(१) उदेति पाताय रविर्यथा तथा शरीरमेतन्ननु सर्वदेहिनाम्।
स्वकालमासाद्य निजेऽपि संस्थिते करोति क: शोकमत: प्रबुद्धधी:।।
जिस प्रकार सूर्य का उदय अस्त होने के लिए होता है, उसी प्रकार निश्चय से समस्त प्राणियों का यह शरीर भी नष्ट होने के लिए उत्पन्न होता है। फिर काल को पार कर अपने किसी बन्धु आदि का भी मरण होने पर कौन सा बुद्धिमान पुरुष उसके लिए शोक करता है।
विशेषार्थ-जिस प्रकार सूर्य का उदय अस्त का अविनाभावी है, उसी प्रकार शरीर की उत्पत्ति भी विनाश की अविनाभाविनी है। ऐसी स्थिति में उस विनश्वर शरीर के नष्ट होने पर उसके विषय में शोक करना विवेकहीनता का द्योतक है।
(२) भवन्ति वृक्षेषु पतन्ति नूनं पत्राणि पुष्पाणि फलानि यद्वत्।
कुलेषु तद्वत्पुरुषा: किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम्।।
जिस प्रकार वृक्षों में पत्र, पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं और वे समयानुसार निश्चय से गिरते भी हैं, उसी प्रकार कुलों (कुटुम्ब) में जो पुरुष उत्पन्न होते हैं वे मरते भी हैं, फिर बुद्धिमान मनुष्यों को उनके उत्पन्न होने पर हर्ष और मरने पर शोक क्यों होना चाहिए ? नहीं होना चाहिए।
(३) पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा
तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञात्वा तदेतद्धु्रवम्।
शोकं मुञ्च मृते प्रियेऽपि सुखदं धर्मं कुरुष्वादरात्
सर्पे दूरमुपागते किमिति भोस्तद्घृष्टिराहन्यते।।
पूर्व में कमाये गये कर्म के द्वारा जिस प्राणी का अन्त जिस समय लिखा गया है उसका उसी समय अन्त होता है, यह निश्चित जानकर किसी प्रिय मनुष्य का मरण हो जाने पर भी शोक छोड़ो और विनयपूर्वक सुखदायक धर्म का आराधन करो। ठीक है! जब सर्प दूर चला जाता है तब उसकी रेखा को कौन सा बुद्धिमान पुरुष लाठी आदि के द्वारा ताड़न करता है ? अर्थात कोई भी बुद्धिमान वैसा नहीं करता है।
(४) ये मूर्खा भुवि तेऽपि दु:खहतये व्यापारमातन्वते
सा माभूदथवा स्वकर्मवशतस्तस्मान्न ते तादृशा:।
मूर्खान्मूर्खशिरोमणीन्ननु वयं तानेव मन्यामहे
ये ‘कुर्वन्ति’ शुचं मृते सति निजे पापाय दु:खाय च।।
इस पृथ्वी पर जो मूर्खजन हैं वे भी दु:ख को नष्ट करने के लिए प्रयत्न करते हैं। फिर यदि अपने कर्म के प्रभाव से उस दु:ख का विनाश न भी हो तो भी वे वैसे मूर्ख नहीं हैं। हम तो उन्हीं मूर्खों को मूर्खों में श्रेष्ठ अर्थात् अतिशय मूर्ख मानते हैं जो किसी इष्टजन का मरण होने पर पाप और दु:ख के निमित्तभूत शोक करते हैं।
