विश्व के सभी प्राणियों में मानव का सर्वोच्च स्थान है। मानव एक सामाजिक प्राणी है। स्वार्थ साधन हेतु वह पर के हित को आघात न पहुँचा दे, तदर्थ मानव के आचरणों का नियमन आवश्यक है। मानव के आचरण के नियमन हेतु कतिपय पारिवारिक नियम, संस्थागत नियम, सामाजिक नियम एवं नैतिक नियम होते हैं। इन नियमों के पालन से व्यक्ति स्वयं भी सुख-शान्ति का अनुभव करता है तथा अन्य को भी अपने व्यवहार से प्रसन्न रखता है।
व्यक्ति की अपराधिक वृत्ति पर अंकुश रखने तथा देश व समाज में व्यवस्था बनाये रखने हेतु प्रत्येक देश की सरकार कुछ कानून बनाती है, जिनके पालन की अपेक्षा प्रत्येक नागरिक से होती है तथा जिनके उल्लंघन करने पर व्यक्ति को दंडित किये जाने की व्यवस्था होती है। हमारे देश के कानून भी बहुत व्यापक हैं तथा व्यक्ति को हर क्षेत्रीय व्यवहार का नियमन करने में सक्षम हैं। िंहसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, संचय आदि दुष्कर्मों पर नियन्त्रण करने हेतु भारतीय दण्डसंहिता अधिनियम में व्यापक प्रावधान हैं तथा कठोर दण्ड की व्यवस्था है। फिर भी देश में िंहसा एवं आतंकवाद का ताण्डव नृत्य दृष्टिगत होता है, जीवन में असत्य का साम्राज्य छाया हुआ है। चोरी करना, मिलावट करना, करवंचना आदि व्यावसायिक कुशलता व सफलता के प्रतीक बन गए हैं। बलात्कार की घटनाएँ वृद्धिंगत होती जा रही हैं तथा ब्रह्मचर्य शब्द उपहास का केन्द्रबिन्दु बन गया है। येन केन प्रकारेण अधिक धन संचय करने वाले हर क्षेत्र में सम्मानित किये जाते हैं, जिससे जमाखोर, रिश्वतखोर, दहेज लालची आदि पनपते जा रहे हैं। इन सबसे यह लगता है कि व्यापक एवं कठोर राजनियम भी अप्रभावी हैं।
इसलिए धर्म संस्था व धर्म नियमों की अपरिहार्यता बढ़ जाती है। राज संस्था के वांछित उद्देश्यों को पूरा करने में धर्म संस्था प्रभावी सहायक बनती है। छिपकर अपराध करने वाले अपराधी राज संस्था से अदण्डित रह जाते हैं और कानून की नजर से बचकर अपराध करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है तथा सरकार विवश होकर पीड़ित जनता के साथ अन्याय देखती रहती है। आतंकवादियों द्वारा समय-समय पर किया जाने वाला नरसंहार इसका उदाहरण है किन्तु धर्म संस्था ने कर्म सिद्धान्त द्वारा मानव मन में ऐसी धारणा बिठा दी है कि कहीं भी कोई कार्य किया जाए वह रिकार्ड हो जाता है तथा उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है। नरक का डर, स्वर्ग का प्रलोभन, चाहे कुछ व्यक्तियों द्वारा कल्पित माना जाये पर इस धारणा ने व्यक्ति को दुष्कर्मों से बचाने एवं सुकर्मों में प्रवृत्त करने में एक प्रभावी कार्य किया है। छिपकर अपराध करने को उद्यत व्यक्ति भी पाप फल भुगतने से डर कर पापकर्म करने से रुक जाता है।
कर्म फल अवश्य भोगना होता है। कर्मबन्धन में मन की भावना प्रमुख और क्रिया गौण हो जाती है। धर्म की यह बात राजनियम में भी गर्भित है। भारतीय दण्डसंहिता की धारायें ३०४ ए और ३०७ के प्रावधानों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि किसी व्यक्ति की लापरवाही से अनजाने में किसी की मौत हो जाने पर उसको धारा ३०४ ए के अन्तर्गत दो वर्ष तक का कारावास दिया जा सकता है जबकि मारने के बुरे इरादे से कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को मारने का प्रयास करता है किन्तु अन्य के द्वारा रोक लिये जाने के कारण अपने प्रयास में सफल नहीं हो पाता तो भी उसे धारा ३०७ के अनुसार ७ वर्ष तक की सजा दी जा सकती है। पहली घटना के परिणामस्वरूप एक व्यक्ति के निमित्त से दूसरे की मृत्यु हो जाती है जबकि दूसरी घटना में वह व्यक्ति चाहते हुए भी अन्य को मारना तो दूर, चोट भी नहीं पहुँचा पाया। राजदंड की कठोरता घटना के