कषायपाहुड ग्रन्थ रचना-भगवान महावीर की दिव्यध्वनि को सुनकर श्री गौतमस्वामी ने उसे द्वादशांगरूप से निबद्ध किया। यह द्वादशांग श्रुत अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु आचार्य तक पूर्णरूप से विद्यमान रहा पुन: धीरे-धीरे ह्रास होते हुए अंग और पूर्व के एकदेशरूप ही रह गया तब श्रुतरक्षा की भावना से पे्ररित हो कुछ आचार्यों ने उसे ग्रन्थरूप से निबद्ध किया।
श्रीगुणधराचार्य को पाँचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व की दशवीं वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुड का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त था जबकि षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों के प्रणेताओं को उक्त ग्रन्थों की उत्पत्ति के आधारभूत ‘‘महाकम्मपयडिपाहुड’’ का आंशिक ही ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस प्रकार से गुणधराचार्य ने ‘‘कसायपाहुड’’ जिसका अपरनाम ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ भी है, उसकी रचना की है। १६००० पद प्रमाण कसायपाहुड के विषय को संक्षेप से एक सौ अस्सी गाथाओं में ही उपसंहृत कर दिया है।
पेज्ज नाम प्रेयस् या राग का है और दोस नाम द्वेष का है। यत: क्रोधादि चारों कषायों में माया, लोभ को रागरूप से और क्रोध, मान को द्वेषरूप से, ऐसे ही नव नोकषायों का विभाजन भी राग और द्वेषरूप में किया है अत: प्रस्तुत ग्रन्थ का मूल नाम ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ है और उत्तर नाम ‘‘कसायपाहुड’’ है। कषायों की विभिन्न अवस्थाओं का एवं इनसे छूटने का विस्तृत विवेचन इस ग्रन्थ में किया गया है अर्थात् किस कषाय के अभाव से सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है, किस कषाय के क्षयोपशम आदि से देशसंयम और सकलसंयम की प्राप्ति होती है, यह बतला करके कषायों की उपशमना और क्षपणा का विधान किया गया है। तात्पर्य यही है कि इस ग्रन्थ में कषायों की विविध जातियां बतला करके उनके दूर करने का मार्ग बतलाया गया है।
इस ग्रन्थ की रचना गाथासूत्रों में की गई है। आचार्य गुणधरदेव स्वयं कहते हैं-‘‘वोच्छामि सुत्तगाहा जपिगाहा जम्मि अत्थम्मि’’ जिस अर्थाधिकार में जितनी-जितनी सूत्र गाथायें प्रतिबद्ध हैं, उन्हें मैं कहूँगा। इस ग्रन्थ में कुल २३३ गाथायें हैं, जिन्हें ‘‘कसायपाहुड’’ सुत्त की प्रस्तावना में पं. हीरालाल जी ने श्रीगुणधराचार्य रचित ही माना है अर्थात् ५३ गाथाओं में विवाद होकर भी गुणधराचार्य रचित ही निर्णय मान्य होता है।
‘‘इस प्रकार के उपसंहृत एवं गाथासूत्र निबद्ध द्वादशांग जैन वाङ्मय के भीतर अनुसंधान करने पर यह ज्ञात हुआ है कि कसायपाहुड ही सर्वप्रथम निबद्ध हुआ है। इससे प्राचीन अन्य कोई रचना अभी तक उपलब्ध नहीं है’’ अत: श्री गुणधराचार्य दिगम्बराचार्य की परम्परा में प्रथम सूत्रकार माने जाते हैं।
श्रुतधर आचार्यों की परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य कौन हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर इतिहासकारों ने बड़े आदर से महान आचार्यश्री ‘‘गुणधर देव’’ का नाम लिया है। श्रीगुणधर और धरसेन ये दोनों आचार्य श्रुत के प्रतिष्ठापकरूप से प्रसिद्ध हुए हैं फिर भी गुणधरदेव, धरसेनाचार्य की अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे और लगभग उनके दो सौ वर्ष पूर्व हो चुके हैं ऐसा विद्वानों का अभिमत है अतएव आचार्य गुणधर को दिगम्बर परम्परा में लिखितरूप से प्राप्त श्रुत का प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। धरसेनाचार्य ने किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की जबकि गुणधराचार्य ने ‘‘पेज्जदोसपाहुड’’ ग्रन्थ की रचना की है।
आचार्य का समय-
ये गुणधराचार्य किनके शिष्य थे इत्यादि रूप से इनका परिचय यद्यपि आज उपलब्ध नहीं है तो भी उनकी महान कृति से ही उनकी महानता जानी जाती है। यथा-
