इसमें संस्कृत की बारह भावनाएँ श्री अमृतचंद्रसूरि कृत हैं। हिन्दी व कन्नड़ भावनाएँ मेरे द्वारा (गणिनी ज्ञानमती द्वारा) रचित हैं एवं मराठी भावना के कर्ता का नाम अज्ञात है। ये भावनाएँ तत्त्वार्थसूत्र में कथित भावनाओं के क्रम से हैं।
श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं-
क्रोड़ी करोति प्रथमं, जातजंतुमनित्यता।
धात्री च जननी पश्चात् धिग्मानुष्यमसारकम्।।१।।
जन्म लेते ही प्राणी को सर्वप्रथम अनित्यता अपनी गोद में लेती है, इसके बाद धाय अपनी गोद में लेती है पुन: माता अपनी गोद में लेती है, ऐसी असार मनुष्य पर्याय को धिक्कार हो अर्थात् यह जीवन अनित्य है-नित्य नहीं है, जन्म लेते ही प्रतिसमय आयु के एक-एक निषेक झड़ने लगते हैं इसलिए उसी समय से नित्यपना साथ लग जाता है।
(शंभु छंद)
तन धन यौवन इन्द्रिय सुख ये, सब क्षणभंगुर हैं नित्य नहीं।
मैं नित्य अचल अविनश्वर हूँ, स्वाभाविक शक्ति अचिंत्य कही।।
मैं नित ध्याऊँ निज आत्मा को, अविनश्वर पद के पाने तक।
मैं ज्ञाता दृष्टा बन जाऊँ, सर्वज्ञ अवस्था आने तक।।१।।
मराठी में अनित्य भावना का चिंतवन कीजिए-
१. अनित्यानुप्रेक्षा-(चाल-:प्रात:काली थंडगारसा)
जीवित असुनी जल बुद्बुदसम, विषय, राज्य, धनराशी।
स्थिर न च जीवा! ऐसे मानो कारण संसारासी।।१।।
यह जीवन जल के बुलबुले के समान अस्थिर है, ये इन्द्रियों के विषय, राज्य सुख और धन समूह कुछ भी स्थिर नहीं हैं, हे जीव! तुम ऐसा मानो कि ये सब संसार के कारण हैं।
कन्नड़ में अनित्य भावना पढ़िए-
अरसर वैभव सुरर विमानवु धन यौवन संपदवेल्ला।
निरतवु नेनेदरे इन्द्रिय भोगवु येंदु निल्लदु स्थिरवल्ला।।
मेरे युव कामन बिल्लिन तेरदलि नोडलु मत्तल्लेनिल्ला।
स्वात्म स्वभावव साधिसि संतत मुक्तियुकैयोळगिहुदल्ला।।१।।
राजाओं का वैभव, देवों के विमान, धन, यौवन, ऐश्वर्य, बल, आज्ञा का चलना, इन्द्रिय के भोग ये सब एक निमिष मात्र भी स्थिर नहीं हैं। जैसे आकाश में बिजली चमक कर नष्ट हो जाती है, इन्द्रधनुष क्षण में विलीन हो जाता है उसी प्रकार इस संसार में ये सब नष्ट होने वाले हैं। इन सबसे भिन्न मात्र अपने आत्म- स्वभाव की ही तुम सतत साधना करो कि जिससे तुम स्थिर ऐसी मुक्ति को प्राप्त कर सकोगे।
इस अध्रुव अथवा अनित्य भावना का चिंतवन करते रहने से मन में संसार की किसी भी वस्तु के प्रति विशेष ममत्व भाव नहीं रह जाता है बल्कि उससे भिन्न अपनी आत्मा शाश्वत काल रहने वाली नित्य है, उसमें ही सच्चा अनुराग उत्पन्न होता है तथा उस आत्मा की सिद्धि के लिए कारणभूत ऐसे पाँचों परमेष्ठियों की भक्ति, उपासना, आराधना में भी अनुराग होता है इसलिए इस अध्रुव अनुपे्रक्षा का हमेशा चिंतवन करते रहना चाहिए।
श्री अमृतचन्द्र स्वामी के अभिप्राय को देखिए-
उपघ्रातस्य घोरेण, मृत्युव्याघ्रेण देहिन:।
देवा अपि न जायंते, शरणं किमु मानवा:।।
घोर मृत्युरूपी व्याघ्र का आक्रमण हो जाने पर इस प्राणी को देवगण भी शरण नहीं हो सकते हैं तो फिर मनुष्यों की बात ही क्या है ? अर्थात् जब मृत्यु आती है तब देव भी उसे नहीं बचा सकते हैं पुन: मनुष्य क्या बचा सवेंâगे ?
