‘‘दिशा बदलते ही दशा बदलती है’’—यह कथन कई दृष्टियों से सार्थक है। वास्तु-विद्या में भी दिशा या डायरेक्शन का बड़ा महत्त्व है। दिशाओं और उनके अधिष्ठाता देवों के नाम स्वस्तिकाकार दिशा-सूचक यंत्र में द्रष्टव्य हैं।
अधिष्ठाता का मतलब है—व्यावहारिक प्रधान; जो आज के महंत, निदेशक और सुपरिटेंडेंट का मिला-जुला रूप होता है। प्रत्येक दिशा का एक अधिष्ठाता देव होता है—यह पौराणिक मान्यता है। इस मान्यता में इतिहास और विज्ञान की अपेक्षा श्रद्धा का भाव अधिक है। वास्तु—विद्या में अधिष्ठाता देवों की प्रकृति देखकर ही यह निर्धारित किया गया है कि किस दिशा में क्या बनाया जाए ? जैसे-आग्नेय अर्थात् दक्षिण-पूर्व दिशा रसोईघर के लिए निर्धारित की गयी है ताकि गर्मियों में दक्षिण—पश्चिम दिशा से चलने वाली हवा उसमें आग न भड़का सके।
दिशा का प्रकृति से तालमेल—
प्रत्येक दिशा और विदिशा का प्रकृति के किसी एक रूप से विशेष संबंध है : उत्तर और ईशान का जल से; पूर्व और आग्नेय का अग्नि से, दक्षिण और नैऋत्य का पृथ्वी से; पश्चिम और वायव्य का वायु से इसलिए भवन या कक्ष (कमरा) के उपयोग का तालमेल उसकी दिशा के प्रभावक तत्त्व से बैठाया जाए ताकि प्रकृति उस उपयोग में साधक बने, बाधक नहीं। प्रकृति का साधक बनना ही ‘शुभयोग’ या ‘इष्टसिद्धि’ है और बाधक बनना ही ‘अशुभयोग’ या ‘अनिष्टसिद्धि’ है।
शांतिदाई ऐशान दिशा—
प्रकृति-चक्र का प्रस्थान-िंबदु है ऐशान। उसका प्रभावक तत्त्व है जल, जो शांति का प्रतीक है, इसीलिए ऐशान दिशा शांतिदायक है। इस दिशा का अधिष्ठाता है ‘ईशान’, जिसे शांतिप्रदायक माना गया है। जैनदर्शन में ‘तीर्थंकर’ शब्द भी ‘शांतिप्रदायक’ अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। धर्म—चक्र के इन प्रवर्तकों का स्थान, देवालय, इसीलिए ऐशान दिशा में बनाया जाता है।
जल-संसाधन और उससे लगे हुए देवालय या पूजा—कक्ष के लिए ऐशान (उत्तर-पूर्व) का विधान है; क्योंकि पूर्व से उदित होते हुए सूर्य की किरणें जल को शुद्ध बनाए रखती हैं और स्नान तथा पूजा के लिए उपस्थित लोगों का तन-बदन प्रफुल्लित कर देती हैं, उन्हें विटामिन ‘डी’ भी देती हैं।
प्रकृति का सबसे बड़ा वरदान सूर्य है। उनका स्वागत करने के लिए ही मानो पूर्व या पूर्वोत्तर में िंसह-द्वार, प्रवेश-द्वार, अन्य द्वार तथा बहुत-सी खिड़कियाँ बनाने का विधान है। ‘पूर्वोत्तर’ यानी ‘ऐशान’ दिशा में भूमि (ग्राउंड लेवल) दक्षिण-पश्चिम की अपेक्षा नीची रखी जाए, ताकि सूर्य की किरणें अधिक-से-अधिक मात्रा में गृह प्रवेश करके वातावरण को प्रदूषण से मुक्त कर सकें।
वास्तव में प्रकृति का चक्र ही दक्षिणावर्त है, सूर्य का भ्रमण इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, उसी के अनुकरण पर घड़ी चलती है, बिजली का पंखा चलता है; चक्कर काटने वाली हर चीज दक्षिणावर्त चलती है, जब तक कि कोई विशेष व्यवस्था न की गई हो।
इसीलिए प्राय: सभी शुभ कार्य ऐशान दिशा में उन्मुख होकर करने से सफल होते हैं, उदाहरण के लिए चक्रवर्ती की विजय-यात्रा इसी दिशा से आरंभ होती है; इष्टदेव की परिक्रमा इसी दिशा से दक्षिण-पूर्व होते हुए आगे बढ़ती है इसीलिए दक्षिणावर्त परिक्रमा को ‘प्रदक्षिणा’ भी कहते हैं।
दिशाओं के संबंध में व्यावहारिक नियम—
ऐशान की भाँति अन्य दिशाओं के संदर्भ में भी जो नियम या चेतावनी या परामर्श हैं, वे सभी या तो प्रकृति को ध्यान में रखकर हैं या लोक-व्यवहार की रक्षा के लिए हैं इसलिए उनका पालन यथासंभव अवश्य किया जाए। उनके पालन से कोई हानि होती दिखे तो उनके पालन से होने वाले लाभ और हानि की तुलना कर ली जाए और लाभ की मात्रा अधिक दिखे तो उनका पालन किया जाता रहे। इन नियमों की व्यवहारिकता के कुछ उदाहरण आगे वर्णित हैं।
घर में द्वार यथासंभव आमने-सामने हों ताकि कड़ी, (िंलटर) और छत ढालने में असुविधा से बचा जा सके। सीढ़ियाँ या जीने का द्वार उत्तर या दक्षिण की ओर हो तो अशुभ फल देगा; शौचालय (लेट्रिन) का द्वार पूर्व में हो तो हानिकारक होगा इत्यादि।
