गुणों को बढ़ाने के कारण आचार्यगण इन व्रतों को गुणव्रत कहते है। ये तीन व्रत अणुव्रतों के उपकार करने वाले है, इसलिए उन्हे गुणव्रत कहते है। दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डव्रत ये तीन गुणव्रत है। दिग्व्रत, अनर्थद्रव्यडव्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत ये तीनों गुणव्रत कहे जाते है।
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार- जो अणुव्रतों में गुणाकार रूप से वृद्धि करे उन्हें पुष्ट करे गुणव्रत कहते है।
दिग्व्रत- पूर्व आदि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि सिद्ध स्थानों की मर्यादा बांधकर जीवन पर्यन्त धर्मकार्य के सिवा उससे बाहर न जान और उसी के भीतर लेनदेन करना दिग्व्रत है। इस व्रत के पालने से ग्रहस्थ मर्यादा के बाहर किसी भी तरह की हिंसा नही करता । इसलिये उस क्षेत्र की अपेक्षा से वह सूक्ष्म पापों से भी बचकर महाव्रती सा हो जाता है। तथा मर्यादा के बाहर व्यापार करने से प्रभूतलाभ होने पर भी व्यापार नही करता है। अत: लोभ की भी कमी होती है।
देशव्रत- जीवन पर्यन्त के लिये किये हुये दिग्व्रत में और भी संकोच करके घड़ी, घंटा, दिन, महीना आदि तक किसी गृह मोहल्ले बाजार आदि तक आना जान रखना देशव्रत हैं इसमें भी उतने समय के लिए श्रावक मर्यादा से बाहर के बाहर क्षेत्र में महाव्रती के तुल्य हो जाता है।
अनर्थदण्डव्रत- जिससे अपना कुछ लाभ या प्रयोजन वो सिद्ध न हो और व्यर्थ ही पाप का संचय होता हो ऐसे कार्पो को अनर्थ दण्ड कहते है। और उनके त्याग को अनर्थदण्ड व्रत कहते है। इसके ५ भेद है। अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिसादान, दुश्रुति ।