प्राचीन काल से ही प्रत्येक मांगलिक कार्य के लिए शुभ समय का विचार किया जाता रहा है क्योंकि समय का प्रभाव जड़ और चेतन सभी प्रकार के पदार्थों पर पड़ता है इसीलिए हमारे आचार्यों ने गर्भाधानादि अन्यान्य संस्कार व प्रतिष्ठा, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, यात्रा आदि सभी मांगलिक कार्यों के लिए मुहूर्त का आश्रय लेना आवश्यक बतलाया है। अतएव नीचे प्रमुख आवश्यक मुहूर्त दिये जाते हैं—
सूतिका स्नान मुहूर्त—रेवती, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिर, हस्त, स्वाति, अश्विनी और अनुराधा नक्षत्रों में रवि, मंगल और बृहस्पतिवारों में प्रसूता स्त्री को स्नान कराना शुभ है। आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, श्रवण, मघा, भरणी, विशाखा, कृत्तिका, मूल और चित्रा नक्षत्रों में, बुध और शनि वारों में एवं अष्टमी, षष्ठी, द्वादशी, चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी तिथियों में प्रसूता स्त्री को स्नान कराना वर्जित है।
विशेष—प्रत्येक शुभ कार्य में व्यतीपात योग, भद्रा, वैधृति नामक योग, क्षयतिथि, वृद्धितिथि, क्षयमास, अधिकमास, कुलिक, अर्द्धयाम, महापात, विष्कम्भ और वङ्का के आदि की तीन-तीन घटियाँ, परिघ योग का पूर्वार्द्ध, शूलयोग की पाँच घटियाँ, गण्ड और अतिगण्ड की छह–छह घटियाँ एवं व्याघात योग की नौ घटियाँ त्याज्य हैं।
स्तन—पान मुहूर्त—अश्विनी, रोहिणी, पुष्य, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तराभाद्रपद और रेवती नक्षत्रों; सोम, बुध, गुरु व शुक्र वारों में तथा शुभ लग्नों में स्तनपान कराना चाहिए।
जातकर्म और नामकर्म मुहूर्त—यदि किसी कारणवश जन्मकाल में जातकर्म नहीं किया गया हो तो अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पौर्णमासी, सूर्यसंक्रान्ति तथा चतुर्थी और नवमी छोड़ अन्य तिथियों में; सोम, बुध, गुरु और शुक्रवारों में, जन्मकाल से ग्यारहवें या बारहवें दिन में; मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्रों में जातकर्म और नामकर्म करना शुभ है। जैन मान्यता के अनुसार नामकर्म जन्मदिन से ४५ दिन तक किया जा सकता है।
दोलारोहण मुहूर्त—रेवती, मृगशिर, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद और रोहिणी नक्षत्रों में तथा सोम, बुध, गुरु और शुक्रवारों में पहले-पहल बालक को पालने में झुलाना शुभ है।
भूम्युपवेशन मुहूर्त—रोहिणी, मृगशिर, ज्येष्ठा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा व उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में; चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी को छोड़ शेष तिथियों में और सोम, बुध, गुरु व शुक्रवारों में बालक को भूमि पर बैठाना शुभ है।
बालक को बाहर निकालने का मुहूर्त—अश्विनी, मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा और रेवती नक्षत्रों में; द्वितीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी तिथियों में एवं सोम, बुध, शुक्र और रवि वारों में बालक का पहले-पहले घर से बाहर निकालना शुभ है।
चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, प्रतिपदा, षष्ठी, एकादशी, अष्टमी, अमावस्या और द्वादशी तिथि को छोड़ अन्य तिथियों में; जन्मराशि अथवा जन्मलग्न से आठवीं राशि, आठवाँ नवांश, मीन, मेष और वृश्चिक को छोड़ अन्य लग्नों में; तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिर, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित्, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्रों में, छठे मास से लेकर सम मास में अर्थात् छठे, आठवें, दसवें इत्यादि मासों में बालकों का और पाँचवें मास से लेकर विषम मासों में अर्थात् पाँचवें, सातवें, नवें इत्यादि मासों में कन्याओं का अन्नप्राशन शुभ होता है। परन्तु अन्नप्राशन शुक्लपक्ष में दोपहर के पूर्व करना चाहिए।
अन्नप्राशन के लिए लग्न शुद्धि—लग्न से पहले, तीसरे, चौथे, पाँचवें, सातवें और नौवें स्थान में शुभग्रह हों; दसवें स्थान में कोई ग्रह न हो; तृतीय, षष्ठ और एकादश स्थान में पापग्रह हों और छठे तथा आठवें स्थान को छोड़ अन्य स्थानों में चन्द्रमा स्थित हो ऐसे लग्न में अन्नप्राशन शुभ होता है।
अन्नप्राशन मुहूर्त—
नक्षत्र | रोहिणी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, पुष्य, अश्विनी, अभिजित् पुनर्वसु, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मृगशिर। |
वार | सोम, बुध, बृहस्पति, शुक्र |
तिथि | २/३/५/७/१०/१३/१५ |
लग्न | २/३/४/५/६/७/८/९/१०/११ |
लग्नशुद्धि | शुभग्रह १/३/४/५/७/९ में; पापग्रह ३/६/११ स्थानों में शुभ हैं |
चैत्र, पौष, आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक, जन्ममास, रिक्तातिथि (४/९/१४), सम वर्ष और जन्मतारा को छोड़कर जन्म से छठे, सातवें, आठवें महीने में अथवा बारहवें या सोलहवें दिन, सोमवार, बुध, गुरु, शुक्र में और श्रवण, धनिष्ठा, पुनर्वसु, मृगशिर, रेवती, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित् नक्षत्रों में बालक का कर्णवेध शुभ होता है।
कर्णवेध मुहूर्त चक्र—
नक्षत्र | श्रवण, धनिष्ठा, पुनर्वसु, मृगशिर, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित् |
वार | सोम, बुध, गुरु, शुक्र |
तिथि | १/२/३/५/६/७/१०/११/१२/१३/१५ |
लग्न | २/३/४/६/७/९/१२ |
लग्नशुद्धि | शुभग्रह १/३/४/५/७/९/१०/११ स्थानों में, पापग्रह ३/६/११ स्थानों में शुभ होते हैं। अष्टम में कोई ग्रह न हो। यदि गुरु लग्न में हो तो विशेष उत्तम होता है। |
जन्म से तीसरे, पाँचवें, सातवें इत्यादि विषम वर्षों में; अष्टमी, द्वादशी, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी, प्रतिपदा, षष्ठी, अमावस्या, पूर्णमासी और सूर्य-संक्रान्ति को छोड़ अन्य तिथियों में; चैत्र महीने को छोड़ उत्तरायण में; सोम, बुध, शुक्र और बृहस्पतिवारों में; शुभ ग्रहों के लग्न अथवा नवांश में; जिसका मुण्डन कराना हो उसके जन्मलग्न अथवा जन्मराशि से आठवीं राशि को छोड़कर अन्य लग्न व राशि में, लग्न से आठवें स्थान में शुक्र को छोड़ अन्य ग्रहों के न रहते; ज्येष्ठा, मृगशिर, रेवती, चित्रा, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, हस्त, अश्विनी और पुष्य नक्षत्र में; लग्न में तृतीय एकादश और षष्ठ स्थान में पापग्रहों के रहते मुण्डन कराना शुभ है।
नक्षत्र | ज्येष्ठा, मृगशिर, रेवती, चित्रा, हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित् , स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा शतभिषा। |
वार | सोम, बुध, बृहस्पति, शुक्र |
तिथि | २/३/५/७/१०/११/१३ |
लग्न | २/३/४/६/९/१२ |
लग्नशुद्धि | शुभग्रह १/२/४/५/७/९/१० स्थानों में शुभ होते हैं। पाप ग्रह ३/६/११ में शुभ हैं। अष्टम में कोई ग्रह न हो। |
जन्म से पाँचवे वर्ष में; एकादशी, द्वादशी, दशमी, द्वितीया, षष्ठी, पंचमी और तृतीया तिथि में; उत्तरायण में; हस्त, अश्विनी, पुष्य, श्रवण, स्वाति, रेवती, पुनर्वसु, आर्द्रा, चित्रा और अनुराधा नक्षत्र में; मेष, मकर, तुला और कर्क को छोड़ अन्य लग्न में बालक को अक्षरारम्भ कराना शुभ है।
नक्षत्र | हस्त, अश्विनी, पुष्य, श्रवण, स्वाति, रेवती, पुनर्वसु, चित्रा, अनुराधा |
वार | सोम, बुध, शुक्र, शनि |
लग्न | २/३/६/१२ लग्नों में परन्तु अष्टम में कोई ग्रह न हो। |
मृगशिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, अश्विनी, मूल, तीनों पूर्वा (पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाफाल्गुनी), पुष्य, आश्लेषा नक्षत्रों में; रवि, गुरु, शुक्र इन वारों में; षष्ठी, पंचमी, तृतीया, एकादशी, द्वादशी, दशमी, द्वितीया इन तिथियों में और लग्न से नौवें, पाँचवें, पहले, चौथे, सातवें, दसवें स्थान में शुभग्रहों के रहने पर विद्यारम्भ करना शुभ है। किसी-किसी आचार्य के मत से तीनों उत्तरा, रेवती और अनुराधा में भी विद्यारम्भ करना शुभ कहा गया है।
उत्तराषाढ़ा, स्वाति, श्रवण, तीनों पूर्वा, अनुराधा, धनिष्ठा, कृत्तिका, रोहिणी, रेवती, मूल, मृगशिरा, मघा, हस्त, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में वाग्दान करना शुभ है।
विवाह मुहूर्त—मूल, अनुराधा, मृगशिर, रेवती, हस्त, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, स्वाति, मघा, रोहिणी इन नक्षत्रों में और ज्येष्ठ, माघ, फाल्गुन, वैशाख, मार्गशीर्ष, आषाढ़ इन महीनों में विवाह करना शुभ है। विवाह में कन्या के लिए गुरुबल, वर के लिए सूर्यबल और दोनों के लिए चन्द्रबल का विचार करना चाहिए।
