न्याय पदार्थ को जानने के लिए एक निर्दोष साधन है, इसके बिना हमें पदार्थ का केवल एकपक्षीय ज्ञान होता है; सम्यक््âज्ञान नहीं हो सकता। यह वस्तु का सब अपेक्षाओं (ँब् aत्त् न्गै ज्दग्हूे) से विचार कर प्रतिपादन करता है। ‘ही’ के एकान्त आग्रह का निराकरण कर यह बतलाता है कि पदार्थ ऐसा ‘भी’ है। पदार्थ का विभिन्न धर्मों की अपेक्षा से प्रतिपादन करना ही स्याद्वाद न्याय है।
इस बात को मानने से कोई इन्कार न करेगा कि यह विश्व—प्रकृति अनेकान्तात्मक अर्थात् अनेक धर्मात्मक है। इस ब्रह्माण्ड की छोटी से छोटी वस्तु को लेकर जब हम बड़ी से बड़ी वस्तु का विचार करते हैं तो हमें नि:सन्देह कहना पड़ता है कि उसके गुणों की कोई संख्या नहीं है। पदार्थ के कुछ स्थूल गुण तो हमारे अनुभव में आ जाते हैं, किन्तु उन सूक्ष्म गुणों की कोई संख्या नहीं जो हमारी मनुष्य बुद्धि के बाहर हैं। मनुष्य की बुद्धि परिमित है, उसके द्वारा अपरिमित गुणवाली वस्तु को एक साथ वैâसे जाना जा सकता है ? तो स्याद्वाद हमें एक ऐसा मार्ग बताता है जिससे हम वस्तु को निर्दोषतया जान सकें।
यदि प्रत्येक युग के दर्शनाचार्यों ने स्याद्वाद को वास्तविक अर्थ में अपनाया होता तो साम्प्रदायिकता की सृष्टि न होती, क्योंकि स्याद्वाद मनुष्य को विशाल बुद्धि देता है और साम्प्रदायिकता संकीर्ण बुद्धि का फल है। वस्तु का विवेचन करने के लिए उदारबुद्धि से काम लेना स्याद्वाद कहलाता है। वस्तुत: स्याद्वाद केवल जैनदर्शन की ही वस्तु नहीं है, वरन किसी न किसी रूप में वह आपको हर दर्शन में मिलेगी; तो भी स्याद्वाद का सैद्धान्तिक स्वरूप जैनदर्शन ने ही प्रकट किया है, इसलिए वह केवल जैनदर्शन की ही वस्तु मानी जाने लगी। तब साम्प्रदायिकता के पक्षपात ने स्याद्वाद पर भी आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। संसार में ऐसा कोई सम्प्रदाय, दर्शन और सिद्धान्त न मिलेगा जहाँ स्याद्वाद का उपयोग न हुआ हो। सांख्य, पातञ्जलि, न्याय, वैशेषिक, मीमांसक और वेदान्तवादियों ने अपने–अपने दर्शनों में आवश्यकतानुसार इसका यथेच्छ उपयोग किया है। फिर भी मनुष्य में पक्षपात की कमजोरी बनी ही रहती है, इसलिए वह एक वस्तु का उपयोग करता हुआ भी उसकी सत्ता से इन्कार करने को तैयार हो जाता है।
‘अपेक्षा विशेष (न्न्गै ज्दग्हू) से वस्तु का प्रतिपादन करना।’ मेरा चाकू तेज है इस का अर्थ यह कभी न होगा कि संसार का कोई चाकू इससे तेज नहीं है। अन्य तेज चाकुओं की अपेक्षा यह चाकू मन्द भी है, अत: एक ही समय में मैं अपने चाकू को तेज और मन्द, परस्पर विरोधी दोनों धर्मोवाला कह सकता हूँ कहने में यह बात असंगत–सी जान पड़ती है कि एक ही चाकू एक ही समय में तेज और मन्द दोनों है। किन्तु अपेक्षावाद इस प्रकार की असंगति को दूर करने का ही उपाय है। इसी प्रकार ‘स्यादस्त्येव जीव:’ अर्थात् कथञ्चित् जीव है, इसका अर्थ हुआ कि स्वद्रव्य—क्षेत्र—काल—भाव की अपेक्षा से जीव का अस्तित्व है। किन्तु यदि पर—द्रव्य—क्षेत्र–काल—भाव की अपेक्षा से विचार करें तो हमको कहना पड़ेगा कि ‘स्यान्नास्त्येवजीव:’ अर्थात् परद्रव्य–क्षेत्र—काल—भाव की अपेक्षा से जीव नहीं है। जिस प्रकार प्रत्येक पदार्थ में अस्ति और नास्ति दो धर्म माने जाते हैं, इस ही तरह एक अवक्तव्य धर्म भी वस्तु में रहता है। इन्हीं तीन धर्मों के द्वारा बने हुए तीन भंगों से ही शेष चार भंगों का भी निर्माण होकर सप्तभंगी हो जाते हैं। कहीं भी तीन वस्तुओं से एक—एक, दो—दो और तीन के मिलने से सात भेद हुए बिना न रहेंगे। रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग में भी इसी तरह सात भेद बन जाते हैं। कई विद्वानों का मत है कि प्रारम्भ में ये तीन ही भङ्ग थे, फिर इनके सात भंग बनते हैं; किन्तु ये सात भंग कब से बने—इस विषय को स्याद्वाद के प्ररूपण करने वाले जैनागम का अध्ययन करने से ही जान सकते हैं, क्योंकि यह इतिहास का विषय है।
