आत्मा पर सुसंस्कार के लिये, उसे पूज्य व मूल्यवान बनाने के लिये ही मन्दिर आदि बने हैं। वहाँ वीतराग को इसी भावना से नमस्कार करते हैं कि उनके जैसे गुण हमारी आत्मा में भी प्रकट हों। आत्मा के संस्कार ही मानव के लिये उपादेय हैं। सुख चाहते हो तो धन सम्पत्ति से पूर्व अपनी आत्मा की रक्षा करो।
मन्दिर निर्माण कराया जाता है धर्मध्यान के लिये। वहाँ सादगी न होकर यदि आडम्बर और वैभव है, तो उसके कारण वह आर्तरौद्र का कारण बन जाता है। मन्दिर, शास्त्र ये सब साधन हैं। पर आत्मा की ओर ध्यान न देकर प्रदक्षिणा में ही समय लगा दें, तो जहाँ हैं वहीं रह जायेंगे। मन्दिर जाने का अर्थ है—कुसंस्कारों को छोड़ना। वैभाविक संस्कार स्थायी नहीं होते।
संस्कारित वस्तु ही मूल्यवान होती है। सोने के एक टुकड़े पर जब सुनार संस्कार करता है, तो उसकी कीमत उस सोने के टुकड़े से बढ़ जाती है। मानव जीवन में बचपन से ही सुसंस्कार डालने चाहिये। पशु—पक्षियों में भी जब संस्कार डालते हैं तो वे सरकस में अनेक करतब दिखाते हैं, आज्ञा प्राप्त होते ही तुरन्त उसका पालन करते हैं। बालक को जैसे—जैसे सुसंस्कार व शिक्षा दी जाती है वह गहरा गम्भीर होता जाता है।
एक राजा था। उसके राज्य में एक शिकारी को जंगल में अत्यन्त सुन्दर समान—वय के तोते के दो बच्चे मिले। शिकारी ने उन्हें बेचना चाहा। वह राजमहल में आया। तोते बहुत सुन्दर थे, राजा ने उन्हें खरीद लिया। दोनों के लिये दो सोने के िंपजरे बनवाये गये। एक िंपजरे को अपने अन्त:पुर में टाँग दिया और एक िंपजरे को अपने अस्तबल में। अस्तबल में घोड़े की मालिश करने वाला घोड़े को गालियां देता था। तू गधा है, चल पीछे हट, इत्यादि। अन्त:पुर में सब बहुत आदर सत्कार व तमीज के साथ बातें करते थे, आने वाले का स्वागत करते थे—आइए, पधारिये, आपका स्वागत है, आदि। दोनों तोते जैसी बातें सुनते थे, वैसी ही सीख गए। एक दिन राजा उन तोतों का निरीक्षण करने गये। अस्तबल के तोते ने राजा के आते ही कहा—तू गधा है, चल पीछे हट ! राजा को बुरा लगा। इतनी सुविधायें उत्तम खान—पान उपलब्ध कराने पर भी यह मुझे गधा कहता है। फिर वह अन्त:पुर वाले तोते के पास गए। उसने राजा को देखते ही कहा—आइये ! पधारिये। आपका स्वागत है। राजा खुश हो गया। वह समझ गया कि यह संगति व संस्कार का अन्तर है। तभी तो एक कवि ने कहा है—
एक ही माता, एक ही पिता, एक ही तरुवर बसे।
अरे अरे राजा, संगत इसकी डसे।।
एक ही पेड़ पर, एक ही माँ से उत्पन्न होने के बाद अलग—अलग संस्कार डाले गए, इसी के परिणाम स्वरूप एक पर सुसंस्कार हो गये और दूसरे पर कुसंस्कार।
लोहे पर संस्कार करते हैं उसका ताला—चाबी बनाते हैं, तो उसकी कीमत बढ़ जाती है। इससे भी अच्छी वस्तुयें बनाते हैं तो कीमत और भी बढ़ जाती है। जैसे—जैसे अच्छे संस्कार करते जाते हैं, वस्तु की कीमत बढ़ती जाती है, वह मूल्यवान हो जाती है, पूज्य हो जाती है। आत्मा पर सुसंस्कार करने के लिये ही मन्दिर आदि बने हैं। घर में बैठकर इतने अच्छे परिणाम व संस्कार नहीं हो सकते। घर में बैठकर तो घर—गृहस्थी की बातें ही ध्यान में आती रहेंगी, बच्चा रोयेगा तो ध्यान विचलित हो जाएगा। वहां ‘आत्मलीन’ नहीं हो सकते। मन्दिर में वीतराग भगवान के सामने भगवान के गुण, उनकी महिमा आदि अच्छी बातें स्वयमेव हमारी आँखों के सामने, मस्तिष्क में घूमने लगती हैं। मन्दिर एक पवित्र स्थान है। वहां नित्य दस पाँच मिनट बैठकर भगवान का ध्यान करते हैं, मन को स्वच्छ व निर्मल बनाते हैं, उनके गुणों को अपनी आत्मा के साथ जोड़ते हैं, तो मन में पवित्रता आने लगती है। ‘वन्दे तद्गुण लब्धये’—हम उन्हें नमस्कार भी इसी भावना से करते हैं कि उनके जैसे गुण हमारी आत्मा में भी प्रकट हों।
