श्री रामचन्द्र अपने सिंहासन पर आरूढ़ हैं। सुग्रीव, हनुमान, विभीषण आदि आकर नमस्कार कर निवेदन करते हैं-
‘‘प्रभो! सीता अन्य देश में स्थित है उसे यहाँ लाने की आज्ञा दीजिए।’’ रामचन्द्र गर्म निःश्वास लेकर कहते हैं-
‘‘बंधुओं! यद्यपि मैं उसके विशुद्ध शील को जानता हूँ फिर भी लोकापवाद से त्यक्त हुई सीता का मुख मैं कैसे देख सकूँगा ?
हाँ, यदि वह अपने सतीत्व का विश्वास जनता को करा सके तो आप ला सकते हैं।’’
राम की आज्ञा पाते ही हनुमान आदि पुंडरीकपुर पहुँचकर सीता के महल में प्रवेश करते हैं। पुष्पांजलि बिखेर कर सीता को प्रणाम कर वार्तालाप करते हैं। सीता रो पड़ती हैं और कहती हैं-
‘‘दुर्जनों के वचन रूपी दावानल से जले हुए मेरे अंग इस समय क्षीरसागर के जल से भी शांत नहीं हो रहे हैं।’’
‘‘हे मनस्विनि! हे भगवति! आप शोक छोड़ो और मन को प्रकृतिस्थ करो। हम लोगों ने ऐसा कह रखा है कि भरत क्षेत्र में जो भी सीता की निंदा करे उसे मार डाला जाये और जो सीता के गुणों का कीर्तन करे उसके घर रत्न वर्षा की जाये। हे देवि! कृषक भी धान्य राशि में आपकी स्थापना करते हैं उनका कहना है कि इससे धान्य अधिक पैदा होता है।’’
पुनः हनुमान कहते हैं-
‘‘हे वैदेहि! यह पुष्पक विमान श्रीराम ने भेजा है अतः अब पति की आज्ञा का पालन करो, उठो और शीघ्र ही अयोध्या चलो।’’
सीता, भाई, पुत्र और पुत्रवधू सहित अयोध्या के लिए प्रस्थान कर देती हैं। अयोध्या में प्रवेश करते ही जय-जयकार और प्रशंसा को सुनते हुए वे राजभवन में प्रवेश करती हैं। श्रीराम को नमस्कार कर पास में खड़ी हो जाती हैं। उस समय राम सोचते हैं-
‘‘अहो! यह वैâसी धृष्टता है कि जो वन में छोड़ी जाने पर भी आज यहाँ आकर मेरे सन्मुख खड़ी है। यह बड़ी निर्लज्ज है।’’ पुनः कहते हैं-
‘‘हे सीते! सामने क्यों खड़ी है ? दूर हट, मैं तुझे देखने को समर्थ नहीं हूँ। तू रावण के भवन में कई मास तक रही फिर भी तुझे ले आया, क्या यह सब मेरे लिए उचित था ?’’
‘‘हे राम! आपके सदृश निष्ठुर दूसरा कोई नहीं है। जिस प्रकार कोई साधारण मनुष्य उत्तम विद्या का तिरस्कार करता है। वैसे ही आप मेरा तिरस्कार कर रहे हो। हे कुटिल हृदय! दोहला के बहाने वन में भेजकर मुझ गर्भिणी का छोड़ना क्या तुम्हें उचित था ? यदि मैं वहाँ कुमरण को प्राप्त होती तो इससे तुम्हें क्या लाभ मिलता ? केवल मेरी दुर्गति ही तो होती ? यदि मेरे प्रति आपका किंचित् भी सद्भाव था तो मुझे आर्यिकाओं की वसतिका के पास क्यों नहीं छुड़वाया था ? वास्तव में अनाथ और अत्यन्त दुःखी को एक जिनशासन ही परम शरण है। हे देव! अधिक कहने से क्या ? इस दशा में भी आप प्रसन्न होइए, मुझे आज्ञा दीजिए मैं क्या करूँ ?….’’
इतना कहकर सीता रो पड़ती है। तब राम शांतचित्त हो कहते हैं-
‘‘हे देवि! मैं तुम्हारे निर्दोष शील को जानता हूं फिर भी तुम लोकापवाद को प्राप्त हुई हो अतः इस कुटिलचित्त प्रजा को विश्वास दिलाओ।’’
सीता का अग्नि में प्रवेश-
‘‘ठीक है, मैं पाँच प्रकार की दिव्य शपथों में से आप जो कहिए उसे देने के लिए तैयार हूूँ। हे राम! मैं कालकूट विष को पी सकती हूँ, मैं तुला पर चढ़ सकती हूूँ अथवा अग्नि में प्रवेश कर सकती हूँ।’’
कुछ क्षण राम विचार कर कहते हैं-
‘‘हाँ, ठीक है, अग्नि में प्रवेश करो।’’
सीता प्रसन्न हो कहती हैं-
‘‘ठीक है, मैं अग्नि में प्रवेश करूँगी।’’
इतना सुनते ही हनुमान, विभीषण, लव-कुश आदि काँप उठते हैं। लव कहता है-
‘‘ओह! माता ने मृत्यु स्वीकार कर ली है।’’ कुश कहता है-‘‘भाई! जो गति माता की होगी वही अपनी होगी।’’
उस समय सिद्धार्थ क्षुल्लक अपनी भुजा ऊपर उठाकर श्रीराम से कहते हैं-
‘‘हे राम! मेरु पाताल में प्रवेश कर सकता है, समुद्र सूख सकते हैं किन्तु सीता के शील में कुछ भी चंचलता नहीं आ सकती है। मैं विद्याबल से समृद्ध हूँ तीनों काल में मेरु की वंदना करके आता हूँ। पाँचों मेरुओं के समस्त शाश्वत जिन प्रतिमाओं की मैंने वंदना की है। हे रामचन्द्र! मैं जोर देकर कहता हॅूं कि सीता के शील में किंचित् भी कमी हो तो वह मेरी वंदना निष्फल हो जाये। मैंने वस्त्रखंड धारण कर कई हजार वर्ष तक तपश्चरण किया है सो मैं उस तप की शपथ पूर्वक कहता हूँ कि ये दोनों कुमार तुम्हारे ही पुत्र हैं। इसलिए हे बुद्धिमन् राम! इस भयंकर अग्नि में सीता को प्रवेश न कराइये।’’
क्षुल्लक की बात सुनकर आकाश में स्थित विद्याधर और भूमिगोचरी राजा लोग जोर-जोर से आवाज लगाते हुए कहने लगे-
‘‘बहुत अच्छा कहा, बहुत अच्छा कहा, हे देव! प्रसन्न होओ, प्रसन्न होओ, हे नाथ! हे राम! हे राम! सीता महासती, महासती है आप मन में भी अग्नि का विचार मत करो।’’
उस समय तीव्र शोक से सभी लोग जोर-जोर से रोने लगते हैं-
तब राम सबकी उपेक्षा करते हुए कहते हैं-
‘‘हे मानवों! यदि इस समय आप लोग दया करने में तत्पर हैं तो पहले अपवाद क्यों किया था ?’’