शब्द के द्वारा पदार्थ के दो धर्मों को एक साथ नहीं कहा जा सकता क्योंकि शब्द धातुओं से बनते हैं और धातुएँ क्रिया की वाचक हैं और क्रिया एक समय में एक ही होती है दो नहीं, इसलिए जब दो धर्मों को एक साथ प्रतिपादन करने का समय उपस्थित होता है तब यह कहा जाता है कि पदार्थ अवक्तव्य है, इस प्रकार स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादस्तिनास्ति च, स्यादवक्तव्य एव, स्यादस्ति चावक्तव्यश्च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च, तथा स्यादस्ति नास्ति चावक्तव्यश्च, ये सात भंग हो जाते हैं। पदार्थ के प्रत्येक धर्म के साथ ये सात भंग लगेंगे। किन्तु जब किसी एक धर्म का प्रतिपादन किया जाता है उस समय अन्य सब धर्मों का निषेध न कर केवल उनकी उपेक्षा कर दी जाती है। उपेक्षा करने का यही प्रयोजन है कि उस समय हमें उन धर्मों का प्रतिपादन नहीं करना है। संसार में अनेक वाद प्रचलित हैं; जैसे—नित्यानित्यवाद, भिन्नाभिन्नवाद, सदसत्वाद, दैवपुरुषार्थवाद, इत्यादि इन सब वादों पर यदि सप्तभंगी न्याय से विचार किया जाए तो कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि पदार्थ में ये सभी धर्म रहते हैं। अनेकधर्मात्मक पदार्थ को सर्वथा एकान्तात्मक कह देना हठ करना है। इसलिए जैन सिद्धान्त की यह आज्ञा है कि उसको अनेक दृष्टियों से देखा जाए। यहाँ तक कि अनेकान्त भी सर्वथा अनेकान्तात्मक नहीं है, कथञ्चित् वह भी एकान्तात्मक है, किन्तु उस एकान्तात्मक का अर्थ है सम्यक््â–एकान्त। आचार्य समन्तभद्र ने अपने स्वयंभू स्तोत्र में अरनाथ तीर्थंकर की स्तुति करते हुए कहा है कि—
अनेकान्तोप्यनेकान्त: प्रमाणनयसाधन:।
अनेकान्त: प्रमाणात्ते तदेकान्तोर्पितान्नयात्।।१०३।।
आचार्य समन्तभद्र ने अपने आप्तमीमांसा नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में इस स्याद्वाद का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया है। स्याद्वाद का ऐसा सर्वाङ्ग सुन्दर व्याख्यान अन्यत्र दुर्लभ है। यह स्याद्वाद जैनदर्शन का प्राण है, इसलिए भारतीय दर्शन ग्रंथों में जैन दर्शन का उल्लेख ‘स्याद्वाद दर्शन’ के नाम से भी मिलता है।
यदि मनुष्य के हृदय में सम्प्रदायगत पक्षपात का विष न हो तो इस प्रकार के सर्वोपयोगी स्याद्वाद की महत्ता को मानने से वह कभी इन्कार नहीं कर सकता, किन्तु जिस प्रकार एक हेयोपादेय—शून्य मनुष्य पक्षपात के आधीन होकर दूसरों के जलाशयों के मीठे पानी को भी पीना नहीं चाहता अथवा आवश्यकता पड़ने पर पीकर भी उसकी प्रशंसा करना उचित नहीं समझता इसी प्रकार वस्तु–विवेचन की इस शुद्ध प्रणाली का उपयोग करते हुए भी कुछ जैनेतर भारतीय दार्शनिकों ने इस पर बहुत आक्षेप किये हैं। औरों की बात तो जाने दीजिए; वेदान्तसूत्र के निर्माता महर्षि व्यास ने भी अपने ‘वादरायण सूत्र’ में ‘एकस्मिन्नसंभवात्’ इत्यादि सूत्रों द्वारा इसका खण्डन करने की चेष्टा की है। तदनुसार वेदान्त के अद्वितीय विद्वान् श्री शंकराचार्य ने भी अपने ‘शांकर भाष्य’ में