कुछ क्षण विश्रांति करके राजा जनक निःशंक हो गोपुर में प्रवेश करते हैं। वहाँ जाकर देखते हैं कि चारों तरफ जहाँ-तहाँ पैâले हुए और फूले हुए रंग-बिरंगे पुष्प अपनी मधुर सुगंधि से मन को आकृष्ट कर रहे हैं। सुन्दर-सुन्दर बावड़ियों में स्वच्छ शीतल जल लहरा रहा है और उसमें उतरने की सीढ़ियाँ मणि एवं स्वर्ण से निर्मित हैं। उद्यान में अशोक, आम्र, जामुन आदि के वृक्ष अपने पल्लवों को हिला-हिलाकर और पक्षियों के कलरव शब्दों से मानों उन्हें बुला ही रहे हैं। कुछ आगे और बढ़कर जनक महाराज देखते हैं तो उन्हें एक बहुत ही सुन्दर जिनमंदिर दिखाई देता है। वह मंदिर स्वर्ण के हजारों बड़े-बड़े खम्भों को धारण किये हुए है, मेरु के शिखर के समान जिसकी प्रभा है, जिसकी भूमि हीरे से निर्मित है और जिसमें मोतियों की जाली से सुशोभित रत्नमयी झरोखे बने हुए हैं। इस अदृष्टपूर्व मंदिर को देखकर राजा जनक मन में सोचने लगते हैं-
अहो! इस मायामयी घोड़े ने तो मेरा बहुत ही बड़ा उपकार किया है जो कि मुझे हरण करके यहाँ ऐसे पवित्र स्थान में छोड़ गया है। भला, वह घोड़ा कौन था ? कोई मेरा पूर्वजन्म का मित्र तो नहीं था कि जिसने मुझे ऐसे अनुपम स्थान का दर्शन कराने का उपक्रम रचा हो ? जो भी हो, यह तो मेरा परम सौभाग्य है कि जिससे मुझे इस जिनमंदिर का दर्शन हुआ है। ऐसा सोचते-सोचते महाराजा जनक अन्दर प्रवेश करके विधिवत् तीन प्रदक्षिणा देकर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को पंचांग नमस्कार करते हैं। पुनः अनेक संस्कृत स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति करके निःशंक हो वहीं पर बैठ जाते हैं।
उधर चपलवेग विद्याधर मायामयी घोड़े के रूप को छोड़कर अपने भृत्य के रूप में आकर रथनूपुर के राजा चन्द्रगति को समाचार देता है कि राजन् ! आपकी आज्ञा के अनुसार मिथिलापुर के राजा जनक मेरे द्वारा लाये जाकर उद्यान के जिनमंदिर में बैठे हुए हैं। राजा चन्द्रगति अपने बहुत से सामन्त आदि को साथ में लेकर वहाँ पहुँच जाते हैं। पहले श्री जिनेंद्रदेव की वन्दना करके पुनः राजा जनक से कुशल-क्षेम पूछकर परस्पर में एक दूसरे का परिचय पूछते हैं। अनन्तर परस्पर में विश्वास को प्राप्त होते हुए मधुर वार्तालाप शुरू कर देते हैं। सबसे प्रथम विद्याधरों के राजा चन्द्रगति बोलते हैं-
‘‘अहो! मैं आज बहुत ही पुण्यशाली हूँ जो कि आपका दर्शन हुआ है। हे राजन् ! मैंने बहुत से लोगों के मुख से सुना है कि आपके शुभ लक्षणों वाली सीता नाम की एक सुन्दर कन्या है, सो वह कन्या आप मेरे पुत्र भामंडल के लिए दे दीजिए। आपके साथ संबंध स्थापित कर मैं अपने आपको परम भाग्यशाली समझूँगा।’’
इसके उत्तर में राजा जनक कहते हैं-
‘‘हे विद्याधरराज! यह सब हो सकता था परन्तु मैंने तो वह कन्या राजा दशरथ के पुत्र श्रीरामचन्द्र के लिए देनी निश्चित कर ली है अतः अब तो मैं विवश…….।’’
‘‘ओह!…….आपने रामचन्द्र को देने का निर्णय क्यों लिया है ? उसमें ऐसी क्या विशेषता है ?’’
‘‘मित्र! अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी मिथिला नगरी में अर्धबर्बर देश के म्लेच्छों ने धावा बोल दिया था, वे धूर्त लोग टिड्डी दल के समान हमारे देश को नष्ट-भ्रष्ट करने में लग गये थे। उस समय पूर्व की मित्रता के नाते मैंने अयोध्या के अधिपति श्री दशरथ महाराज के पास सहायता के लिए खबर भेजी थी। वहाँ से उसी क्षण उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण अपनी बहुत सी सेना लेकर मिथिला नगरी आये थे और अपने विशेष पौरुष के बल से उन म्लेच्छों को जीतकर हमें निरापद किया था। उसी उपकार के बदले में मैंने श्रीराम को अपनी पुत्री सीता देना निश्चित कर लिया है।’’
चन्द्रगति विद्याधर नरेश और उनके सामन्त अट्टहासपूर्वक हँसते हुए कहते हैं-
‘‘अहो! म्लेच्छों को जीतने मात्र से ही तुमने उन भूमिगोचरी राजपुत्रों का क्या पराक्रम देखा है ? ये भूमिगोचरी लोग विद्या के माहात्म्य से रहित होते हैं अतः निरन्तर हीन- दीन दिखते हैं। इनकी शूरवीरता और सम्पत्ति का क्या माहात्म्य
है ? अरे जनक! बताओ तो सही, भला तुमने उनमें और पशुओं में क्या अन्तर देखा है ?’’
इत्यादि प्रकार से भूमिगोचरियों की निन्दा सुनकर राजा जनक अपने दोनों कानों को हाथोें से ढक लेते हैं और बोलने लगते हैं-
‘‘हाय, हाय! बड़े कष्ट की बात है कि मैं भूमिगोचरी राजाओं की निंदा वैâसे सुन रहा हूँ। क्या त्रिजगत् में प्रसिद्ध लोक को पवित्र करने वाला ऐसा श्री आदिनाथ भगवान् का वंश आप लोगों के कर्णगोचर नहीं हुआ है ? हे विद्याधरों! बताओ तो सही, क्या पंचकल्याणक के स्वामी तीर्थंकर भगवान् आप विद्याधरों की भूमि में जन्म ले सकते हैं ? क्या चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि महापुरुष तुम्हारे वंश में जन्म लेते हैं ? अहो! जिस अयोध्या आदि पवित्र भूमि में, जिन इक्ष्वाकु आदि वंशों में तीर्थंकरों का जन्म हुआ है तुम लोग उस भूमि की और उनके वंशजों की वैâसे निन्दा कर रहे हो ?
इक्ष्वाकुवंश के राजा अनरण्य की सुमंगला महारानी की कुक्षि से दशरथ का जन्म हुआ है। इस दशरथ महाराजा के चार महादेवियाँ हैं। अपराजिता महादेवी ने ‘पद्मनाभ’ नाम के श्रीराम को जन्म दिया है, सुमित्रा से ‘लक्ष्मण’ नाम के प्रतापशाली पुत्र का जन्म हुआ हैै, वैâकेयी ने ‘भरत’ पुत्र को उत्पन्न किया है और सुप्रभादेवी ने ‘शत्रुघ्न’ नाम के पुत्र को जन्म दिया है। ये चारों ही पुत्र महान् कांतिमान हैं, उस रघुकुल के तिलक हैं। मैं इन महापुरुषों की निन्दा नहीं सुन सकूंगा।’’
इस प्रकार से वार्तालाप के मध्य कुछ समस्या हल न होते देखकर राजा चन्द्रगति धीरे से उठ गये और अनेक विश्वस्त विद्याधरों से विचार-विमर्श करके वापस आकर बैठ गये। पुनः राजा चन्द्रगति बोले-
‘‘राजन् ! अधिक कहने से क्या ? हमारी एक शर्त सुनो। हमारे यहाँ आयुधगृह में देवों के द्वारा सुरक्षित ऐसे दो धनुष रखे हुए हैं। एक का नाम है वङ्काावर्त और दूसरे का सागरावर्त। यदि राम और लक्ष्मण इन धनुषों को डोरी सहित करने में समर्थ हों तब तो मैं उन्हें अधिक शक्तिशाली समझूँगा और वह आपकी सीता को प्राप्त कर सकेगा अन्यथा हम लोग जबरदस्ती आपकी कन्या का अपहरण करके यहाँ ले आयेंगे।’’
‘‘ठीक, ठीक! आपकी शर्त हमें मंजूर है।’’
इतना सुनते ही बहुत से सामन्त और विद्याधर उन दोनों धनुषों को साथ लेकर बहुत से विद्याधरों को साथ लेकर राजा जनक को विमान में बिठाकर मिथिलानगरी में आ गये। शहर के बाहर उनको ठहराकर उनके आतिथ्य सत्कार की व्यवस्था करके राजा जनक महल में पहुँचे। राजमहल में ‘राजा को मायामयी घोड़ा उड़ाकर पता नहीं कहाँ ले गया है ?’ इस कारण से अशांत वातावरण बना हुआ था। महाराजा को देखते ही सबके जी में जी आया। साधारण कुशल समाचार के बाद राजा ने थोड़ा सा भोजन किया और विश्रामकक्ष में चले गये। राजा को चिन्तानिमग्न देख रानी विदेहा ने आन्तरिक स्थिति जाननी चाही तब राजा ने ज्यों की त्यों सारा वृत्तान्त सुना दिया। रानी विदेहा जोर-जोर से रुदन करने लगी और कहने लगी-
‘‘हाय-हाय! मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा पाप किया था कि जो मेरे पुत्र को जन्म होते ही कोई दुष्ट बैरी हर ले गया। तब से इस सीता को देख-देखकर ही हम लोग उस बालक के दुःख को भूले हुए थे कि हाय! अब विधाता को वह भी सहन नहीं हो रहा है जब मेरी कन्या को ये विद्याधर लोग हर ले जायेंगे तब मैं वैâसे जीवित रहूँगी ?…..’’