उसी समय राम किंकरों को आज्ञा दे देते हैं। सेवकगण दो पुरुष प्रमाण गहरी और तीन सौ हाथ प्रमाण चौड़ी चौकोर बावड़ी खोद कर उसमें अगुरु, चंदन आदि की बड़ी-बड़ी लकड़ियाँ लेकर भर देते हैं और अग्नि प्रज्ज्वलित कर देते हैं। अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को देखकर सारी अयोध्यापुरी ही अश्रुओं की वर्षा से दुर्दिन उपस्थित कर देती है।
श्रीराम अग्नि की लपटों को देखकर व्याकुल हो उठते हैं और सोचने लगते हैं-
‘‘ओह! मैंने यह क्या कर डाला ? यह मालती के पुष्प सदृश कोमलांगी अग्नि का स्पर्श होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगी। हाय! पुनः गुणों की पुंज शीलशिरोमणि इस कांता का मुख कमल मैं वैâसे देख सवूँâगा ? इसके वियोग में मैं अब वैâसे जीवित रह सवूँâगा ? निश्चिन्तहृदया सीता ने भी ऐसे मरना वैâसे स्वीकृत कर लिया है ? ओह!….वह क्षुल्लक भी अब चुपचाप है अतः इसे रोकने के लिए अब मैं क्या बहाना करूँ ?…..’’ पुनः सोचते हैं-
‘‘अथवा जिनका जैसा मरण निश्चित है वैसा ही होगा। उसे अन्यथा करने में कौन समर्थ है ?’’ पुनः उठती हुई ज्वालाओं की भीषण गर्मी को देखते हुए सोच रहे हैं-
‘‘अरे! दुष्ट रावण ने इसे लंका में मृत्यु के घाट क्यों नहीं उतार दिया था ?…..जब वन में छोड़ी गई थी तभी इसे किसी हिंसक पशु ने क्यों नहीं खा लिया था ?….अब मैं इसकी ऐसी दशा वैâसे देख सकूँगा ?…..’’
राम चिंतातुर हो रहे हैं। लक्ष्मण, हनुमान आदि अश्रु की बूँदें गिरा रहे हैं। लव-कुश मूचर््िछत हो-होकर गिर रहे हैं किन्तु सीता किसी की परवाह न कर वहाँ आती हैं और प्रसन्नमना हुई खड़ी हो जाती हैं। क्षण भर के लिए कायोत्सर्ग करती हैंं पुनः श्री जिनेन्द्रदेव की स्तुति करती हैं-
‘‘ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों को मेरा नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, श्री मुनिसुव्रतनाथ को बारम्बार नमस्कार हो, सर्वजन हितैषी, प्राणिवत्सल आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को मेरा मन-वचन-काय से बारम्बार नमस्कार हो।’’
पुनः श्री रामचन्द्र को नमस्कार करके कहती हैं-
‘‘हे अग्निदेवते! राम के सिवाय यदि स्वप्न में भी मैंने किसी अन्य पुरुष को मन से भी चाहा हो तो तू मुझे भस्मसात् कर दे अन्यथा तू शीतल हो जा।’’
इतना कहकर वह उस अग्निकुंड में कूद पड़ती है। इसी बीच सर्वत्र हाहाकार मच जाता है।
‘‘अरे रे रे! क्या हुआ ? क्या हुआ ? हे जिनशासन देवते।’’…..इसी बीच वहीं अयोध्या के महेंद्रोदय उद्यान में सकलभूषण केवली के केवलज्ञान उत्सव को मनाने के लिए इन्द्रगण आ रहे थे। इस दृश्य को देखते ही इन्द्र ने मेषकेतु देव को कहा कि-‘‘जाओ, जाओ! शीघ्र ही शील का माहात्म्य दिखाकर सीता की रक्षा करो।’’
शील का माहात्म्य, अग्नि बनी सरोवर—
वह देव निमिष मात्र में उस अग्नि की बावड़ी को जल से लबालब भर देता है। जल बावड़ी से ऊपर आकर चारों तरफ पैâल जाता है। लोग डूबने लगते हैं। उधर सीता जल के मध्य सहस्रदल कमल के ऊपर सिंहासन में विराजमान हैं। जल बढ़ता ही चला जा रहा है। लोग जोर-जोर से आवाज लगाते हैं-
‘‘हे देवि! रक्षा करो, रक्षा करो। हे मान्ये! हे सरस्वती! हे महाकल्याणि! हे लक्ष्मी! हे सर्वप्राणिहितैषिणि! रक्षा करो। हे महा पतिव्रते! हे मुनि मानस निर्मले! दया करो, दया करो!
वह जलरूपी वधू जब अपने तरंगरूपी हाथों से श्रीराम के चरण युगल का स्पर्श कर लेती है तब वह उसी क्षण सौम्य दशा को प्राप्त हो जाती है। तब जल को रुका हुआ देख सभी जनता सुखी हो जाती है। उस बावड़ी में चारों तरफ कमल खिल रहे हैं। सीता के दोनों तरफ देवियाँ चंवर ढोर रही हैं। महिलाएँ सीता के शील की प्रशंसा करते हुए और तरह-तरह से आशीर्वाद देते हुए नहीं अघाती हैं। देवतागण दुंदुभि बाजे बजा रहे हैं, पुष्प वर्षा रहे हैं। किन्नरियाँ नृत्य कर रही हैं और मधुर गीत गा रही हैं। आकाश से, भूतल से सब ओर से एक ही ध्वनि आ रही है-
‘‘हे जनकनंदिनी, हे शीलशिरोमणि! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे बलभद्र श्रीराम की पट्टरानी! तुम्हारी जय हो, जय हो।’’
श्रीराम द्वारा सीता से क्षमायाचना एवं सीता की दीक्षा-
माता के स्नेह से खिंचे हुए लव-कुश जल में तैरते हुए वहाँ आकर सीता को प्रणाम करते हैंं। वह बेटों के मस्तक पर हाथ फिराकर अनेक आशीर्वाद देती हैं पुनः दोनों पुत्र सीता के आजू-बाजू में खड़े हो जाते हैं। उसी समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बहुत भारी अनुराग से युक्त हो सीता के समीप आते हैं और कहते हैं-
‘‘हे देवि! प्रसन्न होओ, तुम सभी लोक में पूजित कल्याणवती हो। हे सति! मेरा सब दोष क्षमा करो, पुनः आगे फिर कभी भी मैं ऐसा अपराध नहीं करूँगा। हे प्राणवल्लभे! तुम आठ हजार रानियों की भी परमेश्वरी हो, और तो क्या, अब मुझ पर भी तुम अनुशासन करो। हे कान्ते! जो-जो स्थान तुम्हें प्रिय हों मुझे आज्ञा देवो, मैं तुम्हारे साथ वहाँ-वहाँ विचरण करते हुए इच्छानुसार क्रीड़ा करूँगा। हे प्रशंसनीय मनस्विनि! मैं इस समय दोषसागर में निमग्न हूँ अतः तुम्हारे समीप आया हूँ सो क्रोध का परित्याग करो और प्रसन्न होओ।’’
तब सीता कहती हैं-
‘‘हे नाथ! आप इस तरह विषाद क्यों कर रहे हैं ? मैं किसी पर भी कुपित नहीं हूँ। इसमें न तुम्हारा ही कुछ दोष था न देश के अन्य लोगों का। यह तो मेरे पूर्व संचित कर्म का ही विपाक था जो मैंने भोगा है। हे बलदेव! मैंने तुम्हारे प्रसाद से देवों के समान अनुपम भोग भोगे हैं इसलिए अब उनकी इच्छा नहीं है। अब तो मैं वहीं कार्य करूँगी कि जिससे पुनः मुझे स्त्री पर्याय प्राप्त न हो। अब मैं समस्त दुःखों का क्षय करने के लिए जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करूँगी…..।’’
इतना कहते हुए सीता कोमल हाथों से अपने काले-काले केश उखाड़कर राम के सम्मुख डाल देती हैं। उन केशों को देख रामचन्द्र धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं और मूर्च्छित हो जाते हैं। जब तक रामचन्द्र सचेत हों तब तक सीता शीघ्र ही उद्यान में जाकर सकलभूषण केवली के यहाँ पृथ्वीमती आर्यिका के पास दीक्षा ले लेती हैं।
इधर रामचन्द्र शीतोपचार से जब होश में आते हैं तब वे मोह और शोक में पागल हो बकने लगते हैं-
‘‘ओह! मेरी प्राणवल्लभा सीता कहाँ गई ? यदि उसे दीक्षा ही दिलाना था तो देवों ने ऐसा उसका प्रातिहार्य क्यों किया ? मैं देखता हूँ उसे कौन ले जाता है ? मैं देवों को भी अदेव कर दूँगा।’’
उस समय लक्ष्मण उन्हें संभाल कर अनेक उपाय से सांत्वना दे रहे हैं। पुनः सभी लोग महेन्द्रोदय उद्यान में पहुँचते हैं। वहाँ सर्वभूषण केवली के समवसरण में प्रवेश कर शांत हो जाते हैंं। वंदना, पूजा, स्तुति करके सीता को भी नमस्कार कर सब अपने-अपने कोठे में बैठ जाते हैंं। तब ‘अभयनिनाद’ नामक महामुनि भगवान् से प्रश्न करते हैं-
‘‘हे भगवन् ! संसार में यह जीव क्यों भ्रमण कर रहा है ?’’