भूमि पर प्रस्तावित निर्माण और उसके विभिन्न भागों की दिशा पर तो विचार किया ही गया है, यह भी विचार किया गया है कि निर्माण किस दिशा से शुरू किया जाए। उदाहरण के लिए शेषनाग चक्र के अनुसार नींव आदि के लिए भूमि की खुदाई उस स्थान से शुरू नहीं की जाए, जहाँ नाग का अस्तित्व हो। यहाँ ‘नाग’ या ‘शेषनाग’ का कथन मात्र प्रतीकात्मक है। जैसे कि नाग के सिर भाग पर पैर रखने पर वह हानि नहीं पहुँचा सकता, जबकि अन्य कहीं पैर रखने पर वह काट लेता है। इसी प्रकाश शेषनाग चक्र में भी नाग की आकृति के अनुसार उन स्थलों को छोड़कर ही ‘खात’ के नियमों के पालन करते हुए खुदाई करानी चाहिए।
वास्तव में ‘खात’ के लिये नियम ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पालना चाहिए।
इससे ज्ञात होता है कि दिशाओं के निर्धारण में ज्योतिष की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है; यही कारण है कि वास्तुविद्या के ज्ञान के लिए ज्योतिष का ज्ञान भी आवश्यक माना गया है।
लेआउट प्लान : रेखाचित्र और नक्शा—
कार्यक्रम के अनुसार मकान या मंदिर का लेआउट प्लान और नक्शा बना लिया जाए। ‘लेआउट’ यान्ाी पद—विन्यास के रेखांकन में वास्तु-विद्या के साथ ज्योतिष, गणित, लोक—व्यवहार आदि का ध्यान रखना आवश्यक है। वास्तु-विद्या में ऐसी कई परम्पराएँ प्रचलित हैं, यथा—शेषनाग-चक्र, वास्तुपुरुष-मंडल, वृषवास्तु—चक्र आदि।
इन विभिन्न चक्रों के माध्यम से निम्नलिखित इक्कीस अंगों के शुभ-अशुभ फल पर विचार किया जाए; क्षेत्रफल, आय, नक्षत्र, गण, दिशा, वैर, व्यय, तारा, नाडी, राशि, स्वामी, गृहनाम, अंश, लग्न, तिथि, वार, करण, योग, वर्ग, तत्त्व और आयु।
ये सब वास्तव में नुस्खे या फार्मूले हैं जिनसे यह जाना जाता है कि गृहस्वामी, स्थपति आदि मकान या मंदिर का कौन-सा भाग कहाँ, कब, किस तरह बनाएँ ताकि उन्हें अशुभ नहीं बल्कि शुभ फल मिले। ये नुस्खे आवश्यकता पड़ने पर निर्णायक भूमिका भी निभाते हैं।
ये नुस्खे गूढ हैं और आधुनिक निर्माताओं को अव्यावहारिक भी लग सकते हैं; तथापि इनकी उपयोगिता है क्योंकि १. इन्हें वास्तु-विद्या के आचार्यों ने लंबे अनुभव के आधार पर लिखा है, २. इनमें ज्योतिष, गणित आदि का समावेश है जो वैज्ञानिक विद्याएँ हैं, ३. इनके पालन से शुभ फल और उल्लंघन से अशुभ फल मिलते हुए देखे गए हैं, ४. ‘वत्थु-सार-पयरण’ में विशेष रूप से लिखा है कि ‘‘जैसे कन्या और वर की कुंडली का मिलान किया जाता है वैसे ही गृहस्वामी और गृह-भूमि की राशि आदि का मिलान भी किया जाना चाहिए।’’ इनका पालन करते हुए भी आधुनिक वैज्ञानिक रीति-नीति अपनाई जा सकती है।
वास्तु-पुरुष मंडल—
वास्तुपुरुष-मंडल से मकान या मंदिर के अधिष्ठान (चौकी), स्तंभ, प्रस्तार, कर्ण, स्तूपी, शिखर आदि भागों की आनुपातिक संयोजना में सहायता मिलती है। इससे संकेत मिलता है कि वास्तु-पुरुष के केश, मस्तक, हृदय, नाभि आदि मर्म-स्थान जहाँ पडते हों, वहाँ स्तंभ नहीं बनाया जाए।
मकान या मंदिर की भूमि (मंडल) पर पेट के बल (अधोमुख) या पीठ के बल (ऊर्ध्व-मुख) एक विशेष मुद्रा में लेटे हुए रेखांकित पुरुष—‘वास्तु-पुरुष’ की परिकल्पना का मूलस्रोत शोध का विषय है परन्तु उससे बहुत पहले ‘लोकपुरुष’ की अनूठी परिकल्पना जैनशास्त्रकार लिपिबद्ध कर चुके थे। ‘पुराण-पुरुष’ के रूप में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ िंकवा आदि-ब्रह्मा की प्रसिद्धि समूचे भारतीय साहित्य में है। ‘कालपुरुष’, ‘तुलापुरुष’, लौहपुरुष’, ‘महापुरुष’ आदि की परिकल्पनाएँ भी उल्लेखनीय हैं।
आयादि—षड्वर्ग (वस्थु-सार-पयरण से)—
आय, नक्षत्र, राशि, व्यय, अंश और तारा—ये छह मुद्दे ही ‘आयादि-षड्वर्ग’ हैं। ‘विश्वकर्म-प्रकाश’ नामक ग्रंथ की व्यवस्था इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है; ‘‘जिस घर की लंबाई ग्यारह हाथ से अधिक बत्तीस हाथ तक हो; उसमें आयादि का विचार करना चाहिए। जो घर इससे अधिक लंबा हो, टूटा-फूटा हो, घास-फूस का बना हो; उसमें आयादि का विचार अनावश्यक है।’’ ‘वत्थुसार—पयरण’ में एक उदाहरण देकर कहा गया है कि ‘‘जिस प्रकार वधू और वर में परस्पर प्रेम—प्रीति होनी चाहिए; उसी प्रकार गृह और गृहस्वामी के नक्षत्र, राशि आदि का मिलान अत्यन्त आवश्यक है।’’
