विक्रम सं० ८४० में लिखा गया हरिवंशपुराण एक आकर ग्रंथ है, इसमें अन्य तत्त्वों के साथ राजनीति का भी पर्याप्त निर्देश मिलता है, जो इस प्रकार है—
हरिवंशपुराण के अनुसार देश के जो लक्षण प्राप्त होते हैं उनमें उर्वरा और शालि-ब्रीहि सब प्रकार के धान्यों के समूह से सफलता को धारण करने वाली भूमि, सफल वाणिज्य, व्यापारियों के क्रय-विक्रय की बहुलता तथा उत्तम गायें तथा भैंसों का होना प्रमुख है। वही देश उत्तम माना जा सकता है जो सब प्रकार के उपसर्ग (विघ्न बाधाओं) से रहित हो तथा जहां प्रजा सुखपूर्वक निवास करे। देश की सीमा के अन्दर खेट, कर्वट, मटम्ब, पुटभेदन, द्रोणमुख, खानें, खेत, ग्राम, घोष,पुर (नगर), पर्वत, नदी, वन, जिनमन्दिर (जिनगृह), व्रज तथा सरोवर सभी आते थे।
जिस प्रकार समुद्र हजारों नदियों और उत्तम रत्नों की खान है उसी प्रकार राजा भी इस लोक में अनर्घ्य वस्तुओं की खान है। वह प्रभु है और पृथ्वी को वश में करने वाला है। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मात्सर्य इन छह अन्तरङ्ग शत्रुओं को जीतने वाला तथा धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग का प्रवर्त्तक है। धर्म, अर्थ और कामविषयक कोई भी वस्तु उसे दुर्लभ नहीं है। मनुष्यों की रक्षा करने के कारण नृप, पृथ्वी की रक्षा करने के कारण भूप और प्रजा को अनुरञ्जित करने के कारण राजा कहते हैं।
उत्तम राजा के राज्य में प्रजा का सब समय आनन्द से बीतता है। घर के उपयोग के लिये साधारण रीति से तैयार किया हुआ थोड़ा सा अन्न भी दान के समय धर्मात्माओं के भोजन में आने से सायंकाल तक भी समाप्त नहीं होता है। जिस प्रकार सूर्य प्रकृष्ट सन्ताप का कारण होता है उसी प्रकार राजा भी उत्कृष्ट प्रभाव का कारण (प्रताप प्रभव:) होता है। जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से दिक्चक्र को व्याप्त कर लेता है (कराक्रांतदिक्चक्र:) उसी प्रकार राजा भी अपने कर (टैक्स) से दिक्चक्र को व्याप्त करता है। जिस प्रकार सूर्य उत्तम आकाश सहित होता है उसी प्रकार राजा भी उत्तम सुख से सहित (सुखी) होता है। राजा को धर्मशास्त्र का अर्थ करने में कुशल, कला और गुण से विशिष्ट, दुष्टों का निग्रह और सज्जनों का अनुग्रह करने में समर्थ और प्रजा का अनुपालक होना चाहिये। उत्तम राजा के विद्यमान होने पर प्रजा शत्रुओं का भय छोड़ देती है। नीतिवेत्ता राजा पृथ्वी को स्त्री के समान वश में कर लेता है। न्यायमार्ग का वेत्ता होने के कारण किसी विषय में विसंवाद होने पर लोग उसके पास न्याय के लिये आते हैं। राजा की अध्यक्षता में विद्वानों के सामने लोग जय अथवा पराजय को प्राप्त करते हैं। न्याय द्वारा वाद के समाप्त होने पर वेदानुसारी लोगों की प्रवृत्ति सन्देहरहित एवं सब लोगों का उपकार करने वाली हो जाती है। राजा धर्म, अर्थ और काम में परस्पर बाधा नहीं पहुंचाता है।
‘हरिवंश पुराण’ में राजाओं के कुलकर, चक्रवर्ती, विद्याधर, भूचर (भूमिगोचरी) तथा अर्द्धचक्री भेद प्राप्त होते हैं।