‘‘हे भव्यजीवों! संसार का मूल कारण मोह ही है जब तक यह जीव इसके वश में है तभी तक संसार है।’’
कृतांतवक्त्र सेनापति की दीक्षा-
इत्यादि प्रकार से दिव्य उपदेश सुनकर सभी लोग अपने-अपने भव-भवान्तर पूछते हैं। अनन्तर कृतांतवक्त्र सेनापति श्रीराम से कहता है-
हे नाथ! अब मैं इस अनादि संसार से निकलना चाहता हूँ अतः मुझे दीक्षा के लिए आज्ञा प्रदान कीजिए।’
रामचन्द्र अनेक उपायों से भी जब उसे नहीं रोक पाते हैं तब कहते हैं-
‘‘भद्र! यदि तुम इस जन्म से निर्वाण प्राप्त न कर सको और देव होवो तो जब कभी मैं संकट में होऊँ तो मुझे सम्बोधन अवश्य करना। यदि तुम मेरा किंचित् भी उपकार मानते हो तो यह प्रतिज्ञा करो।’’
‘‘जैसी आपकी आज्ञा, मुझे यह सहर्ष स्वीकृत है।’’
इतना कहने के बाद राम से आज्ञा प्राप्त कर वह सेनापति दिगम्बर मुनि हो जाता है। केवली भगवान् का विहार हो जाता है। तत्पश्चात् रामचन्द्र यथाक्रम से आर्यिकाओं की वंदना करते हुए सीता के समीप पहुँचते हैं तब उनका हृदय फटने लगता है वे बोलते हैं-
‘‘ओह! मेरी भुजाओं का आलिंगन प्राप्त करने वाली यह सीता इस कठोर आर्यिका व्रत को वैâसे पालेगी ? मेघ की गर्जना से भी डरकर जो मुझे चिपट जाती थी वह वनों में सिंह, व्याघ्र के भयंकर शब्द वैâसे सुनेगी ? नीरस आहार वैâसे करेगी ? और कंकरीली पृथ्वी पर वैâसे सोयेगी ? मैंने यह क्या किया ? विवेक शून्य हो लोकापवाद के डर से मैंने ऐसी सती सीता को वैâसे खो दिया ?’’
जैसे-तैसे अश्रु रोककर स्वाभाविक दृष्टि से सीता के पास जाकर भक्ति और स्नेह से युक्त हो ‘वंदामि’ कहकर नमस्कार करते हैं और कहते हैं-
‘‘हे भगवति! तुम धन्य हो, तुमने संसार समुद्र से पार होने के लिए जिन मार्ग का आश्रय ले लिया है। एक मैं हूँ जो मोह में पँâसा हूँ। हे शान्ते! गार्हस्थ्य जीवन में मेरे द्वारा ज्ञात-अज्ञात में जो भी अपराध हुआ हो उसे क्षमा करो। हे मनस्विनि! इस समय मेरे विषादयुक्त मन को भी आप आनन्दित कर रही हैं, आप मेरे द्वारा भी पूज्यता को प्राप्त हो गई हैं।’’
लक्ष्मण, लव-कुश आदि भी नमस्कार करते हैंं। वियोग के दुःख से व्याकुल हुए पुत्रों को आगे कर श्रीराम वापस अयोध्या में प्रवेश कर रहे हैं। उस समय प्रजा के लोग अनेक प्रकार से वार्तालाप कर रहे हैं-
‘‘हे भाई! सीता के बिना राम शोभा नहीं पा रहे हैं।’’
‘‘अरे! राम ने सीता को वैâसे गंवा दिया ?’’
‘‘ओह! सीता ने यह क्या किया ? उसका ऐसा कठोर हृदय वैâसे हो गया।’’
‘‘अरे! राम को ऐसी कठोर परीक्षा लेना उचित था क्या ?’’
‘‘बहन! सर्वप्रथम राम को गर्भिणी हालत में उसे वन में नहीं भेजना था।’’
‘‘हाँ बहन! उसी समय इन्होंने यह ‘अग्नि परीक्षा’ क्यों नहीं ले ली थी ?’’
‘‘इसी का नाम संसार है। अरे! जब सीता को पूर्व संचित कर्म भोगना ही था तो राम को भी उस समय ऐसी बुद्धि वैâसे आती ? क्या तुमने नहीं सुना ? केवली भगवान् ने बताया है कि इस सीता के जीव ने पूर्व भव में किसी मुनि-आर्यिका को झूठा दोष लगाया था पुनः प्रायश्चित्त भी किया था किन्तु गुरुनिंदा का पाप बिना भोगे नहीं छूटता है।’’
‘‘हाँ, हाँ, बहन! इसलिए सती सीता को इस पर्याय में अपवाद का दुःख सहना पड़ा।’’
‘‘ओह! देखो! अपने दूध से पुष्ट किये इन लव-कुश को छोड़ कर सीता ने वैâसे दीक्षा ले ली ?’’
‘‘बहन! उसने बहुत ही अच्छा किया है स्त्री पर्याय से छूटने का एक यही उपाय है।’’
सीता घोर तपश्चरण करते हुए अपने जीवन के बासठ वर्ष व्यतीत कर देती हैं। अंत में तेतीस दिन की सल्लेखना लेकर मरण करके स्त्री पर्याय को छेदकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हो जाती हैं। वहाँ पर वह इन्द्र आज भी दिव्य सुखों का अनुभव कर रहा है।
देवों की सभा लगी हुई है। सौधर्म इन्द्र अपने सिंहासन पर आरूढ़ हैं। अर्हंतदेव की भक्ति का उपदेश दे रहे हैं। उपदेश के अनन्तर इन्द्र चिंतानिमग्न हो सोच रहे हैं-
‘‘अहो! यहाँ की आयु पूर्ण कर मैं मनुष्य पर्याय कब प्राप्त करूँगा ? तप के द्वारा कर्मों को नष्ट कर जिनदेव की गति को कब प्राप्त करूँगा ?’’
यह सुन एक देव बोलता है-
‘‘जब तक यह जीव स्वर्ग में रहता है तभी तक उसके ऐसे भाव होते हैं किन्तु जब मनुष्य पर्याय को पा लेते हैं तो भोगों में निमग्न हो सब कुछ भूल जाते हैं। यदि विश्वास नहीं है तो ब्रह्मलोक से च्युत हुए श्रीरामचन्द्र व्ाâो क्यों नहीं देख लेते ?’’