लौकिक जगत में कौन पिता ऐसा है जो अपने बालक को शूरवीर न देखना चाहता हो। कौन माँ होगी जो बालक को सुसंस्कारित नहीं देखना चाहेगी ? प्रत्येक माता अपने बच्चों को ‘आदर्श’ देखना चाहती है पर बच्चों को सुसंस्कारित करने के लिए उसके पास समय नहीं होता। प्रत्येक महापुरुष पर माता—पिता के द्वारा डाले गये संस्कार ही प्रतिफलित हुए हैं। महात्मा गाँधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर पर माता—पिता के सुसंस्कार ही तो थे, वे कोई मोंटेसरी स्कूलों में नहीं गए थे। आजकल मांटेसरी स्कूलों में, छोटे—छोटे बच्चों को, मातायें अपने कर्त्तव्यों व झंझटों से बचने के लिए भेज देती हैं। वहाँ उन पर इतना ध्यान नहीं दिया जा सकता जितना माँ दे सकती है। जो संस्कार मां डाल सकती है, वे कोई दूसरा नहीं डाल सकता। यदि माँ स्वयं सुशिक्षित होगी, सुसंस्कृत होगी व पवित्र आचार—विचार वाली होगी तो वह बच्चों में शाश्वत संस्कार डालेगी। कच्चे घड़े को कुम्हार जैसा आकार बनाना चाहता है, दे सकता है, पर जब घड़े का अग्नि के साथ संयोग हो जाता है, उसके बाद उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, फिर वह टूट सकता है पर परिवर्तन नहीं हो सकता; क्योंकि वह कठोर हो जाता है। बच्चा भी कच्चे घड़े के समान कोमल होता है उसमें संस्कार डालना माता का कार्य है।
मनुष्य धन—सम्पत्ति को कोई संकट या आपत्ति आने पर ही छोड़ता है, अन्यथा नहीं। धन—सम्पत्ति के पीछे मानव्ा धर्म को भूल जाता है। महावीर ने अपरिग्रहवाद को इसलिये महत्त्व दिया था कि परिग्रह से मानव धर्म को भूल जाता है। मनु ने मनुस्मृति में कहा है कि यदि सुख चाहते हो तो धन—सम्पत्ति से पूर्व अपनी आत्मा की रक्षा करो। यही तो महावीर ने कहा था। उनके सिद्धान्तों की आधारशिला है—‘आत्मरक्षा की भावना’। आत्मा की रक्षा नहीं करोगे तो किसकी करोगे? कौन सी चीज शाश्वत है, जिसकी रक्षा की जा सकती है ? शरीर अशाश्वत है, इसकी रक्षा करने पर भी यह छूट जायेगा। इससे काम करते हैं इसलिये इसके लिये भोजनादि जुटाना है पर इसी में रमकर क्या आत्मा को भूल जायें ? जो अशाश्वत है उसके पीछे रात दिन लगे हैं, जिससे मृत्यु के बाद सम्बन्ध छूट जायेगा, जो केवल संयोग है उनके पीछे लग रहे हैं, अध्रुव के पीछे लग रहे हैं और ध्रुव को छोड़ रखा है, शाश्वत को भूल रहे हैं।
इसलिये बच्चों में प्रारम्भ से ही सुसंस्कार डालना चाहिए, उन्हें प्रात:काल अपने साथ मन्दिर लेकर जाइये, उन्हें णमोकार मंत्र सिखाइये, महावीर का जीवन चरित्र बताइये, उनके प्रमुख व प्रेरणादायक जीवन—प्रसंग समझाइये। बच्चे के जन्मते ही कीमती कपड़े पहनाते हैं, उसका शृंंगार करते हैं, पैन्ट पहनाते हैं, वह नहीं चाहता तो भी जबर्दस्ती पहनाते हैं, पर आत्मा परमात्मा की बात करने में थोड़ी सी भी जबर्दस्ती नहीं करते। शृंगार सिखाने के लिये तो माताओं के पास समय रहता है, पर सुसंस्कार डालने के लिये उनके पास समय नहीं होता। वास्तव में हम चमड़े का शृंगार करते रहने से चमार हो गये हैं। जैन नहीं रहे। जैन तो तब होंगे, जब बच्चे—बच्चे में आत्मा के प्रति रुचि, धर्म के प्रति रुचि उत्पन्न करेंगे, उनमें सुसंस्कार डालेंगे। आचार्य कुन्दकुन्द की माता पालने से ही उनमें सुसंस्कार भरती रही।
जब हम णमोकार मंत्र बोलते हैं तो टेपरिकार्डर उसे पकड़ लेता है और बार—बार उसे सुनाता है। यदि बच्चे को भी णमोकार मंत्र सिखाया जाये तो वह भी तुरन्त उसे पकड़ लेगा, सीख लेगा, क्योंकि उस समय उसकी ग्राह्य शक्ति व स्मरण शक्ति बहुत अच्छी होती है वह बार—बार आपको णमोकार मंत्र सुनायेगा, हजारों लोगों को सुनायेगा। यदि शृंगारिक बातें उसे सिखाते हैं तो वह वैसी ही बातें सुनायेगा। अचेतन टेपरिकार्डर भी णमोकार मंत्र पकड़ लेता है तो बालक तो चेतन है, उसे णमोकार मंत्र सुनाये तो वह क्यों नहीं याद कर सकता ? उस पर क्यों नहीं अच्छे संस्कार पड़ सकते ?
