में ही समझना चाहिए। न्याय जगत् की उन अप्रयोजनभूत विद्याओं में से नहीं है अपितु मुक्तिमार्ग हेतु एक अत्यन्त प्रयोजनभूत आध्यात्मिक विद्या है। आचार्य सोमदेव ने भी इसे अध्यात्म विषय की प्रयोजनभूत विद्या कहा है। न्याय के बिना वस्तुस्वरूप का समीचीन ज्ञान कथमपि नहीं हो सकता है, अत: समीचीन तत्त्वजिज्ञासु को न्याय का ज्ञान अवश्य करना चाहिए।
शंका—कुछ लोग कहते हैं कि न्याय तो परवर्ती काल में आचार्य अकलंक आदि ने विकसित किया है। अधिक से अधिक कहें तो आचार्य सिद्धसेन या आचार्य उमास्वामी को न्याय का जनक कह सकते हैं। उससे पहले न्याय कहाँ था, जबकि लोग तो तत्त्वज्ञान करते ही थे। अत: तत्त्वज्ञान हेतु न्याय का ज्ञान करना आवश्यक नहीं है।
समाधान—ऐसे लोग भी बड़े भ्रम में है। आचार्य अकलंक, आचार्य सिद्धसेन या आचार्य उमास्वामी से पहले भी न्याय अवश्य विद्यमान था, भले ही उस समय के न्याय—ग्रंथ हमें आज उपलब्ध न होते हों। ग्रंथ उपलब्ध न होने के तो अनेक कारण हो सकते हैं। हो सकता है नष्ट हो गये हों अथवा यह तो आपको पता ही होगा कि पहले सारी श्रुत परम्परा मौखिकरूप में ही चल रही थी और शास्त्र—लेखन का कार्य बहुत बाद में प्रारम्भ हुआ है।
तथा यदि उक्त आचार्यों से पहले न्याय नहीं होता तो वेदों में नयों का उल्लेख वैâसे मिलता है ? यथा—
‘‘आ नो गोत्रा दर्दृहि गो पते गा: समस्मभ्यं सु नयो यंतु वाजा:।
दिवक्षा असि वृषभ सत्यशुष्मोऽस्मभ्यं सु मघवन्बोधि गोदा:।।’’
अर्थ—हे पृथ्वी के पालक देव (वृषभदेव)! हमें सुनय—सहित वाणियों को प्रदान कर आदरयुक्त बना, जिससे हम अपनी वृत्तियों और इन्द्रियों को संयत रख सकें। हे वृषभ ! तू सूर्य के समान सब दिशाओं में प्रकाशमान है और तू सत्य के कारण बलवान है। हे ऐश्वर्यमान मघवन् ! हमें सुबोधि प्रदान कर।
‘प्रणेता न्यायशास्त्रकृत’
अत: वास्तविक स्थिति तो यही है कि न्यायविद्या अनादिनिधन है और इसी के द्वारा जीव समीचीन तत्त्वज्ञान करते आये हैं। अन्य कोई उपाय नहीं। आचार्य सिद्धसेन स्पष्ट लिखते हैं—
‘‘प्रमाणादिव्यवस्थेयमनादिनिधनात्मिका।
सर्वसंव्यवहर्तृणां प्रसिद्धापि प्रकीर्तिता।।’’
अर्थ—यह प्रमाण आदि की व्यवस्था अनादिनिधन है और इसका व्यवहार करने वाले सभी लोगों में अत्यन्त प्रसिद्ध है, तथापि यहाँ उसे हमने पुन: कहा है।
शंका—कुछ लोग कहते हैं कि न्यायग्रंथ तो कठिन बहुत है, अत: हम उन्हें समझ नहीं सकते।
समाधान—ऐसे लोग भी उत्साहहीन हैं। यद्यपि यह सच है कि न्यायग्रंथ गूढ़ गम्भीर होते हैं, पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे बहुत कठिन होते हैं और हम उन्हें समझ नहीं सकते। यदि थोड़ी रुचि लेकर एकाग्रता के साथ पहले कुछ प्राथमिक न्याय ग्रंथों को पढ़ लिया जाय तो प्राय: सभी न्यायग्रंथों को समझना बहुत सरल हो जाता है। जिन्हें न्याय की प्रारम्भिक जानकारी न हो और जो रुचिपूर्वक अध्ययन नहीं करना चाहते हों उन्हें ही न्यायग्रंथ कठिन लगते हैं। अन्यथा उनमें कठिन लगने जैसा कुछ भी नहीं है।