परिणामानुसार नहीं वरन् व्यक्ति की दुर्भावनानुसार है। पहली घटना में जिस व्यक्ति की असावधानी से अन्य की मौत हुई, उसके भाव मारने के बिल्कुल नहीं थे, जबकि दूसरी घटना में व्यक्ति के भाव पूर्णतया मारने के थे चाहे परिणाम कुछ भी रहा हो। कानून की धाराओं में बुरे इरादे के सिद्ध होने पर ही कठोरतम सजा की व्यवस्था है, मात्र क्रिया से नहीं अत: जिस तरह चेहरे को सुन्दर रखने हेतु दर्पण में देखते हैं उसी प्रकार मन की ओर दृष्टि करके उसको निर्मल व शुद्ध बनाये रखें। जब मन में िंहसा के भाव नहीं होंगे तो न वे दुर्वचनों द्वारा अभिव्यक्त होंगे और न ही उनकी काया द्वारा िंहसा की क्रियान्विति होगी अत: धर्मसंस्था िंहसा के उत्पत्ति स्थान अर्थात् मन में आने पर ही रोक लगाकर अिंहसक वातावरण बनाने में प्रभावी योगदान देती है, जबकि राजनियम में मात्र मन में उत्पन्न िंहसा को, जब तक वह काय से व्यक्त न कर दी जाये, रोकने का कोई प्रावधान नहीं है।
राजनियम में कई खामियाँ (थ्ददज्प्दते) निकल आती हैं, जिनका सहारा लेकर भी अपराधी दण्डित होने से बच जाता है किन्तु धर्म नियमों में ऐसी सम्भावना नहीं है। राजनियम लागू करने वाले व्यक्ति को भयभीत अथवा प्रलोभित करके न्याय की दिशा बदलवाने में भी कई बार सफलता मिल जाती है किन्तु धर्म नियमों में पक्षपात को कोई स्थान नहीं है। तीर्थंकर अवस्था में जबकि देवों के द्वारा उनके गर्भ जन्मादि कल्याणक बड़ी धूमधाम से बनाये जाते हैं तब भी स्वयं तीर्थंकर को भी अपने पूर्वोपार्जित कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जैनदर्शन में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त पर आस्था हो जाने पर व्यक्ति कभी भी दुष्कर्म करने का साहस नहीं करेगा तथा सद्कर्मों में रत रहेगा। कर्मसिद्धान्त को तर्क की कसौटी पर भी परख लिया गया है। एक बालक धनी व्यक्ति के यहाँ जन्म लेकर सब सुविधाओं को पाता है तथा करोड़ों की सम्पत्ति में भागीदार बन जाता है, दूसरा नवजात शिशु किसी निर्धन के घर अपंग अवस्था में जन्म लेकर सभी तरह की परेशानियों में पलता है तथा हजारों रुपयों के ऋण में सहभागी बन जाता है। जन्मजात इस विषमता का तर्कसंगत कारण उनके पूर्व जन्म के सुकृत व दुष्कृत का फल ही है। स्वकृत कर्म निष्फल नहीं होते अत: वर्तमान में दुराचारी को भौतिक सुख साधनसम्पन्न तथा वर्तमान में सदाचारी को निर्धनावस्था में देखकर सन्मार्ग से च्युत नहीं होना चाहिए क्योंकि किसी भी व्यक्ति के केवल वर्तमान में किये हुए ही कार्य उसके सुखी व दुखी होने के कारण नहीं होते अपितु उसके द्वारा भूतकाल में किये हुए कार्य भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं अत: मानव को हर स्थिति में धर्म का पालन करना चाहिए।
जैनधर्म के सिद्धान्तों के पालन में विश्व व राष्ट्र की ज्वलन्त समस्याओं का समाधान हो सकता है। अिंहसा को जन-जीवन में उतारने पर आतंकवाद व शस्त्र-अस्त्र की अन्धाधुन्ध होड़ पर अंकुश लगेगा तथा रक्षाव्यय के नाम पर की जाने वाली अपार धनराशि को मानव कल्याण के लिए उपयोग में लाया जा सकेगा। विनाश के कगार पर खड़ी मानवता को राहत की साँस मिलेगी। अपने शौक की पूर्ति हेतु किये जाने वाले पशुवध में रुकावट आएगी तथा अन्धाधुन्ध हरे-भरे वृक्ष काटने में लोग हिचकिचायेंगे। फलस्वरूप सभी लोग सुख शान्ति से रहेंगे, पशुधन में वृद्धि होगी तथा वनों के संरक्षण से पर्यावरण की शुद्धता बनी रहेगी। अिंहसा के बल पर ही वर्तमान युग में गाँधीजी ने भारत को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की।
