तीर्थंकर भगवान माता के गर्भ में आने छह महीने पूर्व ही भगवान ऋषभदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेंगे ऐसा जानकर देवों ने बड़े आदर के साथ आकाश से रत्नो की वर्षा प्रारम्भ कर दी थी। इन्द्र की आज्ञा से नियुक्त हुए कुबेर ने हरिन्मणि इन्द्रनीलमणि पद्मरागमणि आदि उत्तम-उत्तम रत्नों की धारा को नाभिराज के आंगन मे वर्षाये थे। इस प्रकार से स्वामी वृषभदेव के स्वगविरतण से छह महिने पहले से लेकर पीछे भी नौ महीने तक अर्थात् पन्द्रह महीने तक रत्न तथा स्वर्ण की वर्षा होती रही थी।
किसी दिन महारानी मरूदेवी ने राजमहल में सोते समय रात्रि के पिछले प्रहर में जिनेन्द्रदेव के जन्मसूचक सोलह स्वप्न देखे। सोलह स्वप्नों को देखने के बाद मरूदेवी ने देखा कि स्वर्ण के समान पीली कान्ति का धारक उन्नत कंधों वाला बैल हमारे मुख कमल में प्रवेश कर रहा है। अनंतर मंगलवाद्यों की ध्वनि और सुप्रभात आदि मंगल स्तोत्रों से प्रबोध को प्राप्त हुई वह रानी उठ कर बैठ गयी। यद्यपि वह स्वप्न देखने के कारण मंगलवाद्य आदि के पहले ही जागृत हो चुकी थी। तो भी वंदीजनों ने अनेकों स्तुतियों से माता को जगाते हुए के समान ही आनंदित किया था। अनंतर हर्षित हुई वह मरूदेवी मंगल स्नान कर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो अपने पति के पास पहुँची और विनय से महाराज नाभिराय के दर्शन कर अर्धासन पर सुखपूर्वक बैठकर राज्य सिंहासन पर विराजमान महाराज नाभिराज से इस प्रकार निवेदन किया- हे देव! आज रात्रि के पिछले प्रहर में मै सोलह स्वप्न देखे हैं- उन स्वप्नों को क्रमश: सुनाकर कहा कि हे देव आप इन स्वप्नों का फल जानकर कहने लगे कि हे देवि-सुनो इन स्वप्नों का फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भ में तीर्थंकर भगवान वृषभदेव अपना शरीर धारण करेगे । इस प्रकार राजा नाभिराज के वचनों को सुनकर रानी मरूदेवी परमानंद से रोमांच को प्राप्त हो गई थी। जब अवसर्पिणी के तीसरे सुषमा दु:षमा नामक काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष आठ मास और एक पक्ष बाकी रह गया था तक आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वज्रनाभि नाम के अहमिंद्र देव देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरूदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए और वहाँ सीप के संपुट में मोती की तरह सब बाधाओं से रहित होकर स्थित हो गये। उस समय समस्त इन्द्र अपन-२ यहाँ होने वाले चिन्हों से भगवान के गर्भावतार का समय जानकर वहाँ आये और सभी ने नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर भगवान के पिता-माता को नमस्कार किया। महाराज नाभिराज का आंगन देवों खचाखच भर गया। सौधर्म इन्द्र देवों के साथ संगीत नृत्य आदि अनेकों उत्सवों से गर्भकल्याणक उत्सव मानकर माता पिता की पूजाकर अपने-२ स्थानों पर चले गये। उसी समय से लेकर इन्द्र की आज्ञा से दिककुमारी देवियाँ उस समय होने योग्य कार्यों के द्वारा दासियों के समान माता पिता मरूदेवी की सेवा करने लगी । परिचर्या करते समय सबसे पहले देवियों ने स्वर्ग से लाये हुए पवित्र पदार्थो के द्वारा माता का गर्भ शोधन किया था। यद्यपि वह माता स्वभाव से ही निर्मल थी रजस्वला मल मूत्र आदि दोषो से रहित थी। फिर भी देवियों ने उसे विशुद्ध किया था। उन देवियों में कोई तो माता के आगे अष्ट मंगल द्रव्य धारण करती थी, कोई चौक पूरती, कोई ताम्बूल देती थी, कोई स्नान कराती थी, कोई आभूषणों से अलंकृत करती थी। कोई चन्दन से पृथ्वी का सिंचन करती, कोई आरती उतारती और कितनी ही देवियाँ मन्त्राक्षरों के द्वारा उसका रक्षा बन्धन करती थी। वे देवियाँ विशिष्ट-२ काव्य गोष्ठियों से तत्त्व गोष्ठियों से बड़े आदर के साथ गर्भवती मरूदेवी को प्रसन्न करने लगी थी। और अनेकों गूढ़ प्रश्न पहेलिकायें भी करती रहती थी। माता मरूदेवी भी भगवान के प्रसाद से कङ्गिन से कङ्गिन पदो का पहेलियों का अर्थ भी निमिषमात्र में करके देवियों को आश्चर्यचकित कर देती थी। वे भगवान वृषभदेव माता के उदर में स्थित होकर भी उसे किसी प्रकार का कष्ट उत्पन्न नही करते थे। यद्यपि मात मरूदेवी का कृश उदर पहले के समान ही त्रिवलियों से सुशोभित बना रहा तथापि गर्भ वृद्धि को प्राप्त होता गया सो यह भगवान के ही तेज का प्रभाव था। न तो माता के उदर में कोई विकार हुआ था, न उसके स्तनों के अग्रभाग ही काले हुए थे न उसका मुख ही सफेद हुआ था यह एक आश्चर्य की बात है। मरूदेवी के निर्मल गर्भ में स्थित तथा मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञानों से विशुद्ध अन्त: करण को धारण करने वाले भगवान ऋषभदेव ऐसे सुशोभित होते थे। जैसे के स्फटिकमणि के बने हुये घर के बीच में रखा हुआ निश्चल दीपक सुशोभित होता है। अपने समस्त पापों का नाश करने के लिए इन्द्र के द्वारा भेजी हुई इन्द्राणी भी अप्सराओं के साथ-२ गुप्त रूप से महासती मरूदेवी की सेवा किया करती थी। जिस प्रकार अतिशय शोभायमान चन्द्रमा की कला और सरस्वती देवी किसी को नमस्कार नही करती किन्तु सब लोग उन्हें नमस्कार करते हैं उसी प्रकार वह मरूदेवी भी किसी को नमस्कार नही करती थी किन्तु संसार के अन्य समस्त लोग स्वयं उसे ही नमस्कार करते थे। इस विषय में अधिक कहले से क्या प्रयोजन है ? इतना ही कहना बस है कि वह जगत के स्त्रष्टा अर्थात् भोगभूमि के बाद कर्मभूमि की व्यवस्था करने वाले श्री वृषभदेव की जननी थी इसलिए कहना चाहिये कि वह समस्त लोक की जननी थी।ऐसी विशेष परिस्थिति को गर्भकल्याणक नाम से जाना जाता है ।