ब्रिटेन में दो—तीन साल से यह चर्चा व प्रयोग चल रहे हैं कि कुएँ के पानी को मंत्रोच्चार कर उसे रोगी को पिला देने से उसका रोग दूर हो सकता है। अर्थात् जल मंत्रों को पकड़ लेता है। हम जब अभिषेक करते हैं तब णमोकारादि मंत्रोच्चारित करते हैं, उसके गंधोदक को सिर पर लगाते हैं, वह इसलिये कि जल ने उन मन्त्रों को पकड़ लिया, इससे वह अत्यन्त पवित्र हो गया है, आधुनिक मानव मनोवैज्ञानिक तरीकों से प्रभावित होता है और तब उसके भाव बदलते हैं। सिद्धचक्र का पाठ पढ़ते हैं। उसमें पढ़ते हैं कि मैनासुन्दरी ने गंधोदक के प्रभाव से अपने पति व उनके साथियों को कुष्ठ रोग से मुक्त कराया, इनसे भी विश्वास जमता है।
रत्नाकर कवि की एक कविता का भावार्थ है कि इस शरीर के लिये जीवनभर, जितना भी किया वह सब हेय है, ये सब तो पशु—पक्षी भी करते हैं। बिना किसी स्कूली शिक्षा के वे खाना—पीना करते रहते हैं। मानव बुद्धिमान है, उसे अपने लिये हेय—उपादेय को जानना चाहिये। आत्मा के संस्कार ही मानव के लिये उपादेय हैं।
सम्यग्दर्शन ज्ञान—चारित्र, ये त्रिरत्न आत्मा में मौजूद हैं, ये बाहर से नहीं लाने पड़ते। परन्तु धार्मिक संस्कारों के द्वारा, तत्त्व—ज्ञान को समझने पर जब अपनी आत्मा पर परिपूर्ण विश्वास करें, स्वयं का स्वयं में ही विश्वास प्राप्त करें, तभी सम्यग्दर्शन प्रकट होगा। मन्दिर शास्त्र ये सब साधन हैं। मील का पत्थर दूरी ज्ञात करने का साधन है, यदि हम दो घण्टे तक उस पत्थर के चक्कर लगाते रहेंगे तो जहाँ थे वहीं रह जायेंगे, िंकचित मात्र भी दूरी तय नहीं कर सकेंगे, रास्ता पार नहीं कर सकेंगे। इसी प्रकार केवल मन्दिर की प्रदक्षिणा में ही समय लगा दें, आत्मा की ओर ध्यान न दें, तो जहाँ हैं वहीं रह जायेंगे,, कुछ भी कल्याण नहीं होगा। रास्ता तो तय करने से पूरा होगा, चलने से पूरा होगा।
हम अपने जीवन में बीस वर्ष से निरन्तर मन्दिर जा रहे हैं। तो परिणामों में कितनी निर्मलता आई, जीवन में कितनी सादगी आई। जब तक इसकी जांच—पड़ताल नहीं करेंगे तब तक सारा क्रियाकांड करने पर भी जहा थे वहीं रह जायेंगे। नित्य प्रति मन्दिर जाने पर जीवन में कुछ भी परिवर्तन नहीं आये, परिग्रह जरा सा भी कम न हो, कषाय नहीं छोड़ी, तो क्या लाभ हुआ ? मन्दिर जाने का मतलब है इन सब कुसंस्कारों को छोड़ा जाये। जब मन्दिर जाने वालों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता, तभी तो युवावर्ग को मन्दिर में विश्वास नहीं होता। यदि एक व्यक्ति में परिवर्तन आये तो उसका प्रभाव युवावर्ग पर पड़ेगा, ऐसे प्रभाव से वह भी उस मार्ग पर चलने लगेगा।
एक ठाकुर थे। उन्होंने किसी से कुछ रुपये उधार ले रखे थे। जब भी वह व्यक्ति अपने रुपये मांगने आता ठाकुर कोई बहाना बना लेते, दो—तीन दिन बाद देने का वायदा करने लगते। एक दिन वह व्यक्ति आने वाला था। ठाकुर ने अपने पाँच—छह वर्षीय बालक को दरवाजे पर बैठने को कहा और समझाया कि जब वह व्यक्ति मुझे पूछने आये तो तुम कह देना कि पिताजी घर में नहीं है। थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति आया, बालक ने कह दिया पिताजी घर में नहीं हैं। पर बच्चे पर इस प्रकार झूठ बोलने का बहुत गलत प्रभाव पड़ा। उसने एक दिन अपने पिताजी के कोट की जेब से चार रुपये निकाले और खर्च कर दिये। ठाकुर ने जब कोट की जेब से चार रुपये कम पाये तो घर में सबसे पूछताछ की, सबने इन्कार कर दिया। उस बालक ने भी इन्कार कर दिया। ठाकुर के बार—बार पूछने व सत्य बोलने पर पिटाई न करने के आश्वासन पर बालक ने कहा—हाँ, मैंने ही वे रुपये लिये थे। तब ठाकुर ने पूछा तुमने झूठ क्यों बोला ? बालक ने कहा—पिताजी, आपने भी तो उस दिन झूठ बोला था। तब उस ठाकुर को समझ आया कि वह बच्चा मेरे कारण झूठ बोलना सीख गया। हम बच्चे पर जैसे संस्कार डालेंगे वैसे ही तो वह पनपेंगे।