इस पर कुछ कम आक्रमण नहीं किया ! स्वयं स्याद्वाद का उपयोग करते हुए भी उसका खण्डन करें, यह बहुत आश्चर्य की बात है ! इस अनेकान्तवाद के सम्बन्ध में भी अनेक दार्शनिकों ने तो यह भी कह डाला है कि स्याद्वाद केवल संशयवाद (संशयहेतु) अथवा छलमात्र है; इससे किसी वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता। पर जब संशय और छल के लक्षणों पर विचार किया जाता है तो स्याद्वाद को संशयवाद अथवा छलमात्र बताने वालों पर हँसी आती है। स्याद्वाद संशयवाद न होकर पदार्थ के निर्बाध संशयरहित ज्ञान कराने का साधन है। स्याद्वाद निश्चयात्मक है, जब कि संशयवाद संदेहात्मक है। इन दोनों को एक मानना मिथ्याज्ञान और सम्यक्ज्ञान को एक बता देना है। संशय से तो किसी वस्तु का निश्चय नहीं होता, पर स्याद्वाद से तो किसी अपेक्षा विशेष से वस्तु का अथवा वस्तु के किसी भी अंश का निश्चय होगा। भट्ट अकलंकदेव ने लिखा है कि ‘संशयो हि निर्णयविरोधी’ अर्थात् संशय निर्णय का विरोधी है। संशय का अर्थ है—‘विरुद्ध अनेक कोटि का स्पर्श करने वाला ज्ञान’। अक्षपाद के न्यायदर्शन में कहा है कि—
‘समानानेकधर्मोपपत्तेर्विप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थाश्च विशेषापेक्षो विमर्श: संशय:’ अर्थात् समान और असमान धर्म के उपलम्भ होने से अथवा विरुद्ध कोटिद्वय उपस्थित होने से उपलब्धि और अनुपलब्धि की व्यवस्था न होने पर जो सामान्य—विशेष की स्मृतिपूर्वक ज्ञान होता है वही संशय है। जैसे यह सीप है या चाँदी अथवा आत्मा नित्य है या अनित्य। स्याद्वाद में संशय का यह लक्षण बिल्कुल घटित नहीं हो सकता, क्योंकि यह तो संशय को दूर करने के लिए उपयुक्त होता है। ‘आत्मा कथंचित् नित्य है’ इसमें कोटि द्वयात्मक ज्ञान नहीं होता, किन्तु एक कोटि का निश्चयात्मक ज्ञान होता है। हाँ, अवश्य ही इसमें अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता। संशय उत्पन्न होने पर उसको दूर करने के लिए सप्तभंगी का अवतार होता है, जैसे—प्रथम भंग के पहिले जब यह संशय होता है कि ‘स्याद्घट: अस्त्येव वा न वा’ तो इसका निराकरण करने के लिए ‘स्यादस्त्येव घट:’ इस पहिले भंग का जन्म होता है। इसी प्रकार द्वितीय—तृतीयादि भंगों का जन्म उनके पहिले उत्पन्न हुए संशयों का निराकरण करने के लिए होता है। सप्तभंगी का लक्षण ही आचार्यों ने यह बताया है कि—
‘प्रश्नवशादेकन्न वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगी।’
अर्थात् प्रश्न के वश से एक किसी घट आदि वस्तु में अविरोधरूप से विधि तथा प्रतिषेध की जो कल्पना होती है। उसको सप्तभंगी कहते हैं। इसलिए सप्तभंगी का प्रादुर्भाव सात प्रकार के जो प्रश्न उत्पन्न होते हैं उनके निराकरणार्थ होता है। यदि यह कहा जाय कि प्रश्न सात ही क्यों होते हैं, छह या आठ क्यों नहीं होते तो इसके उत्तर में यही कह देना पर्याप्त होगा कि जिज्ञासा अर्थात् जानने की इच्छा सात ही प्रकार की होती है और यह इसलिए कि संशय सात प्रकार का होता है। पदार्थों के विषयीभूत धर्मों की संख्या सात ही है, न अधिक, न कम। अत: संशय भी सात ही होते हैं जैसा कि ‘सप्तभंगी तरंगिणी’ में कहा है—
भंगास्सत्त्वादयस्सप्त संशयास्सप्त तद्गता:।
जिज्ञासास्सप्त सप्त स्यु: प्रश्नास्सप्तोत्तराण्यपि।।२।।
अत: यह निर्विवाद है कि सप्तभंगी का अवतार संशयों के निराकरणार्थ होता है। अब तार्किक लोग स्वयं विचार सकते हैं कि स्याद्वाद क्या संशयवाद अथवा संशय का हेतु हो सकता है ?
