सेठ हेमदत्त के घर की सजावट किसी राजमहल से कम नहीं दिख रही है, कहीं पर मोतियों की झालरें लटक रही हैं, कहीं पर मखमल के चंदोये बंधे हैं। दरवाजों-दरवाजों पर सुन्दर-सुन्दर रत्नों से जड़े हुए तोरण बंधे हुए हैं। कहीं पर रंग-बिरंगी काँच के झरोखे से छन-छन कर आती हुई सूर्य की किरणें इन्द्रधनुष की आभा बिखेर रही हैं तो कहीं पर रेशमी पर्दे आकाशगंगा के समान लहरा रहे हैं। घर और बाहर का भाग चारों तरफ से नगर के नर-नारियों से खचाखच भरा हुआ है। सेठानी हेमश्री आज खुशी से फूली नहीं समा रही हैं, सो ठीक ही है उसके लाडले सातवें पुत्र बुद्धिसेन की शादी होकर घर में अतिशय रूपवती बहू आई हुई है। आज सेठजी के यहाँ जीमनवार है। बल्लभपुर शहर के सभी स्त्री-पुरुष प्रसन्नमुख दिख रहे हैं, कोई जीमकर जा रहे हैं और कोई आ रहे हैं। गली-गली में धूम मची हुई है। सभी के मुख पर एक ही चर्चा है कि भाई! हेमदत्त सेठ का आखिरी संबंध बहुत अच्छा हुआ है, उन्हें बहुत अच्छे समधी मिले हैं। हस्तिनापुर के सेठ महारथ बावन करोड़ दीनारों के धनी हैं, उनकी सुपुत्री मनोवती बहुत ही सुशील कन्या है। उसने भी पूर्वजन्म में महान् पुण्य अर्जित किया होगा जो उसे ऐसा घर और वर मिला है, क्या सुन्दर अनुरूप जोड़ी है ? कोई महिला चर्चा कर रही है, अरी बहन! अपने सेठ हेमदत्त भी छप्पन करोड़ दीनारों के मालिक हैं। इनके बड़े-बड़े व्यापार हैं, ये बड़े नामी जौहरी हैं। सुना है कि इनके नये समधी भी बहुत विख्यात जौहरी हैं। वे भी तो बल्लभपुर शहर में बहुत ही विख्यात पुरुष हैं। दूसरी बोल उठती है-बहन! सम्पत्ति का क्या देखना, बस लड़के को लड़की अनुकूल चाहिए और लड़की को पति अनुकूल चाहिए जिससे उन दोनों का दांपत्य जीवन सुख से चले। फिर यदि पैसा भाग्य में है तो लड़का अपने आप अपने पुरुषार्थ से कमाकर धनी बन जाता है और भाग्य में नहीं है तो कई पीढ़ियों का कमाया हुआ धन भी पता नहीं चलता कि किधर चला जाता है। मैं तो मेरी कन्या के लिए यही सोचा करती हूँ कि इसे पति धर्मात्मा मिले। तीसरी बोलने लगती है-सच है बहन, मेरी लड़की का पति दुर्व्यसनी है, सारी बाप की कमाई की पचासों करोड़ सम्पत्ति बरबाद कर दी। मेरी लड़की के गहने जेवर भी बेच कर खा गया। क्या करूँ, मैं तो बहुत दुःखी हूँ। तभी एक महिला बोलने लगती है-हाँ सच है बहन! इस मनोवती ने तो खूब ही पुण्य किया होगा, तभी इसे सर्वगुणसम्पन्न पति मिला है। इस प्रकार से शहर में तरह-तरह की मधुर चर्चायें चल रही हैं।
मनोवती ने लिया मौन-
सेठ हेमदत्त अपनी बैठक में आनन्द से बैठे अपने रिश्तेदारों से मनोविनोद कर रहे हैं। अकस्मात् सेठानी जी पहुँचती हैं तो सभी इधर-उधर हो जाते हैं। सेठानी उदासमुख हुई यथोचित स्थान पर बैठ जाती हैं। सेठ जी सेठानी को चिंतित उदास मुख देखकर आश्चर्य से पूछते हैं-कहिये, क्या बात है ? अपने यहाँ आज तो चारों तरफ मंगल ही मंगल हो रहा है, खुशी का कोई पार नहीं है, फिर इस समय आपका मुख उदास क्यों दिख रहा है ? अरे! घर में कामकाज करने वाले तो बहुत लोग हैं और फिर दास-दासियाँ आपके इशारे पर दौड़ रहे हैं फिर भला आप इतना क्यों थक गयीं ? सेठानी विनम्रता से उत्तर देती हैं कि मैं कामकाज से नहीं थक गई किन्तु मेरी चिन्ता का कुछ कारण दूसरा ही है।
‘‘सो क्या है ?’’
‘‘नई बहू तो मौन लिए बैठी है कुछ बोलती ही नहीं है।’’
‘‘तो क्या हो गया ? इसकी चिन्ता तुम्हें क्यों हो गई ? (हँसने लगते हैं)’’
‘‘अभी तक घर की किसी भी महिला ने खाना नहीं खाया है और आप कहते हैं कि चिन्ता क्यों हो गई ?’’
सेठ जी आश्चर्यचकित होकर पूछते हैं-
‘‘क्यों ? खाना नहीं खाने का क्या कारण है ?’’
‘‘जब सब जीमन निपट चुका, तब हमने सभी आगत मेहमानों को भी जिमा दिया, आप लोग सभी जीमकर आ गये। तब मैं बहू के पास गई और बोली कि बहू! चलो भोजन करो, मुझे खड़े-खड़े घंटों हो गये किन्तु वह कुछ बोलती ही नहीं है।’’
‘‘अरे! यह रंग में भंग कहाँ से आ गया है ?’’
सेठजी एक मिनट कुछ सोचते हैं पुनः सेठानी को समझाते हुए कहते हैं-
‘‘आप चिन्ता न करें। मेरी समझ में नयी बहू संकोच कर रही होगी, छोड़ो, आप सभी लोग भोजन कर लो फिर देखा जायेगा।’’
हस्तिनापुर में खबर होते ही माता-पिता को चिन्ता हुई-
सेठानी वापस चली आती हैं, सब लोग भोजन कर लेते हैं। मनोवती निश्चिंत और प्रसन्नचित्त अपने मन में णमोकार मंत्र का जाप कर रही है। दूसरे दिन भी यही स्थिति रहती है। तब सेठजी कहते हैं देखो! आज अपने सभी परिवार के लोग भी भोजन नहीं करेंगे, तभी भेद खुलेगा अन्यथा नहीं। फिर भी मनोवती मौन है, मन में महामंत्र का जाप चल रहा है। जब पूरे परिवार ने अन्न-जल नहीं लिया और फिर भी बहू ने मौन नहीं छोड़ा, तब सेठजी ने तुरंत ही हस्तिनापुर खबर भेज दी। सेठ महारथ और सेठानी महासेना एकदम घबरा उठे। हाय! मेरी पुत्री पर यह क्या मुसीबत आई ? और तत्क्षण ही अपने पुत्र मनोज कुमार को बल्लभपुर के लिए रवाना कर दिया और आप चिंतित हो सोचने लगे-
महासेना माता बोलती हैं कि-
‘‘विदा करते समय मैंने मनोवती को कितनी शिक्षाएं दी थीं कि बेटी! अब तू जहाँ जा रही है, वही तेरा घर है। तेरी सासू हेमश्री ही तेरी माता हैं और तेरे ससुर हेमदत्त ही तेरे पिता हैं। तू उन्हें कुछ दिन में इतना आकर्षित कर लेना कि वे तेरे विषय में यह पुत्रवधू है या पुत्री ? ऐसा भेद ही न कर सकें ?’’
महारथ सेठ भी कहते हैं-
‘‘मैंने भी तो यही शिक्षा दी थी कि बड़ों की आज्ञा पालना और छोटों पर प्यार रखना, जिससे घर में वातावरण सदैव सुखद स्वर्ग जैसा रहेगा।’’
‘‘अपनी कन्या पर मुझे विश्वास है कि उससे कोई भी गलती नहीं हो सकती है। फिर भी पता नहीं क्या कारण है जो कि वह तीन दिन से भूखी है ?’’
माता रो पड़ती है तभी सेठ जी सान्त्वना देते हुए कहते हैं-
‘‘आप इतनी समझदार होकर यह बच्चों जैसे कार्य क्यों कर रही हो ? शांति रखो, मनोज गया है। वह आयेगा तो सारी बात स्पष्ट हो जायेगी। व्यर्थ ही मन में नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करके मन को क्यों खिन्न कर रही हो ?’’
‘‘सच है, पुत्रियों के पीछे सदैव दुःख ही दुःख रहते हैं। युवती हुई तो ब्याह की चिन्ता ? ब्याह हो जाये तो उसको विदा करते समय कलेजा फटता है, उसको याद कर-करके रोना आता रहता है और यदि उसे ससुराल में सुख न मिला तो फिर रातदिन घुलन ही घुलन रहती है।’’
‘‘व्यर्थ ही इतना संताप क्यों करती हो ? तुम्हें क्या पता, सारी हस्तिनापुरी नगरी के लोग इस घर और वर की सराहना कर रहे हैं और फिर ससुराल की अनुकूलता तुम वैâसे नहीं समझ रही हो ? देखो! उस आदमी ने तो यह भी बताया था कि कल के दिन सेठजी स्वयं निराहार रहे हैं और सारे परिवार ने भी भूख हड़ताल कर दी है कि जिससे बहूरानी कुछ बोलें और भोजन करें किन्तु वह फिर भी मौन है।’’
इतना सुनकर सेठानी चुप हो जाती हैं और सेठजी बाहर चले जाते हैं।
मनोवती ने भाई को अपनी दर्शन प्रतिज्ञा के विषय में बताया-
मनोजकुमार बल्लभपुर पहुँचकर सेठजी के घर पर पहुँचते हैं। सब लोग स्वागत करते हैं। पुनः पहले यही बोलते हैं-भाई! आपकी बहन ने तीन उपवास कर लिये, आज चौथा दिन है। क्या कोई व्रत चल रहा है ? या अन्य कोई कारण है ? पहले इस बात का निर्णय करो, पीछे कोई अन्य बात होगी। मनोज बहन से मिलता है और बोलता है-
‘‘बहन! तुमने यह क्या किया ? यहाँ के मंगलमयी वातावरण को अमंगलीक क्यों बना दिया ? तुमने भोजन क्यों नहीं किया ?’’