गुणधरधरसेनान्वयगुर्वो: पूर्वापरक्रमोऽस्माभि:।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात्।।५१।।
गुणधर और धरसेन की पूर्वापर गुरु परम्परा हमें ज्ञात नहीं है क्योंकि इसका वृत्तांत न तो हमें किसी आगम में मिला और न किसी मुनि ने ही बतलाया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इन्द्रनंदि आचार्य के समय तक आचार्य गुणधर और धरसेन का गुरु शिष्य परम्परा का अस्तित्व स्मृति के गर्भ में विलीन हो चुका था फिर भी इतना स्पष्ट है कि श्री अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित संघों में ‘‘गुणधर संघ’’ का नाम आया है। नंदिसंघ की प्राकृत पट्टावली में अर्हद्बलि का समय वीर नि.सं. ५५६ अथवा वि. सं. ९५ है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गुणधर देव अर्हद्बलि के पूर्ववर्ती हैं पर कितने पूर्ववर्ती हैं, यह निर्णयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता। यदि आ. श्री गुणधर की परम्परा को ख्याति प्राप्त करने में सौ वर्ष का समय मान लिया जाए तो षट्खंडागम के प्रवचनकर्ता धरसेनाचार्य से ‘‘कसायपाहुड’’ के प्रणेता गुणधराचार्य का समय लगभग दो सौ वर्ष पूर्व सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार आचार्य गुणधर का समय विक्रम पूर्व प्रथम शताब्दी सिद्ध होता है।
आचार्य इन्द्रनंदि ने अपने श्रुतावतार में कहा है कि ‘‘कसायपाहुड’’ ग्रन्थ पर आचार्य यतिवृषभ ने ६,००० श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र रचे हैं।
उच्चारणाचार्य ने १२,००० श्लोक प्रमाण में उच्चारणावृत्ति रची है। शामकुन्डाचार्य ने ४८,००० श्लोक प्रमाण में ‘पद्धति’ नाम से व्याख्या रची है। तुम्बलूराचार्य ने ८४,००० श्लोक प्रमाण में चूड़ामणि टीका रची है और आचार्यश्री वीरसेन तथा जिनसेन ने ६०,००० श्लोक प्रमाण में ‘‘जयधवला’’ नाम से टीका लिखी है। उपलब्ध जैन वाङ्मय में से कसायपाहुड पर ही सबसे अधिक व्याख्यायें और टीकायें रची गई हैं। यदि उक्त समस्त टीकाओं के परिमाण को सामने रखकर मात्र २३३ गाथाओं वाले कसायपाहुड को देखा जाए तो वह दो लाख प्रमाण से भी ऊपर सिद्ध होता है। वर्तमान में मूल गाथाएँ, यतिवृषभाचार्यकृत चूर्णिसूत्र और जयधवला टीका ही उपलब्ध है, बाकी टीकाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
चूर्णिसूत्रकार ने और जयधवलाकार ने तो इनकी गाथाओं को बीजपदरूप और अनंतार्थगर्भी कहा है। ‘‘कसायपाहुड की किसी-किसी गाथा के एक-एक पद को लेकर एक-एक अधिकार का रचा जाना तथा तीन गाथाओं का पांच अधिकारों में निबद्ध होना ही गाथाओं की गम्भीरता और अनंत अर्थगर्भिता को सूचित करता है। वेदक अधिकार की जो जंसंकामेदिय’’ (गाथांक ६२) गाथा के द्वारा चारों प्रकार के बंध, चारों प्रकार के संक्रमण, चारों प्रकार के उदय, चारों प्रकार की उदीरणा और चारों प्रकार के सत्व सम्बन्धी अल्पबहुत्व की सूचना निश्चयत: उसके गांभीर्य और अनन्तार्थगर्भित्व की साक्षी है। यदि इन गाथा सूत्रों में अंतर्निहित अनंत अर्थ को चूर्णिकार व्यक्त न करते तो आज उनका अर्थबोध होना असम्भव था।
स्वयं जयधवलाकार प्रस्तुत ग्रंथ के गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रों को किस श्रद्धा और भक्ति से देखते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में देखिए। एक स्थल पर शिष्य के द्वारा यह शंका किए जाने पर कि ‘‘यह कैसे जाना ?’’ इसके उत्तर में वीरसेनाचार्य कहते हैं-
‘‘एदम्हादो विउलगिरिमत्थ यत्थवड्ढमाणादिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहज्जजंबुसामियादि आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अज्जमंखुणागहत्थी हितो जसिवसहमुहणयिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणमिद दिव्वज्झुणिकिरणादो णव्वदे।’’
