जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च।
द्रव्यानुयोगदीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते।।
अर्थ—जो जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को, आस्रव, संवर, बंध और मोक्ष इन सभी तत्त्वों को सही-सही समझाता है; वह दीपक के सदृश द्रव्यों को प्रगट दिखलाने वाला द्रव्यानुयोग है। यह श्रुतज्ञान के प्रकाश में निज और पर का भान कराने वाला है।
यह कथा प्रसिद्ध है कि ‘श्री कुमारनंदि सिद्धांतदेव’ के शिष्य ‘श्री कुंदकुंदाचार्य’ जिनके पद्मनंदि, ऐलाचार्य, वक्रग्रीव और गृद्धपिच्छ ये पांच नाम भी प्रसिद्ध हैं, वे पूर्वविदेह क्षेत्र में गये। वहां वीतराग सर्वज्ञदेव श्री सीमंधर स्वामी तीर्थंकर परमदेव के दर्शन किए तथा उनके मुखकमल से प्रकट हुई दिव्यध्वनि को सुन करके, उससे पदार्थों को समझकर शुद्ध आत्मीक तत्त्वरूप सार अर्थ को ग्रहण किया, फिर वहां से लौटकर यहां भरतक्षेत्र में आकर उन्होंने अंतरंग तत्त्व और बहिरंग तत्त्व को मुख्य और गौणरूप से बतलाने के लिए अथवा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप रुचि के शिष्यों को समझाने के लिए इस ‘पंचास्तिकाय’ नामक प्राभृत शास्त्र को रचा है।
यहाँ उस पंचास्तिकाय ग्रंथ का संक्षिप्त सार प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें ग्रंथ के मंगलाचरण से लेकर पाँचों अस्तिकायों का वर्णन आध्यात्मिक भाषा में वर्णित है। विशेष जानकारी के लिए मूल ग्रंथ का स्वाध्याय करना चाहिए।
इंदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं।
अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं।।१।।
सौ इन्द्रों से वंदनीक, तीन जगत को हितकारी, मधुर और स्पष्ट वचन कहने वाले, अनंत गुणों के धारी तथा भव परम्परा को जीतने वाले अरहंतों को नमस्कार हो।
यहाँ मंगलाचरण रूप गाथा का यह सामान्य अर्थ हुआ। इस ग्रंथ की तात्पर्यवृत्ति टीका के कर्ता श्री जयसेनाचार्य ने अपनी टीका में इस गाथा का बहुत ही विशद विवेचन किया है।
प्रथम पद है ‘इंदसदवंदियाणं’ जो भगवान् सौ इन्द्रों से वंदित हैं, वे सच्चे आप्त या सच्चे देव होते हैं। भवनवासी देवों के ४०, व्यंतर देवों के ३२, कल्पवासी देवों के २४, ज्योतिषी देवों के दो (चन्द्र और सूर्य) तथा मनुष्यों में चक्रवर्ती १ और तिर्यंचों में सिंह १, ऐसे ४०+३२+२४+२+१+१=१०० इन्द्र होते हैं। इन सभी से वंद्य अरहंत भगवान पूज्य हैं।
दूसरा विशेषण है-‘तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं’ जिनके वचन तीनों जगत के प्राणियों के लिए हितकर हैं चूंकि मोक्ष का मार्ग बतलाने वाले हैं और सर्व प्राणियों के अभय का, प्राणिमात्र की रक्षा का, अहिंसा का, उपदेश देने वाले हैं। कर्णप्रिय, मन को सुखदायी, परमानन्द सुख को प्रदान करने वाले होने से मधुर हैं। संशय, विपरीत और अनध्यवसाय आदि दोषों से रहित होने से स्पष्ट अर्थात् व्यक्त हैं अर्थात् अरहंत देव के वचन तीनों जगत के जीवों के लिए हितकर, मधुर और विशद हैं अथवा अरहंत देव की दिव्यध्वनि को सर्वजीव अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं इसलिए अरहंतदेव की देशना सर्वभाषामय है अथवा दिव्यध्वनि ‘सात सौ अठारह’ भाषा रूप मानी गई है। कर्णाटक, मागध, मालवा, लाट, गौड और गुर्जर इन छहों के ३-३ भेद करने से महाभाषा अठारह हो जाती है तथा सात सौ लघु भाषायें हैं। इन १८ महाभाषा और ७०० लघु भाषाओं में प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी भाषाओं में भगवान के समवसरण में दिव्यध्वनि सुनकर स्पष्ट अर्थबोध प्राप्त कर लेते हैं। अनेक भाषाओं में वह वाणी एक ही साथ सबको अपनी-अपनी भाषा में सुनाई देती है इसलिए विशद है।
अरहंत देव की वाणी के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में भी कहा है-
यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पंदितोष्टद्वयं।
नो वांछाकलितं न दोषमलिनं नोच्छ्वासरुद्धक्रमं।।
शांतामर्षविषै: समं पशुगणैराकर्णितं कर्णिभि:।
तन्न: सर्वविदो विनष्टविपद: पायादपूर्वं वच:।।