जग में क्या शरण कोई देगा, सब शरण रहित अशरणजन हैं।
आत्मा इक शरणागत रक्षक, उस ही का शरण लिया मैंने।।
यद्यपि अर्हंत जिन पंचगुरू, हैं शरणभूत निज भक्तों के।
पर निश्चय से निज आत्मा ही, रक्षा करती भव दु:खों से।।२।।
तात्पर्य यह हुआ कि अशरण भावना भाते समय निश्चयनय से अपनी आत्मा को ही शरण समझकर व्यवहार नय से पाँचों परमेष्ठी की शरण लेना चाहिए। यही इस भावना को भाने का सार है।
मराठी में इस भावना का लक्षण पढ़िए-
जनक, जननी, सुत युवति, रक्षिती संसारी न च कोणी।
अदय काल तुझ भक्षिल केव्हां, नियम नसे हें जाणी।।२।।
इस संसार में माता-पिता, पुत्र और पत्नी कोई रक्षा नहीं कर सकते हैं। यह निर्दयी काल-मृत्युराज तुम्हें कब खा जायेगा, यह नियम नहीं है। हे जीव! ऐसा तुम चिंतवन करो।
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि लोक में बीमारी या संकट के समय बड़े-बड़े धर्मात्मा लोग भी वैद्यों के पास जाकर दवाई करते हैं, गुरुओं के पास जाकर यंत्र, मंत्र लेते हैं, मंदिर में जाकर भगवान् की पूजा आराधना भी करते हैं पुन: जब ये कोई रक्षा करने वाले ही नहीं है, तो उनका शास्त्रों में भी विधान क्यों है ?
इसका उत्तर यह है कि प्रत्येक मनुष्य या देव कोई भी आयु कर्म के समाप्त होने पर किसी से बचाये नहीं जा सकते हैं फिर भी अकालमृत्यु टाली जा सकती है और अनेक प्रकार के रोग, शोक, संकट टाले जा सकते हैं। मैना सुन्दरी ने सिद्धचक्र विधान करके पति के कुष्ठ को दूर किया था। आचार्यों ने स्वयं ग्रंथों में औषधिदान का विधान किया हुआ है। इसी उपर्युक्त अशरण भावना में ही आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने यह बात कही है। पाँचों परमेष्ठी स्वरूप आत्मा और चार आराधना स्वरूप आत्मा ही शरण है अत: व्यवहार से पाँचों परमेष्ठी और आराधना ही शरण हैं। हिन्दी में कहा है-
देवधर्म गुरु शरण जगत में और नहीं कोई।
भ्रमतें फिरे भटकता चेतन यूँ ही उमर खोई।।
इसलिए देव, धर्म और गुरु की शरण लेना ही अशरण भावना है।
कन्नड़ में अशरण भावना को पढ़िए-
हुल्लि बायलि हा हुल्लेय परियलि नरळुव भव काननदल्लि।
कलिगळ काणेनु कालन तडेयलु भयवे भय जीवनदल्लि।।
तायियो तंदेयो बंधुवो बळगवो येल्लरु यमना वैâयल्लि।
कायुवुदोंदे श्री जिनराजन स्मरणेयु संतत शरणिल्लि।।२।।
इस तीन लोकरूपी वन में जैसे व्याघ्र हरिण को पकड़ ले तो उसकी दाढ़ के नीचे गए हुए उस हरिण को कोई भी शरण नहीं है। उसी प्रकार हे जीव! मृत्यु के समय तुम्हारी रक्षा करने वाला भला कौन बलवान है ? माता-पिता, बन्धु, राजा और इन्द्र ये सभी तो यमराज के मुख का ग्रास बन रहे हैं पुन: ये तुम्हारी क्या रक्षा करेंगे ? हाँ, इस जगत में रक्षक वे ही हैं कि जिन्होंने यमराज को जीत लिया है इसलिए मृत्यु के विजेता ऐसे देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव की ही शरण लेवो।
श्री अमृतचन्द्रसूरि के शब्दों में संसार भावना-
चतुर्गतिघटीयन्त्रे, सन्निवेश्य घटीमिव।