इसी बीच राजा जनक अपनी भार्या को सांत्वना देकर उठते हैं और मंत्रियों से सलाह कर स्वयंवर मण्डप बनवाकर स्वयंवर की घोषणा करा देते हैं। राजा दशरथ के पास अपना खास व्यक्ति भेजकर सपरिवार उन्हें बुला लेते हैं चूँकि विद्याधरों के द्वारा इन्हें इस कार्य के लिए मात्र बीस दिन ही दिये गये थे।
श्रीरामचन्द्र एवं सीता का विवाह-
स्वयंवरमंडप में एक तरफ उच्चस्थान पर दोनों धनुष रखे हुए हैं और एक तरफ उच्चस्थान पर सात सौ कन्याओं के मध्य सीता सुन्दरी बैठी हुई है। उसके चारों तरफ शूरवीर योद्धा हाथ में तलवार आदि लेकर सुरक्षा में सन्नद्ध हैं। हजारों राजपुत्र सीता को प्राप्त करने की इच्छा से वहाँ आये हुए हैं। एक-एक करके क्रम से उस धनुष को चढ़ाने के लिए वहाँ पहुँचते हैं किन्तु वह धनुष अग्नि के स्फुलिंगे छोड़ रहा है और उसके चारों तरफ भयंकर सर्प पुँâकार रहे हैं। राजपुत्र निकट जाकर उसके तेज से परास्त होकर लौट पड़ते हैं। कोई-कोई तो वहीं पर मूर्च्छित हो पृथ्वी पर लोटने लगते हैं। कोई अपने प्राणों की रक्षा हेतु भागने लगते हैं। श्रीरामचन्द्र गंभीrर मुद्रा से बैठे हुए सभी की नाना चेष्टाओं को देख रहे हैं। अंत में श्री जनक महाराज की दृष्टि जब रामचन्द्र की ओर उठती है कि वे महापुरुष अपने स्थान से उठकर मन्थर गति से धनुष के पास आते हैं। अपने स्वामी को आते हुए देखकर जैसे भृत्य निस्तब्ध हो जाता है अथवा अपने गुरु के सामने जैसे शिष्य विनीत हो जाता है वैसे ही वह धनुष मूल स्वभाव में आ जाता है। उसके रक्षक हजारों देवता मानों स्वामी की प्रतीक्षा में स्थिर हो जाते हैं।
लीलामात्र में श्रीरामचन्द्र उस धनुुष को उठाकर उसे चढ़ा देते हैं। श्रीरामचन्द्र की गर्जना और उस धनुष की टंकार से सारी दिशाएं क्षणभर के लिए बहरी हो जाती हैं। सभा में बैठे हुए लोग तो भंवर में पड़े हुए के समान घूमने लगते हैं। आकाश से ‘साधु-साधु, ठीक-ठीक’ इस प्रकार से देव और विद्याधरों के शब्द गूँज उठते हैं। देवों के द्वारा पुष्पों की वर्षा हो जाती है और व्यंतर लोग नृत्य करने लगते हैं।
उसी क्षण सीता अपने हाथ में सुन्दर माला लेकर मंदगति से वहाँ आ जाती है और श्रीराम के गले में माला पहना कर उन्हीं के पास खड़ी हो जाती है। लज्जा से संकुचित हो रही सीता के साथ श्रीरामचन्द्र वहाँ से आकर अपने आसन पर बैठ जाते हैं।
अनंतर लक्ष्मण उठकर भाई की आज्ञा लेकर द्वितीय सागरावर्त धनुष के पास पहुँचकर उसे चढ़ा देते हैं। तब चन्द्रवर्धन विद्याधर अपनी अठारह कन्याओं को उनके समीप खड़ी कर देते हैं। मंगलवाद्य और नगाड़ों की ध्वनि के साथ सभा विसर्जित हो जाती है।
उधर भरत के मन में विकल्प उठता है कि अहो! देखो, हम दोनों का एक कुल है, एक पिता हैं, पर इन दोनों अग्रजों ने ऐसा आश्चर्य प्राप्त किया और पुण्य की मंदता से मैं ऐसा आश्चर्य प्राप्त नहीं कर सका अथवा व्यर्थ के इस संताप से क्या ? इस असार संसार में सारभूत एक धर्म ही है। इत्यादि रूप से सोचते हुए भरत के मुख की कांति हीनता को देखकर माता वैâकयी ने पुत्र के मन की चेष्टा को जानकर तत्काल ही राजा दशरथ से कहा-‘‘स्वामिन् ! आप शीघ्र ही पुनः स्वयंवर विधि से राजा जनक के भाई कनक की पुत्री से भरत का पाणिग्रहण कर दीजिए।’’
लोकव्यवहार में कुशल दशरथ ने शीघ्र ही अपने मित्र जनक को सूचित किया। द्वितीय दिवस पुनः स्वयंवर विधि से राजा कनक की पुत्री लोकसुन्दरी ने भरत के गले में वरमाला डाल दी। अनंतर बड़े उत्सव के साथ इन तीनों भाइयों की विधिवत विवाह विधि सम्पन्न हुई। पिता जनक चन्द्रवर्धन और कनक ने अपनी पुत्रियों को यथायोग्य शिक्षा देकर हर्ष और विषाद से मुक्त होते हुए सबका अयोध्या के लिए प्रस्थान करा दिया और विद्याधर लोग भी राम, लक्ष्मण के गुणों में आकृष्ट होते हुए रथनूपुर चले गये।
सीता के प्रति अनुरक्त भामण्डल को आर्यखण्ड की ओर जाते समय जातिस्मरण-
कुछ दिन व्यतीत होने के बाद पुनः भामण्डल ने सभी बड़े जनों के समक्ष अपने मित्र से कहा-
‘‘मित्र! आप बड़े दीर्घसूत्री हैं। उस सीता की आशा में डूबते हुए मेरा कितना समय निकल गया है, मुझे सहारा क्यों नहीं दिया जा रहा है ?’’
इस प्रकार के भामंडल के वचनों को सुनकर एक बृहत्केतु नामक विद्याधर बोल उठा-
‘‘अब तक इस सीता संबंधी बात को क्यों छिपाया जा रहा है ? सारा वृतान्त प्रकट कर देना चाहिए कि जिससे कुमार इस विषय में निराश हो जावें।’’
तब सभी ने चन्द्रगति विद्याधर नरेश को आगे करके लड़खड़ाते हुए अक्षरों में सारी विगत घटना सुना दी और बोले-
‘‘कुमार! उन दोनों देवोपनीत धनुषों के चले जाने से अब तो हम लोग बिल्कुल सारहीन निःसार हो गये हैं। इस समय राम-लक्ष्मण के पुण्य की कल्पना कर सकना भी हम लोगों की शक्ति से परे है।’’
इन सारी बातों को सुनकर भामंडल आवेश में उठ खड़ा होता है और बोलता है-
‘‘ठीक है, अब मैें स्वयं राम की शक्ति का परीक्षण करने जा रहा हूूँ।’’ विमान में बैठ कर बहुत से सामंत और सेना को साथ लेकर भामंडल आकाश मार्ग से आर्यखण्ड की ओर जा रहा है। कुछ दूर पहुँच कर आकाश मार्ग से ही उसने पृथ्वीतल पर विदग्ध नाम का एक देश देखा। मन में सोचने लगा ‘यह नगर मैंने पूर्व में भी देखा है’ इतना सोचते ही उसे जातिस्मरण हो गया और वह वहीं मूर्च्छित हो गया। इस स्थिति में सभी विद्याधर उसे तत्क्षण ही पिता के पास वापस ले आये। अनेक शीतोपचार से सचेत होने पर अत्यधिक लज्जा से नम्रित हो मुख नीचा कर विलाप करने लगा। तब चन्द्रगति पुत्र को अपनी गोद में लेकर मस्तक पर हाथ फेरते हुए बोले-
‘‘बेटा! तुम इतने विक्षिप्त क्योें हो रहे हो ?’’ भामंडल ने कहा-
‘‘हे पिताजी! मैं पूर्व जन्म में विदग्धपुर का राजा कुलमंडित था। मैंने किसी समय पिंगल नाम के ब्राह्मण की पत्नी का अपहरण कर लिया था। अनंतर पाप से डरकर एक बार दिगंबर मुनि के समीप अणुव्रत आदि ग्रहण कर लिये। उसके प्रभाव से मरणकर जनक की रानी विदेहा के गर्भ में आ गया, उसी समय उस ब्राह्मणी का जीव भी मरकर विदेहा के गर्भ में आ गया। उधर वह पिंगल आर्तध्यान से तपस्या के द्वारा मरकर महाकाल नाम का असुर हो गया। वही द्वेषवश मुझे जन्मते ही हरण कर ले गया किन्तु कुछ दयारूप परिणाम के होने से उसने मेरे कानों में कुण्डल पहनाकर और पर्णलघ्वी विद्या के बल से मुझे आकाश से छोड़ दिया। मध्य में ही गिरते हुए अपने उद्यान में स्थित आपने मुझे झेल लिया और माता पुष्पवती ने बड़े ही प्यार से मेरा लालन-पालन किया है। ओह………वह सीता मेरी सगी बहन है। नारद ने मुझे चित्रपट दिखाया और उस सीता में आसक्त हो उसे पाने के लिए मैं बेचैन हो उठा। धिक्कार हो इस अज्ञान को…..।’’
कुमार भामंडल के मुख से सारी विस्तृत भवावली सुनकर राजा चन्द्रगति उसी क्षण संसार से विरक्त हो गये। वे भामंडल का राज्याभिषेक करके अयोध्या के उद्यान में स्थित ‘सर्वभूतहित’ मुनिराज के निकट पहुँच गये और मुनिराज से दीक्षा की याचना की। मुनिराज ने भी सभी के विस्तृत भव-भवांतर सुनाये। उस समय रात्रि में ही बंदीजन जोर-जोर से शब्द करने लगे कि-
‘‘राजा जनक का लक्ष्मीशाली पुत्र भामंडल जयवंत हो रहा है।’’
इस उच्चध्वनि को सुनते ही अयोध्या के महल में सोई हुई सीता जाग उठी और विलाप करने लगी-
‘‘हाय! जन्मकाल में ही मेरे भाई का अपहरण हुआ था, वह कहाँ है ?’’
