भट्टाकलंक जैसे उद्भट वादी थे वैसे ही प्रतिभापुंज ग्रंथकार भी थे। उनके द्वारा लिखे गये ग्रंथों के परिचय से उनकी अप्रतिहत लेखनी का चमत्कार स्वत: ज्ञात हो जाता है। अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वादभाषा का अिंहसक उद्देश्य था—समस्त मत—मतान्तरों का नय दृष्टि से समन्वय कर समता की सृष्टि करना। अनेकान्त दर्शन के अन्त: यह रहस्य भी है कि हमारी दृष्टि वस्तु के पूर्णरूप को जान नहीं सकती, जो हम जानते हैं वह आंशिक सत्य है। हमारी तरह दूसरे मतवादियों के दृष्टिकोण भी आंशिक सत्यता की सीमा को छूते है। इसीलिए उसमें यह शर्त लगाई गई कि जो दृष्टिकोण अन्य दृष्टियों की अपेक्षा रखता है, उनकी उपेक्षा या तिरस्कार नहीं करता, वही सच्चा नय है और ऐसे नयों का समूह ही अनेकान्तदर्शन हैं
इस पवित्र उद्देश्य से अनेकान्तदर्शन और स्याद्वाद पर ही जैन परम्परा ने अनेकों ग्रंथ लिखे हैं। पर ऐसा लगता है जैसे यह समन्वय की दृष्टि अंशत: परपक्षखण्डन में बदल गई है। यद्यपि किसी भी मत के ऐकान्तिक दृष्टिकोण की आलोचना किये बिना उसकी सापेक्षता का प्रतिपादन अपने में पूर्ण नहीं हो सकता, फिर भी जितना भार समन्वय पर दिया जाना चाहिए था उतना नहीं दिया गया। भट्टाकलंक उस शताब्दी के व्यक्ति हैं जब कि धर्मकीर्ति और उसके टीकाकार शास्त्रार्थों की धूम मचाये हुए थे। अत: अकलंकदेव के दार्शनिक प्रकरणों में उस युग की प्रतिक्रिया—प्रतिध्वनि बराबर सुनाई देती है। वे जब भी अवसर पाते हैं, बौद्धों के तीक्ष्ण खण्डन में नहीं चूकते। जब धर्मकीर्ति परिवार ने जैन सिद्धान्त को अश्लील आकुलप्रलाप आदि कहना प्रारम्भ किया तो इनका अिंहसक मानस डोल उठा और उन्होंने इन पर प्रहारों से जैनशासन की रक्षा करने के हेतु सर्वप्रथम अपने सिद्धान्तों की व्यवस्था की ओर ध्यान दिया।
१. प्रमाण के लक्षण में ‘अविसंवादि’ पद—प्रमाण सामान्य के लक्षण में समन्तभद्र ने ‘स्वपरावभासक’ और सिद्धसेन ने ‘स्वपराभासि’ पद देकर ऐसे ज्ञान को प्रमाण मानने की ओर संकेत किया था जो स्व और पर का अवभासक हो। यह उसका स्वरूप—निरूपण था। अकलंकदेव ने प्रमाण के लक्षण में ‘अविसंवादी’ पद का प्रवेश कर ऐसे ज्ञान को प्रमाण कहा जो अविसंवादी हो। इस लक्षण में उन्होंने ‘स्व’ पद पर जोर नहीं दिया, क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञान सामान्य का धर्म है, प्रमाण ज्ञान का ही नहीं। इसीिलए वे कहीं प्रमाण के फलभूत सिद्धि को ‘स्वार्थ—विनिश्चय’ शब्द से व्यक्त करते हैं तो कहीं ‘तत्त्वार्थ—निर्णय’ शब्द से। यद्यपि अष्टशती के लक्षण में ‘अनिधिगतार्थाधिगम’ शब्द का प्रयोग किया गया है किन्तु इस पर उनका भार नहीं रहा, क्योंकि प्रमाणसंप्लव उपयोगविशेष में इन्हें स्वीकृत है। इस तरह प्रमाण के लक्षण में ‘अविसंवादि’ पद का प्रयोग अकलंकदेव ने ही सर्वप्रथम किया है।
इसी तरह ‘‘ज्ञान पद’ से अज्ञानरूप सन्निकर्षादि तथा अकिञ्चित्कर निर्विकल्पक दर्शनादि का व्यवच्छेद भी इन्होंने किया है।
२. अविसंवाद की प्रायिक स्थिति—अकलंकदेव ने अविसंवाद को प्रमाणता का आधार मानकर भी एक विशेष बात कही है कि हमारे ज्ञानों में प्रमाणता और अप्रमाणता की संकीर्ण स्थिति है। कोई भी ज्ञान एकान्त से प्रमाण या अप्रमाण नहीं हैं। द्विचन्द्रज्ञान भी चन्द्रांश में प्रमाण और द्वित्वांश में अप्रमाण है। एकचन्द्रज्ञान भी चन्द्रांश में ही प्रमाण है ‘पर्वतस्थित’ रूप में नहीं। प्रमाणता या अप्रमाणता का निर्णय अविसंवाद की बहुलता या विसंवाद की बहुलता से किया जाना चाहिए। जैसे कि जिस पुद्गल में गन्ध की प्रचुरता होती है उसे गन्ध द्रव्य कहते हैं।
३. परपरिकल्पित प्रमाणलक्षणनिरास—अकलंक ने बौद्धसम्मत अविसंवादि ज्ञान की प्रमाणता का खण्डन इसलिए किया है कि उनके द्वारा प्रमाणरूप से स्वीकृत निर्विकल्पज्ञान में अविसंवाद नहीं पाया जाता। सन्निकर्ष की प्रमाणता का निराकरण इसलिए किया है कि उसमें अचेतनरूपता होने के कारण प्रमा के प्रति साधकतमत्व नहीं आ सकता।
४. प्रमाण का विषय—द्रव्यपर्यायात्मक और सामान्यविशेषात्मक पदार्थ को प्रमाण का विषय बताने के साथ ही साथ उसे आत्मार्थगोचर यानी स्व और अर्थ उभय को विषय करने वाला बताया है।