आत्मानं भ्रमयत्येष, हा कष्टं कर्मकक्षिक:।।
इस चतुर्गतिरूप घटिका यंत्र में घड़े के समान इस जीव को लगाकर यह कर्मकृषक आत्मा को इस संसार में भ्रमण कराता रहता है। हा! यह बड़े कष्ट की बात है।
हैं द्रव्य, क्षेत्र औ काल तथा, भव भाव पंच विध परिवर्तन।
निज आत्मा के अंदर रमते, ही रुक जाते सब परिभ्रमण।।
मैं हूँ निश्चय से भ्रमण रहित, शिवपुर में ही विश्राम मेरा।
मैं निज में स्थिर हो जाऊँ, फिर होवे भ्रमण समाप्त मेरा।।
लक्ष चौयांसी योनी मांजी, जीव घेउनी वेष।
सूत्रधार सम फिर न त्यासी, मिले सुखाचा लेश।।
चौरासी लाख योनियों में यह जीव वेश धारण कर सूत्रधार के समान इस संसार में घूम रहा है, इसे सुख का लेश नहीं मिलता है।
मूजगदलि चिरमिथ्या मायेगे सिलुकुत तिरुगुतलिरुतिहेनु।
आ जिनदेवन काणदे भ्रमेयलि कालवनंतव कळेदिहेनु।।
ई जगदलि बरि दु:खवदल्लदे शाश्वत शान्तयु बित्तिल्ला।
भज भव्यात्मने भवहरदेवने हुट्टु सावुगळु मन्तिल्ला।।
इस तीन जगत में चिरकाल से मिथ्यात्व और मायाचार से यह जीव भ्रमण कर रहा है। श्री जिनेन्द्रदेव के धर्म को नहीं प्राप्त कर ही इसने अनंतकाल बिता दिया है। इस जगत में केवल दु:ख ही दु:ख है, शाश्वत शांति नहीं है। इसलिए हे भव्यजीव! तुम भव से रहित ऐसे जिनेन्द्रदेव का आश्रय लेवो कि जिससे पुन: तुम्हें इस संसार में जन्म-मरण ही न करना पड़े।
इस प्रकार संसार भावना के बार-बार चिंतवन करने से संसार से भय उत्पन्न होता है तब मोक्ष प्राप्ति के उपाय मेें प्रवृत्ति होती है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि के शब्दों में एकत्व अनुप्रेक्षा-
कस्यापत्यं पिता कस्य कस्याम्बा कस्य गेहिनी।
एक एव भवाम्भोधौ जीवो भ्रमति दुस्तरे।।
कौन किसका पुत्र है ? कौन किसका पिता है ? कौन किसकी माता और कौन किसकी स्त्री है ? अहो! इस दुस्तर संसाररूपी समुद्र में यह जीव अकेला ही भ्रमण कर रहा है।
मैं हूँ अनादि से एकाकी, एकाकी जन्म मरण करता।
फिर भी अनंतगुण से युत हूँ, मैं जन्म मृत्यु भय का हरता।।
स्वयमेव आत्मा को ध्याऊँ, पूजूं वंदूँ गुणगान करूँ।
एकाकी लोक शिखर जाकर, स्थिर हो निज सुख पान करूँ।।
स्मशानभूपर्यंत अंति हे यति आप्तगण सारे।
तुझ्यासवें तह देह न येई वदूँ किती जीवा! रे।।
कर्ता अससी शुभाशुभाचा भोक्ता सुखदु:खांचा।
तूं च एकटा यास्तव पाळी जिनधर्मचि जो साचा।।
ये सभी कुटुम्बीवर्ग अंत में श्मशान भूमि तक ही तुम्हारे साथ आते हैं और तो क्या! तुम्हारे साथ यह शरीर भी नहीं जाता है, हे जीव! ऐसा समझ। तुम अकेले ही अपने शुभ-अशुभ के करने वाले हो और उसका फल सुख-दु:ख भोगने वाले हो, इसलिए जो सच्चा जिनधर्म है उसका पालन करो।
हुट्टुव सायुव समयदि संगड खंडित बरुववरारण्णा।
बुट्टियलेनिदे बाळलि गळिसदे मेल्लने मरेयदे नोडण्णा।।
बरुवदु शुभाशुभार्जित कर्मवे यारिगू यारु जोतेगिल्ला।
मरदलि सेरिद हक्किगळन्ददि सेरुवुदगलुवदिल्लेल्ला।।३।।