‘‘भ्रात! मैंने महामुनि के निकट ऐसी प्रतिज्ञा ली थी कि जब मैं जिनमंदिर में जिनेन्द्रदेव के समक्ष गजमोती चढ़ाऊँगी, तब भोजन करूँगी। सो भाई! यहाँ पर कहीं मुझे गजमोती तो दिखते नहीं हैं अतः तुम कुछ नहीं बोलना, बस जल्दी से मुझे घर लिवा ले चलो, मैं वहीं गजमोती के पुंज चढ़ाकर जिनदर्शन करके भोजन करूँगी।’’
मनोज सेठ हेमदत्त से मिलकर निवेदन करते हैं कि आप अभी इसे मेरे साथ भेज दीजिए। घर पहुँच कर भोजन करेगी। आप कोई चिन्ता न करें। लड़की भोली है। संकोच कर रही है। तब सेठ जी ने कहा आपकी यह बात कुछ महत्त्व नहीं रखती है। जो कारण है, सो आपको स्पष्ट करना ही पड़ेगा। फिर यहीं पर भोजन करने के बाद मैं तुम्हारे साथ विदा कर दूँगा। तब मनोज कुमार ने सारी स्थिति स्पष्ट कर दी। सेठ जी सुनकर हँस पड़े और तत्क्षण ही अन्दर पहुँचकर बहू को पुत्री के समान समझाते हुए बोले-बेटी मनोवती! तूने व्यर्थ ही संकोच क्यों किया ? मुझे क्यों नहीं बताया ? और इतना कहते ही तुरंत भंडारी को बुलाकर भंडार खुलवा दिया।
मनोवती ने गजमोती चढ़ाकर भोजन किया, सभी ने उसके धैर्य की प्रशंसा की-
हीरे-मोती-माणिक और रत्नों के ढेरों की जगमगाहट से देखने वालों की आँखें चकाचौंध हो गईं। उनका प्रकाश घर भर में पैâल गया, मानों सेठजी का पुण्य ही अपना उद्योत पैâला रहा है।
मनोवती ने सास-श्वसुर की आज्ञा से स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहन कर गजमोतियों के पुंज डिब्बी में रखे और जिनमंदिर पहुँच गई। अतीव भाव-भक्ति से श्री जिनेन्द्रदेव के दर्शन करके अपने जीवन को कृतार्थ माना और प्रभु के सन्मुख गजमोतियों के पुंज चढ़ा दिये। घर आकर भोजन किया। अनन्तर मनोज कुमार के आग्रह से सेठजी ने बहू की पीहर के लिए विदाई कर दी। सभी ने उसके धैर्य की सराहना की। देखो! बहू बहुत ही सुलक्षणा है। अपने नियम के निर्वाह में अटल है। धैर्य के साथ तीन उपवास कर गई, रोने-धोने का काम नहीं, घबराने का भी काम नहीं, प्रसन्न मुख ही रही। यह एक होनहार स्त्रीरत्न है।
मालिन अपने पतिदेव से कह रही है। देखो न! कितने बेशकीमती मोती हैं। माली की आँखें मोतियों की जगमगाहट से उन पर नहीं टिक रही हैं। वह स्तब्ध रह जाता है। ओहो! बहुत बड़े आश्चर्य की बात है। मेरे यहाँ न जाने कितनी पीढ़ियों से इसी मंदिर जी की सेवा का काम चल रहा है, मेरे पुरखों ने कभी भी ऐसा बढ़िया मोती आँखों से भी नहीं देखा था। आज इस बल्लभपुर में कौन ऐसा पुण्यवान् आया है जो इन मोतियों को चढ़ा गया है ? क्या मंदिर जी में देवता लोग तो नहीं आये हैं ? हमने बहुत बार अपने बाबा के मुख से सुना था कि जैन मंदिर जी में कभी-कभी देवता लोग दर्शन को आया करते हैं। हो सकता है उन्होंने ऐसे दिव्य मोतियों के पुँज चढ़ाए हों ? कुछ भी हो, देखो चुन्नू की माँ! इन्हें अपने घर में नहीं रखना है। मालूम है तुम्हें! अगर राजा को पता चल जायेगा कि एक माली के घर इतनी उत्तम वस्तु है तो वह मुझे चोर समझकर मेरी सारी संपत्ति लुटवा लेगा और मुझे देश से भी निकाल देगा।
माली ने गजमोती को हार में गूंथकर राजा को भेंट किया-
भाई! यह बढ़िया माल अपने घर में वैâसे रखा जा सकता है ? इसलिए तुम बगीचे से बढ़िया चमेली के फूल ले आओ और उन फूलों के साथ में इनकी माला बनाकर राजमहल में ले जाना। तुम्हें इनाम भी अच्छा मिलेगा ! समझ गई ना……..बस चतुराई से काम करना।
मालिन बहुत ही सुन्दर हार गूंथकर राजमहल में पहुँच जाती है और महाराजा साहब की छोटी महारानी के गले में पहना देती है। रानी विभोर हो उठती हैं और उसे बहुत सी सुवर्ण की मुहरें इनाम में दे देती हैं। उधर बल्लभपुर नरेश मरुदत्त महाराज को रनवास से कुछ सूचना मिलते ही वे अकस्मात् राजदरबार से चलकर बड़ी महारानी मनोरमा जी के महल में पधारते हैं और महारानी की अतीव विक्षिप्त मनःस्थिति को देखकर अवाक् रह जाते हैं-
‘‘प्रिये! राजवल्लभे! अकस्मात् ही तुम्हारी चिन्ता का क्या कारण है ? कहो शीघ्र ही स्पष्ट कहो!……किसकी मृत्यु नजदीक आई है कि जिसने तुम्हारे मन को व्यथित किया है ? क्या उसे नहीं मालूम कि मेरा शासन कितना कठोर है ?’’
महारानी जैसे-तैसे अपने धैर्य को संभालकर आँसू पोंछते हुए बोलती हैं-
‘‘महाराज! अब मैं इस घर में जीवित नहीं रह सकती। ओह!……मेरा इतना अपमान!……आपका मेरे प्रति सब दिखावटी प्रेम है, आपको तो अपनी कुसुमा रानी पर ही सच्चा प्रेम है और यही कारण है कि आज यह दुर्दिन मुझे देखने को मिला। बस अब मुझे आपका किंचित् भी प्रेम नहीं चाहिए। मुझे तो बस एकमात्र विष चाहिए।’’
महाराज का सारा शरीर निश्चेष्ट जैसा हो जाता है। वे एकटक महारानी को देखते ही रह जाते हैं पुनः सान्त्वना देते हुए कहते हैं-
‘‘प्राणवल्लभे! तुमने आज मेरे प्रति यह अन्यथा कल्पना कैसे बना ली है ? क्या मैंने कभी तुम्हारी उपेक्षा की है ? अथवा तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट दिया है ? कहो तो सही आखिर बात क्या है ? मेरे हृदय को इस तरह क्यों व्यथित कर रही हो ?’’
‘‘बस, बस! अब आप अपनी इन चिकनी-चुपड़ी बातों को रहने दीजिए। अब तो जो होना था, सो हो ही गया। अब मुझे इस संसार में रहकर ऐसा अपमान नहीं झेलना है।’’
‘‘देवि! बिना कुछ कहे आखिर मैं कोई केवलज्ञानी तो नहीं हूँ, तुम अपने अपमान को बताओ तो सही! फिर देखो उसका सही प्रतिकार होता है या नहीं ? एक बार मुझे प्रेम की परीक्षा में उत्तीर्ण होने का अवसर तो दो ? बोलो, किसने तुम्हारा अपमान किया है ?
‘‘नाथ! इस नगर में मेरा क्या सम्मान है ? आप ही बताइये! जब जाति की मालिन भी मेरा अपमान कर सकती है तो इससे बढ़कर दुःख की बात मेरे लिए अब और कौन सी हो सकती है ?’’
महाराज अतीव आश्चर्य के साथ आगे की पूरी बात समझने की इच्छा व्यक्त करते हैं-
‘‘अरे! मालिन!…..उसने क्या अपमान किया है ?’’
‘‘वह आज एक सुन्दर हार बनाकर लाई थी जिसमें एक-एक चमेली की कली के बीच में बहुत ही ऊँची जाति के सुन्दर-सुन्दर गजमोती गुंथे हुए थे। उसने वह हार…….आपकी प्राणप्यारी महारानी कुसुमाजी को पहना दिया। यदि आप उसका सम्मान अधिक न करते होते तो मालिन का भला ऐसा अतिसाहस क्यों होता ?’’
राजा मरुदत्त सारी स्थिति को स्पष्ट समझ लेते हैं और एक बार तो उस मालिन के प्रति क्रोध से आगबबूला हो उठते हैं। दूसरे ही क्षण अपने को एक तुच्छ महिला के प्रति क्रोध करना कर्तव्य नहीं है, ऐसा सोचकर अपने क्षत्रियोचित धर्म को लक्ष्य में रखते हुए रानी को सान्त्वना देते हैं-
‘‘महादेवि! बस!…….इतनी तुच्छ सी बात को लेकर आपको इतना विषाद! ओह!……वल्लभे! उसके लिए तो मालिन ने फूल सहित मोतियों का हार बनाया है और तुम्हारे लिए बस एकमात्र गजमोतियों का ही हार बनवाऊँगा। उठो, मुखप्रक्षालित करो और विषाद का सर्वथा त्याग कर यह भाव भी मन से निकाल दो कि मेरे हृदय में तुम्हारे सम्मान में किंचित्मात्र भी कमी है। देखो! तुम इतनी समझदार स्त्रीरत्न होकर इन क्षुद्र बातों में नाना प्रकार के विकल्पों को क्यों कर रही हो ?’’
महाराज स्वयं महारानी का हाथ पकड़कर उठाकर मुख प्रक्षालित कराते हैं और वातावरण शान्त हो जाता है।
दूसरे दिन महाराज मरुदत्त रत्नों से जटित सिंहासन पर विराजमान हैं। दूसरी तरफ मंत्री, आमात्यगण बैठे हुए हैं और सामने एक तरफ सभासद लोग उपस्थित हैं। वातावरण प्रसन्न है, समय देखकर राजा ने मंत्री से कहा-
‘‘मंत्रिन्! बल्लभपुर शहर के सभी जौहरियों को बुलाना है।’’
‘‘जो आज्ञा महाराज!’’