प्रस्तावित भूमि की अंगुलों (लगभग एक इंच) में लंबाई से चौड़ाई का गुणा करके गुणनफल में आठ का भाग दिया जाए क्योंकि ‘आय’ आठ प्रकार के होते हैं। भाग देने पर जो संख्या शेष बचे उसी के क्रमांक का आय उस भूमि का माना जाए। जैसे भूमि की लंबाई १७७ अंगुल ² चौड़ाई १२७ अंगुल · २२४७९ अंगुल क्षेत्रफल; जिसमें ८ का भाग देने पर ७ शेष बचे इसलिए सातवें क्रमांक का आय—‘गज’ (हाथी) माना जाए। आठ आय और उनकी दिशाएँ हैं; ध्वज—पूर्व, धूम्र-आग्नेय, िंसह-दक्षिण, श्वान-नैर्ऋत्य, वृष-पश्चिम, खर-वायव्य, गज-उत्तर, कौआ-ऐशान। इन आयों में ध्वज, िंसह, गज और वृष ‘आय’ शुभ हैं, शेष चारों अशुभ हैं।
उक्त गुणनफल में नक्षत्रों की संख्या ‘सत्ताईस’ का भाग देने पर जो शेष बचे, उसके क्रमांक का नक्षत्र समझा जाए। उदाहरण के लिए उक्त गुणनफल २२४७९ में २७ का भाग देने पर १२ शेष बचे इसलिए बारहवें क्रमांक का नक्षत्र ‘उत्तरा-फाल्गुनी’ माना जाए।
नक्षत्र के संदर्भ में जो क्रमांक आए, उसमें चार का गुणा करने पर आए गुणनफल में संख्या नौ का भाग दिया जाए; जो लब्धि (भागफल) आए वह उसके क्रमांक की राशि मानी जाए। उदाहरण के लिए उपर्युक्त नक्षत्र का क्रमांक (१२ ² ४ · ४८ ´ ९ लब्धि हुई ५; इसलिए पाँचवें क्रमाक की राशि सिंह हुई।
नक्षत्र के संदर्भ में आए क्रमांक १२ में व्ययों की संख्या ८ का भाग देने पर शेष बचा ४; इसलिए चौथा व्यय ‘क्षय’ माना जाए। व्यय की यह संख्या, ४ उपर्युक्त आय की संख्या ७ से कम है इसलिए यह शुभ है; क्योंकि आय से व्यय कम ही होना चाहिए। इस प्रसंग में एक बहुत ही मनोरंजक किन्तु सटीक उदाहरण दिया जा सकता है ‘कमंडलु’ का; जिसमें जल की आय का मुख बड़ा और जल के व्यय की टोंटी छोटी होती है; इसीलिए कहना होगा कि ‘कमंडल में भूमंडल का अर्थशास्त्र छिपा है।’’
भूमि के क्षेत्रफल २२४७९ में उस मकान (की जाति या प्रकार) के अक्षरों की संख्या जोड़ी जाए, जो उस भूमि पर निर्मित हो रहा है। मान लें उस मकान की जाति है ‘विजय’ इसलिए ३ अंक जोड़ने पर संख्या हुई २२४८२; इसमें ४ की संख्या भी जोड़ी जाए क्योंकि आयादि-षड्वर्ग में व्यय का स्थान चौथा है; तब योग हुआ २२४८२ ± ४ · २२४८६; इसमें अंशों की संख्या ३ का भाग देने पर शेष बचा १; इसलिए पहले क्रमांक का अंश ‘इंद्र’ माना जाए।
‘तारा’ जानने के लिए उपर्युक्त नक्षत्र ‘उत्तरा फाल्गुनी’ से गृहस्वामी के नक्षत्र ‘रेवती’ तक गिनने पर १६ की संख्या आती है; उसमें तारा—संख्या ९ से भाग देने पर शेष बचा ७; इसलिए सातवें क्रमांक की तारा मानी जाए।
गृह और गृहस्वामी की राशि आदि का मिलान—
गृह और गृहस्वामी की योनि, गण, राशि, तारा और नाडी का मिलान जन्म—नक्षत्र से होना आवश्यक है। जन्म—नक्षत्र का ज्ञान न हो तो गृहस्वामी के प्रसिद्ध नाम या बोलचाल के नाम से जो नक्षत्र आता हो उससे मिलान किया जाए।
गृह का नाम उसके आकार—प्रकार के अनुसार वास्तु—विद्या में जो निर्धारित हो; उसका प्रयोग किया जाए; निर्धारित न हो सके तो जो नाम उस गृह का प्रचलित हो, उसका प्रयोग किया जाए या फिर अपनी पसंद का कोई भी नाम रखकर उसी से गृहस्वामी के नक्षत्र से मिलान किया जाए।
मंदिर और गृहस्वामी के नक्षत्र से मिलान करना हो, तो मंदिर का वह नाम माना जाए, जो उसके मूलनायक का हो; अर्थात् मंदिर में मुख्य—मूर्ति जिस तीर्थंकर की हो, उसी के नाम से वह मंदिर प्रसिद्ध होता है। उदाहरणस्वरूप किसी मंदिर में यदि आदिनाथ स्वामी की प्रतिमा मूलनायक के रूप में विराजमान है तो उस मंदिर का नामकरण ‘आदिनाथ स्वामी दिगंबर जैन मंदिर’—इस तरह से किया जाएगा। इस मिलान में यह तालिका सहायक होगी ;
आवास गृहों का सामूहिक निर्माण—