रामचन्द्र ने सीता को सान्त्वना देते हुए कहा-
‘‘हे वैदेहि! शोक छोड़ो, हो सकता है तुम्हारा भाई आज तुम्हें मिल जाये।’’ पुनः सब लोग महावैभव के साथ प्रभात के होने के पहले ही महेन्द्रोदय उद्यान में पहुँच गये। गुरु की वंदना कर यथास्थान बैठ गये। प्रभात होते चन्द्रगति विद्याधर का दीक्षा महोत्सव देखा। पुनः मुनि के द्वारा परिचय को प्राप्त भामण्डल से मिलकर सीता भाई से चिपट कर बहुत ही रोती रही। दशरथ ने तत्क्षण ही मिथिला नगरी आदमी भेजा जो कि विद्या के विमान से जनक को परिवार सहित ले आये। जन्म देने के बाद प्रथम बार पुत्र का मुख देखकर रानी विदेहा पहले तो मूर्च्छा को प्राप्त हो गई पुनः सचेत हो पुत्र को प्राप्त कर एक अद्भुत ही आनन्द को प्राप्त किया। एक महीने तक सब लोग अयोध्या में ठहरे। अनन्तर भामण्डल पिता के साथ मिथिला पहुँचे, वहाँ का राज्य अपने चाचा कनक को देकर अपने माता-पिता को साथ लेकर रथनूपुर आ गये।
अयोध्या के सभी जिनमंदिरों की सजावट देखते ही बनती है चूँकि आषाढ़ शुक्ला अष्टमी से आष्टाह्निक महापर्व आया है। अतः दशरथ महाराज ने महामहिम पूजा की तैयारी की है। उस मंदिर की शोभा तो अनिर्वचनीय है। पंचरंगी रत्नचूर्ण से मंडल पूरा गया है। दशरथ्ा राजा ने आठ दिन का उपवास ले रखा है। तुरही के विशाल शब्दों की ध्वनि से सारी अयोध्या मुखरित हो रही है। राजा दशरथ अनेक बन्धु-बांधवों के साथ जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का महाअभिषेक करके अष्टद्रव्यमय पूजन की सामग्री से महापूजा प्रारंभ कर रहे हैं। सहज सुगंधित खिले हुए पुष्प और स्वर्ण एवं रजत के पुष्प, सामग्री की शोभा बढ़ा रहे हैं। जैसे इन्द्र सपरिवार, नन्दीश्वर द्वीप में आठ दिन लगातार पूजा-विधि सम्पन्न करता है, वैसे ही महाराजा दशरथ सपरिवार आष्टान्हिक पूजा में तत्पर हैं।
आठ दिन के अनन्तर जब रानियाँ घर पहुँच गईं तब राजा दशरथ ने सबके लिए महापवित्र, शांतिकारक गंधोदक भिजवाया। तीन रानियों के पास गंधोदक यथासमय पहुँचा किन्तु छोटी रानी सुप्रभा के पास गंधोदक नहीं पहुँचा। उसे इस बात का इतना दुःख हुआ कि वह मरने के लिए तैयार हो गई और एक नौकर से चुपचाप विष लाकर देने को कहा। मध्याह्नोपरांत राजा दशरथ घर आये उन्होेंने सुप्रभा को शयन कक्ष में उन्मनस्क देख स्थिति समझनी चाही कि इसी बीच में वह नौकर विष लेकर पहुँच गया। राजा ने विष को स्वयं हाथ में लेकर एक तरफ रखा, रानी से उसका कारण ‘गंधोदक न मिलना’ सुनकर उसे समझाने लगे। इसी बीच में वृद्ध कंचुकी गंधोदक लेकर वहाँ पहुँच गया तब रानी ने गंधोदक मस्तक पर धारण कर संतोष व्यक्त किया।
इसी बीच राजा ने कंचुकी से कहा-
‘‘अरे नीच अधम! बता तुुझे यह विलम्ब कहाँ हुआ ?’’
भय से काँपते हुए उस कंचुकी ने महाराज को घुटने टेककर प्रणाम किया पुनः हाथ जोड़कर लड़खड़ाते शब्दों में अपने बुढ़ापे की दुर्दशा का वर्णन करना शुरू किया-
‘‘स्वामिन्! इस बुढ़ापे से मैं अब जल्दी-जल्दी चलने में सर्वथा असमर्थ हूँ। इस लाठी के सहारे बड़े कष्ट से पैर उठाता हूँ। कमर के झुक जाने से चलते-चलते कई बार गिर जाता हूँ, आँखें जवाब दे चुकी हैं, कानों से कम सुनता हूँ। चूँकि यह राजकुल मेरी वंश परम्परा से चला आया है अतः छोड़ने में असमर्थ हो रहा हूूँ, मुझे निकटवर्ती मृत्यु से इतना भय नहीं है कि जितना भय भविष्य में होने वाली आपके चरणों की सेवा के अभाव का है। आपकी सम्माननीय आज्ञा ही मेरे जीवित रहने का कारण है। देव! मेरे इस शरीर को जरा से जर्जरित जानकर मुझ पर क्रोध करना आपको उचित नहीं है। अतः हे धीर! प्रसन्नता धारण करो।’
राजा दशरथ को वैराग्य एवं भरत को दीक्षा हेतु जाते देख वैâकेयी का दशरथ से वरदान माँगना-
कंचुकी के द्वारा बुढ़ापे के वर्णन को सुनते-सुनते राजा दशरथ को एकदम संसार से वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। वे सोचते हैं कि ‘‘यह हमारा वंशपरम्परागत व्रत है कि हमारे धीरवीर वंशज विरक्त हो पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर तपोवन में प्रवेश कर जाते हैं।’’
अनंतर कुछ काल व्यतीत हो जाने पर बड़े भारी संघ से घिरे हुए मनःपर्ययज्ञान के धारी ‘सर्वभूतहित’ नामक आचार्य अयोध्या के महेंद्रोदय उद्यान में पधारे। राजा दशरथ सपरिवार मुनि वंदना को निकल पड़े। गुरु के दर्शन करके उनसे अपने भव-भवांतरों को सुनकर पूर्णतया विरक्त हुए राजा राज दरबार में आये और राम के राज्याभिषेक का विचार मंत्रियों से व्यक्त कर दिया। स्वामी को दीक्षा के सन्मुख देख मंत्रियों में और अन्तःपुर में सर्वत्र शोक का वातावरण छा गया।
पिता को विरक्त देख भरत भी प्रतिबोध को प्राप्त हो साथ ही दीक्षा लेने के लिए सोचने लगा। भरत के चेहरे से उसकी विरक्ति का अभिप्राय समझकर वैâकेयी अत्यर्थ चिंतित हो गई। पुनः वह कुछ सोचकर पति के पास पहुँचकर निवेदन करती है-
‘‘हे नाथ! जब युद्ध के समय मैंने आपकी सहायता की थी उस समय प्रसन्न होकर आपने समस्त राजाओं और पत्नियों के सामने कहा था कि ‘जो तू चाहेगी दूँगा।’ सो हे नाथ! इस समय वह वर मुझे दीजिए।’’
‘‘हे प्रिये! ‘ तू अपना अभिप्राय बता।’ जो तुझे इष्ट हो सो मांग, अभी देता हूँ।’’
कैकेयी पति के वियोग से होने वाले दुःख से दुःखी हो आंसू डालती हुई नीचे मुख करके बोलती है-
‘‘हे नाथ! मेरे पुत्र को राज्य प्रदान कीजिए।’’
तब दशरथ ने कहा-
‘‘इसमें लज्जा की क्या बात है ? तुमने अपनी धरोहर मेरे पास रख छोड़ी थी सो जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा। शोक छोड़ो, आज तुमने मुझे ऋण से मुक्त कर दिया है।’’
उसी समय दशरथ, राम को बुलाकर खिन्न चित्त से कहते हैं-
‘‘हे वत्स! कला की पारगामिनी इस चतुर वैâकेयी ने पहले भयंकर युद्ध में अच्छी तरह मेरे सारथी का काम किया था। उस समय संतुष्ट होकर मैंने सभी के समक्ष इसे वर मांगने के लिए कहा था, सो यह आज अपने पुत्र के लिए राज्य माँग रही है। उस समय प्रतिज्ञा कर यदि इस समय मैं इसके इच्छानुरूप वर नहीं देता हूँ तो भरत दीक्षित हो जावेगा और यह पुत्र के शोक में प्राण छोड़ देगी तथा असत्य व्यवहार से मेरी अपकीर्ति चारों तरफ पैâल जायेगी। साथ ही यह भी मर्यादा नहीं है कि बड़े पुत्र के योग्य होते हुए छोटे पुत्र को राज्य दिया जाये। जब भरत को राज्य दे दिया जायेगा तब क्षत्रिय संबंधी परम तेज को धारण करने वाले तुम लक्ष्मण के साथ कहाँ जाओगे ? यह मैं नहीं जानता हूँ। तुम पंडित हो, अतः बताओ इस दुःखपूर्ण, बहुत बड़ी चिंता के मध्य में स्थित अब मैं क्या करूँ ?’’
प्रसन्नमना राम पिता के चरणों में दृष्टि लगाये हुए विनयपूर्वक निवेदन करते हैं-
‘‘हे पिताजी! आप Dापने सत्यव्रत की रक्षा कीजिए और मेरी चिंता छोड़िये। यदि आपकी अपकीर्ति हो तो मुझे इन्द्र की लक्ष्मी से भी क्या प्रयोजन है ? जो पिता को पवित्र करे अथवा शोक से उनकी रक्षा करे, पुत्र का पुत्रपना यही है।’’
जब पिता पुत्र में ऐसी उत्तम चर्चा चल रही थी इसी बीच भरत दीक्षा के लिए तत्पर हो नीचे उतरने लगे। यह देख लोग हाहाकार करने लगे। पिता ने स्नेह से आर्द्र हो उसे रोक लिया और अपनी गोद में बिठा कर उसके मस्तक पर हाथ फेरते हुए बोले-
‘‘हे पुत्र! तू राज्य का पालन कर, मैं तपोवन को जा रहा हूँ।’’
भरत ने कहा-‘‘पूज्य पिताजी! मैं भी दीक्षा ग्रहण करूँगा।’
‘‘पुत्र! अभी तू नवीन वय से युक्त है, अतः कुछ दिन राज्य सुख का अनुभव कर पुनः दीक्षा लेना। देख! गृहस्थाश्रम में भी धर्म धारण किया जाता है।’’
‘‘हे तात! यदि कर्मों का क्षय घर में ही हो जाता तो आप दीक्षा क्यों ले रहे हैं ? अहो! जो पुत्र को दुःख से तारे और तप की अनुमोदना करे यही तात का तातपना है पुनः आप मुझे इस राज्य में क्यों फँसा रहे हैं ?’’