मंत्री ने शीघ्र ही कर्मचारियों को बुलाकर आदेश दिया कि जाओ! शहर के सभी जौहरियों को राजदरबार में उपस्थित होने के लिए सूचना करो। कर्मचारियों ने तत्काल ही सरकार की आज्ञा शिरोधार्य करके प्रत्येक जौहरी की दुकान-दुकान पर पहुँच कर उन्हें महाराज का आदेश सुना दिया कि महाराज ने आप सबको याद किया है। तब सभी जौहरी सेठ आपस में मिलकर विचार-विमर्श करने लगे, क्या कारण है जो आज महाराज ने हम सबको ही अकस्मात् बुलाया है ? अवश्य ही कुछ न कुछ रहस्य होना चाहिए ? जो भी हो, अन्त में सबों ने यही निर्णय किया कि अपन सब लोग एक साथ चलें और कोई भी बात हो, उसका उत्तर भी एक तरह का ही होना चाहिए। सब दरबार में उपस्थित होते हैं। महाराज भी सबका विशेष रूप से सम्मान करते हैं और सभा में बैठने का आदेश देते हैं। कुछ क्षण कुशल समाचार के अनन्तर महाराज मंद-मंद मुस्कान से सभासदों को अभिषिक्त करते हुए के समान ही बोलते हैं-
‘‘आप लोग जौहरी हैं अतः गजमोती पैदा कर दीजिए और जो कीमत लगे सो हमसे लीजिए।’’
सभी सेठगण एक क्षण आपस में एक-दूसरे का मुख देखने लगते हैं, पुनः उन्हें जब उस समूह में कोई भी इस कार्य के लिए सक्षम नहीं दिखता है तब वे एक स्वर में कहते हैं-
‘‘महाराज! यह काम तो हम लोगों में से कोई भी नहीं कर सकता है। गजमोती पैदा करना बहुत कठिन काम नहीं असंभव ही है।’’
‘‘देखो! कुछ क्षण और सोच लो, सभी लोग अपने-अपने को तोल लो, फिर बोलो।’’
सभी जौहरियों ने किया गजमोती होने की आनाकानी-
कुछ देर बाद भी सभी जौहरी यही उत्तर देते हैं कि हम लोगों में से किसी के यहाँ भी गजमोती नहीं हैं और न ही हम लोग कहीं से ला सकते हैं। उन्हीं में हेमदत्त सेठ भी थे उन्होंने भी ना कर दिया। पुनः सभी लोग महाराज से निवेदन करते हैं-
‘‘महाराज! और कुछ आज्ञा दीजिए कि जिसका हम लोग पालन कर सकें।’’
‘‘बस! हमें इस समय गजमोतियों की आवश्यकता थी। आप किसी के पास नहीं हैं सो ठीक! लेकिन ध्यान रखना, आज से लेकर आगे भविष्य में भी कुछ दिन बाद भी, छह महीने या वर्ष बाद भी यदि किसी के यहाँ गजमोतियों का पता चल गया तो समझ लेना हाँ!……बस!…….उसकी खैर नहीं है। उसको इतना कड़ा दंड दिया जायेगा कि उसकी खाल खींचकर उसमें भूसा भर दूँगा।’’
उस समय महाराज मरुदत्त का चेहरा एकदम लाल सुर्ख हो रहा था और अधर ओंठ फड़क रहा था। फिर भी जैसे-तैसे महाराज ने अपने क्रोध को शांत किया और मन मसोस कर रह गये। वे आखिर कर भी क्या सकते थे ? मंत्रीगण धीरे-धीरे क्षुब्ध वातावरण को शांत कर देते हैं और अन्य विषय की चर्चा छेड़ देते हैं। अनन्तर कुछ देर बाद सभा विसर्जित कर दी जाती है और सभी अपने-अपने घर आ जाते हैं।
सेठ हेमदत्त की चिन्ता का कारण बना मनोवती का गजमोती चढ़ाना-
सेठ हेमदत्त भी अपने घर पहुँचते हैं और अत्यन्त चिंता समुद्र में डूब जाते हैं। सोचते हैं, हाय! हाय यह क्या हुआ ? हाय! मेरे मुख से हाँ क्यों नहीं निकला ? मैंने भी सबके साथ में न क्यों कर दिया ? मेरा कौन से कर्म का उदय आ गया ? क्या मेरी जिन्दगी अब शेष नहीं है ? ओह! चार-छह महीने बाद पुनः बहू आयेगी। वह गजमोती चढ़ायेगी। वह तो किसी भी हालत में नहीं मानेगी चूँकि उसका नियम है। जब उसने पहली बार में आकर तीन उपवास कर डाले तो पुनः उसे वैâसे रोका जा सकता है ? अब क्या होगा ?…….उसी समय सेठ जी अपनी बैठक में बैठ जाते हैं और तत्क्षण ही अपने बड़े छहों पुत्रों को बुला लेते हैं तथा किवाड़ बंद करके एकांत में मीटिंग करते हैं।
‘‘बेटे धनदत्त! इस विषय पर तुम्हारा क्या अभिमत है ? कहो, यह तो बहुत बड़ा धर्मसंकट आया हुआ है। अब मेरी तो कुछ बुद्धि काम नहीं करती है। बोलो बेटा! अब क्या करना होगा ?’’
‘‘पूज्य पिता! आप इतने चिंतित क्यों हो रहे हैं ? अरे! जब आपके हाथ में पूरी सत्ता है, हम सब आपके आदेश को पूर्णतया पालन करते आ रहे हैं और करते रहेंगे, आपका कोई पुत्र भी ऐसा नहीं है जो कि आपकी आज्ञा में मीन-मेख निकाल सके। पूज्यपाद! आप तो जो उचित समझिये सो आदेश दीजिए।’’
‘‘मैं तो किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहा हूँ। बहू तो घर में आयेगी ही और गजमोती चढ़ायेगी ही। फिर क्या होगा…… ?’’
‘‘पिताजी! क्या बहू का घर में आना जरूरी ही है ?’’
सेठ हेमदत्त एकदम चौंक उठते हैं-
‘‘ऐं! बेटा! तुम यह क्या कह रहे हो ? क्या बहू छोड़ दी जायेगी ?’’
‘‘नहीं, नहीं, पिताजी!……मैंने यह तो नहीं कहा कि बहू को छोड़ देना होगा या बुद्धिसेन की दूसरी शादी करनी होगी।’’
‘‘तो तुम्हारा क्या अभिप्राय है ? कहो सो सही!’’
‘‘तात! मेरी समझ में तो यही आता है कि आप ऐसी दुर्घटना के प्रसंग में बुद्धिसेन को ही घर से निकाल दीजिए। न होगा बाँस न बजेगी बांसुरी। जब बुद्धिसेन ही घर में नहीं होगा तो बहू वैâसे घर में आयेगी ?’’
धनदत्त अपने पाँचों भाइयों का मुख देखने लगते हैं और सभी संकेत से स्वीकृति देकर उसी की बात का समर्थन कर देते हैं-
‘‘ओहो! पिताजी! आपकी चिंता को समाप्त करने का और अपने ऊपर आने वाले संकट को दूर करने का भाई साहब ने कितना बढ़िया उपाय सोचा है। बस, बस, यही बात हम सबको जँच रही है। आपको यही आदेश दे देना चाहिए और बहुत ही जल्दी करना चाहिए। इसमें आपको कुछ भी आगा-पीछा नहीं सोचना चाहिए।’’
सेठजी अपना माथा धुनने लगते हैं और उनकी आँखों से टपाटप आँसू टपकने लगते हैं-
‘‘हाय हाय! यह क्या हो गया ? बेटा! मेरे से ऐसा कार्य असंभव है। मैं इस निरपराधी सुकोमल सुकुमार बुद्धिसेन को वैâसे घर से निकाल दूँ ? भला उसने किसी का क्या बिगाड़ा है ?’’
सभी एक साथ बोल उठते हैं-
‘‘तो ठीक है पिताजी! वह आपका लाडला है तो आप उसे न निकालिये। हम छहों भाई अपनी भार्याओं वâे साथ निकल जायेंगे। कोई चिंता की बात नहीं है, आप शान्ति की श्वांस लीजिए। पिताजी! आपके अश्रु हम लोग देख नहीं सकते हैं, न तो जीवन में हमने कभी आपकी आँखों में पानी देखा था और न ही अब देखने का प्रसंग लाना चाहते हैं। बस आप धैर्य धारण करें। हम लोगों का यह अन्तिम निर्णय है।’’
सेठजी एकदम विह्वल हो उठते हैं और पुत्रों को पकड़कर अपने वक्षस्थल से लगा लेते हैं-
‘‘प्यारे पुत्रों! तुम लोग यह क्या बोल रहे हो ? क्या तुम लोगों के चले जाने के बाद हमारी आँखों का पानी रुक जायेगा ? क्या तुम्हारी माता अपने प्राण धारण रख सकेगी ? उसकी क्या स्थिति होगी और मेरी क्या गति होगी ? तुम लोगों को भला कुछ तो सोचना चाहिए।’’
धनदत्त, सोमदत्त आदि पुत्र पिता के वक्ष से अपने को अलग करते हैं और पुनः दीर्घ निःश्वास लेकर कुछ क्षण बाद बोलते हैं-
‘‘पिताजी! इस समय आपके सामने अपने वंश की रक्षा का, अपनी सम्पत्ति की रक्षा का एक ही उपाय है कि या तो आप उस एक बुद्धिसेन को अपनी आँखों से ओझल करें या तो हम छहों को ? इसके सिवाय अपने कुल की या अपने धन की रक्षा के लिए आपके पास कोई भी चारा नहीं है। आप स्वयं सोचें।’’
सेठ हेमदत्त ने पुत्र बुद्धिसेन को पत्र द्वारा दिया घर से निकलने का आदेश-
सेठजी कुछ क्षण तक नाना ऊहापोहों में अपने आपको भूल जाते हैं पुनः सावधान हो अपने मोह को संवृत कर बुद्धिसेन को निकालने की बात सोचते हैं। पुत्रों के कहे अनुसार हाथ में कागज और लेखनी लेकर उसे घर से निकल जाने का आदेश लिखना चाहते हैं परन्तु कलम उनकी जहाँ की तहाँ स्थित है। वे मन ही मन विचार कर रहे हैं…….कहाँ से यह बहू आई जो कि डाकिन बन गई, हाय! वह तो मेरी आँखों के तारे को ही मुझसे जुदा कर रही है। कहाँ की इसकी प्रतिज्ञा है कि गजमोती चढ़ाना ? यह भी कोई नियम है ? बड़ी शहंशाह की पुत्री बनी है। ऐसा मालूम पड़ता है कि इसे अपने पिता की सम्पत्ति का बहुत बड़ा गर्व था कि जिससे इसने ऐसा नियम ले रखा है, बड़ी धर्मात्मा बनी हुई है।……..