अर्थात् ‘‘विपुलाचल के शिखर पर विराजमान वर्धमान दिवाकर से प्रकट होकर गौतम, लोहार्य (सुधर्मा स्वामी) और जम्बूस्वामी आदि की आचार्य परम्परा से आकर और गुणधराचार्य को प्राप्त होकर गाथास्वरूप से परिणत हो पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ति द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त होकर और उनके मुख कमल से चूर्णिसूत्र के आकार से परिणत दिव्यध्वनिरूप किरण से जानते हैं।’’
वस्तुत: जो दिव्यध्वनि भगवान महावीर से प्रगट हुई है वही गौतमादि के द्वारा प्रसारित होती हुई गुणधराचार्य को प्राप्त हुई और फिर उनके द्वारा गाथारूप से परिणत होकर आचार्य परम्परा द्वारा आर्यमंक्षु और नागहस्ति को प्राप्त होकर उनके द्वारा यतिवृषभ को प्राप्त हुई इसलिए चूर्णिसूत्रों में निर्दिष्ट प्रत्येक बात दिव्यध्वनिरूप ही है। इसमें किसी प्रकार के संदेह या शंका की कुछ भी गुंजाइश नहीं है। अस्तु! कसायपाहुड और उसके चूर्णिसूत्रों में जिस ढंग से वस्तुतत्त्व का निरूपण किया गया है, उसी से वह सर्वज्ञ कथित है’’ यह सिद्ध होता है।
इस उपर्युक्त प्रकरण से आचार्य परम्परा और श्रुत परम्परा का अविच्छेद भी जाना जाता है।
जयधवलाकार तो इस कषायपाहुड के ऊपर रचे गए चूर्णिसूत्रों को षट्खण्डागम सूत्रों के सदृश सूत्र रूप और प्रमाण मानते हैं। देखिए-किसी स्थल पर चूर्णिकार यतिवृषभ और षट्खंडागम के कर्ता भूतबलि के मत में कुछ अन्तर होने पर श्री वीरसेनाचार्य कहते हैं कि ‘‘एदेसिं दोण्हमुवदेसाणं मज्झे सच्चेणेक्केणेव होदव्वं। तत्थ सच्चत्तणेगदरणिण्णओ णत्थि त्ति दोण्हं पि संगहो कायव्वो।’’ इन दोनों उपदेशों में से सत्य तो एक ही होना चाहिए किन्तु किसी एक की सत्यता का निर्णय आज केवली या श्रुतकेवली के न होने से सम्भव नहीं है अतएव दोनों का ही संग्रह करना चाहिए।
श्री वीरसेनाचार्य ने भगवान की दिव्यध्वनि को सूत्र कहा है पुन: श्रीगणधरदेव और गणधरदेव के वचनों को भी सूत्र सम कहकर प्रमाणता दी है तथा सूत्र के लक्षण के बाद प्रश्न होता है कि-
‘‘इस वचन से ये गाथाएँ सूत्र नहीं हैं क्योंकि गणधर, प्रत्येक बुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी के वचन सूत्र माने गए हैं किन्तु भट्टारक गणधरादि नहीं हैं तो आचार्य कहते हैं कि नहीं, गुणधर भट्टारक की गाथाएँ निर्दोष, अल्पाक्षर एवं सहेतुक होने से सूत्र के समान हैं अत: इन्हें सूत्र ही माना गया है।’’ ऐसे ही कई स्थलों पर जयधवला में उल्लेख है।
इन सभी बातों से आचार्य गुणधर देव कितने महान थे और उनका यह कसायपाहुड ग्रन्थ कितना महान है, इसका बोध सहज ही हो जाता है।
नामकषाय, स्थापनाकषाय, द्रव्यकषाय, भावकषाय, प्रत्ययकषाय, समुत्पत्तिककषाय, आदेशकषाय और रसकषाय। ये भेद आचारांगनिर्युक्ति (गा. १९०) तथा विशेषावश्यकभाष्य में भी पाए जाते हैं। इन आठ भेदों में ऐसे सभी पदार्थों का संग्रह हो जाता है जिनमें किसी भी दृष्टि से कषाय व्यवहार किया जा सकता है। इनमें भावकषाय ही मुख्य कषाय है। इस कषायपाहुड ग्रंथ में इस भावकषाय का तथा इसको उत्पन्न करने में प्रबल कारण कषायद्रव्य कर्म अर्थात् प्रत्ययकषाय का सविस्तार वर्णन है। मुख्यत: इस कषायपाहुड में चारित्रमोहनीय और दर्शनमोहनीय कर्म का विविध अनुयोग द्वारों में प्ररूपण है।
पेज्जदोष विभक्ति—
प्रकृत कषायप्राभृत पन्द्रह अधिकारों में बटा हुआ है। उनमें से पहला अधिकार पेज्जदोष विभक्ति है। मालूम होता है यह अधिकार कषायप्राभृत के पेज्जदोषप्राभृत दूसरे नाम की मुख्यता से रखा गया है। अगले चौदह अधिकारों में जिस प्रकार कषाय की बन्ध, उदय, सत्त्व आदि विविध्ा दशाओं के द्वारा कषायों का विस्तृत व्याख्यान किया है उस प्रकार पेज्जदोष का विविध दशाओं के द्वारा व्याख्यान न करके केवल उदय की प्रधानता से व्याख्यान किया गया है तथा अगले चौदह अधिकारों में कषाय का व्याख्यान करते हुए यथासंभव तीन दर्शनमोहनीय को गर्भित करके और कहीं पृथक््â रूप से उनकी विविध दशाओं का भी जिस प्रकार व्याख्यान किया है उस प्रकार पेज्जदोषविभक्ति अधिकार में नहीं किया गया है किन्तु वहाँ उसके व्याख्यान को सर्वथा छोड़ दिया गया है।