इस संसार में यह जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। इसके साथ दूसरा कोई नहीं जाता है और न आता ही है। हे भाई! यह स्पष्टतया देखो, मात्र प्रत्येक जीव के साथ उसके किये हुए शुभ-अशुभ कर्म ही साथ जाते हैं बाकी कोई किसी के साथ नहीं जाता है। जैसे रात्रि में वृक्ष पर अनेक पक्षी आकर इकट्ठे हो जाते हैं और प्रात: होते ही अन्यत्र चले जाते हैं।
श्री अमृतचन्द्रसूरि के शब्दों में अन्यत्व अनुप्रेक्षा-
अन्य सचेतनो जीवो, वपुरन्यदचेतनम्।
हा! तथापि न मन्यन्ते, नानात्वमनयोर्र्जना:।।
यह चैतन्य आत्मा जीव अन्य है और यह अचेतन शरीर अन्य है। हा! बड़े खेद की बात है कि फिर भी लोग इन दोनों के भिन्नपने को नहीं मानते हैं।
मेरी आत्मा से भिन्न सभी, किन्चित् अणुमात्र न मेरा है।
मैं सबसे भिन्न अलौकिक हूँ, बस पूर्ण ज्ञान सुख मेरा है।।
मैं अन्य सभी पर द्रव्यों से, संबंध नहीं रख सकता हूँ।
वे सब अपने में स्वयं सिद्ध, मैं निज भावों का कर्ता हूँ।।
देह न अपुला असे खरोखर सांग दुजा तव कोण।
लक्ष्मी चंचल बांधव असति दुजे उघड हें जाण।।
हे जीव! जब शरीर भी अपना नहीं है यह बात सत्य है तब कहो, दूसरा कौन तुम्हारा होगा ? यह लक्ष्मी चंचल है और ये बांधव तुमसे अन्य ही हैं, यह समझो।
गेहवु नन्नदु देहवु नन्नदु येन्नुवेया बरि मरुळेल्ला।
नेहव माडिद वस्तुगळाववु निन्नोडनेंदिगु बरलिल्ला।।
नीरु हालू सेरिद परियलि जीव शरीरव बगेयुतिरु।
नीरनुळिदु बरि हालनेळेव चिर चिन्मय हंस नीनागुतिरु।।
‘‘यह घर मेरा है, यह शरीर मेरा है’’ ऐसा कहते हुए यह संसारी प्राणी प्रत्येक वस्तु से स्नेह करते रहते हैं किन्तु वास्तव में कोई भी वस्तु इस जीव के साथ नहीं जाती है। जैसे जल और दूध मिलाने पर एकमेक हो जाते हैं वैसे ही यह जीव और शरीर दोनों एकमेक हो रहे हैं किन्तु इनका लक्षण अलग-अलग है। जल को अलग कर दूध पीने वाले हंस के समान तुम चिन्मय चैतन्य हंस अपनी आत्मा को कर्मों से अलग कर सुखी होवो।
अशुचि भावना-श्री अमृतचंद्रसूरि के शब्दों में-
नानाकृमिशताकीर्णे, दुर्गंधे मलपूरिते।
आत्मनश्च परेषां च, क्व शुचित्वं शरीरके।।
अनेक प्रकार के सैकड़ों कृमि से व्याप्त, दुर्गंध, मल से भरित अपने और अन्य के शरीर में शुचिता-पवित्रता कहाँ है ? अर्थात् यह शरीर अपवित्र ही है।
यह देह अपावन अशुचिमयी, सब शुचि वस्तु अपवित्र करे।
इस तन में राजित आत्मा ही, रत्नत्रय से तन शुद्धि करे।।
तन सहित तथापि अशरीरी, आत्मा को ध्याऊँ रुचि करके।
चैतन्य परम आल्हादमयी, परमात्मा बन जाऊँ झट से।।
रुधिरमांसयुत मलखनि नश्वर, अशुचि अशा हा देह।
निजरूपासी त्यजुनि व्यर्थ, कां करिसी यावर मोह।।
रक्त-मांस से युक्त, मल की खान, नश्वर, अपवित्र ऐसा यह शरीर है अपने रूप को छोड़कर इस पर मोह करना व्यर्थ है।
मलमूत्रद कोळे कोंपेयु कोनेयलि सुडुगाडिगे बलियागुवदु।
होलसिन देहव नंबिदेयादरे कर्मद वैâ मेलागुवदु।।
परिपरि परिमळ पाकव नेनेदरे नारुतलिरुवुदु शुचियिल्ला।
चिरत्रैरत्नामृतदलि तोळेदरे भवदलि खंडित रुचियिल्ला।।