५. पूर्व पूर्वज्ञान की प्रमाणता तथा उत्तरोत्तर में फलरूपता—अकलंकदेव ने अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा—इन चार मतिज्ञानों में पूर्व—पूर्व का प्रामाण्य तथा उत्तर—उत्तर में फलरूपता स्वीकृत की है। विशेषता यह है कि ये पूर्व—पूर्व की प्रमाणता की ओर बढ़ते समय ज्ञान से आगे सन्निकर्ष में नहीं गये।
६. ईहा और धारणा की ज्ञानरूपता का समर्थन—ईहा का साधारण अर्थ चेष्टा और धारणा का अर्थ भावनात्मक संस्कार लिया जाता है किन्तु अकलंकदेव ने ज्ञानोपादानक होने से इनमें भी तत्त्वार्थसूत्र–प्रतिपादित ज्ञानरूपता का समर्थन कर प्रमाण फलभाव की व्यवस्था की है।
७. अर्थ और आलोक ज्ञान के कारण नहीं—अकलंकदेव ने ज्ञान के प्रति साक्षात् कारणता इन्द्रिय और मन की ही मानी है, अर्थ और आलोक की नहीं, क्योंकि इनका ज्ञान के साथ अन्वय—व्यतिरेक नहीं है।
८. प्रत्यक्ष का लक्षण—आचार्य सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष का लक्षण करते समय न्यायावतार में ‘अपरोक्ष’ पद देकर प्रत्यक्ष का लक्षण परोक्ष—सापेक्ष किया था। अकलंकदेव ‘विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं’—यह उसका स्वाश्रित लक्षण किया है, जिसे सभी ने एक स्वर से अपनाया है।
९. वैशद्य का लक्षण—विशदज्ञान को प्रत्यक्ष कहने के बाद वैशद्य का लक्षण करना न्याय प्राप्त था। अकलंकदेव ने ‘अनुमान आदि से अधिक विशेष प्रतिभास’ को वैशद्य कहा है।
१०. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष—तत्त्वार्थसूत्र में मति श्रुत आदि पांच आगमिक ज्ञानों का केवल प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से दो प्रमाण मानने का निर्देश दिया गया था। किन्तु उनकी प्रत्यक्षता और परोक्षता के आधार जुदे थे। आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष और इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा रखने वाले ज्ञान परोक्ष थे। जबकि सभी दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा अनुमानादि को परोक्ष की श्रेणी में रखते थे। प्रत्यक्ष में ‘अक्ष’ शब्द इसी व्यवस्था का साक्षी था। यद्यपि न्याय ग्रंथों में इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है फिर भी उसका सयुक्तिक प्रतिपादन दार्शनिक भाषा में अकलंक ने ही किया है। उन्होंने कहा कि चूँकि इन्द्रियजन्यज्ञान एकदेश से विशद है अत: वैशद्यांश का सद्भाव होने से यह भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है।
११. परोक्ष का लक्षण और भेद—अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र के द्वारा निर्दिष्ट परोक्ष ज्ञानों में मतिज्ञान के ‘मति’ को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा, किन्तु साथ में यह भी कहा कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और आभिनिबोधिक शब्दयोजना के पहले मतिज्ञान हैं और शब्दयोजना के बाद श्रुतज्ञान हैं। श्रुत अविशद होने से परोक्ष है। ये मति, स्मृति आदि ज्ञान शब्दयोजना के बिना भी होते हैं और शब्दयोजना के बाद भी। शब्दयोजना के पहले ये सभी ज्ञान मतिज्ञान हैं और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं। तत्त्वार्थवार्तिक में अकलंकदेव ने अनुमान आदि ज्ञानों को स्वप्रतिपत्तिकाल में अनक्षरश्रुत तथा परप्रतिपत्तिकाल में अक्षरश्रुत कहा है। लघीयस्त्रय में स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष भी कहा है। इससे यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थवार्तिक और लघीयस्त्रय में अकलंकदेव स्मृत्यादि ज्ञानों को अवस्था विशेष में मतिज्ञान या सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहकर भी न्यायविनिश्चय में उन स्मृति आदि ज्ञानों के ऐकान्तिक परोक्षत्व का विधान करते हैं और यहीं वे परोक्षप्रमाण के स्मृति, संज्ञा, चिन्ता—अभिनिबोध और श्रुत—आगम—ये पांच भेद निश्चित कर देते हैं।
१२. स्मृति का प्रामााण्य—प्राय: सभी वादी स्मरण को गृहीतग्राही मानकर अप्रमाण कहते आये हैं। किन्तु अकलंकदेव ने स्वविषय में अविसंवादी होने के कारण इसे प्रमाणता का वही दर्जा दिया है जो अन्य प्रमाणों को प्राप्त था।
१३. प्रत्यभिज्ञान का प्रामाण्य—प्रत्यभिज्ञान को मीमांसक ने इन्द्रिय—प्रत्यक्ष में और नैयायिक ने मानसविकल्प में अर्न्तभूत किया था तथा बौद्ध ने अप्रमाण कहा था। परन्तु अकलंकदेव ने इसे स्वतन्त्र प्रमाण मानकर इसी के भेदस्वरूप सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में नैयायिकादि के उपमान का अन्तर्भाव दिखाया है और कहा है कि यदि सादृश्यविषयक उपमान को पृथक््â प्रमाण मानते हो तो वैधर्म्यविषयक तथा आपेक्षिक आदि प्रत्यभिज्ञानों को भी स्वतन्त्र प्रमाण मानना पड़ेगा।