विश्व की महान् शक्तियों में पारस्परिक वैमनस्य का मूल कारण वैचारिक दुराग्रह है। एक राष्ट्र अपनी विचारधारा को दूसरे पर थोपना चाहता है और दूसरे की विचारधारा का आदर नहीं करता। अनेकान्त सिद्धान्त दूसरे के दृष्टिकोण को समझने व दूसरों की विचारधारा का आदर करने की दिशा प्रदान करता है। तब विचारों में तनाव के स्थान पर सद्भाव व अिंहसा होगी क्योंकि अिंहसा का भवन अनेकान्त के धरातल पर ही ठहर सकता है।
आर्थिक विषमता से ग्रस्त राष्ट्र में अिंहसक तरीके से समाजवाद अपरिग्रह के सिद्धान्त के पालन से ही आ सकता है। भारत जैसे निर्धन देश में यदि कोई व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो अन्य की आवश्यकता पूर्ति में बाधा आयेगी। यही प्रवृत्ति वर्गभेद व वर्गसंघर्ष की जन्मदात्री है अत: पेट भरो, पेटी नहीं। इच्छाओं पर नियन्त्रण रखने व संयमित जीवन यापन करने से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियाँ ठीक रहेंगी क्योंकि येन-केन प्रकारेण धनसंग्रह की प्रवृत्ति मानव से सभी अकरणीय कार्य भी करवा लेती है अत: शस्त्रसंचय की भाँति धनसंचय को भी अपराध माना जाना चाहिये क्योंकि आधुनिक युद्ध का मुख्य शस्त्र तलवार नहीं वरन् धन है। मात्र धन से स्थायी सुख शान्ति नहीं मिलती। प्राप्तव्य को प्राप्त करने की चिन्ता, उसकी रक्षा की चिन्ता व उसके नष्ट होने पर वियोग का दुख—इस तरह परिग्रह हर अवस्था में दुखदायी है। कभी-कभी तो सुखद भविष्य की कल्पना में वर्तमान को भी बिगाड़ लेते हैं तथा संचित धन का कभी भी उपयोग नहीं कर पाते अत: व्यक्ति को परिग्रह को सीमित करना चाहिए तथा पूर्व संचित परिग्रह में से कुछ राशि विनयपूर्वक जरूरतमन्दों के हितार्थ अर्पित करते रहना चाहिए। जिससे निर्धनों के जीवन स्तर के उत्थान में सरकार के दायित्व में हम भी हाथ बटा सकें।
जो व्यक्ति जैन सिद्धान्तों का निष्ठा से पालन करता है, वह हर स्थिति में सुख-शान्तिपूर्वक जीवन निर्वाह कर सकता है। उसके आचरण से किसी कानून का उल्लंघन ही नहीं होगा। जैनाचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के ७वें अध्याय के २७वें सूत्र में कहा है-स्तेनप्रयोग—तदाह्रतादानविरुद्धराज्यातिक्रम—हीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा:।
अर्थात् चोरी के लिए प्रेरणा करना अथवा चोरी के उपाय बताना, चुराई हुई वस्तु को लेना, राज्य के कानूनों के विरुद्ध चलना (जैसे कर चोरी करना, जमाखोरी करना आदि), नापने तौलने के बांट आदि कमती बढ़ती रखना और अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तु मिलाकर अधिक मूल्य में बेचना, ये पाँच कार्य अचौर्याणुव्रत में दोष लगाने वाले हैं अर्थात् चोरी के ही पर्यायवाची हैं। इस सूत्र को ध्यान में रखकर यदि हर नागरिक चोरी से पूर्णत: बचे तो देश वâी बहुत सी समस्याओं का समाधान सहज में ही हो सकता है। जैनदर्शन ने राजद्रोह का नहीं वरन् राजनियमों के पालन का निर्देश दिया है और देश के नियमों का यदि ध्यान से अवलोकन किया जाये तो उनमें जैन सिद्धान्तों के ही पालन की अपेक्षा की गई है, अन्तर सिर्फ पालने के तरीकों में है। जैनधर्म मानव को कर्त्तव्यनिष्ठ बनाकर स्वेच्छा से अिंहसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह के सिद्धान्तों को जीवन में उतारने की प्रेरणा देता है तो सरकार कानून का डर दिखाकर िंहसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रहसंचय की वृत्ति पर अंकुश लगाती है। धर्म का प्रभाव स्थायी व आन्तरिक होता है और कानून का प्रभाव अस्थायी व दिखावटी होता है किन्तु विश्वशांति हेतु धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करना ही पड़ेगा। आज एड्स नामक प्राणघातक बीमारी के भय से स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों पर रोक लगी है व ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त को बल मिला है। छापे के भय से काले धन संचय में कटौती हो रही है और अपरिग्रह को मान्यता दी जा रही है। प्राकृतिक सीमित साधनों के व्यर्थ में प्रयोग को रोकने हेतु सरकार करोड़ों रुपये विज्ञापन आदि में व्यय करके जनता को इस बारे में आगाह करती है। जैनदर्शन में अनर्थदण्डव्रत के द्वारा बिना प्रयोजन पानी, हवा, वनस्पति आदि के प्रयोग को निषिद्ध बताकर सीमित साधनों के संरक्षण हेतु बहुत बल दिया है।