प्रत्येक पचांग में विवाह के मुहूर्त लिखे रहते हैं। इनमें शुभसूचक खड़ी रेखाएँ और अशुभसूचक टेढ़ी रेखाएँ होती हैं। ज्योतिष में दस दोष बताये गये हैं, जिस विवाह के मुहूर्त में जितने दोष नहीं होते हैं उतनी ही खड़ी रेखाएँ होती हैं और दोषसूचक टेढ़ी रेखाएँ मानी जाती हैं। सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त दस रेखाओं का होता है, मध्यम सात-आठ रेखाओं का और जघन्य पाँच रेखाओं का होता है। इससे कम रेखाओं के मुहूर्त को निन्द्य कहते हैं।
विवाह के गुरुबल विचार—बृहस्पति कन्या की राशि से नवम, पंचम, एकादश, द्वितीय और सप्तम राशि में शुभ; दशम, तृतीय, षष्ठ और प्रथम राशि में दान देने से शुभ और चतुर्थ, अष्टम, द्वादश राशि में अशुभ होता है।
विवाह के सूर्यबल विचार—सूर्य वर की राशि से तृतीय, षष्ठ, दशम, एकादश राशि में शुभ; प्रथम, द्वितीय, पंचम, सप्तम, नवम राशि में दान देने से शुभ और चतुर्थ, अष्टम, द्वादश राशि में अशुभ होता है।
विवाह में चन्द्रबल विचार—चन्द्रमा वर और कन्या की राशि में तीसरा, छठा, सातवाँ दसवाँ, ग्यारहवाँ शुभ; पहला, दूसरा, पाँचवाँ, नौवाँ दान देने से शुभ और चौथा, आठवाँ, बारहवाँ अशुभ होता है।
विवाह में अन्धादि लग्न व उनका फल—दिन में तुला और वृश्चिक; राशि में तुला और मकर बधिर हैं तथा दिन में िंसह, मेष, वृष और रात्रि में कन्या, मिथुन, कर्क अन्धसंज्ञक हैं। दिन में कुम्भ और रात्रि में मीन लग्न पंगु होते हैं। किसी-किसी आचार्य के मत से धनु, तुला, वृश्चिक ये अपराह्न में बधिर हैं; मिथुन, कर्क, कन्या ये लग्न रात्रि में अन्धे हैं; िंसह, मेष, वृष ये लग्न दिन में अंधे हैं और मकर, कुम्भ, मीन ये लग्न प्रात:काल तथा सायंकाल में कुबड़े होते हैं। यदि विवाह बधिर लग्न में हो तो वर-कन्या दरिद्र; दिवान्ध लग्न में हो तो कन्या विधवा; रात्रान्ध लग्न में हो तो सन्तति मरण; पंगु में हो तो धन-नाश होता है।
विवाह के शुभ लग्न—तुला, मिथुन, कन्या, वृष व धनु लग्न शुभ हैं, अन्य मध्यम हैं।
लग्न शुद्धि—लग्न से बारहवें शनि, दसवें मंगल, तीसरे शुक्र, लग्न में चन्द्रमा और क्रूर ग्रह अच्छे नहीं होते। लग्नेश, शुक्र, चन्द्रमा छठे और आठवें में शुभ नहीं होते। लग्नेश और सौम्य ग्रह आठवें में अच्छे नहीं होते हैं और सातवें में कोई भी ग्रह शुभ नहीं होता है।
प्रथम, चौथे, पाँचवें, नौवें और दसवें स्थान में स्थित बृहस्पति सब दोषों को नष्ट करता है। सूर्य ग्यारहवें स्थान में स्थित तथा चन्द्रमा वर्गोत्तम लग्न में स्थित नवांश दोषों को नष्ट करता है। बुध लग्न, चौथे, पाँचवे, नौवें और दसवें स्थान में हो तो सौ दोषों को दूर करता है। यदि शुक्र इन्हीं स्थानों में हो तो दो सौ दोषों को दूर करता है। यदि इन्हीं स्थानों में बृहस्पति स्थित हो तो एक लाख दोषों को दूर करता है। लग्न का स्वामी अथवा नवांश का स्वामी यदि लग्न, चौथे, दसवें, ग्यारहवें स्थान में स्थित हो तो अनेक दोषों को शीघ्र ही भस्म कर देता है।
विवाह के दिन में १६ दिन के भीतर नव, सात, पाँच दिन में वधू प्रवेश शुभ है। यदि किसी कारण से १६ दिन के भीतर वधू प्रवेश न हो तो विषम मास, विषय दिन और विषम वर्ष में वधू प्रवेश करना चाहिए।
तीनों उत्तरा (उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा), रोहिणी, अश्विनी, पुष्य, हस्त, चित्रा, अनुराधा, रेवती, मृगशिर, श्रवण, धनिष्ठा, मूल, मघा और स्वाति नक्षत्र में; रिक्ता (४/९/१४) को छोड़ शुभ तिथियों में और रवि, मंगल, बुध छोड़ शेष वारों में वधूप्रवेश करना शुभ है।
विषम (१/३/५/७) वर्षों में; कुम्भ, वृश्चिक, मेष राशियों के सूर्य में; गुरु, शुक्र, चन्द्र इन वारों में; मिथुन, मीन, कन्या, तुला, वृष इन लग्नों में और अश्विनी, पुष्य, हस्त, उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, स्वाति, मूल, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा इन नक्षत्रों में द्विरागमन शुभ है। द्विरागमन में सम्मुख शुक्र त्याज्य है। रेवती नक्षत्र के आदि से मृगशिरा के अन्त तक चन्द्रमा के रहने से शुक्र अन्ध माना जताा है। इन दिनों में द्विरागमन होने से दोष नहीं होता। शुक्र का दक्षिण भाग में रहना भी अशुभ है।
द्विरागमन मुहूर्त चक्र
समय | १/३/५/७/९ विवाह के बाद इन वर्षों में कुम्भ, वृश्चिक, मेष के सूर्य में |
नक्षत्र | अश्विनी, पुष्य, हस्त, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, स्वाति, मूल, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा |
वार और तिथि | बुध, बृहस्पति, शुक्र, सोम, १/२/३/५/७/१०/११/१२/१३/१५ तिथियों में |
लग्न और | २/३/६/७/१२ लग्नों में; लग्न से १/२/३/५/७/१०/११ स्थानों में शुभग्रह और ३/६/११ में पापग्रह |
उनकी शुद्धि | शुभ होते हैं। |
अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा, पुष्य, रेवती, हस्त, श्रवण और धनिष्ठा ये नक्षत्र यात्रा के लिए उत्तम; रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, ज्येष्ठा, मूल और शतभिषा ये नक्षत्र मध्यम एवं भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, चित्रा, स्वाति और विशाखा ये नक्षत्र निन्द्य हैं। तिथियों में द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी शुभ बतायी गई हैं। यात्रा के लिए वारशूल, नक्षत्रशूल, दिक्शूल, चन्द्रवास और राशि से चन्द्रमा का विचार करना आवश्यक है। कहा भी गया है :
‘‘दिशाशूल ले आओ वामें, राहु योगिनी पीठ
सम्मुख लेवे चन्द्रमा, लावे लक्ष्मी लूट’’
यात्रा मुहूर्त चक्र
नक्षत्र | अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा, पुष्य, रेवती, हस्त, श्रवण, धनिष्ठा उत्तम हैं। रोहिणी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा मध्यम हैं। भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, चित्रा, स्वाति, विशाखा निन्द्य हैं। |
तिथि | २ / ३ / ५ / ७ / १० / ११ / १३ |
ज्येष्ठा नक्षत्र, सोमवार तथा शनिवार को पूर्व; पूर्वाभाद्रपद और गुरुवार को दक्षिण; शुक्रवार और रोहिणी नक्षत्र को पश्चिम और मंगल तथा बुधवार को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उत्तर दिशा को नहीं जाना चाहिए। यात्रा में चन्द्रमा का विचार अवश्य करना चाहिए। दिशाओं में चन्द्रमा का वास निम्न प्रकार से जाना जाता है।
चन्द्रमा विचार—मेष, सिंह और धनु राशि का चन्द्रमा पूर्व दिशा में; वृष, कन्या और मकर राशि का चन्द्रमा दक्षिण दिशा में; तुला, मिथुन व कुम्भ राशि का चन्द्रमा पश्चिम दिशा में; कर्क, वृश्चिक और मीन राशि का चन्द्रमा उत्तर दिशा में वास करता है।
चन्द्रफल—सम्मुख चन्द्रमा धन लाभ करने वाला, दक्षिण चन्द्रमा सुख-सम्पत्ति देने वाला, पृष्ठ चन्द्रमा शोक-सन्ताप देने वाला और वाम चन्द्रमा धननाश करने वाला होता है।
चन्द्रवास | चक्र | समयशूल | चक्र | दिक् | त्रिशूल | चक्र | |
पूर्व | पश्चिम | दक्षिण | उत्तर | पूर्व | प्रात:काल | पूर्व | चन्द्र, शनि |
मेष | मिथुन | वृष | कर्क | पश्चिम | सायंकाल | दक्षिण | गुरु |
सिंह | तुला | कन्या | वृश्चिक | दक्षिण | मध्याह्नकाल | पश्चिम | सूर्य, शुक्र |
धनु | कुम्भ | मकर | मीन | उत्तर | अर्धरात्रि | उत्तर | मंगल, बुध |
दिशा | पूर्व | आग्नेय | दक्षिण | नैऋत्य | पश्चिम | वायव्य | उत्तर | ईशान |
तिथि | ९/१ | ३/११ | १३/५ | १२/४ | १४/६ | १५/७ | १०/२ | ३०/८ |
मृगशिर, पुष्य, अनुराधा, धनिष्ठा, शतभिषा, चित्रा, हस्त, स्वाति, रोहिणी, रेवती, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में; चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र, शनि वारों में और द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, त्रयोदशी, पूर्णिमा तिथियों में गृहारम्भ श्रेष्ठ होता है।
गृहारम्भ मुहूर्त चक्र
नक्षत्र | मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा, शतभिषा, चित्रा, हस्त, स्वाति, रोहिणी, रेवती |
वार | चन्द्र, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि |
तिथि | २/३/५/७/१०/११/१३/१५ |
मास | वैशाख, श्रावण, माघ, पौष, फाल्गुन |
लग्न | २/३/५/६/८/९/११/१२ |
लग्नशुद्धि | शुभग्रह लग्न में १/४/७/१०/५/९ स्थानों में एवं पापग्रह ३/६/११ स्थानों में शुभ होते हैं। ८/१२ स्थान में कोई ग्रह नहीं होना चाहिए। |
देवालय, जलाशय और घर बनाते समय नींव खोदने के लिए दिशा का विचार करना आवश्यक होता है। देवालय की नींव खुदवाने के समय मीन, मेष और वृष का सूर्य हो तो राहु का मुख ईशानकोण में; मिथुन, कर्क और िंसह में सूर्य हो तो राहु का मुख वायव्यकोण में; कन्या, तुला और वृश्चिक में सूर्य हो तो नैऋत्यकोण में एवं धनु, मकर और कुम्भ में सूर्य हो तो आग्नेयकोण में राहु का मुख रहता है। गृह बनवाना हो तो िंसह, कन्या और तुला के सूर्य में राहु का मुख ईशान-कोण में; वृश्चिक, धनु और मकर के सूर्य में राहु का मुख वायव्यकोण में; कुम्भ, मीन और मेष राशि के सूर्य में राहु का मुख नैऋत्यकोण में एवं वृष, मिथुन और कर्क राशि के सूर्य में राहु का मुख आग्नेयकोण में रहता है। जलाशय-कुआँ, तालाब खुदवाने के समय मकर, कुम्भ और मीन राशि के सूर्य में राहु का मुख ईशानकोण में; मेष, वृष और मिथुन के सूर्य में राहु का मुख वायव्यकोण में; कर्क, िंसह और कन्या के सूर्य में राहु का मुख नैर्ऋत्यकोण में एवं तुला, वृश्चिक और धनु के सूर्य में राहु का मुख आग्नेयकोण में रहता है। नींव या जलाशय आदि खोदते समय मुख भाग को छोड़कर पृष्ठ भाग से खोदना शुभ होता है।