१४. तर्क की प्रमाणता—व्याप्तिग्राही तर्क को न तो वादी प्रमाण कहना चाहते थे और न अप्रमाण। प्रमाणों का अनुग्राहक मानने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। किन्तु अकलंकदेव ने कहा कि यदि तर्क को प्रमाण नहीं मानते हो तो उसके द्वारा गृहीत व्याप्ति में वैâसे विश्वास किया जा सकेगा ? अत: तर्क भी स्वविषय में अविसंवादी होने से प्रमाण है।
१५. अनुमान के अवयवों की व्यवस्था—यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार और पात्रस्वामी के त्रिलक्षणकदर्शन एवं श्रीदत्त के जल्पनिर्णय से अनुमान का लक्षण, उसके अवयव और साध्याभास, हेत्वाभास आदि की रूपरेखा अकलंकदेव को मिली होगी, पर उन्होंने अविनाभावैकलक्षण हेतु तथा एक ही प्रकार के अनुमान को मानने का अपना मत रखा है। अवयवों में प्रतिज्ञा और हेतु दो अवयवों को पर्याप्त माना है। प्रतिपाद्य के अनुरोध से अन्य अवयवों में दृष्टान्त को भी प्रमुखता दी हैं
१६. हेतु के भेद—अकलंकदेव ने कार्य स्वभाव और अनुपलब्धि के सिवाय कारणहेतु, पूर्वचरहेतु, उत्तरचरहेतु ओर सहचरहेतु पृथक् का समर्थन किया हैं
१७. अदृश्यानुपलब्धि से भी अभाव की सिद्धि—अदृश्य का साधारण तात्पर्य ‘प्रत्यक्ष का अविषय’ लिया जाता है और इसीलिए अदृश्यानुपलब्धि से धर्मकीर्ति ने संशय माना है। अकलंकदेव अदृश्य किन्तु अनुमेय परिचित्त आदि का अभाव भी अदृश्यानुपलब्धि से स्वीकार करते हैंं। ये अनुपलब्धि से विधि और प्रतिषेध दोनों साध्यों की सिद्धि मानते हैंं
१८. हेत्वाभास—यद्यपि अकलंकदेव अविनाभावरूप एक लक्षण के अभाव में वस्तुत: एक ही असिद्ध हेत्वाभास मानते हैं, किन्तु अविनाभाव का अभाव कई प्रकार से होता है, अत: विरुद्ध, असिद्ध, संदिग्ध और अकिञ्चित्कर ये चार हेत्वाभास भी मानते हैं।
१९. वाद और जल्प एक हैं—नैयायिक तत्त्वनिर्णय और तत्त्वाध्यवसायसंरक्षण को जुदा मानकर तत्त्वाध्यवसायसंरक्षण के लिए छलादि असत् उपायों का आलम्बन करना भी उचित ही नहीं, न करने पर निग्रहस्थान मानते हैं। पर अकलंकदेव ने किसी भी दशा में छलादि का प्रयोग उचित नहीं माना। अत: इनकी दृष्टि से छलादिप्रयोगवाली जल्प कथा और वितण्डा कथा का अस्तित्व ही नहीं है। वे केवल एक वादकथा मानते हैं। इसीलिए वे वाद को ही जल्प कहते हैं। इस सम्बन्ध का सूत्र सम्भवत: इन्हें श्रीदत्त के जल्पिनर्णय से मिला होगा।
२०. जाति का लक्षण—अकलंक ने मिथ्या को जात्युत्तर कहा है। साधर्म्यादि समा जातियों के प्रयोग को ये अनुचित मानते हैं। मिथ्या उत्तर अनन्त प्रकार के हैं, उनकी गिनती करना कठिन है।
२१. जय पराजय व्यवस्था—नैयायिकों ने जय—पराजय—व्यवस्था के लिए निग्रहस्थानों का जटिल जाल बनाया है। बौद्धों ने उससे निकलकर असाधनाङ्ग वचन और अदोषोद्भावन इन दो निग्रहस्थानों को मानकर उस जाल को बहुत कुछ तोड़ा था, किन्तु उसके विविध अर्थों का जो थोड़ा—बहुत उलझाव था उसे अकलंकदेव ने अत्यन्त सीधा बनाते हुए कहा कि जो अपना पक्ष सिद्ध कर ले उसकी जय और जिसका पक्ष निराकृत हो जाय उसकी पराजय होना चाहिए। अपने पक्ष को सिद्ध करके यदि कोई नाचता भी है तो भी कोई दोष नहीं। इस तरह उन्होंने जय—पराजय का सीधा मार्ग बताया।
२२. सप्तभंगी निरूपण में प्रगति—सप्तभंगी विधि में प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी की योजना के लिए सकलादेश और विकलादेश का सूयक्तिक विस्तृत निरूपण अकलंकदेव ने किया है। यहीं अभेदवृत्ति और अभेदोपचार के लिए काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इन कालादि आठ की दृष्टि से विवेचन की प्रक्रिया बताई है।
अनेकान्त में दिये जाने वाले संशयादि दोषों के उद्धार का व्यवस्थित क्रम इनके ग्रंथों में विशेषरूप से देखा जाता है।
इसी तरह नय—नयाभासों का विवेचन, सकलादेश और विकलादेश में एवकार के प्रयोग का विचार, निक्षेप–निरूपण की अपनी पद्धति आदि का वर्णन भी अकलंकदेव के ग्रंथों में है। बौद्धों के साथ ही साथ अन्य दर्शनों की मार्मिक आलोचना भी अकलंकदेव ने यथावसर करके अकलंक न्याय के स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण दोनों पक्षों को खूब समृद्ध किया हैं