विश्वधर्म की पात्रता रखने वाला, प्राणीमात्र के कल्याण की बात करने वाला, स्याद्वाद सिद्धान्त को प्रतिपादित करने वाला जैनधर्म महान् उदार है, फिर भी कतिपय जैन कहलाने वाले लोग बाह्य क्रियाओं के अन्तर को आधार बनाकर परस्पर द्वेषभाव रखें तो वह जैनत्व के नाम पर कलंक है तथा जैनदर्शन के मूल सिद्धान्तों का घात है। सन्तों के मार्गदर्शन में हम समाज की एकता को अक्षुण्ण रखें ताकि हम लोगों के विघटनकारी व्यवहार को देखकर अन्य जन जैनदर्शन के अिंहसा व अनेकान्त के सिद्धान्तों का उपहास न करें। राष्ट्र की कल्याणकारी योजनाओं में जैनियों का सहयोग सर्वदा बना रहा है।
इसके सिद्धान्त सर्वोपयोगी हैं। इनके निष्ठापूर्वक पालन में ही विश्व की समस्त समस्याओं का समाधान निहित है। धर्म निरपेक्षता की आड़ में धर्मविहीन हो जाने से राष्ट्र का चारित्रिक पतन होता है। चारित्रिक पतन से राष्ट्र्रोत्थान की कल्याणकारी योजनायें निष्फल हो जाती हैं अत: राष्ट्र के सर्वतोमुखी विकास एवं मानव की स्थायी सुख—शान्ति हेतु नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था जागृत करना नितान्त आवश्यक है। जैनधर्म नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न कराता है, जिनके परिपालन से ही स्थायी विश्वशांति सम्भव हो सकती है।
जैन राजनीति की यह विशेषता है कि वह धर्म से अनुप्राणित है। धर्म की परिभाषा देते हुए आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि—
देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिवर्हणम्।
संसारदु:खत: सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।।
अर्थात् मैं समीचीन धर्म का उपदेश करूँगा। यह कर्मों का निर्मूलन करने वाला है और प्राणियों को संसार के दु:खों से छुड़ाकर उत्तम सुख में रख देता है। आचार्यश्री ने जैनान् नहीं कहा ‘सत्त्वान्’ कहा अत: सिद्ध है कि धर्म किसी संप्रदाय विशेष से संबन्धित नहीं है। धर्म निर्बन्ध है, निस्सीम है, सूर्य के प्रकाश की तरह। सूर्य के प्रकाश को हम बन्धनयुक्त कर लेते हैं, दीवारें खींचकर, दरवाजे बनाकर, खिड़कियाँ लगाकर। आज की राजनीति में भी दीवारें, दरवाजे और खिड़कियाँ लग गई हैं, जिसके कारण जातिवाद, संप्रदायवाद, पूँजीवाद, समाजवाद, प्रांतवाद, क्षेत्रीयवाद आदि विभिन्न वाद उभरकर संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति में अपने को लीन कर रहे हैं।
गंगानदी हिमालय से प्रारंभ होकर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोलें करते हैं, उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं, उसका जल पीकर जीवन रक्षा करते हैं, अपने पेड़—पौधे को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगानदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा संप्रदाय की नहीं है, वह सभी की है किन्तु उसको यदि कोई अपना बताये तो गंगा का क्या दोष है ? इसी प्रकार भगवान वृषभनाथ व भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जाति विशेष का आधिपत्य संभव नहीं है। धर्म और धर्म को प्रतिपादित करने वाले महापुरुष संपूर्ण लोक की अक्षय निधि हैं। महावीर की सभा में क्या केवल जैन ही बैठते थे ? नहीं। उस सभा में देव, देवी, मनुष्य, स्त्रियाँ, पशु-पक्षी सभी को स्थान मिला हुआ था अत: धर्म किसी परिधि में बँधा नहीं है, उसका क्षेत्र प्राणिमात्र तक विस्तृत है।