जो सभी जीवों का हित करने वाले हैं, वर्ण अक्षररूप नहीं होने से अनक्षर हैं, दोनों ओठों के
हलन-चलन बिना प्रगट होते हैं, इच्छा के बिना प्रगट होते हैं, दोषों से मलिन नहीं हैं, उसमें श्वासोच्छ्वास के रुकने का क्रम नहीं है, क्रोधरूपी विष को शान्त कर परस्पर के वैर-भाव से रहित हुए पशुगण भी जिसे सुनते हैं, सर्व विपदाओं को नष्ट करने वाले ऐसे अरहंत देव के अपूर्व वचन हमारी रक्षा करें।
तीसरा विशेषण है–‘अन्तातीदगुणाणं’ जिन में केवलज्ञान आदि अनंतगुण पाये जाते हैं इसलिए वे अरहंत देव गणधर, ऋद्धिधारी महामुनीश्वर आदि के द्वारा भी पूज्य हैं।
चौथा विशेषण है-‘जिदभवाणं’ भव अर्थात् संसार, जिन्होंने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव, इन पांच परिवर्तनरूप संसार को जीत लिया है-समाप्त कर दिया है वे अरहन्त देव ‘जितभव’ इस विशेषण से विशिष्ट हैं।
अब पांचवा पद जो स्वयं विशेष है, वह णमो जिणाणं है। ऐसे जिनेन्द्रदेव को नमस्कार हो। जो कर्म शत्रुओं को जीतने वाले हैं वे जिन हैं। ऐसे अरहंत देव तीर्थंकर भगवान् ही हैं उन्हें ही नमस्कार किया गया है। नयों की अपेक्षा नमस्कार को देखिए-
अनंतज्ञान आदि गुणों के स्मरणरूप भाव नमस्कार है, यह अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से ही है। ‘नमो जिनेभ्य:’ ऐसे वचनों के उच्चारण करने रूप द्रव्य नमस्कार होता है वह असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से है और अपनी शुद्धात्मा में ही आराध्य-आराधक भाव होना निर्विकल्प ध्यान में ही होता है अत: यह नमस्कार आज संभव नहीं है।
मंगलणिमित्तहेऊ परिमाणा णाम तह य कत्तारं।
वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरिओ।।
आचार्य देव मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम तथा कर्ता इन छहों को पहले कहकर अनंतर शास्त्र का व्याख्यान करें।
मंगल-मलं-पापं गालयति विध्वंसयतीति मंगलं अथवा मंगं पुण्यं सुखं त¼ाति आदत्त गृण्हाति वा मंगलं। ‘मं’ अर्थात् मल या पाप को जो गलावे-विध्वंस करे सो मंगल है अथवा ‘‘मंग’’ अर्थात् पुण्य को-सुख को लावे-देवे सो मंगल है। यहां आचार्यदेव शास्त्र की आदि में मंगल के लिए चार प्रकार के फल को चाहते हुए तीन प्रकार के देवता को तीन प्रकार का नमस्कार करते हैं।
चार प्रकार के फल-शास्त्र के प्रारंभ में मंगल करने से नास्तिकता का परिहार होता है, शिष्टाचार का पालन होता है, पुण्य की प्राप्ति होती है और निर्विघ्न शास्त्र रचना पूर्ण होती है।
तीन प्रकार के देव-एक अपने लिए इष्टप्रिय होते हैं, एक जिनका अधिकार या शासन चल रहा है और एक जो अभिमत-मान्य होते हैं।
तीन प्रकार के नमस्कार-एक आशीर्वाद रूप, दूसरे वस्तुस्वरूप कथनरूप, तीसरे नमस्कार रूप।
यह मंगल दो प्रकार का है-एक मुख्यरूप और दूसरा गौणरूप।
मुख्य मंगल-यह जिनेन्द्र गुणस्तवनरूप ही है। कहा भी है-
ग्रन्थ की आदि में, मध्य में और अंत में मंगल करना चाहिए, जिससे विघ्नों का नाश होता है। वह मंगल जिनेन्द्रदेव का गुणस्तवनरूप ही है जैसा कि कहा भी है-
विघ्ना: प्रणश्यंति भयं न जातु, न क्षुद्रदेवा: परिलंघयंति।
यथेष्टांश्च सदा लभंते, जिनोत्तमानां परिकीर्तनेन।।
अर्थात् जिनेन्द्रदेव का स्तवन करने से विघ्नों का नाश हो जाता है, कभी भय नहीं लगता है, न नीच देव उल्लंघन करते हैं तथा निरंतर ही अपने इच्छित पदार्थों का लाभ होता रहता है।
और भी आचार्यों का अभिमत है कि आदि में मंगल करने से शिष्य शीघ्र ही विद्या के पारगामी हो जाते हैं, मध्य में मंगल करने से विद्या बिना विघ्न के आ जाती है व अंत में मंगल करने से विद्या का फल प्राप्त होता है। ये सब बातें जिनेन्द्रदेव के गुणस्तवन से ही होती हैं अत: यह स्तवन ही मुख्य मंगल है।
गौण मंगल-लोकव्यवहार में जिन्हें मांगलिक माना है वे सब वस्तुयें गौण मंगल हैं। जैसे-सिद्धार्थ-सफेद सरसों, पूर्णकुंभ, वंदनमाला, श्वेतछत्र, श्वेत वर्ण, दर्पण, राजा, कन्या और जयपना।
सिद्धार्थ मंगल क्यों हैं ?-जिन जिनेन्द्रदेवों ने व्रत, नियम, संयम आदि के द्वारा परमार्थ का साधन किया है उनकी ‘सिद्ध’ यह संज्ञा है इसलिए नाम साम्य की अपेक्षा ‘‘सिद्धार्थ’’-सफेद सरसों भी लोकव्यवहार में मंगलीक है।