तब इन्द्र कहते हैं-
‘‘सच में सभी बंधनों में स्नेह का बंधन अत्यन्त दृढ़ है। जो हाथ-पैरों से बँधा है वह तो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है किन्तु स्नेह बंधन से बँधा हुआ प्राणी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता। लक्ष्मण, राम में इतना अनुरक्त है कि वह प्राण देकर भी उनका कार्य करना चाहता है और पल भर भी जिसके दूर होने पर राम बेचैन हो उठते हैं। अहो! उन दोनों का स्नेह अपूर्व ही है।’’
रत्नमूल और मृगचूल देवों द्वारा राम-लक्ष्मण की परीक्षा, लक्ष्मण की मृत्यु एवं श्रीराम का लक्ष्मण के प्रति तीव्र स्नेह-
सभा विसर्जित हो जाती है। रत्नचूल और मृगचूल नाम के दो देव इन दोनों के स्नेह की परीक्षा के लिए अयोध्या आ जाते हैं। राम के भवन में दिव्य माया से रुदन मचा देते हैं और विक्रिया से बनाये हुए मंत्री, पुरोहित आदि को लक्ष्मण के पास भेज देते हैंं, वे वहाँ पहुँच कर कहते हैं-
‘‘हे नाथ! राम की मृत्यु हो गई।’’
इतना सुनते ही लक्ष्मण के मुख से निकलता है-
‘‘हाय! यह क्या…..’’ इस अर्ध वाक्य के उच्चारण के साथ ही साथ वे सिंहासन पर बैठे ही बैठे प्राणरहित हो जाते हैं। सहसा लक्ष्मण की मृत्यु देख दोनों देव आश्चर्य और विषाद से युक्त हो चुपचाप अपने स्थान को चले जाते हैं। उधर लक्ष्मण की स्त्रियाँ आकर इस दुर्घटना से छाती पीट-पीट कर रोने लगती हैंं। राम को समाचार मिलते ही वे वहाँ आ जाते हैं। वे लक्ष्मण को निश्चेष्ट देख रहे हैं यद्यपि लक्ष्मण में मृतक के चिह्न दिख रहे हैं फिर भी राम स्नेह से परिपूर्ण हो उन्हें जीवित ही समझ रहे हैं। उनका बार-बार आलिंगन करते हुए कहते हैं-
‘‘हे भाई! क्या कारण है ? तुम क्यों ऐसे हो रहे हो, बोलो-बोलो, मेरे से वार्तालाप करो, बोलो तुम्हें किसने सताया है ?’’
लक्ष्मण की ऐसी दशा देख राम बार-बार मूर्च्छित हो जाते हैं। वैद्यों के द्वारा परीक्षा हो जाने पर भी वे उसे मृतक नहीं मान रहे हैंं। मोह और शोक में पागल हो रोते हैं, विलाप करते हैं और तो क्या उस मृत शरीर को नहलाते हैं, वस्त्र पहनाते हैं और भोजन खिलाने की कोशिश करते हैं। इस दृश्य को देख अति दुःखी हो लव-कुश अनेक उपाय से पिता को समझाने का पुरुषार्थ करते हैं। अंत मेंं असफल हो जाते हैं तब विरक्तमना हुए पिता को नमस्कार कर वन में जाकर अमृतस्वर महामुनि के समीप दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं।
राम पुत्रों की दीक्षा का समाचार सुनकर अतीव दुःखी हुए लक्ष्मण से कहते हैं-
‘‘हे लक्ष्मण! जल्दी उठो, चलो चलें, जब तक लव-कुश दीक्षा नहीं ले लेते हैं उन्हें समझाकर वापस ले आवें।….’’
‘‘हे भाई! मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ?’’ कुछ क्षण बाद कहते हैं-
‘‘देख! अब मैं अकेला हूँ तू मुझे जल्दी से अपने मन की बात बता दे।’’
समाचार को प्राप्त करते ही विभीषण आदि राजा आकर समझाते हैं-
‘‘प्रभो! यह मृतक शरीर है इसे छोड़ो, इसका दाह संस्कार करो।’’
राम कहते हैं-
‘‘अरे दुष्टों! तुम मेरे प्यारे भाई को मरा समझ रहे हो ? जावो, जावो।’’ पुनः आप स्वयं भाई को कंधे पर लेकर वन में चले जाते हैं। सभी विद्याधर किंकर्तव्यविमूढ़ हैं कि क्या करना चाहिए ? श्रीराम की इस पागल जैसी स्थिति में एक दिन कम छह महीने व्यतीत हो जाते हैं। तब अकस्मात् आसन के कम्पित होने से दो देव स्वर्ग से वहाँ आते हैं और वे विपरीत क्रियायें प्रारंभ करते हैं। एक देव मनुष्य के वेष में सूखे वृक्ष को सींच रहा है, दूसरा दो मृतक बैलों के कंधों पर हल रखकर पत्थर पर बीज बोने का प्रयत्न करने लगता है, पुनः एक मनुष्य मटकी में जल डालकर मथने लगता है तो दूसरा घानी में रेत डालकर पेलना शुरू कर देता है। तब राम कहते हैं-
‘‘अरे मूर्खों! इस सूखे ठूँठ को क्यों सींच रहे हो ? अहो! इन मृतक बैलों पर हल रखने से क्या होगा ? पत्थर पर बीज उगेंगे क्या ? कहीं पानी से मक्खन निकलता है ? अरे बालक, बालू से कहीं तेल निकलता है ?’’ तब वे कहते हैं-
‘‘हे नाथ! आप भी तो मृतक कलेवर को लिए घूम रहे हो।’’ राम कुपित होकर कहते हैं-
‘‘अरे, अरे! तुम पुरुषोत्तम लक्ष्मण को मृतक क्यों कह रहे हो ?’’
राम आगे बढ़ जाते हैं तब एक देव अपने कंधे पर मृतक शरीर को लेकर उनके आगे-आगे हो लेता है। तब पुनः राम कहते हैं-
‘‘अरे रे! आप इस मुर्दे को कंधे पर क्यों रखे हुए हैं ?’’
तब वह वृद्ध कहता है-
‘‘आज आपको देखकर हम लोगों को बहुत ही प्रेम हो रहा है क्योंकि समान में ही प्रेम होता है। स्वामिन्! हम सब पिशाचों के आप सर्वप्रथम मनोनीत महाराजा हैं।’’
श्रीराम का मोहभंग एवं लक्ष्मण का दाहसंस्कार-
इन वचनों के निमित्त से राम का मोह शिथिल हो जाता है और वे सोचने लगते हैं-
‘‘ओह! कहाँ मैं विद्वत्शिरोमणि राम ? और कहाँ मेरी यह चेष्टा ? धिक्कार हो इस मोह को!’’
राम के मोह को शिथिल हुआ देख दोनों देव अपने सुन्दर रूप में हो जाते हैं। तब राम पूछते हैं-
‘‘हे महानुभावों! आप कौन हैं ?’’ दोनों परिचय देते हैं-
‘‘हे नाथ! हम जटायु पक्षी के जीव हैं और यह कृतांतवक्त्र सेनापति का जीव है। हे देव! इतने दिन से आप पर विपत्ति आई थी किन्तु हम अज्ञानियों को पता ही नहीं था। हे राम! जब आपकी विपत्ति का अन्त आ गया तब आपके कर्मोदय ने मुझे इस ओर ध्यान दिलाया है।’’
‘‘अहो भद्र पुरुषों! तुम दोनों ने इस समय मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है।’’
अनन्तर राम सर्व परिजनों के साथ सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण का दाह संस्कार कर देते हैं।
राजसभा में बैठे हुए श्रीराम शत्रुघ्न से राज्य संभालने को कहते हैं किन्तु जब वह दीक्षा के भाव व्यक्त करता है तब अनंगलवण के पुत्र अनन्तलवण का राज्याभिषेक कर देते हैं।
इसी बीच अर्हदास सेठ प्रवेश करते हैं। राम पूछते हैं-
‘‘भद्र! मुनि संघ में कुशल है ना ?’’