सेठजी के मन में उस मनोवती के प्रति और उसकी प्रतिज्ञा के प्रति नाना प्रकार की अवहेलना के भाव उठ रहे हैं। वे पुनः एक बार अपने बड़े पुत्र धनदत्त की तरफ देखकर बोल उठते हैं-
‘‘बेटा! अपने को यह वैâसी पुत्रवधू मिल गई ? और कैसी निराली इसकी प्रतिज्ञा है ? जो कि आज हम सबको संकट में डालने के लिए कारण बन रही है। यह भी कोई नियम है कि रोज ही गजमोतियों के पुंज चढ़ाना और फिर भोजन करना। क्या चावल के पुंजों से, नाना तरह के फलों से, फूलों से और अनेक प्रकार के सरस व्यंजन पकवान से, अष्ट द्रव्य के भरे हुए थालों से पूजा नहीं होती ? भगवान् संतुष्ट नहीं होते ? इसे क्या सूझी जो इसने ऐसी प्रतिज्ञा ले ली ?’’
‘‘सचमुच में बात यही है। प्रतिज्ञा लेने का भी कोई तरीका होता है चाहे जो कुछ ले लिया। भला उसे यह भी तो सोचना चाहिए था कि जब मैं ससुराल जाऊँगी तो क्या होगा ? जब उसे यहाँ गजमोती न मिलते तो ? यदि घर में या अपने शहर में ही गजमोती न होते तो ?…..क्या होता ? कब तक भूखी रहती ? वास्तव में लड़की निरी मूर्ख दिखती है और पापिनी भी। जभी तो उसके घर में पैर रखते ही ऐसी समस्या आकर खड़ी हो गई है। यह क्या घर को निहाल करेगी ? यह तो सभी को मृत्यु के मुख में पहुँचाने के लिए साक्षात् कोई महामारी ही है या कोई चुड़ैल ही है जो कि बहू के रूप में आ गई है। इसका काम बहुत जल्दी खत्म करना होगा नहीं तो पता नहीं और भी क्या-क्या आपदाएं आ जावें ?’’
सेठजी बहू की प्रतिज्ञा की निन्दा तो कर डालते हैं किन्तु पुनः उसके भोले चेहरे को स्मरण में लाकर विह्वल हो उठते हैं। ओहो! वह कितनी भोली कन्या थी! साक्षात् देवी का ही तो रूप! क्या तो उसके नियम की दृढ़ता! ओह! यह मेरा छोटा पुत्र मुझसे एक मिनट को भी दूर हो तो कलेजा फटने लगता था और अब मैं इसे निकालकर घर में वैâसे रहूँगा ? हेमश्री के मन में क्या बीतेगी ? अभी तो उसे कुछ पता नहीं है और यदि उसे पता चल जायेगा तो शायद उसको घर से निकालना शक्य नहीं होगा फिर क्या होगा ? क्या सचमुच में ये छहों बेटे चले जायेंगे ? क्या ये सुपुत्र मेरी छाती पर वङ्काप्रहार कर देंगे ?…….सेठजी इन्हीं चिन्ताओं में डूबते-उतराते हुए हाथ में लेखनी लिये हैं। लिखना चाहते हैं किन्तु उनकी आँखों से वर्षा ऋतु के समान झड़ी लग जाती है। उन्हें कागज दिखता ही नहीं है। इसी बीच में धनदत्त ने पिता के हाथ से कागज और कलम छीन लिया और बोला-‘‘पिताजी! लाइये, आपका आदेश मैं लिख देता हूँ।’’
सेठजी बिलख-बिलख कर रोने लगते हैं और मन ही मन बहू की प्रतिज्ञा को कोसते हैं। धनदत्त पत्र लिखता है-‘‘प्रिय बुद्धिसेन! यदि तुम्हें पूज्य पिताजी के वचन मान्य हैं तो इस घर की देहली के अन्दर पैर नहीं रखना, वापस उल्टे पैर इस देश से बाहर चले जाना। आपके लिए यह पिता का आदेश है।’’
बुद्धिसेन ने पिता की आज्ञा का पालन किया-
धनदत्त ने धाय को आवाज देकर बुलाया और उसे वह कागज देकर कहा। जाओ! तुम दरवाजे पर बैठ जाओ! जब बुद्धिसेन आयेगा उसे यह कागज दे देना। कह देना कि पहले यह पत्र पढ़े और फिर अन्दर प्रवेश करे। धाय जाकर बैठ जाती है आैर बुद्धिसेन दुकान से घर आते हैं। धाय के हाथ से पत्र पाकर उसे पढ़ने लगते हैं। उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है। वह एक बार सोचते हैं कि मैं नींद में तो नहीं हूँ ? क्या ऐसा भी हो सकता है ? मैंने भला क्या अपराध किया ? पिताजी ने बचपन से लेकर आज तक मुझे कभी भी फटकारा तक नहीं, स्वप्न में भी गुस्सा नहीं किया और आज एकदम ऐसा क्रोध उन्हें मुझ पर क्यों आया कि जो देश से निकाल रहे हैं ? आखिर रहस्य क्या है ? उन्होंने मुझे कुछ दोष क्यों नहीं बताया ?………कुछ देर तक स्तब्ध खड़ा रहता है पुनः सोचता है अहो! छहों भाई कुशल व्यवसायी हो चुके हैं इसलिए मुझे घर से निकाल रहे हैं अथवा…….. मेरे ही कुछ अशुभ कर्म का उदय आ गया है इसमें किसी का क्या दोष ? अब मुझे तो इस पत्र ने पिता से मिलने की, उनके चरण छूने की या माता से आशीर्वाद लेने की भी तो गुुंजाइश नहीं दी है। अब मेरा कर्तव्य क्या है ? मैं भूखा- प्यासा ऐसे ही किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुआ यहाँ से शीघ्र ही चला जाऊँ और आज ही इस शहर की सरहद के बाहर हो जाऊँ। बस! बस! मेरा यही कर्तव्य है। क्या कुलीन मनुष्य कभी संकटों से घबराते हैं ? क्या वे ऐसे समय में अपनी बुद्धि का, अपने भाग्य का सहारा नहीं लेते हैं ?…… अब मैं भी अपने दैव की परीक्षा करूँ। आखिर देखूँ तो सही कि मैंने पूर्वजन्म में क्या-क्या किया है ?…….
पुत्रवियोग में माता हेमश्री धैर्यरहित हो उठी-
बुद्धिसेन उल्टे पैरों वापस लौट जाते हैं और इधर जब बहुत समय व्यतीत हो जाता है तब माता हेमश्री पुत्र के घर न आने से चिंतित हो उठती हैं। जैसे-तैसे करके उसे भी अंत में यह सारी रामायण सुना दी जाती है और वह पुत्र के वियोग में पागल हो उठती हैं। तत्क्षण मूर्च्छित हो जाती हैं। बहुयें उनको शीघ्र परिचर्या करके होश में लाती हैं। सेठजी स्वयं आकर पहले तो वे आप ही पुत्रवियोग से शून्यहृदय होते हुए रोने लगते हैं पुनः जैसे-तैसे अपने धैर्य को समेट कर शान्ति से बैठकर हेमश्री को सान्त्वना देते हैं।
‘‘प्रिये! आप अब शोक दूर करो, जो होना था वह हो गया। अब यदि अपने भाग्य में होगा तो फिर इस जीवन में अपने को उसका मुख दिखेगा अन्यथा इन्हीं पुत्रों को देखकर संतप्त मन को शांत करो। वेदना मुझे भी है और अत्यधिक है परन्तु दैव के आगे किसी की कुछ भी नहीं चलती है।’’
‘‘स्वामिन्! आप जो भी कहते हैं सो सच है किन्तु मेरे साथ आपने इतना बड़ा धोखा क्यों किया ? आपने मुझसे पहले बात क्यों नहीं की ? मैं एक बार तो अपने प्यारे बेटे का ललाट चूम लेती। मैंं एक बार उसे अपनी छाती से लगा लेती, फिर आप निकाल देते।’’
‘‘देवि! समस्या उस समय ऐसी ही थी कि यदि मैं जरा भी ढील कर देता तो ये छहों बेटे जाने को तैयार थे…….बस अब तुम धैर्य धारण करो।’’
हेमश्री फूट-फूटकर रोती है। सेठ हेमदत्त बार-बार उसके आँसू पोछते हैं और दिलासा देते हैं। इसी बीच में धनदत्त आदि पुत्रों ने भी आकर माँ से कहा-
‘‘माता! यदि तुम्हें बुद्धिसेन ही प्यारा है तो यह लो, हम लोग जाते हैं और उसे वापस भेजते हैं।’’
‘‘पुत्रों! तुम ऐसा क्यों बक रहे हो ? मेरे लिए तो जैसे वह, वैसे ही तुम सब। मैंने तो जैसे तुम्हें नव-नव महीने पेट में धारण किया, जन्म दिया और लाड़-प्यार किया, वैसे ही तो उसको नव महीने उदर में रखा और जन्म दिया है किन्तु तुम्हीं बताओ अब मैं वैâसे धैर्य धरूँ ? मेरा तो कलेजा फटा जा रहा है। हाय! हाय! मैं वैâसे अपने प्राण धारण करूँ ?’’