महात्मा गांधी ने कुछ ईसाई बच्चों की संगति से अपने बचपन में एक बार अभक्ष्य (बकरे के मांस का भक्षण) कर लिया। रात में सपने में उन्हें बार—बार उस बकरे की आवाज सुनाई दी, लगा कि वह पेट में से बोल रहा है। सोचा, अरे उच्च कुल में जन्म लेकर वैष्णव धर्मावलम्बी होकर यह क्या कर डाला मैंने ? प्रात: पिताजी के कमरे में जाकर उन्हें सब वृत्तान्त कहा। पिता सारी बात सुनकर रोने लगे, उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। गांधीजी ने कहा—आप दु:खी हो रहे हैं ? मैंने आपको कहकर क्या गलत किया है ? पिता ने कहा, नहीं बेटे ! यह आंसू तो खुशी के हैं कि तुमने सत्य बोला। तुम अवश्य महान् बनोगे। वास्तव में सत्य बहुत शक्तिशाली है। सत्य बोलने वाला ही महान् बन सकता है।
वैभाविक संस्कार, कुसंस्कार स्थायी नहीं होते, वे छूट सकते हैं, छूट जाते हैं, पर तभी जब अन्तरंग में उनका अहसास होता है, तब तक कभी कभी बहुत अनिष्ट हो चुकता है। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुये खनपान आदि का विवेक रखें। मन्दिरों के माध्यम से माता—पिता बच्चों में खानपान आदि का विवेक उत्पन्न करें। तभी आपका यह मन्दिर बनाना सार्थक है, चावल चढ़ाना सार्थक है, अन्यथा कोई भी क्रियाकांड करें, उससे कोई लाभ नहीं।
जैनधर्म के सिद्धान्त वैज्ञानिक आधार लिये हुये हैं। जैनधर्म में कहा—पानी छानकर पीओ। सब इस सिद्धान्त का मजाक बनाने लगे। पर दो वर्ष पूर्व संयुक्तराष्ट्र की रिपोर्ट में लिखा था कि अनछना पानी पीने से उत्पन्न रोगों के कारण सम्पूर्ण विश्व में प्रतिवर्ष पचास लाख मानव रोगी हो जाते हैं या मर जाते हैं।
भागवत में भी लिखा है कि पानी छानकर पीओ और देखकर चलो। देखकर चलने में स्वयं की सुरक्षा होगी, किसी गड्ढे आदि में नहीं गिर सकोगे और दूसरे छोटे—छोटे जीव जो जमीन पर चलते रहते हैं, उनकी भी सुरक्षा होगी। पानी स्वयं में पवित्र है, पर उसमें अन्य तत्त्व मिल गये, तो वह हमें रोगी बनाते हैं, उन्हें दूर करने के लिये पानी छानते हैं। हमें धर्म की दृष्टि से भी और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी खान—पान को शुद्ध बनाये रखना चाहिये।
महात्मा गाँधी ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि—‘‘जब से मैंने रात्रि भोजन त्याग दिया, मैं अनेक परेशानियों से बच गया हूँ। आखिर पेट को भी विश्रांति चाहिये। इन्जन गर्म हो जाता है तो उसे ठण्डा करने के लिए कुछ देर विश्राम दिया जाता है। बैल थक जाते हैं, उन्हें भी विश्राम दिया जाता है, तो पेट को भी कुछ देर आराम की जरूरत है, सुबह उठने के बाद रात्रि में सोने तक खाते ही रहोगे तो कैसे स्वस्थ रहोगे ? सत्य तो यह है कि हम खाना खाने की विधि भी नहीं जानते। दिन में दो या तीन बार भक्ष्या—भक्ष्य का विवेक रखते हुए जो कुछ भी खायें चबा—चबाकर खायें। अस्पताल में आज जो रोगियों की संख्या बढ़ रही है, उसका प्रमुख कारण असंयम है। जीवन में संयम बिल्कुल नहीं है। व्यर्थ में ही राष्ट्र की सम्पत्ति व शक्ति नष्ट हो रही है। आज जरा से रोग हो जाने पर इन्जैक्शन ले लेते हैं। कोई घरेलू उपचार नहीं करते, यह नहीं सोचते कि वह इन्जैक्शन और दो नई बीमारियों को पैदा करेगा। आज वैंâसर, पोलियो आदि घातक बीमारियाँ पैâल रही हैं। जिस माँ के बदहजमी रहती है उससे उत्पन्न बालक के पोलियो हो जाता है, और भी अन्य कारण हैं।
धर्म में अष्टमी—चतुर्दशी को एकासन, रस—परित्याग कर भोजन ग्रहण करना बताया है, ये व्यर्थ नहीं हैं। इनसे अनेक परेशानियों से बचेंगे, स्वास्थ्य लाभ होगा। आज खूब अस्पताल खुल रहे हैं, उनमें शैय्यायें बढ़ाई जा रही हैं, उनको कम करने का उपाय नहीं करते, उन्हें बढ़ाने का ही प्रयास कर रहे हैं।
भक्ष्य–अभक्ष्य का संयम, ध्यान रखना अत्यावश्यक है। बच्चों को भी इस बात को सिखाना व पालन कराना बहुत आवश्यक है, आज बच्चों को बिस्किट खिलाते हैं, वह सर्वथा अच्छे नहीं है। कभी आपातकाल में, मुश्किल के समय इसका उपयाग करें तो ठीक है पर हमेशा इनका प्रयोग नहीं करना चाहिये।
सामाजिक जीवन आदर्श बनाने के लिए मानसिक स्वास्थ्य ठीक रखना आवश्यक है, ये दोनों एक दूसरे पर आधारित हैं। मानसिक स्वास्थ्य के लिये मन्दिर, पूजा—पाठ, ध्यान, योग, जप—तप, त्याग महत्त्वपूर्ण हैं।