पूर्णकुंभ मंगल क्यों है ?-जो सर्व मनोरथों से और केवलज्ञान से पूर्ण हैं, ऐसे अरहंत इस लोक में पूर्णकुंभ मंगल हैं।
वन्दनमाला मंगल क्यों हैै ?-भरत चक्रवर्ती ने निकलते और प्रवेश करते समय जो वंदनमालायें बंधवाई थीं उनमें चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिकृति बनवाई थी वे वंद्य थीं, इसलिए वंदनमाला-वंदनवार भी लोक में मंगलीक है।
श्वेत छत्र मंगल क्यों है ?-सर्व जगत के प्राणियों के लिए अरहंतदेव सुख के कर्ता हैं व छत्र के समान रक्षक हैं इसीलिए लोक में सफेद छत्र मंगलीक है।
श्वेतवर्ण मंगल क्यों है ?-अरहंत देव का शुक्लध्यान, शुक्ल लेश्या और अघातिकर्म श्वेत वर्ण के माने गए हैं इसीलिए श्वेतवर्ण भी लोक में मंगल माना गया है।
आदर्श मंगल क्यों है ?-जिनेंद्रदेव के केवलज्ञान में दर्पण के समान सर्वलोक-अलोक झलक रहा है इसीलिये प्रत्येक वस्तु को अपने में प्रतिबिम्बित करने में समर्थ दर्पण भी लोक में मंगलीक माना गया है।
राजा मंगल क्यों है ?-जैसे जिनेंद्रदेव सर्वज्ञ-सर्वलोक के ज्ञाता हैं वैसे ही राजा अपनी प्रजा के सुख दु:ख का ज्ञाता है-प्रजा को सुखी रखकर दु:ख दूर करता है इसीलिये लोक में न्यायप्रिय राजा मंगलीक माना जाता है।
बाल कन्या मंगल क्यों है ?-जिनेंद्रदेव मोह आदि कर्मों से रहित होने से विकार रहित हैं इसीलिए बालकन्या भी विकार रहित होने से लोक में मंगलीक है।
जय शब्द मंगल क्यों है ?-जिनेन्द्रदेव ने कर्मरूपी शत्रुओं को जीतकर ‘जिन’ इस सार्थक नाम को धारण किया है इसलिए ‘जय’ शब्द भी लोक में मंगलीक हो गया है।’
मतलब यह है कि यदि कोई युद्ध के लिए, व्यापार के लिए या किसी भी इष्ट कार्य के लिए प्रस्थान करता है, तब उसके इष्टजन लोकव्यवहार में सरसों क्षेपण करना, ‘जय’ बोलना, सामने पूर्णकुंभ, दर्पण आदि रखने रूप मंगलक्रिया करते हैं कि जिससे इसकी यात्रा सफल हो। यही लोकव्यवहार में मंगल माना जाता है। इसमें प्रस्थान या प्रवेश में दही, गरुड़ या भारद्वाज पक्षी, हाथी, मोर, गाय, बैल, बछड़े सहित गाय आदि को देखने से भी मंगल माना जाता है। इनमें भी उपर्युक्त कारण ही घटाये जा सकते हैं।
निबद्ध और अनिबद्ध की अपेक्षा भी मंगल के दो भेद हैं।
निबद्ध मंगल-जो ग्रन्थकार के द्वारा स्वयं किया जाये, जैसे ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं’ आदि। यहां पर भी इस पंचास्तिकाय ग्रंथ में श्री कुंदकुंददेव ने ‘इंदसदवंदियाणं’ इस रूप से स्वयं निबद्ध मंगल किया है।
अनिबद्ध मंगल-जो अन्य ग्रंथ से लिया जाये, जैसे-जगत्त्रयनाथाय नम:, श्री वर्धमानाय नम: इत्यादि।
मंगल क्यों करना ?
शिष्य-शास्त्र के प्रारंभ में ग्रन्थकार मंंगल के लिए पंचपरमेष्ठी के गुणों का स्तवन किसलिए करते
हैं ? जो शास्त्र शुरु किया है उसी को कहें, मंगल की आवश्यकता ही क्या है ?
गुरु-नमस्कार रूप मंगल करने से पुण्य होता है और पुण्य से ग्रंथ की पूर्णतारूप कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाता है।
शिष्य-ऐसा तो नहीं देखा जाता, कहीं पर तो नमस्कार, दान, पूजा आदि करते हुए भी विघ्न होता दिखाई देता है तथा कहीं पर नमस्कार, दान, पूजा आदि न करते हुए भी निर्विघ्न कार्य दिखाई पड़ता है ?
गुरु-तुम्हारा यह कहना भी योग्य नहीं है, क्योंकि जहां आप्त को नमस्कार या दान, पूजा आदि धर्म के करते हुए भी विघ्न आ जाता है वहां यह समझना चाहिए कि ‘‘पूर्व में हुए पाप का ही यह फल है जो कि विघ्न हुए पाप का ही फल है जोकि विघ्न आ गया’’ इसमें धर्मसाधन मंगल आदि का कोई दोष नहीं है तथा जहां पर जिनेन्द्रदेव को नमस्कार, दान, पूजा के बिना भी निर्विघ्न कार्य होता देखा जाता है वहां पर ऐसा समझना चाहिए कि ‘यह पूर्व में किए हुए धर्म का ही फल है जिससे मेरा कार्य बिना बाधा के सम्पन्न हो गया।’
शिष्य-शास्त्र स्वयं मंगल है या अमंगल है ? यदि स्वयं मंगलरूप है तब पुन: मंगल के लिए मंगल करने का क्या प्रयोजन और यदि अमंगलरूप है तब ऐसे शास्त्र से भला क्या प्रयोजन ?