विशेषार्थ-लोक में जो प्राणी मूर्ख समझे जाते हैं, वे भी दु:ख को दूर करने का प्रयत्न करते हैं। यदि कदाचित् उन्हें अपने इस प्रयत्न में सफलता न भी मिले तो भी उन्हें इतना अधिक जड़ नहीं समझा जाता है किन्तु जो पुरुष किसी इष्टजन का वियोग हो जाने पर शोक करते हैं उन्हें मूर्ख नहीं बल्कि मूर्खशिरोमणि (अतिशय जड़) समझा जाता है। कारण यह है कि मूर्ख समझे जाने वाले वे प्राणी तो आए हुए दु:ख को दूर करने के लिए ही कुछ न कुछ प्रयत्न करते हैं किन्तु ये मूर्खशिरोमणि इष्ट वियोग में शोकाकुल होकर और नवीन दु:ख को भी उत्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं। इसका भी कारण यह है कि उस शोक से ‘‘दु:खशोक- तापाक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म-परोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य’’ इस सूत्र (त.सू. ६-११) के अनुसार असातावेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है। जिससे कि भविष्य में भी उन्हें उस दु:ख की प्राप्ति हो जाती है।
(५) किं जानासि न किं शृणोषि न न किं प्रत्यक्षमेवेक्षसे।
निश्शेषं जगदिन्द्रजालसदृशं रम्भेव सारोझितम्।।
किं शोकं कुरुषेऽत्र मानुषपशो लोकान्तरस्थे निजे।
तत्किंचित् कुरु येन नित्य परमानन्दास्पदं गच्छसि।।
हे अज्ञानी मनुष्य! यह समस्त जगत इन्द्रजाल के सदृश नश्वर और केले के स्तम्भ के समान निस्सार है, इस बात को क्या तुम नहीं जानते हो, क्या आगम में नहीं सुनते हो और क्या प्रत्यक्ष में नहीं देखते हो ? अर्थात् अवश्य ही तुम इसे जानते हो, सुनते हो और प्रत्यक्ष में भी देखते हो फिर भला यहाँ अपने किसी सम्बन्धीजन के मरण को प्राप्त होने पर क्यों शोक करते हो ? अर्थात् शोक को छोड़कर ऐसा कुछ प्रयत्न करो जिससे कि शाश्वतिक उत्तम सुख के स्थानभूत मोक्ष को प्राप्त हो सको।
(६) नष्टे वस्तुनि शोभनेऽपि हि तदा शोक: समारभ्यते।
तभोऽथ यशोऽथ सौख्यमथवा धर्मोऽथ वा स्याद्यदि!।।
यद्येकोऽपि न जायते कथमपि स्फारै: प्रयत्नैरपि।
प्रायस्तत्र सुधीर्मुधा भवति क: शोकोग्ररक्षोवश:।।
मनोहर वस्तु के नष्ट हो जाने पर यदि शोक करने से उसका लाभ होता हो, कीर्ति होती हो, सुख होता हो, धर्म होता हो, तब तो शोक को प्रारम्भ करना ठीक है परन्तु जब अनेक प्रयत्नों के द्वारा भी उन चारों में से प्राय: कोई एक भी नहीं उत्पन्न होता है तो भला कौन सा बुद्धिमान पुरुष व्यर्थ में उस शोकरूपी महारक्षक के अधीन होगा ? अर्थात् कोई नहीं।
(७) एकद्रुमे निशि वसन्ति तथा शकुन्ता: प्रात: प्रयन्ति सहसा सकलासु दिक्षु।
स्थित्वा कुले बत तथान्यकुलीन मृत्वा लोका: श्रयन्ति विदुषा खलु शोच्यते क:।।
जिस प्रकार पक्षी रात्रि में किसी एक वृक्ष के ऊपर निवास करते हैं और फिर सबेरा हो जाने पर वे सहसा सब दिशाओं में चले जाते हैं। खेद है कि उसी प्रकार मनुष्य भी किसी एक कुल में स्थित रहकर पश्चात् मृत्यु को प्राप्त होते हुए अन्य कुलों का आश्रय करते हैं इसीलिए विद्वान मनुष्य इसके लिए कुछ भी शोक नहीं करता।
