गृहस्थ को आत्मकल्याण के लिये पंच-परमेष्ठी की स्तुति एवं पूजा प्रतिदिन करना चाहिये। देवपूजा, गुरुपास्ति स्वाध्याय, संयम, तप, और दान इन षट्कर्मों के आलम्बन नव देवता हैं।
अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनागम, जिनधर्म, जिनमन्दिर और जिनप्रतिमा ये नव देवता हैं। प्रत: अपनी उपासना में श्रावक इनकी आराधना करके वीतरागता और मानवता की शिक्षा ग्रहण करता है, जो इसके आध्यात्मिक और व्यवहारिक जीवन में उपयोगी है।
उक्त नव देवों में वर्तमान में जहाँ हम निवास करते हैं उस क्षेत्र में अरहंत एवं सिद्ध परमात्मा विराजमान नहीं हैंं अन्तिम तीन परमेष्ठी के दर्शन होते हैं किन्तु उनका प्रतिदिन अभिषेक किया भी नहीं जाता। जिनमंदिर, जिनागम और जिनधर्म का भी अभिषेक नहीं होता। सिर्फ जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा के समय दर्पण में उनके प्रतिबिम्ब का मंत्रपूर्वक अभिषेकपूर्वक पूजन प्रतिदिन नियमित किया जा सकता है और उसके द्वारा हम पंच परमेष्ठी की पूजा कर सकते हैं। यह किसी भी तीर्थंकर की हो, वीतरागता का आदर्श होने से उनके माध्यम से सभी परमेष्ठियों की पूजा की जा सकती है। श्रावक के प्रतिदिन के कर्त्तव्य में देव, शास्त्र, गुरुपूजा, चौबीस तीर्थंकर पूजा, बीस विद्यमान विदेह—क्षेत्रवर्ती तीर्थंकर पूजा, सिद्धपूजा, जिनालय, सिद्धक्षेत्र, नन्दीश्वर, दशलक्षण एवं रत्नत्रयधर्म आदि की अष्टद्रव्य पूजा व अर्घ्य हम चढ़ाते ही हैं। इनमें प्रतिमा ही प्रमुख आलंबन है जिसमें हम पंच परमेष्ठी की स्थापना कर पूजा करते हैं। उनमें अर्हंत प्रतिमा की स्थापना मुख्य है। सिद्धप्रतिमा में अष्ट प्रातिहार्य और चिह्न नहीं होते जबकि अर्हंत प्रतिमा में होते हैं।
प्रतिमा का माप—
आचार्य वसुनन्दि, जयसेन और आशाधर प्रतिष्ठा पाठों में प्रतिमा का लक्षण और माप प्राय: समान है। श्रीवत्स से भूषित उदरस्थल, तरुणांग, दिगम्बर, नख-केश रहित, कायोत्सर्ग या पद्मासन, नासाग्रदृष्टि, सुन्दर संस्थान वाली प्रतिमा होना चाहिये। खड्गासन प्रतिमा १०८ अंगुल (भाग) प्रमाण हो जो नव स्थानों में विभाजित हो।
यहाँ अंगुल द्वादशांगुल या ताल माना जाता है। १०८ अंगुल में १२ अंगुल मूल, ४ अंगुल ग्रीवा, ग्रीवा से हृदय १२ अंगुल, हृदय से नाभि १२ अंगुल, नाभि से िंलग १२ अंगुल रहना चाहिये। िंलग से गोड़ा २४ अंगुल, गोड़ा ४ अंगुल, गोड़ा से गुल्फ २४ अंगुल, गुल्फ से पगथली ४ अंगुल हो।
पद्मासन से आधा हिस्सा ऊँचाई रहती है। इसमें एक घुटने से दूसरा घुटना बांये घुटने से बांये कन्धे तक, बायें घुटने से दायें कन्धे तक और पादपीठी से केशांत तक इस प्रकार चतुर सुमाप होता है। अभयनंदि तथा यशस्तिलक चम्पूकार आचार्य सोमदेव तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती रचित त्रिलोकसार के अनुसार १० ताल की प्रतिमा भी जिनेन्द्र प्रतिमा बताई है। इस दृष्टि से १२० भाग होते हैं।
मन्दिर के द्वार की ऊँचाई—
इसी प्रसंग में यह संकेत करना आवश्यक है कि मन्दिर की वेदी में प्रतिमा विराजमान करते समय मन्दिर के सामने द्वार की ऊँचाई का ख्याल रखा जावे। द्वार की ऊँचाई के ८ भाग करें। ऊपर का ८ वां भाग छोड़कर ७ वें भाग में प्रतिमा की दृष्टि होना चाहिये अथवा उक्त ७ वें भाग के ८ भागों में से ५-३-१ वें भाग में दृष्टि रहे। यह स्थूल रूप से बताया गया है। इससे विशेष ज्ञातव्य यह है कि द्वार के ९ भाग करें। नीचे के ६ भाग और ऊपर के २ भाग छोड़ दें। शेष ७ वें भाग के भी ९ भाग करें इसी के ७ वें भाग में वीतराग जिनप्रतिमा की दृष्टि होना चाहिये।
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा—