गुरु-ऐसा कुतर्क नहीं करना, क्योंकि शास्त्र तो मंगलरूप ही हैं, फिर भी भक्ति के लिए मंगल का भी मंगल किया जाता है। जैसा कि कहा है-
प्रदीपेनार्चयेदर्कमुदकेन महोदधिम्।
वागीश्वरीं तथा वाग्भिर्मंगलेनैव मंगलम्।।
दीपक से सूर्य को, जल से समुद्र या नदी को, वाणी से जिनवाणी या सरस्वती को लोग पूजते हैं इसी तरह से मंगल से ही मंगल की पूजा करते हैं।
दूसरी बात यह भी है कि-इष्ट देवता को नमस्कार करने से उनके प्रति उपकार की स्वीकारता देखी जाती है। कहा भी है-
श्रेयोमार्गस्य संसिद्धि: प्रसादात्परमेष्ठिन:।
इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुंगवा:।।
मोक्षमार्ग की सिद्धि या प्राप्ति परमेष्ठी के प्रसाद से होती है इसीलिए मुनिवरों ने शास्त्र के प्रारम्भ में उनके गुणों की स्तुति की है।
इष्टफल की सिद्धि का उपाय सम्यग्ज्ञान है, यह सम्यग्ज्ञान यथार्थ आगम से होता है, वह आगम आप्त-सच्चे देव अरहंत भगवान् से प्रगट होता है इसीलिए अरहंत देव सतत पूज्य हैं। ‘‘न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति।’’ क्योंकि साधुजन अपने प्रति किए गए उपकार को कदाचित् भी विस्मरण नहीं करते हैं।
निमित्त-जिनके निमित्त यह शास्त्र रचना हुई उस निमित्त कारण को कहते हैं। वीतराग सर्वज्ञ भगवान के द्वारा दिव्यध्वनि प्रगट होने में कारण भव्य जीवों के पुण्य की प्रेरणा ही है। जैसा कि कहा है-‘भव्य जीव श्रुतज्ञान रूप दिव्य तेज के द्वारा छह द्रव्य और नव पदार्थों का ज्ञान तथा श्रद्धान करें इसीलिए श्रुतज्ञान रूपी सूर्य का उदय होता है।’
इस ‘पंचास्तिकाय’ नामक प्राभृत ग्रन्थ के रचने में निमित्त शिवकुमार नाम के महाराज हैं। जैसे कि द्रव्यसंग्रह आदि की रचना में ‘मोगा सेठ’ आदि श्रावक निमित्त थे।
हेतु-यहां हेतु से फल समझना, क्योंकि वह हेतु ही फल का कारण है इसलिए उपचार से उसे ही फल कह दिया है। उस फल के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष फल के भी दो भेद हैं-साक्षात् और परम्परा। साक्षात् प्रत्यक्ष फल यह है कि इस शास्त्र से अज्ञान का नाश होकर सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है तथा असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होती है।
परम्परा फल यह है कि शिष्यों, प्रतिशिष्यों द्वारा पूजा व प्रशंसा होती है तथा शिष्यों की प्राप्ति होती है।
परोक्ष फल के भी दो भेद हैं-सांसारिक ऐश्वर्य सुख की प्राप्ति, मोक्ष सुख का लाभ।
अभ्युदय-सांसारिक ऐश्वर्य क्या है ? राजाधिराज, महाराजा, अर्धमंडलीक, मंडलीक, महामंडलीक, अर्ध चक्रवर्ती, चक्रवर्ती, इन्द्र, गणधर देव, तीर्थंकर परमदेव का वैभव, यह सब सांसारिक अभ्युदय हैं। इनमें अठारह (१८) श्रेणी सेना का अधिपति मुकुटधर होता है। पांच सौ मुकुटधरों का अधिपति अधिराजा होता है। आगे इससे दूने-दूने दल के स्वामी सकल चक्रवर्ती तक होना सो ऐश्वर्य सुख है।
मोक्ष या परम कल्याणमय सुख अरहंत और सिद्ध पद की प्राप्ति से ही होता है इसे ही नि:श्रेयस सुख कहते हैं।
तीर्थंकर देव के गर्भ, जन्म और तप ये तीन कल्याणक के समय इंद्रों द्वारा की गई पूजा व वैभव को अभ्युदय सुख में लिया है और केवलज्ञान कल्याणक के बाद रचा गया समवशरण व मोक्षकल्याणक की पूजा, वैभव आदि नि:श्रेयस सुख माने गए हैं।
जिन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट कर चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य और पांच कल्याणक प्राप्त किए हैं, वे अरहन्त भगवान मेरे लिए मंगलरूप हैं। जो आठ मूल व एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता से छूट चुके हैं, आठ गुणों से युक्त हैं और संसार से पार होकर सिद्धशिला के ऊपर विराजमान हैं वे सिद्ध भगवान मेरे लिए मंगलकारी हैं।
जो कोई भव्य वीतराग सर्वज्ञ देव की परंपरा से कहे हुए इस पंचास्तिकाय प्राभृत आदि शास्त्र को पढ़ते हैं, श्रद्धा में लाते हैं तथा बार-बार इसका चिन्तन-मनन करते हैं वे इसी प्रकार के अभ्युदय सुख को प्राप्त कर नि:श्रेयस सुख को प्राप्त कर लेते हैं।
परिणाम-परिणाम दो प्रकार का है-ग्रन्थ परिणाम और अर्थ परिणाम। ग्रन्थ की गाथा या श्लोक संख्या ग्रन्थ परिणाम है। इस ग्रंथ के प्रथम टीकाकार श्री अमृतचन्द्रसूरि ने इसमें एक सौ तिहत्तर गाथायें मानी हैं और द्वितीय टीकाकार श्री जयसेनाचार्य ने एक सौ इक्यासी गाथायें मानी हैं। यह ग्रन्थ परिणाम है और अर्थपरिमाण तो अनंत है।
नाम-नाम दो प्रकार का है-अन्वर्थ और इच्छित। जैसा ग्रन्थ का नाम हो वैसा ही उसमें अर्थ हो सो अन्वर्थ नाम है, जैसे जो ‘तपतीति तपन: सूर्य:’ जो तपे सो ‘तपन’ अर्थात् सूर्य है वैसे ही पंचास्तिकाय में पांच अस्तिकायों का विशद विवेचन होने से यह ग्रन्थ ‘पंचास्तिकाय’ इस अन्वर्थ नाम वाला है। इच्छित नाम वह है जैसे काष्ठभार ढोने वाले का ‘ईश्वर’ नाम रख दिया।