यह शरीर मल, मूत्र आदि अशुचि पदार्थों का पिंड है इससे हमेशा दुर्गंध ही निकलती रहती है। चाहे जितना इसे नहलाओ, सुगंधित द्रव्य लगाओ पर वे भी अपवित्र हो जाते हैं। इस शरीर में स्थित आत्मा को तीन रत्न-रत्नत्रय से धोने पर यह पवित्र हो जाता है। ऐसी भावना भाने से शरीर से प्रेम नष्ट हो जाता है और रत्नत्रय में प्रीति उत्पन्न होती है जिससे इस नश्वर घृणित शरीर से ही आत्मा को अविनाशी पवित्र बनाया जाता है।
इस प्रकार अशुचि भावना के भाते रहने से शरीर से ममत्व दूर हो जाता है और इस अपवित्र शरीर से रत्नत्रय द्वारा संसारी आत्मा को पवित्र कर लिया जाता है।
श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं-
कर्माम्भोभि: प्रपूर्णोऽसौ, योगरन्ध्रसमाहृतै:।
हा दुरन्ते भवाम्भोधौ, जीवो मज्जति पोतवत्।।
मन-वचन-काय के योगरूपी छिद्रों से जिसमें जल आ रहा है ऐसे कर्मरूपी जल से पूर्णतया भरा हुआ यह जीव जहाज के समान अपार ऐसे संसाररूपी समुद्र में डूब जाता है। अहो! बड़े खेद की बात है।
अध्यात्म भाषा में हिन्दी काव्य को देखिए-
मिथ्या अविरती कषायों से, कर्मास्रव हैं आते रहते।
पर ये जड़ अशुचि अचेतन हैं, जड़ ही इनको रचते रहते।।
मेरा है चेतन रूप सदा, मैं इन कर्मों से भिन्न कहा।
मैं निज आत्मा को भिन्न समझ, इन कर्मास्रव से पृथक् किया।।
अधोगमनकरि वारिधि माजीं सलिलपूर्ण जलयान।
तैसें मन वचकाये आत्मा कर्मग्रहण करून।।
जैसे जल से भरा हुआ जलयान समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही यह आत्मा मन-वचन-काय के द्वारा कर्म ग्रहण कर अधोगति में गमन करता रहता है।
मिथ्या अविरत कषाय योगदि कर्मगळेंटवु कूडुववु।
सत्यासत्यद नडेनुडियंददि सदसत्फलवनु नीडुववु।।
रंध्रव होंदिद हडगिन परियलि मेल्लने नाशव होन्दुवदु।
ई तेरदलि भव जलधियोळात्मनदास्रवदलिता नोंदिहुदु।।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनके द्वारा आठ प्रकार के कर्म आत्मा में आते हैं। ये शुभ-अशुभरूप से बंधकर अच्छे-बुरे फलों को देते रहते हैं। जैसे जहाज में छिद्र होने से चारों तरफ से उसमें जल भर जाने से वह समुद्र में डूब जाता है, उसी प्रकार से संसार समुद्र में यह आत्मा इन आस्रव के कारण डूब जाता है।
इस आस्रव भावना को समझकर मिथ्यात्व आदि से बचना, उनके विपरीत सम्यक्त्व, विरति आदि को ग्रहण करना यही इस आस्रव भावना को भाने का सार है।
योगद्वाराणि रुन्धन्त: कपाटैरिव गुप्तिभि:।
आपतद्भि: न बाध्यन्ते धन्या: कर्मभिरुत्कटै:।।
गुप्तिरूपी कपाटों के द्वारा योगरूपी द्वारों को बंद करते हुए महामुनि धन्य हैं वे उत्कट कर्मरूपी आपत्ति से बाधित नहीं होते हैं।
गुप्ति समितियुत संयम ही, कर्मों का संवर करते हैं।
निश्चय से निज में गुप्त रहूँ, तब कर्मास्रव सब रुकते हैं।।
मैं निर्विकल्प निज परम ध्यान, में लीन रहूँ परमारथ में।
फिर कर्म कहो आते कैसे ? ये भी रुक जाते मारग में।।
गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा, परिषह यांहि निरोध।