जैसे स्याद्वाद को संशयवाद बताया जाता है वैसे कुछ लोग इस पर छल का कलंक मंढ कर भी स्याद्वाद को बदनाम करना चाहते हैं। किन्तु छल के लक्षणों को देखते हुए यह कहना बिल्कुल युक्तिसंगत नहीं है। ‘वचनविघातोर्थ विकल्पोपपत्त्या छलम्’ यह छल का लक्षण बताया गया है। इसका आशय है कि वादी के द्वारा अभिप्रेत अर्थ से उलटे अर्थ की कल्पना करने की युक्ति से वादी के द्वारा कहे गये वचन का विघात कर देना अर्थात् उसको दोषी बता देना छल है। इस छल के तीन भेद हैं—वाक््âछल, सामान्यछल और उपचार छल। छल के तीनों भेदों के लक्षणों तथा उदाहरणों को देखते हुए कौन बुद्धिमान यह कह सकता है कि स्याद्वाद वास्तव में छलमात्र है। न्यायदर्शन में इन छलों के लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं—‘अविशेषाभिहितेर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना वाक्छलम्’ अर्थात् सामान्य शब्द को वक्ता के अभिप्राय के विरुद्ध ले जाना वाक््âछल है। जैसे किसी के यह कहने पर कि ‘अहा ! सैन्धव की पूँछ कैसी सुन्दर है ’ यह कह देना कि ‘क्या नमक के भी पूंछ होती है ?’ क्योंकि सैंधव शब्द के दो अर्थ होते हैं—एक नमक और दूसरा घोड़ा। वक्ता ने सैन्धव शब्द को घोड़े के अर्थ में प्रयुक्त किया था। किन्तु छलवादी जानबूझकर उस अर्थ को भुला देता है और केवल नमकवाले अर्थ को लेकर कहता है कि—‘नमक के पूँछ कहाँ होती है ?’ प्रकृत में स्यादस्ति इत्यादि सातों भंगों में कोई दो अथवा अनेक अर्थ नहीं होते और न स्याद्वाद का प्रयोग करनेवाला उनमें से किसी एक अर्थ को लेकर किसी को धोखा देना चाहता है। अत: वाक््â छल का यहाँ कोई प्रसंग नहीं है।
‘सम्भवतोर्थस्यातिसामान्ययोगादसद्भूतार्थकल्पना सामान्यछलम्’। अर्थात् प्रशंसावाद या प्रायोवाद से कहे हुए वचन को हेतुपरक वा नियमपरक ले जाना सामान्य छल है। जैसे किसी के यह कहने पर कि ‘भारतीय धर्मात्मा होते हैं’ यह व्याप्ति बना लेना कि ‘जो–जो भारतीय होते हैं वे सभी धर्मात्मा होते हैं।’ यहाँ वक्ता का आशय भारतीयों को धर्मात्मा बतलाकर उनकी प्रशंसा करने का था। उसके कहने की यह इच्छा न थी कि ‘जो—जो भारतीय होते हैं, वे सभी धर्मात्मा होते हैं’, किन्तु वक्ता के इस अभिप्राय को न लेकर ‘भारतीय धर्मात्मा होते हैं’, इस प्रशंसापरक वाक्य को हेतुपरक व नियमपरक नहीं बताता।
तीसरे छल का लक्षण है—‘धर्मविकल्पनिर्देशेऽर्थसद्भावप्रतिषेध उपचारछलम्’ अर्थात् उपचार से कहे हुए शब्द को मुख्य अर्थ में लेकर दूषण देना उपचार छल है। जैसे किसी के उपचार से यह कहने पर कि ‘ओ ! ताँगा इधर आना’ यह दूषण देना कि तांगेवाला इधर आ सकता है न कि तांगा ! यहाँ वक्ता का अभिप्राय तांगेवाले मनुष्य को बुलाने का है न कि तांगे को। क्योंकि बिना मनुष्य के अकेला तांगा तो कभी आ नहीं सकता। वक्ता ने तांगे में तांगेवाले का उपचार कर तांगे शब्द का प्रयोग किया था। उपचार का प्रयोजन तांगे को किराये पर लेने का था। किन्तु छलवादी श्रोता इस उपचरित अभिप्राय को न लेकर तांगे के मुख्य अर्थ को लेता है; इसलिए यह उपचार के सम्बन्ध में छल हुआ।
