‘मंदिर’ शब्द का अर्थ और भावार्थ
‘मंदिर शब्द का अर्थ संस्कृत में देवालय भी होता है और आवासगृह भी; परन्तु हिन्दी में वह प्राय: देवालय के अर्थ में ही चलता है। जैन साहित्य में एक शब्द और भी इस अर्थ में विशेष रूप में चलता रहा है, वह है ‘आयतन’ जिसका प्रयोग जिनायतन के अन्तर्गत होने लगा और उसके भी बाद मंदिर, आलय, प्रासाद, गेह, गृह आदि शब्दों ने उसका स्थान ले लिया। ‘जिनायतन’ शब्द के प्रचलन से एक बात सूचित होती है कि मंदिर में ‘जिन’ भगवान् की मूर्ति के रूप में निवास होता था। ‘मूर्ति’ के लिए ‘चैत्य’ शब्द का भी चलन था, इसीलिए ‘चैत्यालय’ शब्द भी मंदिर के अर्थ में आज भी चलता है। अकृत्रिम चैत्यालयों में विराजमान जिनिंबबों को अर्घ्य देने का विधान भी आज जैन पूजा पाठ का एक अंग है। ‘अकृत्रिम चैत्यालय’ का अर्थ है विजयार्ध पर्वत, कुलाचलों आदि पर विद्यमान शाश्वत जिनायतन, जिनका निर्माण नहीं किया जाता।
मंदिर को एक अतदाकार स्थापना या प्रतीक मानना अधिक तर्कसंगत होगा; वह मेरु का नहीं बल्कि समवसरण का प्रतीक हो सकता है, जो तीर्थंकर की सभा के लिए दिव्य माया से निर्मित विशाल सभागार होता है; पाँचों परमेष्ठियों में जिनकी वंदना सर्वप्रथम की जाती है उनमें तीर्थंकर ही ऐसे हैं, जो अपना उपदेश केवल समवसरण में देते हैं और मूर्ति के रूप में सर्वप्रथम अंकन भी उन्हीं का हुआ और उन्हीं का तदाकार प्रतीक प्रत्येक मंदिर में मूल—नायक के स्थान पर होना अनिवार्य है।
अनेक प्राचीन और नवीन मंदिरों के समक्ष मानस्तम्भ विद्यमान हैं जो समवसरण का ही एक भाग होता है। यही कारण है कि एक बार मंदिर—स्थापत्य के रूप में प्रतीकबद्ध हो चुका समवसरण, किसी दूसरे लघु प्रतीक के रूप में भी प्रस्तुत नहीं किया गया।
जैन मंदिर का विकास अपनी समकालीन परम्पराओं के मंदिरों के साथ ही एक प्रवाह में कभी तीव्र और कभी मंद गति से ही रहा। यही कारण है कि अन्य परम्पराओं के मंदिरों के मध्य एक जैन मंदिर की पहचान के लिए सूक्ष्म परीक्षा की आवश्यकता होती है या फिर उसके लिए किसी अभिलेख या साहित्य का स्पष्ट उल्लेख या परम्परागत प्रमाण या किसी मूर्ति का होना आवश्यक है।’’
जैन मूर्तिकला का विकास भी समकालीन परम्पराओं के साथ हुआ, किन्तु एक ही प्रवाह में नहीं; जबकि जैन मंदिर उसी प्रवाह में विकसित हुआ, इसका परिणाम यह भी हुआ कि जैन स्थापत्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने को पृथक््â रूप में लिखे गए ग्रंथों की संख्या अत्यन्त कम है।
मंदिर का गर्त—विवर या नींव का गड्ढा इतना गहरा हो कि वहाँ या तो भूगर्भ से जल निकलने लगे या शिलातल निकल आए। गर्त—विवर के मध्य धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कोण—शिला स्थापित की जाए। जिस दिशा में खात हुआ हों, वहीं नींव में शिलान्यास विधि की जाती है। ज्योतिष के अनुसार जिस दिशा में सूर्य हो, उस कोण में पंचपरमेष्ठी की पूजन करके नीचे एक फुट लंबी—चौड़ी शिला स्थापितकर, उस पर स्वस्तिक व प्रशस्ति सहित विनायक—यंत्र स्थापित करें। प्रशस्ति में मंदिर निर्माता का नाम, तिथि, संवत् आदि उत्कीर्ण होते हैं। पश्चात् वहाँ छोटा ताम्रकलश स्थापित करें, जिसमें दीपक प्रज्वलित करें। उस पर एक दूसरी १ फुट ² १ फुट की शिला रख देवें। आसपास की ईंटों से उसे सीमेंट द्वारा समतल किया जाये। इस धार्मिक मंदिर भूमि के बाहर (आगे) शिलापट्ट पर मंदिर—सम्बन्धी प्रशस्ति उत्कीर्ण की जाये किसी व्यक्ति—विशेष के द्वारा उसका अनावरण कराया जाए—यही शिलान्यास विधि है। इसे विशिष्ट मुहूर्तों में ही किया जाना चाहिए।
कोण | अग्नि | ईशान | वायव्य | नैऋत्य |
गृहारम्भ | सिंह, कन्या, तुला | वृश्चिक, धनु, मकर | कुम्भ, मीन, मेष | वृष, मिथुन, कर्क |
देवालय | मीन, मेष, वृश्चिक | मिथनु, कर्क, सिंह | कन्या, तुला, वृष | धनु, मकर, कुम्भ |
जलाशय | मकर, कुम्भ, मिथुन | मेष, वृश्चिक, मीन | कर्क, सिंह, कन्या | तुला, वृश्चिक, धनु |
अधिष्ठान—इसके पश्चात् उस गड्ढे को सघनता से भर दिया जाए और उसके तल को कूटकर ठोस बना दिया जाए। इस विधि से निर्मित भूतल पर अधिष्ठान अर्थात् पीठ या चौकी का निर्माण किया जाए। ‘अधिष्ठान’ परिस्थितियों के अनुसार समतल भी बनाया जा सकता है और उस पर एक से पाँच तक स्तर भी बनाए जा सकते हैं, जिन्हें ‘थर’ या ‘प्रस्तर-गल’ कहते हैं। कोण या कर्ण, प्रतिरथ, रथ, भद्र और मुखभद्र अधिष्ठान के विभिन्न ‘घटक’ या ‘गोटा’ हैं; परन्तु वे मुख्य भवन के ही अंग माने गए हैं। किन्तु नंदी, पल्लव, तिलक और तवंग ‘पीठ’ के घटक होने पर भी वे मंदिर के अलंकार—तत्त्वों में परिगणित हैं।