कर कर्माचा नूतन तेणें, तुटेल हा भवबन्ध।।
गुप्ति, समिति, धर्म, बारह भावना और परीषहजय इनसे नवीन कर्मों का आना रुकता है, इसी का नाम संवर है। यह भवबंध को तोड़ने वाला है। मेरा है चेतन रूप सदा, मैं इन कर्मों से भिन्न कहा।
मैं निज आत्मा को भिन्न समझ, इन कर्मास्रव से पृथक् किया।।
अधोगमनकरि वारिधि माजीं सलिलपूर्ण जलयान।
तैसें मन वचकाये आत्मा कर्मग्रहण करून।।
जैसे जल से भरा हुआ जलयान समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही यह आत्मा मन-वचन-काय के द्वारा कर्म ग्रहण कर अधोगति में गमन करता रहता है।
मिथ्या अविरत कषाय योगदि कर्मगळेंटवु कूडुववु।
सत्यासत्यद नडेनुडियंददि सदसत्फलवनु नीडुववु।।
रंध्रव होंदिद हडगिन परियलि मेल्लने नाशव होन्दुवदु।
ई तेरदलि भव जलधियोळात्मनदास्रवदलिता नोंदिहुदु।।
मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनके द्वारा आठ प्रकार के कर्म आत्मा में आते हैं। ये शुभ-अशुभरूप से बंधकर अच्छे-बुरे फलों को देते रहते हैं। जैसे जहाज में छिद्र होने से चारों तरफ से उसमें जल भर जाने से वह समुद्र में डूब जाता है, उसी प्रकार से संसार समुद्र में यह आत्मा इन आस्रव के कारण डूब जाता है।
इस आस्रव भावना को समझकर मिथ्यात्व आदि से बचना, उनके विपरीत सम्यक्त्व, विरति आदि को ग्रहण करना यही इस आस्रव भावना को भाने का सार है।
संवर भावना
योगद्वाराणि रुन्धन्त: कपाटैरिव गुप्तिभि:।
आपतद्भि: न बाध्यन्ते धन्या: कर्मभिरुत्कटै:।।
गुप्तिरूपी कपाटों के द्वारा योगरूपी द्वारों को बंद करते हुए महामुनि धन्य हैं वे उत्कट कर्मरूपी आपत्ति से बाधित नहीं होते हैं।
गुप्ति समितियुत संयम ही, कर्मों का संवर करते हैं।
निश्चय से निज में गुप्त रहूँ, तब कर्मास्रव सब रुकते हैं।।
मैं निर्विकल्प निज परम ध्यान, में लीन रहूँ परमारथ में।
फिर कर्म कहो आते कैसे ? ये भी रुक जाते मारग में।।
गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा, परिषह यांहि निरोध।
कर कर्माचा नूतन तेणें, तुटेल हा भवबन्ध।।
गुप्ति, समिति, धर्म, बारह भावना और परीषहजय इनसे नवीन कर्मों का आना रुकता है, इसी का नाम संवर है। यह भवबंध को तोड़ने वाला है।
यह निर्जरा भावना कर्मों से छुड़ाकर मोक्ष प्राप्त कराने वाली है। इसके भाते रहने से आत्मा से कर्मों का भार हल्का होता है।
लोक भावना
नित्याध्वगेन जीवेन, भ्रमता लोकवत्र्मनि।
वसतिस्थानवत्कानि, कुलान्यध्युषितानि च।।
इस लोकरूपी मार्ग में नित्य ही भ्रमण करते हुए इस जीवरूपी पथिक ने वसति-धर्मशाला स्थान के समान पता नहीं कितने कुलों में निवास किया है।
यह लोक अनादि अनिधन है, यह पुरुषाकार कहा जिन ने।
नहिं किन्चित् सुख पाया क्षण भर, मैं घूम-घूम कर इस जग में।।
अब मैं निज का अवलोकन कर, लोकाग्रशिखर पर वास करूँ।
मैं लोकालोकविलोकी भी, निज का अवलोकन मात्र करूँ।।
स्वर्ग मध्य पाताल भेद हे, असति जगाचे तीन।