भूमि, समय, श्रम और धन की बचत के लिए और सहकारिता की दृष्टि से सामूहिक आवास योजनाएँ अब सर्वत्र प्रचलित हो रही हैं। यद्यपि इनके अधिक लाभ हैं; किन्तु कुछ हानियाँ भी हैं। अत: इनमें भूमि, भवन और साझा व्यवस्था में विवादों से बचने के लिए दीवारें, जीना, गृह—वाटिका (किचन गार्डन) आदि कम—से—कम बनाए जाएँ।
सामूहिक आवास योजना के लिए भूखंड के चयन में यह ध्यान रखना आवश्यक है। कि बरसात के पानी का बहाव उत्तर—पूर्व की ओर हो। इसी तरह सड़कों का निर्माण उत्तर—दक्षिण और पूर्व—पश्चिम में हो। कॉलोनी के गेट दो हों, पूर्व में और उत्तर में। यह प्रयास किया जाए कि आवास चतुर्भुज आकार में हों; उनमें प्रात:कालीन सूर्य किरणों का प्रवेश हो सके।
इस प्रकार के निर्माण में सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्तिगत और सामूहिक सुविधाएँ जुटाई जाएँ। सहकारिता की सद्भावना का अतिरिक्त लाभ उठाकर सांस्कृतिक, साहित्यिक और व्यावसायिक कार्य—कलाप हाथ में लिए जाएँ। सहकारिता के इस माध्यम से अनेकता में एकता की स्थापना द्वारा देश सेवा भी की जा सकती है।
बहुमंजिले (मल्टी—स्टोरीड) भवन—
वास्तु विद्या के नियमों और उपनियमों की दृष्टि से, एक बहुमंजिला भवन भी एक प्रकार की सामूहिक आवास योजना है। वैज्ञानिक और सामूहिक सुविधाएँ दोनों में समान रूप से चाहिए।
भूखंड का ढलान उत्तर—पूर्व में हो, दक्षिण—पश्चिम क्षेत्र के तल की ऊँचाई अधिक हो। भवन की चारों ओर खुली जगह तथा दक्षिण—पश्चिम में कम खाली स्थान छोड़ें। पूर्व में खुली जगह पश्चिम से अधिक हो। उत्तर एवं उत्तर—पूर्व में खुली जगह दक्षिण एवं दक्षिण—पश्चिम से अधिक हो। भूखंड का दक्षिण—पश्चिम कोण समकोण हो, ९००, जिससे चौकोर या आयताकार मकान बन सकें। उत्तर पूर्व या दक्षिण—पूर्व में मार्ग हों।
निर्माण कार्य प्रारंभ करने से पूर्व ही कुओं या ट्यूबवेल, उत्तर—पूर्व अर्थात् ‘ईशान कोण’ में बनाया जाए। छत पर पानी की टंकी वायव्य कोण में हो। अग्नि—शमन आदि की वैज्ञानिक व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया जाए।
प्रथम तल से ऊपरी तल की ऊँचाई कम रखनी चाहिए, परन्तु बहुमंजिलें भवनों में ऐसा करना कठिन होता है अत: सबसे ऊपर की मंजिल की ऊँचाई थोड़ी कम रखी जा सकती है। ऊपर की मंजिलों का निर्माण इस तरह से करें कि प्रात:कालीन सूर्य की किरणें सभी आवासों को प्राप्त हों और वायु का प्रवेश किसी भी आवास में नहीं रुके।
ज्यादातर आवासों की बालकनी पूर्व और उत्तर दिशा में ही हो, और जहाँ तक संभव हो दक्षिण या पश्चिम दिशा में नहीं। स्टोर आदि आवास के दक्षिण—पश्चिम भाग में ही हों।
सीढ़ियाँ दक्षिण या पश्चिम दिशा में या जहाँ तक संभव हो दक्षिणी—पश्चिमी क्षेत्र में बनाएँ, उत्तर—पूर्व में नहीं। आवासों के मुख्य दरवाजे पूर्व, उत्तर—पूर्व और उत्तर—पश्चिम की ओर हों। रसोईघर दक्षिण—पूर्व या उत्तर—पश्चिम में हों।
छोटे वाहनों की पार्किंग का जमीन के अंदर (अंडरग्राउंड) स्थान उत्तर—पूर्व में और बेसमेंट उत्तर या पूर्व क्षेत्र में हों, दक्षिण एवं पश्चिम में नहीं। उत्तर—पूर्व के खुले स्थान में पार्क हों। वृक्ष कम ऊँचाई वाले हों ताकि वायु—संचार नहीं रुके। दक्षिण दिशा में बड़े वृक्ष भी लगाए जा सकते हैं।
औद्योगिक उपयोग के भवन—
औद्योगिक संस्थान के लिए भूखंड के पूर्व में, उत्तर में या उत्तर—पूर्व में मार्ग उत्तम होता है। प्रवेशद्वार उत्तर—पूर्व में या पूर्व में या उत्तर—पश्चिम में हो। औद्योगिक भवनों में दक्षिणी—पश्चिमी भाग ऊँचा बनाया जाए। संस्थान का प्रशासनिक भवन पैâक्टरी भवन से नीचा हो और मध्य में उत्तर या पूर्व दिशा में हो। जनरेटर का कमरा दक्षिण में हो या दक्षिण—पूर्व में। भूखंड के उत्तर—पूर्व में अन्य दिशाओं की अपेक्षा अधिक खुला स्थान, दरवाजे, खिड़कियाँ आदि हों। सुरक्षा कर्मचारियों के लिए स्थान उत्तर—पश्चिम या उत्तर में बनाएँ। कम&चारियों के आवास दक्षिण—पूव& या उत्तर—पश्चिमी औद्योगिक भवन की दीवार से दूर हों। शौचालय दक्षिण—पश्चिम (नैऋत्य कोण) में हो। भवन के दक्षिण और पश्चिम में अधिक ऊँचे वृक्ष लगाए जा सकते हैं। परन्तु भवन के पूव& एवं उत्तर में कम ऊँचाई वाले वृक्षों के बगीचे–पाक& हों, जिससे सूय& का प्रकाश न रुके। कुआँ या ट्यूबवेल पूव&–उत्तर में, दीवार और गेट से थोड़ी दूर पर हो। उत्तर—पश्चिम में ओवरहेड टैंक स्थापित करें। भारी सामान का भंडारण दक्षिण—पश्चिम क्षेत्र में और वाहनों की पार्किंग उत्तर—पश्चिम में हो। भारी मशीनरी दक्षिण, पश्चिम या दक्षिण—पश्चिमी दिशा में स्थापित करें। आग संबंधी सभी काय& जैसे भट्टी, बॉयलर आदि दक्षिण—पूव& में रखें।