‘‘हे नाथ! आपके इस कष्ट से पृथ्वीतल पर मुनि भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं और आपके स्नेह से खिंचकर श्री सुव्रताचार्य गुरु स्वयं यहाँ पधारे हैं।’’
राम हर्ष से रोमांचित हो मुनि के समीप पहुँचते हैं उनकी प्रदक्षिणा देकर वंदना करते हैं, स्तुति पूजा करते हैं पुनः कहते हैं-
‘हे भगवन्! मुझे संसार समुद्र से पार करने वाली निर्ग्रंंथ दीक्षा प्रदान कीजिए।’’
श्रीराम के रूप सौन्दर्य से प्रजा की नाना चेष्टाएँ एवं मुनि रामचन्द्र का वन में आहार लेने का नियम-
गुरु की आज्ञा पाकर जब राम वस्त्रालंकार त्याग कर केशलोंच करते हैं, उस समय देवगण रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य करने लगते हैं। विभीषण, सुग्रीव आदि भी दीक्षा ले लेते हैं। उस समय कुछ अधिक सोलह हजार राजा मुनि हो जाते हैं और सत्ताईस हजार प्रमुख स्त्रियाँ ‘श्रीमती’ आर्यिका के पास साध्वी हो जाती हैं।
गुरु की आज्ञा लेकर राम एकाकी विहार करते हुए वन में जाकर प्रतिमायोग धारण कर लेते हैं। रात्रि में ही उन्हें अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है। पाँच दिन के उपवास के बाद योगी श्रीराम पारणा के लिए नंदस्थली नगरी में आते हैं। उनके रूप सौन्दर्य को देखते ही लोग पागल के समान हो जाते हैं। शहर की गलियों में बेशुमार भीड़ हो जाती है। श्रावक-श्राविकायें पड़गाहन करने में तत्पर हो उच्च स्वर से बोलते हैं-
‘‘हे स्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ।
‘‘हे मुनीन्द्र! जय हो, जय हो, यहाँ आइये, आइये, ठहरिये, ठहरिये।’’
महिलाएं तरह-तरह की वस्तुएं मँगाने लगती हैं-
‘‘अरी सखी! गन्ना ले आ’’
‘‘अरी वह सुवर्ण की झारी लाओ।’’
‘‘अरी चतुरे! खीर ले आ! अच्छा, मिश्री और ले आ।’’
इत्यादि प्रकार से इतना हल्ला हो जाता है कि हाथी घोड़े भी अपने-अपने बंधन को तोड़कर उपद्रव मचाते हुए इधर-उधर भागने लगते हैं। इतना कोलाहल देख राजा प्रतिनंदी अपने कर्मचारियों को भेजता है। वे आकर पड़गाहन करने वालों को तितर-बितर करके मुनि से कहते हैं-
‘‘प्रभो! राजा के यहाँ पधारिये, वहाँ उत्तम भोजन कीजिए।’’
मुनिराज अन्तराय समझकर वन में वापस चले जाते हैं और पुनः पाँच उपवास के बाद ऐसा वृत्तपरिसंख्यान लेते हैं कि-
‘‘यदि कोई वन में ही पड़गाहेगा तो आहार करूँगा अन्यथा नहीं।’’
अकस्मात् शत्रु द्वारा हरे जाने पर राजा प्रतिनंदी वन में ही रानी के साथ भोजन विधि करने को तैयार होते हैं कि सामने से श्रीराम मुनि को देखकर भक्ति से पड़गाहन करके नवधा भक्ति से आहार कराते हैं। देवों के द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि होने लगती है। राम को अक्षीण महानस ऋद्धि भी हो गई थी अतः उस दिन राजा के यहाँ अन्न अक्षय हो जाता है। श्रीरामचन्द्र महामुनि वन में ही आहार का नियम लेते रहते हैं। देवांगनाएं उनकी पूजा करती रहती हैं।
कई एक वर्ष बाद श्रीराम कोटिशिला पर पहुँचकर रात्रि में प्रतिमायोग से स्थित हो ध्यान में लीन हो जाते हैं।
राजा विभीषण ने सकलभूषण केवली को नमस्कार कर पूछा-
‘‘भगवन्! श्रीराम ने पूर्व भवों में कौन सा पुण्य किया था ? सती सीता के शील में लोकापवाद क्यों हुआ ? रावण से लक्ष्मण का वैर कब से था ? इत्यादि। मैं आपके दिव्यवचनों से इन सभी के पूर्वभवों को सुनना चाहता हूँ।’’
तब केवली भगवान की दिव्यध्वनि खिरी जिसे कि सभी ने श्रवण किया।
‘‘इस संसार में कई भवों से राम-लक्ष्मण का रावण के साथ वैर चला आ रहा है। उसे सुनो, इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में क्षेत्र नाम का एक नगर था। वहाँ पर नयनदत्त वैश्य की सुनंदा पत्नी के दो पुत्र थे, धनदत्त और वसुदत्त। वहीं यज्ञबलि नाम का एक ब्राह्मण था वह वसुदत्त का मित्र था। इसी नगर में सागरदत्त वणिक् की पत्नी रत्नप्रभा से गुणवती नाम की एक पुत्री हुई थी और गुणवान नाम का एक पुत्र था। इसी नगर में एक श्रीकांत वणिक् था।
गुणवती का उसके पिता और भाई धनदत्त से विवाह करना चाहते थे किन्तु उसकी माँ श्रीकांत को धनाढ्य समझकर उसे देना चाहती थी। तब धनदत्त के भाई वसुदत्त ने क्रोध के वश हो अपने मित्र यज्ञबलि के उपदेश व सहयोग से श्रीकांत के घर जाकर उस पर शस्त्र प्रहार किया, उसने भी वसुदत्त पर शस्त्र प्रहार किया, दोनों एक-दूसरे को मारकर मर गये। इधर धनदत्त को गुणवती न मिलने से वह घर से निकलकर अनेक देशों में भ्रमण करता रहा। गुणवती ने भी धनदत्त के साथ ही विवाह करना चाहा था किन्तु उसके साथ विवाह न हो पाने से वह दुःखी हुई। मिथ्यात्व के निमित्त जैन शासन से और दिगम्बर गुरुओं से द्वेष रखती थी।
आयु के समाप्त होने पर यह गुणवती आर्तध्यान से मरकर वहीं वन में हरिणि हुई। उसी वन में ये वसुदत्त और श्रीकांत मरकर हरिण हुए थे। पूर्व संस्कार के निमित्त से यहाँ भी ये दोनों इसी हरिणी के लिए आपस में एक-दूसरे को मारकर मरे और सूकर हो गये। पुनः ये दोनों हाथी, भैंसा, बैल, वानर, चीता, भेड़िया और मृग हुए। सभी पर्यायों में ये परस्पर में द्वेष रखते हुए एक-दूसरे को मारते और मरते रहे।
इधर वह धनदत्त वैश्य पुत्री गुणवती को न प्राप्त कर दुःखी हुआ। देश-देश में घूम रहा था। एक दिन मार्ग में थका हुआ वह सूर्यास्त के बाद मुनियों के आश्रम में पहुँच गया। वह प्यासा था अतः वह मुनियों से कमंडलु का पानी पीने के लिए मांगने लगा। तभी एक दिगम्बर मुनि ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा-
‘‘हे भद्र! रात्रि में पानी तो क्या अमृत पीना भी उचित नहीं है। जब नेत्रों से दिखाई नहीं देता है ऐसे समय में सूक्ष्म जन्तुओं का संचार बहुल हो जाता है इसलिए तू रात्रि में भोजन मत कर…..।’’