चिरसुख न मिले यामधिं, मनुजा जन्म मृत्युचे स्थान।।
इस जग के स्वर्गलोक, मध्यलोक और पाताल लोक ये तीन भेद हैं। इसमें बहुत काल तक सुख नहीं मिल सकता है चूँकि यह जन्म और मृत्यु का स्थान है।
नलवत्त्मूरा मुन्नूरु रज्जुवु, घनलोकवु पुरुषाकारदलि।
अलेयुतलेम्भत्नाल्कु लक्षद, योनियु नानाकारदलि।।
तत्व बोधेयनु पडेयलिल्लवै, शान्तियु लेशवु सिगलिल्ला।
लोकान्त्यदलि निवासिसुववरिगे, चिरशान्तियु बहुस्थिरवेल्ला।।
यह लोक तीन सौ तेतालीस राजु प्रमाण घनरूप है, पुरुष के आकार का है। इसी में चौरासी लाख योनियों में अनेक आकार को धारण करके यह जीव घूम रहा है। तत्त्वज्ञान के बिना इस लोक में लेशमात्र भी शांति नहीं मिल सकती है। जो लोक के अग्रभाग में निवास कर रहे हैं ऐसे सिद्ध भगवान को ही पूर्ण शांति प्राप्त है, वे ही स्थिर पद पर निवास कर रहे हैं।
इस लोक भावना के बार-बार भाते रहने से यह जीव ऊध्र्वलोक को प्राप्त करने का प्रयास करता है पुन: धीरे-धीरे लोक के अग्रभाग को प्राप्त कर लेता है।
मोक्षारोहणनिश्रेणि:, कल्याणानां परम्परा।
अहो कष्टं भवाम्भोधौ, बोधिर्जीवस्य दुर्लभा।।
मोक्षमहल में चढ़ने के लिए सीढ़ी के समान और कल्याणों की परम्परा ऐसी बोधि इस संसार समुद्र में जीव के लिए बहुत ही दुर्लभ है। अहो! यह बड़े कष्ट की बात है।
दुर्लभ निगोद से स्थावर, त्रस पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ।
दुर्लभ उत्तम कुल देश धर्म, रत्नत्रय भी पाना दुर्लभ।।
सबसे दुर्लभ निज को पाना, जो नित प्रति निज के पास सही।
दुर्लभ निज को पाकर निज में, स्थिर हो पाऊँ सौख्य मही।।
दुर्लभ नरतनु असें तयाहुनि अति दुर्लभ जिनधर्म,
मिलता तुझसी का न च यतसी दहन कराया कर्म।।
यह मनुष्य की पर्याय दुर्लभ है और उससे भी दुर्लभ जैनधर्म है। इससे तुम्हें क्या नहीं मिलेगा, यह तो कर्मों को दहन करने वाला है।
भूजल तरुमोदलादेकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय पञ्चेन्द्रियवु।
निजकुल बलवा जातिय रूपवु शरीर बुद्धियु गुरुगुणवु।।
उत्तम सम्पद समाधि कोनेयलि दुर्लभवेंबुदु मरेयदिरु।
सत्तरु बदुकुव दारिय तोरुव श्री जिनचरणव तोरेयदिरु।।
इस जगत में पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि स्थावर एकेन्द्रिय से त्रस पर्याय में दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चार इन्द्रिय होना दुर्लभ है, पुन: पंचेन्द्रिय होना दुर्लभ है। इसको पाकर उत्तम कुल, बल, जाति, रूप, शरीर, स्वस्थता, बुद्धि और श्रेष्ठ गुणों का पाना दुर्लभ है। इन सबको पाकर भी उत्तम संयम पाना पुन: अंत में समाधिमरण प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ है। इन सबको पाकर हे भव्य! तुम जिनराज के चरणों का आश्रय लेवो कि जिससे जन्म-मरण की परम्परा समाप्त हो जावे।
क्षान्त्यादिलक्षणो धर्म:, स्वाख्यातो जिनपुंगवै:।
अयमालम्बनस्तम्भो, भवाम्भोधौ निमज्जताम्।।