मंडोवर—‘मंडोवर’ के तेरह अंग होते हैं। मंडोवर शब्द पश्चिम भारत में प्रचलित है और संस्कृत ‘मंडपवर’ या ‘मंडपधर’ शब्द का स्थानीय या अपभ्रंशरूप प्रतीत होता है। मंडोवर वास्तव में भित्ति या बाहरी दीवाल है, जिस पर प्रासाद के एक या अनेक मंडपों की छत आधारित होती है। सूत्रधार मंडन ने मंडोवर के चार भेद बताए हैं; नागर, मेरु, सामान्य और प्रकारांतर।
शिखर—‘शिखर’ एक वृत्ताकार छत है, जो भवन पर उल्टे प्याले की भाँति ऊँची होती जाती है। उसके चार अंग होते हैं; शिखर, शिखा, शिखांत और शिखामार्ग। शिखर के ऊपरी अंगों का विभाजन एक अन्य प्रकार से भी किया जाता है: छाद्य, शिखर, आमलसार या आमलक और कलश। ‘आमलक’ के अंग हैं—गल, अंडक, चंद्रिका और आमलसारिका। कलश साधारणत: शिखर का सबसे ऊपर का भाग कहलाता है; उसके अंग हैं—गल कर्णिका और बीजपूरक। शुकनासा या शुकनासिका शिखर का वह अगला भाग है, जिसका आकार तोते की चोंच की भाँति होता है। शिखर के ऊपरी भाग पर दंडसहित ध्वज स्थापित किया जाए ‘ध्वजहीनं न कारयेत्’’।
मंदिर के द्वार की चौड़ाई ऊँचाई से आधी होनी चाहिये। द्वार की चौखट पर यथास्थान तीर्थकरों, प्रतीहार—युगल, मदनिका (सुंदरी) आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण की जाएँ। जीर्णोद्धार के समय मंदिर का मुख्यद्वार स्थानांतरित न किया जाए और न ही उसमें कोई मौलिक परिवर्तन किया जाए।
‘जगती’ अधिष्ठान का एक घटक है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार जितनी भूमि पर मंदिर का भवन निर्मित होता है, उतनी भूमि ‘जगती’ है। ‘जगती’ को आधार मानकर ही प्रासाद या मंदिर के मुख्यभाग और उसके अंगों की आनुमानिक स्थिति निर्धारित होती है। पीठ के भूतल के रूप में दिखाई पड़ने वाली जगती पर चारों ओर द्वारों या गोपुरों सहित प्राचीर का निर्माण किया जाए।
मंदिर का प्रमुख अंग ‘मंडप’—
‘मंडप’ के कई भेद हैं : ‘प्रसाद-कमल मंडप’, जिसे ‘गर्भगृह’ या मंदिर का मुख्य भाग भी कहते हैं : ‘गूढ़ मंडप’ अर्थात् भित्तियों से घिरा हुआ मंडप : ‘त्रिक मण्डप’, जिसमें स्तंभों की तीन—तीन पंक्तियों द्वारा तीन आड़ी और तीन खड़ी वीथियाँ बनती है ; ‘रंग—मण्डप’ जो एक प्रकार का सभागार होता है; और ‘तोरण-सहित बलानक’ अर्थात् मेहराबदार चबूतरे। मंडप की चौड़ाई गर्भगृह की चौड़ाई से डेढ़गुनी या पौने दोगुनी हो। स्तंभों की ऊँचाई मंडप के व्यास की आधी हो, किन्तु अधिक व्यावहारिक यह होगा कि स्तंभ की ऊँचाई सामान्यत: उसकी पीठ की ऊँचाई से चौगुनी हो; चौकी उसकी पीठ से दोगुनी या तिगुनी हो और ऊपरी भाग पीठ के बराबर या उससे दोगुना हो।
मंडप के भेदों और मंदिर के प्रकारों (निम्नलिखित) के जो नाम हैं, वे भी कई दृष्टियों से शोध—खोज के विषय हैं। यह बहुत ही उल्लेखनीय है कि इनमें से कई नाम इतिहास, पुराण, कोष, शकुन—शास्त्र, रत्न—शास्त्र आदि के प्रमुख शब्द हैं। कुछ मंदिरों के नाम उनके निर्माताओं के नाम से भी चल पड़े हैं। कुछ मंदिर आकार—प्रकार आदि की दृष्टि से यथानाम—तथागुण हैं। आलंकारिक नाम कम हैं। जबकि अधिकांश मंदिरों के नाम उनके मूलनायक के नाम से चलते हैं। देव—देवियों के नाम से जैन मंदिरों के नाम बहुत कम हैं और जो हैं, उनमें भी मूलनायक तीर्थंकर मूर्ति ही होती है।
जैनमंदिर रचना की दृष्टि से कई प्रकार के होते हैं। प्रकारों की संख्या भी अलग—अलग लिखी मिलती है। वत्थु- सार पयरण में लिखा है; श्री-विजय, महापद्म, नंद्यावर्त, लक्ष्मी—तिलक, नर—वेद, कमल—हंस और कुंजर ये सात प्रासाद जिन भगवान् के लिए उत्तम हैं। विश्वकर्मा ने जिनमंदिर के प्रकारों के असंख्य भेद कहे हैं, उनमें से पच्चीस अतिश्रेष्ठ माने गये हैं : केशरी, सर्वतोभद्र, सुनंदन, नंदिशाल, नंदीश, मंदिर, श्रीवत्स, अमृतोद्भव हेमवंत, हिमकूट, वैâलाश, पृथ्वीजय, इंद्रनील, महानील, भूधर, रत्नकूट, वैडूर्य पद्मराग वङ्काांक, मुकुटोज्जवल, ऐरावत, राजहंस, गरुड़, वृषभ और मेरु। इनमें से प्रथम ‘केशरी’ के शिखर के साथ चारों ओर एक—एक छोटा शिखर होता है, जिसे अंडक या अंग-शिखर कहते हैं। दूसरे ‘सर्वतोभद्र’ के शिखर के साथ आठ, तीसरे के बारह, इस तरह प्रत्येक के साथ चार अंडक बढ़ते–बढ़ते पच्चीसवें मेरु नामक प्रकार के मन्दिर शिखर के साथ एक सौ अंडक या अंग-शिखर होंगे।
मनुष्यों और देवों के आवास गृहों की भाँति जिनालयों अर्थात् जैनमंदिरों के वर्णन भी लोक—विद्या के ग्रंथों और साहित्य में विस्तार से मिलते हैं। इन वर्णनों से ज्ञात होता है कि जैनमंदिर वास्तव में किस आकार—प्रकार का होना चाहिए।