भारतीय संस्कृति में जन्म को ही नहीं, मरण को भी मांगलिक बनाया है। इसी का नाम सल्लेखना है; भागवत् में इसी को प्रायोपवेषण कहा है। जब मृत्यु निश्चित है तो उससे घबराना क्यों ? डाक्टर ने जबाब दे दिया, इंजेक्शन भी कारगर नहीं हो रहा, तब तो भगवान का नाम लेना चाहिये। पशु व मनुष्य में यही तो फर्क है कि —पशु का विवेक केवल खाने—पीने तक सीमित है पर मनुष्य इससे ऊपर उठा हुआ है। उसमें आत्मा—परमात्मा का चिन्तन करने की शक्ति है, इसलिये मनुष्य अपने मरण को मांगलिक बना सकता है।
दिव्य—दर्शन में आत्म—दर्शन है। समस्त आत्मा का धर्म एक है, चिन्तन उदार, विशाल व वीतराग दृष्टिवाला तभी हो सकता है, जब अनेकान्त दृष्टि से चिन्तन करेंगे, एकान्त से नहीं। एकान्त डुबो देता है, मनुष्यत्व को समाप्त कर देता है, चिन्तन को कुण्ठित कर देता है।
इस विश्व में मानव जन्म लेता है, जन्म के पश्चात् वह अपने संस्कारों के अनुसार, परिवार, वातावरण, परिस्थिति, देश, राष्ट्र आदि में से अच्छाइयों व बुराइयों को अपनी दृष्टि से अच्छा समझ कर सहज ही ग्रहण कर लेता है, अपना लेता है। अच्छाई—बुराई का निर्णय, तत्त्वज्ञान का निर्णय करना इतना आसान नहीं है जितना उनके बारे में पढ़ना, चर्चा करना, उपदेश देना है। आप किसको सर्वथा अच्छा व किसको सर्वथा बुरा समझेंगे ? तटस्थ दृष्टि वाले महापुरुषों ने, महान् आत्माओं ने, तीर्थंकरों ने किसी भी वस्तु तत्त्व को सर्वथा एकान्तरूप से अच्छा या बुरा नहीं माना।
जैसे अग्नि, यह स्वयं में न अच्छी है न बुरी है। जब यह पंच पकवान बनावे, धातु आदि गलाने में सहायक हो, प्रकाश पैâलाये, तब हम इसे अच्छी समझते हैं और जब यह शरीर को, मकान को जलाये, भस्म करे, तब बुरी समझते हैं तो क्या अग्नि को एकान्त रूप से अच्छी या बुरी कह सकते हैं ? अग्नि पवित्र है, शुद्ध है, भेदभाव रहित है। यह पवित्र है, इसीलिये विवाह, धार्मिक—अनुष्ठान आदि में अग्नि को साक्षी रखते हैं। यह पण्डित, मूर्ख, ब्राह्मण, शूद्र किसी के प्रति भेदभाव नहीं रखती, यह किसी को नहीं छोड़ती, सबको जला देती है।
जैसे अग्नि को सर्वथा अच्छा या बुरा नहीं कह सकते, उसी प्रकार जब विशाल विश्व की ओर दृष्टि डालते हैं, लौकिक वस्तुओं की ओर देखते हैं तब अपने संस्कारों के आधार पर ही वस्तुओं को अच्छी या बुरी समझते हैं। एक प्रदेश में जिस वेशभूषा को सुन्दर व उचित समझते हैं, उसी वेषभूषा को दूसरे प्रदेश में असुन्दर व अनुचित मानते हैं। इस प्रकार का व्यवहार हमारे जीवन में प्रत्येक वस्तु के साथ होता है। इससे ज्ञात होता है कि आखिर हमें अनेकांत की शरण लेनी होगी, अनेकान्त—तत्त्वज्ञान के चौराहे पर खड़ा होना होगा। जैसे—चौराहे पर खड़ा सिपाही चारों ओर से आने वाले टै्रफिक का नियन्त्रण करता है, एक ओर का ट्रैफिक रोकता है, दूसरी ओर का चालू रखता है। इसी प्रकार एक को प्रमुख तो दूसरे को गौण, इस प्रकार का दृष्टिकोण रखकर संतुलन बनाये रखेंगे तभी सत्य—ज्ञान प्राप्त हो सकेगा।
अमृतचन्द्राचार्य ने लघुतत्त्वस्फोट में कहा है—
स्वयं ही कुम्भादितया न चेद् भवान् भवेद् भवेत्क किं बहिरर्थसाधनम्।
त्वपीश कुम्भादितया स्वयं स्थिते प्रभो ! किमर्थ बहिरर्थसाधनम्।।१३।।
यदि मिट्टी स्वयं, अपने आप कुंभ (घड़ा) बन जाये तो फिर उसके लिए दण्ड की, चाक की, कुम्हार की क्या आवश्यकता है ? वह मिट्टी अपने आप घड़ा बन जाये, स्वयं ही उसमें पानी भर जाये, आप को पिला दे, तो फिर पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है ? सारे साधन है पर कुम्हार नहीं हो तो भी घड़ा नहीं बन सकता। कुम्हार है, पर मिट्टी आदि नहीं हो तो भी घड़ा नहीं बन सकता। बिना साधनों के बिना पुरुषार्थ के तथा बिना विधि के कुंभ स्वयं नहीं बन सकता।
इस देश में दैववाद ने बहुत हानि पहुँचायी है कि ऐसा होना ही था, ऐसा ही होगा। पं. टोडरमलजी ने इसीलिये कहा है—‘होनहार काल—लब्धि कछु नािंह, जो करे, जो होवे वही काल—लब्धि है, होनहार है।’ टोडरमलजी दैववाद से निकम्मे बनने वालों को बचा रहे हैं, सोने वालों को जगा रहे हैं।
इस संसार में अच्छाई या बुराई सब पुरुषार्थ के द्वारा ही होती है, बिना पुरुषार्थ के कोई वस्तु नहीं हो सकती। यदि वस्तुयें बिना पुरुषार्थ के, स्वयं ही निर्माण हो जायें तो फिर भाग–दौड़ की, दौड़—धूप की आवश्यकता क्या है ?