क्षमा, मार्दव आदि लक्षण वाला धर्म है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है। यह धर्म भवसमुद्र में डूबते हुए जीवों को आलंबन देने वाला स्तंभ है।
जो भवसमुद्र में पतित जनों को, निज सुखपद में धरता है।
है धर्म वही मंगलकारी, वह सकल अमंगल हर्ता है।।
वह लोक में है उत्तम सबमें, औ वही शरण है सब जन को।
निज धर्ममयी नौका चढ़कर, मैं शीघ्र तिरूँ भवसिंधू को।।
सुरतरु सम जो पुरवि मनोरथ तारक या संसारी।
रत हो संतत त्या जिनधर्मी मिड़ेल मग शिवनारी।।
कल्पवृक्ष के समान जो मनोरथ को सफल करने वाला है और इस संसार से पार करने वाला है, उस जिनधर्म में तुम लोग रत होवो इससे तुम्हें मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
धर्मवे सिरियदु धर्मवे गुरियदु निजजीवनदा कृतियेल्ला।
मर्मवनरियलु सुरतरु चिन्तामणियिदकावुदु समनिल्ला।।
अडिगडियात्मगे सारुतलिरुवरु गुरुगळु संतत शान्तियलि।
कुडि कुडि धर्मामृतवनु मरेयदे केडदिरु तिरुगुत भ्रांतियलि।।
ई परि द्वादश भावनेयिर्पुदु तीर्थंकररिद भाविपरु।
भेदाभेददि तप्वदि आत्मन मुक्तिगे सागिसे श्रमिसुवरु।।
भवतनु भोगद वैराग्यव नी पोंदुत मोहव मेरेयण्णा।
भाविसु ई परि ज्ञानमतियु नी मोक्षदि चिरदिन मेरेयण्णा।।
इस जीवन में धर्म ही श्री है और धर्म ही श्रेष्ठ है, यह धर्म ही कल्पवृक्ष है, चिंतामणि है, इसके समान और कुछ भी नहीं है। हे आत्मन्! तुम यदि सतत शांति चाहते हो तो सर्व भ्रांति को छोड़कर इस धर्मरूपी अमृत का पान करो, पान करो, यही अजर अमर पद को देने वाला है।
यह धर्म संसार में सर्व मनोरथ को पूर्ण कर अनेक अभ्युदयों को प्रदान करता है पुन: सर्व कर्मों का नाश कर मोक्षसुख देने वाला है। धर्म के बिना इस जगत में कुछ भी सार नहीं है, ऐसी भावना बार-बार भाते रहने से यह धर्म आत्मा को परमात्मा बना देता है।
इन द्वादश भावनाओं को तीर्थंकरों ने भी भाया है, पुन: भेद और अभेद रत्नत्रय को प्राप्त कर आत्म- तत्त्व का चिंतवन करते हुए मोक्ष को प्राप्त कर लिया है इसलिए आप भी संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य प्राप्त कर हे ज्ञानमति! अथवा ज्ञान में ही बुद्धि जिनकी ऐसे हे भव्य! तुम मोह को छोड़ो और पुन:-पुन: इन बारह भावनाओं को भाते रहो कि जिससे मोक्ष को जल्दी ही प्राप्त कर लेवो।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने ‘बारह अणुपेक्खा’ ग्रंथ में जिस क्रम से इन बारह भावनाओं को रक्खा है उसी क्रम से मूलाचार में भी रक्खा है। अनंतर उमास्वामी आदि आचार्यों द्वारा रचित इन अनुप्रेक्षाओं में अन्तर भी है किन्तु आजकल प्रसिद्धि में परवर्ती आचार्यों का क्रम देखा जाता है।
श्री कुन्दकुन्दकृत बारह भावनाओं का क्रम–१. अध्रुव, २. अशरण, ३. एकत्व, ४. अन्यत्व, ५. संसार, ६. लोक, ७. अशुचित्व, ८. आस्रव, ९. संवर, १०. निर्जरा, ११. धर्म, १२. बोधिदुर्लभ।
तत्त्वार्थसूत्र का क्रम-१. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि,७. आस्रव, ८. संवर, ९. निर्जरा, १०. लोक, ११. बोधिदुर्लभ, १२. धर्म।