इत्यादि प्रकार से मुनिराज के मुख से धर्मोपदेश श्रवण कर वह धनदत्त प्यास से उत्पन्न आकुलता को भूल गया और उसका चित्त दया से आर्द्र हो गया। वह अल्पशक्ति अनुभव कर महाव्रती तो नहीं बन सका किन्तु अणुव्रती श्रावक बन गया। अनन्तर आयु की समाप्ति में मरकर सौधर्म स्वर्ग में उत्तम देव हो गया। वहाँ पुण्योदय से प्राप्त देवांगनाओं के मध्य दिव्य सुखों को भोगने लगा।
पद्मरुचि सेठ द्वारा बैल को णमोकार मंत्र सुनाने से वह वृषभध्वज राजकुमार बना-
वहाँ से च्युत होकर वह धनदत्त का जीव महापुर नगर के जैनधर्म निष्ट, मेरु सेठ की धारिणी भार्या से ‘‘पद्मरुचि’’ नाम का पुत्र हुआ। यह पद्मरुचि युवावस्था में एक बार घोड़े पर चढ़कर गोकुल की ओर जा रहा था वहाँ मार्ग में एक बूढ़े बैल को पृथ्वी पर पड़े हुए देखा। वह उठने-चलने में समर्थ नहीं था अतः मृत्यु की घड़ियां गिन रहा था। पद्मरुचि श्रावक ने घोड़े से उतरकर उसके पास बैठकर उसे आदरपूर्वक कुछ उपदेश सुनाया पुनः उसके कान में णमोकार मंत्र सुनाता रहा। मंत्र सुनते-सुनते उस बैल के प्राण निकल गये।
मंत्र के प्रभाव से वह बैल का जीव उसी नगर के राजा छत्रच्छाय की रानी श्रीदत्ता के गर्भ में आ गया और नौ महीने बाद उसके जन्मते ही राजा ने पुत्ररत्न के हर्ष से बहुत ही उत्सव किया पुनः उसका नाम ‘‘वृषभध्वज’’ रख दिया। इस राजकुमार को बचपन में जातिस्मरण हो गया कि-
‘‘मैं पूर्वभव में बैल था। वृद्धावस्था में गली में पड़ा-पड़ा दुःख भोग रहा था। एक श्रावक ने मुझे पंच नमस्कार मंत्र सुनाया था जिसके प्रभाव से मैं राजपुत्र हो गया हूँ।’’
जातिस्मरण को प्राप्त राजकुमार वृषभध्वज पद्मरुचि की खोजकर अभिन्न मित्र बन गए-
अतः वह णमोकार मंत्र का सदा स्मरण किया करता था। एक दिन घूमते हुए उसी स्थान पर पहुँचा जहाँ पूर्व में बैल का मरण हुआ था। उस राजकुमार ने आस-पास में घूमते हुए अपने पूर्व पर्याय के बैल अवस्था में बोझा ढोने, भूखे-प्यासे घूमने, पड़े रहने आदि के सभी स्थान पहचान लिए। वह हाथी से उतरकर दुखित हो बहुत देर तक बैल के मरने की भूमि को देखता रहा और सोचता रहा।
‘‘मेरे समाधिमरण के दाता वे श्रावक महापुरुष कौन हैं ?’’ पुनः उनको खोजने का उसने एक उपाय सोचा। उसने उसी स्थान पर वेैâलाशपर्वत के शिखर के समान उन्नत एक जिनमंदिर बनवाया उसमें अनेक चित्र बनवा दिये, उसी मंदिर के द्वार पर एक जगह उसने बैल को पंच नमस्कार मंत्र सुनाते हुए पुरुष का चित्र भी बनवा दिया और मंदिर के द्वार पर उसकी परीक्षा के लिए चतुर कर्मचारी नियुक्त कर दिये।
एक दिन जिनमंदिर की वंदना के लिए पद्मरुचि श्रावक वहाँ आ गया तब वह उस बैल के चित्र को आश्चर्ययुक्त हो एकटक देखता रहा। तभी द्वार पर नियुक्त कर्मचारियों ने यह समाचार राजपुत्र को पहुँचा दिया। वृषभध्वज राजकुमार तत्क्षण ही हाथी पर बैठकर वहाँ आ गये और चित्रपट को तल्लीनता से देखते हुए पद्मरुचि के चरणों में साष्टांग नमस्कार किया।
पद्मरुचि ने उस चित्र का परिचय देते हुए बताया कि-
‘‘यह बैल दुःखी हुआ सिसक रहा था तब मैंने इसे महामंत्र सुनाया था……।’’
इतना सुनते ही राजपुत्र ने कहा-
‘‘स्वामिन्! वह बैल का जीव मैं ही हूँ। मुझे जातिस्मरण के हो जाने पर भी मेरे उपकारी कौन हैं ? जब मैं यह पता नहीं लगा सका तभी मैंने यह मंदिर बनवाकर यह चित्रपट मात्र आपको खोजने के लिए ही बनवाया था……। सो आज आप जैसे परमोपकारी को पाकर मैं धन्य हो गया हूँ।’’ तुमने मेरा जो भला किया है वह न माता कर सकती है न पिता कर सकते हैं, न सगे भाई और न परिवार के अन्य लोग ही कर सकते हैं और तो क्या देवगण भी वैसा उपकार नहीं कर सकते हैं। तुमने जो मुझे महामंत्र सुनाकर पशुयोनि से मनुष्य पर्याय में पहुँचाया है उसका मूल्य यद्यपि मैं नहीं चुका सकता फिर भी मेरी आप में परमभक्ति है, सो हे नाथ! मुझे आज्ञा दो मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? हे स्वामिन् ! आप यह मेरा समस्त राज्य ले लो और मैं अब आपका दास बनकर आपकी जीवन भर सेवा करता रहूँगा।’’ तब पद्मरुचि ने कहा-
‘‘हे महापुरुष! यह महामंत्र का ही प्रभाव है मैं तो इसमें निमित्त मात्र हूँ।…..’’
उस मंदिर में दोनों का आपस में इतना प्रेम हो गया कि दोनों अभिन्न मित्र बन गये। दोनों ने मिलकर राज्य संचालन किया उन दोनों का संयोग चिर संयोग हो गया जो कि आगे मोक्ष जाने तक रहा है। आगे चलकर ये पद्मरुचि तो श्रीरामचन्द्र हुए हैं और वृषभध्वज सुग्रीव हुए हैं दोनों एक साथ मांगीतुंगी से मोक्ष गये हैं।
अनेक भवों तक चली दोनों की मित्रता-
उस समय वे दोनों मित्र सम्यक्त्व और अणुव्रत से सहित थे। उन्होंने मिलकर पृथ्वी पर अनेक जिनमंदिर बनवाये और बहुत सी रत्नमयी जिनप्रतिमाएं विराजमान करायीं। सैकड़ों स्तूपों से पृथ्वी को अलंकृत किया। अन्त में समाधि से मरण कर वृषभध्वज ईशान स्वर्ग में देव हुआ। इधर पद्मरुचि भी समाधिमरण से मरकर उसी ईशान स्वर्ग में वैमानिक देव हो गया।
कालांतर में यह पद्मरुचि का जीव देव वहाँ से चयकर विदेह क्षेत्र के विजयार्ध के राजा विद्याधर नंदीश्वर की कनकाभा रानी से नयनानंद नाम का पुत्र हुआ। यहाँ भी मुनिदीक्षा लेकर तपश्चरण के प्रभाव से मरणकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ से चयकर क्षेमपुरी नगरी में राजा विपुलवाहन की रानी पद्मावती के श्रीचन्द्र नाम का पुत्र हुआ। यहाँ भी ये समाधिगुप्त मुनि से जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महान तप अनुष्ठान करके ब्रह्मस्वर्ग में इन्द्र हो गये।
श्री सकलभूषण केवली कहते हैं-‘‘हे विभीषण! इस ब्रह्मेंद्र की विभूति का वर्णन बृहस्पति सौ वर्ष में भी नहीं कह सकता है। अनंतर ये ब्रह्मेन्द्र वहाँ से चयकर राजा दशरथ की रानी कौशल्या-अपराजिता की पवित्र कुक्षि से श्रीरामचन्द्र नाम के बलभद्र हुए हैं।