उद्योग में लगने वाली सामग्री दक्षिण, पश्चिम, या दक्षिण—पश्चिम दिशा में रखने का स्थान (स्टोर) हो। उत्तर—पूव& में तैयार माल रखें। अधबना माल पश्चिमी क्षेत्र में और तैयार माल उत्तर—पश्चिम में रखा जा सकता है। कच्चे माल का उत्पादन दक्षिण—पश्चिम से प्रारम्भ हो। उसकी निकासी उत्तर—पूव& की ओर से हो।
भवनों के निमा&ण में यंत्रों की भूमिका दिनोंदिन बढ़ रही है। परम्परागत सामग्री का स्थान कृत्रिम सामग्री लेती जा रही है। रेडीमेड दीवारों आदि को नट—बोल्ट से कसकर बड़े-बड़े भवन बनाए जा सकते हैं; नट—बोल्ट खोलकर वही भवन स्थानान्तरित किये जा सकते हैं।
विद्युत—उपकरणों, कम्प्यूटरों, यंत्र—मानवों (रोबोट्स) आदि पर आधारित व्यवस्थाओं और सुविधाओं ने भवनों को इतना चमत्कारी, स्वयंचल (ऑटोमैटिक) और संवेदनशील (सेंसिटिव) बना दिया है कि उनके लिए एक नया शब्द चल पड़ा है, ‘इंटैलिजेंट बिल्डिंग’ (समझदार भवन)।
भवनों की सुरक्षा, अंतरंग यातायात, वाता&लाप आदि में इंटरकॉम, शार्ट—सर्किट टी. वी. आदि के साथ अब कम्प्यूटर की सहायता भी ली जाने लगी है। अवांछित व्यक्तियों और सामान के प्रवेश का निषेध, वातावरण का नियंत्रण (एयर कंडीशिंनग), आग, तूफान, भूकंप आदि की भविष्यवाणी और उनसे बचाव, विद्युत्—आपूर्ति और जल के शुद्धीकरण की स्वचालित व्यवस्था, भवनों का रखरखाव और साज—शृंगार (इंटीरियर डेकोरेशन) आदि यंत्रचालित और कप्यूटरीकृत हो चले हैं।
बहु-मंजिले भवनों में उत्थापक (लिफ्ट) और चक्र—सोपान (एलिवेटर) की व्यवस्था साधारण बात हो गई है। बटन चटकाने भर से रिमोट कंट्रोल से द्वार खुलते या बंद होते हैं, परदे उठते गिरते हैं, यहाँ तब कि बाहर चल रही शीतल—सुखद बयार की अगवानी में खिड़कियाँ अपने आप खुल पड़ती हैं और वातानुकूलन स्थगित हो जाता है। प्राकृतिक प्रकाश का आर्थिक लाभ उठाने के लिए कृत्रिम प्रकाश—व्यवस्था स्वयं स्थगित हो जाती है। यह निश्चित संभावना कितनी आनंदवध&क है कि विज्ञान के अनंत आविष्कारों से वास्तु—विद्या का भविष्य भी अद्भुत—अपूर्व चमत्कारों से भर उठेगा।
वास्तु—विद्या पर सर्वप्रथम ‘अर्थवेद’ में प्रकाश डाला गया, फिर पुराण, ज्योतिष, प्रतिष्ठा आदि के ग्रंथों में भी इस विषय को प्रसंगानुकूल स्थान दिया गया। ‘डिक्शनरी ऑफ हिन्दू आर्किटेक्चर’ में डॉ. प्रसन्न कुमार आचार्य ने वास्तु—विद्या पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रकाश डालने वाले लगभग दो सौ सात ग्रंथों के नाम संकलित किए हैं, उनमें अनेक जैन ग्रंथ भी हैं। शैली की दृष्टि से ये ग्रंथ दक्षिणी और उत्तरी परम्पराओं में रखे जाते हैं।
दक्षिणी परम्परा के मुख्य ग्रंथ हैं—
शैवागम, वैष्णव पंचरात्र, अत्रि—संहिता, वैखानसागम, दीप्ति—तन्त्र; तंत्र—समुच्चय आदि। उत्तरी परम्परा के प्रमुख हैं : मत्स्य पुराण, अग्नि—पुराण, भविष्य पुराण, बृहत्—संहिता (ज्योतिष ग्रंथ); किरण—तंत्र, हयशीर्ष—पंचरात्र, विष्णुधमो&त्तर—पुराण (चित्र—कला के लिए विशेष), और हेमाद्रि, रघुनंदन आदि के प्रतिष्ठा ग्रंथ। वास्तु—विद्या पर स्वतंत्र रूप से लिखे गए वैदिक ग्रंथों में विशेष उल्लेखनीय हैं : विश्वकर्मा का शिल्प—शास्त्र, मय—मत, मानसार, काश्यप—शिल्प (अंशुमद्—भेद), अगस्त्य—सकलाधिकार, सनत् कुमार—वास्तुशास्त्र, शिल्पसंग्रह, शिल्परत्न, चित्र—लक्षण दक्षिणी परम्परा में; और विश्वकम&—प्रकाश, समरांगण—सूत्रधार—मंडन, वास्तु—रत्नावली, वास्तु–प्रदीप आदि।
करणानुयोग के ग्रंथों में वास्तु–विद्या—
