इस विजयार्ध पर्वत में ८ योजन ऊँची ५० योजन लम्बी और १२ योजन चौड़ी ऐसी दो गुफायें है। गुफाओं के नाम तमिस्त्र गुफा एवं खण्डप्रपात गुफा है। इन गुफाओं के दिव्य युगल कपाट च्योजन ऊँचे ६ योजन चौड़े हैं। गंगा सिन्धु नदियाँ इन गुफाओें से निकलकर बाहर आकर समुद्र में प्रवेश करती है। इन गुफाओं के दरवाजों को चक्रवर्ती अपने दण्डरत्न से खोलते हैं और गुफाओं के भीतर काकिणी रत्न से प्रकाश करके सेना सहित उत्तर म्लेच्छों मे जाते है। चक्रवर्ती द्वारा इस पर्वत तक इधर के ३ खण्ड जीत लेने से आधी विजय हो जाती है अत: इस पर्वत का विजयार्ध यह नाम सार्थक है ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में भी विजयार्ध पर्वत है।
प्रलयकाल- इस छठे काल में उनंचास दिन कम इक्कीस हजारवर्ष बीत जाने पर जीवों का भयदायक घोर प्रलय काल प्रवृत्त होता है। उस समय महागंभीर एवं भीषण संवर्तक वायु चलती है जो कि सात दिन तक वृक्ष, पर्वत, शिला आदि को चूर्णकर देती है। वृक्ष एवं पर्वतों के भंग होने से मनुष्य एंव तिर्यच्च महादु:ख को प्राप्त करते हैं तथा वस्त्र और स्थान की अभिलाषा करते हुए करूण विलाप करते है।
इस समय पृथक-२ संख्यात व संपूर्ण बहत्तर युगल गंगा-सिन्धु नदियों की वेदी और विजार्ध वन के मध्य में प्रवेश करते हैंं इसके अतिरिक्त देव और विद्याधर दयाई होकर मनुष्य और तिर्यच्चों में से संख्यातों जीवों को उन प्रदेशों में लेजाक सुरक्षित रखते है।
सात प्रकार की वृष्टि- छठे काल के अन्त में मेघो के समूहस सात प्रकार की निकृष्ट वस्तुओं की वर्षा सात-सात दिन तककरते हैं जिनके नाम अत्यन्त शीतल जल क्षार जल विष धुँआ धूलि वङ्का एंव जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य अग्नि ज्वाला । इन सात रूप परिणत हुए पुद्गलों की वर्षा सात-सात दिन तक होने से लगातार उनचास दिन तक चलती है। इस वृष्टि के निम्रित से अवशेष बचे मनुष्य आदि भी नष्ट हो जाते है तथा विष और अग्नि की वृष्टि से दग्ध हुई पृथ्वी एक योजन भाग नीचे तक काल के वश से चूर्ण हो जाती है। इस क्रम से भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिगंत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है। वङ्का और महा अग्नि के बल से आर्यखण्ड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कन्ध स्वरूप को छोड़कर लोकान्त तक पहुँच जाती हैं।
उस समय आर्यखण्ड शेष भूमियों के समान दर्पण तल के सदृश कांति से स्थित धूलि एवं कीचड़ की कलुषता से रहित हो जाता हैं। वहाँ पर उपस्थित (शेष बचे हुए विजयार्ध की गुफा आदि में सुरक्षित) मनुष्य की ऊँचाई एक हाथ आयु सोलह तथा पन्द्रह वर्ष प्रमाण और वीर्य आदि भी तदनुसार ही होते है। आराधना कथा कोष से मालबे में तब एक घटगाँव नामका सम्पप्तिशाली शहर था। इस शहर में एक देविल नाम का एक धनी कुम्हार और एक धर्मिल नामका नाई रहता था। इन दोनो ने मिलकर बाहर के आने वाले यात्रियों को ङ्खहरने के लिए एक धर्मशाला बनवादी। एक दिन देविल ने एक मुनि को लाकर इस धर्मशाला में ठहरा दिया। धर्मिल को जब मालूम हुआ तो उसने मुनि को हाथ पकड़कर बाहर निकाल दिया और वहाँ एक संन्यासी को लाकर ठहरा दिया। सच है जो दुष्ट हैं दुराचारी है पापी है, उन्हें साधुसन्त अच्छे नही लगते, जैसे उल्लू को सूर्य। धर्मिल ने मुनि को निकाल दिया उनका अपमान किया, मुनि