जहाँ पंचकल्याणक मंत्रों से अतद्गुण में गुणस्थापना रूप आरोप का विधान कर सर्वज्ञता की स्थापना की जाती है वहाँ उस क्रिया के अनुष्ठान से स्थापना निक्षेप द्वारा उसका वैसा ही ज्ञान होता है। स्थापना निक्षेप द्वारा मूर्ति में पंचकल्याणक मंत्रों से गुणस्थापन और सर्वज्ञता का आरोप करने से वह मूर्ति वीतराग और सर्वज्ञ तीर्थंकर की कहलाती है। प्राणप्रतिष्ठा के मंत्र से वह अचेतन से सचेतन मानी जाती है। अर्हंत प्रतिमा में पंचकल्याणक, अष्ट प्रातिहार्य, अनन्त दर्शनादिगुणारोपण करे। इनके लिये प्रतिमा के प्रत्येक अंग में मंत्रन्यास, ४८ संस्कार स्थापन, नेत्रोन्मीलन, श्री मुखोद्घाटन, सूरिमंत्र, प्राणप्रतिष्ठा आदि मंत्रों के द्वारा गर्भ से लेकर केवलज्ञान तक संस्कार होते हैं। जो बाह्यक्रिया में दर्शकों को बताई जाती हैं उन्हें ही पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का स्वरूप समझ लेना भूल है। इनके अतिरिक्त अन्तरंग क्रिया मंत्र संस्कार हेतु की जाती है। गर्भ, जन्म कल्याणकों में जो प्रदर्शन होता है वे तीर्थंकरों के जीवन की घटनायें हैंं, वे वीतरागता के पूर्व पुण्य वैभव के रूप में दिखाई जाती हैं। पश्चात् उस वैभव का त्याग होकर वीतरागता का आदर्श ग्रहण कराया जाता है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधि आत्मा से परमात्मा बनने का विधान है। इसमें प्रारम्भ में किस प्रकार आत्मा का क्रमश: उत्थान होकर मुक्ति प्राप्त होती है तथा प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगों का एक ही जीवन में किस प्रकार समन्वय होता है यह सब पंचकल्याणकों के माध्यम से दिग्दर्शन कराया जाता है। साथ ही स्वप्न व पूर्व भवों के वर्णन से कर्मसिद्धान्त का भी परिचय दिया जाता है। जिनबिम्ब दर्शन को सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति का साधन माना गया है। पंचकल्याणक व जिनबिम्ब स्थापना को आचार्य जयसेन स्वामी ने सम्यक्त्व का उत्कृष्ट लाभ ब्ाताया है।
हवन (शान्तियज्ञ) का औचित्य—
प्रतिष्ठा या अन्य पूजा विधानों में हवन (शान्ति यज्ञ) की परम्परा को आजकल कतिपय सज्जन िंहसा का कारण बनाकर बन्द करना चाहते हैं और इसे भी वैदिक धर्म की नकल मानते हैं। सभी प्रतिष्ठा पाठों और आदिपुराण आदि में आचार्यों ने तीर्थंकर कुण्ड, गणधर कुण्ड और सामान्य केवलि कुण्ड की रचना करके ११२ आहुति मंत्र बताये हैं। पूजा में चढ़ाये गये द्रव्य को हवन में क्षेपण का भी उल्लेख मिलता है। मन्दिर में गृहस्थ जब जल, पंखा आदि का उपयोग करते हैं, स्नान आदि के लिये भट्टी जलाते हैं और बड़े—बड़े भोज देते हैं तब हवन का निषेध करना आश्चर्य का विषय है। अखण्ड दीपक, बिजली की रोशनी, आरती आदि, अग्नि में धूप खेना आदि कार्य भी होते हैं। हवन से अनेक रोग दूर होकर शुद्ध वातावरण बनता है, मंत्र, जाप के बाद उनसे आहूति देने पर मंत्र की शक्ति बढ़ती है।
जैनदर्शन की मान्यता है कि संसारी जीव अपने कर्मबंधन के कारण देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक इन चार गतियों में भ्रमण करता रहता है। कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त होने पर जीवात्मा सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है और लोक के अग्रभाग में जाकर स्थिर हो जाता है, तब उसे संसार में पुन: नहीं आना पड़ता। इन सिद्ध आत्माओं की संख्या अनन्तानन्त है। सभी सिद्ध आत्माएँ मनुष्य योनि से ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त करती हैं। तीर्थंकर भी उसी प्रकार सिद्ध अवस्था प्राप्त करते हैं। वे देव जाति के नहीं होते, वे तो देवाधिदेव हैं क्योंकि मानव शरीर धारण करते हुए भी वे देवताओं द्वारा पूजित होते हैं इसीलिये उन्हें देवाधिदेव कहा गया है।
शास्त्रों के द्वारा अच्छी तरह जाने हुए तीर्थंकरों के प्रति दर्शन पूजनादि आदर रूप व्यवहार करने के लिये अमुक तीर्थंकर हैं, ऐसा कहकर जो अपने भावों में प्रकाशित भगवान की प्रतिमा में स्थापना करना वह प्रतिष्ठा है।
‘‘मुक्त्यादौ तत्त्वेन प्रतिष्ठिताया न देवतापास्तु।
स्थाप्येन च मुख्येयं तदधिष्ठानाध भावेन।।’’
‘‘भवति च खलु प्रतिष्ठा निज भावस्यैव देवतोद्देशात्।
मुक्त होकर लोकान्त जा विराजे हुए देवता स्थाप्य (मूर्ति) में नहीं आ सकते अत: साक्षात् देव की स्थापना तो नहीं है परन्तु उपचार से देवता के उद्देश्य से निज भावों की ही मूर्ति में प्रतिष्ठा होती है।
कल्याण मन्दिर में आचार्य श्री ने लिखा है—
आत्मामनीषिभिरयं त्वदभेद बृद्ध्या।
ध्यातो जिनेश भवतीह भवत्प्रभाव:।।
हे भगवन् ! जब बुद्धिमान् पुरुष निज आत्मा को ध्यान के द्वारा आप से अभिन्न कर लेता है तो उसमें आपका प्रभाव आ जाता है। अस्तु !