प्राचीन राजाओं की राजनीति सभी के योग और क्षेम तक विस्तृत थी। आचार्य वादीभिंसह ने राज्य को योग और क्षेम की अपेक्षा विस्तार से तप के समान कहा है; क्योंकि तप तथा राज्य से संबंध रखने वाले योग और क्षेम के विषय में प्रमाद होने पर अध:पतन होता है और प्रमाद न होने पर भारी उत्कर्ष होता है। आचार्य गुणभद्र के अनुसार राज्य में राजा वही है जो प्रजा को सुख देने वाला हो। चन्द्रप्रभचरित के अनुसार उत्तम देशों के जो लक्षण प्राप्त होते हैं उनमें उपजाऊ और रमणीय भूमि, स्वच्छ सरोवर, दीर्घिकायें, नदियाँ, खन्िाज का क्षेत्र, उत्कृष्ट धान्य संपदा, वृक्षादि वनस्पति, ईतियों की बाधा न होना, प्रमुदित, सुचरित्र, निर्व्यसनी प्रजा, प्रजापालक राजा, उत्तम जलवायु, उत्तम पथ तथा अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति होना प्रमुख है। ये विशेषताएँ उत्तम प्राकृतिक एवं मानसिक पर्यावरण को सूचित करती हैं।
आचार्य रविषेण कृत पद्मचरित के अध्ययन से राज्य की उत्पत्ति के जिस सिद्धांत को सर्वाधिक बल मिलता है, वह है सामाजिक समझौता सिद्धान्त। आधुनिक युग में इस सिद्धांत को अधिक बल देने वाले हाब्स, रूसो और लॉक हैं। इनमें भी पद्मचरित का राज्य की उत्पत्ति सम्बन्धी संकेत आधुनिक युग के रूसो और लॉक के सिद्धांत से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य दैवीय न होकर एक मानवीय संस्था है, जिसका निर्माण प्राकृतिक अवस्था में रहने वाले व्यक्तियों द्वारा पारस्परिक समझौते के आधार पर किया गया है। इस सिद्धान्त के सभी प्रतिपादक अत्यन्त प्राचीनकाल में एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं जिसके अन्तर्गत जीवन को व्यवस्थित रखने के लिए राज्य जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। इस प्राकृतिक अवस्था के विषय में मतभेद है। कुछ इसे पूर्व सामाजिक तथा कुछ इसे पूर्व राजनैतिक अवस्था मानते हैं। इस प्राकृतिक अवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति अपनी इच्छानुसार प्राकृतिक नियमों को आधार मानकर अपना जीवन व्यतीत करते थे। कुछ ने प्राकृतिक अवस्था को अत्यन्त कष्टप्रद तथा असहनीय माना है तो कुछ ने इस बात को प्रतिपादन किया है कि प्राकृतिक अवस्था में मानवजीवन आनंदपूर्ण था। पदम्चरित में इसी दूसरी अवस्था को स्वीकार किया गया है। इस अवस्था को त्यागने का कारण साधनों की कमी तथा प्रकृति में परिवर्तन होने से उत्पन्न हुआ भय था। इन संकटों को दूर करने के लिए समय-समय पर विशेष व्यक्तियों का जन्म हुआ। इन व्यक्तियों को कुलकर कहा गया, राज्य की उत्पत्ति का मूल इन कुलकरों और इनके कार्यों को ही कहा जा सकता है।
दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना और उन्हें दण्ड देना तथा सज्जनों का पालन करना, यह क्रम भोगभूमि में नहीं था क्योंकि उस समय पुरुष निरपराध होते थे। भोगभूमि के बाद कर्मभूमि का प्रारंभ हुआ। इस समय यह आशंका हुई कि दण्ड देने वाले राज्य का अभाव होने पर प्रजा असत्यन्याय का आश्रय करने लगेगी अर्थात् बलवान् निर्बल को निगल जाएगा। ये लोग दण्ड के भय से कुमार्ग की ओर नहीं दौड़ेंगे इसलिए दण्ड देने वाले राजा का होना उचित है और ऐसा राजा ही पृथ्वी जीत सकता है। जिस प्रकार दूध देने वाली गाय से उसे किसी प्रकार की पीड़ा पहुँचाए बिना उसका दूध दुहा जाता है और ऐसा करने से गाय सुखी रहती है तथा दुहने वाले की भी आजीविका चलती रहती है उसी प्रकार राजा को भी प्रजा से टैक्स आदि के रूप में उचित धन वसूल करने का विधान है। वह धन पीड़ा न देने वाले करों से वसूल किया जा सकता है। ऐसा करने से प्रजा भी दु:खी नहीं होती और राज्य व्यवस्था के लिए योग्य धन भी सरलता से मिल जाता है, ऐसा सोचकर भगवान् वृषभदेव ने कुछ लोगों को दण्डधर राजा बनाया; क्योंकि प्रजाओं के योग और क्षेम का विचार करना राजाओं के ही आधीन होता है। अच्छे राजा के होने पर प्रजा को भय और क्षोभ नहीं होते हैं।
