प्राणियों की अहिंसा इस जगत में परम ब्रह्म स्वरूप है ऐसी बात प्रसिद्ध है। ‘‘प्रमत्तयोगात्प्राण व्यपरोपणं हिंसा’’। इस हिंसा के चार भेद हैं-संकल्पी हिंसा, आरंभी हिंसा, उद्योगी हिंसा और विरोधी हिंसा। संकल्पपूर्वक किसी भी जीव का घात करना यह संकल्पी हिंसा है, शल्यचिकित्सा सीखने के लिये या देवताओं की बलि के लिये अथवा मांसलोलुपता के लिये या द्वेष भावना से जो किसी भी जीव को मारा जाता है सो संकल्पी हिंसा है, यह हिंसा महान दु:ख को देने वाली है। जैसे राजा श्रेणिक ने जैनधर्म के द्वेष से श्री यशोधर मुनिराज के ऊपर शिकारी कुत्ते छोड़े किंतु महामुनि की शांतमुद्रा से जब वे कुत्ते शांत हो गये तब राजा ने मुनिराज के गले में एक मरा हुआ सांप डाल दिया। जब रानी से उन्होंने यह बात कही तब वह धर्मपरायण चेलना रात्रि में ही राजा के साथ वहाँ आ गई, मुनिराज के गले से सर्प निकाला तथा उपचार किया। मुनिराज ने दोनों को सधर्मवृद्धिरस्तु ऐसा समान आशीर्वाद दिया। तब राजा के पश्चात्ताप और शोक का पार नहीं रहा। अनंतर मुनिराज के प्रति किये गये उपसर्ग से वह अपने प्राणों का घात करने को सोचने लगा किंतु मुनिराज उसे धर्मोपदेश देकर सान्त्वना दी। इसके पूर्व मुनिराज उपसर्ग के समय ही राजा को सातवें नरक की आयु का बंध हो गया था। एक बार आयु बंधने के बाद छूट नहीं सकती है उस गति में जाना ही पड़ता है राजा ने उस दिन से भगवान की खूब भक्ति की।
उन्होंने अटूट भक्ति के द्वारा भगवान् महावीर के समवसरण में मुख्य श्रोता का पद प्राप्त किया, भगवान के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्वी हो गए। साठ हजार प्रश्न करके अपने तथा असंख्य श्रोताओं के धर्म में साधक बने, इन सब पुरुषार्थ से उन्होेंने अपने सातवें नरक की तेंतीस सागर की आयु को मात्र पहले नरक की चौरासी हजार वर्ष की कर लिया। उन्होंने प्रभु के पादमूल में सोलहकारण भावनाएं भाईं जिनके प्रसाद से वे तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर चुके हैं। लोक में हलचल पैदा कर देने वाली ऐसी पुण्य प्रकृति उनकी सत्ता में विद्यमान है, भविष्य में आने वाली उत्सर्पिणी के चतुर्थकाल के वे प्रथम तीर्थंकर भगवान होंगे। इस उदाहरण से स्पष्ट है किसी भी भाव से किया गया हिंसा का प्रयत्न चाहे दूसरे जीवों का घात कर सके या नहीं किंतु अपनी आत्मा का घात तो कर ही देता है।
ऐसे ही राजा यशोधर ने माता के दुराग्रह से आटे का मुर्गा बनाकर देवी के सामने बलि कराई थी उसके फलस्वरूप वे स्वयं और उनकी माता कई भव तक भयंकर दु:खों को भोगकर कालांतर में अभयमती और अभयरुचि नाम के बहन-भाई होकर पूर्व भवों के जातिस्मरण से विरक्त होकर क्षुल्लक पद से भूषित हो गये थे और उन्होंने चंडमारी देवी के सामने होने वाली भयंकर बलिप्रथा को समाप्त किया था अत: किसी प्रकार से भी की गई संकल्पी हिंसा भव-भव में इस जीव को कष्ट देने वाली है।