अर्हंत् , सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म इन चारों को जैन परम्परा में मंगल और लोकोत्तम माना गया है। साधु ३ प्रकार के होते हैं—(१) आचार्य (२) उपाध्याय (३) सर्व साधु। इन पंच परमेष्ठियों और श्रुतदेवता की पूजा करने का विधान प्राचीन जैन ग्रंथों में मिलता है। वसुनन्दि श्रावकाचार में आचार्य श्री ने लिखा है—
जिणसिद्ध सूरिपाठय साहूणं ज सुयस्स विहिवेण।
कीरइ विविहा पूजा वियाण तं पूजाणविह्मणं।।
आचार्य श्री जिनसेन के आदिपुराण में पूजा श्रावक के निरपेक्ष कर्म के रूप में अनुशंसित है।
पूजा के छह प्रकार बताये गये हैं—(१) नामपूजा (२) स्थापना पूजा (३) द्रव्यपूजा (४) क्षेत्रपूजा (५) कालपूजा (६) भावपूजा। इनमें से स्थापना के दो भेद हैं—सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना। प्रतिष्ठेय की तदाकार सांगोपांग प्रतिमा बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करना सद्भाव स्थापना है और शिला, पूर्णकुंभ, अक्षत, रत्न, पुष्प, आसन आदि प्रतिष्ठेय का न्यास करना असद्भाव स्थापना है। असद्भाव स्थापना से अन्यथा कल्पना भी कर सकते हैं।
संसारी प्राणियों के अभ्यंतर मल को गला कर दूर करने वाला और आनन्ददाता होने के कारण मंगल पूजनीय है। पूजा के समान ही मंगल भी ६ प्रकार का जैनाचार्यों ने बताया है—(१) नाममंगल (२) स्थापनामंगल (३) द्रव्यमंगल (४) क्षेत्रमंगल (५) कालमंगल (६) भावमंगल। कृत्रिम और अकृत्रिम जिनबिम्बों को स्थापना मंगल माना गया है। जयसेनाचार्य के अनुसार जिनबिम्ब का निर्माण कराना मंगल है।
जिनप्रतिमा के दर्शन कर चिदानंद का स्मरण होता है अत: जिनबिम्ब का निर्माण कराया जाता है। बिम्ब में जिन- भगवान और उनके गुणों की प्रतिष्ठा कर उनकी पूजा की जाती है। आगम की मान्यता है कि प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने वैâलाश पर्वत पर बहत्तर जिनमन्दिरों का निर्माण करवाकर उनमें जिनप्रतिमाओं की स्थापना कराई थी और तब से जैन प्रतिमाओं की स्थापना विधि की परम्परा चल रही है।
जैन प्रतिमाओं का निर्माण और उसकी स्थापना अति प्राचीन काल से चल रही है, इस तथ्य की पुष्टि निश्शंक रूपेण पुरातत्त्वीय प्रमाणों और प्राचीन जैन साहित्य के उल्लेखों से होती है।
मंदिर वैâसे स्थान पर निर्मित होना चाहिये ? इसके समाधान में प्रतिष्ठा पाठ के विशेषज्ञों ने कहा है कि नगर के शुद्ध प्रदेश में, अटवी में, नदी के समीप पवित्र भूमि में मंदिर बनवाना शुभ कहा है। मनोज्ञ स्थानों पर जिनमंदिरों का निर्माण किया जाना चाहिये।
जिनमंदिर के लिये भूमि का चयन करते समय अनेक उपयोगी बातों पर विचार करना होता है। जैसे—भूमि शुद्ध हो, रम्य हो, स्निग्ध हो, सुगंध वाली हो, दूर्वा से आच्छादित हो, पोली नहीं हो, वहाँ कीड़े-मकोड़ों का निवास नहीं हो तथा श्मशान भूमि भी न हो। भूमि का चयन मन्दिर निर्माण विधि का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। योग्य भूमि पर निर्मित (प्रसाद) मन्दिर ही दीर्घकाल तक स्थित रह सकता है।
विभिन्न ग्रंथकारों ने भूमि परीक्षा के उपाय बताये हैं, जैसे—जिस भूमि में मन्दिर निर्मित करने का विचार किया गया हो उस भूमि में १ हाथ गहरा गड्ढा खोदा जावे और फिर उस गड्ढे को उसी में से निकाली मिट्टी से पूरा भरा जावे। ऐसा करने पर यदि मिट्टी गड्ढे से अधिक पड़े तो वह भूमि श्रेष्ठ मानी गई है। यदि मिट्टी गड्ढे के बराबर हो तो भूमि मध्यम कोटि की होती है और यदि उतनी मिट्टी से गड्ढा पुन: न पूरा भरे तो वह भूमि अधम जाति की होती है। वहाँ मंदिर का निर्माण नहीं करना चाहिये। प्रतिष्ठा ग्रंथों तथा वास्तुशास्त्रीय ग्रंथों में मंदिर की भूमि शुद्धि आदि का विवरण मिलता है।