राहु | ईशान | वायव्य | नैऋत्य | आग्नेय | शुभ |
(पूर्व-उत्तर) | (उत्तर-पश्चिम) | (दक्षिण-पश्चिम) | (पूर्व-दक्षिण) | ||
देवालया | मीन, मेष, | मिथुन, कर्क, | कन्या, तुला, | धनु, मकर, | सूर्य स्थिति |
रम्भ | वृष | सिंह | वृश्चिक | कुम्भ | |
गृहारम्भ | सिंह, कन्या | वृश्चिक, धनु | कुम्भ, मीन, | वृष,मिथुन, | सूर्य स्थिति |
तुला | मकर | मेष | कर्क | ||
जलाशया | मकर, कुम्भ, | मेष, वृष, | कर्क, सिंह, | तुला, वृश्चिक, | सूर्य स्थिति |
रम्भ | मीन | मिथुन | कन्या | धनु | |
आग्नेय | ईशान | वायव्य | नैर्ऋत्य | ||
(पूर्व और | (पूर्व और | (उत्तर और | (दक्षिण और | ||
राहु | दक्षिण का | उत्तर का | पश्चिम का | पश्चिम का | पृष्ठ |
मध्य) | मध्य) | मध्य) | मध्य) |
गृह निर्माण करते समय शुभाशुभत्व अवगत करने के लिए बैल के आकार का चक्र बनाना चाहिए। सूर्य के नक्षत्र से तीन नक्षत्र उस चक्र के सिर में स्थापित करे। यदि उन तीन नक्षत्रों में घर का आरम्भ किया जाये तो घर में आग लगती है। उनसे आगे के चार नक्षत्र उस चक्र के अगले पैरों पर स्थापित करे। इन नक्षत्रों में घर का आरम्भ होने पर घर में शून्यता रहती है। उनसे आगे के चार नक्षत्र पिछले पैरों पर स्थापित करे। इन नक्षत्रों में गृहारम्भ होने से घर बहुत दिनों तक स्थिर रहता है। उनसे आगे के तीन नक्षत्र पीठ पर स्थापित करे। इन नक्षत्रों में गृहारम्भ करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इससे आगे के चार नक्षत्र दक्षिण कुक्षि में स्थापित करे। इन नक्षत्रों में गृह बनाने से दरिद्रता रहती है। आगे के तीन नक्षत्र मुख में स्थापित करे। इन नक्षत्रों में घर बनवाने से सर्वदा रोग, पीड़ा और भय व्याप्त रहता है।
वृषभ के अंग | सिर | अग्रपाद | पृष्ठपाद | पृष्ठ | दक्षिणकुक्षि | पुच्छ | वामकुक्षि मुख |
नक्षत्र | 3 | 4 | 4 | 3 | 4 | 3 | 4 3 |
फल | दाह | शून्य | स्थिरता | लक्ष्मी | लाभ | स्वामी नाश | दारिद्र्य सर्वदा पीड़ा |
गृहारम्भ विचार—घर बनाने का आरम्भ करने के लिए सूर्य के नक्षत्र से सात नक्षत्र अशुभ, आगे के ग्यारह शुभ और इससे आगे के दस नक्षत्र अशुभ माने गये हैं। इस गणना में अभिजित् भी सम्मिलित है।
सूर्य नक्षत्र से | ७ | ११ | १० |
फल | अशुभ | शुभ | अशुभ |
घर के लिए दरवाजे का विचार—कुम्भ राशि के सूर्य के रहते फाल्गुन महीने में; कर्क और िंसह राशि के सूर्य के रहते श्रावण महीने तथा मकर राशि में सूर्य के रहते पौष महीने में घर बनवाएँ तो उस घर का दरवाजा पूर्व या पश्चिम दिशा में शुभ होता है। मेष व वृष राशि में सूर्य के रहते वैशाख महीने में तथा तुला व वृश्चिक राशि में सूर्य रहते अगहन (मगशिर) महीने में घर बनवायें तो उसका दरवाजा उत्तर या दक्षिण दिशा में शुभ होता है।
पूर्णमासी से लेकर कृष्णाष्टमी पर्यन्त पूर्व दिशा में, कृष्ण पक्ष की नवमी से लेकर चतुर्दशी पर्यंत उत्तर दिशा में, अमावस्या से लेकर शुक्लाष्टमी पर्यंत पश्चिम दिशा में और शुक्लपक्ष की नवमी से शुक्लपक्ष की चतुर्दशी पर्यंत दक्षिण दिशा में बनाया हुआ घर का द्वार शुभ नहीं होता। द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी और द्वादशी में बनाया हुआ द्वार शुभ होता है। दरवाजे का निर्माण शुक्लपक्ष में करने से शुभफल और कृष्णपक्ष में करने से अनिष्टफल होता है। कृष्णपक्ष में द्वार का निर्माण करने से चोरी होने की आशंका सर्वदा बनी रहती है।
जिस नक्षत्र में सूर्य स्थित हो उससे चार नक्षत्र सिर-उत्तमांग में स्थापित करे। इन नक्षत्रों में घर का दरवाजा लगाया जाए तो लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। इसके पश्चात् आगे के आठ नक्षत्र चारों कोनों में स्थापित करना चाहिए। इन नक्षत्रों में दरवाजा लगाने से घर उजाड़ हो जाता है। इसके पश्चात् आगे के आठ नक्षत्र शाखा-बाजुओं में स्थापित करना चाहिए। इन नक्षत्रों में घर का दरवाजा लगाने से सुख, सम्पत्ति और वैभव की प्राप्ति होती है। इसके आगे के तीन नक्षत्र देहली में और उससे आगे के चार नक्षत्र मध्य में स्थापित करने चाहिए। देहली वाले नक्षत्रों में दरवाजा लगाने से स्वामी का मरण और मध्य वाले नक्षत्रों में दरवाजा लगाने से सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।
सिर | कोण | बाजू | देहली | मध्य |
4 | 8 | 8 | 3 | 4 |
लक्ष्मी | उजाड़ | सौख्य | स्वामिमरण | सुख-सम्पत्ति |
गृहारम्भ में निषिद्धकाल—गृहारम्भकाल में यदि सूर्य निर्बल, अस्त या नीच स्थान में हो तो घर के स्वामी का मरण; यदि चन्द्रमा अस्त या नीच स्थान में हो अथवा निर्बल हो तो उसकी स्त्री का मरण होता है। यदि बृहस्पति निर्बल, अस्त या नीच स्थान में हो तो सुख का नाश; यदि शुक्र निर्बल, अस्त या नीच स्थान में हो तो धन का नाश होता है। गृहारम्भकाल में चन्द्रमा का नक्षत्र या वास्तु का नक्षत्र घर के आगे पड़ता हो तो उस घर में स्वामी की स्थिति नहीं होती और पीछे पड़ता हो तो उस घर में चोरी होती है। जिस नक्षत्र में चन्द्रमा स्थित हो, वह चन्द्र नक्षत्र कहलाता है।
गृह की आयु—जिस गृह के निर्माण के समय बृहस्पति लग्न में, सूर्य छठे स्थान में, बुध सातवें स्थान में, शुक्र चतुर्थ स्थान में और शनि तीसरे स्थान में स्थित हो तो उस घर की आयु सौ वर्ष की होती है। जिस घर के आरम्भ में शुक्र लग्न में, सूर्य तीसरे स्थान में, मंगल छठे स्थान में और बृहस्पति पाँचवें स्थान में स्थित हो तो उसकी आयु दो सौ वर्ष होती है। जिसके आरम्भकाल में शुक्र लग्न में, बुध दशम में, सूर्य एकादश में और बृहस्पति केन्द्र में हो उस घर की आयु एक सौ पच्चीस वर्ष होती है। उच्चराशि का गुरु केन्द्र में स्थित हो और अन्य ग्रह पूर्ववत् स्थित हों तो तीन सौ वर्ष की आयु होती है। गुरु, शुक्र, चन्द्रमा और बुध उच्चराशि के होकर चतुर्थभाव में शुभ ग्रहों से दृष्ट हों तो घर की आयु दो सौ वर्ष से अधिक होती है। शुक्र मूलत्रिकोण या उच्चराशि का होकर चतुर्थ भाव में अवस्थित हो तो गृहस्वामी सुखी और सन्तुष्ट रहता है तथा घर सौ वर्षों से अधिक काल तक सुदृढ़ बना रहता है। जिस घर के आरम्भ में बृहस्पति चतुर्थ स्थान में, चन्द्रमा दसवें स्थान में और मंगल—शनि एकादश स्थान में स्थित हों तो उस घर की आयु अस्सी वर्ष की होती है।
जिस गृह के आरम्भ में कोई भी ग्रह शत्रु के नवांश में स्थित होकर लग्न, सप्तम या दशम में स्थित हो तो वह घर एक—दो वर्षों में ही दूसरे के हाथ में बेच दिया जाता है।
पिण्डसाधन तथा आय—वार—आयु आदि विचार—गृहपति के हाथ प्रमाण घर की लम्बाई और चौड़ाई को गुणा कर गृहपिण्ड निकाल लेना चाहिए। इस पिण्ड को नौ स्थानों में स्थापित कर क्रमश: १, २, ६, ८, ३, ८, ८ और ८ से गुणा कर गुणनफल में ८, ७, ९, १२, ८, २७, १५, २७ और १२० का भाग देने पर शेष क्रमश: आय, वार, अंश, द्रव्य, ऋण, नक्षत्र, तिथि, योग और आयु होते हैं। यदि बहुत ऋण और अल्प द्रव्य हो तो गृह अशुभ होता है। गृह की आयु भी उक्त क्रमानुसार जानी जा सकती है।
इस चक्र द्वारा आय, वार, अंश, धन (द्रव्य), ऋण, नक्षत्र, तिथि, योग और आयु निकालने का उद्देश्य यह है कि विषम आय वाला गृह शुभ और सम आय वाला दुख देने वाला होता है। सूर्य और मंगल के वार, राशि अंशवाले घर में अग्नि का भय रहता है। अत: ये त्याज्य और अन्य ग्रहों के वार, राशि और अंश ग्रहण करने योग्य हैं। इसी प्रकार अधिक धन और न्यून ऋणवाला घर शुभ तथा न्यून धन (द्रव्य) और अधिक ऋणवाला घर अशुभ होता है। नक्षत्र जानने का प्रयोजन यह है कि मकान के नक्षत्र से गृहारम्भ के दिन नक्षत्र तक तथा स्वामी के नक्षत्र तक जिनकी जितनी संख्या हो, उसमें नौ का भाग देने से यदि १/३/५/७ शेष रहें तो मकान अशुभ और यदि २/४/६/८/० शेष रहे तो मकान शुभ होता है। तिथि का प्रयोजन शुभाशुभत्व की जानकारी प्राप्त करना है। यदि चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी और अमावस्या इनमें से कोई तिथि आती हो तो गृह अशुभ होता है। शेष तिथियों के आने पर घर को शुभ समझा जाता है। योग के सम्बन्ध में भी यह ध्यान रखना चाहिए कि अतिगण्ड, शूल, विष्कम्भ, गण्ड, व्याघात, वङ्का, व्यतीपात और वैधृति नितान्त अशुभ हैं। शेष योग प्राय: शुभ हैं। आयु का तात्पर्य स्पष्ट है कि अधिक दिन रहने वाला मकान शुभ और कम दिन रहने वाला अशुभ होता है।