गृह के पंचसूना से होने वाली हिंसा आरंभी हिंसा है। जैसे-खंडिनी, पेषिणी, चुल्ली, उदकुंभ, प्रमार्जनी अर्थात् कूटना, पीसना, चूल्हा जलाना, जल भरना और बुहारी लगाना। ये पंचसूना कहलाते हैं। नियम से इन कार्यों में हिंसा होती है किंतु गृहस्थ इनका त्याग नहीं कर पाते हैं। वे इन कार्यों में सावधानी रखते हुए करते हैं तथा उनसे होने वाले पापों को क्षालन करने के लिये ही वे दान और पूजन रूप नित्य क्रिया में तत्पर रहते हैं।
व्यापार आदि कार्यों से हुई हिंसा उद्योगी हिंसा है। इसमें भी शक्य हो तो सावधानी रखना चाहिये। निकृष्ट शराब, जूते आदि के व्यापारों को भी नहीं करना चाहिये क्योंकि हमारे द्वारा किसी भी व्यापार में पैसा कमाकर लाने में हिस्सेदार सारे कुटुंबी हैं किंतु पाप का फल जीव को अकेला ही भोगता होता है इसलिये संतोषवृत्ति से धन कमाना चाहिये। धर्म पर, धर्मायतन पर या राज्य, देश आदि पर संकट आ जाने से उसके प्रतीकार में जो हिंसा होती है वह विरोधी हिंसा है, उसमें भी न्यायपक्ष में रहकर युद्ध करने वालों के लिये वह कदाचित् ग्राह्य होती है न कि अन्याय पक्ष में रहने वालों के लिये। जैसे-महासती सीता के लिये किये गये युद्ध में रावण के पक्ष में होने वाली हिंसा अधिक निकृष्ट थी किंतु मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र के पक्ष से जो उपक्रम था वह कदाचित् राजनीति में धर्मरूप था क्योंकि जैनियों की अिंहसा कायरता का पाठ नहीं पढ़ाती है प्रत्युत धर्मविरोधियों का, अत्याचारों का दलन करना सिखाती है।
इन चार हिंसाओं में से श्रावक धर्म में तीन तो छोड़ना अशक्य है किंतु पहली संकल्पी हिंसा का त्याग हुये बिना यह श्रावक पाक्षिक श्रावक भी नहीं कहला सकता है क्योंकि अष्टमूलगुण में जीवदया अति आवश्यक मूलगुण है।
हिंसा के द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा की अपेक्षा दो भेद भी होते हैं। परिणामों में रागादि भावों का होना ही भाव हिंसा है, इनका न होना अहिंसा है। यह अहिंसा उपर्युक्त चारों हिंसा का पूर्णतया त्याग करने वाले ऐसे महाव्रती मुनियों के ही संभव है जो कि संपूर्ण आरंभ और परिग्रह से रहित दिगंबर अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं, जिनके पास तिलतुष मात्र भी परिग्रह नहीं है ऐसे साधु ही राग-द्वेष आदि भावों से बचकर अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं। कदाचित् ध्यान से हटकर प्रश्ास्त राग में आकर पंचपरमेष्ठी की आराधना, स्वाध्याय आदि करते हुये शिष्यों को धर्म में लगाते हुए और सर्वत्र धर्मोंपदेश देते हुए समितिपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं।
अभिप्राय यह हुआ कि द्रव्य हिंसा को त्याग किए बिना भावहिंसा का त्याग कठिन है अथवा जीवों के मारने के अभिप्राय रूप भावों का होना भी भावहिंसा है जिसके होने पर जीवों का वध हो या न हो पाप का बंध हो ही जाता है अत: भावहिंसा भी त्यागना चाहिये और जो उत्कृष्ट राग-द्वेष आदि कषाय रूप परिणामों के होने से हिंसा होती है उसको भी घटाने का प्रयत्न करते ही रहना चाहिये। यह अहिंसा कल्पवृक्ष के समान फलती है और महान फल को देने वाली हो जाती है। भगवान महावीर ने इस अहिंसा को जगत में परमब्रह्मस्वरूप कहा है। ऐसा पवित्र दयामयी शासन सतत जयशील होता रहे।