स्याद्वाद सिद्धान्त में इस उपचार छल की भी कोई संभावना नहीं है, क्योंकि स्यादस्ति इत्यादि वाक्यों में कोई मुख्य और उपचरित अर्थ की संभावना नहीं है और न स्याद्वादी उपचरित अर्थ को बाधित कर किसी मुख्य अर्थ का प्रयोग करता है। इस तरह तीनों ही छलों का स्याद्वाद से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए जैनों का ‘स्याद्वाद’ जैसे ‘संशयवाद’ नहीं है वैसे ही ‘छलमात्र’ भी नहीं है।
संसार के धर्माचार्यों का अभिमत है कि इहलौकिक तथा पारलौकिक उत्थान एवं जगत—शान्ति के लिए धर्म परमावश्यक है। वस्तुत: धर्म का विकास मानव समाज की उन्नति के लिए ही है, इससे प्राणी यथेष्ट शान्ति को प्राप्त करता है एवं अपनी मनोनीत सिद्धि तक पहुँच जाता है। परन्तु इस सम्बन्ध में यदि इतिहास का अवलोकन किया जाता है तो मालूम होता है कि बजाय शान्ति के धर्म के नाम पर संसार में जितनी अशान्ति व अज्ञान फैला है उतना अन्य किसी से नहीं। दुनिया के धर्मों का इतिहास हत्या, रक्तपात और मनुष्य की रक्तपिपासा का इतिहास है। इसी धर्म के नाम पर हजारों बड़े–बड़े युद्ध हुए। असंख्य मनुष्यों का रक्तपात हुआ। हजारों गाँव जला दिये गए, लाखों सतियों का सतीत्व अपहरण किया गया। केवल एक देश में ही नहीं, अपितु कोई ऐसा देश नहीं मिलेगा जिसमें धर्म के नाम पर भीषण से भीषण अत्याचार न हुए हों। यूरोप की इनक्वीजीशन (Inquisition) नामक धार्मिक अदालत एवं स्टार चैम्बर न्यायालय (Court of Star Chamber) की रोमाञ्चकारी घटनाओं को सुनकर कौन ऐसा सहृदय व्यक्ति होगा जिसका हृदय काँप न उठे ! ‘रैक’, ‘कालर आफ टौरचर’ तथा ‘स्वैâवैंजर्स रौटर’ जैसे भीषण यन्त्र जिस सभा में बेगुनाह अपराधियों का बलात् अपराध स्वीकार कराने में प्रयुक्त किये जाते थे और तत्पश्चात् वे जीते–जी प्रज्वलित अग्निकुण्ड में होम दिये जाते थे या कभी-कभी भोथरी तलवार से उनका नामावशेष कर दिया जाता था। लौण्टी ने लिखा है कि अकेले टोर्कीटेडा नामक राजा ने अपने राज्यशासन के १८ वर्ष के समय में एक लाख चौदह हजार चार सौ एक कुटुम्बों का सर्वनाश किया। कहाँ तक कहा जाय, केवल इन दोनों धार्मिक अदालतों से करीबन एक करोड़ मनुष्यों ने मृत्यु की सजा पाई। यह केवल यूरोप का इतिहास है। हिन्दुस्तान में भी धर्म के नाम पर जो घोर संग्राम और भयंकर मनुष्यिंहसा व पशुिंहसा हुई वह भी यूरोप से कम नहीं है। धर्म के नाम पर होने वाले इन अत्याचारों का वर्णन सुनकर एक बार तो शैतान की आत्मा भी दहल उठती है। यदि इन हृदय—विदारक अत्याचारों का पूर्णत: वर्णन किया जाय तो। एक खासा स्वतंत्र साहित्य तैयार हो सकता है। मत—सहिष्णुता (स्याद्वाद) के अभाव के कारण ही संसार को यह सब भीषण दृश्य देखने पड़े हैं।
ऐसी परिस्थिति का अनुशीलन करते हुए यह कैसे कहा जा सकता है कि धर्म विश्वशान्ति का कारण हो सकता है ? लेकिन नहीं, यदि हम बुद्धिपूर्वक विचार करें तो कहना होगा कि संसार में यदि शान्ति का साम्राज्य हो सकता है तो केवल एक धर्म से; यदि वह पारस्परिक सहानुभूति सीख सकता है तो केवल एक धर्म से और यदि वह करुणावत्सल हो सकता है तो केवल एक धर्म से। संसार में होने वाले ये भीषण अत्याचार धर्म के प्रतिफल नहीं, अपितु आज तक, धर्मों में जो एक अपूर्णता रहती आई है, उसी के परिणाम हैं। यदि दुनिया में एक धर्म का साम्राज्य होता तो भीषण अत्याचार कभी न होते, सर्वत्र शान्ति का झण्डा फहराता, एवं विश्व आज एक और ही किसी प्रौढ़तम अवस्था में होता। परन्तु दुर्भाग्यवश नाना धर्मों के होने से