स्वामी के नक्षत्र से विचार करने का अभिप्राय यह है कि स्वामी तथा घर का यदि एक ही नक्षत्र हो तो मृत्यु होती है, परन्तु यदि राशि एक न हो तो यह दोष नहीं आता है। यहाँ नाड़ी वेध को दोषकारक नहीं माना गया है।
इस संदर्भ में राशि ज्ञात करने की विधि यह है कि अश्विनी, भरणी और कृत्तिका नक्षत्र की मेष राशि; मघा, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी की िंसह राशि तथा मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा की धनु राशि होती है और शेष नक्षत्रों में उचित क्रम से नौ राशियों की अवस्था अवगम कर लेनी चाहिए।
आय, वार, नक्षत्र, तिथि और योग में क्रमश: ध्वज, धूम, िंसह, श्वान, गाय, गर्दभ, हस्ति और काक; रवि, सोम, भौम, बुध, गुरु, शुक्र और शनि; अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा और रेवती; प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा—अमावस्या एवं विषकम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, धु्रव, व्याघात, हर्षण, वङ्का, सिद्धि, व्यतीपात, वरीयान् , परिध, शिव, सिद्धि, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृति अवगत करना चाहिए। पिण्ड द्वारा घर का शुभाशुभत्व पूर्णतया जाना जा सकता है।
शनिवार, स्वाती नक्षत्र, िंसहलग्न, शुक्लपक्ष, सप्तमी तिथि, शुभयोग और श्रावण मास में गृहनिर्माण करने से हाथी, घोड़ा, धन-सम्पत्ति की प्राप्ति के साथ पुत्र-पौत्र आदि की वृद्धि होती है। उक्त योग सप्तसकार योग कहलाता है। इसमें गृह निर्माण करने का उत्तम फल बताया गया है। गृह-निर्माण प्राय: शुक्लपक्ष में श्रेष्ठ होता है, कृष्णपक्ष में गृह-निर्माण करने से चोरी का भय रहता है। श्रावण, वैशाख और मगशिर के महीने गृह निर्माण के लिए उत्तम माने गये हैं।
शल्य शोधन—गृह निर्माण की भूमि को शुद्ध कर लेना आवश्यक है अत: सर्वप्रथम उस भूमि—गृह निर्माण वाली भूमि से शल्य—हड्डी को निकालकर बाहर कर देना चाहिए। शल्य अवगत करने की विधि ज्योतिष शास्त्र में कई प्रकार से बतलायी गयी है। गृह निर्माण करने वाला व्यक्ति जब सामने आए और प्रश्न करे तो उसके प्रश्नाक्षरों की संख्या को दूना कर लेना चाहिए। मात्राओं को चार से गुणा कर पूर्वोक्त गुणनफल में जोड़ देना चाहिए। इस योगफल में नौ का भाग देने से विषम—१/३/५/७ शेष रहे तो शल्य—हड्डी भूमि में रहती है और सम—२/४/६/८ शेष रहे तो भूमि नि:शल्य—अस्थिरहित होती है। प्रश्नाक्षरों के लिए पुष्प, देव, नदी एवं फल का नाम पूछना चाहिए।
शल्य का अस्तित्व रहने पर यदि प्रश्नाक्षरों में पहला अक्षर व हो तो शल्य पूर्व भाग में होता है। पूर्व भाग में भी नौवाँ भाग समझना चाहिए। इस भूमि में डेढ़ हाथ खोदने से मनुष्य की अस्थि प्राप्त होती है। कवर्ग के अन्तर रहने से अग्निकोण में दो हाथ नीचे गधे की अस्थि निकलती है। चवर्ग के अक्षर रहने पर दक्षिण में कमर भर भूमि खोदने पर मनुष्य का शल्य रहता है। तवर्ग के प्रश्नाक्षर होने से नैर्ऋत्य कोण में कुत्ते का शल्य डेढ़ हाथ नीचे निकलता है। स्वर वर्ण प्रश्नाक्षर होने पर पश्चिम भाग में डेढ़ हाथ नीचे बच्चे की अस्थि निकलती है। ह प्रश्नाक्षर रहने पर वायव्य कोण में चार हाथ नीचे खोदने पर केश, कपाल, अस्थि, रोम आदि पदार्थ मिलते हैं। श प्रश्नाक्षर होने से उत्तर में एक हाथ नीचे खोदने से ब्राह्मण का शल्य उपलब्ध होता है। पवर्ग के प्रश्नाक्षर होने से ईशान कोण में डेढ़ हाथ नीचे खोदने पर गाय की अस्थियाँ मिलती हैं। य प्रश्नाक्षर होने पर मध्य भाग में छाती भर जमीन खोदने पर भस्म, लोहा, कपास आदि पदार्थ मिलते हैं। मतान्तर से ह य प वर्ण प्रश्नाक्षर होने से मध्य भाग में शल्य उपलब्ध होता है।
शल्योद्धार के सम्बन्ध में विशेष जानकारी अहिबलचक्र के द्वारा प्राप्त करनी चाहिए। भूमि की श्रेष्ठता अवगत करने के लिए सन्ध्या समय एक हाथ लम्बा, चौड़ा और गहरा गड्ढा खोदकर जल से भर देना चाहिए। प्रात:काल उस गड्ढे में जल शेष रह जाय तो शुभ, निर्जल चौकोर भूमि दिखाई पड़े तो मध्यम और निर्जल फटा हुआ गड्ढा मिले तो जमीन को अशुभ समझना चाहिए। इस विधि को देश-काल के अनुसार ही प्रयोग में लाना श्रेयस्कर होता है।
नूतन गृहप्रवेश मुहूर्त—उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती नक्षत्रों में, चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र, शनि वारों में और द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथियों में गृहप्रवेश करना शुभ है।
नक्षत्र | उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती |
वार | चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र, शनि |
तिथि | २/३/५/६/७/१०/११/१२/१३ |
लग्न | २/५/८/११ उत्तम हैं। ३/६/९/१२ मध्यम हैं। |
लग्नशुद्धि | लग्न से १/२/३/५/७/९/१०/११ स्थानों में शुभग्रह शुभ होते हैं। ३/६/११ स्थानों में पापग्रह शुभ होते हैं। ४/८ स्थानों में कोई ग्रह नहीं होना चाहिए। |
जीर्ण गृहप्रवेश मुहूर्त—शतभिषा, पुष्य, स्वाति, धनिष्ठा, चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा, रेवती, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, नक्षत्रों में; चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र, शनि वारों में और द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथियों में जीर्ण गृहप्रवेश करना शुभ है।
नक्षत्र | शतभिषा, पुष्य, स्वाति, धनिष्ठा, चित्रा, अनुराधा, मृगशिर, रेवती, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, रोहिणी। |
वार | चन्द्र, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि |
तिथि | २/३/५/६/७/१०/११/१२/१३ |
मास | कार्तिक, मार्गशीर्ष, श्रावण, माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ |
अश्विनी, पुष्य, हस्त, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, स्वाति, अनुराधा, मघा नक्षत्रों में; रिक्त (४/९/१४), अष्टमी, पूर्णमासी, अमावस्या तिथियों को छोड़कर अन्य तिथियों में और रवि, मंगल, शनि वारों को छोड़ शेष वारों में शान्तिक और पौष्टिक कार्य करना शुभ है।
नक्षत्र | अश्विनी, पुष्य, हस्त, उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा पुनर्वसु, स्वाति, अनुराधा, मघा। |
वार | चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र |
तिथि | २/३/५/७/१०/११/१२/१३ |
हस्त, अनुराधा, रेवती, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, धनिष्ठा, शतभिषा, मघा, रोहिणी, पुष्य, मृगशिरा, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रों में; बुध, गुरु, शुक्र, वारों में और रिक्ता (४/९/१४) छोड़ सभी तिथियों में शुभ होता है।
नक्षत्र | हस्त, अनुराधा, रेवती, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, धनिष्ठा, शतभिषा, मघा, रोहिणी, पुष्य मृगशिरा, पूर्वाषाढ़ा |
वार | बुध, गुरु, शुक्र |
तिथि | २/३/५/७/१०/११/१२/१३/१५ |
रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, हस्त, पुष्य, चित्रा, रेवती, अनुराधा, मृगशिरा, अश्विनी, नक्षत्रों में तथा शुक्र, बुध, गुरु, सोम वारों में व रिक्ता (४/९/१४), अमावस्या को छोड़ शेष तिथियों में दुकान करना शुभ है।
नक्षत्र | रोहिणी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, पुष्य, चित्रा, रेवती, अनुराधा, मृगशिरा, अश्विनी |
वार | शुक्र, गुरु, बुध, सोम |
तिथि | २/३/५/७/१०/११/१२/१३ |
हस्त, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, चित्रा नक्षत्रों में; शुक्र, बुध, गुरु वारों में और द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, एकादशी, त्रयोदशी तिथियों में बड़े-बड़े व्यापार सम्बन्धी कारोबार करना शुभ है।
नक्षत्र | हस्त, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, चित्रा |
वार | बुध, गुरु, शुक्र |
तिथि | २/३/५/७/११/१३ |
राजा से मिलने का मुहूर्त—श्रवण, घनिष्ठा, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, रोहिणी, रेवती, अश्विनी, चित्रा, स्वाति नक्षत्रों में और रवि, सोम, बुध, गुरु, शुक्रवारों में राजा से मिलना शुभ है।
बगीचा लगाने का मुहूर्त—शतभिषा, विशाखा, मूल, रेवती, चित्रा, अनुराधा, मृगशिरा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, हस्त, अश्विनी, पुष्य नक्षत्रों में तथा शुक्र, सोम, बुध, गुरु वारों में बगीचा लगाना शुभ है।
४.२२.४ रोगमुक्त होने पर स्नान करने का मुहूर्त—उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, आश्लेषा, पुनर्वसु, स्वाति, मघा, रेवती नक्षत्रों को छोड़ शेष नक्षत्रों में; रवि, मंगल, गुरु वारों में और रिक्तादि तिथियों में रोगी को स्नान कराना शुभ है।
नौकरी करने का मुहूर्त—हस्त, चित्रा, अनुराधा, रेवती, अश्विनी, मृगशिरा, पुष्य नक्षत्रों में; बुध, गुरु, शुक्र, रवि वारों में और शुभ तिथियों में नौकरी शुभ है।