जैनपुराणों तथा करणानुयोग के प्राय: सभी ग्रंथों से वास्तु—विद्या और शिल्पशास्त्र पर विशद प्रकाश पड़ता है। तीन लोक, मध्यलोक, जम्बूद्वीप, मेरु, समवसरण आदि की रचना पर सहस्रों गाथाएँ और श्लोक हैं। प्रतीत होता है कि उन रचनाओं से विशाल राज—प्रासाद, भव्य जिनालय आदि के रूप—निर्धारण में प्रेरणा ली गई थी। जिनालय तो स्पष्टरूप से समवसरण का लघु रूप होता है। नन्दीश्वरद्वीप की रचना आज भी आष्टाह्निक (अठाई) पर्वो पर की जाती है।
करणानुयोग का प्राचीन किन्तु अनुपलब्ध ग्रंथ है ‘लोयविभाग’, जिसका संस्कृत रूपान्तर ‘लोक—विभाग’ के ही नाम से मुनि सिंह सूरि (लगभग ११वीं शती) ने किया था। उन्होंने लिखा है कि मूल ‘लोकविभाग’ की रचना पल्लववंशी कांची नरेश सिंहमार्ग के शासन—काल में शक संवत् ३८० (३०२ ई.) में मुनि सर्वनन्दी ने पाटलिक नामक ग्राम में की थी; परन्तु यह ग्रंथ इससे भी पूव& रहा प्रतीत होता है, क्योंकि ‘लोयविभाग’ का उल्लेख ‘तिलोयपण्णत्ती’ (१७६ ई.) में कई बार हुआ है। ‘नियमसार’ की सत्रहवीं गाथा में सन्दर्भित ‘लोय-विभाग’ यही ग्रंथ माना जाए, तो उसका रचनाकाल आचार्य श्री कुन्दकुन्द (५२ ई. पू. से ४८ ई. तक) से पूर्व मानना होगा।
एक और अनुपलब्ध ग्रंथ है ‘ज्योतिष्करण्डक’, जो कि ‘सूर्य—प्रज्ञप्ति’ नामक प्राचीन ग्रंथ पर आधारित है और जिस पर आचार्य पादलिप्त सूरि (५वीं शती) की ‘प्रकरण’ टीका तथा आचार्य मलयगिरि की टीका उपलब्ध है।
उपलब्ध ग्रंथों में सर्वाधिक विस्तृत और सूचनाप्रधान ग्रंथ है आचार्य यतिवृषभ का ‘तिलोयपण्णत्ती’, जिसका अनुसरण अनेक आचार्यों ने किया है। उसमें अनेक नगरियों के विस्तृत विवरण हैंं। आवासगृह, जलाशय, बाजार, परकोटा, प्रवेशद्वार, राजभवन, गुफा, स्तूप, मंदिर, मानस्तम्भ, मेरु आदि की लम्बाई—चौड़ाई, ऊँचाई–गहराई, नाप—जोख आदि तक बताए गए हैं। तीर्थंकर के समवसरण का वर्णन तो और भी विस्तार से है। आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का त्रिलोकसार (११वीं शती), आचार्य पद्मनन्दि का ‘जंबूद्दीवपण्णत्ती’ आदि भी उल्लेखनीय हैं।
इनके अतिरिक्त भी कुछ उल्लेखनीय ग्रंथ हैं : औपपातिकसूत्र, जीवाजीवाभिगम, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति, जिनभद्र गणी का ‘क्षेत्रसमास’ और ‘संग्रहणी’, बृहत्—क्षेत्रसमास (त्रैलोक्य—दीपिका), चंद्र सूरि (१२वीं शती) द्वारा संकलित ‘बृहत्—संग्रहणी’, प्रद्युम्न सूरि (१३वीं शती) का ‘विचारसार प्रकरण’, रत्नशेखर सूरि (१४वीं शती) का ‘लघुक्षेत्रसमास’, सोमतिलक सूरि (१४वीं शती) का ‘बृहत्—क्षेत्रसमास’, आदि।
प्रतिष्ठा-पाठों में वास्तु—विद्या—
जिनवाणी की भाँति वास्तु—विद्या भी आरंभ में गुरु—शिष्य परम्परा से मौखिक रूप में प्रचलित रही। वास्तु—विद्या का ज्ञाता और वास्तु—निर्माण में कुशल सूत्रधार यह विद्या विरासत में लेता और विरासत में देता रहा। स्वतन्त्र ग्रंथ के रूप में नहीं बल्कि प्रतिष्ठा—ग्रंथ के एक अंग के रूप में या फिर वास्तु—विद्या और मूर्ति—कला पर संयुक्त ग्रंथ के रूप में लगभग तेरहवीं शती से इसे लिखित रूप मिला। संभवत: इसका एक कारण यह रहा कि ये विषय एक—दूसरे से इतने अधिक जुड़े हुए हैं कि उन पर स्वतंत्र ग्रंथ लिखना उस समय व्यावहारिक प्रतीत नहीं हुआ होगा।
ऐसी रचनाओं में पाँचवीं शती के आचार्य पादलिप्त सूरि की ‘निर्वाणकलिका’, दसवीं शती के उत्तरार्द्ध के आचार्य वीरनन्दी द्वितीय की ‘शिल्पिसंहिता’ और आचार्य इंद्रनन्दि का ‘प्रतिष्ठा—पाठ’, लगभग ग्यारहवीं शती के आचार्य ब्रह्मदेव का ‘प्रतिष्ठातिलक’; पंडित आशाधर का ‘प्रतिष्ठा सारोद्धार’ (१२२८ ई.) और ‘पूजा—पाठ’, उनके समकालीन पंडित ठक्कुर फेरु का ‘वत्थु—सार-पयरण’ (१३१५ ई.) प्रसिद्ध नाटककार हस्तिमल्ल का ‘प्रतिष्ठापाठ’, बारहवीं—तेरहवीं शती के पण्डित नेमिचंद्रदेव का ‘प्रतिष्ठा—तिलक’, तेरहवीं शती के नेमिचंद्र सूरि (उपर्युक्त पण्डित जी ?) प्रवचन-सारोद्धार और उस पर उसी समय के सिद्धसेन सूरि (देवभद्र के शिष्य) की तत्त्व ज्ञान-विकासिनी नामक टीका, उपाध्याय सकल चन्द्र का प्रतिष्ठाकल्प का, आचार्य उग्रादित्य का ‘कल्याण—कारक’ आ. श्री जयसेन द्वारा लिखित ‘प्रतिष्ठापाठ’ (वसुबिन्दु) एवं वसुनन्दि आचार्य का ‘प्रतिष्ठापाठ’ आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। आ. श्री जयसेनकृत ‘प्रतिष्ठापाठ’ में मंदिर के निर्माण के संबंध में विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है।