अगले चौदह अधिकार ये हैं—
स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति—झीणाझीण—स्थित्यन्तिक, बन्धक, वेदक, उपयोग, चतु:स्थान, व्यञ्जन, दर्शनमोहोपशामना, दर्शनमोहक्षपणा, संयमासंयमलब्धि, संयम लब्धि, चारित्रमोहोपशामना और चारित्रमोहक्षपणा।
इनमें से प्रारंभ के तीन अधिकारों में सत्त्व में स्थित मोहनीय कर्म का, बन्धक में मोहनीय के बन्ध और संक्रम का, वेदक और उपयोग में मोहनीय के उदय, उदीरणा और वेदक काल का, चतु:स्थान में चार प्रकार की अनुभाग शक्ति का, व्यञ्जन में क्रोधादिक के एकार्थक नामों का मुख्यतया कथन है। शेष सात अधिकारों का विषय उनके नामों से ही स्पष्ट हो जाता है।
संक्षेप में इन अधिकारों का बँटवारा किया जाय तो यह कहना होगा कि प्रारंभ के आठ अधिकारों में संसार के कारणभूत मोहनीय कर्म की विविध दशाओं का वर्णन है। अन्तिम सात अधिकारों में आत्म परिणामों के विकास से शिथिल होते हुए मोहनीय कर्म की जो विविध दशाएँ होती हैं उनका वर्णन है।
स्थिति विभक्ति—
जब कोई एक विवक्षित पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ को आवृत करता है या उसकी शक्ति का घात करता है तब साधारणतया आवरण करने वाले पदार्थ में आवरण करने का स्वभाव, आवरण करने का काल, आवरण करने की शक्ति का हीनाधिकभाव और आवरण करने वाले पदार्थ का परिमाण ये चार अवस्थाएँ एक साथ प्रकट होती हैं। चूंकि आत्मा आव्रियमाण है और कर्म आवरण, अत: कर्म के द्वारा आत्मा के आवृत होने पर कर्म की भी उक्त चार अवस्थाएँ होती हैं जो कि आवरण करने के पहले समय में ही सुनिश्चित हो जाती हैं। आगम में इनको प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध कहा है। इस प्रकार कर्म की चार अवस्थाएँ हैं फिर भी श्री गुणधर भट्टारक ने प्रकृतिबन्ध को स्वतन्त्र अधिकार नहीं माना है क्योंकि प्रकृति, स्थिति और अनुभाग का अविनाभावी है अत: उसका उक्त अधिकारों में अन्तर्भाव कर लिया है। इस प्रकार यद्यपि दूसरे अधिकार का नाम स्थिति विभक्ति है पर उसमें प्रकृति विभक्ति और स्थिति विभक्ति दोनों का वर्णन किया है।
विभक्ति शब्द का अर्थ विभाग है। यह विभक्ति नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, गणना, संस्थान और भाव के भेद से अनेक प्रकार की है परन्तु प्रकृत में द्रव्यविभक्ति के तद्वयतिरिक्त भेद का जो कर्मविभक्ति भेद है वह लिया गया है। यद्यपि इस कषायप्राभृत में एक मोहनीय कर्म का ही विशद वर्णन है पर वह आठ कर्मों में से एक है अत: उसके साथ विभक्ति शब्द के लगाने में कोई आपत्ति नहीं है। मोहनीय का स्वभाव सम्यक्त्व और चारित्र का विनाश करना है। इस प्रकृति विभक्ति के मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तर प्रकृति विभक्ति ये दो भेद हैं।
इनमें से मूलप्रकृति विभक्ति का सादि आदि अनुयोगद्वारों के द्वारा विवेचन किया है। उत्तरप्रकृतिविभक्ति के एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति ये दो भेद हैं। जहाँ मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों का पृथक्—पृथक् कथन किया है उसे एवैâक उत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते हैं तथा जहाँ मोहनीय के अट्ठाईस, सत्ताईस आदि प्रकृति रूप सत्त्वस्थानों का कथन किया है उसे प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति कहते हैं। इनमें से एकैक उत्तरप्रकृतिविभक्ति का समुत्कीर्तना आदि अनुयोगद्वारों के द्वारा और प्रकृतिस्थान उत्तरप्रकृतिविभक्ति का स्थानसमुत्कीर्तना आदि के द्वारा कथन किया है।