ज्येष्ठा, आर्द्रा, भरणी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, मूल, आश्लेषा, मघा नक्षत्रों में; तृतीया, अष्टमी, त्रयोदशी, पंचमी, दशमी, पूर्णमासी तिथियों में और रवि, बुध, गुरु, शुक्र वारों में मुकदमा दायर करना शुभ है।
नक्षत्र | ज्येष्ठा, आर्द्रा, भरणी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, मूल, आश्लेषा, मघा |
वार | रवि, बुध, गुरु, शुक्र |
तिथि | ३/५/८/१०/१३/१५ |
लग्न | ३/६/७/८/११ |
लग्नशुद्धि | सूर्य, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र, ये ग्रह १/४/७/१० स्थानों में और पापग्रह ३/६/११ स्थानों में शुभ होते हैं परन्तु अष्टम में कोई ग्रह नहीं होना चाहिए। |
हस्त, अश्विनी, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल, पुनर्वसु, स्वाति, मृगशिरा, चित्रा, रेवती, अनुराधा-इन नक्षत्रों में और रवि, सोम, बुध, गुरु, शुक्र-इन वारों में औषधि निर्माण करना शुभ है।
पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढ़ा, मृगशिरा, श्रवण, अश्विनी, चित्रा, पुनर्वसु, विशाखा, आर्द्रा, हस्त, धनिष्ठा और रोहिणी नक्षत्रों में; सोम, बुध, गुरु, शुक्र और रविवारों में एवं द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी तिथियों में मन्दिर—निर्माण करना शुभ है।
मास | माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ, मार्गशीर्ष, पौष (मतान्तर से) |
नक्षत्र | पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, मृगशिरा, श्रवण, अश्विनी, चित्रा, पुनर्वसु, विशाखा, आर्द्रा, हस्त, धनिष्ठा, रोहिणी |
वार | सोम, बुध, गुरु, शुक्र, रवि |
तिथि | २/३/५/७/११/१२/१३ |
प्रतिमा निर्माण का मुहुर्त—पुष्य, रोहिणी, श्रवण, चित्रा, धनिष्ठा, आर्द्रा, अश्विनी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, हस्त, मृगशिरा, रेवती और अनुराधा-इन नक्षत्रों में; सोम, गुरु और शुक्र इन वारों में एवं द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, एकादशी और त्रयोदशी इन तिथियों में प्रतिमा निर्माण करना शुभ है।
प्रतिष्ठा मुहूर्त—अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद और रेवती इन नक्षत्रों में; सोम, बुध, गुरु और शुक्र इन वारों में एवं शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया, पंचमी, दशमी, त्रयोदशी और पूर्णिमा तथा कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, द्वितीया और पंचमी इन तिथियों में प्रतिष्ठा करना शुभ है। प्रतिष्ठा के लिए स्थिरसंज्ञक राशियाँ लग्न के लिए शुभ बताई गई है।
समय | उत्तरायण में; बृहस्पति, शुक्र और मंगल के बलवान् होने पर |
तिथि | शुक्लपक्ष की १/२/५/१०/१३/१५ और कृष्णपक्ष की १/२/५ मतान्तर से शुक्लपक्ष की ७/११ |
नक्षत्र | पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, हस्त, रेवती, रोहिणी, अश्विनी, मृगशिरा, श्रवण, धनिष्ठा पुनर्वसु। मतान्तर से चित्रा, स्वाति, भरणी, मूल (आवश्यक होने पर) |
वार | सोम, बुध, गुरु, शुक्र |
लग्नशुद्धि | २/३/५/६/८/९/११/१२ लग्न राशियाँ-शुभग्रह १/४/७/५/९/१० में शुभ हैं और पापग्रह ३/६/११ में शुभ हैं। अष्टम में कोई भी ग्रह शुभ नहीं होता है। |
मन्त्र सिद्ध करने का मुहूर्त—उत्तराफाल्गुनी, हस्त, अश्विनी, श्रवण, विशाखा, मृगशिरा नक्षत्रों में; रवि, सोम, बुध, गुरु, शुक्र वारों में, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, त्रयोदशी, पूर्णिमा तिथियों में यन्त्र-मन्त्र सिद्ध करना शुभ होता है।
सर्वारम्भ मुहूर्त—लग्न से बारहवाँ और आठवाँ स्थान शुद्ध हो और कोई ग्रह नहीं हो तथा जन्मलग्न व जन्मराशि से तीसरा, छठा, दसवाँ, ग्यारहवाँ लग्न हो और शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तथा शुभग्रह युक्त हों; चन्द्रमा जन्मलग्न व जन्मराशि से तीसरे, छठे, दसवें, ग्यारहवें स्थान में हो तो सभी कार्य प्रारम्भ करना शुभ होता है।
मण्डप बनाने का मुहूर्त—सोम, बुध, गुरु और शुक्र वारों २/५/७/११/१२/१३ तिथियों में एवं मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद नक्षत्रों में मण्डप बनाना शुभ है।
होमाहुति का मुहूर्त—सूर्य जिस नक्षत्र में स्थित हो उसमें तीन-तीन नक्षत्रों का एक–एक त्रिक होता है, ऐसे सत्ताईस नक्षत्रों के नौ त्रिक होते हैं। इनमें पहला सूर्य का, दूसरा बुध का, तीसरा शुक्र का, चौथा शनैश्चर का, पाँचवाँ चन्द्रमा का, छठा मंगल का, सातवाँ बृहस्पति का, आठवाँ राहु का और नौवाँ केतु का त्रिक होता है। होम के दिन का नक्षत्र जिसके त्रिक में पड़े उसी ग्रह के अनुसार फल समझना चाहिए। रवि, मंगल, शनि, राहु और केतु ग्रहों के त्रिक में हवन करना वर्जित है।
अग्निवास और उसका फल—शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से लेकर अभीष्ट तिथि तक गिनने से जितनी संख्या हो उसमें एक और जोड़े; फिर रविवार से लेकर इष्टवार तक गिनने से जितनी संख्या हो, उसको भी उसी में जोड़े। जोड़ने से जो राशि आए उसमें ४ का भाग दे। यदि तीन अथवा शून्य शेष रहे तो अग्नि का वास पृथ्वी में होता है, यह होम करने के लिए उत्तम होता है। एक शेष में अग्नि का वास आकाश में होता है, इसका फल प्राणों को नाश करने वाला बताया गया है और दो शेष में अग्नि का वास पाताल में होता है, इसका फल अर्थनाशक कहा गया है।
मानव जीवन की सभी क्रियायें व्यवहारकाल के निमित्त से होती है। यह व्यवहार काल—‘‘मेरु प्रदक्षिणा नित्यगतयोनृलोके तत्कृत कालविभाग:’’ सूत्र के अनुसार होता है। यह कालविभाग शुभ रूप और अशुभ रूप भी होता है। शुभ काल में किये गये कार्य सिद्धि को प्राप्त होते हैं और अशुभ काल में किये गये कार्यों में विघ्न-बाधा होती है। सभी कार्यों में शुभाशुभ काल का निर्धारण करना मुहूर्त है। इसे ज्योतिष शास्त्र से जाना जाता है।
जैनागम की दृष्टि से ज्योतिषशास्त्र का विकास विद्यानुवादांग और परिकर्म से हुआ है। ज्योतिष शास्त्र का नाम ज्योति शास्त्र भी है अर्थात् प्रकाश देने वाला या प्रकाश के संबंध में बतलाने वाला शास्त्र, इससे संसार का मर्म, जीवन-मरण का रहस्य और सुख-दु:ख के संबंध में पूर्ण प्रकाश मिलता है। सुख और दु:ख के भाव ही मानव जीवन को गतिशील बनाते हैं, इन भावों की उत्पत्ति बाह्य और आंतरिक जगत की संवेदनाओं से होती है इसलिए मानवजीवन अनेक समस्याओं का समूह और उन्नति, अवनति, आत्मविकास और हास के विभिन्न रहस्यों का पिटारा है। ज्योतिषशास्त्र आत्मिक, अनात्मिक भावों, रहस्यों को व्यक्त करने के साथ-साथ इनका प्रत्यक्षीकरण कर देता है। यह जीवन का विश्लेषण करने वाला शास्त्र है। प्राकृतिक पदार्थों के अणु-अणु का परिशीलन एवं विश्लेषण करना भी इस शास्त्र का लक्ष्य है—सांसारिक समस्त व्यापार दिक््â, देश और काल इन तीन से भी परिचालित है। इन तीन के ज्ञान बिना व्यवहारपरक जीवन की कोई भी क्रिया सम्यक््â प्रकार से सम्पादित नहीं की जा सकती है अत: सुचारू रूप से दैनिक कार्यों का संचालन करना ज्योतिष का व्यवहारिक उद्देश्य है। सूर्यादि आकाशीय िंपडों की गति किरण, प्रकृति का अध्ययन करके उसका प्रभाव प्राणी जगत पर क्या पड़ता है आदि का वर्णन ज्योतिषशास्त्र में होता है।
जैनाचार्यों ने ज्योतिष को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया है :
(१) गणित सिद्धान्त (२) फलित सिद्धान्त।
गणित सिद्धान्त—इसमें ग्रहों की गति, स्थिति, वक्री, मार्गी, मध्यफल, मन्दफल, सूक्ष्मफल, कुज्या, त्रिज्या, बाण, चाप, परिधि, फल एवं केन्द्रफल का प्रतिपादन किया है। आकाशमण्डल में विकीर्णित तारिकाओं का ग्रहों के साथ कब, वैâसा संबंध होता है इसका ज्ञान भी गणित प्रक्रिया से ही संभव है। जैनाचार्यों ने भौगोलिक ग्रंथों में ज्योतिर्लोकाधिकार नामक एक पृथक अधिकार देकर ज्योतिषी देवों के रूप, रंग, आकृति एवं भ्रमण मार्ग आदि का विवेचन किया है। इसके अतिरिक्त पाटीगणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, गोलीय रेखागणित, चापीय एवं वक्रीय त्रिकोणमिति, प्रतिभा गणित, शृंगोन्नति गणित, पंचांग निर्माण गणित, जन्मपत्र निर्माणगणित, ग्रहयुति, उदयास्त संबंधी गणित का निरूपण भी इसके अन्तर्गत किया गया है।
४.२७.३ फलित सिद्धांत—इसमें तिथि, नक्षत्र, योग, करण, वार, ग्रह स्वरूप, ग्रहयोग, जातक के जन्मकालीन ग्रहों का फल, मुहूर्त, समयशुद्धि, दिक््âशुद्धि, देशशुद्धि आदि का परिज्ञान किया जाता है। इस विषय को प्रतिपादन करने वाले अनेक ग्रंथ हैं, यथा—वर्ष प्रबोध, ग्रहभाव प्रकाश, बड़ा जातक, प्रश्न शतक, प्रश्न चतुा\वशतिका, लग्न विचार, ज्योतिष रत्नाकर आदि ग्रंथों की रचना जैनाचार्यों ने की है। फलित विषय के विस्तार में अष्टांगनिमित्त भी शामिल है।