ग्रन्थकर्ता-कर्ता के तीन भेद हैं-मूल ग्रंथकर्ता, उत्तर ग्रंथकर्ता और उत्तरोत्तर ग्रंथकर्ता। मूल ग्रंथकर्ता तो इस काल की अपेक्षा से वर्तमान में श्री महावीर स्वामी हैं। उत्तर ग्रंथकर्ता उनके गणधर, चार ज्ञानधारी, सात ऋद्धियों से सहित श्री गौतम स्वामी हैं तथा उत्तरोत्तर ग्रंथकर्ता यथासंभव आचार्य आदि हैं। इस पंचास्तिकाय ग्रंथ के उत्तरोत्तर ग्रन्थकर्ता श्रीकुन्दकुन्द देव हैं।
कर्ता का विवेचन इसलिए करना चाहिए कि कर्ता की प्रमाणता से ही उनके वचनों की प्रमाणता होती है।
इस तरह संक्षेप में मंगल, निमित्त, हेतु, परिणाम, नाम और कर्ता इन छहों को बतलाया गया है।
समय को नमस्कार हो-
समणमुहग्गदमट्ठं चदुग्गदिणिवारणं सणिव्वाणं।
एसो पणमिय सिरसा समयमिमं सुणह वोच्छामि।।२।।
श्रमण-सर्वज्ञदेव के मुख से निकले हुए अर्थमय चार गति का निवारण करने वाले और निर्वाण के लिए कारण ऐसे इस समय आगम को सिर झुकाकर प्रणाम करके मैं उस समय को कहूँगा, उसे तुम लोग सुनो।
‘मैं’ से यहां पर श्री कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं कह रहे हैं कि जो यह ‘पंचास्तिकाय’ ग्रन्थ नाम का द्रव्य आगम है वह महाश्रमण, सर्वज्ञ, वीतराग भगवान महावीर के या अनंत तीर्थंकरों के मुखकमल से विनिर्गत है। अर्थरूप से सर्वज्ञ की दिव्यध्वनि से निकला है इसलिए प्रत्येक जैन आगम वेâ ‘अर्थकर्ता’ सर्वज्ञदेव ही हैं। ग्रन्थकर्ता गणधर देव से लेकर परम्परा से आये हुए आचार्यदेव हैं।
भगवान के वचन कैसे हैं ?—
गंभीरं मधुरं मनोहरतरं दोषव्यपेतं हितं।
कण्ठोष्ठादिवचो निमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतं।।
स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं नि:शेषभाषात्मकं।
दूरासन्नसमं समं निरुपमं जैनं वच: पातु न:।।
जिनेन्द्रदेव के वचन गंभीर हैं, मधुर हैं-कर्ण और मन को प्रिय हैं। मन को हरण करने वाले हैं, दोषों से रहित हैं, हित के करने वाले हैं, कण्ठ, ओठ आदि वचनों के कारणों से रहित हैं, पवन-श्वांस से रुकावट नहीं है, स्पष्ट हैं, अपने-अपने इच्छित पदार्थों के कहने वाले हैं, सर्वभाषा रूप हैं, दूर व निकट बैठे हुए को समान सुनाई देते हैं, समभाव रूप हैं तथा उपमारहित होने से निरुपम हैं ऐसे जैन वचन-जिनागम के वचन हमारी रक्षा करें।
ऐसे द्रव्यागम से क्या लाभ होता है ?—
येनाज्ञानतमस्ततिर्विघटते ज्ञेये हिते चाहिते।
हानादानमुपेक्षणं च समभूत्तस्मिन् पुन: प्राणिन:।।
येनेयं दृगपैति तां परमतां वृत्तं च येनानिशं।
तज्ज्ञानं मम मानसाम्बुजमुदे स्तात्सूर्यवर्योदय:।।
जिससे अज्ञानरूपी अन्धकार का पसारा दूर हो जाता है, जिससे जानने योग्य हितकर और अहितकर पदार्थों वे जान लेने पर प्राणीगण अहित का त्याग, हित का ग्रहण तथा उपेक्षा भाव दोनों प्रकार से रहित में वैराग्य भाव को प्राप्त हो जाते हैं, जिसके द्वारा सम्यग्दर्शन प्रगट होकर परमत से श्रद्धा दूर हो जाती है और जिसके द्वारा मिथ्याचारित्र हटकर सम्यक्चारित्र प्रगट हो जाता है, ऐसे ज्ञानरूपी परमसूर्य का उदय मेरे मनरूपी कमल को विकसित करने के लिए होवे।
सूर्य के उदित होने पर अन्धकार का नाश अच्छे-बुरे मार्ग या वस्तुओं का ज्ञान, नेत्रों द्वारा सही वस्तु का अवलोकन और सही मार्ग में चलना होता है वैसे ही ज्ञानरूपी सूर्य के उदित होने पर अज्ञान अन्धेरे का विनाश, हित-अहित विषय को जान लेने पर अहित से हटकर हित में प्रवृत्ति, सम्यग्दर्शन से समीचीन श्रद्धा, असमीचीन का अभाव तथा सच्चे मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति हो जाती है। ऐसा यह ज्ञानरूपी सूर्य उदय को प्राप्त होकर हमारे मन कमल को खिला देवे, प्रफुल्लित कर देवे। चूंकि ज्ञान के बिना मन कमल बन्द रहता है, कुण्ठित रहता है, इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग द्वेष कर-करके सतत दु:ख का अनुभव करता है। सच्ची श्रद्धा से और सही मार्ग में चलने से जीव को वंचित कर देता है इसलिए ज्ञान के समान इस जगत में जीव को कोई भी वस्तु या व्यक्ति वह सुख नहीं दे सकता है जो कि ज्ञान दे सकता है।
यह सम्यग्ज्ञानरूप जैन आगम नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों के दु:खों को दूर करने वाला है तथा सर्व कर्म बंधन से रहित निर्वाण सुख-पूर्ण स्वातन्त्र्य सुख को देने वाला है। ऐसे इस आगम को कहने के लिए श्री कुन्दकुन्ददेव ने उपक्रम किया है अथवा प्रतिज्ञावाक्य कहकर भव्यों को सुनने के लिए आग्रह किया है।
‘सम’ समीचीन ‘अय्’ ज्ञान को समय कहते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार समय शब्द से यहां आगम शब्द विवक्षित है। इस समय के कितने भेद हैं ?