पंडित आशाधर का ‘प्रतिष्ठा—सारोद्धार—
भारतीय साहित्य की अधिकांश विधाओं में पंडित आशाधर का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। १२२८ ई. में लिखे गए उनके ‘प्रतिष्ठा—सारोद्धार’ में मूर्ति—प्रतिष्ठा के माध्यम से वास्तु—विद्या का भी विधान है। ‘जिन—यज्ञकल्प’ के दूसरे नाम से भी प्रसिद्ध ‘प्रतिष्ठा—सारोद्धार’ प्रौढ़—प्राञ्जल संस्कृत में ९७१ श्लोकों के छह अध्यायों में विभक्त है—१. सूत्र—स्थापन, २. तीर्थ—जल का लाया जाना आदि, ३. यागमंडल की पूजा, ४. जिन—प्रतिष्ठा, ५. अभिषेक आदि एवं ६. सिद्ध आदि की प्रतिष्ठा। अंत में ग्रंथकार की विस्तृत प्रशस्ति है।
जिनवाणी के अनन्य उपासक पंडित आशाधर ने इस ग्रंथ में शुद्ध आम्नाय के अनुसार गृहस्थाचार्य, प्रतिष्ठाचार्य आदि को महत्त्व देते हुए मंदिरों के जीर्णोद्धार का विधान भी किया है।
ठक्कुर फेरु का ‘वत्थु—सार—पयरण’—
वास्तु—विद्या पर स्वतंत्र और सांगोपांग रूप से वर्णन करने वाला कदाचित् एकमात्र प्रकाशित जैनग्रंथ है ठक्कुर फेरु का ‘वत्थुसार—पयरण’ अर्थात् ‘वास्तुसार—प्रकरण’। १३१५ ई. में लिखित इस प्राकृत ग्रंथ में क्रमश: १५८, ५४ और ७० गाथाओं के क्रमश: तीन अध्याय हैं—गृह—प्रकरण, बिंबपरीक्षा—प्रकरण, प्रासाद (मंदिर)—प्रकरण। इतनी कम गाथाओं में वास्तु–विद्या और शिल्प—कला के अधिसंख्य पक्षों का विधान इस ग्रंथ की एक विशेषता है। साथ ही इसमें दिगम्बर—श्वेताम्बर भेदभाव नहीं है। इसके संदर्भ ‘आचार—प्रदीप’, ‘श्राद्ध—विधि’ आदि जैनेतर ग्रंथों में भी दिए गए हैं।
‘रत्न—परीक्षा’ नामक ग्रंथ के भी लेखक ठक्कुर फेरु दिल्ली के निकट करनाल के धंध कुल में उत्पन्न कालिक सेठ के प्रपौत्र और ठक्कुर चंद्र सेठ के पुत्र थे। उन्होंने यह ग्रंथ उस समय लिखने का साहस किया, जब तत्कालीन शासक अलाउद्दीन खिलजी से सभी धर्मों के अनुयायी त्रस्त थे।
‘वत्थु—सार—पयरण’ का प्रकाशन जैन विविध ग्रंथमाला, जयपुर से १९३६ में हुआ था; इसके संपादक—अनुवादक पं. भगवानदास जैन थे। प्रस्तुत पुस्तक के निर्माण में यह आधार—ग्रंथ हैं।
अन्य विषयों के ग्रंथों में वास्तु—विद्या—
वास्तु—विद्या के लिए पुराण—साहित्य का योगदान भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस विषय पर आचार्य श्री जिनसेन ने ‘हरिवंशपुराण’ (७८३ ई.) में अत्यधिक विस्तार से लिखा है। उनके बाद उल्लेखनीय हैं : आचार्य पुष्पदन्त (१०वीं शती) का अपभ्रंश ‘महापुराण’, आचार्य हेमचन्द्र सूरि (१२वीं शती) का ‘प्राकृत तिसिट्ठ—महापुरिस—गुणालंकार’, आचार्यकल्प पंडित आशाधर (१३वीं शती) का ‘त्रिषष्टि—शलाकापुरुष—चरित’ आदि।
इनके अतिरिक्त काव्य, नाटक, चंपू आदि ग्रंथों में विभिन्न नगरों, राजाप्रसादों, जिनालयों आदि के वर्णन आते हैं; उनसे भी वास्तु—विद्या के स्वरूप पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। ज्योतिष के ग्रंथों में भी मकान, मंदिर आदि के निर्माण की विधि, मुहूर्त, फलाफल आदि पर विचार करते समय वास्तुविद्या के संदर्भ आते हैं। इसी प्रकार गणित, मंत्र—तंत्र और ऐसे ही अन्य विषयों के ग्रंथों में भी इस विषय के प्रसंग आते हैं। आचार्य उमास्वामी के नाम से प्रचलित एक श्रावकाचार ग्रंथ में भी लिखा है कि ‘घर की किस दिशा में कौन—सा कक्ष हो।’
सामाजिक उत्थान, मनोवैज्ञानिक परिवर्तन, औद्योगिक प्रगति और वैज्ञानिक चमत्कारों ने मिलकर वास्तु विद्या का भी अभूतपूर्व विकास किया है। प्राचीन आचार्यों द्वारा बनाए गए नुस्खे और नियम बेकार साबित नहीं हुए हैं; परन्तु उनकी माँग को निर्माण की नई—नई विधियों, शैलियों, सामग्रियों आदि ने प्रभावित अवश्य किया है।