इस तरह तर्कभूवल्लभ भट्टाकलंकदेव शशांक की कीर्तिकौमुदी उनके अकलंक न्याय की ज्योत्सना से तर्क— रसिकों के मानस को द्योतित करती हुई आज भी छिटक रही है।
जैनाचार्यों द्वारा रचित वाङ्गमय बहुत विशाल और व्यापक है। इसकी परम्परा प्रारम्भ में सुनकर ही चलती है, अत: इसे आगम भाषा में श्रुतज्ञान कहते हैं। भगवान महावीर की वाणी (दिव्यध्वनि) को सुनकर उनके प्रमुख शिष्य गौतम गणधर ने उस वाणीरूप वाङ्गमय को बारह अंगों में निबद्ध किया। यही द्वादशांगरूप जिनवाणी समस्त उपलब्ध जैन साहित्य का मूल आधार है।
इसी द्वादशांगरूप आगम को चार अनुयोगों में विभक्त किया जाता है। शास्त्र के कथन करने की शैली को अनुयोग कहते हैं। ये अनुयोग चार प्रकार के हैं—प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। जिसमें तीर्थंकर, चक्रवती आदि महान पुरुषों के चरित्र का निरूपण हो, वह प्रथमानुयोग है। जिसमें गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि जीवों के विशेष, कर्मों के विशेष तथा त्रिलोक आदि की रचना का निरूपण हो वह करणानुयोग है। गृहस्थ व मुनिधर्म के आचरण को निरूपित करने वाला चरणानुयोग है। षड्द्रव्य, सप्ततत्त्वादि का व स्वपर भेदविज्ञान का जिसमें निरूपण हो, वह द्रव्यानुयोग है।
इन अनुयोगों की भी प्रत्येक की अपनी—अपनी विशेष व्याख्यान पद्धति है। पण्डित टोडरमलजी मोक्षमार्ग प्रकाशक में लिखते हैं—‘‘प्रथमानुयोग में तो अलंकार शास्त्र की व काव्यादि शास्त्रों की मुख्यता पायी जाती है। …. करणानुयोग में गणित आदि शास्त्रों की पद्धति मुख्य है।……. तथा चरणानुयोग में सुभाषित नीतिशास्त्रों की पद्धति मुख्य है। ……. तथा द्रव्यानुयोग में न्यायशास्त्रों की पद्धति मुख्य है, क्योंकि वहाँ निर्णय करने का प्रयोजन है और न्यायशास्त्रों में निर्णय करने का मार्ग दिखाया है। ……. तथा व्याकरण, न्याय, छन्द, कोषादिक शास्त्र व वैद्यक, ज्योतिष, मन्त्रादि शास्त्र भी जिनमत में पाये जाते हैं।’’
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिनागम के सबसे महत्त्वपूर्ण अंग द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत न्यायशास्त्रों का समावेश होता है, अत: न्याय शास्त्र को जिनागम में विशेष स्थान प्राप्त है।
वस्तु का अस्तित्व स्वत:सिद्ध है। ज्ञाता उसे जाने या न जाने, इससे उसके अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं आता। वह ज्ञाता के द्वारा जानी जाती है, तब प्रमेय बन जाती है और ज्ञाता जिससे जानता है, वह ज्ञान यदि सम्यक््â अर्थात् निर्णायक हो तो प्रमाण बन जाता है। इसी आधार पर न्यायशास्त्र की परिभाषा निर्धारित की जाती है।
समस्त जैनेतर दर्शनों ने प्रमेय के निर्णय हेतु मात्र प्रमाण की ही अवकल्पना की है, लेकिन अनेकान्त को वस्तु का स्वरूप स्वीकार करने वाले तथा स्याद्वाद को कथन शैली मानने वाले जैनदर्शन ने प्रमेय के अधिगम के लिए प्रमाण के साथ नयों की अवधारणा भी अनिवार्य मानी है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य उमास्वामी लिखते हैं—‘प्रमाणनयैरधिगम:।’
अतएव जैनदर्शन के अनुसार न्याय का लक्षण है—‘प्रमाणनयात्मको न्याय:।’ अर्थात् न्याय प्रमाणनयात्मक होता है। इनमें से वस्तु को समग्रता से जानने वाला प्रमाण है और प्रमाण से ग्रहीत वस्तु के एक अंश को जानने वाला नय है।
यह तो सर्वमान्य तथ्य है कि संसार के सभी जीव सुखी होना चाहते हैं। स्वाधीन, अखण्ड, परिपूर्ण व अविनाशी सुख मुक्ति में ही प्राप्त होता है। उस मुक्ति की प्राप्ति का उपाय सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्र है। सम्यग्दर्शन जीवादि तत्त्वार्थों के श्रद्धान से होत्ाा है। जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान उनके सम्यक््â निर्णय होने पर होता है, तथा उन जीवादि तत्त्वों का सम्यक््â निर्णय प्रमाण व नयों के द्वारा ही होता है। अत: प्रत्येक जीव को सुखी होने के लिए प्रमाणनयात्मक न्याय का ज्ञान आवश्यक है।
न्याय की उपयोगिता पर प्रकाश डालते हुए आचार्य यतिवृषभ तिलोयपण्णत्ति में कहते हैं—
जो ण पमाणणयेिंह णिक्खेवेण णिरिक्खदे अत्थं।
तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहादि।।
भावार्थ—जो व्यक्ति प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ का निरीक्षण नहीं करता है, उसे युक्त अयुक्त और अयुक्त युक्त प्रतीत होता हैं