हेमश्री पुनः बेहोश हो जाती है और सभी पुत्र रो पड़ते हैं-
हाय! हाय! यह क्या हुआ ? हम लोग भी वैâसे भाई का वियोग सहन करेंगे ? जब उसकी बाल चेष्टाएं हमारे सामने खेलेंगी तो हम उसका मुख वैâसे देख सकेंगे ? वह सुकोमल शरीर बुद्धिसेन कहाँ जायेगा ? कहाँ भटकेगा ? क्या खायेगा ? क्या पियेगा ? कहाँ सोयेगा ? अपनी जिंदगी वैâसे बितायेगा ? उसे भी जब माँ-बाप की, भाइयों की याद आयेगी तो क्या करेगा ?………
कुछ क्षण के लिए घर में शोकसमुद्र उमड़ पड़ता है पुनः धीरे-धीरे कर्म सिद्धान्त को सोच-सोचकर सब एक-दूसरे को समझाते हैं। माता! प्रत्येक प्राणी अपने कर्म के अधीन है। फिर वह तो पुरुष है, विवेकशील है, कुशल है, जहाँ कहीं भी जायेगा कुछ न कुछ व्यवसाय करके अपनी गृहस्थी बना लेगा। अब छोड़ो उसकी चिंता। सभी जीव अपने-अपने भाग्य के अधीन हैं। कोई भी किसी का करने-धरने वाला नहीं है। अपने प्राणों की रक्षा का, धन की रक्षा का बहुत बड़ा प्रश्न सामने उपस्थित होने से ही ऐसा कठोर निर्णय लेना पड़ा है पिताजी को। क्या किया जाये ? अन्य कोई चारा भी तो नहीं था। इसी तरह से सभी एक-दूसरे को समझाते हुए संतोष की सांस लेते हैं फिर भी कुछ दिनों तक बुद्धिसेन की याद सबको सताती रहती है और मन मसोस कर तथा मनोवती की प्रतिज्ञा को कोसकर रह जाया करते हैं, दिन निकलते जा रहे हैं।……….
मन में विचार तरंगें तरंगित हो रही हैं और पैर उन्हीं तरंगों के सहारे आगे बढ़ते जा रहे हैं। मानों वे विचारलहरों के समान चलना ही जानते हैं, रुकना नहीं। सचमुच में दैव की लीला बड़ी विचित्र है, एक क्षण में क्या से क्या हो गया ? और बल्लभपुर की यह वायु भी तो मेरे अनुकूल चल रही है, हो सकता है कि यह बहुत शीघ्र ही मुझे शहर की सीमा के बाहर निकालना चाह रही हो अथवा…….हो सकता है कि यह मेरे पथ में सहचारिणी बन रही हो अथवा हो सकता है कि यह मेरे वियोग से संतप्त होकर ही मेरे पीछे-पीछे भागी चली आ रही हो कौन जाने ? कुछ भी हो, पीछे से चलती हुई वायु तो मुझे जल्दी-जल्दी चलने की ही प्रेरणा दे रही है यदि यही वायु आगे होकर बहती तो मुझे मार्ग में चलने में बाधा अवश्य डाल देती।
शहर से बाहर कुछ दूर निकल जाने के बाद सुन्दर-सुन्दर बगीचे दिखते हैं। मानों वे कुमार से कहते हैं कि ठहरो-ठहरो! एक रात्रि हमारे यहाँ विश्राम कर लो किन्तु विश्राम का क्या काम ? चलना है बस चलते ही रहना है नींद का काम नहीं, ठहरने का नाम नहीं। बुद्धिसेन जब अवंती देश की हद को पार कर जाते हैं तो आगे बढ़ते हैं। सामने अहीर की बस्ती है, चारों तरफ गायों के झुंंड के झुंड दिख रहे हैं। प्रत्यूष बेला हो चली है। मन्द सुगन्ध हवा बह रही है। किसान हल लेकर खेतों की ओर चले जा रहे हैं, ग्वाल लोग गायोेंं के थन से दूध निकाल रहे हैं। बछड़े माँ का दूध पी-पीकर रंभा रहे हैं। ग्वालिन अपने सिर पर दही के घड़े को रखे हुए निकली और वह बुद्धिसेन के सामने आ खड़ी हुई। वह युवक को सिर से पैर तक बार-बार देखती है और सोचती है यह तो कोई राजकुमार है या देवकुमार या कोई जौहरियों का पुत्र है ? कौन है ? यह पैदल ही क्यों चला जा रहा है ? इसको कहाँ जाना है ? इसका गन्तव्य कहाँ है ? आखिर को वह पूछ बैठती है-
‘‘भाई! आप कौन हैं ? और कहाँ जा रहे हैं ?’’
गाँव के पाटिल ने किया कुमार का आदर-सत्कार-
कुमार बुद्धिसेन के पैर रुक जाते हैं उनकी विचार तरंगें वहीं पर टकराकर ठहर जाती हैं। वे स्वयं सोचते हैं-मैं कहाँ आ गया ? यह गाँव कौन सा है ? अब मुझे किधर जाना है ? कहाँ जाना है ? और क्या करना है ? रात्रि भर चलते-चलते थका हुआ शरीर है, पैर भी जवाब देने लगे। तब कुमार वहीं पर एक वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं और उस ग्वालिन की तरफ देखकर उसके प्रश्न को सुना-अनसुना कर देते हैं। फिर भी वह महिला कहने लगी-आप बहुत थके हैं। आज इसी गांव में आराम कीजिए। मालिक! यह गाँव आपका ही है। पुनः वह आगे बढ़ जाती है। सामने बगीचों में मयूर नाच रहे हैं। एक मयूर आकर बुद्धिसेन के सामने भी अपने पूरे पंखों को पैâलाकर नाचने लगा। ओहो! आज से एक सप्ताह पहले जब मैं हस्तिनापुर शहर में दूल्हा बनकर ब्याहने गया था बारात में हजारों जौहरी थे। रथों की, हाथियों की, घोड़ों की, पालकियों की कोई गणना नहीं थी। उस समय मेरा भी मन मयूर ऐसे ही नाच रहा था और आज चिन्तारूपी रत्नाकर में गोते लगा रहा है। उसी समय गाँव के प्रसिद्ध पटेल ने देखा कि यह कोई युवक राजकुल का हो या उत्तम वैश्यकुल का, निश्चित ही यह पुण्यपुरुष है किन्तु भाग्य ने ही शायद इसे धोखा दिया है। चलो कुछ भी हो, अपने गाँव में आये मेहमान की खातिरदारी करना अपना परम कर्तव्य है। वह कुमार को अपने साथ ले जाकर आतिथ्य सत्कार करता है।
कुमार मन में सोच रहे हैं कि मेरी शादी हुए कुल सात-आठ दिन हुए हैं। मेरी धर्मपत्नी मनोवती पतिव्रता महिला है। यदि उसे यह समाचार मिलेगा कि मेरे पति को घर से निकाल दिया और वे कहीं चले गये हैं तो उसके मन पर क्या बीतेगी ? अकस्मात् दुःखी होकर यदि वह आत्मघात कर ले तो क्या होगा ?’’ मेरा कर्तव्य है कि कहीं व्यापार के लिए जाने के पहले हस्तिनापुर जाकर उसे सारी घटना सुना दूँ और सान्त्वना देकर अन्यत्र कहीं दूर देश में जाकर उत्तम व्यवसाय करके पुनः उसे वहीं पर लिवा लाऊँगा……..।’’
‘‘पटेलजी! हस्तिनापुर का मार्ग किधर से जाता है ?’’
पटेलजी सही रास्ते का दिग्दर्शन कराते हुए-
‘‘बन्धु! मार्ग तो इधर से जाता है। आप कुछ दिन यहाँ ठहरें तो अच्छा है।’’
‘‘मुझे जल्दी ही हस्तिनापुर पहुँचना है।’’
बुद्धिसेन ने हस्तिनापुरी की ओर प्रयाण किया-
बुद्धिसेन निकल पड़ते हैं और एक-एक फर्लांग पर बैठ-बैठकर जैसे-तैसे कुछ दिनों में रास्ता पारकर हस्तिनापुर के बाहर बगीचे में आ जाते हैं। सूर्य अस्ताचल को जा रहा है और अपनी मधुर लालिमा से दिशाओं को अपना अनुराग भरा प्यार समर्पित कर रात्रि भर के लिए विदाई ले ली है। प्रातः फिर वापस आने का आश्वासन भी दे गया है। इसी बीच में बुद्धिसेन भी हद से ज्यादा थके हुए थे। उनकी विचार सरणि भी तरणि के समान अस्ताचल को ढूंढने लगी। वे सोच रहे हैं कि अभी-अभी कुछ दिन ही हुए कि मैं यहाँ ब्याहने आया था तो कितना परिकर समूह साथ में था। राजशाही ठाठ से क्या कुछ कम ठाठ था ? और आज मैं अकेला इस दुरवस्था से इस शहर में प्रवेश करूँ ? ससुराल वाले क्या समझेंगे ? क्या कहेंगे ? क्या सोचेंगे ? अपने माता-पिता का कितना बड़ा अपमान होगा ?…… सोचते-सोचते कुमार विह्वल हो उठते हैं और अपने घर की इज्जत का, अपनी इज्जत का सबसे बड़ा सवाल सामने आकर उन्हें वापस चलने को बाध्य कर देता है। आखिर तो वह अन्तिम निर्णय में आ जाते हैं कि यहाँ से वापस जाकर धन कमाकर अपनी इज्जत की सुरक्षा रखते हुए ही यहाँ आना ऐसे नहीं। किन्तु श्रम सहचर के रूप में उन्हें जैसे-तैसे रात्रि भर वहीं बगीचे में सोने की सलाह देता है। लाचार होकर बुद्धिसेन को मानना ही पड़ता है।
बगीचे में जंवाईराज को देखकर मालिन ने दी सेठजी को सूचना-
उषा देवी कुमार को शुभ सूचना देने के लिए आना चाहती थी कि उसके पहले मालिन वहाँ आ जाती है और चमेली, बेला, जुही आदि के सुन्दर-सुन्दर खिले हुए फूलों को चुन-चुन कर अपने टोकरे में रखती चली जाती है। वे फूल भी प्रसन्न होकर आपस में हँस रहे हैं क्योंकि उन्हें तो जिनेन्द्रदेव के सम्मुख पहुँचने का सौभाग्य मिलने वाला है। धीरे-धीरे मालिन उषा के अनुराग (लालिमा) के साथ-साथ बुद्धिसेन के पास पहुँच जाती है। बड़े गौर से निहारती है। ओहो! यह तो मेरे ही सेठजी का जंवाई है, अभी-अभी दस पन्द्रह दिन तो हुए ही हैं जब यह ब्याहने आया था…….। वह शीघ्र ही वहाँ से चल पड़ती है और आकर सेठ महारथ से कहती है।
‘‘सेठजी! आपके जंवाई साहब आपके बगीचे में पधार गये हैं आप जल्दी जावो।’’
‘‘ऐं! क्या, क्या ? बुद्धिसेन जी आये हैं ?’’