सीता और रावण के भव-भवान्तर-
अब सीता और रावण आदि के भवों का खुलासा करते हैं-
मृणालकुंड नगर में विजयसेन राजा का पुत्र वङ्काकंबु था, इसके शंभु नाम का पुत्र हुआ। इस राजा के पुरोहित का नाम श्रीभूति था। वह ‘‘गुणवती’’ कन्या का जीव मुनिनिंदा के पाप से हथिनि हुई थी वहाँ एक बार नदी के किनारे कीचड़ में पँâस गई और मरणासन्न स्थिति में सूं-सूं कर रही थी तभी एक दयालु विद्याधर ने उसे णमोकार मंत्र सुना दिया। जिसके प्रभाव से वह वहाँ से मरकर इधर पुरोहित की पत्नी सरस्वती से ‘‘वेदवती’’ नाम की पुत्री हो गई। एक बार दिगम्बर मुनि की हंसी करते हुए पिता के द्वारा समझाये जाने पर वह श्राविका हो गई।
यह अतिशय रूपवती थी अतः कई एक राजकुमार इसे चाहते थे, इनमें भी शंभु राजकुमार खासकर इससे विवाह करना चाहता था किन्तु पुरोहित श्रीभूति ने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मिथ्यादृष्टि राजा चाहे कुबेर ही क्यों न हो उसे मैं अपनी पुत्री नहीं दूँगा। इससे कुपित हो शंभु ने रात्रि में सोते हुए पुरोहित को मार डाला। यह मरकर जैनधर्म के प्रसाद से देव हो गया।
वेदवती ने भी पिता के अभिप्राय अनुसार शंभु के साथ विवाह करने से इंकार कर दिया। तब एक दिन काम से संतप्त हो शंभु ने वेदवती से बलात् ही मैथुन सेवन किया। जिससे वह अत्यन्त कुपित हो बोली-‘‘अरे नीच! तूने मेरे पिता को मारा है पुनः जबरन मेरे शील को भंग किया है अतः ‘‘मैं अगले भव में तेरे वध के लिए ही उत्पन्न होऊँगी।’’ ऐसा निदान बंध कर लिया। अनंतर इस बाला ने हरिकांता आर्यिका के पास जाकर आर्यिका दीक्षा लेकर घोरातिघोर तपश्चरण किया।
वेदवती द्वारा मुनि के ऊपर गलत आरोप लगाने से सीता की पर्याय में लोकापवाद उठाना पड़ा-
आर्यिका होने से पहले एक बार इस वेदवती ने उद्यान में सुदर्शन मुनि को देखा था वहाँ उन मुनि की सुदर्शना बहन आर्यिका अवस्था में उनके पास बैठी थी वे मुनि और उसे कुछ उपदेश दे रहे थे। इस वेदवती ने गाँव में आकर लोगों से कहा-‘‘ये मुनि एक सुन्दर महिला से वार्तालाप कर रहे थे अतः वे निर्दोष वैâसे हो सकते हैं ? इत्यादि।’’
कुछ लोगों ने इसकी बात पर विश्वास नहीं किया और कुछ लोग विश्वास करने लगे। जब इस अपवाद का श्री मुनिराज को पता चला तब उन्होंने नियम ले लिया कि ‘‘जब तक मेरा अपवाद दूर नहीं होगा मैं आहार नहीं करूँगा।’’ तभी वनदेवता ने वेदवती को फटकारा जिससे उसने सभी से कहना शुरू किया कि ‘‘मैंने यह झूठा आरोप लगाया था।’’ पुनः उसने मुनि से भी क्षमा कराकर अन्य जनों को भी विश्वास दिलाया।
इस प्रकार वेदवती ने जो बहन-भाई की निंदा की थी उसी के फलस्वरूप सीता की पर्याय में उसे लोकापवाद का कष्ट उठाना पड़ा है। आचार्य कहते हैं कि-‘‘यदि सच्चा दोष भी देखा हो तो भी जिनमतावलंबी को नहीं कहना चाहिए और कोई दूसरा कहता हो तो उसे सब प्रकार से रोकना चाहिए। फिर जो लोक में विद्वेष पैâलाने वाले ऐसे जैनशासन संंबंधी दोषों को कहता है वह दुःख पाकर चिरकाल तक संसार में भटकता रहता है। किये हुए दोष को प्रयत्नपूर्वक छिपाना यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्न का बड़ा भारी गुण है। अज्ञान या मत्सरभाव से भी जो किसी के मिथ्या दोष को प्रकाशित करता है वह मनुष्य जिनधर्म के बिल्कुल ही बहिर्भूत है।’’
वेदवती का जीव कालान्तर में सीता बना-
वेदवती समाधिमरण के प्रभाव से ब्रह्मस्वर्ग में देवी हुई। वहाँ से चयकर राजा जनक की रानी विदेहा से सीता नाम की पुत्री हुई है। गुणवती की पर्याय में जो गुणवान भाई था वही कुंडलमंडित होकर स्वर्ग गया था, वहाँ से च्युत हो यह भी विदेहा के गर्भ में एक साथ आ गया और ये दोनों युगलिया भाई-बहन हुए हैं भाई का नाम भामंडल है।
धनदत्त का भाई वसुदत्त ही लक्ष्मण हुआ है और उसका मित्र यज्ञबलि ही तू विभीषण हुआ है। जो वृषभध्वज राजकुमार था वही यह सुग्रीव हुआ है। श्रीकांत का जीव ही शंभु हुआ था पुनः वेदवती को न प्राप्त कर मिथ्यात्व से संसार में भ्रमण करता हुआ कदाचित् वह कुशध्वज ब्राह्मण की पत्नी सावित्री से प्रभासकुंद पुत्र हुआ वहाँ विचित्रसेन मुनि के समीप दिगंबरी दीक्षा धारण कर खूब तपश्चरण किया। एक बार सम्मेद शिखर की वंदना के लिए गया था। वहाँ आकाश में कनकप्रभ विद्याधर की विभूति देखकर निदान कर लिया, कि-‘‘यदि मेरे तपश्चरण में कुछ माहात्म्य है तो मैं भी आगे ऐसा ही विद्याधर का वैभव प्राप्त करूँ।’’
श्री गौतम स्वामी कहते हैं-‘‘अहो! इस मूर्खता को धिक्कार हो! देखो, उसने त्रिलोकीमूल्य रत्न को शाक की एक मुट्ठी में बेच दिया।’’
शंभु राजकुमार का जीव कालान्तर में रावण बना-
यह प्रभासकुंद मुनि अंत में समाधिमरण से मरकर सानत्कुमार स्वर्ग में देव हो गया वहाँ से च्युत हो लंका नगरी के राजा रत्नश्रवा की रानी वैâकसी से यह ‘‘दशानन’’ पुत्र हुआ है। इसने बालिमुनि पर उपसर्ग करने के लिए जब वैâलाशपर्वत उठाने की चेष्टा की तब उन मुनि की ऋद्धि के प्रभाव से वैâलाश पर्वत के नीचे दबने से रोने लगा था तभी से इसका ‘‘रावण’’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया था।
गुणवती के निमित्त से जो वसुदत्त ने श्रीकांत को मारा था तभी से इन दोनों का वैर चला आ रहा था यही कारण है कि लक्ष्मण के द्वारा यह रावण मारा गया है।
इस प्रकार सकलभूषण केवली का उपदेश सुनकर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये। अनेक भव्य जीव रावण और लक्ष्मण के परस्पर के कई जन्मों के वैर को सुनकर परस्पर में निर्वैर हो गये। मुनिगण संसार से भयभीत हो गये और कितने ही राजा लोग प्रतिबद्ध हो दीक्षा ग्रहण कर साधु हो गये।
‘‘अहो! सम्यक्त्व का प्रभाव अचिन्त्य है। आगे रावण और लक्ष्मण के जीव, सीता के जीव चक्रवर्ती के पुत्र होकर सगे भाई-भाई होंगे।