इस प्रकार वस्तु के यथार्थ निर्णय के लिए न्यायशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता है।
आचार्य समन्तभद्र जैनन्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य हैं, तो आचार्य अकलंक ने जैनन्याय को पल्लवित व पुष्पित किया है। आचार्य विद्यानन्दि भी जैनन्याय को विशेष विस्तार प्रदान करने वाले हैं।
ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी में हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव का जिनागम के प्रसार—प्रसार के लिए अपूर्व योगदान है, जिसका प्रमाण है मंगलाचरण का वह छन्द, जिसमें भगवान महावीर व गौतम गणधर के पश्चात् उन्हें स्मरण किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने यद्यपि किसी न्यायग्रंथ की रचना नहीं की है, लेकिन इस विषय के बीज जरूर आपके ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं। प्रवचनसार में ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन व ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार लिखकर ज्ञान—ज्ञेय का सविस्तार वर्णन किया ही है, अन्य ग्रंथों में भी प्रमाण व नयों का प्रयोग प्रचुरता से प्राप्त होता है।
द्वितीय शताब्दी के आचार्य यतिवृषभ ने तो प्रमाण—नय की उपयोगिता पर प्रकाश डाला ही है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया गया है। द्वितीय शताब्दी के ही आचार्य उमास्वामी ने भी अधिगमोपाय के रूप में प्रमाण—नय की अनिवार्यता स्वीकार की है। आपके द्वारा विरचित जैनदर्शन के प्रथम सूत्रात्मक संस्कृत ग्रंथ ‘तत्त्वार्थसूत्र’ में न्यायशैली का प्रयोग भी देखने को मिलता है। अनुमान के अंगभूत पक्ष, हेतु व दृष्टान्त का प्रयोग निम्न सूत्रों में हुआ है—
‘‘मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धे: उन्मत्तवत्।।’’
‘‘असंख्येयभागादिषु जीवनाम्। प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्।।’’
आचार्य समन्तभद्र का विशेष योगदान—
ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी के ही एक समर्थ आचार्य हैं समन्तभद्र, जो जैन न्याय के प्रतिष्ठापक माने जाते हैं। आपका जन्म दक्षिण में कवेरी नदी के तट पर स्थित फणिमण्डलान्तर्गत उरगपुर के चोल राजवंश में हुआ था। यद्यपि आप आद्य स्तुतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं, तथापि आपके स्तुति/स्तोत्रों में मात्र अतिशयोक्तिपूर्ण भक्ति नहीं है, दार्शनिक मान्यताओं का समावेश भी है। स्तुति में तर्क व युक्ति का प्रयोग आपकी असाधारण प्रतिभा का द्योतक है। आपने दर्शन, सिद्धान्त एवं न्याय सम्बन्धी मान्यताओं को स्तुतिकाव्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
आचार्य समन्तभद्र द्वारा विरचित रचनाएँ मानी जाती हैं—१. बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, २. स्तुतिविद्या जिनशतक, ३. देवागम—आप्तमीमांसा, ४. युक्त्यनुशासन, ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६. जीवसिद्धि, ७. तत्त्वानुशासन, ८. प्राकृत व्याकरण, ९. प्रमाणपदार्थ, १०. कर्मप्राभृत टीका, ११. गन्धहस्तिमहाभाष्य।
उक्त रचनाओं में न्यायविषयक ग्रंथ प्रमाणपदार्थ है लेकिन वह अनुपलब्ध है। साथ ही जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृतव्याकरण, कर्मप्राभृत टीका व गंधहस्तिमहाभाष्य भी अनुपलब्ध है। उपलब्ध साहित्यों में ‘देवागम आप्तमीमांसा’ में आप्त विषयक मूल्यांकन में आपकी परीक्षाप्रधान दृष्टि स्पष्ट होती है। इस स्तोत्र में सर्वज्ञाभाववादी मीमांसक, भावैकान्तवादी सांख्य, एकान्तपर्यायवादी बौद्ध एवं सर्वथा उभयवादी वैशेषिक का तर्कपूर्ण निराकरण किया गया है। चार अभावों का सप्तभंगी द्वारा समर्थन कर वीरशासन की महत्ता प्रतिपादित की है। सर्वथा अद्वैतवाद, द्वैतवाद, कर्मद्वैत, फलद्वैत, लोकद्वैत प्रभृति का निरसन कर अनेकान्तता सिद्ध की है।
‘युक्त्यनुशासन’ नाम के अनुरूप इस ग्रंथ में युक्तिपूर्वक महावीर के शासन का मण्डन और विरुद्ध मतों का खण्डन किया है। अर्थगौरव की दृष्टि से ‘गागर में सागर’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए इसमें मात्र ६४ पदों में जिनशासन को समाहित करने का प्रयास किया।