गुप्तचर रूपी नेत्रों से युक्त राजा के मन्त्री ही निर्मल चक्षु हैं अत: मन्त्रियोें का अत्यधिक महत्व है। मन्त्री अत्यन्त निकटवर्ती आपत्तियों को दूर करते हैं। मन्त्रियों को मन्त्र की यत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए; क्योंकि छह कानों में पहुंचा हुआ मन्त्र फूट जाता है। मन्त्रियों के विशेषणों में एक विशेषण मंत्रमार्गविद् आता है अर्थात् मंत्री को मंत्रमार्ग का ज्ञाता होना चाहिए। भरत और बाहुबली दोनों समान बलशाली थे। उनका यदि युद्ध होता तो जनपद का क्षय होता अत: ‘हरिवंशपुराण’ के ११ वें सर्ग में कहा गया है कि दोनों ओर के मन्त्रियों ने परस्पर सलाह कर कहा कि देशवासियों का क्षय न हो इसलिये दोनों में धर्मयुद्ध होना चाहिये। भरत और बाहुबली दोनों ने मन्त्रियों की बात मान ली। मन्त्री के लिए सचिव शब्द का भी प्रयोग हुआ है। अश्वग्रीव राजा के हरिश्मश्रु नाम का एक सचिव था। उसने तर्कशास्त्र रूपी महासागर को पार कर लिया था। मन्त्रियों की संख्या कितनी होना चाहिये, इसका यहां कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता। राजा श्रीधर्मा के वृहस्पति, बलि, नमुचि और प्रहलाद ये चार मन्त्री थे। इससे यह अनुमान होता है कि सामान्यत: राजा के चार ही मन्त्री हुआ करते थे।
मन्त्रियों के अतिरिक्त अन्य अधिकारियों में पुरोहित, सामन्त, महासमान्त, प्रतिहारी, द्वारपाल, युवराज तथा महामंत्री के नाम ‘हरिवंशपुराण’ में आए हैं। पुरोहित राजा को सलाह देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता था। जब सुदर्शनचक्र ने अयोध्या में प्रवेश नहीं किया तब भरत ने संदेहयुक्त हो बुद्धिसागर पुरोहित से पूछा कि समस्त भरतक्षेत्र को वश में कर लेने पर भी यह दिव्य चक्ररत्न अयोध्या में क्यों नहीं प्रवेश कर रहा है ? अब तो हमारे युद्ध के योग्य कोई नहीं है इस पर पुरोहित ने कहा—आपके जो महाबलवान् भाई हैं वे आपकी आज्ञा नहीं सुनते हैं। सामन्त और महासामन्तों का राज्य में महत्त्वपूर्ण स्थान होता था। अपने पति दक्ष प्रजापति से रुष्ट होकर इलादेवी महासामन्तों से घिरी होकर अपने ऐलेय पुत्र को ले दुर्गम स्थान में चली गईं और उसने वहां निवास का निश्चय किया। राजा अपने राज्यकाल में ही अपने किसी पुत्र को युवराज बनाकर उसका पट्टबन्ध करता था अथवा राज्यकार्य से विरत होने पर एक पुत्र को राजा और दूसरे को युवराज बनाता था।
समस्त लोग प्राणतुल्य सखा या मित्र के लिए मन का दु:ख बाँटकर सुखी हो जाते हैं, यह जगत की रीति है। मित्र पर आपत्ति आने के समय मित्र दु:खी हो जाता है। मित्रमण्डल के प्रतापरहित हो अस्त हो जाने पर, उद्यमी मनुष्य भी उद्यमरहित हो जाते हैं। मित्रता दुष्ट मनुष्यों से नहीं करना चाहिये; क्योंकि दुष्ट मनुष्य से की गई मित्रता रागरहित होती है। सज्जनों से मैत्री करना चाहिये; क्योंकि सज्जन से की गई मैत्री उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है।