‘समय’ के यहां तीन भेद लेना-अर्थसमय, शब्दसमय और ज्ञानसमय।
अर्हंतदेव ने अर्थरूप से समय को कहा है।
यहां ग्रन्थ रचना में शब्द समय है और इसका पठन-पाठन ज्ञान समय की सिद्धि के लिए किया जाता है अथवा इस शब्द समय-शब्दागम के द्वारा अर्थसमय पदार्थों का समूह वाच्य है-कहा जाता है और उसको सुनकर जो बोध होता है वह ज्ञान ही ज्ञान समय कहलाता है।
बात यह है कि कोई निकट भव्यजीव जिसके संसार का अन्त आ गया है, जल्दी मोक्ष जाने वाला है वह जिनेन्द्रदेव कथित शब्दागम-द्रव्यागम को सुनकर या पढ़कर फिर उससे वाच्य कहने योग्य पंचास्तिकाय लक्षणरूप अर्थ आगम पदार्थों के समूह को जानता है फिर उन पदार्थों में गर्भित शुद्ध जीवास्तिकायरूप पदार्थ में स्थिर होकर चारों गतियों का निवारण करता है, चतुर्गति दु:ख के दूर हो जाने से पंचमगति निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। वहां पर अपने आत्मा से ही उत्पन्न निराकुल, परमानंदमय अनंतसुख का अनुभव करता है। यही कारण है कि यहां पर आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव ने द्रव्यागम रूप शब्द समय को नमस्कार किया है।
समवाओ पंचण्हं समउ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं।
सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं।।३।।
पांच अस्तिकायों का समवाद-समभावपूर्वक निरूपण अथवा समवाय-समूह, वही समय है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। वही लोक है उससे परे अपरिमित अलोक है।
पांच अस्तिकायों का जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पांच द्रव्यों का जो सम-मध्यस्थ अर्थात् रागद्वेष से रहित वर्ण, पद, वाक्यों का कथन ‘‘समवाय’’ है। यही ‘‘शब्द-समय’’ है तथा मिथ्यादर्शन के उदय का नाश होने पर उन पांचों द्रव्यों का ही जो सम्यव्â अवाय-बोध है वह ‘‘ज्ञान-समय’’ है, पुन: कथन के निमित्त से ज्ञात हुए उन पंचास्तिकाय का ही वस्तुरूप से समवाय समूह वह अर्थ समय है।
सरल शब्दों में पांच द्रव्यों को कहने वाला वर्ण पद वाक्य रूप जो पाठ है उसको द्रव्यागम शब्दसमय कहते हैं पुन: मिथ्यादर्शन के उदय का अभाव होने पर उन्हीं पांचों का संशय, विमोह, विभ्रम रहित यथार्थ अवाय, निश्चय ज्ञान या निर्णय उसे ‘‘ज्ञानसमय’’ कहते हैं। यही भावश्रुत या भावागम कहलाता है। इस ज्ञानसमय से जानने योग्य जो पदार्थों का समूह है वही ‘‘अर्थसमय’’ है।
इस ‘‘अर्थसमय’’ को ही लोक कहते हैं-जहां तक ये जीव, पुद्गल आदि द्रव्य पाये जाते हैं वह ‘‘लोक’’ कहलाता है उससे परे चारों तरफ अनंत ‘‘अलोक’’ है।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पांचों द्रव्य ‘‘अस्तिकाय’’ कहलाते हैं। ये पांचों ही अपने-अपने अस्तित्त्व में नियत हैं-व्यवस्थित हैं, अनन्यमय हैं-अन्य से बने हुए नहीं हैं, अपनी सत्ता से अपृथग्भूत हैं, और प्रदेश में बड़े हैं अर्थात् बहुप्रदेशी हैं। यहां ‘‘अस्तिकाय’’ में दो पद हैं। ‘‘अस्ति’’ और ‘‘काय’’।
सत्ता के दो भेद हैं-एक महासत्ता, दूसरी अवांतर सत्ता अथवा सत्ता सामान्य और सत्ताविशेष।
प्रत्येक वस्तु है-अपने स्वरूप से विद्यमान है, यह सर्व वस्तुओं का अस्तित्त्व ही महासत्ता है। जैसे पुस्तक है, चौकी है, घड़ा है इस प्रकार अलग-अलग वस्तुओं का अस्तित्त्व-विद्यमान रहना यह अवांतर सत्ता है।
ये पांचों ही द्रव्य दोनों प्रकार की सत्ता में स्थित हैं। क्योंकि-
द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च।
तत्र न खल्वेकनयायत्ता देशना किंतु तदुभयायत्ता।।
भगवान् ने दो नय कहे हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक अत: उनके शासन में जो भी कथन होता है वह एक नय के अधीन होता है इसलिए ये पाँचों ही पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कथंचित् अपने से भिन्न होने से अन्यमय भी हैं तथा द्रव्यार्थिक नय से अपने अस्तित्त्व से अभिन्न होने से अनन्यमय ही हैं इस प्रकार ये द्रव्य अपने-अपने ‘अस्तित्त्व’ से हैं अत: ‘अस्ति’ कहलाते हैं।
काय-ये पांचों ही द्रव्य बहुत प्रदेशों वाले होने से ‘काय’ कहलाते हैं। एक प्रदेशी पुद्गल का परमाणु भी शक्ति की अपेक्षा बहुप्रदेशी होने से अर्थात् अणु भी दो अणु, तीन अणु आदि मिलकर स्कंध बनकर बहुत प्रदेशी बन सकता है इसी दृष्टि से परमाणु भी उपचार से बहुप्रदेशी होने से ‘अस्तिकाय’ है किन्तु काल द्रव्य के प्रत्येक अणु-कालाणु पृथव्â-पृथव्â ही रहते हैं, कभी भी मिलकर सघन या एकरूप नहीं होते हैं इसलिए ‘कालद्रव्य’ ‘अस्ति’ तो है किन्तु ‘काय’ न होने से यहां ‘अस्तिकाय’ में उसे नहीं लिया है।
ये पांचों ही अस्तिकाय अपने अनेक गुण और पर्यायों के साथ अस्ति स्वभाव वाले हैं इसीलिए
ये ‘अस्तिकाय’ कहलाते हैं और इन्हीं से यह तीन लोक बना हुआ है।