किसान कितना परिश्रम करता है, धूप, बारिश, ठण्ड, सब कुछ सहन करता है, हमें उसके पुरुषार्थ का, मेहनत का पता नहीं होता, जब हम भी वैसी मेहनत करें तभी ज्ञात होगा। किसान से बढ़कर कौन महान् है ? कोई बहुत पढ़े—लिखे, डिग्रीधारी व्यक्तियों को बड़ा या महान् समझते हैं। पर किसान अत्यन्त परिश्रम के साथ एक बीज से ढेर सारा अनाज उत्पन्न करता है, शांति के साथ जीता है और सबको शांति से जीने के लिये अनाज वितरित करता है और दूसरी ओर ये कॉलेज में पढ़ने वाले, डिग्री लेने वाले, उपद्रव करते हैं, आग लगाते हैं, तोड़—फोड़ करते हैं, यह पढ़ाई किस काम की! हमारे यहाँ सिर्फ ज्ञान की कीमत नहीं, उसके साथ उसी के अनुकूल पुरुषार्थ–आचरण हो, तभी उसकी कीमत है। जब तक नागरिक सभ्य—सुसंस्कृत नहीं होगा, पुरुषार्थी नहीं होगा तब तक वह सफल नहीं हो सकता।
क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो सिर्फ ब्राह्मणों की बस्ती बसा कर दिखा सके ? उस बस्ती में दर्जी का कार्य भी ब्राह्मण ही करे, बढ़ईगिरी का कार्य ब्राह्मण ही करे, हरिजनों का कार्य भी ब्राह्मण ही करे, क्या यह सम्भव है ? सबके सहयोग व उपकार से ही समाज व्यवस्थित रह सकता है। हम अपने जीवन में दूध—घी पशुओं से प्राप्त करते हैं, जीवन में उनका भी सहयोग है। यदि इनका सहयोग न मानें तो ज्ञात होता है कि हम धर्मान्धता व दिव्यदर्शन में फर्क नहीं मानते। धर्मान्धता सरल है, यह जितनी शीघ्रता से प्राप्त होती है, उतनी ही शीघ्र पतित—पातिनी भी होती है, पर दिव्यदर्शन में आत्मदर्शन है। दिव्यदर्शन में वह ज्ञाता—दृष्टा के रूप में संसार को देखता है, किसी को छोटा नहीं समझता, किसी को तिरस्कृत दृष्टि से नहीं देखता, विश्व के समस्त प्राणियों को आत्माओं को अपने समान देखता—समझता है। समस्त आत्मा का धर्म एक है। आत्मा ब्राह्मण या ईसाई नहीं है, अन्यथा बताइये गधा किस जाति का है? गधा ब्राह्मण है अथवा ईसाई ? आज चिन्तन कूपमण्डूक—वृत्तिमय हो रहा है। चिन्तन उदार, विशाल व वीतराग दृष्टि वाला तभी हो सकता है जब अनेकान्त दृष्टि से चिन्तन करेंगे, एकान्त से नहीं। एकान्त मनुष्य को डुबो देता है, मनुष्यत्व को समाप्त कर देता है, उसके चिन्तन को कुण्ठित कर देता है।
सब कीड़े—मकोड़े, पेड़—पौधे, सब में जीवत्व शक्ति है ये भी जीव हैं। इनके सहयोग के बिना मानव जीवित नहीं रह सकता। पेड़—पौधों के अभाव में क्या मानव—जीवन सम्भव है ? खाद्य सामग्री प्रदान करने के साथ ये पेड़—पौधे प्रकृति का सौन्दर्य बढ़ाते हैं और वायुमण्डल को दूषित होने से भी बचाते हैं। ब्रिटेन में यह सिद्ध कर दिया गया है कि पेड़—पौधों के बीच रहने वाला मानव स्वस्थ व निरोगी रहता है।
उन्होंने एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय संज्ञी पंचेन्द्रिय व सिद्धालय तक समस्त जीवों में परमात्मा का दर्शन किया। समन्तभद्र ने बताया है कि इनमें परमात्मा का दर्शन कैसे किया गया है—
अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं।’’
उन्होंने अहिंसा के द्वारा कृमि—कीटों में भी अपने समान जीव देखा। वह अिंहसा ही ब्रह्म है, धर्म है। वीतराग परमात्मा के ज्ञान में व हमारे ज्ञान में द्रव्यदृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। वह प्रत्यक्ष जानते हैं, हम परोक्ष जानते हैं, वे युगपत जानते हैं, हम क्रम से जानते हैं, पर ज्ञान दोनों में है, प्रकट कितना किया, विकसित कितना किया इतना ही अन्तर है। हम राग व मोह के कारण फंस रहे हैं, वे राग—मोह रहित हैं।
मैं वह हूँ जो है भगवान्, जो मैं हूँ वह है भगवान्।
अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग, यही राग वितान।।
यह राग और मोह ही हमें संकीर्णता व कूपमण्डुक वृत्ति में डालता है। आचार्य श्री सिद्धसेन ने कहा है कि—
पुरातनैर्या नियता व्यवस्थितिस्तत्रैव सा किं परिचिन्त्य सेत्स्यति।
तथेति वक्तुं मृतरूढ़ गौरवादहन्नजात: प्रथमयन्तुविद्विष।।
यह मान्यता कि हमारे पुराने विचार हैं इसलिये श्रेष्ठ हैं, ये नये विचार हैं, इसलिये श्रेष्ठ हैं, भ्रामक हैं, गलत हैं। न पुरातन ही श्रेष्ठ है, न नया ही श्रेष्ठ है, न वर्तमान ही श्रेष्ठ है, केवल सत्य ही श्रेष्ठ है। सत्य किसकी देन है ? सत्य न महावीर की देन है, न राम की देन है। सत्य प्रत्येक आत्मा में विद्यमान है। महावीर ने केवल उसे अनुभूत कर प्रकट किया है। स्वयं उस मार्ग पर चलकर उसको प्रशस्त किया है और उस धर्म मार्ग पर, सत्य मार्ग पर चलने से ही वे महावीर बने।
हम महावीर की जय बोलते हैं, राम की जय बोलते हैं, पर चिन्तन कीजिये कि उनके बताये हुये मार्ग पर कितना चलते हैं ? यदि उनके बताये मार्ग पर नहीं चलते तो उनका नाम लेने का, उनकी जय बोलने का क्या अधिकार है ? पं. टोडरमलजी की जय बोलते हैं तो उनके पदचिह्नों पर चलकर दिखाना है। गांधीजी का नाम लेकर वोट मांगने वाले यदि उनके बताये मार्ग पर न चलें, तो उनका नाम लेने का, उनके नाम से वोट मांगने का क्या अधिकार है ?