(८) लंघ्यन्ते जलराशय: शिखरिणो देशास्तटिन्यो जनै:।
सा वेला तु मृतेर्नृ पक्ष्मचलनस्तोकापि देवैरपि।।
तत्कस्मिन्नापि संस्थिते सुखकरं श्रेयोविहाय धु्रवं।
क : सर्वत्र दुरन्तदु:खजनकं शोकं विद्ध्यात्सुधी:।।
मनुष्य समुद्रों, पर्वतों, देशों और नदियों को लांघ सकते हैं किन्तु मृत्यु के निश्चित समय को देव भी नहीं लांघ सकते। इस कारण किसी भी इष्टजन के मरण को प्राप्त होने पर कौन सा बुद्धिमान मनुष्य सुखदायक कल्याण मार्ग को छोड़कर सर्वत्र अपार दु:ख को उत्पन्न करने वाले शोक को करता है ? अर्थात् कोई भी बुद्धिमान शोक को नहीं करता है।
(९) प्रियजनमृतिशोक: सेव्यमानोऽतिमात्रं जनयति तदसातं कर्म यच्चाग्रतोऽपि।
प्रसरति शतशाखं देहिनि क्षेत्र उप्तं वट इव तनुबीजं त्यज्यतां स प्रयत्नात्।।
प्रियजन के मरने पर जो शोक किया जाता है वह तीव्र असातावेदनीय कर्म को उत्पन्न करता है। जो आगे (भविष्य में) भी विस्तार को प्राप्त होकर प्राणी के लिए सैकड़ों प्रकार से दु:ख देता है। जैसे-योग्य भूमि में बोया गया छोटा सा भी वट का बीज सैकड़ों शाखाओं से संयुक्त वटवृक्ष के रूप में विस्तार को प्राप्त होता है अतएव ऐसे अहितकर उस शोक का प्रयत्न छोड़ देना चाहिए।
(१०) आयु: क्षति: प्रतिक्षणमेतन्मुखमन्तकस्य तत्र गता।
सर्वे जना: किमेक: शोचत्यन्यं मृतं मूढ:।।
प्रत्येक क्षणों में जो आयु की हानि हो रही है, यह यमराज का मुख है उसमें (यमराज के मुख में) सब ही प्राणी पहुँचते हैं अर्थात् सभी प्राणियों का मरण अनिवार्य है, फिर एक प्राणी दूसरे प्राणी के मरने पर शोक क्यों करता है ? अर्थात् जब सभी संसारी प्राणियों का मरण अवश्यम्भावी है तब एक-दूसरे के मरने पर शोक करना उचित नहीं है।
(११) यो नात्र गोचरं मृत्योर्गतो याति न यास्यति।
स ही शोकं मृते कुर्वन् शोभते नेतर: पुमान्।।
जो मनुष्य यहाँ मृत्यु की विषयता को न तो भूतकाल में प्राप्त हुआ है, न तो वर्तमान में प्राप्त होता है और न भविष्य में होगा अर्थात् जिसका मरण तीनों ही कालों में सम्भव नहीं है, वह यदि किसी प्रियजन के मरने पर शोक करता है तो इसमें उसकी शोभा है किन्तु जो मनुष्य समयानुसार मरण को प्राप्त करता है, उसका दूसरे प्राणी के मरने पर शोकाकुल होना अशोभनीय है। अभिप्राय यह है कि जब सभी संसारी प्राणी समयानुसार मृत्यु को प्राप्त होने वाले हैं तब एक को दूसरे के मरने पर शोक करना उचित नहीं है।
(१२) आकाश एव शशिसूर्य मरुप्खगाद्या: भूपृष्ट एव शकटप्रमुखाश्चरन्ति।
मीनादयश्च जल एव यमस्तु याति सर्वत्र कुत्र भविनां भवति प्रयत्न:।।