तिलोयपण्णत्ती का एक वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है—‘‘भवनवासी देवों के भवनों का आकार सम—चतुष्कोण है। भवन की चारों दिशाओं में एक—एक वेदिका है’’ जिसके बाह्य भाग में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम के उपवन हैं। इन उपवनों में चैत्यवृक्ष हैं। प्रत्येक की चारों दिशाओं में तोरण, अष्टमंगल और मानस्तम्भ के साथ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। वेदिकाओं के मध्य में महाकूट (विशाल टीले) और उन पर एक—एक जिनालय है।
जिनालय तीन प्राकारों (कोटों) के मध्य स्थित है। प्रत्येक प्राकार की चारों दिशाओं में एक—एक गोपुर (विशाल प्रवेश—द्वार) है, इन प्राकारों के बीच की वीथियों (मार्गों) में एक—एक मानस्तंभ, नौ—नौ स्तूप, वन, ध्वजाएँ और चैत्य होते हैं। जिनालयों के चारों ओर के उपवनों में तीन—तीन मेखलाओं से युक्त वापिकाएँ (कटावदार बावड़ियाँ) हैं। जिनालय महाध्वजाओं और क्षुद्रध्वजाओं से अलंकृत हैं। महाध्वजाओं में माला, िंसह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, अम्बर (आकाश), हंस, कमल और चक्र की आकृतियाँ चित्रित हैं।
जिनालयों में वंदन, अभिषेक, नृत्य, संगीत और आकाश के लिए तो अलग—अलग मंडप होते ही हैं; क्रीड़ा गृह, गुणनगृह, (स्वाध्यायशाला) और पट्टशालाएँ (चित्रशालाएँ) भी होती हैं। जिनालयों में जिनेन्द्र की मूर्तियों के अतिरिक्त देवच्छन्द (देव—कुलिका या दीवाल में बना हुआ आला) में अष्टमंगल (झारी, कलश, दर्पण, ध्वज, चामर, छत्र, व्यजन, सुप्रतिष्ठ अर्थात् पुस्तक रखने की रिहल) भी विराजमान होते हैं। जिनेन्द्र प्रतिमाओं के दोनों ओर चामरधारी नागों और यक्षों के युगल खड़े होते हैं।
ये जिनालय कम से कम सात भूमियों के होते हैं, जिनमें जन्म अभिषेक, शयन, परिचर्या और मंत्रणा के लिए अलग—अलग शालाएँ हैं उनमें सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, आसनगृह, नादगृह और लतागृह की विशेष व्यवस्था है। वहाँ जो तोरण, प्राकार, पुष्करिणी (कमल-सरोवर) वापिकाएँ, कूप, मत्तवारण (छज्जे), गवाक्ष (झरोखे) आदि हैं; वे सुन्दर मूर्तियों से सज्जित हैं।
चौबीसी मंदिर—
चतुर्विंशति जिनालय को हिन्दी में ‘चौबीसी मंदिर’ कहते हैं। शिल्पकला में जो चतुा\वशति—पट्ट (एक ही शिला पर चौबीसों तीर्थंकरों की मूर्तियाँ) का प्रचलन रहा है, उसी से इस प्रकार के मन्दिर के निर्माण की प्रेरणा संभवत: मिली होगी। एक ही मन्दिर में एक गर्भालय (कक्ष) में एक या अलग अलग वेदियों पर एक—एक तीर्थंकर की मूर्ति स्थापित करने से उस मंदिर को चौबीसी मंदिर कहने लगते हैं। ऐसा मंदिर विशाल हो तो उसमें प्रत्येक तीर्थंकर—मूर्ति के लिए एक पृथक््â देव—कुलिका (वेदी के बराबर छोटा कक्ष) हो सकती है या फिर एक पृथक््â कक्ष हो सकता है।
देव—कुलिकाओं या कक्षों की संख्या चौबीस की जगह वास्तव में पच्चीस होती है, आठ–आठ चारों दिशाओं में और एक मध्य में। मध्य में कोई एक तीर्थंकर मूर्ति मूलनायक के रूप में स्थापित की जाती है। उस मूर्ति की अपने क्रम की जो देव—कुलिका या कक्ष खाली हो जाता है उसमें सरस्वती की मूर्ति अर्थात् जिनवाणी स्थापित की जाती है। उल्लेखनीय है कि तीर्थंकर मूर्ति की जगह यदि किसी को देनी ही हो, तो जिनवाणी दी जा सकती है, किसी अन्य देव या देवी की मूर्ति को नहीं; क्योंकि सरस्वती तीर्थंकर के उपदेश अर्थात् जिनवाणी प्रतीक मानी गई है।
गृह मन्दिर—
आवास—गृह में भी धर्मस्थान या मंदिर के निर्माण का विधान वास्तु—विद्या में किया गया है। यह आवास गृह में पूर्व दिशा में ऐसे स्थान पर बनाया जाए, जो गृह के प्रवेश करते समय बाएँ हाथ पर पड़े और जो अन्य स्थानों से नीचा नहीं हो। इस पर आधिपत्य गृहस्वामी का रहे और इसकी व्यवस्था भी वही करे; तथापि यह सबके लिए खुला रखा जाए। इसके अतिरिक्त सर्वोपरि यह ध्यान रखा जाए कि गृह–मन्दिर के निर्माण में भी केवल न्यायोपार्जित धन का उपयोग हो। गृह मन्दिरों का स्थापत्य अन्य मन्दिरों की ही भाँति हो। गृह मन्दिर में तीर्थंकर की मूर्ति अधिक—से—अधिक ग्यारह अंगुल ऊँची स्थापित की जाए।
निषीधिका : निसई या नसिया—
निषीधिका, निषधिका और निषद्या शब्दों का एक ही अर्थ है : निसही या निसई या नसिया। यह वास्तव में किसी चारित्रधारी महापुरुष का शिला या स्तंभ या मंडप के रूप में स्मारक होता है जिससे उसे मन्दिर की भाँति महत्त्व दिया जाता है। आश्चर्य नहीं, यदि प्राचीन जैन स्तूप विशाल निषीधिकाएँ ही रहे हों। जैन साहित्य में स्मारक, समाधि, मकबरा आदि शब्दों का चलन नहीं हुआ; क्योंकि जैन आचार—विचार में स्मारक पूजन या गोरपरस्ती का विधान नहीं है; इसीलिए जैन समाज में ‘निषीधिका’ के रूप में एक अलग शब्द प्रचलित हुआ।