राज्य का फल धर्म (जिन कर्तव्यों के करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति हो) अर्थ (जिससे मनुष्य के सभी प्रयोजनों की सिद्धि हो) और काम (जिससे समस्त इन्द्रियों—स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र में बाधारहित प्रीति हो) की प्राप्ति है। उक्त फल प्रदाता होने के कारण आचार्य सोमदेव ने उसे नमस्कार किया है।
नीतिवेत्ता राजा पृथ्वी को स्त्री के समान वश में कर लेता है। न्यायमार्ग का वेत्ता होने के कारण किसी विषय में विसंवाद होने पर लोग उसके पास न्याय के लिए आते हैं। उत्तम राजा न तो अत्यन्त कठोर होता है और न अत्यन्त कोमल, अपितु मध्यम वृत्ति का आश्रय कर जगत को वशीभूत करता है। इसके अतिरिक्त राजा के अनेक कर्त्तव्य बतलाए गए हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं—१. कुलपालन, २. मत्यनुपालन, ३. आत्मानुपालन, ४. प्रजापालन, ५. मुख्य वर्ग की रक्षा, ६. घायल और मृत सैनिकों की रक्षा, ७. सेवकों की दरिद्रता का निवारण तथा सम्मान, ८. योग्य स्थान पर नियुक्ति, ९. कण्टक शोधन, १०. कृषि कार्य में योग दान देना, ११. अक्षरम्लेच्छों को वश में करना, १२. समञ्जसत्व धर्म का पालन, १३. दुराचार का निषेध तथा १४. लोकापवाद से भयभीत होना।
१. कुलपालन—कुलाम्नाय की रक्षा करना और कुल के योग्य आचरण की रक्षा करना।
२. मत्यनुपालन—राजाओं को वृद्ध मनुष्यों की संगति रूपी संपदा से इन्द्रियों पर विजय प्राप्तकर धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र से अपनी बुद्धि को सुसंस्कृत करनी चाहिए।
३. आत्मानुपालन—इस लोक तथा परलोक संबंधी अपायों, विघ्नों से आत्मा की रक्षा करना।
४. प्रजापालन—प्रजा के कार्य को देखना तथा प्रजा की रक्षा करना।
५. मुख्यवर्ग की रक्षा—जो राजा अपने मुख्य बल से पुष्ट होता है, वह समुद्रान्त पृथ्वी को बिना किसी यत्न के जीत लेता है।
६. घायल और मृत सैनिकों की रक्षा—संग्राम में किसी भृत्य के मर जाने पर उसवâे पद पर उसके पुत्र अथवा भाई को नियुक्त करना।
७. सेवकों की दरिद्रता का निवारण तथा सम्मान—राजा को चाहिए कि अपनी सेना में किसी योद्धा को उत्तम जानकर उसे अच्छी आजीविका देकर सम्मानित करे। जो राजा अपना पराक्रम प्रकट करने वाले वीर पुरुष को उसके योग्य सत्कारों से संतुष्ट रखता है, उसके भृत्य सदा उस पर अनुरक्त रहते हैं और कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ते हैं।
८. योग्य स्थान पर नियुक्ति—जिस प्रकार ग्वाला अपने पशुओं को काँटों और पत्थरों से रहित तथा शीत और गर्मी आदि की बाधा से शून्य वन में चराता हुआ बड़े प्रयत्न से उसका पोषण करता है उसी प्रकार राजा को भी अपने सैनिक को किसी उपद्रवहीन स्थान पर रखकर उनकी रक्षा करना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो राज्य का परिवर्तन होने पर चोर, डाकू तथा अन्य राजा लोग उसके इन सेवकों को पीड़ा देने लगेंगे।