ने इसका कुछ बुरा न माना। वे जैसे शान्त थे वैसे ही रहें धर्मशाला से निकलकर वे एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर गये। रात उन्होने वही पूरी की। डाँस मच्छर वगैरह का इन्हे बहुत कष्ट सहना पड़ा । इन्होने सब सहा और बड़ी शांती से सहा। सच है जिनका शरीर से स्तीभर मोह नही उनके लिए तो कष्ट कोई चीज ही नही। सबेरे जब देविल मुनि के दर्शन करने को आय और उन्हे धर्मशाला में न देखकर एक वृक्ष के नीचे बैठे देखा तो उसे धर्मिल की इस दुष्टता पर बड़ा क्रोध आया । धर्मिल का सामना होने पर उसने उसे फटकारा। देविल की फटकार धर्मिल न सह सका और बात बहुत बढ़ गई। यहाँ तक कि परस्पर मारामारी हो गई। दोनों ही परस्पर में लड़कर मर मिटे। कूट भावों से मरकर ये दोनों क्रम से सूअर और व्याघ्र हुए। देविलका का जीव सूअर विन्ध्य पर्वत की गुहा में रहता था। एक दिन कर्मयोग से गप्त और त्रिगुप्ति गुप्त नाम के दो मुनिराज अपने बिहार से पृथिवी को पवित्र करते इसी गुहा में आकर ङ्खहरे । उन्हें देखकर इस सूअर को जातिस्मरण हो गया। इसने उपदेश करते हुए मुनिराज द्वारा धर्म का उपदेश सुन कुछ व्रत ग्रहण किये। व्रत ग्रहण कर यह बहुत संतुष्ट हुआ। इसी समय मनुष्यों की गंध पाकर धर्मिल का जीव व्याघ्र मुनियों को खाने के लिये झपटा हुआ आया। सूअर उसे दूर ही से देखकर गुहा के द्वार पर आकर उट गया। इसलिए कि वह भीतर बैङ्गे हुए मुनियों की रक्षा कर सके। व्याघ्र ने गुहा के भीतर घुसने के लिए सूअर पर बड़ा जोर का आक्रमण किया। सूअर पहले से ही तैयार बैठा था। दोनों के भावों में बड़ा अन्तर था। एक के भाव थक मुनि रक्षा करने के और दूसरे को उनको खजाने के । इसलिए देविल का जीव सूअर तो मुनिरक्षा रूप पवित्र भावों से मरकर सौधर्म स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों का धारी देव हुआ। जिसके शरीर की चमकती हुई कान्ति गाढ़े से गाढ़े अन्धकार को नाश करने वाली है। जिसकी रूप-सुन्दरता लोगों के मनको देखने मात्र से मोह लेती है जो स्वर्गीय दिव्य वस्त्रों और मुकुट, कुण्डल, हार आदि बहुमूल्य आभूषणों को पहरता है, अपनी स्वभाव-सुन्दरतासे जो कल्पवृक्षों को नीचा दिखाता है, जो अणिमादि ऋद्धि-सिद्धियों का धारक हे, अवधिज्ञानी है पुण्य के उदय से जिसे सब दिया सुख प्राप्त है, अनेक सुन्दर-२ देव कन्याएं और देवगण जिसकी सेवा में सदा उपस्थित रहते है, जो महानवैभवशाली है, महासुखी है, स्वर्गो के देवों के द्वारा जिनके चरण पूजे जाते है ऐसे जिन भगवान की जिनप्रतिमाओं की और कृत्रिम तथा अकृत्रिम जिन मन्दिरों की जो सद भक्ति और प्रेम से पूजा करता है, दुर्गति के दु:खो को नाश करने वाले तीर्थों की यात्रा करता है, महामुनियों की भक्ति करता है, और धर्मात्माओं के साथ वात्सल्य भाव रखता है ऐसी उसकी सुखमय स्थिति है जिस प्रकार यह सूअर धम्र के प्रभाव से उक्त प्रकार सुख का भोगने वाला हुआ उसी प्रकार जो और भव्यजन इस पवित्र धर्म का पालन करेगे। वे भी उसके प्रभाव से सब सुख-संपत्ति लाभ करेंगे। देविल तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग गया और धर्मिल ने मुनियों को खाजाना चाहा था, इसलिए वह पाप के फल से मरकर नरक गया। इस प्रकार पुण्य और पाप का फल जानकर भव्यजनों को उचित है कि वे पुण्य के कारण पवित्र जैन धर्म में अपनी बुद्धि को दृढ़ करे।