‘हरिवंशपुराण’ में नगर रचना का जो रूप प्राप्त होता है उसमें प्राकार (कोट) परिखा (खाई), बहुभूमिक प्रासाद (अनेक खण्डों के भवन), बावड़ी (वापी), पुष्करिणी, दीर्घदीर्घिका (बड़ी-बड़ी बावड़ियां), सरोवर, ह्रद, विचित्र मणिकुट्टिम (रंग-बिरंगे फर्श), प्याऊ, सदावर्तरथ्यायें (सड़कें) प्राकार और तोरणों से युक्त बाग-बगीचे उत्तुंग जिनमंदिर, बड़े-बड़े धूलिकुट्टिम (महावप्र) तथा वनों के सद्भाव की विशेषतायें प्रमुख हैं। जो नगरी राजधानी होती थी उसमें सभी दिशा में राजा के परिवार के व्यक्तियों के महल होते थे। बीच में राजा का भवन बनाया जाता था। अन्त:पुर तथा पुत्र आदि के योग्य महलों की पंक्तियाँ राजा के भवन का आश्रय कर चारों ओर होती थीं।
नगर के अतिरिक्त किन्हीं विशेष अवसरों पर राजा लोग पहाड़ी दुर्गों (गिरिदुर्ग) का आश्रय कर शक्तिशाली शत्रु के विरुद्ध उठ खड़े होते थे। ऐसी दशा में शत्रु को पकड़ना या वश में करना बहुत बड़ी सफलता मानी जाती थी क्योेंकि यह कठिन कार्य था। कभी-कभी कोई भूला-भटका राजा या राजकुमार गोष्ठों (ग्वालों की बस्तियों) की शरण लेता था। ग्वाल वधुयें उनकी भूख-प्यास तथा परिश्रम को दूर करने में सहायक होती थीं।
‘हरिवंशपुराण’ में हाथी , घोड़ा, रथ, पैदल, सैनिक, बैल, गंधर्व और नर्तकी इन सात प्रकार की सेनाओं का उल्लेख मिलता है। इसके ३८ वें सर्ग में भगवान् नेमिनाथ के जन्मोत्सव के समय देव, अश्व, वृषभ, रथ, हाथी, गंधर्व और नर्तकी इस तरह सात प्रकार की सेना के आने का वर्णन प्राप्त होता है। सबसे पहले देवों की सेना थी, इसने सात कक्षाओं का विभाग किया था और गोल आकार बनाया था। यह स्वाभाविक पुरुषार्थ से युक्त थी और शस्त्र धारण किए हुए थी। इसके पश्चात् वेग में वायु को जीतने वाली घोड़ों की सेना थी। तदनन्तर बैलों की वह सेना चारों ओर खड़ी थी जो सुन्दर मुख, सुन्दर अण्डकोष, नयनकमल, मनोहर कन्दोल, पूँछ, शब्द, सुन्दर शरीर, सास्ना, स्वर्णमय खुर और सींगों से युक्त थी तथा चन्द्रमा के समान उसकी उज्जवल कान्ति थी। वृषभ सेना के बाद वलयाकार रथसेना सुशोभित थी। इसके पश्चात् विशालकाय हाथियों की सेना थी। हाथियों की सेना के बाद गन्धर्वों की सेना सुशोभित थी। इसने मधुर मूर्च्छना से कोमल वीणा, उत्कृष्ट बाँसुरी और ताल के शब्द से सातों प्रकार के स्वरों से संसार के मध्य भाग को पूर्ण कर दिया था। यह सेना देव, देवाङ्गनाओं से सुशोभित और सबको आनन्दित करने वाली थी। गन्धर्वोंे की सेना के बाद उत्कृष्ट नृत्य करने वाली नर्तकियों की सेना थी। प्रत्येक सेना में सात-सात कक्षायें थीं। प्रथम कक्षा में चौरासी हजार घोड़े, बैल आदि थे। दूसरी, तीसरी आदि कक्षाओं में ये क्रमश: दूने-दूने थे। जिनमें नौ हजार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ करोड़ पैदल सैनिक हों, उसे एक अक्षौहिणी सेना कहते हैं। जरासन्ध के पास इस प्रकार की अनेक अक्षौहिणी सेना थी।
यह युद्ध उसी स्थिति में होता था जब दो समान बल वाले राजाओं का विरोध हो। धर्मयुद्ध से तात्पर्य ऐसे युद्ध से है जिनमें दो राजा आपस में युद्ध करें किन्तु जिसमें सेना आदि की सहायता न ली जाय। इस प्रकार के युद्ध के तीन रूप प्राप्त होते हैं—(१) दृष्टियुद्ध (२) जलयुद्ध तथा (३) मल्लयुद्ध। भरत और बाहुबली में आरम्भ में यही तीन युद्ध हुए, जिनमें बाहुबली की विजय हुई। सेना का एक सेनापति होता था; जिसके लिए सेनानी और चमूनाथ शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। सेनापति का विधिपूर्वक अभिषेक होता था। युद्ध का कारण प्राय: कन्याप्राप्ति और दूसरे पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना था। एक का अनेक के साथ युद्ध होना अन्यायपूर्ण माना जाता था अत: एक का एक के साथ युद्ध होने का प्रयास किया जाता था।