प्राकृतभाषा में ‘णिसीधिया’ और ‘णिसीहिया’ शब्दों का प्रयोग करते हुए आचार्य शिवकोटि (दूसरा नाम शिवार्य) ने लगभग दो हजार वर्ष पूर्व ‘मूलाराधना’ (दूसरा नाम भगवती आराधना) में (गाथा १९६७ से १९७३) और उसके छह–सात टीकाकारों ने निषीधिका के विभिन्न पक्षों पर विस्तार से लिखा है। आचार्य वट्टकेर आदि ने भी लिखा है।
चारित्रधारी महापुरुष अर्थात् साधु के अतिरिक्त किसी भी व्यक्ति का स्मारक, चरण चिह्न या किसी अन्य रूप में बनाने का विधान जैन वास्तुविद्या या शिल्प शास्त्र में नहीं है। साधु का स्मारक भी चरण चिह्न के रूप में बनाया जाए, न कि मूर्ति या मन्दिर के रूप में।
पाषाण पर उत्कीर्ण चरण—चिह्न निषीधिका के आदिमरूप माने जा सकते हैं; जिन पर कालान्तर में मंडप, गुमटी, टोंक आदि बनाए जाने लगे। पास में मन्दिर आदि के निर्माण से निषीधिकाओं का महत्त्व बढ़ा। अतिशय, चमत्कार, मंत्र तंत्र आदि के जुड़ जाने से निषीधिकाओं ने लोकप्रिय स्थानों का रूप ले लिया।
प्रतीकात्मक मंदिर—
जैनमंदिर समवसरण के प्रतीक हैं परन्तु कुछ जैन मन्दिर नंदीश्वरद्वीप, सहस्रकूट आदि के भी प्रतीक माने जा सकते हैं। जैन मन्दिरों के जो चौंसठ प्रकार के ‘प्रासाद मंडन’ आदि में बताए गए हैं, उनका सूक्ष्म अध्ययन करने पर कुछ और प्रतीकात्मक मंदिरों का ज्ञान हो सकता है। इसी प्रकार के मन्दिरों में नंदीश्वरद्वीप मन्दिर के अतिरिक्त अन्य किसी मन्दिर का स्पष्ट लक्षणों और विशेषताओं के साथ निर्माण या मूर्ति–शिल्प में अंकन बहुत ही कम हुआ है।
विश्वकर्मा ने ‘दीपार्णव’ के बीसवें अध्याय में पूर्वोक्त बावन जिनप्रासादों का वर्णन किया है, वे वास्तव में नंदाrश्वरद्वीप का प्रतिनिधित्व करते हैं; यद्यपि उनका अलग—अलग स्वरूप बताया गया है। जैन भूगोल में मध्यलोक के आठवें द्वीप का नाम नंदीश्वर है। स्थापत्य में नंदीश्वरद्वीप के अनुसरण पर मन्दिर बनाने की परम्परा रही है। शिलापट्टों पर भी इनका अंकन होता रहा है। इस द्वीप में प्रत्येक दिशा में तेरह–तेरह अकृत्रिम मन्दिर, कुल बावन मन्दिर होते हैं। आष्टाह्निक या अठाई पर्व के रूप में वर्ष में तीन बार इन बावन मन्दिरों में स्थित जिनमूर्तियों की पूजा का प्रचलन है।
सहस्रकूट—
सहस्रकूट भी जैनमन्दिरों का एक प्रकार है, जिसमें एक हजार कूट (शिखरयुक्त मन्दिर) होना चाहिए। इस प्रकार का मन्दिर उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध तीर्थ देवगढ़ (जिला—ललितपुर) में विद्यमान है। यद्यपि उसमें शिखरयुक्त मन्दिरों का अलग निर्माण नहीं है बल्कि जो मन्दिर है, उसी की बाह्यभित्ति पर एक हजार लघु मन्दिर उत्कीर्ण कर दिए गए हैं। बलात्कारगण दिगम्बर जैन मन्दिर, कारंजा (महाराष्ट्र) में सहस्रकूट चैत्यालय की एक सुन्दर कांस्यमूर्ति है। मध्यप्रदेश के रायपुर में महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में भी एक खण्डित शिल्प रचना है, जिसे ‘सहस्रकूट’ कह सकते हैं। कल्याण भवन—तुकोगंज, इंदौर के शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर में भी सहस्रकूट चैत्यालय है।
प्राचीन भारतीय स्थापत्य में स्तूपों के निर्माण की परम्परा थी। यह परम्परा कदाचित मथुरा से प्रचलित हुई, जहाँ एक अत्यन्त प्राचीन स्तूप के अवशेष मिले हैं। उनमें एक प्राचीन शिलालेख भी मिला है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘वह स्तूप देवों के द्वारा निर्मित किया गया था’’ इसका अर्थ यह है कि उस समय वह स्तूप इतना प्राचीन हो चुका था कि लोग उसके निर्माता का नाम भूल चुके थे और उसे देवों की रचना मानने लगे थे। इस दृष्टि से कहना होगा कि उस स्तूप का निर्माण तीर्थंकर महावीर से भी पूर्व तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय में हुआ होगा। प्रमुख वास्तुविद्यावेत्ताओं ने उसे भारतीय स्थापत्य की प्राचीनतम रचना माना है।
भारत में जो प्राचीन बल्कि प्रागैतिहासिक काल के निर्माणों के अवशेष मिले हैं, उनमें मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त पुरातात्त्विक महत्त्व की सामग्री अन्यतम है; जिसका तात्पर्य है कि भारत के धार्मिक वास्तु निर्माण में भी जैन समाज अग्रणी रहा, मूर्ति निर्माण में तो वह अग्रणी रहा ही है। पटना के समीप लोहानीपुर में तीर्थंकरों की पाषाण मूर्तियाँ बनायी गयीं, जिनका समय ईसा से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व मौर्यकाल के आरम्भ में आँका गया है।
आयाग पट्टों पर उत्कीर्ण स्तूप—
वास्तु विद्या में स्तूपों के निर्माण का या उनके आकार—प्रकार का उल्लेख नहीं है परन्तु साहित्य में इसके कई उल्लेख हैं तथा मथुरा से ही प्राप्त दो आयाग पट्टों पर साहित्य से भी अधिक स्पष्ट चित्रण हुआ है। लगभग दो फुट लंबी और उतनी ही चौड़ी पाषाण की नक्काशीदार शिलाएँ ‘आयागपट्ट’ कहलाती हैं, जिनका उपयोग दो—ढाई हजार वर्ष पहले मथुरा में बहुत होता था।