हमें ज्ञान व क्रिया का सामन्जस्य बैठाना होगा। ज्ञान रहित क्रिया व क्रिया रहित ज्ञान दोनों ही हानिकारक हैं।
हतंज्ञान क्रिया हीनं, हता च अज्ञानिनां क्रिया।
धावन किलान्धको दग्धा, पश्यन् अपि च पंगुल:।।
जो जीवादि पदार्थ का, आत्मा का चिन्तन करता है वह अपनी आत्मा की स्वतन्त्रता कायम रखते हुये समस्त आत्मा को स्व—समान समझता है। चैतन्य—चैतन्य में स्वरूपगत दृष्टि से कोई भेद नहीं है। इसलिये धवला, महाधवला में आचार्यों ने, आचार्य नेमिचन्द्र ने, सब से पूछा—‘सव्वे शुद्धा शुद्धनया। निगोद काय से सिद्धालय तक के जीव एक समान हैं, उनके द्रव्य—दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। यही, सही आस्तिक दृष्टि है। संकीर्णता में डूब कर केवल अपने परिवार—धर्म के प्रति ही विश्वास व आस्था रखना आस्तिकता नहीं है। केवल अपने परिवार को, अपने धर्म को अपना समझे शेष को पराया, यह अपने—पराये की दीवार हटाये बिना दृष्टि, चिन्तन सम्यक््â नहीं हो सकता। जो यह कहे कि—मैं कहूँ वही सत्य है शेष सब असत्य, वह स्याद्वादी नहीं बन सकता। स्याद्वाद—अनेकान्त दृष्टि रखने पर ही हम महावीर के सच्चे अनुयायी बन सकते हैं।
जिसमें सत्य है, जो सत्यमय है, वही धर्म है, भगवान् है। हम केवल अपने पूर्वजों का, महापुरुषों का महान् आत्माओं का नाम स्मरण करें, उनकी जय बोलें, पर स्वयं उस पर शक्ति अनुसार आचरण न करें तो कभी भी सफलता नहीं मिल सकती।
इसमें विज्ञान के नाम से जो कुछ भी कहा जाये वह सब सत्य है और आज विज्ञान की स्थिति यह है कि एक वैज्ञानिक एक तथ्य को प्रस्तुत करता है और दूसरा उसका खण्डन का देता है। सत्य का कभी खण्डन नहीं हो सकता। अग्नि अनादि काल से जलती आ रही है, क्या कोई इसका खण्डन कर सकता है ? वह स्वयं जलती है, पर सर्वथा दूसरों को, सबको नहीं जलाती, यदि वह सबको जलाती तो फिर आकाश को क्यों नहीं जलाती? वह कागज को शरीर को जला देती है, पर आत्मा को नहीं जलाती। आत्मा को, आकाश को जलाने की शक्ति उसमें नहीं है। इसीलिये तत्त्वज्ञों ने कहा कि—आत्मा निराकार, निरंजन, चैतन्यमय है, न वायु इसे सुखा सकती है न आग इसे जला सकती है, न तलवार इसके टुकडे कर सकती है, न पानी इसे गीला कर सकता है, इस अजर—अमर आत्मा के प्रति जब यह विश्वास होगा तभी वह आस्तिक होगा, तभी दृढ़ता आयेगी व अनुभूति के लिये सक्षम होगा ओर अमरता प्राप्त करने के लिये बढ़ सकेगा।
कोई कहता है कि—पेड़—पौधे सुन्दर हैं, कोई नदी—तालाबों को सुन्दर बताते हैं, तो कोई पहाड़ों—गुफाओं को, पर कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि—इन वस्तुओं को जानने की शक्ति आत्मा में है। अत: आत्मा के समान सुन्दर वस्तु अन्य कोई नहीं। समस्त बाह्य सौन्दर्य को जानने वाला सबसे सुन्दर है। हम आत्मा के सौन्दर्य को भूलकर बहिरंग सौन्दर्य पर ही मोहित हो रहे हैं। जब हम आत्मा के सौन्दर्य को देखेंगे, पहचानेंगे, उसका अनुभव करेंगे तभी हमारी दृष्टि सम्यक््â होगी, कर्मों का नाश होगा और तभी सांसारिक दु:खों से मुक्त होंगें।
एक पक्ष यह है कि इस दुनिया को ब्रह्मा ने बनाया है। यदि कुछ समय के लिये यह मान लें तो जिस ब्रह्मा ने हमें बनाया है, उसी ने इन पशु—पक्षियों को भी बनाया है अन्य मानवों को भी बनाया है। फिर जब पशु—पक्षियों का शिकार, मानव—जाति पर अत्याचार करते हैं तो क्या उस सृष्टा—ब्रह्मा के विरुद्ध कार्य नहीं करते ? क्या अपने सृष्टा के विरुद्ध कार्य करना नीतियुक्त है ?