सम्प्रदायवाद का प्रपंच संसार में पैâला और वही इन सबका कारण हुआ। वस्तुत: धार्मिक संकीर्णता ऐसी ही है, वह मनुष्य के हृदय में निवास करने वाले सहानुभूति, प्रेम और शान्ति के विचारों को समूलत: नष्ट कर देती है और उसके हृदय को कुटिलता, निष्ठुरता तथा उद्दण्डता के भावों का निवास स्थान बना देती है। भूतकाल में इसी सम्प्रदायवाद का दौर दौरा रहा और इसी के फलस्वरूप भीषण से भीषण अत्याचार दुनियाँ को सहने पड़े; अब भी अब तक संकीर्णतावाद का अस्तित्व है, जगत् में शान्ति की आशा करना पत्थर पर अंकुर उगाने के समान है। यदि संसार विश्वशान्ति का इच्छुक है तो संकीर्णतावाद को तिलाञ्जली देते हुए किसी एक धर्म को ऐसा रूप देने की आवश्यकता है जो सब धर्मों को आपस में किसी समझौते पर पहुँचाने में समर्थ हो।
किन्तु अब सब से कठिन बात यह रह जाती है कि दुनियाँ का कौन सा ऐसा धर्म है जो सब धर्मों को एक्य—सूत्र में पिरोकर जगत्—कल्याणकारी हो सकता है ! भिन्न-भिन्न धर्मों के निरीक्षण से ज्ञात होता है कि उनमें से किसी एक का सार्वजनिक धर्म हो जाना बिल्कुल ही असम्भव है। वे इतने विरोधात्मक हैं कि उनमें परस्पर में मेल होना किसी भी तरह सम्भव नहीं। यह तो कभी नहीं कहा जा सकता कि वे बिल्कुल साधार हैं। चार्वाक, जिसके सिद्धान्तों को दुनिया घृणा की दृष्टि से देखती है, यदि तत्कालीन परिस्थिति यहाँ विद्यमान होती तो वह एवं उसके सिद्धान्त कभी घृणित न समझे जाते। जिस समय दुनिया शरीर के सम्बन्ध में लापरवाह हो चुकी थी और अध्यात्मवाद के कृत्रिम पाखंड ने उसको और भी विमूढ़ बना दिया था, उस समय ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्’ के सिद्धान्त ने ही उन लोगों को ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ की तरफ ऋजु किया। यदि उस समय इस सिद्धान्त का प्रचार न होता तो जनसमाज की क्या गति होती, यह हर कोई जान सकता है। इसलिए यह तो निश्चित है कि तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार सभी धर्म किसी न किसी अपेक्षा ठीक हैं ; तो भी वे सब धर्म परस्पर विरोधात्मक होने से सर्वमान्यधर्म होने की क्षमता नहीं रखते। विरोध भी थोड़ा बहुत नहीं, अपितु रात और दिन का है—जहाँ सांख्य वस्तु को कूटस्थ नित्य बतलाता है वहाँ बौद्ध क्षणिकवाद की ही आलाप लगाता है। जहाँ नैयायिक प्रभृति ईश्वर को असिद्ध कर डालता है, एवं जहाँ सर्वज्ञत्व एवं परलोकास्तित्व का विधान किया जाता है वहीं चार्वाक इन सबके ताने-बाने बिखेर डालता है।
जब इस प्रकार परस्पर में विरोध है तब किस प्रकार किसी एक समझौते पर पहुँचना सम्भव हो सकता है ? कदापि नहीं। अत: यह कहना अनुचित न होगा कि किसी भी धर्म के आंशिक सिद्धान्त पारस्परिक उलझनों को सुलझाने में समर्थ नहीं हैं और इसीलिए वे जगत् हितैषी भी नहीं हैं।