परवर्ती समस्त आचार्यों ने आपका अनुसरण किया है तथा श्रद्धापूर्वक आपका स्मरण भी किया है। अनेक आचार्यों ने आपके ग्रंथों पर टीकाएँ भी लिखी हैं। डॉ. दरबारीलाल कोठिया के अनुसार आचार्य समन्तभद्र ने जैनदर्शन को निम्नलिखित सिद्धान्त प्रदान किये हैं—१. प्रमाण का स्वपराभासलक्षण, २. प्रमाण के क्रमभावि और अक्रमभावि भेदों की प्ररिकल्पना, ३. प्रमाण के साक्षात् और परम्परा फलों का निरूपण, ४. प्रमाण का विषय, ५. नय, हेतु, स्याद्वाद वाच्य, वाचक आदि का स्वरूप, ६. अभाव का वस्तुधर्म निरूपण एवं भावान्तर कथन, ७. तत्त्व का अनेकान्तरूप, अनेकान्त का स्वरूप, अनेकान्त में भी अनेकान्त की योजना आदि का प्रतिपादन, ८. जैनदर्शन में अवस्तु का स्वरूप, ९. स्यात् निपात का स्वरूप, १०. अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि, ११. युक्तियों से स्याद्वाद की व्यवस्था, १२. आप्त का तार्किक स्वरूप, १३. वस्तु द्रव्य प्रमेय का स्वरूप।
आचार्य विद्यानन्दि का विशेष योगदान—
दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रान्त के निवासी नवमी शती (ई. सन् ७७५ से ८४०) के आचार्य विद्यानन्दि का जन्म िंकवदन्तियों के अनुसार ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इन्होंने कुमारावस्था में ही वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, वेदान्त आदि दर्शनों का अध्ययन कर लिया था। दिग्नाग, धर्मकीर्ति और प्रज्ञाकर आदि बौद्ध दार्शनिकों के मन्तव्यों से भी परिचित थे। जैन वाङ्मय का आलोडन—विलोडन कर आपने अपूर्व पाण्डित्य प्राप्त किया था। आपके न्यायशास्त्रों की विशेषता सहित आपकी प्रशंसा में वादिराज लिखते हैं—
‘‘ऋजूसूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानन्दस्य विस्मय:।
शृण्वतामप्यलंकारं दीप्तिरङ्गेषु रङ्गति।।’’
आश्चर्य है कि विद्यानन्दि के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री जैसे दीप्तिमान अलंकारों को सुनने वालों के भी अंगों में दीप्ति आ जाती है, तो उन्हें धारण करने वालों की बात ही क्या है ?
आपके द्वारा मौलिक ग्रंथों की रचना के साथ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों पर गम्भीर टीका—ग्रंथों का भी प्रणयन हुआ है। इनमें से अधिकतर ग्रंथ न्यायविषयक ही हैं। आपके मौलिक ग्रंथ हैं—१. आप्तपरीक्षा स्वोपज्ञवृत्तिसहित, २. प्रमाणपरीक्षा, ३. पत्रपरीक्षा, ४. सत्यशासनपरीक्षा ५. श्रीपुरपार्श्वनाथ ६. विद्यानन्दमहोदय। तथा आपके टीकाग्रंथ हैं—१. अष्टसहस्री २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ३. युक्त्यनुशासनालंकार।
उक्त ग्रंथों में मात्र ‘श्री पुरपार्श्वनाथस्तोत्र’ स्तुतिपरक है, परन्तु उसमें भी न्याय का पुट आ ही गया है। ‘आप्तपरीक्षा’ में ईश्वर, कपिल, सुगत, परमपुरुष या ब्रह्माद्वैत आदि की परीक्षा करके अर्हंत भगवान ही आप्त हैं—यह सतर्क सिद्ध किया है। ईश्वर—परीक्षा के अन्तर्गत ईश्वर के जगत्कर्तृत्व का जो खण्डन किया है, उसी का परवर्ती आचार्यों ने अनुसरण किया है। ‘प्रमाणपरीक्षा’ में समागत विषय का सार व उपयोगिता का उल्लेख ग्रंथकार ने स्वयं ही ग्रंथान्त में निम्नानुसार किया है—
‘‘इति प्रमाणस्य परीक्ष्य लक्षणं विशेषसंख्याविषयं फलं तत:।
प्रबुध्य तत्त्वं दृढशुद्धदृष्टय: प्रयान्तु विद्याफलमिष्टमुच्चकें:।।’’
इसी ग्रंथ में आचार्य विद्यानन्दि ने यौगाभिमत हेतु लक्षण पाञ्चरूप्यता का खण्डन करने के लिए पात्रकेसरी के त्रिलक्षणकदर्थन की तर्ज पर निम्न कारिका रची है, जो प्रसिद्ध है—
‘‘अन्यथानुपपन्नत्वं रूपै: िंक पञ्चभि: कृतं।
प्रबुध्य तत्त्वं दृढशुद्धदृष्टय: प्रयान्तु विद्याफलमिष्टमुच्चकें:।।’’
पहले शास्त्रार्थों में जो पत्र दिये जाते थे, उनका आशय समझना कठिन था, उसी विवेचन के लिए विद्यानन्दि ने ‘पत्रपरीक्षा’ नामक छोटे से प्रकरण की रचना की थी। जैन परम्परा में संभवतया इस विषय की यह एकमात्र कृति है।
‘सत्याशासन परीक्षा’ में पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, सेश्वरसांख्य, निरीश्वरसांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, भाट्ट, प्रभाकर, तत्त्वोपप्लव आदि शासनों की तर्कपूर्वक परीक्षा करके अन्त में अनेकान्त शासन की भी परीक्षा प्रस्तुत की है। ‘विद्यानन्दमहोदय’ का तो उल्लेख मात्र उपलब्ध होता है।