‘‘हे वत्स! तू धन्य है, तू प्रतिबोध को प्राप्त है, सचमुच में तू उत्तम भव्य है। फिर भी हे धीर! तूने कभी भी मेरे स्नेह को भंग नहीं किया है, तू विनयी मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ है। सुन, एक बार युद्ध में मेरे प्राणों के संशय के समय तेरी माँ के उपकार से प्रसन्न हो मैंने उसे वर दिया था सो उसने आज तेरे लिए राज्य की याचना की है। इन्द्र के समान निष्कंटक राज्य कर, जिससे असत्य के कारण मेरी अपकीर्ति न हो। चूँकि अपत्य अर्थात् पुत्र का अपत्यपना यही है कि जो माता-पिता को शोकरूपी महासागर में नहीं गिरने दे।’’
तदनंतर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए श्री रामचन्द्र ने भरत का हाथ पकड़कर मधुर शब्दों में कहना शुरू किया-
‘‘भाई! देखो, अभी तुम्हारी वय दीक्षा के योग्य नहीं है पुनश्च यह तुम्हारी माता यदि तुम्हारे जैसे पुत्र के रहते हुए मरण को प्राप्त हो तो क्या यह तुम्हारे लिए उचित है ? अहो! पिता के सत्य वचन की रक्षा के लिए हम शरीर को भी छोड़ सकते हैं फिर तुम बुद्धिमान होकर भी लक्ष्मी को क्यों नहीं ग्रहण कर रहे हो ? मैं किसी नदी के किनारे, पर्वत पर, अथवा वन में निवास करूँगा जहाँ कि कोई जान नहीं सकेगा इसलिए तू इच्छानुसार राज्य कर।’’
इतना कहकर रामचन्द्र पिता को नमस्कार कर वहाँ से चले गये। उसी क्षण दशरथ मूर्च्छा को प्राप्त हो गये। उधर रामचन्द्र अपनी माता अपराजिता के पास पहुँचे, उन्हें जैसे-तैसे सान्त्वना देकर सीता के पास पहुँचे। सीता रामचन्द्र के बहुत कुछ समझाने पर भी साथ चलने के लिए ही कटिबद्ध रही तब सीता को साथ ले पुनः पिता के पास आकर उन्हें सान्त्वना देकर अनेकों मंत्रियों, राजाओं से तथा परिवार के अन्य लोगों से आदरपूर्वक पूछकर श्रीरामचन्द्र चल पड़े। मंत्री लोग बहुत से रथ, हाथी, घोड़े आदि लाये थे किन्तु सबकी उपेक्षा कर वे पैदल ही चल पड़े। लक्ष्मण भी एक क्षण के लिए सोचते हैं-
‘‘हाय! यह वैâसा अनर्थ है ? पिताजी ने यह क्या किया ? रामचन्द्र के समान दुर्लभ हृदय तो मुनि के भी जब कभी ही होता होगा। ऐसे महामना रामचन्द्र वन में विचरण करेंगे। क्या मैं आज ही दूसरी सृष्टि रच डालूँ ? क्या बलपूर्वक इन्हें राज्य लक्ष्मी में उत्सुक करूँ ? अथवा इस क्रोध से क्या प्रयोजन ? उचित या अनुचित यह सब पिताजी और बड़े भाई ही जानते हैं। मुझे तो इस समय इनकी सेवा में चल पड़ना ही उचित है।’’
श्रीरामचन्द्र, लक्ष्मण एवं सीता का वनगमन-
बस, इतना सोचकर लक्ष्मण पिता-माता व परिवार की आज्ञा लेकर श्रीरामचन्द्र के साथ चल पड़े।
उस समय का दृश्य बहुत ही करुण था। सीता के साथ राम-लक्ष्मण आगे बढ़े जा रहे हैं। माता-पिता और समस्त परिवार भरत और शत्रुघ्न पुत्रों के साथ धारा प्रवाह अश्रु बरसा रहे हैं। परन्तु राम-लक्ष्मण दृढ़ निश्चयी थे अतः वे सान्त्वना देते हुए बार-बार चरणों में गिरकर जैसे-तैसे माता-पिता आदि को वापस लौटाते हैं और जैसे-तैसे महल से बाहर निकल पाते हैं। उस समय भी बहुत से राजा लोग, मंत्री-अमात्य लोग और पुरवासी उनके साथ ही चलते चले जाते हैं। शहर में नाना तरह की चर्चा होने लगती है सब अपने मकान छोड़-छोड़कर भाग आते हैं-
‘‘अरे माता! यह क्या हो रहा है ? यह सब किसने कर डाला।’’
‘‘हाय, हाय, यह नगरी अभागिन हो गई, अब हम सब भी इन्हीं के साथ चलेंगें।’’
‘‘देखो, देखो, यह सीता वैâसी जा रही है ? अरे पतिव्रता स्त्रियों का यह उदाहरण है।’’
‘‘हाय, हाय , इस नगर के देवता कहाँ चले गये ? यह बड़ा अनुचित हो रहा है।’’
‘‘अरे भाई! भरत तो दीक्षा लेना चाहता था किन्तु राजा दशरथ ने यह क्या कर दिया ?’’
‘‘ओहो! राम-लक्ष्मण को भी यह कौन सी बुद्धि उत्पन्न हुई ?’’
इत्यादि प्रकार से बोलती हुई और अश्रुओं से पृथ्वीतल को सींचती हुई समस्त प्रजा राम-लक्ष्मण के पीछे चल पड़ती है। कोई उनके चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं, कोई पूजा करते हैं, कोई भक्तिवश उनसे वार्तालाप करना चाहते हैं। प्रजा की नाना चेष्टाओं को देखते हुए रामचन्द्र अत्यर्थरूप से उन्हें सम्बोधते हैं और वापस जाने को कहते हैं किन्तु लोग उनकी कुछ भी नहीं सुनकर पागलवत् पीछे-पीछे चलते रहते हैं।
वे दोनों राजपुत्र सीता सहित अरहनाथ के मंदिर में प्रवेश करते हैं। संध्या का समय है। दो दरवाजों के बाद तृतीय दरवाजे पर सबको रोक दिया जाता है। उस समय वहाँ मंदिर में अपराजिता, सुमित्रा आदि माताएं आ जाती हैं। न्ााना प्रकार से विलाप करती हुई पुत्रों से चलने का आग्रह करती हैं पुनः लाचार हो वापस दशरथ के पास पहुँचती हैं और कहती हैं-
‘‘हे वल्लभ! शोकरूपी समुद्र में डूबते हुए इस रघुकुलरूपी जहाज को रोको, लक्ष्मण सहित राम को वापस बुलाओ।’’
‘‘देवियों! यह जगत् मेरे अधीन नहीं है। मेरी इच्छानुसार यदि कार्य होवे तो मैं तो यही चाहता हॅूं कि समस्त प्राणी सदा ही सुखी रहें, किसी को किंचित् मात्र भी दुःख न हो किन्तु यह जगत तो कर्मों के अधीन है, बाँधव आदि इष्ट पदार्थों से कभी भी किसी को तृप्ति न हुई है और न होगी।….आप लोग पुत्रवाली हो इसलिए अपने पुत्रों को लौटा लो। मैं तो राज्य का अधिकार छोड़ चुका हूँ और संसार के भय से भीत हूूँ अतः मुनि व्रत धारण करूँगा।’’
अर्द्धरात्रि के समय हाथ में दीपक को लेकर लक्ष्मण और सीता सहित रामचन्द्र मंदिर के बाहर निकलकर चल पड़े। जब प्रातः सभी सामन्त व पुरवासी लोगों ने देखा कि रामचन्द्र धोखा देकर चले गये हैं तो वे पुनः दौड़-दौड़कर उनके निकट पहुँच जाते हैं और भावपूर्वक पुनः-पुनः प्रणाम करके उनके साथ-साथ चलने की इच्छा व्यक्त करते हैं। राम-लक्ष्मण धीरे-धीरे परियात्रा नामक वनी में पहुँचते हैं। वहाँ शर्वरी नाम की नदी थी उसी के तट पर बैठकर रामचन्द्र कुछ लोगों को तो वापस लौटा देते हैं और कुछ लोग बहुत भारी प्रयत्न से भी नहीं लौटते हैं। तब रामचन्द्र कहते हैं-
‘‘बन्धुओं! हम लोगों के साथ तुम्हारा इतना ही समागम था। अब हमारे और तुम्हारे बीच यह नदी सीमा बन गई है। इसलिए अब तुम सभी लोग लौट जाओ। पिताजी ने तुम सबके लिए भरत को राजा बनाया है सो तुम सब निर्भय होकर उसी की शरण में रहो।’’
इतना कहकर उन सबकी करुण प्रार्थना की सर्वथा उपेक्षा करने वाले रामचन्द्र सीता को लेकर नदी पार कर जाते हैं। सामंत, राजागण और प्रजागण रोते हुए इधर-उधर घूमने लगते हैं पुनः उस वन में एक मंदिर में पहुँचते हैं। वहाँ पर महामुनि के दर्शन करके विरक्त हो दिगम्बर मुनि बन जाते हैं कुछ लोग अणुव्रती श्रावक बन जाते हैं और कुछ लोग सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर रोते-बिलखते वापस आ जाते हैं।
राजा दशरथ भरत का राज्याभिषेक करके महेंद्रोदय उद्यान में पहुँचते हैं और बहत्तर राजाओं के साथ सर्वभूतहित गुरु के पास दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। उत्तम संहनन से युक्त होने से गुरु की आज्ञा लेकर एकाकी विहार करने लगते हैं चूँकि वे जिनकल्पी हैं। यद्यपि मुनिराज दशरथ सदा ही शुभ ध्यान की इच्छा रखते हैं फिर भी कदाचित्- क्वचित् उनका मन पुत्रशोक के कारण कलुषित हो जाता है तब वे योगारूढ़ हो संसार की स्थिति का विचार करके मन को शांत कर लेते हैं।
इधर पति और पुत्र के वियोग से दुःखी हुई अपराजिता और सुमित्रा के अश्रुओं की अविरल धारा को देखकर वैâकेयी अतीव दुःखी होती है, पश्चात्ताप करती है और भरत को समझाकर सभी सामंतों को साथ लेकर अपराजिता आदि के साथ रामचन्द्र के पास पहुँचकर पुनः-पुनः क्षमायाचना करते हुए उन्हें वापस चलने का आग्रह करती है-
‘‘हे पुत्रों! मेरे द्वारा जो भी गलती हुई है क्षमा करो और चलो! ये तुम्हारी मातायें शोक में पागल हो रही हैं, तुम लोग इतने निष्ठुर क्यों हो रहे हो ?’’