एक दिन रात में ३० मुहूर्त होते हैं। एक मुहूर्त में ३७७३ उच्छ्वास होते हैं।
एक परमाणु के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर मन्दगति से जाने का काल एक समय है।
असंख्यात समय की · एक आवली,
संख्यात आवली · २८८०/३७७३ सेकेन्ड · एक उच्छ्वास
७ उछ्वास · ५ (१८५/५३९) सेकेन्ड · एक स्तोक
७ स्तोक · ३७ (३१/७७) सेकेन्ड · एक लव
३८-१/२ लव · २४ मिनट · एक घड़ी
२ घड़ी · एक मुहूर्त
३० मुहूर्त · एक दिन रात
ग्रह और नक्षत्रों की गति एवं स्थिति के अनुसार शुभ-अशुभ समय की गणना की जाती है।
धवला पुस्तक ४ पृष्ठ ३१४ पर मुहूर्तों के नाम इस प्रकार हैं—(१) रौद्र (२) श्वेत (३) मैत्र (४) सारभट (५) दैत्य (६) वैशेचन (७) वैश्वदेव (८) अभिजित (९) रोहण (१०) बल (११) विजय (१२) नैऋत्य (१३) वारुण (१४) अर्यनम् (१५) भाग्य, ये पन्द्रह मुहूर्त दिन में होते हैं। (१) सावित्र (२) धुर्य (३) दात्रक (४) यम (५) वायु (६) हुताशन (७) भानु (८) वैजयन्त (९) सिद्धार्थ (१०) सिद्धसेन (११) विक्षोम (१२) योग्य (१३) पुष्पदन्त (१४) सुगन्धर्व (१५) अरूण ये पन्द्रह मुहूर्त रात्रि में माने गये हैं। तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण, चन्द्रमास, सूर्यमास, ग्रहण, अयन, ग्रहों के उदय-अस्त, दैनिक लग्नादि का विचार कर जो श्रेष्ठ समय निकाला जाता है वह मुहूर्त कहा जाता है। मुहूर्त का प्रभाव कार्यकलापों पर पड़ता है। कार्यसिद्धि के लिए मुहूर्त सबल कारण बनता है। मुहूर्त में किये गये कार्यों में उत्साह, लाभ एवं सफलता मिलती है। सदोष मुहूर्त में किये गये कार्य में विघ्नबाधा, असफलता, कष्ट आदि प्राप्त होते हैं।
मुहूर्त शोधन—शुभ मुहूर्त देखने के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए ;
(१) वार—सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार आदि शुभ वार हों।
(२) तिथि—तिथि शुभ हो। क्षय एवं अधिक तिथि न हो।
(३) नक्षत्र—शुभ नक्षत्र हो।
(४) मास—मलमास, अधिकमास, क्षयमास न हो, शुभ मास हो।
(५) पक्ष—शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष की पंचमी तक शुक्ल पक्ष होता है। १३ दिन का पक्ष न हो।
(६) अयन—उत्तरायण, दक्षिणायन का विचार करें।
(७) अग्निवास—हवन के समय अग्निवास का विचार जरूरी है।
मुहूर्त की अनिवार्यता—आत्मा के साथ कार्मण और तैजस शरीर का अनादिकाल से संबंध है। औदारिक शरीर के साथ ये भी मानव के बाह्य और आन्तरिक व्यक्तित्त्व को प्रभावित करते हैं। मानव के तैजसिक, मानसिक और पौद्गलिक परिवेश को ग्रह, नक्षत्र प्रभावित करते हैं। मानव इन सबसे जुड़ा हुआ है अत: इनसे प्रभावित होता है और अपने भाव, विचार और क्रिया द्वारा इन्हें प्रभावित करता है। शरीर प्रमाण रहने वाला आत्मा अपनी चैतन्य क्रियाओं द्वारा अपना कार्य करता है। मनुष्य के इस व्यक्तित्त्व को बाह्य और आंतरिक दो भागों में विभक्त किया जा सकता है :—
(१) अपने पूर्व जन्म के निश्चित प्रकार के विचार, भाव और क्रियाओं की ओर झुकाव प्राप्त करता है तथा इस जीवन के अनुभवों के द्वारा अपने व्यक्तित्त्व का विकास करता है।
(२) अपने अनेक बाह्य व्यक्तियों की स्मृतियों, अनुभवों और प्रवृत्तियों का संश्लेषण अपने में रखता है।
बाह्य और आंतरिक इन दोनों व्यक्तित्त्व संबंधी चेतना के ज्योतिष में विचार, अनुभव और क्रिया ये तीन रूप माने गये हैं। इससे भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक इन तीनों में जगत का संचालन होता है।
ग्रह, नक्षत्र आदि के परिभ्रमण, परिवर्तन एवं संयोग बाह्य एवं आंतरिक व्यक्तित्त्व को प्रभावित करते हैं अत: शुभ ग्रह, शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन आदि का निर्णय करके शुभ मुहूर्त का निर्धारण करके कार्य करना चाहिए।
आधुनिक वैज्ञानिक प्रत्येक वस्तु की आंतरिक रचना सौर मण्डल से मिलती-जुलती बताते हैं। प्रत्येक पदार्थ की सूक्ष्म रचना का आधार परमाणु है, यह परमाणु सौर जगत के समान आकार-प्रकार वाला है। इसके मध्य में एक धन विद्युत का बिन्दु है जिसे केन्द्र कहते हैं। इसका व्यास एक इंच के १० लाखवें भाग का भी दस लाखवां भाग बताया गया है। परमाणु के जीवन का सार इसी केन्द्र में बसता है। इस केन्द्र के चारों ओर अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विद्युतकण चक्कर लगाते रहते हैं और ये केन्द्र वाले धन विद्युत्कण के साथ मिलने का उपक्रम करते रहते हैं, इस प्रकार के अनंत परमाणुओं के समाहार का एकत्रस्वरूप हमारा शरीर है। सौर जगत में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र एवं तारे आदि का भ्रमण करने का नियम जो कार्य करता है वे ही नियम प्राणी मात्र के शरीर में स्थित ग्रहों के भ्रमण वâरने में भी काम करते हैं। ये व्यक्ति के बाह्य और आंतरिक रूप से भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिकता को प्रभावित करते हैं।
(१) गुरु—बाह्य व्यक्तित्व के प्रथम रूप का प्रतीक है। यह प्राणी के शरीर का रक्त संचालन और उसमें रहने वाले कीटाणुओं की चेतना से संबंध रखता है। इससे व्यक्ति के बाह्य में व्यापार, कार्य और वे स्थान और व्यक्ति जिनका संबंध धर्म एवं कानून से है, इसका विचार किया जाता है। यह मनोभाव, उदारता, शक्ति, भक्ति, व्यवस्था, बुद्धि आदि का प्रतिनिधित्व होता है।
(२) मंगल—इससे इन्द्रिय ज्ञान, आनंदेच्छा, उत्तेजना, संवेदनाजन्य आवेग आदि का विचार किया जाता है। साहस, बहादुरी, दृढ़ता, आत्मविश्वास आदि विचारों का विवेचन होता है।
(३) चन्द्रमा—मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले परिवर्तनशील भावों का प्रतिनिधित्व होता है। यह संवेदना, आंतरिक इच्छा, कल्पना सतर्कता आदि पर प्रभाव डालता है।
(४) शुक्र—नि:स्वार्थ प्रेम, भ्रातृत्व भावना एवं सूक्ष्म चेतनाओं को प्रभावित करते हैं। इससे सौन्दर्य ज्ञान, आराम, आनंद विशेष, प्रेम, स्वच्छता, कार्य क्षमता आदि का विचार करते हैं।
(५) बुध—यह आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है। इसके द्वारा निर्णयात्मक बुद्धि, वस्तु परीक्षण, समझ, बुद्धिमानी, गंभीरता आदि का विचार किया जाता है। यह स्मरण शक्ति, खण्डन-मण्डन शक्ति, तर्क आदि का द्योतक है।
(६) सूर्य—यह पूर्ण इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, सदाचार, जीवन की उन्नति एवं विवाह का द्योतन करता है। यह प्रभुता, ऐश्वर्य, प्रेम, उदारता महत्त्वाकांक्षा, आत्मविश्वास, आत्मनियंत्रण, विचार और भावनाओं के संतुलन का प्रतीक है।
(७) शनि—यह जीवन के विचार कार्यों, विचार स्वातंत्र्य, नायकत्व, मननशीलता, कार्यपरायणता, आत्मसंयम, धैर्य, दृढ़ता, सतर्कता आदि का प्रतीक है।
इस प्रकार सौर जगत मानव जीवन को विभिन्न प्रकार से प्रभावित करता है।
जिन ग्रहों में सत्व गुण अधिक रहता है उनकी किरणें अमृतमय, जिनमें रजोगुण अधिक रहता है उनकी उभयगुण मिश्रित किरणें, जिनमें तमोगुण अधिक रहता है उनकी विषमय किरणें एवं जिनमें तीनों गुणों की अल्पता रहती है उनकी गुणहीन किरणें मानी गई हैं। ग्रहों के शुभाशुभत्व का विभाजन भी इन किरणों के गुणों से ही हुआ है।
आकाश में प्रतिक्षण अमृतरश्मि सौम्य ग्रह अपनी गति से जहाँ-जहाँ जाते हैं उनकी किरणें भूमण्डल के उन-उन प्रदेशों पर पड़कर वहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य, बुद्धि आदि पर अपना सौम्य प्रभाव डालती हैं। विषम किरणों वाले क्रूर ग्रह बुरा प्रभाव डालते हैं। मिश्रित रश्मि ग्रहों के प्रभाव मिश्रित एवं गुणहीन रश्मियों के ग्रहों का प्रभाव अिंकचित्कर होता है।
जन्म के समय जिन-जिन रश्मि वाले ग्रहों की प्रधानता होती है जातक का स्वभाव वैसा ही होता है।
अमृतमयी रश्मियों के प्रभाव में जन्म लेने वाला—पूर्ण बुद्धि, सत्यवादी अप्रमादी, स्वाध्यायशील, जितेन्द्रीय एवं सच्चरित्र होता है।
रजोगुणाधिक्य मिश्रित रश्मियों के प्रभाव में जन्म लेने वाला—मध्य बुद्धि, तेजस्वी, शूरवीर, प्रतापी एवं निर्भय होता है।
अल्पगुण वाली रश्मियों के प्रभाव में जन्म लेने वाला—उदासीन बुद्धि, व्यवसायकुशल, पुरुषार्थी एवं सम्पत्ति वाला होता है।
तमोगुणाधिक्य रश्मियों के प्रभाव में जन्म लेने वाला—विवेकशून्य, दुर्बुद्धि, व्यसनी, सेवावृत्ति एवं हीनाचरण वाले होते हैं। ज्योतिष की यह व्यवस्था वंश परम्परा से भिन्न है। हीन वर्ण में भी जन्मा व्यक्ति ग्रहों की रश्मियों में प्रभाव से उच्च वर्ण रूप कार्य करता है।
मानव जिस नक्षत्र, ग्रह, वातावरण के तत्व प्रभाव में उत्पन्न एवं पोषित होता है उसी तत्त्व की विशेषता रहती है। ग्रहों की स्थिति की विलक्षणता के कारण अन्य तत्त्वों का न्यूनाधिक प्रभाव पड़ता है। देशकृत ग्रहों का संस्कार इस बात का द्योतक है कि स्थान विशेष के वातावरण में उत्पन्न एवं पुष्ट होने वाला प्राणी उस स्थान पर पड़ने वाली ग्रह रश्मियों को अपनी निजी विशेषता के कारण अन्य स्थान पर उसी क्षण जन्में व्यक्ति की अपेक्षा भिन्न स्वभाव, भिन्न आकृति एवं विलक्षण शरीर अवयव वाला होता है। ग्रह रश्मियों का प्रभाव केवल मानव पर ही नहीं बल्कि वन्य, स्थलज एवं उद्भिज्ज आदि पर भी अवश्य पड़ता है, कर्मोदय भी द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा से उदय में आता है।