गुण-अन्वयरूप से रहने वाले गुण कहलाते हैं। जैसे आम्रफल में हरा या पीला वर्ण, खट्टा या मीठी सुगन्ध, ये गुण हैं ये सदा काल उस आम में किसी न किसी रूप में रहेंगे ही।
पर्याय-व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं अर्थात् जो क्रम-क्रम से एक के बाद एक होती है, एक साथ नहीं होती है वे पर्यायें हैं। जैसे आम जब कच्चा था तब छोटा, कड़ा और हरा था, जब वह पक गया तब बड़ा, मुलायम और पीला दिखने लगा अथवा जीव जब मनुष्य है तब देव या तिर्यंच नहीं है।
इन गुण और पर्यायों के स्वभावगुण, स्वभाव पर्याय तथा विभावगुण और विभाव पर्याय ऐसे भेद भी होते हैं अथवा अर्थपर्याय और व्यंजन पर्याय ऐसे भी दो भेद होते हैं।
जीव के केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि स्वभाव गुण हैं और सिद्धरूप अवस्था स्वभाव पर्याय है।
संसारी जीव के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, इन्द्रियसुख आदि विभावगुण हैं और मनुष्य, देव, नारकी, तिर्यंच आदि विभाव पर्याय हैं।
पुद्गल के एक अविभागी परमाणु में जो वर्ण, रस, गंध, स्पर्श है वे स्वभाव गुण हैं और शुद्ध परमाणु रूप से रहना ही स्वभाव पर्याय है।
परमाणु का दो अणु, तीन अणु आदि रूप से परिणमन करके स्कंध बन जाना विभाव पर्याय है और स्कंध में जो नाना प्रकार के वर्ण, रस, स्पर्श आदि दिखते हैं वे विभाव गुण हैं।
जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में ही विभाव गुण पर्यायें होती हैं अन्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों में केवल स्वभाव गुण पर्यायें ही रहती हैं।
अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण कहलाते हैं, ये सर्व द्रव्यों में साधारण रीति से पाये जाते हैं। इस तरह काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्यों का अपने गुण-पर्यायों के साथ सदाकाल ‘अस्तित्त्व’ विद्यमान है और ये अपने-अपने मुख्य प्रदेशों से बहुप्रदेशी हैं, ये पांचों ही द्रव्य अपने-अपने अवयव, अंश या प्रदेशों से सहित होने से ही ‘‘काय’’ के समान बहुत अवयवी हैं इसीलिए इन्हें ‘‘काय’’ संज्ञा दी है अत: ये ‘‘अस्तिकाय’’ कहलाते हैं।
ते चेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा।
गच्छंति दवियभावं परियट्टण लिंग संजुत्ता।।६।।
अण्णोणं पविसंता दिंता ओगास मण्णमण्णस्स।
मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति।।७।।
जो तीन काल के भावों रूप परिणमित होते हैं, नित्य हैं ऐसे वे ही अस्तिकाय परिवर्तन लिंग वाले काल से सहित द्रव्यपने को प्राप्त होते हैं, द्रव्य कहलाते हैं।
वे छहों द्रव्य एक दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं और आपस में एक-दूसरे में मिल जाते हैं फिर भी वे सदा ही अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।
जो तीनों कालों के भावों रूप परिणमित होते हैं तथा नित्य हैं ऐसे वे ही पांच अस्तिकाय, परिवर्तनलिंग वाले काल के साथ द्रव्यत्व को प्राप्त होते हैं अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ये पांच अस्तिकाय और काल ये छहों द्रव्य कहलाते हैं।
ये द्रव्य वास्तव में अपने-अपने सहभावी गुणों से तथा क्रम से होने वाली पर्यायों से अनन्य अभेद एक रूप हैं, गुण और पर्यायों के आधारभूत हैं, इन गुण पर्यायोें को छोड़कर द्रव्य नाम की कोई चीज नहीं है।
पर्यायार्थिक नय से ये पांचों ही अस्तिकाय तीनों कालों की पर्यायों से परिणत होने के कारण क्षणिक हैं-अनित्य हैं-अविनश्वर हैं फिर भी द्रव्यार्थिक नय से नित्य हैं-शाश्वत काल रहते हैं इसलिए द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक इन दोनों नयों की अपेक्षा ये नित्यानित्यात्मक हैं। जैसे-धुआँ अग्नि को बताने के लिए कार्यलिंग-कार्यहेतु है वैसे ही जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों का परिणमना भिन्न-भिन्न पर्यायों से पलटना ही काल द्रव्य का चिन्ह, गमक, ज्ञापक तथा सूचनारूप है अर्थात् द्रव्यों के परिवर्तन में जो कोई भी निमित्त कारण हैं वही परिवर्तन लक्षण वाला कालाणु या द्रव्यकाल है।
शंका-यहां गाथा में ‘‘कालदव्वसंजुत्ता’’-ये पांचों अस्तिकाय काल द्रव्य से सहित द्रव्य हैं ऐसा क्यों नहीं कहा? प्रत्युत ‘परियट्टण लिंगसंजुत्ता’ ऐसा अस्पष्ट वचन क्यों कहा ?
समाधान-यह ग्रन्थ पांच अस्तिकायों का प्रमुखता से वर्णन करने वाला है अत: इस अस्तिकाय के प्रकरण में काल द्रव्य की मुख्यता नहीं है क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में नये से पुरानापन होता है, इस परिणति रूप कार्य हेतु से ही काल द्रव्य का ज्ञान होता है इसीलिए इस बात को सूचित करने के लिए ही काल के लक्षण रूप ‘‘परिवर्तनलिंग’’ इस शब्द से काल द्रव्य को कह दिया है।
इन पांच अस्तिकाय और काल सहित छहों द्रव्यों को जानकर हमारा क्या कर्त्तव्य हो जाता है ?