युद्ध के समय सेना की अनेक प्रकार से व्यूहरचना की जाती थी। इनमें से कतिपय व्यूहों का विवरण ‘हरिवंश पुराण’ में प्राप्त होता है।
इसमें चक्राकार रचना की जाती थी। चक्र के एक हजार आरे होते थे। एक-एक आरे में एक-एक राजा स्थित था, एक एक राजा के सौ-सौ हाथी, दो-दो हजार रथ, पाँच-पाँच हजार घोड़े और सोलह-सोलह हजार पैदल सैनिक होते थे। चक्र की धारा के पास छह हजार राजा स्थित होते थे और उन राजाओं के हाथी, घोड़ा आदि का परिमाण पूर्वोक्त परिमाण से चौथाई भाग प्रमाण था। पाँच हजार राजाओं के साथ में प्रधान राजा उसके मध्य में स्थित होता था। कुल के मान को धारण करने वाले धीर वीर, पराक्रमी पचास-पचास राजा अपनी-अपनी सेना के साथ चक्रधारा की सन्धियों पर अवस्थित होते थे। आरों के बीच-बीच के स्थान अपनी-अपनी विशिष्ट सेनाओं से युक्त राजाओं सहित होते थे। इसके अतिरिक्त व्यूह के बाहर भी अनेक राजा नाना प्रकार के व्यूह बनाकर स्थित होते थे।
चक्रव्यूह को भेदने के लिए गरूड़ व्यूह की रचना की जाती थी। उदात्त, रण में शूरवीर तथा नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को धारण करने वाले पचास लाख योद्धा उस गरुड़ के मुख पर खड़े किए जाते थे। प्रधान राजा उसके मस्तक पर स्थित होते थे। मुख्य राजा के रथ की रक्षा करने के लिए अनेक राजा उनके पृष्ठरक्षक बनाए जाते थे। एक करोड़ रथों सहित एक राजा गरुड़ के पृष्ठ भाग पर स्थित होता था। उस राजा की पृष्ठरक्षा के लिए अनेक रणवीर राजा उपस्थित होते थे। बहुत बड़ी सेना के साथ एक राजा उस गरुड़ के दायें पंख पर स्थित होता था और उनकी अगल-बगल रक्षा के लिए चतुर शत्रुओं को मारने वाले सैकड़ों प्रसिद्ध राजा पच्चीस लाख रथों के साथ स्थित होते थे। गरुड़ के बायें पक्ष का आश्रय ले महाबली बहुत से योद्धा अथवा राजागण युद्ध के लिए खड़े होते थे। इन्हीं के समीप अनेक लाख रथों से युक्त शस्त्र और अस्त्रों में परिश्रम करने वाले राजा स्थित होते थे। इनके पीछे अनेक देशों के राजा साठ-साठ हजार रथ लेकर स्थित होते थे। इस प्रकार ये बलशाली राजा गरुड़ की रक्षा करते थे। इनके अतिरिक्त और भी अनेक राजा अपनी अपनी सेनाओं के साथ मुख्य राजा के कुल की रक्षा करते थे।
रथ, घोड़े, हाथी और पैदल सेना को मिलाकर चतुरङ्ग सेना कहते थे। राजा रुधिर की चतुरङ्ग सेना में दो हजार रथ, छह हजार मदोन्मत्त हाथी, चौदह हजार घोड़े और एक लाख पैदल सैनिक थे। प्रत्येक राजा के रथ पर उसकी विशिष्ट ध्वजा होती थी; जिससे वह पहचाना जाता था। ‘हरिवंशपुराण’ में गरुड़ ध्वजा, वृषकेतु, ताल की ध्वजा, वानर की ध्वजा, हाथी की ध्वजा, स्ािंहों की ध्वजा, कदली की ध्वजा, हरिण की ध्वजा, शुशुमाराकृति ध्वजा, पुष्कर ध्वज, कलशध्वज इस प्रकार अनेक ध्वजाओं को उल्लेख मिलता है। रथ पर कुशल सारथी रहने पर शत्रुओं को भली-भाँति नष्ट किया जा सकता था।