मथुरा में खुदाई (एक्स्केवेशन) में मिले उक्त स्तूप के खंडहर से ज्ञात होता है कि उसका लगभग तलभाग गोलाकार था, जिसका व्यास ४७ फुट था। उसमें केन्द्र से परिधि की ओर बढ़ते हुए व्यासार्ध वाली ८ दीवालें ईटों से चुनी गईं थीं। ईटें छोटी—बड़ी हैं। स्तूप के बाह्य भाग पर जिनप्रतिमाएँ थी। पूरा स्तूप वैâसा था ? इसका कुछ अनुमान उसकी खुदाई से प्राप्त सामग्री से लगता है। अनेक प्रकार के मूर्त्यंकनों से युक्त जो पाषाण—स्तंभ मिले हैं, उनसे प्रतीत होता है कि स्तूप के आसपास प्रदक्षिणा—पथ और तोरणद्वार रहे होंगे। उक्त आयाग—पट्टों पर अंकित स्तूप भी यही आभास देते हैं, जो उसी प्रकार की पट्टिकाओं से घिरे दिखाए गए हैं और जिनके तोरणद्वार पर पहुँचने के लिए सात—आठ सीढ़ियाँ उत्कीर्ण की गई हैं।
राजकीय संग्रहालय, मथुरा में सुरक्षित आयाग—पट्ट (क्यू २) में तोरण दो खड़े स्तंभों से बना है, जिनके ऊपर थोड़े—थोड़े अंतर से एक पर एक तीन आड़ी कड़ियाँ हैं। इनमें निचली कड़ी के दोनों छोर मकराकृति िंसहों पर आधारित हैं। स्तूप के दाएँ—बाएँ दो सुन्दर स्तंभ हैं, जिन पर क्रमश: धर्मचक्र और बैठे हुए िंसहोंं की आकृतियाँ बनी हैं। ऊपर की ओर उड़ती हुई दो आकृतियाँ संभवत: चारण मुनियों की हैं। वे नग्न हैं, किन्तु उनके बाएँ हाथ में पीछी जैसी वस्तु एवं कमंडल दिखाई देते हैं; उनका दाहिना हाथ मस्तक पर नमस्कार मुद्रा में है। एक और आकृति युगल गरुड पक्षियों की है, जिनके पुच्छ व नख स्पष्ट दिखाई देते हैं। दाई ओर गरुड एक पुष्पगुच्छ व बायीं ओर का पुष्पमाला लिए है। स्तूप के गुम्बज के दोनों ओर हाव—भाव के साथ झुकी हुई नारी आकृतियाँ हैं। घेरे के नीचे सीढ़ियों की दोनों ओर एक–एक देवकुलिका है। दाईं ओर की देवकुलिका में एक बालक सहित पुरुषाकृति और दूसरी ओर स्त्री—आकृति दिखाई देती है।
स्तूप की गुम्मट पर छह पंक्तियों में प्राकृतभाषा में लेख है, जिसमें अरिहंत वर्द्धमान को नमस्कार के पश्चात् कहा गया है कि ‘श्रमण श्राविका आर्या लवणशोभिका की पुत्री वासु ने जिनमन्दिर में अरिहंत की पूजा के लिए अपनी माता, भगिनी तथा दुहितापुत्र (नाती) के साथ निर्ग्र्रथों के अरिहंत आयतन में अरिहंत का देवकुल (देवालय), आयाग—सभा, प्रपा (प्याऊ) तथा शिलापट (प्रस्तुत आयागपट्ट) प्रतिष्ठित कराए। यह शिलापट्ट २ फुट १ इंच ² पौने दो फुट है। यह अक्षरों की आकृति और मूल्यांकन की दृष्टि से प्रथम—द्वितीय शती ई. अर्थात् कुषाण—काल का होना चाहिए।
राजकीय संग्रहालय, लखनऊ में सुरक्षित दूसरे आयागपट्ट (जे २५५) का ऊपरी भाग टूट गया है; तथापि तोरण, घेरा, सोपानपथ (सीढ़ियाँ) एवं स्तूप की दोनों ओर नारी—मूर्तियाँ इसमें पूर्वोक्त शिलापट्ट से भी अधिक स्पष्ट हैं। इस पर भी लेख है जिसमें अरिहंतों को नमस्कार के पश्चात् कहा गया है कि फगुयश नामक व्यक्ति की भार्या शिवयशा ने अरिहंत—पूजा के लिए यह आयागपट्ट बनवाया। लगभग २०० ई. पू. का यह आयागपट्ट सिद्ध करता है कि स्तूपों का प्रचार जैन परम्परा में उससे बहुत पहले से था।
कोई जैन स्तूप सुरक्षित अवस्था में नहीं मिले, उसके अनेक कारण हैं। एक तो यह कि स्तूप प्राय: किसी महापुरुष के अवशेषों पर बनाए जाते थे; जैन समाज में अवशेषों को सुरक्षित रखने का चलन नहीं होने से स्तूपों का भी चलन आगे नहीं बढ़ सका। दूसरे गुफा चैत्यों और मन्दिरों के अधिक प्रचार के कारण स्तूपों का नया निर्माण रुक गया और प्राचीन स्तूपों की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। तीसरे मन्दिर वास्तु में विस्तार, विभिन्न मंडप, साज—सज्जा आदि का असीमित अवकाश होता है; जो स्तूप में नहीं होता है; इसलिए धीरे—धीरे स्तूप का चलन बंद हो गया। चौथे उपर्युक्त स्तूप के आकार—प्रकार से स्पष्ट है कि बौद्ध और जैन स्तूपों के आकार प्रकार में एकरूपता के कारण कई जैनस्तूप बौद्धस्तूप मान लिए गए।
मूर्ति विशेषज्ञों की प्रबल धारणा रही है कि जैन तीर्थंकरों की प्रथम मूर्तियाँ मथुरा में ही बनाई गई थीं। इनके प्रारम्भिक प्रमाण कंकाली टीले से मिले हैं। इनमें कुषाणकालीन मूर्तियों की संख्या अधिक है। ये तीर्थंकर मूर्तियाँ तीन प्रकार की थीं—१. पालथी मारकर ध्यानमुद्रा में बैठी हुई। २. कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी हुई तथा ३. सर्वतोभद्र मुद्रा में अर्थात् एक ही पाषाणफलक पर पीठ से पीठ मिलाकर खड़ी चार चौमुखी जैन मूर्तियाँ।
लांछन—