९. कण्टकशोधन—चोर, चरट (देश से बाहर निकाले गए अपराधी), अन्नप (खेतों या मकानों की माप करने वाले), धमन (व्यापारियों की वस्तुओं का मूल्य निश्चित करने वाले), राजा के प्रेमपात्र, आटविक (वन में रहने वाले भील या अधिकारी) तलार (छोटे-छोटे स्थानों में नियुक्त किए हुए अधिकारी), भील, जुआरी, मंत्री और अमात्य आदि (अधिकारीगण) आक्षशालिक (जुआरी), नियोगि (अधिकारी वर्ग) ग्रामकूट (पटवारी) और वार्द्धषिकु (अन्न का संग्रह करने वाले व्यापारी) ये राष्ट्र के कण्टक हैं। उक्त राष्ट्र के कण्टकों में से अन्न संग्रह करके दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारी लोग देश में अन्याय की वृद्धि करते हैं तथा तंत्र (व्यवहार) एवं देश का नाश कर देते हैं। वार्द्धुषिकों (लाभवश राष्ट्र का अन्न संग्रह कर दुर्भिक्ष पैदा करने वाले व्यापारियों) की कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य में लज्जा नहीं होती अथवा उनमें सरलता नहीं होती—कुटिलता स्वभाव वाले होते हैं। जिस देश में राज प्रतापी तथा कठोर शासन करने वाला होता है उसके राज्य में राष्ट्र कण्टक नहीं होते हैं।
१०. कृषि कार्य में योग दान देना—राजा को आलस्यरहित होकर अपने अधीन ग्रामों में बीज देना आदि साधनों द्वारा किसानों से खेती कराना चाहिए। वह अपने देश में किसानों द्वारा भलीभाँति खेती कराकर धान्य संग्रह करने के लिए उनसे न्यायपूर्ण उचित अंश ले। ऐसा होने से उसके भण्डार आदि में बहुत सी संपदा इकट्ठी हो जायेगी। उससे उसका बल बढ़ेगा तथा संतुष्ट करने वाले धान्यों से उसका देश भी पुष्ट अथवा समृद्धिशाली हो जाएगा।
११. अक्षरम्लेच्छों को वश में करना—अपने आश्रित स्थानों पर प्रजा को दु:ख देने वाले जो अक्षरम्लेच्छ हैं उन्हें कुल शुद्धि प्रदान करना आदि उपायों से अपने अधीन करना चाहिए। अपने राजा से सत्कार पाकर वे फिर उपद्रव नहीं करेंगे। यदि राजाओं से उन्हें सम्मान प्राप्त नहीं होगा तो वे प्रतिदिन कुछ न कुछ उपद्रव करते रहेंगे। जो अक्षरम्लेच्छ अपने ही देश में संचार करते हों, उनसे राजा को कृषकों की तरह कर अवश्य लेना चाहिए। जो अज्ञान के बल से अक्षरों द्वारा उत्पन्न अहंकार को धारण करते हैं, पापसूत्रों से आजीविका करने वाले वे अक्षरम्लेच्छ कहलाते हैं। िंहसा करना, मांस खाने से प्रेम रखना, बलपूर्वक दूसरों का धन अपहरण करना और धूर्तता करना, यही म्लेच्छों का आचार है।
१२. समञ्जसत्व धर्म पालन—प्रजा को विषम दृष्टि से न देखना, सब पर समान दृष्टि रखना, समञ्जसत्व धर्म हैं। इस गुण के द्वारा शिष्ट गुणों का पालन और दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना चाहिए। जो पुरुष िंहसा आदि दोषों में तत्पर रहकर पाप करते हैं, वे दुष्ट कहलाते हैं। जो क्षमा, संतोष आदि के द्वारा धर्मधारण करने में तत्पर हैं, वे शिष्ट कहलाते हैं।
वरांगचरित में धर्मसेन और वरांग आदि राजाओं का वर्णन किया गया है। इन गुणों को देखने से ऐसा लगता है कि जटािंसहनन्दि उपर्युक्त राजाओं के बहाने श्रेष्ठ राजा के गुणों का ही वर्णन कर रहे हैं। इस दृष्टि से अच्छे राजा के निम्नलिखित गुण प्राप्त होते हैं—
राजा को आख्यायिका, गणित तथा काव्य के रस को जानने वाला, गुरुजनों की सेवा का व्यसनी, दृढ़ मैत्री रखने वाला, प्रमाद, अहंकार, मोह और ईर्ष्या से रहित, सज्जनों और भली वस्तुओं का संग्रह करने वाला, स्थिर मित्रों वाला, मधुरभावी, निर्लोभी, निपुण और बन्धु-बान्धवों का हितैषी होना चाहिए। उसका आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्त्व इस प्रकार हो कि वह सौन्दर्य द्वारा कामदेव को, न्यायनिपुणता से शुक्राचार्य को, शारीरिक कान्ति से चन्द्रमा को, प्रसिद्ध यश के द्वारा इन्द्र को, दीप्ति के द्वारा सूर्य को, गंभीरता तथा सहनशीलता से समुद्र को और दण्ड के द्वारा यमराज को भी तिरस्कृत कर दे। अपनी स्वाभाविक विनय से उत्पन्न उदार आचरणों एवं महान गुणों द्वारा वह उन लोगों के भी मन को मुग्ध कर ले, धर्म तथा राजनीति में बढ़-चढ़कर हो। राजा को चाहिए कि उसके अनुगामी सेवक उससे सन्तुष्ट रहें तथा प्रत्येक कार्य को तत्परता से करें, उसके मित्र समीप में हो और वह हर समय संबन्धियों पर आश्रत न रहे। प्रबुद्ध और स्थिर होना राजा का बहुत बड़ा गुण है। जो व्यक्ति