भरत निवेदन करते हैं-
‘‘हे नाथ! आपने राज्य देकर मेरी यह क्या विडम्बना की है ? जो हुआ, सो हुआ, अब भी स्थिति को संभालो।’’
इत्यादि प्रकार से अनुनय-विनय करने पर भी श्री रामचन्द्र कहते हैं-
‘‘भाई! क्षत्रिय पुत्र एक बार जो निश्चय कर लेते हैं उसे अन्यथा नहीं करते हैं अतः तुम सब शोक छोड़ो और सुखपूर्वक प्रजा का पालन करो। यदि तुम समझते हो कि यह अनुचित है सो अनुचित नहीं है चूँकि मैं स्वयं तुम्हें राज्याधिकार दे रहा हूँ।’’ ऐसा कहते हुए पुनरपि तमाम राजाओं के समक्ष स्वयं श्री रामचन्द्र उसी वन में भरत का राज्याभिषेक करके अनेकों मधुर वचनों से समझा-बुझाकर सभी को वापस भेज देते हैं।
भरत वापस अयोध्या आकर जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्र भगवान की महान पूजा करते हैं पुनः ‘द्युति’ नाम के आचार्य के निकट पहुँचकर उनकी वंदना करके यह प्रतिज्ञा करते हैं कि ‘‘मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण कर लूँगा। अनन्तर महामुनि भरत को समझाते हैं-
‘‘हे भरत! जब तक तुम घर में हो तब तक गृहस्थ के धर्म का पालन करो क्योंकि यह गृहस्थ धर्म मुनि धर्म का छोटा भाई है।’’ पुनः उस धर्म का विस्तार से वर्णन करते हैं। भरत महाराज गृहस्थ धर्म को विशेष रीति से पालने हेतु स्त्रियों के बीच में रहकर भी जल से भिन्न कमल के सदृश भोगों से अनासक्त रहते हुए मुनिव्रत की भावना भाते रहते हैं।
यत्र-तत्र विचरण करते हुए श्रीरामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण के साथ दशांगपुर नगर के समीप पहुँचते हैं। समीप के उद्यान में एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। ऊजड़ होते हुए गाँव को देखकर लक्ष्मण ने पता लगाया और श्री रामचन्द्र से निवेदन किया।
‘‘देव! इस नगर के राजा वङ्काकर्ण ने यह प्रतिज्ञा ली हुई है कि मैं जिनेन्द्रदेव और निर्ग्रन्थ गुरु के सिवाय किसी को नमस्कार नहीं करूँगा, सो उसने अपने अंगूठे में पहनी हुई अंगूठी में मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान कर रखी है। जब वह अपने स्वामी सिंहोदर की सभा में जाता था तब उस प्रतिमा को लक्ष्य कर नमस्कार करता था। िकसी ने यह भेद सिंहोदर महाराज से कह दिया तब उसने इस सम्यग्दृष्टि के राज्य पर चढ़ाई करके चारों तरफ से इसे घेर लिया। अब यह यह बेचारा वङ्काकर्ण पूर्ण संकट के मध्य स्थित है।’’
पुनः रामचन्द्र की आज्ञा पाकर लक्ष्मण सिंहोदर की सेना को नष्ट-भ्रष्ट कर सिंहोदर को बाँध लाते हैं। रामचन्द्र वङ्काकर्ण को भी बुला लेते हैंं, सिंहोदर द्वेष को छोड़कर जैनधर्म का कट्टर श्रद्धालु हो जाता है। उस समय वङ्काकर्ण, सिंहोदर आदि राजागण लक्ष्मण की तीन सौ कन्याओं के साथ विवाह विधि करना चाहते हैं किन्तु लक्ष्मण कहते हैं-
‘‘मैं जब तक अपने बाहुबल से अर्जित स्थान प्राप्त नहीं कर लूँ तब तक स्त्रियों को साथ नहीं रखूँगा।’’
लक्ष्मण एवं कल्याणमाला का विवाह-
कुछ दिन बाद ये लोग अन्यत्र किसी सुन्दर वन में पहुँचते हैं। लक्ष्मण जल हेतु पास के सरोवर पर पहुँचते हैं। उधर एक राजकुमार जलक्रीड़ा के लिए वहाँ आया था सो उन्हें देखकर अपने तम्बू में बुला लेता है तथा वन में विराजे हुए रामचन्द्र और सीता को अपने स्थान पर बुलाकर उन्हें स्नान-भोजन आदि से संतृप्त कर आप एकांत में जाकर अपने स्त्रीरूप को प्रकट कर लेता है। उस समय रामचन्द्र पूछते हैं-
‘‘हे कन्ये! तू कौन है जो कि नाना वेष को धारण कर रही है ?’’ वह कन्या कहती है-
‘हे देव! इस नगर का स्वामी बालिखिल्य है। उसे म्लेच्छ राजा ने जीतकर बंदी बना लिया है। उनके स्वामी सिंहोदर भी जब उन राजा को नहीं छुड़ा सके तब उन्होंने कहा कि इसकी गर्भवती रानी के यदि पुत्र उत्पन्न होगा तो वह इस राज्य का अधिकारी होगा। कुछ पाप के उदय से मैं पुत्री पैदा हुई तब मंत्री ने राजा से पुत्र जन्म की ही सूचना करके मुझे भीतर ही भीतर बड़ा किया है। मेरा नाम कल्याणमाला रखा है। माता और मंत्री के सिवाय ‘मैं पुत्री हूँ’ इस रहस्य को कोई नहीं जानता है। मेरे पिता के बंदी होने से मेरी माता शोक से सूखकर दुबली होती चली जा रही है।’’
इतना बोलकर कन्या खूब जोर से रोने लगी। सीता ने उसके मस्तक पर हाथ फेरकर सान्त्वना दी और रामचन्द्र- लक्ष्मण ने कहा-
‘‘भदे्र! तूने बहुत अच्छा किया है, तू अभी उसी वेष में रह, अति शीघ्र ही अपने पिता को बन्धन मुक्त देखेगी।’’
पुनः रात्रि में ये लोग उस तम्बू से चुपचाप निकल कर चले जाते हैं। कुछ दूर पहुँचकर भीलों से इनका भयंकर युद्ध होता है। भीलों का राजा कोकनन्द इन दोनों के रूप को देखकर इनका परमभक्त हो इन्हें आत्म समर्पण कर देता है। उस समय राम कहते हैं-
‘‘ हे भद्र! तू अब शीघ्र ही बालिखिल्य राजा को छोड़ दे।’’
रामचन्द्र की आज्ञानुसार वह उन्हें बंधन मुक्त करके इतने दिनों तक हड़पी गयी उस राज्य की सारी सम्पत्ति भी उन्हें वापस कर देता है। भविष्य में इस कल्याणमाला का विवाह लक्ष्मण के साथ हो जाता है।
कैसे बची रामपुर नगरी-
आगे चलते-चलते एक दिन प्यास से व्याकुल हुई सीता के साथ ये लोग एक ब्राह्मण के आँगन में ठहर जाते हैं। ब्राह्मणी बहुत ही आदर से ठण्डा जल पिलाती है। कुछ क्षण बाद कपिल ब्राह्मण घर आकर इन लोगों को अपमानित करने लगता है। उस समय लक्ष्मण क्रोध से युक्त हो उसकी टाँग पकड़कर उसे आकाश में घुमाकर जमीन पर पटकने को तैयार होते हैं किन्तु सीता के मना करने पर वे उसे जीवित छोड़कर वापस वन की तरफ चले आते हैं। इधर बहुत तेज बारिश शुरू हो जाती है और ये तीनों लोग भीगते हुए एक वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं। उस वटवृक्ष पर रहने वाला इभकर्ण यक्ष अपने स्वामी को सूचना देता है तब ‘पूतन’ नाम का यक्षराज स्वयं वहाँ आकर इन्हें बलभद्र और नारायण जानकर उनके पुण्य के माहात्म्य से एक सुन्दर नगरी की रचना कर देता है और उसका ‘रामपुर’ यह नाम प्रसिद्ध हो जाता है। जब चारों तरफ एक चर्चा पैâल जाती है कि महाराज रामचन्द्र अर्हंत धर्मानुयायी को मनोवाँछित धन देते हैं। तब वह कपिल ब्राह्मण अपनी ब्राह्मणी के साथ गुरु के पास जैनधर्म ग्रहण कर महाराजा रामचन्द्र के दरबार में प्रवेश करता है किन्तु लक्ष्मण को देखते ही वह घबड़ाकर भागने लगता है। उस समय रामचन्द्र उससे कहते हैं-
‘‘डरो मत, डरो मत, इधर आवो।’’
तब वह जैसे-तैसे साहस बटोर कर उनकी स्तुति करके अपनी पूर्व की गलती पर अतीव पश्चात्ताप व्यक्त करता है। रामचन्द्र उसे मालामाल कर देते हैंं। वह घर में आकर राजा जैसे भोगों को भोगता हुआ काल यापन करता है किन्तु उसके हृदय में यह शल्य चुभती रहती है कि मैंने घर में आये हुए इन देवों का अपमान किया था। अंत में वह इस शल्य से निकलने का उपाय ऐसी जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है।
वनमाला एवं जितपद्मा से लक्ष्मण का पाणिग्रहण-
कुछ दिन बाद उस रामपुरी से निकलकर ये लोग वैजयन्तपुर के वन में पहुँच जाते हैं। वहाँ रात्रि में गले में फाँसी लगाकर मरने के लिए तैयार हुई वनमाला की लक्ष्मण रक्षा करके उसका पाणिग्रहण स्वीकार करते हैं।
किसी समय ऐसा समाचार मिलता है कि नंद्यावर्त का राजा अतिवीर्य भरत के राज्य पर चढ़ाई करने वाला है, तब रामचन्द्र एकान्त में मंत्रणा करके सीता को एक मंदिर में आर्यिका के समीप छोड़कर आप दोनों भाई सुन्दर नर्तकी का रूप धारण कर अतिवीर्य की सभा में पहुँचकर खूब सुन्दर नृत्य करते हैं। पुनः भरत के गुणों का बखान करके सभा में क्षोभ उत्पन्न कर अतिवीर्य को बाँधकर वापस मंदिर में सीता के पास आ जाते हैं। राम, लक्ष्मण सीता के साथ वहाँ पर आर्यिका वरधर्मा की पूजा करते हैं। उस काल में अतिवीर्य विरक्त हो श्रुतधर मुनिराज के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है।