ये सब उलझनें यदि सुलझ सकती हैं तो केवल एक ऐसे सिद्धान्त से, जो किसी भी विषय पर एक दृष्टिकोण से (One point of view)विचार न कर विविध दृष्टिकोणों (By all point of view) से विचार करता है; क्योंकि भिन्न—भिन्न अवस्थाओं व व्यवस्थाओं में वस्तुओं के भिन्न–भिन्न रूप होते हैं, अत: उनका कथन एकान्त से हो नहीं सकता, अनेकान्त ही उनकी संगत व्याख्या कर सकता है। बहुत छानबीन करने पर स्याद्वाद ही केवल एक ऐसा सिद्धान्त प्रतीत होता है जो उपरोक्त गुण से पूर्णत: अलंकृत है। यह सिद्धान्त किसी वस्तु के लिए यह नहीं कहता कि यह एकान्तत: ऐसी ही है, अत: यह एकान्त विश्वास का निषेध कर वस्तु के सर्वांग वास्तविक स्वरूप का निश्चय कराता है। एकान्ती जो कुछ भी कथन करते हैं एक नय की सर्वथा प्रधानता को लेकर। वे उसके विविध दृष्टिकोणों से उसका विचार नहीं करते-अत: यही बात उनको जन-समाज के प्रति हितेच्छु होने से रोकती है, परन्तु इसके प्रतिकूल स्याद्वाद जिसका कि विविध दृष्टिकोणों से विचार करना ही खास उद्देश्य है, वास्तविक शान्ति का कारण हो जाता है। जहाँ सांख्य वस्तु के कूटस्थ नित्यत्व को स्वीकार करता है एवं जहाँ बौद्ध बिल्कुल ही इसके प्रतिकूल क्षणिकवाद को अपना सिद्धान्त मानता है वहाँ स्याद्वादी कहते हैं कि वस्तु यदि सर्वथा नित्य ही है तो उसमें पर्याय—परिवर्तन किस तरह होती है; कूटस्थ नित्य में तो कभी विकार नहीं होता, और यदि वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है तो ‘यह वस्तु वही है जो पहले देखी थी’ ऐसा प्रत्यभिज्ञान नहीं होना चाहिए; किन्तु प्रत्यभिज्ञान तो अबाधरूप से होता देखा जाता है। इस तरह यह दोनों ही कल्पनायें तर्क की कसौटी पर ठीक नहीं उतरतीं। पर स्याद्वाद सिद्धान्त इस विषय का अच्छा निरूपण करता है—वह प्रतिपादन करता है कि ‘वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी।’ अर्थात् नय—विवक्षा से वस्तु में अनेक स्वभाव हैं और वे परस्पर में बिल्कुल विरोधात्मक हैं, जैसे कि अस्ति–नास्ति, एक—अनेक, भेद–अभेद, नित्य—अनित्य। परन्तु स्याद्वाद इस विरोध को समूलत: दूर कर देता है; क्योंकि एक ही पदार्थ कथञ्चित् स्वचतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) की अपेक्षा अस्तिरूप है, एवं कथञ्चित् परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप भी। समुदाय की अपेक्षया एकात्मक है, एवं गुण—पर्याय अपेक्षया अनेकात्मक है। कथञ्चित् संज्ञा—संख्या—लक्षणापेक्षया भेदात्मक है एवं कथञ्चित् सत्व की अपेक्षया अभेदात्मक है। कथञ्चित् द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य भी है एवं पर्यायों की अपेक्षा अनित्य भी। इस प्रकार स्याद्वाद अनंत धर्मवाली वस्तु के लिए कभी भी ‘ही’ शब्द का प्रयोग नहीं करता, क्योंकि वस्तु के किसी एक धर्म को किसी विशेष अर्थ में ही सत्य कह सकते हैं सर्वथा नहीं। प्रत्येक वाक्य की सत्यता केवल अवस्थापज्ञ है; क्योंकि कोई वाक्य ऐसा नहीं है जो सत्य ही हो, और न कोई ऐसा ही वाक्य है जो सर्वथा असत्य ही हो, अपितु सभी वाक्य किसी एक अर्थ में सत्य हैं और दूसरे अर्थ में असत्य। वाक्य को केवल सत्य ही मान बैठना या केवल असत्य ही मानना ही झगड़े का कारण है। आज तक जो भीषण अत्याचार हुए हैं वे सब इसी एकान्त दृष्टि के प्रतिफल हैं। अगर वहाँ हम इस अनेकान्त जैसे सिद्धान्त का उपयोग करते तो कभी इतनी अशान्ति न होती।
व्यावहारिक जीवन में भी हमें अनेक ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं जिनसे यह बात सिद्ध हो जाती है कि अपेक्षाभेद के समझे बिना बहुत—सी असुविधाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। एक कहानी के माध्यम से स्याद्वाद की उपयोगिता समझी जा सकती है।