प्राचीन काल में मन्दिरों में प्रतिष्ठा कराने के लिये प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता था। वे दो प्रकार की होती थीं—प्रथम चल प्रतिमा, द्वितीय अचल प्रतिमा। अचल प्रतिमा अपनी वेदिका पर स्थिर रहती है किन्तु चल प्रतिमा विशिष्ट—विशिष्ट अवसरों पर मूल वेदी से उठाकर अस्थायी वेदी पर लायी जा सकती हैं। अचल प्रतिमा और चल प्रतिमा को क्रमश: स्थावर और जंगम प्रतिमा भी कहते हैं।
वसुनन्दि प्रतिष्ठा पाठ में आचार्य श्री ने मणि, रत्न, स्वर्ण, रज, पीतल, मुक्ताफल और पाषाण की प्रतिमाएँ निर्मित किये जाने का विधान कहा है। श्री जयसेन आचार्य ने स्फटिक की प्रतिमाएँ भी प्रशस्त बतायी हैंं, कुछ आचार्यों ने काष्ठ, दन्त और लोहे की प्रतिमाओं के निर्माण का किसी भी प्रकार से उल्लेख नहीं किया। पाषाण की प्रतिमाएँ निर्मित किया जाना सर्वाधिक मान्यता प्राप्त एवं व्यावहारिक रहा है।
प्रतिमा निर्माण के लिये शिला का अन्वेषण—
पं. आशाधरजी ने लिखा है कि जब मन्दिर के निर्माण का कार्य पूरा हो जावे अथवा पूरा होने को हो तो प्रतिमा के लिये शिला का अन्वेषण करके शुभ लग्न, मंगल मुहूर्त, शकुन में इष्ट शिल्पी के साथ जाना चाहिये। मूर्ति बनाने वाले चतुर शिल्पी को साथ लेकर पवित्र स्थान में स्थित खान पर जावे, वहाँ पर प्रतिमा के योग्य जो शिला होवे उसकी परीक्षा करने के लिये उसके ऊपर लेप करने के लिये शिल्पशास्त्र में अनेक प्रकार के जो लेप लिखे हैं, उनमें से किसी का लेप करे तो पाषाण के भीतर रहे हुए दोष प्रगट हो जाते हैं, जैसे कि—
निर्मल कांजी के साथ बेल वृक्ष की छाल को पीसकर पाषाण या लकड़ी के ऊपर लेप करने से मंडल प्रगट हो जाता है। पाषाण या लकड़ी में जो दाग देखने में आते हैं वह किसी जंतु विशेष से बने हुए होते हैं। ये रंग आदि से पहचाने जाते हैं तथा उन चित्रों के शुभाशुभ फल भी शिल्प शास्त्र में लिखे हैं। जैसे—मधु के रंग जैसी रंग वाली रेखा दिखे तो वह खद्योत, भस्म के वर्ण की दिखे तो बालू, गुड़ के रंग की दिखे तो मेंढ़क, आकाश के रंग की दिखे तो पानी, कबूतर के रंग की दिखे तो छिपकली, मंजीठ के रंग की हो तो मेंढ़क, लाल रंग की रेखा हो तो गिरगिट, पीले वर्ण की हो तो गोह, कपील वर्ण की हो तो ऊदर, काले वर्ण की हो तो सर्प और अनेक प्रकार के रंग की रेखा दिखे तो बिच्छू इत्यादि जन्तुओं से रेखा दाग बने होते हैं। ऐसे दाग पाषाण या लकड़ी में रहे हो तो सन्तान, लक्ष्मी, प्राण और राज्य का विनाशकारक है, परन्तु पाषाण के वर्ण की रेखा या दाग हो तो कोई दोष नहीं माना जाता।
देव की प्रतिमा पुिंल्लग में देवी की प्रतिमा स्त्रीिंलग से, पाद पीठ सिंहासनादि नपुंसक शिला से बनाना लिखा है। इसकी परीक्षा आकृति और आवाज से की जाती है।