जब भरत को यह समाचार मिलता है कि दो नर्तकियों ने अतिवीर्य को पराजित कर दिया है कि जिससे वह दीक्षित हो गया है तब उन्हें महान् आश्चर्य होता है कि आखिरकार यह कार्य किसने किया है ? पुनः वे अतिवीर्य मुनि के पास जाकर उन्हें नमस्कार कर क्षमायाचना करते हैं।
कुछ दिन बाद ये क्षेमांजलिपुर में पहुँचकर ठहर जाते हैंं वहाँ पर जितपद्मा के पिता राजा शत्रुंदम की शर्त को सुनते हैं कि ‘जो महाभाग मेरे द्वारा छोड़ी गई शक्तियों को झेलने में समर्थ होगा, वही मेरी पुत्री जितपद्मा को वरेगा।’ लक्ष्मण को इस बात का पता लगते ही शत्रुंदम की सभा में पहुँचकर बिना नमस्कार किये ही गर्जना करते हैं कि यदि तुझमें कुछ साहस है, तो अपनी शक्तियों को छोड़। राजा शत्रुंदम शक्ति नायक अस्त्रों को छोड़ता है और लक्ष्मण एक नहीं पाँच-पाँच शक्तियों को लीलामात्र में झेल लेते हैं।
जितपद्मा यद्यपि पुरुषद्वेषिणी थी फिर भी वहॉँ आकर शीघ्र ही वह लक्ष्मण के गले में वरमाला डाल देती है। वहाँ क्षेमांजलिपुर में कुछ दिन रहकर ये लोग आगे बढ़ते हुए वंशस्थल नगर के समीप आ जाते हैं।
गाँव के बाहर उद्यान में ठहरे हुए रामचन्द्र देख रहे हैं कि शहर के लोग जल्दी-जल्दी बाहर भागे जा रहे हैं। तब एक मनुष्य से रामचन्द्र पूछते हैं-
‘‘हे भद्र! आप सभी लोग किस कारण यहाँ से भागे जा रहे हो ?’’
उसने कहा-
‘‘देव! इस पर्वत के शिखर पर रात्रि में बहुत ही भयंकर शब्द होता है कि जिसे सभी लोग श्रवण कर सहन करने में समर्थ नहीं हैं। आज तीसरा दिन है उस भयंकर शब्द से ऐसा लगता है कि मानों पृथ्वी हिल रही है। लोगों के कान बहरे हो जाते हैं। अतः सभी लोग शाम को यहाँ से भागकर पास के एक गाँव में ठहर जाते हैं और प्रातः होते ही वापस आ जाते हैं।’’
यह सुनकर सीता ने कहा-
‘‘स्वामिन्! जहाँ सब लोग जा रहे हैं अपन भी वहीं चलें। पुनः प्रातः वापस यहाँ आ जायेंगे।’’
तब रामचन्द्र ने हंसकर कहा-
‘‘देवि! यदि तुम्हें भय लगता है तो तुम इन लोगों के साथ ही वहाँ चली जाओ और सुबह यहाँ आकर हम दोनों को ढूँढ लेना। इस पर्वत पर यह भयंकर शब्द किसका है ? सो हम लोग तो अवश्य ही देखेंगे। ये दीन लोग बेचारे बाल-बच्चे सहित हैं। इनकी
आखिर इस भय से रक्षा कौन करेगा ?’’
सीता यह सुनकर काँपती हुई आवाज में बोलती है-
‘‘हमेशा आप लोगों की हठ केकड़े की पकड़ के समान विलक्षण ही है उसे दूर करने के लिए भला कौन समर्थ है ?’’
वह पुनः श्रीराम के पीछे-पीछे चलने लगती है। अतीव थकान के बाद ऊपर चढ़कर ये लोग चारों तरफ दृष्टिपात करते हैं तो वहाँ क्या देखते हैं कि दो मुनिराज उत्तम ध्यान में आरूढ़ हैं। उनको देखते ही इन लोगों की थकान समाप्त हो जाती है और हर्ष से विभोर हो निकट पहुँचते हैं। उस समय मुनियों के शरीर में अनेक सर्प और बिच्छू लिपटे हुए थे जो अति भयंकर दिख रहे थे। उन्हें देखकर रामचन्द्र और लक्ष्मण जैसे-तैसे उन जन्तुओं को अपने धनुष के अग्रभाग से दूर करते हैं किन्तु पुनः पुनः वे जन्तु वहाँ आ जाते हैं।
अनन्तर भक्ति से भरी सीता निर्झर के जल से उन मुनियों के चरणों का प्रक्षालन करती है, गन्ध का लेपन करती है। पुनः लक्ष्मण के द्वारा लाकर दिये गये सुगंधित पुष्पों से उनके चरणों की पूजा करती है। पश्चात् अंजलि जोड़कर तीनों जन खूब स्तुति करते हैं। रामचन्द्र वीणा बजाते हैं और सीता भक्ति में विभोर हो सुन्दर नृत्य करती है।
धीरे-धीरे सूर्य अस्त हो जाता है और चारों तरफ अंधकार अपना साम्राज्य पैâला लेता है। उसी समय ऐसा विचित्र शब्द सुनाई देता है कि मानों यह आकाश ही भेदन कर डालेगा। रुण्ड-मुण्ड विकराल रूप दिखाने लगते हैं। डाकिनी नाचने लगती हैं। राक्षस, भूत, पिशाचों का अट्टहास होने लगता है। सीता घबड़ाकर रामचन्द्र से चिपट जाती है तब रामचन्द्र बोलते हैं-
‘‘हे देवि! हे शुभमानसे! डरो मत, सर्व प्रकार के भय को दूर करने वाले इन मुनियों के चरणों का आश्रय लेकर बैठ जाओ।’’
इतना कहकर रामचन्द्र सीता को मुनि के चरणों के समीप बिठाकर स्वयं लक्ष्मण के साथ धनुष को तान कर खड़े हो जाते हैं। इन दोनों के धनुष की टंकार से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों आकाश से वङ्का ही गिर रहे हों। तदनन्तर ‘ये बलभद्र और नारायण हैं’ ऐसा जानकर वह अग्निप्रभ नाम का देव घबड़ा कर भाग जाता है। उन ज्योतिषी देव के जाते ही सब चेष्टाएं तत्क्षण ही विलीन हो जाती हैं।
उसी क्षण मुनिराज क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर घातिया कर्मों का नाश कर देते हैं और दोनों को एक साथ ही केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। समय मात्र में ही चतुर्निकाय देव अपने वाहनों पर सवार हो वहाँ एकत्रित हो जाते हैंं। दोनों मुनि गंधकुटी में विराजमान हो जाते हैं। उस समय वहाँ पर रात दिन का भेद समाप्त हो जाता है। बारह सभा में सब यथास्थान बैठ जाते हैं।
केवली भगवान की दिव्यध्वनि द्वारा देशभूषण-कुलभूषण मुनि के दीक्षा लेने का वृत्तान्त-
इन्द्रादि लोग केवलज्ञान महोत्सव मनाकर भगवान् की दिव्यध्वनि को श्रवण करते हुए अपने-अपने कोठे में बैठ जाते हैं। राम-लक्ष्मण भी सीता के साथ केवली भगवान् की पूजा करके मनुष्य के कोठे में जा बैठते हैंं। श्री रामचन्द्र प्रश्न करते हैं-
‘‘प्रभो! इस देव ने आप पर अथवा अपने पर ही यह उपसर्ग क्यों किया है ?’’ केवली भगवान् की दिव्यध्वनि खिरती है-
‘‘पद्मिनीनगर के राजा विजयपर्वत का एक अमृतस्वर नाम का दूत था उसकी उपयोगा नाम की भार्या थी और उदित और मुदित नाम के दो पुत्र थे। अमृतस्वर का एक वसुभूति नाम का मित्र था, जो उपयोगा के साथ गुप्त रूप से व्यभिचार कर्म करता था। एक दिन उपयोगा की प्रेरणा से उसने अमृतस्वर को मार डाला। पुत्रों को विदित होने से पितृघाती वसुभूति को इन दोनों ने भी जान से मार दिया। कुछ दिन बाद उदित और मुदित दोनों भाई दीक्षा लेकर मुनि हो गये और कई भवों के बाद ये सिद्धार्थ नगर के राजा क्षेमंकर की विमला देवी रानी के पुत्र हो गये। इनका देशभूषण और कुलभूषण ये नाम रखा गया। सागरसेन नामक महाविद्वान के पास ये दोनों विद्याध्ययन करने लगे और उस विद्याध्ययन में ये इतने तन्मय हुए कि इन्हें अपने घर का ही कुछ पता नहीं रहा। विद्याध्ययन के अनन्तर विवाह योग्य देखकर पिता ने राजकन्यायें बुलाई हैं ऐसा इन्हें विदित हुआ। दोनों भाई उस समय नगर की शोभा देखते हुए बाहर जा रहे थे कि अकस्मात् उनकी दृष्टि ऊँचे महल के झरोखे में बैठी हुई एक कन्या पर पड़ी। दोनों ही भाइयों ने उस कन्या के लिए अपने-अपने मन में एक-दूसरे भाई के वध करने का विचार बना लिया। उसी समय बंदी के मुख से यह शब्द निकला कि-‘‘राजा क्षेमंकर और महारानी विमला सदा जयवन्त रहें कि जिनके ये देवों के समान दोनों पुत्र हैं तथा झरोखे में बैठी हुई यह कमलोत्सवा कन्या भी धन्य है कि जिसके ये दोनों भाई हैं।’’
बंदी के मुख से ऐसा सुनकर ‘अरे! यह हमारी बहन है’ ऐसा सोचकर उसी क्षण दोनों भाई परम वैराग्य को प्राप्त हो गये।
‘‘अहो! हम लोगों के द्वारा इस भारी पाप को धिक्कार हो, धिक्कार हो, धिक्कार हो। अहो! मोह की दारुणता तो देखो कि जिससे हमने बहन की ही इच्छा की। हम लोग तो प्रमाद से ऐसा विचार मन में आ जाने से ही दुःखी हो रहे हैं। पुनः जो जानबूझ कर ऐसा पाप करते होंगे उन्हें क्या कहना चाहिए ?’’