समय विधान की जो मर्मप्रधान व्यवस्था है उसका रहस्य इतना ही है कि गगनगामी ग्रह, नक्षत्रों की अमृत-विष एवं अन्य उभय गुण वाली रश्मियों का प्रभाव सदा एक सा नहीं रहता है। गति की विलक्षणता के कारण किसी समय में ऐसे नक्षत्र या ग्रहों का वातावरण रहता है जो अपने गुण और तत्त्वों की विशेषता के कारण किसी विशेष कार्य की सिद्धि के लिए उपयुक्त हो सकते हैं अतएव विभिन्न कार्यों के लिए मुहूर्त शोधन अन्ध श्रद्धा या विश्वास की चीज नहीं किन्तु विज्ञानसम्मत रहस्यपूर्ण है, इसके लिए कुशल परीक्षण होना आवश्यक है।
क्या ग्रह सुख-दु:खकारक हैं—ग्रह फलाफल के नियामक नहीं किन्तु सूचक हैं। ग्रह किसी को सुख- दु:ख नहीं देते बल्कि आने वाले सुख-दु:ख की सूचना देते हैं। विपरीत वातावरण के होने पर रश्मियों के प्रभाव को अन्यथा भी किया जा सकता है। ग्रहों के द्वारा प्राप्त शुभाशुभ सूचना, ग्रहों की गति एवं उनकी विष और अमृतरश्मियों से मिलती है। इस सूचना कार्यादि का सदुपयोग किया जाए तो उसको शुभ रूप किया जा सकता है। ज्योतिष शास्त्र विधायक नहीं, सूचक है। तिथियों की नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा तथा पक्षरन्ध्र, मास शून्य, सिद्धा, दग्धा, विष और हुताशन संज्ञा है। इसी प्रकार नक्षत्रों की पंचक, मूल, ध्रुव, चर, उग्र, मिश्र, लघु, मृदु, तीक्ष्ण, अधोमुख, ऊर्ध्वमुख, तिर्यंङ्मुख, दग्ध, मास शून्य आदि संज्ञायें हैं। ये अपने नाम के अनुसार स्वभाव वाले होते हैं। इनके समय में इनकी संज्ञानुसार कार्य सिद्ध होते हैं।
ग्रहों के स्वभाव और गुणों के द्वारा अन्वय, व्यतिरेक रूप कार्य-कारणजन्य अनुमान से अपने भावी सुख-दु:ख प्रभृति को पहले से जानकर अपने कार्यों के प्रति सजग रहना चाहिए, जिससे आगामी दु:ख को सुख रूप में परिणत किया जा सके। यदि ग्रहों का फल अनिवार्य रूप से भोगना ही पड़े और पुरुषार्थ को व्यर्थ माने तो जीवन में मुक्ति लाभ नहीं हो सकेगा। भविष्य को अवगत कर अपने कर्त्तव्यों द्वारा अपने अनुकूल बनाने के लिए ज्योतिष प्रेरणा देता है। यही प्रेरणा प्राणियों के लिए दु:खविघातक और पुरुषार्थसाधक होती है।
धार्मिक कार्य पुण्यसंचय, भावविशुद्धि कर्म निर्जरा आदि के प्रमुख साधन होते हैं। इनमें मन, वचन, काय की शुद्धि प्रशस्तता एवं अनुकूलता अनिवार्य होती है। इसके लिए अनुकूल वातावरण आवश्यक होता है अत: ग्रह, नक्षत्रों की गति, स्वभाव, स्थिति आदि का विचार कर उनके अनुकूल समय का चयन किया जाता है जिससे धार्मिक कार्यों का सानंद संचालन एवं समापन होता है।
धार्मिक कार्य को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं—
(१) श्रमण के कार्य में मुहूर्त
(२) श्रावक के कार्यों में मुहूर्त
श्रमण के कार्य में मुहूर्त—महाव्रती की चर्या में मुहूर्त का विशद वर्णन प्राप्त है। दीक्षा संस्कार से लेकर समाधिमरण और अन्तिम संस्कार तक अनेक प्रकार से मुहूर्तों के अनुसार किये जाते हैं।
दीक्षा मूहूर्त, केशलौंच मुहूर्त, विहार मुहूर्त, चातुर्मास स्थापन एवं निष्ठापन मुहूर्त, स्वाध्याय मुहूर्त, ग्रंथ लेखन मुहूर्त, समाधिमरण-सल्लेखना ग्रहण मुहूर्त, अंतिम संस्कार मुहूर्त आदि।
दीक्षा मूहूर्त—अश्विनी, रोहिणी, रेवती, ज्येष्ठा, अनुराधा, हस्त, चित्रा, स्वाती, मृगशिरा, पुनर्वसु, उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा इन नक्षत्रों में, रविवार, सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार इन दिनों में द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी इन तिथियों में, चैत्र, बैसाख, कार्तिक, मार्गशीर्ष माघ एवं फाल्गुन महीनों में शुभ योग एवं शुभ लग्न में दीक्षा देने से शुभ होता है। साधक चारित्र में दृढ़ रहता है।
आर्यिका दीक्षा, क्षुल्लिका दीक्षा आदि के भी मूहूर्तों का उल्लेख प्राप्त है।
केशलौंच मुहूर्त—भरणी, कृतिका, मघा, विशाखा नक्षत्र छोड़कर, रिक्त तिथियाँ छोड़कर एवं मंगलवार और शनिवार छोड़कर शेष दिनों में केशलोंच करना शुभ है।
विहार मुहूर्त—अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्र, २, ३, ५, ७, १०, ११, १३ तिथियों एवं सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार शुभ दिन हैं। यात्रा अर्थात् विहार में वारशूल, नक्षत्रशूल, चन्द्रवास, योगनी, समयशूल आदि देखकर चलना चाहिए।
चातुर्मास स्थापन एवं निष्ठापन मुहूर्त—आषाढ़ मास की चतुर्दशी से श्रावण कृष्णा पंचमी तक शुभ नक्षत्र, शुभ तिथि, दिन एवं शुभ लग्न चातुर्मास स्थापना एवं कार्तिक शुक्ला द्वितीया से कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक शुभ मुहूर्त में चातुर्मास निष्ठापन करें।
हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, पुष्य, रेवती, अश्विनी, मृगशिरा धनिष्ठा, शतभिषा नक्षत्रों में धर्म ग्रंथ लिखना प्रारम्भ करें।
स्वाध्याय मुहूर्त—पर्व के दिनों में, नंदीश्वर के श्रेष्ठ दिनों में, सूर्य ग्रहण-चन्द्र ग्रहण के समय सिद्धान्त ग्रंथों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अष्टमी को स्वाध्याय करने से गुरु और शिष्य का वियोग होता है, पूर्णमासी के दिन किया गया अध्ययन कलह, चतुर्दशी और अमावस्या के दिन किया गया अध्ययन विघ्न को करता है। कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्या के दिन अध्ययन करने से विद्या और उपवास विधि का विनाश होता है।
मध्याह्न में किया गया अध्ययन जिनरूप को नष्ट करता है, दोनों संध्या कालों का अध्ययन व्याधि को करता है तथा मध्यरात्रि में अध्ययन से द्वेष उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त तीव्र दु:ख से युक्त और रोते हुए प्राणियों को देखने या समीप में होने पर मेघों की गर्जना व बिजली के चमकने पर और अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होने पर स्वाध्याय नहीं करना चाहिए।
अंगपूर्व, वस्तुप्राभृत रूप सूत्र, गणधर कथित, श्रुतकेवली कथित, अभिन्नदशपूर्व कथित ये चार प्रकार के सूत्र काल शुद्धि के बिना नहीं पढ़ना चाहिए। सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं का स्वरूप कहने वाला ग्रंथ, सत्रह प्रकार के मरण को वर्णन करने वाला ग्रंथ, पंच संग्रह, स्तोत्र ग्रंथ, आहारादि के त्याग का उपदेश करने वाला ग्रंथ, सामायिक आदि आवश्यकों को कहने वाला ग्रंथ, महापुरुषों के चरित्र को वर्णन करने वाला ग्रंथ कालशुद्धि आदि न होने पर भी पढ़ना चाहिए।
समाधिमरण के समय मूहूर्त अवश्य देखना चाहिए। इससे समाधि सानंद एवं सफलतापूर्वक सम्पन्न होती है, आचार्यों ने इसका विशद वर्णन किया है। अश्विनी नक्षत्र के समय क्षपक ने संस्तर ग्रहण किया तो स्वाती नक्षत्र में उसका समाधिमरण होगा, भरणी नक्षत्र वाले का रेवती में, कृतिका वाले का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पर मरण होगा। रोहिणी नक्षत्र वाले का श्रवण में, मृगशिरा का पूर्वाफाल्गुनी में, आर्द्रा का आर्द्रा में, पुनर्वसु का अश्विनी में, पुष्य का मृगशिरा में, आश्लेषा का चित्रा में, स्वाती का रेवती में, विशाखा का आश्लेषा में, अनुराधा का पूर्वाभाद्रपद में, मूल का ज्येष्ठा में, पूर्वाषाढ़ा का मृगशिर में, उत्तराषाढ़ा का भाद्रपद में, श्रवण का उत्तराभाद्रपद में, धनिष्ठा का धनिष्ठा में, शतभिषा का ज्येष्ठा में, पूर्वाभाद्रपद का पुनर्वसु में, उत्तराभाद्रपद का, उसी दिन एवं रेवती नक्षत्र पर संस्तर ग्रहण करने पर मघा नक्षत्र में मरण होगा और मूल में सल्लेखना ग्रहण करने पर ज्येष्ठा नक्षत्र में मरण होता है। रोग उत्पन्न के नक्षत्र ज्ञान से रोग समाप्ति का भी ज्ञान होता है यदि आश्लेषा नक्षत्र में रोग उत्पन्न हो तो अधिक दिन तक, मघा में उत्पन्न हो तो एक माह तक, पूर्वाफाल्गुनी में उत्पन्न हो तो सात दिन तक और उत्तराफाल्गुनी में रोग हो तो इक्कीस दिन तक रोगी बीमार रहता है। अश्विनी में हो तो १० दिन, भरणी में बहुत दिन, कृतिका में ७ दिन, रोहिणी में ५ दिन, मृगशिरा में १० दिन, आर्द्रा में अधिक दिन, पुनर्वसु में १५ दिन, पुष्य में १० दिन, हस्त में ११ दिन, चित्रा में १ दिन, स्वाती में ७ दिन, विशाखा में १० दिन, अनुराधा में २० दिन, ज्येष्ठा में एक दिन, मूल में २४ दिन, पूर्वाषाढ़ा में एक दिन, उत्तराषाढ़ा में १० दिन, श्रवण में ५ दिन, धनिष्ठा में १५ दिन, शतभिषा में २० दिन, पूर्वाभाद्रपद में बहुत दिन, उत्तराभाद्रपद में, २० दिन और रेवती नक्षत्र में रोग उत्पन्न हो तो २१ दिन तक रोगी पीड़ित रहता है।