जो शिला एक ही वर्ण वाली, सघन, चिकनी मूल से लेकर अग्रभाग तक बराबर समान आकार वाली और गजघंट के समान आवाज वाली हो वह पुिंल्लग शिला जानना। जो मूल भाग में स्थूल और अग्रभाग में कृश हो तथा कांसी जैसी आवाज वाली हो वह स्त्रीिंलग शिला जानना। जो मूल भाग में कृश और अग्रभाग में स्थूल हो एवं बिना आवाज की हो वह नपुंसक शिला जानना। शिला औंधा मुख करके पूर्व दिशा पश्चिम या उत्तर दक्षिण लम्बी रहती है। इसमें दक्षिण और पश्चिम दिशा में शिला का मूल भाग तथा पूर्व और उत्तर दिशा में शिला का अग्रभाग रहता है। अग्र यह शिला भाग, मूल यह पैर समझना चाहिये। शिला निकालते समय उसमें चिह्न कर लेना चाहिये जिससे शिला का मुख, पृष्ठ, मस्तक और पैर की पहचान हो सके और उसके अनुसार मूर्ति का मुख आदि बना सकें। जहाँ शिला का मुख भाग हो उस भाग में मूर्ति का मुख और शिला का जहाँ पैर हो उस भाग में मूर्ति का पैर बनाना चाहिये। शिल्प ग्रंथों में शिला औंधी सोती हुई लिखा है, इस शिला के नीचे के भाग का मुख और ऊपर के भाग का पृष्ठ भाग बनाना चाहिये।
इस प्रकार परीक्षा करके प्राप्त श्वेत, रक्त, श्याम, मिश्र पारावत् , मुद्ग, कपोत, पदम, मंजिष्ठ और हरित वर्ण की शिला को प्रतिमा निर्माण के लिए उत्तम बताया है। वह शिला कठिन, शीतल, स्निग्ध, सुस्वाद, सुस्पर, दृढ़, सुगंध युक्त, तेजस्विनी और मनोज्ञ होना चाहिये। बिन्दु और रेखाओं वाली शिला प्रतिमा निर्माण कार्य के लिये वर्ज्य कही गई है। उसी प्रकार मृदु विव्ार्ण, दुर्गन्धियुक्त, लघु, रूक्ष, धूमिल और नि:शब्द शिलाएँ भी अयोग्य ठहरायी गयी हैं।
इस प्रकार परीक्षा करने से प्रतिमा के लिये जो निर्दोष शिला प्राप्त हुई हो उसका अच्छे शुभ दिन में छेदन करें। जिस दिन छेदन करने का हो उसकी प्रथम रात्री को जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फलादि सामग्री से—‘‘हे शिले ! अमुकस्य देवस्य पूजनाया परिकल्पिताऽस्ति नमस्ते’’ इस प्रकार मंत्रोच्चारणपूर्वक पूजन करें। बाद में वनदेवता, क्षेत्र देवता, नव ग्रह, दिक्पाल आदि देवों का शिला में विन्यास करके सुगन्धित द्रव्यादि से पूजन करें। शुभ मुहूर्त में महोत्सव पूर्वक शिला का छेदन करें, पीछे मंगल मुहूर्त में नगर में शिला का प्रवेश करावें। आचार्यों ने लिखा है—
जैनं चैत्यालयं चैत्यमूर्ति निर्मापयन् शुभम्।
वाञ्छन् स्वस्य नृपादेश्च वास्तुशास्त्रं न लंघयेत्।।
मन्दिर व प्रतिमा बनाने वाला यदि अपना और राजा, प्रजा का भला चाहता हो तो उसे शुभ-अशुभ बताने वाले वास्तु शास्त्र के अनुकूल ही सब काम करवाना चाहिये। मूर्ति के पाषाण की शिला के लिये शांतिविधानपूर्वक शुभ मुहूर्त में परीक्षा कर शास्त्रानुसार प्रतिमा का निर्माण कराना उचित है।
शिल्पी का चयन—
प्रतिमा ऐसे कारीगर से बनवाना ठीक है जो बाल वृद्ध व सदोष शरीर वाला न हो, प्रतिमा निर्माण में अधिक चतुर हो। सदाचारी, पवित्रता से रहने वाला हो और अण्डे, मांस, मदिरा, शहद आदि का त्यागी हो। जिसके परिणामों में शांत छवि का आकार झलक रहा हो।
उक्त गुण वाले शिल्पी को घर पर बुलाकर शुभ लग्न में सत्कारपूर्वक वह शिलाबिम्ब बनाने के लिये दी जावे और उसको प्रतिमा तैयार न हो तब तक हर तरह से खुश रखा जावे। निर्मापक सद्गृहस्थ को उचित है कि वह इस महान कार्य में धन का संकोच नहीं करे। चाँदी, सोने या बड़े आकार की या बहुत सी मूर्तियां न बनाकर चाहे पाषाण की छोटी सी एक ही प्रतिमा बनवाने पर विधिपूर्वक निर्माण हो। आजकल शिल्प शास्त्रों का अध्ययन न होने से कारीगर उपरोक्त शिला परीक्षा के नियमों को नहीं जानता है इसीलिये मूर्ति के निर्माण में दोष रहने की सम्भावना रहती हैं, यह सिर्फ कारीगर का दोष नहीं है, मूर्ति बनवाने वाला भी उपरोक्त नियमानुसार नहीं बनवाना चाहता।