इत्यादि रूप से सोचते हुए दोनों भाई एक-दूसरे से अपने मन की बात कहकर दीक्षा के लिए तैयार हो गये। माता-पिता आदि के अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी ये दीक्षित हो नाना देशों में विहार कर यहाँ आये और प्रतिमायोग में स्थित हो गये। जो वह हमारे पिता को मारने वाला वसुभूति था वह अनेक पर्यायों में भ्रमण कर एक बार अनुंधर नाम का तापसी हो गया और मिथ्या तप के प्रभाव से ज्योतिषी देवों में अग्निप्रभ देव हो गया। एक समय इसने अनन्तवीर्य केवली के मुख से यह सुना कि मुनिसुव्रत भगवान के तीर्थ में देशभूषण कूलभुषण केवली होंगे। सो यहाँ हम दोनों को देखकर इसने सोचा कि मैं ‘अनन्तवीर्य केवली’ के वचनों को मिथ्या कर दूूँ।’ इस भाव से तथा पूर्व के वैर के निमित्त से इसने हम दोनों पर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। पुनः तुम्हें ‘बलभद्र’ समझ भयभीत हो तिरोहित हो गया है।
श्री रामचन्द्र के तद्भव मोक्षगामी होने का वर्णन-
अनन्तर दिव्यध्वनि से तमाम लोग धर्मामृत पीकर तृप्त हुए। राम ने यह सुना कि मैं इसी भव से मोक्ष प्राप्त करूँगा। रामचन्द्र को चरम शरीरी जान समस्त राजागण जयध्वनि के साथ उनकी स्तुति कर उन्हें नमस्कार करते हैं। वंशस्थल नगर के राजा सुरप्रभ राम से अपने नगर में चलने के लिए बहुत कुछ आग्रह करते हैं किन्तु वे स्वीकार न कर उसी पर्वत पर निवास करते हैं। तब राजा सुरप्रभ वहीं पर तमाम ध्वजा, तोरण आदि लगाकर भूमि को अतिशय रम्य कर देते हैं और तो क्या उस समय श्रीराम जहाँ-जहाँ चरण रखते हैं, वहाँ-वहाँ पृथ्वी तल पर बड़े-बड़े कमल रख दिये जाते हैं। जहाँ-तहाँ मणियों और सुवर्ण से चित्रित अतिशय सुखद स्पर्श वाले आसन और स्थान बनाये गये हैं। भोजनशाला आदि की उत्तम व्यवस्था की गयी है।
गौतम स्वामी कहते हैं कि-
‘‘हे राजन् ! जगत के चन्द्रस्वरूप रामचन्द्र ने उस पर्वत पर भगवान् जिनेन्द्रदेव की हजारों प्रतिमाएं बनवाई थीं। जिनमें सदा महामहोत्सव होते रहते थे। ऐसे राम के बनवाये हुए जिनमंदिरों की पंक्तियाँ उस पर्वत पर जहाँ-तहाँ सुशोभित हो रही थीं। उन मंदिरों में सर्व लोगों द्वारा नमस्कृत पंचवर्ण की जिनप्रतिमाएं अतिशय शोभायमान हो रही थीं।’’
अनन्तर एक दिन रामचन्द्र लक्ष्मण से कहते हैं-
‘‘अब आगे क्या करना है ? इस उत्तम पर्वत पर सुख से बहुत समय व्यतीत किया है, जिनमंदिरों के निर्माण से उज्ज्वल कीर्ति प्राप्त की है। हे भाई! देखो, ये राजा उत्तम-उत्तम सेवा के वशीभूत होकर यदि यहीं रहते हैं तो अपना संकल्पित कार्य नष्ट होता है। यद्यपि इन भोगों से हमें कोई प्रयोजन नहीं है तो भी, ये भोग हमें क्षण भर के लिए नहीं छोड़ते हैं। यहाँ रहते हुए हमारे जो भी दिन व्यतीत हो गये उनका फिर से आगमन नहीं होगा। हे लक्ष्मण! सुनते हैं कर्णरवा नदी के उस पार दण्डक वन है जहाँ भूमिगोचरियों का पहुँचना प्रायः कठिन है। अपन वहीं चलें, देशों से रहित उस वन में भरत की आज्ञा का प्रवेश नहीं है इसलिए वहाँ अपना घर बनायेंगें और शोक से व्याकुल हुई अपनी माताओं को वहीं ले आयेंगे।’’
ऐसा सुनकर लक्ष्मण ने कहा-
‘‘जो आज्ञा!’’ उस समय वंशस्थल का राजा बहुत दूर तक उन दोनों को छोड़ने आता है पुनः शोकाकुल हो वापस चला जाता है। ये लोग निर्मोह भाव से आगे बढ़ते जा रहे हैं।
आकाशमार्ग से आते हुए सुगुप्ति और गुप्ति नामक दो मुनिराजों का पड़गाहन करके श्रीरामचन्द्र सीता के साथ भक्तिपूर्वक आहारदान दे रहे हैं, सामने वृक्ष पर बैठा एक गिद्ध पक्षी एकटक देख रहा है। उस आहारदान के समय देवतागण आकाश से रत्नवृष्टि करने लगे, दुंदुभि बाजे बजने लगे।
इधर पंचाश्चर्य वृष्टि हो रही है, उधर गिद्ध पक्षी को मुनिराज के दर्शन से अपने अनेकों पूर्वभवों का स्मरण हो जाता है। वह आकुल-व्याकुल होकर वृक्ष के नीचे आ जाता है। उसे निकट आया देख सीता घबड़ा कर हल्ला मचाते हुए उसे दूर करने का प्रयत्न करती है किन्तु वह न हटकर पास में ही रखे हुए मुनि के चरणोदक को पीने लगता है। चरणोदक के प्रभाव से उसी समय उसका शरीर रत्नराशि के समान नाना प्रकार के तेज से युक्त हो जाता है। उसके दोनों पंख सुवर्ण के सदृश, पैर नील मणि के सदृश, शरीर नाना रत्नों की कांति के सदृश एवं चोंच मूंगे के सदृश दिखने लगती है। अपने आपको अन्य रूप हुआ देख वह हर्षित होता हुआ देवदुंदुभि की ध्वनि के साथ नृत्य करने लगता है।
मुनिराज द्वारा गिद्धपक्षी के पूर्वजन्म का वर्णन-
आहार के अनन्तर मुनिराज रामचन्द्र की प्रेरणा से पास के शिलातल पर बैठ जाते हैंं उस समय वह पक्षी मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा देकर उनके निकट हर्षाश्रु को गिराता हुआ विनीत भाव से बैठ जाता है। रामचन्द्र कौतुकपूर्ण दृष्टि से पक्षी को देखते हुए गुरु के चरणों में नमस्कार कर प्रश्न करते हैं-
‘‘भगवन् ! अत्यन्त विरूप का धारक यह पक्षी क्षणमात्र में रत्नों की कांति का धारक वैâसे हो गया ?’’ मुनिराज कहते हैं-
‘‘रामचन्द्र! इसे अपने अनेकों भवों का जातिस्मरण हो आया है अतः यह घबड़ाकर अब धर्म की शरण में आया है।’’
‘‘प्रभो! इसे क्या जातिस्मरण हुआ है ?’’
‘‘सुनो!’’
इसी देश में कर्णकुण्डल नाम का एक मनोहर देश था। उस देश का परमप्रतापी महामानी दण्डक नाम का राजा था। उसकी रानी परिव्राजकों की भक्त थी। राजा दण्डक भी रानी के वशीभूत होने से उसी पापपोषक धर्म का आश्रय लेता था। किसी समय राजा ने ध्यान में स्थित एक महामुनि के गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया। कई दिन बाद एक श्रावक उधर से निकला, यह दृश्य देखकर घबराया हुआ वह मुनि के गले से सर्प निकाल रहा था कि अकस्मात् राजा भी उसी मार्ग से निकले। उन्होंने पूछा-
‘‘यह क्या है ?’’