स्थिति विभक्ति—जिसमें चौदह मार्गणाओं का आश्रय लेकर मोहनीय के अट्ठाईस भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है उसे स्थितिविभक्ति कहते हैं। इसके मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति इस प्रकार दो भेद हैं। एक समय में मोहनीय के जितने कर्मस्कन्ध बंधते हैं उनके समूह को मूलप्रकृति कहते हैं और इसकी स्थिति को मूलप्रकृतिस्थिति कहते हैं तथा अलग-अलग मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की स्थिति को उत्तरप्रकृतिस्थिति कहते हैं। इनमें से मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति का सर्वविभक्ति आदि अनुयोगद्वारों के द्वारा कथन किया है और उत्तर प्रकृतिस्थिति का श्रद्धाच्छेद आदि अनुयोगद्वारों के द्वारा कथन किया है।
अनुभाग विभक्ति—
कर्मों में जो अपने कार्य के करने की शक्ति पाई जाती है उसे अनुभाग कहते हैं। इसका विस्तार से जिस अधिकार में कथन किया है उसे अनुभागविभक्ति कहते हैं। इसके भी मूलप्रकृति अनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति ये दो भेद हैं। सामान्य मोहनीय कर्म के अनुभाग का विस्तार से जिसमें कथन किया है उसे मूलप्रकृति अनुभागविभक्ति कहते हैं तथा मोहनीयकर्म के उत्तर भेदों के अनुभाग का विस्तार से जिसमें कथन किया है उसे उत्तर प्रकृति अनुभागविभक्ति कहते हैं। इनमें से मूलप्रकृति अनुभागविभक्ति का संज्ञा आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा और उत्तप्रकृतिअनुभागविभक्ति का संज्ञा आदि अधिकार में कथन किया है।
प्रदेशविभक्ति-झीणाझीण—स्थित्यन्तिक—
प्रदेशविभक्ति के दो भेद हैं—मूलप्रकृति प्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति। मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति का भागाभाग आदि अधिकारों में कथन किया है तथा उत्तर प्रकृतिप्रदेशविभक्ति का भी भागाभाग आदि अधिकारों में कथन किया है।
झीणाझीण—किस स्थिति में प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य और अयोग्य हैं, इसका झीणाझीण अधिकार में कथन किया गया है। जो प्रदेश उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य हैं उन्हें झीण तथा जो उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदय के योग्य नहीं हैं उन्हें अझीण कहा है। इस झीणाझीण का समुत्कीर्तना आदि चार अधिकारों में वर्णन है।
स्थित्यन्तिक—स्थिति को प्राप्त होने वाले प्रदेश स्थितिक या स्थित्यन्तिक कहलाते हैं अत: उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त, जघन्य स्थिति को प्राप्त आदि प्रदेशों का इस अधिकार में कथन है। इसका समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों में कथन किया है। जो कर्म बन्धसमय से लेकर उस कर्म की जितनी स्थिति है उतने काल तक सत्ता में रह कर अपनी स्थिति के अन्तिम समय में उदय में दिखाई देता है वह उत्कष्ट स्थितिप्राप्त कर्म कहा जाता है। जो कर्म बन्ध के समय जिस स्थिति में निक्षिप्त हुआ है अनन्तर उसका उत्कर्षण या अपकर्षण होने पर भी उसी स्थिति को प्राप्त होकर जो उदयकाल में दिखाई देता है उसे निषेकस्थितिप्राप्त कर्म कहते हैं। बन्ध के समय जो कर्म जिस स्थिति में निक्षिप्त हुआ है उत्कर्षण और अपकर्षण न होकर उसी स्थिति में रहते हुए यदि वह उदय में आता है तो उसे अधानिषेकस्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। जो कर्म जिस किसी स्थिति को प्राप्त होकर उदय में आता है उसे उदयनिषेकस्थिति प्राप्त कर्म कहते हैं। इस प्रकार इन सबका कथन इस अधिकार में किया है।
बन्धक—