‘‘हाँ, हाँ, सरकार, हाँ! वे ही हैं।’’
ओहो! इस संसार में लक्ष्मी का कोई भरोसा नहीं है। अभी पन्द्रह दिन ही तो हुए हैं। क्या बात हुई ? या तो चोरों ने धन लूट लिया होगा या राजा ने धन छीन लिया होगा, या तो और कोई संकट आया होगा। कुछ भी हो, कोटिध्वज के सुपुत्र मेरे जंवाई बुद्धिसेन कुमार हैं। उन्हें जल्दी से घर ले आना है। ऐसा सोचकर सेठजी तत्क्षण ही बगीचे में पहुँचकर उसका हाथ पकड़कर हिलाकर जगाते हैं और बड़े प्रेम से अपने वक्षस्थल से चिपका लेते हैं। घर में लिवा लाकर स्नान-भोजन आदि कराते हैं तथा घर में सभी महिलाओं को कड़ी सूचना दे देते हैं कि कोई भी स्त्री इनसे आने का कारण न पूछे।
फिर महिलाओं में कानाफूसी दिन भर चलती ही रहती है। आखिर को बिना बुलाये ससुराल आने का क्या कारण है ? पैदल ही क्यों आये ? अकेले ही क्यों आये ?………
‘‘बहन! ऐसा करो कि इनसे अपने में से यदि कोई पूछ लेगा, तब तो सेठजी बहुत ही क्रुद्ध होंगे अतः मनोवती को ही इनके पास भेज दो, वही सब कारण समझ लेगी और इससे सेठजी को भी गुस्सा नहीं आएगा।
‘‘हाँ, हाँ! बहन, आपने बहुत बढ़िया उपाय सोच निकाला, चलो चलें, अपन पहले सेठानी जी को तो मना लें।’’
‘‘हूं, वे तो इस बात पर सहज ही राजी हो जावेंगी।’’
‘‘तो बस, उन्हीं की आज्ञा से आज रात्रि में मनोवती को कुंवर जी के पास भेज देवो, सारी स्थिति का स्पष्टीकरण हो जायेगा।
‘‘ठीक, बहुत ठीक।’’
मनोवती ने बुद्धिसेन से इस प्रकार आने का कारण पूछा-
रात्रि में मनोवती पतिदेव के निकट पहुँचती है, उन्हें प्रणाम करके शारीरिक कुशल क्षेम पूछती है और विनय से पास में बैठ जाती है। बुद्धिसेन भी पहले सामान्यतया ‘सब ठीक है’ ऐसा उत्तर देते हैं और कुछ क्षण को चुप हो जाते हैं। मनोवती पुनः धीरे-धीरे संकोच छोड़कर पति के सम्मुख हाथ जोड़कर पूछती है-
‘‘प्राणनाथ! आज अकस्मात् आपका शुभागमन वैâसे हुआ ?…..कृपया मुझे बताकर मेरे मन को हल्का कीजिए।’’
‘‘प्रिये! कर्मों की गति बड़ी विचित्र है, अब घर में मेरे छहों भाई अच्छे कुशल व्यवसायी हो गये हैं अतः शायद उन्हें मेरी आवश्यकता नहीं महसूस हुई होगी, हो सकता है इसी कारण से पिता ने मुझे देश से निकाल दिया हो। सही कारण क्या है सो मुझे भी मालूम नहीं है ? हाँ, मेरा ऐसा अनुमान है हो सकता है कि यह गलत भी हो ? अन्य ही कुछ कारण हो ?’’
मनोवती को पतिदेव के मुख से देश निर्वासन का समाचार सुनकर इतना दुख नहीं हुआ कि जितना दुःख पति के मुखकमल की उदासीनता से हुआ, उसका हृदय एकदम विदीर्ण हो उठा। वह कुछ क्षण स्तब्ध सी रही। पति के मुख की तरफ एकटक देखती रही। अनंतर उसने साहस बटोरकर कहा-
‘‘स्वामिन्! आपके सामने तो मेरे में कुछ भी बुद्धि नहीं है फिर भी मैं अपनी तुच्छ बुद्धि से ही कुछ निवेदन करना चाहती हूँ यदि आपकी आज्ञा हो तो कुछ शब्द कहूँ ?’’
बुद्धिसेन उसके शब्दों को सुनने की उत्सुकता से ही सम्मति देते हुए गंभीर मुद्रा में हो जाते हैं और मनोवती कहना प्रारंभ करती है-
‘‘देव! आप पुरुष हैं, आपको चिंता किस बात की ? अपने पुरुषार्थ के बल पर मनुष्य जब बड़े-बड़े कार्य कर सकता है, तब अपना गार्हस्थ्य जीवन बनाना क्या कोई बड़ी बात है ? आप बिल्कुल निश्चिन्त होइये और अपने पुरुषार्थ से अपने सुखद भविष्य का निर्माण कीजिए।’’
‘‘सो तो मेरा निर्णय ही है,मैं तो केवल यहाँ तुम्हें सूचित करने मात्र ही आया हूँ। अब मैं कहीं दूर देश में जाकर धन अर्जन करके वापस आकर तुम्हें ले जाऊँगा, तब तक तुम यहीं पीहर में सुख से रहो।’’
पति के दूर देश जाने की बात सुन आहत मनोवती ने स्वयं भी साथ जाने का निर्णय लिया-
इस बात को सुनते ही मनोवती का साहसी हृदय भी आहत हो गया। वह विह्वल हो उठी, आश्चर्य भरी दृष्टि से पति के मुख को देखते हुए बोलती है-
‘‘आप यह क्या कह रहे हैं ? यह अघटित बात सर्वथा असंभव है। आप यहीं हस्तिनापुर में रहिए। मेरे पिता जी के यहाँ सम्पत्ति की कोई कमी नहीं है। उनसे कुछ धन लेकर आप व्यापार कीजिए।’’
‘‘प्रिये! यह संभव नहीं है। मैं ससुराल में रहकर अपने माता-पिता के नाम को नहीं लजाना चाहता, मैं ससुर से धन लेकर व्यापार करके अपनी उन्नति नहीं करना चाहता, मैं अन्यत्र कहीं जाकर धनार्जन करूँगा। यहाँ किसी भी हालत में नहीं रुवुँâगा।’’
‘‘आपका इतना कोमल शरीर है कि तीन-चार दिन में तो क्या स्थिति हुई है ? आप धूप और छाया के कष्टों को परदेश में वैâसे सहन करेंगे ? स्वामिन्! मेरे तुच्छ निवेदन को स्वीकार कीजिए और यहीं पर व्यापार करने की सोचिये।’’
‘‘प्रियतमे! केवल तुम्हारे मोह से खिंचकर मैं इधर आया हूँ बस तुम्हें जानकारी देना मेरा एकमात्र लक्ष्य था। अब तुम सभी बातें छोड़कर मुझे दूर देश में जाने की स्वीकृति देवो, जिससे मेरे मन में अशांति न रहे।’’
जब मनोवती ने समझ लिया कि ये यहाँ नहीं रुकेंगे, तब वह धैर्य के साथ बोलती है-
‘‘प्राणनाथ! यदि आपका निर्णय सर्वथा यही है कि यहाँ नहीं रहना, तब तो मुझे भी आप अपने साथ ले चलिये।’’
‘‘वाह! यह भी कोई बात है। मैं वन-वन में रास्ते-रास्ते में भटकते हुए न जाने कब कहीं पर स्थित हो पाऊँ ? आज यहाँ कल कहाँ ? फिर मैं तुम्हें कहाँ-कहाँ साथ लिए फिरूंगा ? और फिर प्रवास के कष्टों को झेलना क्या कोई आसान बात है ? तुम भूख-प्यास की बाधाओं को, ठंडी, गर्मी के सभी कष्टों को वैâसे सहन कर सकोगी ?’’
‘‘और आप वैâसे सहन करेंगे ?’’