चन्द्र, सूर्य, वायु और पक्षी आकाश में ही गमन करते हैं, गाड़ियों आदि का आवागमन पृथ्वी के ऊपर ही होता है तथा मत्स्यादिक जल में ही संचार करते हैं परन्तु यम (मृत्यु), पृथ्वी और जल सभी स्थानों पर पहुँचता है इसीलिए संसारी प्राणियों का प्रयत्न कहाँ पर हो सकता है अर्थात् काल जब सभी संसारी प्राणियों को कवलित करता है तब उससे बचने के लिए किया जाने वाला प्रयत्न किसी भी प्राणी का सफल नहीं हो सकता है।
(१३) किं देव: किमु देवता किमगदो विद्यास्ति किं किं मणि:।
कि मन्त्र: किमुताश्रय: किमुसुहृत्किंवा सुगन्धोऽस्ति स:।।
अन्ये वा किमु भूपतिप्रभृतय: सन्त्यत्र लोकत्रये।
यै: सर्वैरपि देहिन: स्वसमये कर्मोदितं वार्यते।।
यहाँ तीनों लोकों में क्या देव, क्या देवता, क्या औषधि, क्या विद्या, क्या मणि, क्या मंत्र, क्या आश्रय, क्या मित्र, क्या सुगन्ध अथवा क्या अन्य राजा आदि भी ऐसे शक्तिशाली हैं जो सब ही अपने समय में उदय को प्राप्त हुए कर्म को रोक सकें ? अर्थात् उदय में आये हुए कर्म का निवारण करने के लिए उपर्युक्त देवाधिदेव में से कोई भी समर्थ नहीं है।
(१४) मृत्योर्गोचरमागते निजजने मोहेन य: शोककृन्-।
नो गन्धोऽपि गुणस्य तस्य बहवो दोषा पुनर्निश्चितम्।।
दु:खं बर्धत एव नश्यति चतुर्वर्गो मतेर्विर्भ्रम:।
पापं रुक् च मृतिश्च दुर्गतिरथस्थाद्दीर्घसंसारिता।।
इस आपत्तिस्वरूप संसार में किसी विशेष आपत्ति के प्राप्त होने पर विद्वान पुरुष क्या विषाद करता
है ? अर्थात् नहीं करता। ठीक है! चौरस्ते में (जहाँ चारों ओर रास्ता जाता है) मकान बनाकर कौन सा मनुष्य लांघे जाने के भय से दुखी होगा ? अर्थात् कोई नहीं होगा।
विशेषार्थ-जिस प्रकार चौरस्ते में स्थित रहकर यदि कोई मनुष्य गाड़ी आदि के द्वारा कुचले जाने की आशंका करता है तो यह उसकी अज्ञानता ही कही जाती है। ठीक इसी प्रकार से जबकि संसार का स्वरूप ही आपत्तिमय है तब ऐसे संसार में रहकर किसी आपत्ति के आने पर खेदखिन्न होना भी अतिशय अज्ञानता का द्योतक है।
(१५) कालेन प्रलयं व्रजन्ति नियतं तेऽपीन्द्रचन्द्रादय:।
का वार्तान्यजनस्य कीटसदृशोऽशक्तेरदीर्घायुष:।।
तस्मान्मृत्युमुपागते प्रियतमे मोहं मुधा मा कृथा:।
काल: क्रीडति नात्र येन सहसा तत्किञ्चिदन्विष्यताम्।।
जब वे इन्द्र और चन्द्र आदि भी समय पाकर निश्चय से मृत्यु को प्राप्त होते हैं तब भला कीड़े के सदृश निर्बल एवं अल्पायु अन्य जन की तो बात ही क्या है ? अर्थात वह तो नि:सन्देह मरण को प्राप्त होवेगा ही इसलिए हे भव्य जीव! किसी अत्यन्त प्रिय मनुष्य के मरण को प्राप्त होने पर व्यर्थ में मोह को मत करो किन्तु ऐसा कुछ उपाय खोजो जिससे कि वह काल (मृत्यु) सहसा यहाँ क्रीडा न कर सके।
(१६) संयोगो यदि विप्रयोगविधिना चेज्जन्म तन्मृत्युना।
सम्पच्चेद्विपदा सुखं यदि तदा दु:खेन भाव्यं धु्रवम्।।
संसारेऽत्र मुहुर्मुहुर्बविधावस्थान्तरप्रोसद्।
वेषान्यत्वनटीकृताङ्गिनि सत: शोको न हर्ष: क्वचित्।।