बन्ध और संक्रम इस प्रकार बन्ध के दो भेद हैं। मिथ्यात्वादि कारणों से कर्मभाव के योग्य कार्माण पुद्गल स्कन्धों का जीव के प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाह संबंध को बन्ध कहते हैं। इसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं। जिस अनुयोग द्वार में इसका कथन है उसे बन्ध अनुयोगद्वार कहते हैं। इस प्रकार बंधे हुए कर्मों के यथायोग्य अपने अवान्तर भेदों में संक्रान्त होने को संक्रम कहते हैं। इसके प्रकृतिसंक्रम आदि अनेक भेद हैं। इसका जिस अनुयोगद्वार में विस्तार से कथन किया है उसे संक्रम अनुयोगद्वार कहते हैं। बन्ध अनुयोगद्वार में इन दोनों का कथन किया है। बन्ध और संक्रम दोनों की बन्ध संज्ञा होने का यह कारण है कि बन्ध के अकर्मबन्ध और कर्मबन्ध ये दो भेद हैं। नवीन बन्ध को अकर्मबन्ध और बंधे हुए कर्मों के परस्पर संक्रान्त होकर बंधने को कर्मबन्ध कहते हैं अत: दोनों को बन्ध संज्ञा देने में कोई आपत्ति नहीं है।
इस अधिकार में एक सूत्रगाथा आती है, जिसके पूर्वार्ध द्वारा प्रकृतिबन्ध आदि चार प्रकार के बन्धों की और उत्तरार्ध द्वारा प्रकृतिसंक्रम आदि चार प्रकार के संक्रमों की सूचना की है। बन्ध का वर्णन तो इस अधिकार में नहीं किया है। उसे अन्यत्र से देख लेने की प्रेरणा की गई है किन्तु संक्रम का वर्णन खूब विस्तार से किया है। प्रारम्भ में संक्रम का निक्षेप करके प्रकृत में प्रकृति संक्रम से प्रयोजन बतलाया है और उसका निरूपण तीन गाथाओं के द्वारा किया है। उसके पश्चात् ३२ गाथाओं से प्रकृतिस्थान संक्रम का वर्णन किया है। एक प्रकृति के दूसरी प्रकृतिरूप हो जाने को प्रकृतिसंक्रम कहते हैं, जैसे—मिथ्यात्व प्रकृति का सम्यक्त्व और सम्यक््âमिथ्यात्व प्रकृति में संक्रम हो जाता है और एक प्रकृतिस्थान के अन्य प्रकृतिस्थान रूप हो जाने को प्रकृतिस्थानसंक्रम कहते हैं। जैसे—मोहनीयकर्म के सत्ताईस प्रकृतिक सत्त्वस्थान का संक्रम अट्टाईस प्रकृतियों की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टि में होता है। किस प्रकृति का किस प्रकृतिरूप संक्रम होता है और किस प्रकृतिरूप संक्रम नहीं होता तथा किस प्रकृतिस्थान का किस प्रकृतिस्थान में संक्रम होता है और किस प्रकृतिस्थान में संक्रम नहीं होता, आदि बातों का विस्तार से विवेचन इस अध्याय में किया गया है। यह अधिकार बहुत विस्तृत है।
वेदक—
इस अधिकार में उदय और उदीरणा का कथन है। कर्मों का अपने समय पर जो फलोदय होता है उसे उदय कहते हैंं और उपायविशेष से असमय में ही उनका जो फलोदय होता है उसे उदीरणा कहते हैं। चूँकि दोनों ही अवस्थाओं में कर्मफल का वेदन—अनुभवन करना पड़ता है इसलिये उदय और उदीरणा दोनों को ही वेदक कहा जाता है। इस अधिकार में चार गाथाएँ हैं, जिनके द्वारा ग्रंथकार ने उदय-उदीरणाविषयक अनेक प्रश्नों का समवतार किया है और चूर्णिसूत्रकार ने उनका आलम्बन लेकर विस्तार से विवेचन किया है। पहली गाथा के द्वारा प्रकृति उदय, प्रकृति उदीरणा और उनके कारण द्र्रव्यादि का कथन किया है। दूसरी गाथा के द्वारा स्थिति उदीरणा, अनुभाग उदीरणा, प्रदेश उदीरणा तथा उदय का कथन किया है। तीसरी गाथा के द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक भुजाकार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य का कथन किया है अर्थात् यह बतलाया है कि कौन बहुत प्र्ाकृतियों की उदीरणा करता है और कौन कम प्रकृतियों की उदीरणा करता है तथा प्रतिसमय उदीरणा करने वाला जीव कितने समय तक निरन्तर उदीरणा करता है, आदि। चौथी गाथा के द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक बंध, संक्रम, उदय, उदीरणा और सत्त्व के अल्पबहुत्व का कथन किया गया है। यह अधिकार भी विशेष विस्तृत है।
उपयोग—
इस अधिकार में क्रोधादि कषायों के उपयोग का स्वरूप बतलाया गया है। इसमें सात गाथाएँ हैं जिनमें बतलाया गया है कि एक जीव के एक कषाय का उदय कितने काल तक रहता है ? किस जीव के कौन सी कषाय बार-बार उदय में आती है ? एक भव में एक कषाय का उदय कितनी बार होता है और एक कषाय का उदय कितने भवों तक रहता है ? जितने जीव वर्तमान में जिस कषाय में विद्यमान हैं क्या वे उतने ही पहले भी उसी कषाय में विद्यमान थे और क्या आगे भी विद्यमान रहेंगे ? आदि कषायविषयक बातों का विवेचन इस अधिकार में किया गया है ?