कुछ दिनों पहिले मैंने इंगलिश की एक पुस्तक में एक कहानी पढ़ी थी। उस कहानी का भाव यह है कि—यूरोप के किसी नगर में चौराहे पर एक विशाल मूर्ति खड़ी थी। मूर्ति का एक हिस्सा चाँदी का बना हुआ था और दूसरा सोने का। संयोगवश एक दिन ऐसा हुआ कि एक ही समय दोनों तरफ से दो अश्वारोही योद्धा आए। उनमें से प्रथम जो कि मूर्ति के स्वर्ण भाग की तरफ था, बोला—‘अहा, कैसी अच्छी स्वर्ण की मूर्ति है !’ पर दूसरा, जिसने कि मूर्ति के रजत भाग को देखा था, बोला कि ‘मूर्ति स्वर्ण की नहीं है, चाँदी की है।’ पर पहिला कब मानने वाला था। उसने कहा—‘अरे बेवकूफ ! यह तो स्वर्ण की है, चाँदी की नहीं’। इस प्रकार बहुत देर तक तो उनमें परस्पर वाक् युद्ध होता रहा, दोनों ही अपनी बात पर दृढ़ रहे। इसका फल यह हुआ कि बात बढ़ते—बढ़ते दोनों में मल्लयुद्ध होने की नौबत आ गई और दोनों बहुत देर तक लड़ लेने के पश्चात् अन्त में बेहोश होकर गिर पड़े। भाग्यवश उधर से एक कोई अच्छा चिकित्सक आ निकला, जिसने उन दोनों मूर्च्छितों को देखकर कुछ उपचार किया, जिससे दोनों की बेहोशी दूर हुई। दोनों फिर लड़ने लगे। जब उस विवेकी वैद्य / चिकित्सक ने उन दोनों की लड़ाई का कारण समझा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह उनको इस प्रकार लड़ते हुए देखकर बोला—‘अरे भले आदमियो ! तुम मूर्ति के एकान्त ज्ञान के पीछे पड़कर अपने समय और शक्ति का दुरुपयोग कर रहे हो ?’ उसने उन दोनों के हाथ पकड़ कर उन्हें मूर्ति के दोनों हिस्सों को दिखलाया। तब दोनों को अपनी भयंकर भूल का पता लगा, अब वे अपनी भूल पर पश्चात्ताप करने लगे।
स्याद्वाद की उपयोगिता का यह कितना अच्छा उदाहरण है। संसार के विविध विरोधों का कारण केवल वस्तु का एकांश ज्ञान है। इसी से मत—असहिष्णुता पैदा होती है और उसी के फल—स्वरूप संसार में भीषण रक्तपात तक भी होने लगता है। यदि इसकी कोई अव्यर्थ औषधि हो सकती है तो वह केवल एक स्याद्वाद है। कभी किसी वस्तु पर एक दृष्टिकोण से विचार न कर, विविध दृष्टिकोणों से ही उसका विचार करना चाहिए। इसी से वस्तु के वास्तविक स्वरूप का निश्चय हो सकेगा।
वस्तुत: स्याद्वाद एक ऐसा अद्भुत और अनूठा सिद्धान्त है जिससे प्रत्येक प्रकार का धार्मिक वाद—विवाद व व्यावहारिक कलह आसानी से दूर हो सकता है। बस यही सिद्धान्त जैनधर्म का सर्वस्व है। स्याद्वाद जैन सिद्धान्त का बीज/जीव/मूल है, जैसा कि अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है—
परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम्।
सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्।।
जिस प्रकार जीव-सहित शरीर ही कार्यकारी होता है, जीव बिना मृतक शरीर किसी काम का नहीं होता, उसी प्रकार स्याद्वाद जैन सिद्धान्त का जीव है, यदि उसको हटा दिया जाय तो जैनधर्म किसी काम का नहीं रह जायेगा।
उपर्युक्त कथन से यह निश्चित हो जाता है कि स्याद्वाद सिद्धान्त सब सिद्धान्तों को अपने में समाहित/आत्मसात किये हुए हैं और जब वह इतना समर्थ है तो यह भी निश्चित ही है कि वह विश्व-शांति का भी साधन हो सकता है। यदि संसार सच्चे सुख का इच्छुक है, यदि वह शान्ति और आनन्द का अनुभव करना चाहता है तो उसे जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त रूपी परम शान्त सरोवर में डुबाfकयाँ लगानी चाहिये।