न्यायग्रंथ गूढ़—गम्भीर इसलिए होते हैं कि उनमें कोई दुनिया के राग—रंग की बातें या कोई किस्से, कहानी नहीं होती, अपितु अत्यन्त जटिल वस्तुस्वरूप का अत्यन्त सावधानीपूर्वक विश्लेषण और परीक्षण होता है। उसमें जरा—सी भी शिथिलता से अर्थ का अनर्थ हो जाने की संभावना रहती है। लोक में कोयला, कण, कंचन और कोहिनूर को तौलने में ही उत्तरोत्तर अधिक सावधानी की आवश्यकता होती है, तब यहाँ तो अनन्तधर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को समीचीनतया समझने का महान् कार्य सिद्ध करना है, अत: न्याय—ग्रंथों का गूढ़ गम्भीर होना स्वाभाविक है; परन्तु इस कारण से वे बहुत कठिन हैं और हम उन्हें नहीं समझ सकते—ऐसा भ्रम नहीं पालना चाहिए और उनके अभ्यास में प्रवृत्त होना चाहिए।
तथा यहाँ तो हम न्याय के सामान्य ज्ञान की बात कर रहे हैं।, जो बिल्कुल कठिन नहीं है और वस्तुस्वरूप के परिज्ञान हेतु अनिवार्यत: उपयोगी भी है, अत: उसके अध्ययन में प्रमाद करना उचित नहीं। जो लोग अपनी किसी प्रकार की अक्षमतावश न्याय के अनेक गूढ़ ग्रंथों का अध्ययन नहीं कर सकते हैं, उन्हें भी न्याय का सामान्य ज्ञान तो अवश्य करना ही करना चाहिए। उसके बिना सिद्धि नहीं है।
शंका—यहाँ आपने विविध प्रकार से न्यायशास्त्र के अभ्यास की प्रेरणा दी, परन्तु क्या किसी भी अपेक्षा से शास्त्रों में न्याय के अवलम्बन का निषेध नहीं किया गया है ?
समाधान—किया गया है। तत्त्व की अनुभूति के समय न्याय के अवलम्बन का निषेध किया गया है। स्पष्ट कहा है कि—
‘‘तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण।
णो आराहणसमये पच्चक्खो अणुहवो जम्हा।।’’
अर्थ—समय (आत्मा/सिद्धान्त/मत) को तत्त्वान्वेषण के समय युक्तिमार्ग (न्याय) से समझो, किन्तु उसकी आराधना (अनुभूति) के समय न्याय का अवलम्बन मत लो, क्योंकि अनुभूति तो प्रत्यक्ष (निर्विकल्प) होती है।
यहाँ तत्त्व की अनुभूति के समय न्याय के अवलम्बन का निषेध किया गया है, क्योंकि अनुभूति तो निर्विकल्प होती है, जबकि न्याय विकल्परूप हैं।
किन्तु इस बहाने से भी न्यायशास्त्र के अभ्यास से बचने की चेष्टा करना बुद्धिमानी नहीं है। यहाँ तत्त्व की अनुभूति के समय न्यायमार्ग के अवलम्बन का निषेध किया गया है—यह एकदम सच है, परन्तु यहीं प्रथम पंक्ति में जोर देकर यह भी तो कहा गया है कि तत्त्वान्वेषण के समय न्याय—मार्ग का अवलम्बन लो।
तत्त्व की अनुभूति से पूर्व तत्त्व का अन्वेषण अनिवार्य है। यदि तत्त्व का अन्वेषण ही नहीं हुआ तो अनुभूति किसकी करोगे ? अत: सर्वप्रथम न्याय का ज्ञान करके तत्त्व का अन्वेषण अवश्य करना चाहिए।