दूत—एक राजा दूसरे राजा के पास सन्देश भेजने के लिए साम, दाम आदि नीति के साथ दूत भेजता था। प्रत्युत्तर स्वरूप भी राजा दूसरे राजा के पास दूत भेजा करते थे। जैसे—भरत के प्रति अपनी प्रतिकूलता प्रकट करने के लिए बाहुबली ने—‘मैं आपके आधीन नहीं हूँ’, यह कहकर दूत भेज दिए थे। दूत के लिए वचोहर अथवा वचनहर शब्द का प्रयोग होता था। कन्या के पिता अपनी कन्या के विवाह सम्बन्ध के लिए भी दूसरे राजा के पास दूत भेजते थे। दूत सावधानी से परिषद् अथवा राजसभा में प्रविष्ट हो नमस्कार कर बैठता था, अनन्तर अवसर जानकर अपनी बात राजा के समक्ष रखता था।
गुप्तचर—गुप्तचर राजाओं के नेत्र होते थे। उनके द्वारा वे गूढ़ से गूढ़ बातों का पता लगा लेते थे।
तीन शक्तियाँ—दूसरोें पर विजय प्राप्त करने में तीन शक्तियाँ प्रमुख रूप से सहायक होती हैं—(१) प्रभु शक्ति (२) मन्त्र शक्ति (३) प्रोत्साह शक्ति।
‘हरिवंशपुराण’ में साम, दाम आदि नीतियों का निर्देश किया गया है। जिसमें अपना और दूसरे का समय सुख से व्यतीत हो वही अवस्था प्रशंसनीय मानी जाती है। जो दैव और काल के बल से युक्त हो, देव जिसकी रक्षा कर उसे सोते हुये सिंह के समान बतलाया है। ऐसे व्यक्ति से युद्ध करना खतरे से खाली नहीं है। साम स्वपक्ष और परपक्ष के लोगों के लिए शान्ति का कारण होता है अत: साम का ही प्रयोग करना चाहिए। जिस प्रकार अपनी सेना में कुशल योद्धा हों उसी प्रकार प्रतिपक्षी की सेना में भी कुशल योद्धा हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त युद्ध में यदि एक भी स्वजन की मृत्यु होती है तो जैसे वह शत्रु के लिए दु:खदाई होगी उसी प्रकार अपने लिये भी दु:खदाई हो सकती है अत: सबकी भलाई के लिये साम ही प्रशंसनीय उपाय है इसलिए अहज्रर छोड़कर साम के लिये दूत भेजना चाहिये। साम के द्वारा भी यदि शत्रु शांत नहीं होता है तो फिर उसके अनुरूप कार्य कर सकते हैं।
जहां तक दण्डनीति का सम्बन्ध है, सबसे पहले कुलकरों द्वारा स्थापित हाकार, माकार और धिक्कार नीति के दर्शन होते हैं। यदि कोई स्वजन या परजन कालदोष से मर्यादा का लङ्घन करने की इच्छा करता था तो उसके साथ दोषों के अनुरूप उक्त तीन नीतियों का प्रयोग किया जाता था। तीन नीतियों से नियन्त्रण को प्राप्त समस्त मनुष्य इस भय से तृप्त रहते थे कि हमारा कोई दोष दृष्टि में न आ जाये और इसी भय से वे दोषों से दूर रहते थे। इस प्रकार की नीति को अपनाने के कारण ये राजा प्रजा के पितातुल्य माने जाते थे। बाद में प्रजा की मनोवृत्ति बदलने के कारण अपराधों में बढ़ोत्तरी होती गई, फलत: दण्डविधान भी कठोर बना। दूसरे के धन अपहरण करने की तीन सजायें थीं—
(१) सब धन छीन लेना।
(२) गोबर खिलाना।
(३) मल्लों के मुक्कों से पिटवाना।
एक राजा दूसरे राजा को दण्डस्वरूप बन्धनागार (कारागृह) में बन्दी रखता था, जिससे छुटकारे का उसके स्वजन प्रयत्न करते थे। यदि कोई व्यक्ति किसी पशु के अङ्ग का छेदन करता था तो राजा उस व्यक्ति को मारने की आज्ञा देने में संकोच नहीं करता था। परस्त्री का अपहरण करने वाले की सजा हाथ-पाँव काटकर भयज्र्र शारीरिक दण्ड देने की थी।