‘‘पुरुषों में और महिलाओं में बहुत अन्तर है।’’
‘‘यह कोई बात नहीं है कभी-कभी पुरुषों की अपेक्षा से अधिक संकट महिलाएं हँसते-हँसते झेल लेती हैं। स्वामिन्! मैंने बचपन में दिगम्बर मुनि के मुख से शिक्षा पाई, छह महीने तक गुरुदेव के चरण सानिध्य में रहकर मैंने सभी विद्यायें सीखी हैं मुझे अपने कर्त्तव्य- अकर्त्तव्य का पूरा ज्ञान है, आप प्रवास में नाना प्रकार के कष्ट उठायें और मैें सुख से पीहर में रहूूँ ? ओह!…… असंभव है, ऐसा कभी नहीं हो सकता………कभी नहीं हो सकता। मैं भी आपके मार्ग के कंटकों को दूर करते हुए सती सीता के समान आपके साथ चलूँगी।’’
‘‘नहीं, नहीं! प्रिये! तुम बिल्कुल मत सोचो। अपना विचार बदलो और मेरे प्रस्थान में विघ्न मत बनो।’’
‘‘मैं कभी भी अपने विचार नहीं बदल सकती, साथ ही चलूँगी।’’
‘‘देखो, प्रियतमे! यह हठ सर्वथा अनुचित है।’’
‘‘आप कुछ भी कहें किन्तु मुझे तो यही उचित लगता है अतः मैं आपके पथ का अनुसरण करूँगी।’’
‘‘मैं आपको साथ ले चलने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हूँ।’’
‘‘जैसी आपकी इच्छा!…….परन्तु आप यह बात निश्चित समझ लीजिए कि आपके यहाँ से प्रस्थान करते ही मैं अपघात करके इस जीवन को समाप्त कर दूँगी।’’
बुद्धिसेन सहसा चौंक पड़ते हैं-
‘‘ओह!…..प्रिये! तुम क्या कह रही हो ? क्या इस तरह प्राण त्याग करना तुम्हारा कर्त्तव्य है ? तुम्हें ऐसे संकट के समय धैर्य धारण करना चाहिए और आगे के अच्छे दिनों की प्रतीक्षा करनी चाहिए।’’
मनोवती और बुद्धिसेन रात्रि में बिना सूचना दिए अनजान देश की ओर चल दिए-
मनोवती अधिक न बोलकर घबरा कर रोने लगती है और बुद्धिसेन उसे हर तरह से समझाने का प्रयत्न करते हैं। अन्त में मनोवती यही कहती है कि मैं आपके बिना इस घर में एक दिन भी जीवित नहीं रहूँगी। तब कुमार कुछ ढीले पड़ जाते हैं-
‘‘तो ठीक है, यदि आपको चलना ही है तो मेरी आज्ञा का पालन करो। ये रत्नों के, मोतियों के आभूषण एक-एक उतारकर यहीं छोड़ दो। अन्यथा लोग कहेंगे कि देखो! वैâसा ठग आया था कि जो तमाम रत्नों के जेवर ले गया……हाँ फिर जल्दी करो।’’
मनोवती प्रसन्नता से गद्गद हो उठती है और तत्क्षण ही जल्दी-जल्दी सारे आभूषण उतारकर वहीं पलंग पर डाल देती है। गजमोतियों का हार खींच कर उतार पंâेकती है कि जिससे उसके मोती बिखर जाते हैं और वहीं पलंग पर एक-दूसरे के पास आते-जाते हुए ऐसे दिखते हैं कि मानों इन्हें भी अपने इष्ट (साथियों) का विरह इष्ट नहीं है इसलिए सब एक जगह एकत्रित हो जाते हैं। भुजबंद, कंकड़, अंगूठी, स्वर्ण की करधनी आदि सभी आभूषण उतारने के बाद उसने कहा-
‘‘प्राणनाथ! आप देखिये अब मेरे पास कुछ भी आभूषण नहीं है।’’
बुद्धिसेन भी दृष्टि से देखते हैं कि इसने सर्व अलंकार दूर कर दिये हैं। मात्र गले में एक मंगलसूत्र है जो कि सौभाग्य का चिन्ह है, वही रह गया है। बस आधी रात का समय था। वे दोनों शीघ्र ही खिड़की के रास्ते से निकल कर हस्तिनापुर से बाहर जाने की सड़क पकड़ लेते हैं। मनोवती भी प्रसन्नमना महामंत्र का जाप्य करते हुए पतिदेव के पीछे-पीछे चली जा रही है।
जो हमेशा हाथी पर चढ़कर प्रस्थान करते थे, जो सुकुमारांगी महिला पालकी में या रथ पर बैठकर ही बगीचे की सैर के लिए निकलती थी, आज वे दम्पत्ति बड़े प्रेम से नंगे पैर काँटों और कंकड़ों की परवाह न करते हुए चलते चले जा रहे हैं मार्ग में छोटे-छोटे गाँव आते हैं। ग्रामीण जन इन्हें देखकर सोचने लगते हैं। ये युगल दम्पत्ति कौन हैं ? क्या महादेव ही पार्वती को साथ लेकर विश्व की यात्रा के लिए निकले हैं या श्रीकृष्ण भगवान् अपनी लक्ष्मी के साथ विचरण कर रहे हैं ? इनका रूप कितना सुन्दर है, क्या ये स्वर्ग से उतरते हुए कोई देव दम्पत्ति हैं ? या कोई राजवंश के भावी होनहार हैं ? लोग मार्ग में कुतूहल से आकर घेर लेते हैं और परिचय पूछने लगते हैं, तब कुमार बुद्धिसेन मुस्करा देते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
आज एक दिन व्यतीत हो चुका है, रात्रि भी निकलती चली जा रही है। कब अर्द्धरात्रि आई और कब चली गई पता ही नहीं है। क्योंकि चलना, चलते चलना ही अपना लक्ष्य है। गंतव्य स्थान क्या है ? व्ाâहाँ पहुँचना है ? कौन जाने ? दो दिन निकल गये, दो रात्रि व्यतीत हो गईं, आज तीसरा दिन है। शरीर में पूरी थकान है। मनोवती कभी मन में महामंत्र का जाप्य करती है, कभी मुनिराज के धर्मोपदेश का स्मरण करती है, तो कभी पतिदेव के समक्ष उन शिक्षाओं को सुनाने लगती है कि जो उसे बचपन में मुनिराज के मुखकमल से सुनने को मिली थीं। आज चौथा दिवस है दोनों ही रतनपुर के सुन्दर बगीचे में पहुँचे हैं। ठंडी-ठंडी हवा दोनों की थकान को दूर करते हुए उन्हें मानों वहीं बैठने की प्रेरणा दे रही है। बगीचे की सुन्दरता को देखकर और पथिक से शहर का नाम ज्ञात कर कुमार वहीं पर ठहर जाते हैं।
बुद्धिसेन ने रतनपुर में डाला पड़ाव-
‘‘स्वामिन्! यह अशोक वृक्ष की छाया जिनशासन के समान सुखदायी प्रतीत हो रही है, यह देखो! सामने आम्रवृक्ष अपने फलों के भार से झुक गया है। मानो वह गर्वत्याग की सूचना ही दे रहा है और इधर यह एरण्ड वृक्ष सीना तान कर उद्दण्ड मनुष्य के समान खड़ा है परन्तु छाया से शून्य है। एक तरफ सरोवर में कमल खिल रहे हैं, उन पर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। इधर चमेली और जूही की लता फूलों से महक रही है।’’
‘‘मुझे तीन दिन-रात्रि के प्रवास की पूरी थकान थी। मैं सोच रहा था इस समय आपकी क्या स्थिति होगी ? किन्तु आपका धैर्य वास्तव में सराहनीय है।’’
मनोवती पतिदेव के पैर दबाने लगती है और विश्रांति के लिए प्रार्थना करती है। बुद्धिसेन को कुछ नींद आ जाती है। तब धीरे से उठकर मनोवती पास के सरोवर में स्नान करके अपने कपड़े सुखाने लगती है और केशों को भी खोलकर सुखाने लगती है। उसी समय केशों में कहीं पर एक बेशकीमती रत्न उलझा हुआ था, वह उसके हाथ में आ जाता है वह उसे देखने लगती है, इतने में बुद्धिसेन उठकर बैठ जाते हैं। मनोवती पास में आकर बोलती है-
‘‘स्वामिन्! आज तीन दिन हो गये आपको, न भोजन है न पानी। आपका मुखकमल बिल्कुल मुरझा गया है। अब……..
बीच में ही बात काटकर बुद्धिसेन बोल उठते हैं-
‘‘और आपका मुखकमल क्या खिल रहा है ? वह तो मेरे से भी अधिक कुम्हला गया है।’’
फिर गंभीर मुद्रा में होकर बोलते हैं-
‘‘सचमुच में बिना अन्न-जल के इस शरीर की स्थिति अधिक नहीं रह सकती है। अभी तो शरीर से सर्वथा निर्मम ऐसे योगी भी शरीर की स्थिति के लिए आहारार्थ नगरों में, श्रावकों के गृहों में विचरण करते हैं।
‘‘सच है शरीर के बिना धर्म की साधना भी तो असंभव है इसलिए तो तीर्थंकरों ने स्वयं आहार ग्रहण किया है और अन्य मुनियों के लिए निर्दोष आहार ग्रहण करने का उपदेश दिया है।’’
कुछ क्षण वातावरण शांत रहता है पुनः मनोवती बोलती है-‘‘पतिदेव! यह देखिये, मेरे केशों में यह एक नग उलझा हुआ था, वह धोखे से ही आ गया है। मेरी समझ में अब आप इसे लेकर शहर में जाइये और किसी के यहाँ गिरवी रखकर उसके बदले कुछ धन लेकर भोजन की सामग्री लाइये।’’
बुद्धिसेन वह नग लेकर चुपचाप चले जाते हैं और कुछ देर बाद भोजन सामग्री लाकर दे देते हैं। मनोवती अपनी कुशलता से बगीचे में बाँस के बर्तन और पत्तों के दोने बनाकर भोजन-सामग्री तैयार करती है। बुद्धिसेन भोजन आदि से निवृत्त होते हैं। मनोवती पतिदेव को भोजन कराती है।
आज पहली बार बगीचे में उसने अपने पतिदेव को जिमाया है। वह मन ही मन प्रसन्न है। फिर पतिदेव से निवेदन करती है कि आप शहर में जाइए। कुछ अपने व्यापार-धंधे का सिलसिला जमाइये। इधर आप पति को शहर भेजकर अपने हिस्से का भोजन भूखों को जिमा देती है और स्वयं बैठकर महामंत्र का जाप्य करती है।
शाम होते ही पतिदेव आ जाते हैं किन्तु कुछ सफलता उन्हें नहीं मिलती है। मन में उदासीनता होते हुए भी बुद्धिसेन पत्नी से दिन भर की कुशलता को पूछकर बैठ जाते हैं। मनोवती भी हास्य विनोद में पति की निराशता और थकान को समाप्त कर देती है।…….दूसरे दिन फिर मनोवती ने पति को जिमा दिया और आप अपने हिस्से का भोजन गरीबों को खिला दिया। ऐसे ही तीसरा दिन भी व्यतीत हो गया।
मनोवती के कृश शरीर को देख बुद्धिसेन हुए चिन्तामग्न-
बुद्धिसेन ने देखा, मनोवती का शरीर अत्यन्त शिथिल हो गया है, मुख बहुत ही म्लान है। मन में सोचने लगा। हाय! देखो! दुर्दैव की लीला, यह कुमारी मेरे साथ इस प्रवास में एकदम वैâसी सूख गई है। अब क्या होगा ? यह वैâसे जीवित रह सकेगी ?……..
‘‘प्रियतमे! तुम्हारा मुख अत्यन्त म्लान हो चुका है, शरीर भी बिल्कुल सूख गया है। तुम मुझे तो अच्छी-अच्छी शिक्षाएँ देती हो और स्वयं तुम्हें क्या हो गया है ? तुम मार्ग में चलने में इतनी कमजोर नहीं दिख रही थीं कि अभी जितनी दिख रही हो। क्या कारण है सो कहो ?