देखभाल में प्रमाद व त्रुटि न करें। इस विषय में शास्त्र की आज्ञाओं की विद्वानों से जानकारी जरूर कर लें। प्रतिष्ठाचार्यों का भी कर्त्तव्य है कि वे अपने व समाज के हितार्थ आत्मबल धारण करें। किसी के दबाव व लोभवश सदोष जिनबिम्ब प्रतिष्ठा के लिये स्वीकृत न करें।
गृहपूज्य प्रतिमाएँ—
निवासगृह में पूज्य प्रतिमाओं की अधिकतम ऊँचाई के विषय में जैन ग्रंथों में वसुनन्दि आचार्यश्री ने द्वादश अंगुल तक की ऊँची प्रतिमा को ही पूजनीय बतलाया है। प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के दर्शन, वन्दन, पूजन, भक्ति आदि करते रहने से परिवार में सुख-शांति मिलती है। मलिन, खण्डित, अधिक या हीन प्रमाण वाली प्रतिमाएँ भी गृह में नहीं रखना चाहिये।
अपूज्य प्रतिमाएँ—
रूपमण्डनकार ने हीनांग और अधिकांग प्रतिमाओं के निर्माण का सर्वथा निषेध किया है। शुक्रनीति में हीनांग प्रतिमा को निर्माण कराने वाले की और अधिकांग प्रतिमा को शिल्पी की मृत्यु का कारण बताया है। जैन परम्परा के ग्रंथों में भी वक्राँग, हीनांग और अधिकांग प्रतिमा निर्माण को भारी दोषयुक्त माना गया है।
दिगम्बर जैनाचार्यों ने सदोष प्रतिमा अशुभ बताई है। जैसे—
तिरछी दृष्टि (नजर)—धननाश, विरोध, भय करने वाली।
नीची नजर—पुत्रनाश का कारण।
ऊँची नजर—स्त्री का मरण कराने में निमित्त।
स्तब्ध नजर—शोक, उद्वेग, संताप, धननाश करने वाली।
रौद्र—बनवाने वाले का नाश कराने वाली।
दुबले शरीर वाली—धन नाश का कारण होती है।
ओछे कद वाली—कराने वाले के नाश में कारण है।
चपटी—दु:खदाता।
नेत्र रहित—नेत्र नाश में कारण।
छोटे मुख वाली—शोभा का नाश करने वाली।
बड़े पेट वाली—रोग में निमित्त।
नीचे कन्धों वाली—भाई का मरण।
दुबली जांघ वाली—राजा का अनिष्ट करने वाली।
छोटे पग वाली—देश नाश में कारण।
दुबली कमर वाली—सवारी का नाश।
यह वर्णन श्री वसुनन्दि आचार्य ने किया है। आचार्य श्री वसुनन्दि ने ही जिनप्रतिमा में नाशाग्रनिहित, शान्त, प्रसन्न एवं माध्यस्थ दृष्टि को उत्तम बताया। वीतराग की दृष्टि न तो अत्यन्त उन्मीलित हो और न विस्फुरित हो। दृष्टि तिरछी, ऊँची या नीची न हो इसका विशेष ध्यान रखे जाने का विधान है।
आचार्यकल्प पंडितप्रवर आशाधर जी और वर्धमान सूरि ने भी अनिष्टकारी, विकृतांग और जर्जर प्रतिमाओं की पूजा का निषेध किया है।
भग्न प्रतिमाओं की पूजा नहीं की जाती। उन्हें सम्मान के साथ विसर्जित कर दिया जाता है। मूलनायक प्रतिमा के मुख, नाक, कान, नेत्र, नाभि और कटि के भग्न हो जाने पर वह त्याज्य होती है। ऐसा वास्तुसार प्रकरण में वर्णन आया है। जिन प्रतिमाओं के अंग और प्रत्यंगों के भंग होने का फल बताया है कि नखभंग होने से शत्रुभय, अंगुली-भंग से देश में भय, अराजकता, बाहु भंग से बन्धन, नासिका नष्ट होने से कुलनाश और चरण भंग होने से द्रव्यनाश होता है किन्तु ‘वास्तुसार’ ग्रंथकार का ही यह भी मत है कि जो प्रतिमाएँ सौ वर्ष से अधिक प्राचीन हों और महापुरुषों द्वारा स्थापित की गयी हों, वे यदि विकलांग भी हो जावें तब भी पूजनीय हैं। उन्होंने उन प्रतिमाओं को केवल चैत्य में रखने योग्य कहा है, गृह में पूज्य नहीं।
जिनप्रतिमा के लक्षण—
जैन प्रतिष्ठा ग्रंथों और वृहत्संहिता, मानसार, अपराजितपृच्छा, देवमूर्ति प्रकरण, रूपमण्डन आदि गं्रंथों में जिन प्रतिमा के लक्षण बताये गये हैं। जिनप्रतिमाएँ केवल दो आसनों में बनायी जाती हैं, एक तो कायोत्सर्ग आसन जिसे खड्गासन भी कहते हैं और द्वितीय पद्मासन इसे कहीं कहीं पर्यंक आसन भी कहा गया है। इन दो आसनों को छोड़कर किसी अन्य आसन में जिनप्रतिमा निर्मित किये जाने का निषेध किया गया है।