अन्तिम संस्कार के समय मुहूर्त दर्शन—आराधनायुक्त क्षपक के मरण से संघ पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह जानने के लिए किस नक्षत्र में मरण हुआ है यह जानना आवश्यक है। अल्प नक्षत्र में यदि क्षपक का मरण होता है तो सबका कल्याण होता है, यदि मध्यम नक्षत्र में मरण होता है तो शेष साधुओं में से एक का मरण होता है, यदि महानक्षत्र में मरण होता है तो दो का मरण होता है, जो पन्द्रह मुहूर्त तक रहते हैं वे शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वाती, अश्लेषा, ज्येष्ठा अल्प नक्षत्र हैं जो तीस मुहूर्त तक रहते हैं, ऐसे अश्विनी, कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद और रेवती, विशाखा ये महानक्षत्र है। संघ की रक्षा के लिए अशुभ मुहूर्त का निराकरण करना उचित है।
श्रावक निरन्तर धार्मिक कार्य करता है, उसके लिए ग्रंथों में अनेक मुहूर्त दिये गये हैं। श्रावक धार्मिक कार्यों द्वारा अपने परिणाम विशुद्ध करता है उसके लिए अनुकूल वातावरण होना आवश्यक है। इन कार्यों में बाधा उत्पन्न नहीं होना चाहिए जिससे अशुभ कर्मों का बंध न हो।
श्रावक के धार्मिक कार्यों के अनेक मुहूर्त होते हैं—
शान्ति कर्म, पौष्टिक, कर्म, विधान, अनुष्ठान, प्रतिष्ठा, मंदिर निर्माण, प्रतिमा निर्माण एवं जीर्णोद्धार मुहूर्त।
(१) शान्ति कर्म एवं पौष्टिक कर्म—इन कार्यों के लिए शुभ, दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ तिथि, शुभ चन्द्रमा एवं शुभ योग अवश्य देख लेना चाहिए जिससे कार्य निर्विघ्न सानंद सम्पन्न हो।
(२) विधान—विधान प्रारंभ करने के पूर्व ध्वजारोहण का मुहूर्त और अन्त में अग्निवास देखना अत्यन्त आवश्यक होता है।
(३) अनुष्ठान—इसमें विधि-विधानपूर्वक जाप एवं हवन किया जाता है इसके लिए शुभ दिन, नक्षत्र, तिथि एवं शुभ योग अवश्य देखना चाहिए। हवन के लिए अग्निवास मुहूर्त का देखना अत्यन्त अनिवार्य होता है।
(४) प्रतिष्ठा—जैनदर्शन में प्रतिष्ठा सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। इनके अनेक स्वतंत्र ग्रंथ हैं। सभी आचार्यों/लेखकों ने सर्वप्रथम शुद्ध मुहूर्त का कथन किया है। प्रतिष्ठा के अनेक भेद हैं—पंचकल्याणक जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, मंदिर प्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा, मनस्तम्भ प्रतिष्ठा, जिनवाणी प्रतिष्ठा, मंत्र प्रतिष्ठा, माला प्रतिष्ठा आदि। इन सबके मुहूर्त प्रतिष्ठा ग्रंथों में उल्लिखित हैं। वर्षाकाल के बिना सर्वकाल सराहने योग्य है, उस समय राजा, मंत्री, आचार्य, प्रतिष्ठापक की मृत्यु न हो और रोग, महामारी, शत्रुभय एवं पीड़ा नहीं हो, भूकम्प, दिग्दाह, स्वचक्र, परचक्र का भय, लुटेरों का भय एवं उपद्रव के समय प्रतिष्ठा नहीं करना चाहिए।
मंदिर निर्माण मुहूर्त—मार्गशीर्ष आदि पाँच शुभ महीनों में और उत्तरायण सूर्य में व्यतिपातादि योग रहित शुभ दिन में जिनालय मंदिर प्रारंभ करें। अधोमुख नक्षत्र में नींव खोदें, ऊर्ध्वमुख नक्षत्र में शिलान्यास करें, तिर्यङ्मुख नक्षत्र में कपाटदान और मृदु नक्षत्र में गृह प्रवेश करें।
प्रतिमा निर्माण मुहूर्त—तीनों उत्तरा, पुष्य, रोहिणी, श्रवण, चित्रा, धनिष्ठा, आर्द्रा नक्षत्रों एवं सोम, गुरु, शुक्र दिनों में प्रतिमा निर्माण श्रेष्ठ है।
प्रतिष्ठा मुहूर्त—पाँच प्रकार की तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण से शुद्ध दिन में लग्न शुद्धि प्रमुख है। मंगल और शनिवार छोड़कर सभी वार संस्थापन में श्रेष्ठ हैं। अमावस्या के बिना अमृतसिद्धि योग में, रिक्ता तिथि में योगशुद्धि हो तो कार्य शुभ करें, पूर्णिमा और सिद्धयोग भी होय तब भी एकादशी वर्जित है। जिस तिथि में जिनेन्द्र का कल्याण हो वह तिथि कल्याणक हेतु श्रेष्ठ है।
उत्तरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, रेवती इनमें शुभयोग हो तो ग्राह्य है और मघा, स्वाती, भरणी, मूल भी कदाचित् आवश्यक कार्य में अंगीकार किया है।
मंदिर प्रतिष्ठा, मानस्तंभ प्रतिष्ठा में भी यही मुहूर्त ग्राह्य हैं। श्रावकों के अन्य गृहस्थी संबंधी अनेक मुहूर्तों का कथन ज्योतिष ग्रंथों में मिलता है। इससे स्पष्ट है कि श्रावक और श्रमण को बिना मुहूर्त कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि प्राय: सभी प्रतिष्ठा ग्रंथों में मुहूर्त का कथन अवश्य किया है।
व्रतग्रहण मुहूर्त—मानव जीवन के उत्थान का प्रथम सोपान व्रत ग्रहण करना है, इसके लिए भी आचार्यों ने दिन, तिथि, माह, नक्षत्र आदि को निश्चित कर व्रत करने का निर्देश दिया है।
(१) दिन की अपेक्षा वाले व्रत—दिन के आधार से किये जाने वाले व्रत, जैसे—दु:खहरण धर्मचक्र, जिनगुण सम्पत्ति, सुखसम्पत्ति, शीलकल्याणक, श्रुति कल्याणक, चन्द्रकल्याणक, रविव्रत आदि।
(२) तिथि की अपेक्षा वाले व्रत—तिथि के आधार से किये जाने वाले व्रत, जैसे—सुखचिन्तामणि भावना, पंचिंवशति भावना, णमोकार पञ्चिंवशति भावना आदि।
(३) दैवसिक व्रत—जो दिन में किये जाते हैं जैसे—रत्नावली, मुक्तावली, कनकावली आदि।
(४) नैशिक व्रत—जो रात्रि में किये जाते हैं जैसे—आकाश पंचमी, नक्षत्र माला, जिनरात्रि आदि।
(५) मासावधि वाले व्रत—एक माह की अवधि वाले व्रत जैसे—षोडशकारण, मेघमाला आदि।
(६) नक्षत्र की अपेक्षा वाले व्रत—जो नक्षत्र के आधार से किये जाते हैं, जैसे—रोहणी व्रत आदि।
मुहूर्तों का शुभाशुभ समस्त मानव जीवन के प्रत्येक रहस्यों का विवेचन करता है और प्रतीकों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से उसे प्रकट करता है। जिस प्रकार दीपक अंधकार में रखी वस्तु को दिखलाता है उसी प्रकार ज्योति विज्ञान मानव के कार्यों का शुभाशुभ दिखलाता है। आकाशीय ग्रह नक्षत्रों की गति, स्थिति, उदय, अस्त का प्रभाव सभी दृश्य एवं अदृश्यमान पर पड़ता है। उसकी रश्मियों का प्रभाव शरीर, बुद्धि एवं मन पर पड़ता है अत: सभी धार्मिक एवं लौकिक कार्यों में शुभ ग्रह, नक्षत्रों का तिथि के साथ योग, लग्न आदि की शुद्धि का विचार किया जाता है जिससे शुभ ग्रहादिकों से मन प्रशस्त, बुद्धि विवेक विशुद्ध रहते हैं, जो कार्यसिद्धि एवं परिणामशुद्धि के कारक होते हैं। शुभ मुहूर्त के अभाव में मन और बुद्धि विकृत होने से अस्थिरता, क्रोधादि विकारी भाव के उत्पन्न होने से अशुभकर्म बंध एवं कार्य की स्द्धिि नहीं हो पाती है। इस कारण से आगम ग्रंथों में धार्मिक कार्यों के करने के लिए आचार्यों ने मुहूर्त में ही कार्य करने का निर्देश दिया है। ग्रह, नक्षत्र की स्थिति के प्रभाव में जन्म लेने वाले पर भी उसी प्रकार का प्रभाव पड़ता है, वह उसी प्रकृति का सृजन करता है। तीर्थंकरादि महापुरुषों का जन्म भी शुभ लग्न एवं ग्रहों की शुभ स्थिति में हुआ है, जिसके कारण उनका जीवन उन्नतिशील बना है। भगवान आदिनाथ के जन्म के समय शुभयोग थे। हनुमान के जन्म समय ग्रह शुभ स्थिति में थे, उनका जीवन मंगलमय रहा तथा उन ग्रहों का प्रभाव उनके जीवन में भी रहा। देवों ने अयोध्या नगरी की रचना कर महाराजा नाभिराय और मरुदेवी को शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ लग्न में पुण्याहवाचन करके प्रवेश कराया। देवों के द्वारा भी शुभ मुहूर्त आदि का उल्लेख प्रमाणित करता है कि किसी भी धार्मिक कार्यों में शुभ मुहूर्त अवश्य देखना चाहिए क्योंकि ग्रह नक्षत्र आदि की रश्मियों का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पड़ता है। ये रश्मियाँ कार्य को प्रभावित करती हैं अत: शुभ योग अवश्य देखना चाहिए। अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि ग्रहों का प्रभाव भूमंडल पर व भूमण्डलवासियों पर पड़ता है। ग्रह, नक्षत्रों का वायुमण्डल में भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ने से ओले, वर्षा, बिजली, वङ्कापात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि उल्कापातादि होते हैं। सूर्य, चन्द्रमा का प्रभाव प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। सूर्य जब रोहणी नक्षत्र में आता है तब बहुत गर्मी होती है। मृगशिरा में आने से ठंडक आ जाती है। आर्द्रा में आने से वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सूर्य उदय से रोगाणु उत्पन्न नहीं होते, अस्त होने पर पुन: उत्पन्न होने लगते हैं। चन्द्रमा के प्रभाव से पूर्णिमा एवं अमावस्या से समुद्र के अन्दर ज्वार-भाटा होते रहते हैं अत: न्याय, तर्क, वैज्ञानिक, ज्योतिष एवं आगमिक सिद्धांतों द्वारा यह सिद्ध होता है कि ग्रह-नक्षत्रों का प्रभाव भूमण्डल के प्रत्येक पदार्थ पर पड़ता है। ग्रह, नक्षत्र आदि की शुभाशुभ स्थिति का शुभाशुभ प्रभाव होता है इससे धार्मिक कार्यों में शुभ मुहूर्त अवश्य देखा जाता है जो हमारे भावों को विशुद्ध बनाकर कार्य सिद्धि में कारण बनता है।