टीका—ग्रंथों के अन्तर्गत ‘अष्टसहस्री’ आचार्य समन्तभद्र द्वारा विरचित आप्तमीमांसा अपरनाम देवागमस्तोत्र पर लिखा गया विस्तृत एवं महत्त्वपूर्ण भाष्य है। बड़ी कुशलता के साथ अकलंकदेव की अष्टशती को इसमें अंत:प्रविष्ट कर लिया है। जैनन्याय का यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस एक ग्रंथ के अध्ययन कर लेने पर अन्य ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता नहीं, ऐसा भाव स्वयं ग्रंथकार ने व्यक्त किया है—
‘‘श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतै: किमन्यै: सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायते ययैव हि स्वसमयपरसमयसद्भाव:।।’’
विद्यानन्दि के टीका ग्रंथों में सबसे महत्त्वपूर्ण है—‘तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ जो कि आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र पर पद्यात्मक शैली में लिखा गया है। पद्यवार्तिकों पर स्वयं भाष्य अथवा गद्य में व्याख्यान भी लिखा है। डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य के अनुसार—‘जैनदर्शन के प्रमाणभूत ग्रंथों में यह प्रथम कोटि का ग्रंथ है। इस ग्रंथ की समानता करने वाला जैनदर्शन में तो क्या, अन्य किसी भी दर्शन में एक भी ग्रंथ नहीं हैं।’’
‘युक्त्यनुशासनालंकार’ स्वामी समन्तभद्र के दार्शनिक स्तोत्र युक्त्यनुशासन पर लिखी गयी सरल एवं विशद टीका है। जैनन्याय को आचार्य विद्यानन्दि के योगदान का उल्लेख करते हुए पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य लिखते हैं—
‘विद्यानन्द के ग्रंथ आगे बने हुए समस्त दिगम्बर—श्वेताम्बर न्याय ग्रंथों के आधारभूत हैं। इनके ही विचार तथा शब्द उत्तरकालीन दिगम्बर—श्वेताम्बर न्यायग्रंथों पर अपनी अमिट छाप लगाये हुए हैं। यदि जैन न्याय के कोषागार से विद्यानन्द के ग्रंथों को अलग कर दिया जाय, तो वह एकदम निष्प्राण—सा हो जायेगा।’
अन्य आचार्यों का योगदान—
जैन न्याय में मुख्यरूप से इन्हीं तीन आचार्यों का अधिक योगदान होने से इनकी विस्तृत चर्चा स्वाभाविक है, लेकिन अन्य आचार्यों के योगदान को विस्मृत करना उचित नहीं है, अत: संक्षेप में उनके योगदान पर भी प्रकाश डालते हैं। इनमें अधिकतर टीकाकार हैं।
पात्रकेसरी (छठवीं शती) का भी न्यायशास्त्र के विकास में बड़ा योगदान है। इनकी दो रचनायें हैं–त्रिलक्षणकदर्शन और पात्रकेसरी स्तोत्र। यद्यपि त्रिलक्षणकदर्शन उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन उसका उल्लेख उनके परवर्ती आचार्यों ने किया है। इस ग्रंथ में बौद्धों के पक्षधर्मसत्त्व, सपक्षसत्त्व व विपक्षाद्व्यावृत्तिरूप हेतु के त्रैरूप्य लक्षण का खण्डन करके ‘अन्यथानुपपन्नत्व’ को हेतु का लक्षण सिद्ध किया है—यह आपकी जैनन्याय को अनुपम देन है। पात्रकेसरी स्तोत्र का दूसरा नाम जिनेन्द्रगुण संस्तुति भी है। यह भी आचार्य समन्तभद्र के स्तोत्रों के समान न्यायशास्त्र का ग्रंथ है। इस स्तोत्र में एकान्तवाद से दुष्ट चित्तवाले व्यक्ति आपके आनन्त्य गुणों की थाह नहीं पा सकते हैं—ऐसा कहते हुए नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि मतों की और उनके द्वारा अभिमत आप्त की समीक्षा की गई है। सर्वज्ञसिद्धि के साथ सग्रंथता और कवलाहार का निरसन भी किया गया है।
कल्याणमन्दिर स्तोत्र के रचयिता श्री कुमुद्राचार्य (कुमुदचन्द्राचार्य) अपरनाम सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतिसूत्र ग्रंथ में नयों का सांगोपांग विवेचन कर जैनन्याय की सुदृढ़पद्धति का प्रारम्भ किया। बृहत् अनन्तवीर्य (ई. सन् की दसवी शती) ने आचार्य अकलंकदेव के सिद्धिविनिश्चय पर टीका लिखी है। प्रमाणसंग्रह पर भी भाष्य लिखा है, लेकिन यह उपलब्ध नहीं है। आचार्य माणिक्यनन्दि (११ वीं शती) ने न्यायविषयक बालसुलभ सूत्रात्मक ग्रंथ ‘परीक्षामुख’ लिखकर न्याय प्रेमियों पर महान उपकार किया है। तत्पश्चात् आचार्य प्रभाचन्द्र (११वीं शती) ने प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुख की विस्तृत टीका) एवं न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय की टीका) की रचना कर न्यायशास्त्र को सुदृढ़ किया है। लघु अनन्तवीर्य ने भी परीक्षामुख पर ‘प्रमेयरत्नमाला’ नाम से संक्षिप्त टीका लिखी। अनन्तकीर्ति ने ‘लघुसर्वज्ञसिद्धि’ व बृहत्सर्वज्ञसिद्धि’ की रचना की है।