प्रतिष्ठा चन्द्रिका में कहा है—
शान्तं नासाग्रदृष्टिं विमल गुणगणैभ्रजिमानं प्रशस्त—
मानोन्मानं च वामे विधृतकरवरं नाम पद्मासनस्थं।
व्युत्सर्गालम्बिपाणिस्थल निहित पदाम्भोज मानभ्रकम्बु—
ध्यानारूढंविदैन्यं भजत मुनिजनानंदकं जैनबिम्बं।।
जिनबिम्ब को शान्त नासाग्रदृष्टि, प्रशस्तमानोन्मानयुक्त, ध्यानारूढ़ एवं किञ्चित् नम्र ग्रीव बताया है। कायोत्सर्ग आसन में हाथ लम्बायमान रहते हैं तथा पद्मासन प्रतिमा में वाम हस्त की हथेली दक्षिण हस्त की हथेली पर रखी हुई होती है। जैन प्रतिमा (दिगम्बर) श्रीवृक्ष युक्त, नखकेशविहीन, परमशान्त, वृद्धत्व तथा बाल्यत्व रहित, तरुण एवं वैराग्य गुण से भूषित होती हैं। आचार्य श्री वसुनन्दि और आशाधर पंडित जी ने भी जिनप्रतिमा के उपर्युक्त लक्षणों का निरूपण किया है। विवेक—विलास में कायोत्सर्ग और पद्मासन प्रतिमाओं के सामान्य लक्षण बताये गये हैं।
सिद्धपरमेष्ठी की प्रतिमाओं में प्रातिहार्य नहीं बनाये जाते, अर्हत्प्रतिमाओं में उनका होना आवश्यक है। अर्हत् और सिद्ध दोनों की मूल प्रतिमाएँ बनायी तो समान जाती हैं पर अष्ट प्रातिहार्यों के होने अथवा न होने की अवस्था में उनकी पहचान होती है। अर्हंत् अवस्था की प्रतिमा में अष्टप्रातिहार्यों के साथ दायीं ओर यक्ष और बायीं ओर यक्षी और पादपीठ के नीचे जिन का लांछन भी दिखाया जाता है। तिलोयपण्णत्ती में भी िंसहासन तथा यक्ष युगल से युक्त जिनप्रतिमाओं का वर्णन है। ठक्कर फेरू ने तीर्थंकर प्रतिमा के आसन और परिकर का विस्तार से वर्णन किया है। मानसार में भी जिनप्रतिमाओं के परिकर आदि का वर्णन प्राप्त है। अपराजितपृच्छा में यक्ष-यक्षी, लांछन और प्रातिहार्यों की योजना का विधान है। सूत्रधार मंडन के ग्रंथों में जिनप्रतिमा को छत्रत्रय, अशोकद्रुम, देवदुन्दुभि, िंसहासन, धर्मचक्र आदि से युक्त बताया गया है। प्रत्येक जैन तीर्थंकर प्रतिमा अपने लांछन से पहचानी जाती है। वह लांछन प्रतिमा के पादपीठ पर अंकित होता है, किन्तु कुछ तीर्थंकरों की प्रतिमाओं में उनके विशिष्ट लक्षण भी दिखाये जाते हैं, जैसे आदिनाथ प्रतिमा जटाशेखर युक्त होती है, सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर सर्प के पांच फणों का छत्र तथा पार्श्वनाथ के मस्तक पर ७ या इससे ज्यादा फणों का नाग छत्र होता है।
प्रतिमा का मान प्रमाण—
जैन और जैनेतर ग्रंथों में जिनप्रतिमा के मानादि का विवरण मिलता है। वसुनन्दि आचार्य ने ताल, मुख, वितहित और द्वादशांगुल को समानार्थी बताया है और उस मान से बिम्ब निर्माण का विधान किया है। प्रतिमा के मुख को एक भाग मानकर सम्पूर्ण प्रतिमा के नौ भाग किये जाने चाहिये, तदनुसार वह प्रतिमा नौ ताल या १०८ अंगुल की होगी। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि नव ताल प्रतिमा का नवां भाग एक ताल और उसका १०८ वाँ भाग एक अंगुल कहलावेगा।
वसुनन्दि ने नव ताल में बनी ऊर्घ्व (कायोत्सर्ग आसन) जिनप्रतिमा का मान इस प्रकार बताया है—
मुख — १ ताल (१२ अंगुल)
ग्रीवाध: भाग — ४ अंगुल
कंठ से हृदय तक — १२ अंगुल
हृदय से नाभि तक — १ ताल (१२ अंगुल)
नाभि से मेंढ्र तक — १ ताल (१२ अंगुल)
मेंढ्र से जानु तक — १ हस्त (२४ अंगुल)
जानु — ४ अंगुल