मनोवती बात को पलटकर हँसते हुए बोली-
‘‘स्वामिन् ! आपको स्वयं व्यापार में सफलता न मिलने से ही दिखता है कि चिन्ता अधिक हो रही है और इसलिए शायद आप मुझे कमजोर देख रहे हैं।’’
‘‘नहीं, नहीं! ऐसी बात नहीं है, क्या तुम्हें शरीर में कोई कष्ट है ? कहो! सच सच कहो।’’
‘‘नहीं स्वामिन! कुछ भी कष्ट नहीं है केवल आपको भ्रममात्र है। मैं स्वस्थ हूँ। हाँ, मन की अस्वस्थता से कुछ शरीर में फर्क आ जावे तो मैं क्या करूँ ?’’
‘‘आप मुझसे कुछ छिपा रही हैं ?’’
‘‘नहीं, नहीं स्वामिन्! मैं आपसे क्या छिपाऊँगी ? आप निश्चिंत रहें कोई खास बात नहीं है।’’
बुद्धिसेन बेचारा मनोवती की शारीरिक स्थिति को देखकर आश्चर्य में है कि आखिर बात क्या है ? अंत में वह चुप हो जाते हैं और भाग्य के विषय में सोचते-सोचते उनके नेत्र सजल हो जाते हैं। कुछ क्षण माता-पिता की निष्ठुरता पर क्रोधित होते हैं तो पुनः अपने भाग्य की निष्ठुरता को कोसते हैं। धीरे-धीरे नींद आ जाती है। रात्रि व्यतीत हो जाती है। रोज की तरह आज पुनः सूर्य निकलता है। बुद्धिसेन स्नान आदि से निवृत्त होकर शहर में व्यापार करने के लिए चले जाते हैं।
मनोवती की स्थिति वास्तव में गंभीर है। हस्तिनापुर से निकलकर मार्ग में चार दिन व्यतीत हुए। अब यहाँ रतनपुर के बगीचे में तीन दिन बीत चुके हैं। बिना अन्न के, बिना पानी के सात दिन निकल चुके हैं। अब मनोवती मन में सोच रही है। मैं क्या करूँ ? यदि पति से कुछ कहूँ तो उन्हें सिवाय चिन्ता के और क्या होगा ? वे यही कहेंगे कि तुम मेरे साथ क्यों आई ? उन्हें गजमोती कहाँ मिलेगा वे स्वयं जिस स्थिति में हैं तो मेरे नियम को वैâसे पूर्ण करेंगे ? अब मेरा शरीर कितने दिन टिक सकेगा? क्या होगा ?
‘‘भगवन्! आपके सिवाय अब मेरा यहाँ कोई भी रक्षक नहीं है। मेरे दुर्दैव ने ही तो मेरे पति को घर से निकाल दिया है। नहीं तो वहाँ क्या कमी थी ? हे जिनेन्द्रदेव! अब आपके सिवाय मुझे किसी की भी शरण नहीं है। एक मात्र अकारण बंधु आप ही मेरे प्रभु हैं। हे त्रैलोक्यनाथ! जब-जब भक्तों पर संकट आया है, तब-तब आपने ही तो उनकी रक्षा की है।’’
मनोवती ने दर्शन प्रतिज्ञा का दिखाया चमत्कार, देवों के आसन कम्पायमान हो उठे-
मनोवती मन ही मन भगवान् से प्रार्थना कर रही है। उसका यह निश्चय है कि भले ही प्राण चले जायें, लेकिन अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं करना। उसे विश्वास भी है कि अनाथों के नाथ भक्तों के रक्षक भगवान् मुझ पर कृपा अवश्य करेंगे। किसी न किसी प्रकार से कुछ न कुछ उपाय अवश्य दिखेगा और जब मेरी प्रतिज्ञा पूरी होगी, मैं श्री जिनेन्द्रदेव के सन्मुख गजमोतियों को चढ़ाऊँगी, तभी भोजन करूँगी अन्यथा नहीं।
मनोवती पुनः भगवान् से प्रार्थना करती है-
‘‘प्रभो! जब आपकी भक्ति के प्रसाद से अनन्तानन्त संसार की परम्परा समाप्त हो जाती है, जब आपकी भक्ति के प्रसाद से सम्पूर्ण कर्म जड़मूल से निर्मूल हो जाते हैं, जब आपकी भक्ति से सम्पूर्ण मनोरथ सफल हो जाते हैं, देवाधिदेव! जब आपकी भक्ति से कल्याण परम्पराएं अपने आप दौड़ती-चली जाती हैं, जब आपकी भक्ति से बड़े-बड़े विघ्नकर्म चूर-चूर हो जाते हैं, तब पुनः मेरी भी प्रतिज्ञा क्यों नहीं पूर्ण होगी ? क्या मेरे हृदय में सच्ची भक्ति नहीं है ?…….प्रार्थना करते-करते मनोवती कुछ क्षण के लिए ध्यान में एकाग्र हो जाती है…..।
विशाल जिनमंदिर देख मनोवती आश्चर्यचकित रह गई, गजमोती चढ़ाकर किया देवदर्शन और पारणा-
कुछ देर बाद एकदम उसका पैर नीचे को धंसता है। वह चौंक उठती है। पैर की तरफ देखती है तो एक शिला है जो कि एकदम नीचे खिसक रही है। वह धीरे से उस शिला को उठाती है तो उसको सीढ़ियाँ दिखती हैं वह धीरे-धीरे नीचे उतर जाती है।
अहा हा!! यह विशाल जिनमंदिर! चारों तरफ रत्नों की जगमगाहट! वह हर्ष विभोर हो जय-जयकार करने लगी-णमो अरिहंताणं………।
……..ऐसा मंदिर आज तक मैंने देखा ही नहीं है! क्या दिव्य सजावट ? क्या दिव्य जिनेन्द्रदेव की रत्नमयी प्रतिमा ? सिंहासन, छत्र चामर आदि दिव्य विभूतियाँ! चन्द्रोपक तोरण रत्नों की चकचकाहट! एक से एक बढ़कर चित्रकला! भक्ति में तन्मय हो प्रभु का दर्शन करती है। पुनः मन में सोचती है कि मैं स्नान करके पूजा कर लेती कि उसी समय उसकी दृष्टि एक तरफ पड़ती है। जहाँ धौतवस्त्र हैं। जल से भरे हुए घड़े रखे हैं। वह स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण कर प्रभु का अभिषेक पूजन करना चाहती है तो उसे गजमोती कहीं नहीं दिख रहे हैं। वह सोचने लगी कि जब तक मैं गजमोती नहीं चढ़ाऊँगी, तब तक मेरी पूजा अधूरी ही तो रहेगी……।
सामने दृष्टि डालते ही गजमोतियों का ढेर लगा हुआ है। हर्ष में नाच उठती है। नाना प्रकार से स्तुतियों का उच्चारण करते हुए त्रिभुवनपति जिनेश्वर की अभिषेक-पूजाविधि करके गजमोतियों को मनमाने चढ़ाकर अपने जीवन को कृतार्थ कर लेती है। वह समझती है कि बस आज ही तो मेरा जन्म लेना सार्थक हुआ है, आज मैं धन्य हो गई, पवित्र हो गई। मेरी स्त्रीपर्याय से छूटने का सर्वोत्तम कारण और साक्षात् मुक्ति को प्राप्त करने का मूल कारण सम्यग्दर्शनरूपी महारत्न मुझे मिल गया है।
चाल-हे दीनबन्धु………..…..
जय जय प्रभो जिनदेव! आप दर्श मिल गये।
जय जय प्रभो जिनदेव! पाप सर्व धुल गये।।
तुम दर्श से सम्यक्त्व ज्योति जगमगा उठी।
निजात्मज्ञान ज्योति भी तो चकचका उठी।।१।।
हे नाथ! मैं गजमोतियों के पुँज चढ़ाऊँ।
करके प्रतिज्ञा पूर्ण सर्व सिद्धि को पाऊँ।।
तुम पादपद्म भक्ति में ही लीन हो जाऊँ।
फिर बार-बार मैं नहीं संसार में आऊँ।।२।।
प्रभु आपकी कृपा से मैं निहाल हो गई।
ये दर्श की महिमा भी एक मिशाल हो गई।।
जब तक न मिले मुक्ति ये ही दान दीजिए।
तब तक रहे तुम भक्ति ये वरदान दीजिए।।३।।
पुनः मनोवती को उसी जीने से वापस आते समय दो मोती दिखते हैं उन्हें वह उठाकर हाथ में लेकर शिला उठाकर ऊपर आ जाती है और शिला वापस ढक देती है। कुछ क्षण वहीं बैठकर पतिदेव की प्रतीक्षा करती है। इतने में कुमार बुद्धिसेन आते हैं। वह उठकर स्वागत करती है और विनम्र शब्दों में बोलती है-
‘स्वामिन्! अब शीघ्र ही भोजन सामग्री लाइये। मुझे भूख लग रही है। बुद्धिसेन तत्क्षण उल्टे पैर मुड़ जाते हैं। अहो! क्या कारण है कुछ समझ में नहीं आ रहा है ? मेरी प्राणों से प्यारी भार्या का मुख पीला हो रहा है, शरीर यष्टि शिथिल हो चुकी है, आँखें अंदर को धँसी जा रही हैं। क्या चिंता से ही इतनी दुर्बलता आयी है या किसी व्याधि ने घेर लिया है ? क्या बात है ?………दीर्घ निःश्वास लेते हैं……। अरे दुर्दैव! तू बड़ा ही निष्ठुर है। आज यहाँ रतनपुर में भी मुझे आये चार दिन हो गये, कुछ भी ठिकाना नहीं है।
…………कुछ देर बाद कुमार ने चावल, दाल, मसाला, साग-सब्जी आदि सामान मनोवती के सामने रख दिया। उसने भोजन तैयार किया, पतिदेव को जिमाया और पुनः आप भोजन किया।
ओहो! आज आठवां दिन है। सात दिन तक उपवास करके आठवें दिन अपनी प्रतिज्ञा को निभाने के लिए देवों के आसन हिला दिये। धन्य है यह प्रतिज्ञा! और धन्य है यह दृढ़ता! धन्य है धैर्य और धन्य है साहस! जिसकी प्रतिज्ञा पूर्ति के लिए देवगण भी कटिबद्ध हुए। जिसकी प्रतिज्ञा को पूर्ण कराने के लिए सौधर्म इन्द्र ने आदेश किया और अर्धनिमिष में जिनमंदिर का भव्य निर्माण हो गया। वह मनोवती भी धन्य है और इस लोक में सदैव उसकी धवल कीर्तिपताका लहराती ही रहेगी।