मथुरा की आरम्भिक तीर्थंकर मूर्तियाँ एक समान थीं अत: उनकी पहचान कर पाना दुष्कर था और कुषाणकाल तक तो तीर्थंकर मूर्तियों पर लांछनों का अंकन ही नहीं हुआ था। इस कारण मथुरा की प्राथमिक तीर्थंकर मूर्तियों की पहचान की गई, जैसे—स्वामी आदिनाथ को उनके कंधों तक लटकती जटाओं से, स्वामी पार्श्वनाथ चरण चौकी पर कोई लांछन नहीं था परन्तु उनमें कुछेक मूर्तियों में उनके शीर्ष पर सर्पफणों के छत्र थे। कुछेक मूर्तियों के शिलालेखों से उनकी पहचान की गई परन्तु जैन शिल्प ग्रंथों में लांछनों के उल्लेख ७वीं—८वीं सदी ई. के बाद से ही पाये गये।
महापुरुष का लक्षण—
यद्यपि चरण चौकी वाले लांछनों का विकास कुषाणकाल में नहीं हुआ था तथापि उसी काल में लगी उन्हीं स्थानक व आसन मुद्राओं में निर्मित की गई बुद्ध—बोधिसत्त्व की मूर्तियों तथा जैन तीर्थंकर की मूर्तियों में भेद करने का मुख्य साक्ष्य महापुरुष लक्षण था। जैन तीर्थंकर की मूर्तियों के वक्ष पर उक्त प्रकार के श्रीवत्स का अंकन उन्हें बौद्ध मूर्तियों से अलग पहचान देता है। ध्यान मुद्रा में बैठी तीर्थंकर मूर्तियों की हथेलियों पर प्राय: चक्र और पैर के तलुओं पर चक्र और नंद्यावर्त के मांगलिक चिन्ह उकेरे मिलते हैं। उक्त प्रकार के लक्षणों में कुछ अन्य विशेषताओं का भी ध्यान रखना चाहिये—१. तीर्थंकरों की मूर्तियों को या तो मुण्डित मस्तक वाला या कुंचित केश वाला बनाया गया। २. ऐसी मूर्तियों की आंखों की भौंहों के मध्य ऊर्णी का अंकन किया गया। ३. ये मूर्तियाँ पूर्णतया नग्न (दिगम्बर) थीं क्योंकि तब श्वेताम्बर विचारधारा का उद्भव नहीं हुआ था। परवर्ती युग में फिर तीर्थंकर मूर्तियों में कुछ परिवर्तन किये गये और उनमें ऊर्णी का अभाव रहा। इनमें फिर शीश के पृष्ठ में प्रभामण्डल बनाया जाने लगा तथा उसका विविध रूपों में अलंकरण किया गया। इसी क्रम में तीर्थंकर मूर्तियों पर उनके पारिवारिक देवों तथा यक्ष, शासन देवी, चामरधारी शासकों-उपासकों का अंकन होने लगा। शीश पर त्रिछत्र का तथा उसके ऊपर ढोल बजाते देवता का अंकन किया गया। मूर्ति परिकर में ऊपर मालाधारी विद्याधर व नवग्रहों का भी समावेश किया गया तथा प्राय: आसन के नीचे मध्य में रखे धर्मचक्र को प्रमुखता दी गई। इस प्रकार के उक्त लक्षणों से पहचान सम्भव होना आसान हो गया।
अन्य जैन देव मूर्तियोें के लक्षण—
इन्द्र—जैनधर्म के ग्रन्थों में उल्लेख है कि तीर्थंकरोें के जन्म, दीक्षा और वैâवल्य प्राप्ति के अवसरों पर इन्द्र धरती पर आते हैं। इसी आशय को राजस्थान के जैन मंदिरों (११वीं-१२वीं सदी) में देखा जा सकता है।
गजलक्ष्मी तथा सरस्वती—तीर्थंकरों की माताओं द्वारा देखें स्वप्नों में लक्ष्मी का उल्लेख विशिष्टता से है। अत: जैन शिल्प में उन्हें सम्मान जनक स्थान दिया गया। ये मूर्तियाँ शुंगकाल से ही उपलब्ध होती हैं, वहीं इस धर्म में सरस्वती को भी विद्या, बुद्धि की देवी मानकर उसे सम्मान सहित स्थान दिया गया परन्तु उन्हें श्रुतदेवी के नाम से जैन शिल्प में पहचाना गया। कुषाणयुगीन मथुरा के कंकाली टीले से मिली सरस्वती की मूर्ति सर्वाधिक प्राचीन है, जो वहाँ के जैन परिसर से मिली है। यह लखनऊ संग्रहालय में है।
चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती देवी—जैन शिल्प में कुछ ऐसी देवियों का विधान भी रखा गया जो तीर्थंकरों की शासन देवी है। इनके हाथों में चक्र धारित होता है तथा यह गरुड़ पर आरूढ़ होती हैं। मध्यकाल की इस प्रकार की मूर्तियाँ जैन मंदिरों में देखी जा सकती है।
अम्बिका देवी तीर्थंकर नेमिनाथ की शासन देवी हैं। इसका अंकन भी मध्ययुग में हुआ। इसके हाथों में क्रमश: एक बालक, पाश, अंकुश तथा आम की बौर वाली टहनी होती है। यह सिंह पर आरुढ़ रहती हैं।
पद्मावती तीर्थंकर पार्श्वनाथ की शासनदेवी के रूप में मान्य हैं। इनके शीश पर सर्पफणों का छत्र होना इसका मुख्य लक्षण है। इन तीनों देवियों का स्पष्ट व ११वीं सदी का मूर्त शिल्प झालरापाटन (झालावाड़, राजस्थान) के शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में दर्शित है।
क्षेत्रपाल—जैनधर्म ने क्षेत्रपाल की गणना भैरव के समान योगिनियों के साथ की है। क्षेत्रपाल की मूर्ति लक्षणों में उनकी भयंकर मुखाकृति, श्यामवर्ण, बिखरे केश, पैरों में खड़ाऊ, हाथों में मुग्दर, डमरू तथा अंकुश प्रमुख होते हैं। मथुरा संग्रहालयों में जैन क्षेत्रपाल की एक प्राचीन मूर्ति में उनके हाथ में दण्ड है तथा उन्होंने अपने बायें हाथ में श्वान (कुत्ते) की रस्सी को पकड़ रखा है। उत्तरप्रदेश के देवगढ़ तथा मध्यप्रदेश के खजुराहो में भी ११वी—१२वीं सदी की इस प्रकार की मूतियाँ मिलती हैं।