हमें केवल मानवीय दृष्टि व संस्कृति पर ही चिन्तन नहीं करना है। हमें जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल, छहों द्रव्यों का चिन्तन करते हुये अपनी आत्मा का वीतराग भाव से चिन्तन करना होगा, तभी दृष्टि विशाल बनेगी। मानव—जाति तक ही सीमित न रहते हुये प्राणी—मात्र के अन्दर चैतन्य का दर्शन करना है। हमें एकांगी नहीं बनना। अनेकान्त दृष्टि रखने पर ही समस्त संसार में से चीरते हुये तत्त्वज्ञान को, सत्य को पा सकेंगे। हम दोनों पैर से ही सम्यक््â गति से चल सकते हैं, दूसरा सहारा लेना पड़ता है।
सब प्राणियों में जीवत्व को पहचानेंगे, समझेंगे तभी दूसरे जीवों के प्रति सम्मान की भावना रख सकेंगे। तभी ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’, को समझ सकेंगे और तभी जीवन की अनेक बाधाओं व दु:खों से मुक्त हो सकेंगे।
कोई हमें, प्यास लगने पर पानी पिलाकर तृप्त करता है, तो हम उसका भी उपकार मानते हैं, तो जिन सर्वज्ञ—वीतराग भगवान् ने हमारे आत्मकल्याण के लिये चिन्तन दिया, मार्ग प्रशस्त किया है, उनका हम उपकार न मानें इससे बड़ी कृतघ्नता व विडम्बना क्या होगी ? हमारे वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकरों ने अपनी दिव्यध्वनि, दिव्य अर्थों की ध्वनि के द्वारा हमारी आत्मा को परमात्मा बनाने की विधि बताई है, हम उनके ऋण से वैâसे मुक्त हो सकते हैं ?
यदि हम किसी गलती पर हों तो हमें तुरन्त अपनी गलती महसूस कर लेनी चाहिये स्वीकार कर लेनी चाहिये, उसे स्वीकार करने में हिचकिचाहट क्यों ? जब कभी कोई असत्य बोलता है तो उस असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिये वह अनेक बहाने ढूँढता है। इसलिये आचार्यों ने अधिक बोलने के लिये मना किया है, क्योंकि बोलने के पश्चात् उन शब्दों के गुलाम हो जाओगे। तभी तो तीर्थंकर भी सर्वज्ञता प्राप्ति के बाद ही बोले, तभी उनकी वाणी खिरती है। छद्मस्थ जीव के तो मिथ्यात्व के कारण वीतराग वाणी निकल ही नहीं सकती, इसलिये वह अपने कथन का गुलाम होता है।
सत्य की पूर्णता को मापना आसान नहीं है। सत्य कहीं बाजार में नहीं मिलता, वह आत्मा की आवाज है, वह आत्मा में से ही प्रसूत होगा। सत्य की प्राप्ति तपस्या से विनम्रता से होगी, सत्य किसी जाति विशेष में, धर्म विशेष में जन्म लेने से प्राप्त नहीं होता। यह तो प्रत्येक आत्मा में विद्यमान है। संसार के समस्त प्रपंच में रच—पचकर आखिर सत्य की प्राप्ति के लिये आध्यात्मिक जगत् की ओर लौटना होता है।
आज स्वीडन सरकार ने िंहसात्मक अस्त्र—शस्त्रों के प्लास्टिक खिलौनों के रूप में प्रचलन पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया है, जैसे टैंक, पिस्तौल आदि क्योंकि इनसे इसी प्रकार की िंहसात्मक भावना उत्पन्न होती है। इसलिये भगवान महावीर ने भाविंहसा को भी त्याज्य माना है। हम अहिंसक देशवासी आज हिंसात्मक कार्यों में मग्न हैं। यदि हम सुख—शान्ति चाहते हैं तो हमें अिंहसा की ओर लौटकर आना होगा।
हमें प्राणी—मात्र के प्रति कल्याणकारी भावना रखनी होगी। मानवजाति के प्रति सेवाभावना रखनी होगी, सेवा मानवजीवन के लिये कल्याणकारी है। जब आपको कोई तकलीफ होती है तो आप तुरन्त डॉक्टर के पास, वकील के पास भागते हैं, इनका सहयोग लेते हैं। समाज में, देश में परस्पर सहयोग की, सेवा भावना की, सहिष्णुता की आवश्यकता है।
जब तक कर्त्तव्य बोध की भावना व कर्त्तव्य बोध नहीं होगा तब तक नागरिक नगर विकास न्यास और सरकार सफल नहीं हो सकते। आज देश में सर्वत्र सब कर्त्तव्य को भूलकर केवल अधिकार की बातें करते हैं। इसलिये हमारा देश उन्नत नहीं हो पाया, वातावरण अशांत हो गया। सफलता की कुंजी कर्त्तव्यपालन है। इसी से देश उन्नत होगा। नागरिकों में राष्ट्रीय मानवीय व प्राणी मात्र के कल्याण की भावना होगी तभी देश आदर्श बन सकेगा। केवल सुन्दर—साफ सड़कें, सुन्दर भवन बनाने से, शस्त्रास्त्र इकट्ठा करने की होड़ से, देश विकसित नहीं होगा। चाहे मंत्री हो या नागरिक सबको अपने कर्त्तव्य को निभाना होगा।
रूस में टेलिविजन पर राष्ट्रीय ध्वज दीखते ही वहाँ के छोटे से बच्चे ने भी स्वयं खड़े होकर राष्ट्रीय ध्वज को सम्मान दिया अर्थात् वहाँ छोटे से बालक में भी राष्ट्रीय भावना है। जब तक राष्ट्र के प्रति श्रद्धा—विश्वास नहीं होगा तब तक विकास नहीं हो सकता। सोचिये, जिसका अन्न—जल ग्रहण करते हो उसके प्रति वैâसे कृतघ्न हो रहे हो ?
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, निश्चयनय से, तो यह शरीर भी अपना नहीं है, राष्ट्र क्या ? पर व्यवहार में इन सबको सम्मान देना होगा। न्यायनीति के साथ गरीबों को भी आवश्यक सुविधायें प्राप्त हों यही भावना व कर्त्तव्य होना चाहिये। प्राणी मात्र सुखी रहे यही भावना हो।