स्वयं जागता है, वही दूसरों को जगा सकता है। जो स्वयं स्थिर है वह दूसरों की डगमग अवस्था का अन्त कर सकता है, जो स्वयं नहीं जागता है और जिसकी स्थिति अत्यन्त डाँवाडोल है, वह दूसरों को न तो प्रबुद्ध कर सकता है और न स्थिर कर सकता है। राजा की कीर्ति सब जगह पैâली होनी चाहिए कि वह न्यायनीति में पारंगत, दुष्टों को दण्ड देने वाला, प्रजा का हितैषी और दयावान् है। राजा राजसभा में पहले जो घोषणा करता है, उसके विपरीत आचरण करना अनुपयुक्त तथा धर्म के अत्यन्त विरुद्ध है। इस प्रकार के कार्य का सज्जन परिहास करते हैं। राजा धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का इस ढंग से सेवन करे कि उसमें से किसी एक का अन्य से विरोध न हो। इस व्यवस्थित क्रम को अपनाने वाला राजा अपनी विजयपताका फहरा देता है। राजा की दिनचर्या ऐसी होनी चाहिए कि वह प्रात: से संध्या समय तक पुण्यमय उत्सवों में व्यस्त रहे। अपने स्नेही बन्धु, बान्धव, मित्र तथा अर्थिजनों को भेंट आदि देता रहे। ऐसे राजा की प्रत्येक चेष्टा प्रजा की दृष्टि में प्रामाणिक होती है अत: वह उस पर अडिग विश्वास रखती है। राजा का विवेक आपत्तियों में भी कम नहीं होना चाहिए। संकट के समय व किसी प्रकार की असमर्थता का अनुभव न करे तथा उसे अपने कार्यों का इतना अधिक ज्ञान हो कि कर्त्तव्य, अकर्त्तव्य, शत्रुपक्ष, आत्मपक्ष तथा मित्र और शत्रु के स्वभाव को जानने में देर न लगे। जिस राजा का अभ्युदय बढ़ता है, उसके पास अच्छे मित्र, बान्धव, उत्तम रत्न, श्रेष्ठ हाथी, सुलक्षण अश्व, दृढ़ रथ आदि हर्ष तथा उल्लास के उत्पादक नूतन साधन अनायास ही आते रहते हैं। राजा का यह कर्त्तव्य है कि राज्य में पड़े हुए निराश्रित बच्चे, बुड्ढों तथा स्त्रियों, अत्यधिक काम लिए जाने के कारण स्वास्थ्य नष्ट हो जाने पर किसी भी कार्य के अयोग्य श्रमिकों, अनाथों, अन्धों, दीनों तथा भयंकर रोगों में पँâसे हुए लोगों की सामर्थ्य, असामर्थ्य तथा उनकी शारीरिक, मानसिक दुर्बलता आदि का पता लगाकर उनके भरण पोषण का प्रबन्ध करे। जिन लोगों का एक मात्र कार्य धर्मसाधना हो, उसे गुरु के समान मानकर पूजा करे तथा जिन लोगों ने पहले किए गए वैर को क्षमायाचना कर शान्त करा दिया हो, उनका अपने पुत्रों के समान भरण पोषण करे किन्तु जो अविवेकी हों तथा घमण्ड में चूर होकर बहुत बढ़-चढ़कर चलें अथवा दूसरों को कुछ न समझें, उन लोगों को अपने देश से निकाल दे। जो अधिकारी अथवा प्रजाजन स्वभाव से कोमल हों, नियमों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करें, अपने कर्त्तव्यों आदि को उपयुक्त समय के भीतर कर दें, उन लोगों को समझने तथा पुरस्कार आदि देने में वह अत्यन्त तीव्र हो। राजा को प्रजा का अत्यधिक प्यारा होना चाहिए। वह सब परिस्थितियों में शान्त रहे और शत्रुओं का उन्मूलन करता हुआ अपनी कीर्ति को बढ़ाता रहे।
राजा के उपर्युक्त सभी गुणों को देखने से ज्ञात होता है कि जैनाचार्यों ने जैनधर्म के प्राय: सभी विशिष्ट सिद्धांतों को, जो कि श्रावक पालन कर सकता है, राजाओं के जीवन में उतारने का प्रयत्न किया है। इन सभी सिद्धान्तों में प्रेम, मैत्री, क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, इन्द्रियनिग्रह, अिंहसा, मृदुभाषण, शील, प्रबुद्धता, त्रिवर्ग का अविरोध रूप से सेवन, पुण्यार्जन, दान—आहारदान, औषधिदान, अभयदान, ज्ञानदान, आश्रयदान, बड़ों के प्रति सम्मान, पुरस्कार देना, कुल की रक्षा, आत्मानुपालन, दरिद्रता निवारण, कृषि को समुन्नत करना, श्रमिकों की रक्षा करना आदि प्रमुख है। इनका पालन करने से राजा और प्रजा का व्यक्तित्व परिष्कृत होता है और जीवन में सुख-शांति होती है, सब प्रकार के उपद्रव दूर होते हैं और समृद्धि वृद्धिंगत होती है।