आदि मिथुन—सृष्टि के मूल कारण आदि मिथुन का अंकन जैन शिल्पकला में विशेष स्थान रखता है। इसे जुगलिया (युगल मिथुन) भी कहा गया। इस शिल्प में इन्हें विशाल वृक्ष के नीचे बैठा दर्शाया जाता है। चरण चौकी पर बालकों का अंकन तथा वृक्ष के ऊपर जिनबिम्ब बना होता है। ए.एल. श्रीवास्तव के अनुसार लखनऊ संग्रहालय में इस आशय का एक अंकन फलक पर दर्शित है। सूत्रों के अनुसार उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर में वहाँ के राज्यपुरातत्व संगठन में वंâूड नामक स्थान से ११वीं सदी का एक ऐसा ही सुन्दर जुगलिया (आदि मिथुन) फलक खोजा है।
यदि जैन-बौद्ध मूर्तांकन में भेद किये जायें तो अध्ययन करने तथा धर्मों की मूर्तियाँ देखने पर निम्न बिन्दु समक्ष में आते हैं। जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ निर्वस्त्र (दिगम्बर) होती हैं जबकि बुद्ध की मूर्तियों में उनके बायें या फिर दोनों कंधों से संधारि वस्त्र नीचे तक लटकता है। बुद्ध की मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन नहीं होता जबकि तीर्थंकरों की मूर्तियों पर श्रीवत्स का लक्षण होता है। तीर्थंकर मूर्तियाँ या तो ध्यानमुद्रा में आसनस्थ अथवा कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी दिखायी देती हैं। उनमें अभय, वरद या अन्य मुद्रा का अभाव होता है जबकि बुद्ध मूर्तियाँ अभय मुद्रा में रहती हैं अथवा भूमि स्पर्श, धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में बैठी हुई या महापरिनिर्वाण मुद्रा में लेटी हुई होती हैं। इस प्रकार मुद्राओं तथा लक्षणों के आधार पर मूर्तियों की पहचान आसानी से की जा सकती है।
आयागपट्ट का शिल्प वैशिष्टय—वासुदेवशरण अग्रवाल ने मथुरा की जैन कला पर विस्तृत एवं गंभीर विवेचना प्रस्तुत की है। उन्होंने अपने शोध में बताया कि उक्त क्षेत्रीय जैन कला में आयागपट्ट तीर्थंकर मूर्तियाँ, देवी मूर्तियां,स्तूपों के तोरण, शालभंजिका, वेदिका स्तम्भ, ऊष्णीय आदि मुख्य हैं। आयागपट्ट मूल रूप से आर्यकपट्ट होता है अर्थात् पूजा हेतु स्थापित शिलापट्ट, जिस पर स्वस्तिक, धर्मचक्र आदि अलंकरण या तीर्थंकर की मूर्तियां स्थापित की गई हों। स्तम्भ के प्रांगण में इस प्रकार के पूजा शिलापट्ट ऊँचे स्थानों पर स्थापित किये जाते थे तथा दर्शनार्थी उनकी पूजा करते थे। मथुरा की जैन कला में इन आयागपट्टों का अति विशिष्ट स्थान है। उन पर जो अलंकरण की छवि है वह नेत्रों को मोहित कर देती है। उदाहरण के लिये सिंहासनादिक द्वारा स्थापित आयागपट्ट पर ऊपर नीचे अष्टमांगलिक चिन्हों का अंकन है। दोनों पार्श्वों में से एक ओर चक्रांकित ध्वजस्तम्भ व दूसरी ओर गजांकित स्तम्भ है। मध्य में चार त्रिरत्नों के मध्य में तीर्थंकर की बद्धपद्मासन मूर्ति है। एक अन्य प्राप्त आयांंगपट्ट के मध्य भाग में लघु तीर्थंकर मूर्ति है। ध्यान से देखने पर यह ज्ञात होता है कि स्वस्तिक के आवेषण रूप में सोलह देव योनियों से अलंकृत मण्डल है, जिसके चारोें कोणों पर चार महोरग मूर्तियां हैं, जबकि नीचे की ओर अष्टमांगलिक चिन्हों की श्रंखला है। तृतीय आयागपट्ट के मध्य षोडष धर्मचक्र का सुन्दर अंकन है तथा इसके चारों ओर तीन मण्डल हैं जिसके प्रथम मण्डल में सोलह नन्दिपद, दूसरे में अष्ट दिक्कुमारिकाएँ और तीसरे में कुण्डलित पुष्पकरस्रज कमलों की माला है। चारों कोनों में चार महोरग मूर्तियां हैं। इस प्रकार का पूजापट्ट प्राचीन काल में चक्रपट्ट कहलाता था। आयाग पट्ट जैन कला की महत्वपूर्ण निधि है। इसकी स्थापना फल्गुयश नर्तक की पत्नी शिवयशा ने अर्हंत पूजा हेतु की थी। इस पर प्राचीन मथुरा जैन स्तूप की आकृति अंकित है जिसमें तोरण, वेदिका तथा सोपान है।
इस प्रकार जैनधर्म की मूर्तियों के उक्त गंभीर प्रमाणों से उनके लक्षणों को देखकर कोई भी श्रद्धालु या शोधार्थी उनकी पहचान आसानी से कर सकता है। परन्तु यह भी एक कटुसत्य है कि प्राचीन मूर्ति शिल्प के लक्षणों, भावोें पर जितने भी ग्रन्थ रचे गये वे या तो संस्कृत में हैं या अंग्रेजी में। ये ग्रन्थ ना तो मिलते हैं ना ही पढ़ने वाले हैं क्योंकि यह एक दुरूह कार्य है। अत: सामान्यजन मूर्तियों की पहचान कर ही नहीं पाता।
मंदिर निर्माण के साथ मानस्तम्भ की रचना का समावेश होता रहा है।
ज्ञान के गर्व से घिरे हुए इन्द्रभूति ब्राह्मण तीर्थंकर महावीर स्वामी के समवसरण में द्वार के समीप दिव्य मानस्तम्भ को देख, गर्व हीन हो गया। मिथ्यात्व का विसर्जन हुआ एवं निर्मल सम्यक्त्व के साथ सम्पूर्ण मिथ्या ज्ञान सम्यक््â ज्ञान में परिवर्तित हो गया। इस घटना ने मंदिर के साथ मानस्तम्भ का रूप जोड़ने में प्रबल योग प्रदान किया।