ग्याहरवीं शती के आचार्य वादिराज के द्वारा विरचित न्यायविषयक ग्रंथ हैं–प्रमाप्रमेय, न्यायसूर्यावली व विश्वतत्वप्रकाश। अभिनवधर्मभूषण यति (चौदहवीं शती) ने सरल—सुबोध भाषा में संक्षिप्त गद्यात्मक ‘न्यायदीपिका’ की रचना की है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जैनन्यायरूपी महल के चार स्तम्भों में तीन स्तम्भ आचार्य समन्तभद्र, आचार्य अकलंक व आचार्य विद्यानन्द हैं और शेष सभी का योगदान चौथे स्तम्भ के रूप में है।
हम सभी जैनन्याय के माध्यम से तत्त्व का स्वरूप समझकर तत्त्वश्रद्धानपूर्वक सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्रस्वरूप रत्नत्रय की उपलब्धि द्वारा परमनिश्रेयस को प्राप्त हों, यही इसकी प्रस्तुति का सार है।
बीसवीं शती में भी कतिपय दार्शनिक एवं नैयायिक हुए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। इन्होंने प्राचीन आचार्यों द्वारा लिखित जैनदर्शन और जैनन्याय के ग्रन्थों का न केवल अध्ययन-अध्यापन किया है, अपितु उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद एवं सम्पादन भी किया है। साथ में अनुसंधानपूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएं भी लिखी हैं, जिनमें ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के ऐतिहासिक परिचय के साथ ग्रन्थ प्रतिपाद्य विषयों का भी तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक आकलन प्रस्तुत किया गया है। कुछ मौलिक ग्रन्थ भी हिन्दी भाषा में लिखे गये हैं।
उदाहरण के लिए जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि न्यायप्रभाकर श्री ज्ञानमती माताजी ने सन् १९६९—७० में न्याय के सर्वोच्च ग्रंथ अष्टसहस्री का शब्दश: हिन्दी अनुवाद करके भगवान महावीर के शासन में अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया है। इसकी हिन्दी टीका का नाम है—‘‘स्याद्वाद चिन्तामणि’’ इसमें हिन्दी अनुवाद के साथ-साथ जगह-जगह विशेषार्थ एवं अनेकानेक क्लिष्ट विषयों के सारांश सरल भाषा में दिये हैं। तीन भागों में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित इन ग्रंथों का अध्ययन करके न्यायतीर्थ, न्यायाचार्य आदि की परीक्षाएं देकर उपाधियाँ प्राप्त करते हैं। ४०० ग्रंथों की लेखिका इन ज्ञानमती माताजी को दो बार भारत के मान्य विश्वविद्यालयों के द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधियों से अलंकृत किया जा चुका है। इसी प्रकार न्यायाचार्य क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी, न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द्र कौन्देय, पं. सुखलाल संघवी, डॉ. पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, पं.दलसुख भाई मालवणिया आदि के नाम विशेष उल्लेख योग्य है। श्री ज्ञानमती माताजी एवं क्षु. गणेश प्रसाद वर्णी ने अनेक छात्रों को जैनदर्शन एवं न्याय में प्रशिक्षित किया है। श्री कौन्देय ने आ. विद्यानन्दि के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य का सात खण्डों में हिन्दी रूपांतर किया है। श्री संघवी ने प्रमाण मीमांसा, ज्ञानबिन्दु, सन्मतितर्क, जैन तर्कभाषा आदि ग्रन्थों का वैदुष्यपूर्ण सम्पादन व उनकी प्रस्तावनाएँ लिखी हैं। उनके भाषा टिप्पण, विभिन्न ग्रन्थों के तुलनात्मक उद्धरण और परिशिष्टों का संयोजन महत्त्वपूर्ण है। डॉ. पं महेन्द्रकुमार ने न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धीविनिश्चयटीका, न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रयालंकार), प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुखालंकार), अकलंकग्रन्थत्रय, तत्त्वार्थवार्तिकभाष्य, तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरकृत) आदि के विद्वत्तापूर्ण सम्पादन के साथ उनकी अनुसंधानपूर्ण प्रस्तावनाएं लिखी हैं। हिन्दी भाषा में लिखा उनका ‘जैन दर्शन’ मौलिक कृति है। श्री मालवणिया ने कई ग्रन्थों का सम्पादन एवं उनकी शोधपूर्ण प्रस्तावनाएं लिखी हैं। उनका ‘आगमयुग का जैन दर्शन’ मौलिक रचना है। पं.वैâलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री का ‘जैनन्याय’ उल्लेखनीय है। इसी प्रकार पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित ‘‘न्यायसार’’ ग्रंथ भी न्यायदर्शन के पाठकोें के लिए प्रारंभिक कुंजी के समान है।