इन छहों द्रव्यों के मध्य में अनादिकाल से देखे, सुने, अनुभव किए हुए आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि की इच्छा रूप सर्व परद्रव्यों के आलंबन से जो नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, मेरा शुद्ध जीव अस्तिकाय और शुद्धजीव द्रव्य, इन चार संज्ञाओं और सर्व संकल्प-विकल्पों से शून्य है उस अपने शुद्ध जीव का श्रद्धान करना, उसी को जानना और उसी में स्थिर होने रूप चारित्र से परिणत होना यह अभेद रत्नत्रयमयी जो निर्विकल्प समाधि है या परम समताभाव रूप वीतराग भाव है, उस भाव से उत्पन्न हुआ जो वीतराग, सहज, अपूर्व, परमानंद है उस रूप स्वसंवेदन ज्ञान से प्राप्त होने योग्य व अनुभव में आने योग्य अथवा उससे भरपूर, शुद्ध निश्चयनय से अपने ही शरीर के अन्दर विराजमान जो जीव द्रव्य है वही ग्रहण करने योग्य है व अनुभव करने योग्य है। तत्त्वविचार के समय और सामायिक के समय बार-बार ऐसा चिंतवन करना चाहिए। यही इन द्रव्यों के जानने का प्रयोजन है।
ये छहों द्रव्य परस्पर में अत्यन्त मिलते हुए भी अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं-
‘‘ये छहों द्रव्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, परस्पर में एक-दूसरे को अवकाश स्थान देते हैं और परस्पर में एक क्षेत्र में रहने से एक-दूसरे में मिल जाते हैं फिर भी ये सदा काल अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।’’
ये छहों द्रव्य परस्पर में एक दूसरे को अवकाश देते हुए अपने-अपने ठहरने के काल पर्यन्त ठहरते हैं परन्तु उनमें संकर-व्यतिकर दोष नहीं आते हैं।
संकर दोष-एकमेक हो जाना संकर दोष है जैसे दो तरह के गुलाब की कलम को एक में प्रवेश कराकर लगाने पर एक तीसरे ही रंग का संकर गुलाब फूल आ जाता है।
व्यतिकर दोष-एक द्रव्य का विषय दूसरे द्रव्य में चला जाये उसे व्यतिकर दोष कहते हैं। जैसे- जीव का ज्ञान गुण पुद्गल में आ जाए और पुद्गल के रूप, रस आदि गुण जीव में आ जायें।
ये दोनों दोष इन छहोें द्रव्यों में कथमपि नहीं आते हैं। इस गाथा में ‘‘अण्णोण्णं पविसंता’’ वाक्य का अर्थ है-जो क्रियावान् या हलन-चलन करने वाले जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं, ये परस्पर में एक क्षेत्रावगाही होकर अर्थात् दूध और पानी के समान एक जगह रह जाते हैं। जीव के साथ पौद्गलिक कर्म एक क्षेत्र में ही दूध-पानी के समान एकमेक होकर रह रहे हैं फिर भी जीव अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है। पुद्गल भी अपने रूप, रस, गंध, स्पर्श स्वभाव को या अचेतन-जड़ स्वभाव को नहीं छोड़ता है।
गाथा में ‘‘दिंता ओगासमण्णमण्णस्स’’ इस वाक्य का अर्थ है-आये हुए द्रव्यों को अवकाश देना। मुख्य रूप से निष्क्रिय आकाश द्रव्य अपने में जीव-पुद्गलों को स्थान देता है और गौण रूप से जीव पुद्गलों को व पुद्गल जीव को भी अवकाश देते हैं।
गाथा में ‘‘मेलंता वि य णिच्चं’’ वाक्य से यह समझना-ये द्रव्य सदा ही मिलकर रहते हैं। यह वाक्य निष्क्रिय धर्म, अधर्म, आकाश और काल को मुख्य रूप से विवक्षित करता है और गौणरूप से तो सभी द्रव्य एक दूसरे में मिल ही रहे हैं।
तात्पर्य यही है कि जीव और कर्म में व्यवहार नय की अपेक्षा से एकत्व होने पर भी परस्पर में एक दूसरे के स्वरूप को ग्रहण करने की अपेक्षा नहीं है। ये जीव और कर्म अपने-अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते हैं और दूसरे द्रव्यों के स्वरूप को कभी भी ग्रहण नहीं करते हैं।
निश्चयनय से अपने शरीर के अंतर्गत शुद्ध जीव अस्तिकाय नाम वाला जीवद्रव्य ही उपादेय है। अशुभ लेश्या, विषय और कषायों को छोड़कर वीतराग, निर्विकल्प समाधिरूप-निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर उस शुद्ध जीव द्रव्य का ही ध्यान करना चाहिए। तभी उस ध्यान के बल से इस संसारी अशुद्ध आत्मा को शुद्ध-पवित्र बनाया जा सकता है।
प्रश्न-निर्विकल्प ध्यान में वीतराग विशेषण क्यों लगाया ?
उत्तर-बाह्य वस्तुओं में राग-द्वेष के निमित्त से जो हर्ष-विषाद होता है वह जब तक है तब तक समता भावरूप वीतरागता नहीं है। तब तक निर्विकल्प ध्यान भी संभव नहीं है इसीलिए इस ध्यान में वीतराग विशेषण महामुनियों की अपेक्षा से है क्योंकि सरागी सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रम में आर्त-रौद्र ध्यान से सहित है, विषयों में, कषायों में प्रवृत्ति कर रहे हैं, नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों से सहित हैं अत: उनके निर्विकल्प ध्यान नहीं हो सकता है इसी बात को सूचित करने के लिए ध्यान में वीतराग विशेषण दिया गया है।
जब तक हम लोग वीतराग निर्विकल्प अवस्थारूप ध्यान को नहीं प्राप्त कर पाते हैं तब तक हमारा कर्तव्य है कि हम वस्तु के स्वभाव को समझकर उस पर दृढ़ श्रद्धान करें और स्वयं के स्वरूप का ध्यान करने के लिए निरंतर भावना भाते रहें। कभी न कभी हमारे में भी निर्विकल्प ध्यान की योग्यता आएगी ही आएगी, इसमें कोई संदेह नहीं है क्योंकि सतत भाई गई भावना एक न एक दिन अवश्य फलती है।