सीता का जीव प्रतीन्द्र अपने अवधिज्ञान से उन्हें देखकर स्नेह से आर्द्र हो वहाँ आता है और सोचता है कि ‘‘मैं इन्हें ध्यान से विचलित कर दूं तो ये मोक्ष न जाकर स्वर्ग में आ जावेंगे। यहाँ पर हमारे से मित्रता को प्राप्त होंगे। चिरकाल तक हम दोनों मेरु, नन्दीश्वर आदि की वंदना कर पुनः मर्त्यलोक में जन्म लेकर एक साथ निर्वाण प्राप्त करेंगे।’ ऐसा सोचकर वहाँ आकर अपना सीता का रूप बनाकर उन्हें विचलित करने के लिए अनेक उपाय करता है, अनेक स्त्रियों को बनाकर उनके द्वारा गीत, नृत्य, हाव-भाव का प्रदर्शन कराते हुए ध्यान में विघ्न डालना चाहता है किन्तु महामना राम सुमेरु के समान अचल हैं।
श्रीराम को केवलज्ञान की प्राप्ति एवं समवसरण रचना-
वे ध्यान के प्रभाव से घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र आदि के आसन कम्पित होते ही सब एक साथ वहाँ आ जाते हैंंं। आकाश में अधर समवसरण की रचना हो जाती है। श्रीराम केवली भगवान् उसमें कमलासन पर अन्तरिक्ष में विराजमान हैं। चारण ऋद्धिधारी मुनि आदि सभा में आ जाते हैं। बारह कोठों में सब यथा योग्य बैठ जाते हैं। उस समय यह सीता का जीव प्रतीन्द्र भी बार-बार नमस्कार कर प्रभु से अपने अपराध क्षमा करता हुआ प्रार्थना करता है-
‘हे नाथ! मुझ दुर्बुद्धि के द्वारा किया हुआ दोष क्षमा कीजिए, प्रसन्न होइये और मुझे भी कर्मों का अन्त प्रदान कीजिए।’’
मुनिराज की दिव्यध्वनि खिरती है-
‘‘हे सुरेन्द्र! राग छोड़ो, वैराग्य से ही मुक्ति होती है और रागी मनुष्य संसार में डूब जाता है। जिस प्रकार कंठ में शिला को बांधकर नदी नहीं तिरी जा सकती है उसी प्रकार राग-स्नेह से संसार नहीं पार किया जा सकता है। जो गुरुओं के कहे अनुसार प्रवृत्ति करता है वही संसार का अंत कर सकता है।’’
दशरथ आदि के भव-भवान्तर-
दिव्य उपदेश को सुनकर प्रतीन्द्र पूछता है-
‘‘भगवन् ! दशरथ आदि भव्य जीव कहाँ गये हैं ? सभी मुझे बताओ।’’
दिव्य वाणी खिरती हैै-
‘‘हे सुरेन्द्र! दशरथ आनत स्वर्ग में देव हुए हैं। कौशल्या आदि माताएं, जनक और कनक आनत स्वर्ग में ही देव हुए हैं। लव-कुश निर्वाण को प्राप्त करेंगे, भरत भी मोक्ष पधारेंगे और तुम्हारा भाई भामंडल उत्तरकुरु भोगभूमि में आर्य हुआ है। हनुमान, सुग्रीव आदि भी इसी भव में मोक्ष जायेंगे।
‘‘हे नाथ! मुझे निर्वाण की प्राप्ति कब होगी ?’’
‘‘सीतेन्द्र! रावण और लक्ष्मण जब विदेह क्षेत्र मे भाई-भाई होंगे पुनः देव होकर राजपुत्र होंगे पुनः स्वर्ग जायेंगे। तू स्वर्ग से आकर भरतक्षेत्र में चक्ररत्न नाम का चक्रवर्ती होगा तब रावण-लक्ष्मण के जीव वहाँ से आकर इन्द्ररथ और मेघरथ नाम के तुम्हारे पुत्र होंगे। रावण का जीव तीर्थंकर होगा तब तुम अनुदिश से आकर ‘‘उनके प्रथम गणधर होवोगे और निर्वाण को प्राप्त करोगे।’’ पुष्कर द्वीप के विदेहक्षेत्र में लक्ष्मण का जीव तीर्थंकर और चक्रवर्ती होकर निर्वाण को प्राप्त करेगा। मैं भी आज से सात वर्ष के बाद निर्वाण धाम को प्राप्त करूंगा।’’
अच्युतेन्द्र ने नरक में जाकर रावण के जीव को सम्यक्त्व ग्रहण कराया-
आगामी भवों को सुनकर सीतेन्द्र बहुत ही प्रसन्न हो जाता है। वह पुनः तृतीय नरक में जाकर रावण के जीव को देखता है। शंबूक असुरकुमार देव हुआ था सो वहाँ रावण को लड़ा रहा है। सीतेन्द्र कहता है-
‘‘रे रे पापी शंबूक! तू यह क्या कर रहा है ? अरे देख! वैर का फल कितना कटु होता है ? अब तो अधर्म को छोड़ और धर्म की शरण ले।’’ पुनः नारकियों को सम्बोधन करते हुए कहता है-
‘‘अरे नारकियों! धर्म के बिना तुम लोग यहाँ आये हो अतः अब पाप से डरो। जिनेन्द्रदेव के द्वारा कथित सम्यक्त्व को ग्रहण करो।’’
रावण का जीव पूछता है-
‘‘आप कौन हैं ?’’ सीतेन्द्र कहता है-
‘‘मैं सीता का जीव प्रतीन्द्र हूँ। तुम्हें मैं यहाँ से निकालकर अभी ऊपर ले चलता हूँ।’’
यह कहकर जैसे ही इन्द्र उन्हें उठाता है वह नवनीत के समान पिघल जाता है पुनः उसका शरीर बन जाता है। जब लाखाें उपाय के बाद भी वह इन्द्र उसे ऊपर लाने के लिए समर्थ नहीं होता है तब कहता है-
‘‘हे भव्य! अब यहाँ पर तुम सम्यक्त्व रत्न को ग्रहण करो वही तुम्हें उत्तम गति में ले जाने में समर्थ है। हम तो क्या साक्षात् जिनेन्द्र भी तुम्हें यहाँ से आयु पूरी हुए बगैर अन्यत्र ले जाने के लिए समर्थ नहीं हैं।’’
वह नारकी सम्यक्त्व ग्रहण कर लेता है और कहता है-
‘‘हे देवेन्द्र! जाओ जाओ, तुम स्वर्गों के सुख का अनुभव करो। अब हमें श्री जिनेन्द्रदेव की ही शरण है जब हम यहाँ से निकलेंगे तब जिनदेव कथित धर्म को ही धारण करेंगे।’’
उस समय सीतेन्द्र केवली भगवान् द्वारा कहे गये आगामी भवों को उन्हें सुना देता है और कहता है-
‘‘हे रावण! जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसका बलात् उपभोग नहीं करूँगा इस प्रतिज्ञा के निभाने से तूने मेरे साथ बलात्कार नहीं किया था इसी स्नेह से मैं आज यहाँ आकर तेरा हित करने में तत्पर हुआ हूँ।’’
पुनः-पुनः उसे सम्बोधन कर वह देवेन्द्र अपने स्थान को चला जाता है।
मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र से श्रीराम ने प्राप्त किया मोक्ष-
राम की आयु सत्रह हजार वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई ६४ हाथ प्रमाण थी। मुनि होने के बाद पच्चीस वर्ष पूर्ण होने पर वे योगों का निरोध करते हैं और अघातिया कर्मों का भी अंत करके शाश्वत सिद्धक्षेत्र को प्राप्त कर लेते हैं। वहाँ पर वे अनंत-अनंत काल तक परमानंदमय अव्याबाध सुख का अनुभव करते रहेंगे। भगवान् श्रीरामचन्द्र इस संसार में अब कभी भी पुनर्भव धारण नहीं करेंगे। ऐसे महामना श्रीरामचन्द्र का मर्यादाशील आदर्श जीवन सभी को मर्यादा पालन करने रूप आदर्श जीवन की चिरकाल तक प्रेरणा देता रहेगा।