चतु:स्थान—
घाति कर्मों में शक्ति की अपेक्षा लता आदि रूप चार स्थानों का विभाग किया जाता है। उन्हें क्रमश: एक स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतु:स्थान कहते हैं। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया और लोभकषाय के उन चारों स्थानों का वर्णन है इसलिये इस अधिकार का नाम चतु:स्थान है। इसमें १६ गाथाएँ हैं। पहली गाथा के द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ के चार-चार प्रकार होने का उल्लेख किया है और दूसरी, तीसरी तथा चौथी गाथा के द्वारा वे प्रकार बतलाये हैं। पत्थर, पृथिवी, रेत और पानी में हुई लकीर के समान क्रोध चार प्रकार का होता है। पत्थर का स्तम्भ, हड्डी, लकड़ी और लता के समान चार प्रकार का मान होता है, आदि। चारों कषायों के इन सोलह स्थानों में कौन किससे अधिक होता है कौन किससे हीन होता है ? कौन स्थान सर्वघाती है और कौन स्थान देशघाती है ? क्या सभी गतियों में सभी स्थान होते हैं या कुछ अन्तर है ? किस स्थान का अनुभवन करते हुए किस स्थान का बंध होता है और किस स्थान का अनुभवन नहीं करते हुए किस स्थान का बंध नहीं होता ? आदि बातों का वर्णन इस अधिकार में है।
व्यञ्जन—
इस अधिकार में पाँच गाथाओं के द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची शब्दों को बतलाया है। जैसे—क्रोध के क्रोध, रोष, द्वेष आदि, मान के मद, दर्प, स्तम्भ आदि, माया के निकृति, वंचना आदि और लोभ के काम, राग, निदान आदि। इनके द्वारा ग्रंथकार ने यह बतलाया है किस-किस कषाय में कौन-कौन बातें आती हैं। इन पर्याय शब्दों से प्रत्येक कषाय का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।
दर्शनमोहोपशामना—
इस अधिकार में दर्शनमोहनीय कर्म की उपशमना का वर्णन है। दर्शनमोहनीय की उपशमना के लिये जीव तीन करण करता है—अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। प्रारम्भ में ग्रंथकार ने चार गाथाओं के द्वारा अध:- प्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर नीचे का और ऊपर की अवस्थाओं में होने वाले कार्यों का प्रश्नरूप में निर्देश किया है। जैसे पहली गाथा में प्रश्न किया गया है कि दर्शनमोहनीय की उपशमना करने वाले जीव के परिणाम वैâसे होते हैं ? उनके कौन योग, कौन कषाय, कौन उपयोग, कौन लेश्या और कौन सा वेद होता है आदि ? इन सब प्रश्नों का समाधान करके चूर्णिसूत्रकार ने तीनों करणों का स्वरूप तथा उनमें होने वाले कार्यों का विवेचन किया है। इसके बाद पन्द्रह गाथाओं के द्वारा दर्शनमोह के उपशामक की विशेषताएँ तथा सम्यग्दृष्टि का स्वभाव आदि बतलाया है।
दर्शनमोह की क्षपणा—
इस अधिकार के प्रारम्भ में पांच गाथाओं के द्वारा बतलाया है कि दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ कर्मभूमिया मनुष्य करता है। उसके कम से कम तेजोलेश्या अवश्य होती है, क्षपणा का काल अन्तर्मुहूर्त होता है। दर्शनमोह की क्षपणा होने पर जिस भव में क्षपणा का प्रारम्भ किया है उसके सिवाय अधिक से अधिक तीन भव धारण करके मोक्ष हो जाता है आदि। दर्शनमोह के क्षपण के लिये भी अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का होना आवश्यक है अत: चूर्णिसूत्रकार ने इन तीनों करणों का विवेचन तथा उनमें होने वाले कार्यों का दिग्दर्शन इस अधिकार में भी विस्तार से किया है और बतलाया है कि जीव दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कब होता है तथा वह मरकर कहाँ-कहाँ जन्म ले सकता है ?