जैन दर्शन कला शिल्प में जिनालय के साथ मानस्तम्भ रचना के विस्तृत प्रमाण तो उपलब्ध नहीं होते लेकिन समवसरण के चारों दिशा के वीथि (मार्ग) में मानस्तम्भ रचना का उल्लेख एवं प्रमाण अवश्य है। यही कारण रहा है कि मंदिर को समवसरण का रूप मानकर मानस्तम्भ की रचना को मंदिर के साथ जोड़ा गया है। इसे कुछ एक स्थानों पर कीर्तिस्तम्भ के नाम से भी जाना गया है। मंदिर निर्माण के शिल्प ग्रंथों में मानस्तम्भ निर्माण का परिचय सुलभ नहीं है लेकिन धर्म एवं सिद्धान्त ग्रंथों में जैसे तिलोयपण्णत्ती, त्रिलोकसार के अनुसार समवसरण एवं अकृत्रिम स्थलों के देवालयों के सम्मुख मानस्तम्भ रचना के आकार-प्रकार, पीठ, स्तम्भ वेदी एवं मूर्ति के गणितीय विभाग का प्रमाण विस्तृत रूप से उपलब्ध है। इस आधार को प्रमाण मानकर यहाँ मानस्तम्भ रचना के विभिन्न भागों को ज्योतिष एवं गणितीय मान से प्रस्तुत किया जा रहा है।
मानस्तम्भ की भूमि—
गर्भगृह, श्रीमण्डप, त्रिकमंडप, रंगमण्डप एवं शृंगार चौकी की भूमि छोड़कर मूल शिखर के कलश से शृंगार चौकी के कलश तक गिरता हुआ सूत्र भूमि के जिस भाग को स्पर्श करे वह मानस्तम्भ की भूमि होगी।
१. मानस्तम्भ की ऊँचाई मंदिर के शिखर की ऊँचाई व कलश व आंवलासार तक करना चाहिए। शिखर की शुकनासा (शेर की दृष्टि) तक भी कर सकते हैं। जिनालय की सांजली तक भी स्तम्भ बना सकते हैं।
२. जिनालय की मूल प्रतिमा (मूलनायक वेदी) के सम्मुख ही मानस्तंभ बनाना विधि सम्मत है।
३. मूलवेदी के सम्मुख द्वार के अभाव में मानस्तम्भ बनाना निषेध है।
४. मानस्तंभ में सर्वतोभद्र (चारों दिशाओं में) प्रतिमाएँ होने के कारण मूल वेदी के सामने होने पर भी द्वार भेद नहीं माना जाता।
५. मानस्तंभ कला की दृष्टि से विभिन्न प्रकार के बनाये जा सकते हैं। पीठ, स्तम्भ, वेदी एवं शिखर में कालानुपाति शैली एवं आकृति को मण्डित कर उसकी सुन्दरता एवं आकर्षकता बढ़ाई जा सकती है लेकिन आकार परिवर्तन योग्य नहीं है।
६. स्तम्भ चौकोर, अष्टमांश एवं वृत्ताकार तीनों आकृति के बनाए जा सकते हैंं, इतना अवश्य ज्ञात रहे यदि पीठ चौकोर बनी है तो स्तंभ के तीनों प्रकार बनाए जा सकते हैं लेकिन यदि पीठ अष्टमांश है तो स्तम्भ अष्टमांश या वृत्ताकार ही बनाये जा सकते हैं। वृत्ताकार पीठ पर वृत्ताकार स्तम्भ ही अनुकूल है।
७. स्तम्भ की ऊँचाई मानस्तम्भ की सम्पूर्ण ऊँचाई के आधे भाग प्रमाण होती है। स्तम्भ नीचे मोटा एवं क्रमश: ऊपर घटता—घटता बनता है।
८. स्तम्भ के पर्व विषम संख्या में एवं ग्रंथ (चूड़ी) समसंख्या में सुखदायक होती है।
९. तीर्थंकरों के अतिरिक्त सामान्य केवली की प्रतिमा के सम्मुख मानस्तम्भ का निर्माण प्रमाणहीन है।
१०. तिलोयपण्णत्ती अरिहंत, त्रिलोकसार, अकृत्रिम चैत्यालय एवं समवसरण रचना के अनुसार मानस्तम्भ में सिद्ध प्रतिमाओं की स्थापना होती है। तीर्थंकर प्रतिमा का विधान उपलब्ध नहीं है।
११. तिलोयपण्णत्ती एवं कल्पद्रुम पूजा के अनुसार मानस्तम्भ तीर्थंकर प्रतिमा की अवगाहना (ऊँचाई) से १२ गुना ऊँचा होता है।
१२. मानस्तम्भ की प्रथम पीठ पर जैन दर्शन के मूल सिद्धान्तों की चित्रावली या आधारमान जिनालय के मूल तीर्थंकर के जीवन सम्बन्धित चित्र या मानस्तम्भ की महिमा दर्शाने वाले चित्रों का उत्कीर्ण किया जाना योग्य है। मानस्तम्भ की द्वितीय पीठ पर अष्टमंगल द्रव्य बनाये जाते हैं। मानस्तंभ की तृतीय पीठ ध्वज पंक्ति से सज्जित होती है। आधारपदक कमल की आकृति का बनाया जाता है। स्तम्भ पर वल्लरियाँ सांकल, शृंखलाएँ, घंटियाँ, तोरण बनाये जाते हैं। जिनवेदी स्तम्भ पर चँवरधारी इन्द्र तथा तोरण बनाना चाहिए। शिखर उशृंग एवं अण्डकयुक्त होता है।
१३. मंदिर आंगन के छह भाग इस प्रकार होने चाहिये। १. गर्भगृह, २. रंगमण्डप, ३. चौकी, ४. हवन कुंड, ५. मानस्तम्भ, ६. ध्वजास्थल।
मानस्तम्भ की ऊँचाई के विभाग—
१. जगती भूमि में मंदिर के खरतल तक की ऊँचाई प्रमाण भूमि का होगा। जगती के ऊपर से मानस्तंभ की पहली पीठ प्रारम्भ होती है। मानस्तम्भ के ३० भाग बनाकर निम्नभाग प्रमाण निर्माण करना चाहिये।
प्रथम पीठ : ४ भाग प्रमाण ऊँची
द्वितीय पीठ : २ भाग प्रमाण ऊँची
तृतीय पीठ : २ भाग प्रमाण ऊँची
आधार पदम : २ भाग प्रमाण ऊँची
स्तम्भ : १५ भाग प्रमाण ऊँची
ऊर्ध्वपद्म : १ भाग प्रमाण ऊँची
वेदी : डेढ़ भाग प्रमाण ऊँची
कलश : १ भाग प्रमाण ऊँचा
मानस्तंभ की जगती एवं तीनों पीठ चौकोर वर्गाकार एवं अष्टकोण की बनाई जा सकती हैं। मानस्तम्भ के शिखर को गुम्बद या साभरण की आकृति भी दी जा सकती है। इससे बची शेष ऊँचाई को स्तम्भ वेदी या पीठ इन तीनों में से किसी में भी समायोजित किया जा सकता है।