श्रावक ने कहा-‘‘महाराज! नरक की खोज करने वाले किसी पापी ने अकारण ही इन महामुनि पर उपसर्ग किया है।’’
कुछ भी प्रतीकार नहीं करने वाले मुनि को उसी प्रकार ध्यानारूढ़ देख राजा ने मुनि को बार-बार प्रणाम किया और क्षमा याचना की। पुनः यथास्थान चला गया। उस समय से राजा दिगम्बर मुनियों की भक्ति में तत्पर रहने लगा।
राजा के इस धर्मपरिवर्तन को देखकर एक परिव्राजक ने कुपित हो उपाय सोचा। पुनः उसने नग्न दिगम्बर मुनि के वेश को बनाकर रानी के साथ संपर्क किया। जब राजा को इस निंद्य कार्य का पता लगा तब वह पूर्व में मंत्री द्वारा कहे गये निर्ग्रन्थ मुनियों के निंदा के वाक्यों का स्मरण कर-करके दिगम्बरों के प्रति पुनः द्वेष भाव को प्राप्त हो गया। पुनः दुष्ट लोगों के द्वारा प्रेरित हुए राजा ने अनेक सेवकों को कहा कि जितने भी दिगम्बर मुनि दिखें सभी को घानी में पेल दो। उस काल में वहाँ पर एक विशाल मुनि संघ आया हुआ था। आचार्य के साथ-साथ ही सभी मुनियों को किन्नरों ने राजाज्ञानुसार घानी में पेल डाला। सभी मुनि समता भाव से उपसर्ग को सहन कर उत्तम-उत्तम स्वर्ग को प्राप्त हो गये।
उसी समय एक मुनि कहीं बाहर गये थे जो लौटकर वापस आ रहे थे। उन्हें देख किसी दयालु व्यक्ति ने कहा-
‘‘हे दिगम्बर रूपधारी महामुने! तुम इस वेष से इस नगरी में मत जाओ, ठहरो-ठहरो अन्यथा तुम भी घानी में पेल दिये जाओगे।’’
मुनि ने पूछा-
‘‘क्यों, क्या बात है ?’’
‘‘महामुने! राजा ने कुपित होकर सारे मुनिसंघ को घानी में पिलवा दिया है।’’
संघ की मृत्यु के समाचार सुनते ही मुनि स्तब्ध रह गये। उन्हें ऐसी शल्य लगी कि उनकी चेतना अव्यक्त हो गई। उसी क्षण उन निर्ग्रन्थ मुनिरूपी पर्वत की शांतिरूपी गुफा से सैकड़ों दुःखों से प्रेरित हुआ क्रोधरूपी सिंह बाहर निकला अर्थात् मुनि के हृदय में क्रोध उत्पन्न होते ही उनके मुख से ‘हा’ शब्द निकला कि उसी के उच्चारण के साथ एकदम अग्नि का पुुतला निकला। उससे चारों तरफ का वातावरण हाहाकारमय हो गया, लोग चिल्लाने लगे-
‘‘हाय माता! यह क्या हुआ ?’’
‘‘हाय हाय! यह ताप तो अत्यन्त दुस्सह है।’’
‘‘अरे रे! क्या अग्निदेव कुपित हो गये ?’’
‘‘हे भगवान् ! रक्षा करो, रक्षा करो।’’
देखते ही देखते उस अग्नि ने समस्त देश को भस्मसात् कर दिया। अंतःपुर, देश, नगर, पर्वत, नदियाँ, जंगल और प्राणी कुछ भी शेष नहीं रहे। महान् संवेग से युक्त मुनिराज ने चिरकाल से जो तप संचित कर रक्खा था वह सबका सब क्रोधाग्नि में दग्ध हो गया। पुनः दूसरी वस्तुुएं भला वैâसी बचतीं ? दण्डक नाम के राजा के निमित्त से वह सारा देश दण्डक कहलाता था सो आज भी यह वन दण्डक नाम से प्रसिद्ध है।
‘‘हे रघुनन्दन! यह वही स्थान है जहाँ इस समय आप ठहरे हुए हैं। बहुत समय बीत जाने के बाद यहाँ की भूमि कुछ सुन्दरता को प्राप्त हुई है और ये वृक्ष, पर्वत, न्ादी, तालाब आदि दिखने लगे हैंं। राजा दण्डक उस समय मरकर नरक गया था पुनः वहाँ से निकलकर त्रस-स्थावर योनियों में भटकता हुआ दुःख उठाता रहा। अब वही दण्डक राजा का जीव इस गिद्ध की पर्याय में आया है। इस समय हम दोनों को देखकर पाप कर्म की मंदता होने से यह जातिस्मरण को प्राप्त हो गया है।’’
‘‘हे रामचन्द्र! देखो, जो राजा परम वैभव से युक्त था आज पाप कर्मों के कारण वैâसा हो गया है ? सो देखो! संसार में दूसरे के भी ऐसे उदाहरण जब जीवों की शांति के लिए हो जाते हैं तो पुनः यदि अपनी ही खोटी बात स्मरण हो जावे तो कहना ही क्या है?’’
रामचन्द्र से इतना कहकर वे मुनिराज अश्रु गिराते हुए उस गिद्ध पक्षी को सम्बोधित करते हुए कहने लगे-
‘‘हे द्विज! अब भयभीत मत होवो, मत रोवो, जो बात जैसी होने वाली होती है उसे अन्यथा कौन कर सकता है ? धैर्य करो, निश्चिंत होकर कंपकंपी छोड़ो, सुखी होवो, देखो यह महावन कहाँ ? और सीता सहित राम कहाँ ? हमारा पड़गाहन कहाँ ? और आत्मकल्याण के लिए दुःख का अनुभव करते हुए तुम्हारा प्रबुद्ध होना कहाँ ? कर्मों की ऐसी ही चेष्टा है। कर्मों की विचित्रता के कारण ही यह संसार अत्यन्त विचित्र हो रहा है।’’
गृद्ध पक्षी को सम्यक्त्व एवं अणुव्रत की प्राप्ति-
‘‘हे पक्षिराज! तुमने धर्म के प्रसाद से यह एक नूतन शरीर प्राप्त कर लिया है और पाप के क्षीण हो जाने से तुम एक नूतन जन्म को ही प्राप्त हुए हो ऐसा समझो। अब संसार के समस्त दुःखों से छुड़ाने वाला ऐसा सम्यक्त्व ग्रहण करो, जिनेन्द्रदेव के सिवास अन्य किसी को देव मत समझो, निर्र्ग्रन्थ दिगम्बर मुनियों के सिवाय किसी को गुरु मत मानो और जैन आगम के सिवाय किसी के वचनों पर श्रद्धा मत रखो। देखो, मिथ्यात्व के ही निमित्त से तुमने ये भयंकर दुःख भोगे हैं। अतः मिथ्यात्व को महाशत्रु समझकर उससे दूर होवो। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों पापों से एकदेश विरक्त होवो क्योंकि सर्वदेश विरति तो पशु पर्याय में संभव ही नहीं है। इस समय इन व्रतों को धारण करो, रात्रि भोजन का त्याग करो और रात-दिन जिनेन्द्र भगवान् को हृदय में धारण करो, शक्त्यनुसार विवेकपूर्वक उपवास आदि नियमों का आचरण करो और साधुओं की भक्ति में तत्पर होवो।’’
मुनिराज के मुख से इस प्रकार के दिव्य उपदेश को सुनकर पक्षी ने अंजलि बांधकर बार-बार सिर हिलाकर तथा मधुर शब्द का उच्चारण कर उपदेश ग्रहण किया तथा मैं व्रत ग्रहण कर रहा हूं, ऐसा संकेत किया। उस समय प्रसन्नचित्त हो सीता बोली-
‘‘अहो! विनीत आत्मा को धारण करने वाला यह हम लोगों का विनोद करने वाला हो गया है।’’
पुनः मन्दहास्य करती हुई सीता अपने दोनों हाथों से उस गृद्ध पक्षी का स्पर्श करने लगी।
तदनन्तर वे मुनि बोले-
‘‘रामचन्द्र! अब आप लोगों को इसकी रक्षा करना उचित है क्योंकि शांतचित्त हुआ यह बेचारा पक्षी अब कहाँ जायेगा ? क्रूर प्राणियों से भरे हुए इस सघन वन में तुम्हें इस सम्यग्दृष्टि पक्षी की सदा रक्षा करनी चाहिए।’’
तब सीता ने कहा-
‘‘हे गुरुदेव! ऐसा ही होगा।’’ इतना कहने के बाद सबने पुनः पुनः मुनिराज को नमस्कार किया। मुनिराज भी सबको आशीर्वाद देकर आकाशमार्ग से विहार कर गये।
उसी समय मदोन्मत्त हाथी को वश में कर उस पर सवार होकर लक्ष्मण वहाँ पर पहुँचे। रत्नों की राशि देखकर अग्रज की ओर देखने लगे। तब राम ने मुनि के आहारदान आदि का सारा वृत्तान्त सुना दिया। लक्ष्मण पहले तो अत्यन्त प्रसन्न हुए पुनः कुछ खेद प्रगट करते हुए बोले-
‘‘अहो! मुझे इन मुनियों के दर्शन का सौभाग्य नहीं मिला।’’
जिसे रत्नत्रय की प्राप्ति हुई है ऐसा वह पक्षी राम और सीता के बिना कहीं भी नहीं जाता था। अणुव्रत आश्रम में स्थित सीता भी उसे बार-बार मुनियों के उपदेश का स्मरण दिलाती रहती थी। वह राम, लक्ष्मण के पास ही क्रीड़ा किया करता था। सीता के द्वारा दिये हुए शाकपत्र का भोजन करता था। सीता ने उसके गले में छोटी-छोटी घंटियाँ तथा पैर में घुंघरू पहना दिये थे और जब कभी उसे ताल दे देकर नृत्य कराया करती थीं। उसके शरीर पर रत्न तथा सुवर्ण की किरणों के सदृश जटाएं सुशोभित हो रही थीं इसलिए रामचन्द्र आदि उसे ‘जटायु’ इस नाम से बुलाते थे और वह भी उन सबको बहुत ही प्यारा था।
पात्रदान के प्रभाव से सीता सहित राम-लक्ष्मण उस समय रत्न, सुवर्ण आदि महती सम्पत्ति से युक्त हो गये थे। जिसमें चार हाथी जुते थे और विमान के समान सुन्दर ऐसे रथ पर सवार होकर इच्छानुुसार क्रीड़ा करते हुए उस वन में सर्वत्र विचरण कर रहे थे।