देशविरत—
इस अधिकार में संयमासंयमलब्धि का वर्णन है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय के अभाव से देशचारित्र को प्राप्त करने वाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे संयमासंयमलब्धि कहते हैं। जो उपशम सम्यक्त्व के साथ संयमासंयम को प्राप्त करता है उसके तीनों ही करण होते हैं किन्तु उसकी विवक्षा यहाँ नहीं की है क्योंकि उसका अन्तर्भाव सम्यक्त्व की उत्पत्ति में ही कर लिया गया है अत: उसे छोड़कर जो वेदक सम्यग्दृष्टि या वेदकप्रायोग्य मिथ्यादृष्टि संयमासंयम को प्राप्त करता है उसका प्ररूपण इस अधिकार में किया है। उसके प्रारम्भ के दो ही करण होते हैं, तीसरा अनिवृत्तिकरण नहीं होता है अत: इस अधिकार में दोनों करणों में होने वाले कार्यों का विस्तार से विवेचन किया गया है। इस अधिकार में केवल एक ही गाथा है।
संयमलब्धि—
जो गाथा १२ वें देशविरत अधिकार में है वही गाथा इस अधिकार में भी है। संयमासंयमलब्धि के ही समान विवक्षित संयमलब्धि में भी दो ही करण होते हैं, जिनका विवेचन संयमासंयमलब्धि की ही तरह बतलाया है। अन्त में संयमलब्धि से युक्त जीवों का निरूपण आठ अनुयोग द्वारों से किया है।
चारित्रमोहनीय की उपशामना—
इस अधिकार में आठ गाथाएं हैं। पहली गाथा के द्वारा, उपशामना कितने प्रकार की है, किस-किस कर्म का उपशम होता है, आदि प्रश्नों का अवतार किया गया है। दूसरी गाथा के द्वारा, निरुद्ध चारित्रमोह प्रकृति की स्थिति के कितने भाग का उपशम करता है, कितने भाग का संक्रमण करता है, कितने भाग की उदीरणा करता है आदि प्रश्नों का अवतार किया गया है। तीसरी गाथा के द्वारा निरुद्ध चारित्रमोहनीय प्रकृति का उपशम कितने काल में करता है, उपशम करने पर संक्रमण और उदीरणा कब करता है, आदि प्रश्नों का अवतार किया गया है। चौथी गाथा के द्वारा, आठ करणों में से उपशामक के कब, किस करण की व्युच्छित्ति होती है आदि प्रश्नों का अवतार किया गया है। जिनका समाधान चूर्णिसूत्रकार ने विस्तार से किया है। इस प्रकार इन चार गाथाओं के द्वारा उपशामक का निरूपण किया गया है और शेष चार गाथाओं के द्वारा उपशामक के पतन का निरूपण किया गया है, जिसमें प्रतिपात के भेद आदि का सुन्दर विवेचन है।
चारित्रमोह की क्षपणा—
यह अधिकार बहुत विस्तृत है। इसमें क्षपकश्रेणी का विवेचन विस्तार से किया गया है। अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के बिना चारित्रमोह का क्षय नहीं हो सकता अत: प्रारम्भ में चूर्णिकार ने इन तीनों करणों में होने वाले कार्यों का विस्तार से वर्णन किया है। नौवें गुणस्थान के अवेदभाग में पहुंचने पर जो कार्य होता है उसका विवेचन गाथा सूत्रों से प्रारम्भ होता है। इस अधिकार में मूलगाथाएँ २८ हैं और उसकी भाष्य गाथाएँ ८६ हैं। इस प्रकार इसमें कुल गाथाएँ ११४ हैं। जिसका बहुभाग मोहनीय कर्म की क्षपणा से सम्बन्ध रखता है। अन्त की कुछ गाथाओं में कषाय का क्षय हो जाने के पश्चात् जो कुछ कार्य होता है उसका विवेचन किया है। अन्त की गाथा में लिखा है कि जब तक यह जीव कषाय का क्षय हो जाने पर भी छद्मस्थ पर्याय से नहीं निकलता है तब तक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का नियम से वेदन करता है। उसके पश्चात् दूसरे शुक्लध्यान से समस्त घातिकर्मों को समूल नष्ट करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर विहार करता है। कषायप्राभृत यहाँ समाप्त हो जाता है किन्तु सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाने के बाद भी जीव के चार अघातिया कर्म शेष रह जाते हैं अत: उनके क्षय का विधान चूर्णिसूत्रकार ने पश्चिमस्कन्ध नामक अनुयोगद्वार के द्वारा किया है और वह द्वार चारित्रमोह की क्षपणा नामक अधिकार की समाप्ति के बाद प्रारम्भ होता है। इसमें चार अघाति कर्मों का क्षय बतलाकर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होने का कथन किया गया है।