उपर्युक्त सभी बातों को ध्यान में रखकर वास्तु—विद्या पर नए ग्रंथ भी लिखे जा रहे हैं, प्राचीन ग्रंथों के आधार पर और स्वतंत्र िंचतन के आधार पर भी, शोध—खोज के स्तर पर और व्यावसायिक स्तर पर भी, भारत में और भारत के बाहर भी। इन ग्रंथों का सर्वेक्षण और मूल्यांकन एक बहुत बड़ा काम है। जैनदृष्टि से यह काम किसी सीमा तक स्व. डॉ. यू. पी. शाह, प्रो. एम. ए. ढाकी और डॉ. गोपीलाल ‘अमर’ ने किया है। फिर भी इस विषय पर शोध—खोज की बहुत आवश्यकता है।
चूँकि वास्तु—विद्या के प्राचीन, मध्यकालीन और नवीन ग्रंथों में एक भी ऐसा नहीं है, जिसमें इस विद्या के प्रत्येक अंग और उपांग की सविस्तार व्याख्या वैज्ञानिक और तुलनात्मक दृष्टि से की गई हो; इसलिए यह शोध अधिक आवश्यक है। सामान्य दृष्टि से इस दिशा में डॉ. प्रसन्न कुमार आचार्य, डॉ. तारापद भट्टाचार्य, डॉ. द्विजेन्द्र नाथ शुक्ल, श्री अमलानन्द घोष, प्रो. कृष्णदेव आदि ने कुछ काम किया है; परन्तु जैन दृष्टि से अभी पर्याप्त कार्य होना बाकी है। ‘जैन आर्ट एंड आर्किटेक्चर’ और ‘जैन कला और स्थापत्य’ के तीन—तीन खंड भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से ‘आस्पेक्ट्स ऑफ जैन आर्ट एंड आर्किटेक्चर’ ला. द. इंस्टीट्यूट, अहमदाबाद से ‘पैनोरमा ऑफ जैन आर्ट’ टाइम्स ऑफ इंडिया नई दिल्ली से तथा कुछ अन्य ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं। वे अच्छे हैं, किन्तु अपर्याप्त हैं। वास्तव में ‘जैन वास्तु विद्या’ पर एक विश्वकोश की आवश्यकता है।
गृहों में वास्तु शान्ति कब—कब करना
वास्तुपूजां प्रकुर्वीत गृहारम्भ—प्रवेशने।।१८।।
द्वाराभिवर्तने चैव, त्रिविधेच प्रवेशने।
प्रतिवर्षञ्च यज्ञादौ, तथा पुत्रस्य जन्मनि।।१९।।
व्रतबन्धे विवाहे च, तथैव च महोत्सवे।
जीर्णोद्धारे सस्यन्मासे, धान्य—रक्षण एव च।।२०।।
वङ्कााभिदूषिते भग्ने, सर्प—चाण्डाल—वेष्टिते।
उलूक—वासिते सप्त—रात्रौ काकाधिवासिते।।२१।।
मृगाधिवासिते रात्रौ, गो—मार्जाराभिनादिते।
वारणाश्वादि—विरुते, स्त्रीणां युद्धाभिदूषिते।।२२।।
कपोतक—गृहावासे, मथूनां निलये तथा।
अन्यैश्चैव महोत्पातै—दूर्षिते शान्तिमाचरेत्।।२३।।
अर्थ—यजमान को गृहारम्भ, द्वार निर्माण, तीन प्रकार के गृहप्रवेश, (नूतन गृहप्रवेश, यात्रा से लौट कर आने पर गृहप्रवेश और जीर्णोद्धार के बाद गृहप्रवेश), प्रतिवर्ष यज्ञादिकाल में, पुत्र—जन्म, व्रतबन्ध, विवाह, बड़े महोत्सव, जीर्णोद्धार, धान्यरक्षण, बिजली—अग्नि आदि प्रकोप से दूषित, सर्प या चाण्डाल आदि से घिरा रहा हो, उल्लू एवं काग (कौवा) सात रात्रि तक निवास कर गये हों, हरिण का वास हो, रात्रि में गौ और बिल्ली आदि शब्द करते हों, हाथी—घोड़े विशेष शब्द करें, स्त्रियों के झगड़े हों, कबूतर वास करते हों, मधुमक्खियों के छत्ते हों एवं जिस घर में बड़े—बड़े उत्पात होते हों उस घर में शान्ति अवश्य करनी चाहिए अर्थात् णमोकार मन्त्र का या भक्तामरजी का अखण्ड पाठ कराकर पूजन करें अथवा शान्तिमण्डल या पञ्चपरमेष्ठी का विधानादि अवश्य करना चाहिए।
शिल्पशास्त्रियों ने सुखपूर्वक जीवनयापन करने हेतु मनुष्यों के सभी कार्यों के लिए दिशाओं की अनुकूलतानुसार मकान में कक्षों का निर्धारण किया है। जैसे—जन्म के लिए प्रसूतिगृह वायव्यकोण में बनाना चाहिए। शिशु की बुद्धि को पूर्णतया विकसित करने हेतु बालकक्ष भी इसी कोण में होना चाहिए। उसके अध्ययन हेतु अध्ययनकक्ष एवं पूजन हेतु पूजाकक्ष के लिए ईशान कोण निश्चित है। इसी प्रकार मनोरंजनकक्ष दक्षिण या वायव्य में, विवाह पूर्व शयनकक्ष पूर्व या उत्तर में, विवाह पश्चात् पूर्व एवं ईशान दिशाएँ छोड़कर तथा गृहपति बनने के बाद नैऋत्य कोण में शयनकक्ष होना चाहिए। इस प्रकार जन्म से लेकर जीवनोपयोगी सभी कार्यों हेतु अनुकूल स्थानों का निर्धारण किया गया है किन्तु मरणकक्ष का निर्धारण किसी शिल्पज्ञ ने नहीं किया। इससे ज्ञात होता है कि हमारे ऋषियों–मुनियों को घर में किसी का भी म्ारण इष्ट नहीं था। अर्थात् उनका यह अभिप्राय रहा है कि मनुष्य को अपने जीवन में संन्यास धारण कर, गृहवास से विरक्त हो, अपनी आत्मा का कल्याण अवश्य करना चाहिए।