जहाँ पर प्राणी बार-बार बहुत प्रकार की अवस्थाओं रूप वेषों का भिन्नपना धारण कर नट के समान आचरण करते हैं। ऐसे उस संसार में यदि इष्ट का संयोग होता है तो वियोग भी उसका अवश्य होना चाहिए, यदि जन्म है तो मृत्यु भी अवश्य होनी चाहिए, यदि सम्पत्ति है तो विपत्ति भी अवश्य होनी चाहिए तथा यदि सुख है तो दुख भी अवश्य होना चाहिए इसीलिए सज्जन मनुष्य को इष्ट संयोगादि के होने पर तो हर्ष और इष्ट वियोगादि होने पर शोक भी नहीं करना चाहिए।
विशेषार्थ-जिस प्रकार नट (नाटक का पात्र) आवश्यकतानुसार राजा और रंक आदि अनेक प्रकार के वेषोें को तो ग्रहण करता है परन्तु वह संयोग और वियोग, जन्म और मरण, सम्पत्ति और विपत्ति तथा सुख और दुख आदि में अन्त:करण से हर्ष एवं विषाद को प्राप्त नहीं होता है, कारण कि वह अपनी यथार्थ अवस्था और ग्रहण किये हुए उन कृत्रिम वेषों में भेद समझता है। उसी प्रकार विवेकी मनुष्य भी उपर्युक्त संयोग-वियोग एवं नर-नारकादि अवस्थाओं में कभी हर्ष और विषाद को नहीं प्राप्त होता है।
(१७) लोका ‘गृहप्रियतमासुखजीवितादि’ वाताहतध्वजपटाग्रचलं समस्तम्।
व्यामोहमत्र परिहृत्य धनादिमित्रे धर्मे मतिं कुरुत किं बहुभिर्वचोभि:।।
हे भव्यजनों। अधिक कहने से क्या ? जो गृह, स्त्री, पुत्र और जीवित आदि सब वायु से ताड़ित ध्वजा के वस्त्र के अग्रभाग के समान चंचल हैं उनके विषय में तथा धन एवं मित्र आदि के विषय में मोह को छोड़कर धर्म में बुद्धि करो।
(१८) दतं नौषधमस्य नैव कथित: कस्याप्ययं मन्त्रिणो।
नोकुर्याच्छुचमेवमुन्नतमतिर्लोकान्तरस्थे निजे।।
यत्ना यान्ति यतोङ्गिन: शिथिलतां सर्वे मृते: सन्निधौ।
बन्धाश्चर्मविनिर्मितापरिलसद्वर्षायम्बुसिक्ता इव।।
किसी प्रियजन के मरण को प्राप्त होने पर विवेकी मनुष्य ‘‘इसको औषधि नहीं दी गई अथवा इसके विषय में किसी मान्त्रिक के लिए नहीं कहा गया’’ इस प्रकार से शोक को नहीं करता है। कारण कि मृत्यु के निकट आने पर प्राणियों के सभी प्रयत्न इस प्रकार शिथिलता को प्राप्त होते हैं जिस प्रकार कि चमड़े से बनाये गये बन्धन वर्षा के जल में भीगकर शिथिल हो जाते हैं अर्थात् मृत्यु से बचने के लिए किया जाने वाला प्रयत्न कभी किसी का सफल नहीं होता है।
(१९) स्वकर्मव्याघ्रेण स्फुरितनिजकालादिमहसा।
समाघ्राता: साक्षाच्छरणरहिते संसृतिवने।।
प्रिया में पुत्रा मे द्रविणमपि मे मे गृहमिदं।
वदन्नेवं मे मे पशुरिव जनो याति भरणम्।।
जो संसाररूपी वन में रक्षकों से रहित है उसमें अपने उदय काल में आदित्य पराक्रम से संयुक्त ऐसे कर्मरूपी व्याघ्र के द्वारा ग्रहण किया गया यह मनुष्यरूपी पशु, यह प्रिया मेरी है, ये पुत्र मेरे हैं, यह द्रव्य मेरा है और यह घर भी मेरा है, इस प्रकार मेरा-मेरा कहता हुआ मरण को प्राप्त हो जाता है।