जानु से गुल्फ तक — १ हस्त (२४ अंगुल)
गुल्फ से पादतल तक — ४ अंगुल
योग १०८ अंगुल — ९ ताल
प्रतिष्ठासार संग्रह में आचार्य श्री वसुनन्दि ने प्रतिमा के अंग उपांगों के मान का विस्तार से विवरण दिया है। द्वादशांगुल विस्तीर्ण और आयात केशान्त मुख के तीन भाग करने पर ललाट, नासिका और मुख (वचन) प्रत्येक भाग ४-४ अंगुल का होता है। नासिकारंध्र ८-१/२ यव और नासिका पाली ४ यव प्रमाण होना चाहिये। ललाट का तिर्यक््â आयाम आठ अंगुल बताया गया है। उसका आकार अर्धचन्द्र के समान होता है। पाँच अंगुल आयात केशस्थान में उष्णीष दो अंगुल उन्नत होता है। श्री जयसेन आचार्य के प्रतिष्ठा पाठ में भी जिनप्रतिमा का ताल सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध है वह प्राय: वसुनन्दि के समान ही है।
पद्मासन जिनप्रतिमा का उत्सेध कायोत्सर्ग प्रतिमा से आधा अर्थात् ५४ अंगुल बताया गया है। उसका तिर्यक््â आयाम एक समान होता है। एक घुटने से दूसरे घुटने तक, दायें घुटने से बायें कंधे तक, बायें घुटने से दायें कंधे तक और पादपीठ से केशांत तक चारों सूत्रों का मान एक बराबर बताया गया है।
शिल्प ग्रंथों के अनुसार मूर्ति के शुभाशुभ लक्षण इस प्रकार हैं।
प्रमाणोपेत सम्पूर्ण अवयवों वाली और शुभ लक्षण वाली मूर्ति आयुष्य और लक्ष्मी की वृद्धि करने वाली है। यदि मूर्ति का मस्तक छत्राकार हो तो धन-धान्य की वृद्धिकारक है, अच्छे नयन और ललाट हो तो निरन्तर लक्ष्मीप्रद है। सब प्रकार से शुभ हो तो प्रजा सुखी होवे।
प्रतिष्ठा विधि—
प्रतिमा बन जाने पर ही पूज्य नहीं होती है उसमें प्रतिष्ठा विधि के द्वारा पूज्यता लाई जाती है। अतएव जो जिनभक्त सज्जन इस प्रभावनावर्द्धक महान पुण्य कार्य में सद्भावों के द्वारा अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का सदुपयोग करता है उसको प्रतिष्ठा पाठों में यजमान की पदवी दी गई है, सो ही कहा है—
पाक्षिकारसम्पन्नो धी संपद्वन्धुबन्धुर:।
राज मान्यो वदान्यश्च यजमानो मत: प्रभु:।।
प्रतिष्ठापक ऐसा व्यक्ति होना चाहिये जो पाक्षिक श्रावक के आचार को अच्छी तरह पालता हो, बुद्धिमान हो, सम्पत्ति का धारक हो। राजा व राज्य कर्मचारी जिसको आदर की दृष्टि से देखते हों जिसके स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु आदि कुटुम्ब परिवार अच्छा हो, समाज या देश में बदनाम न हो, प्रतिष्ठा कार्य में तन—मन—धन से योग देता हो वही व्यक्ति प्रतिष्ठा कराने का पात्र होता है।
प्रतिष्ठेय (मूर्ति) की प्रतिष्ठा कराने के लिये प्रतिष्ठापक इन्द्र, यजमान, स्थापक ऐसे सज्जनों की आवश्यकता पड़ती है जो अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का शुभ भावों से पंचकल्याणक महोत्सव कराने में सदुपयोग करना चाहता हो।
प्रतिष्ठापक पाक्षिक श्रावक के आचरण को अच्छी तरह पालता हो, समाज में आदरणीय हो, उत्तम वर्ण—जाति, कुल व शरीर का धारक हो।
‘‘देशाजातिकुलाचारै: श्रेष्ठोदत्तसुलक्षण:।’’
जो शूद्र व बाल-वृद्ध न हो, उत्तम जाति व कुल में जन्मा हो, सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, मन्दकषायी, जितेन्द्रिय व सुन्दर हो, स्वयं पूजनादि करता हो, प्रतिष्ठायें जिसने कराई हों, ज्योतिष, मुहूर्त आदि का ज्ञाता हो, मंत्र, तंत्र, यंत्रादि का जानकार हो, पवित्रता से रहने वाला हो, विनयी हो, इत्यादि बहुत गुण जिसमें हो वही प्रतिष्ठाचार्य बनने के योग्य है।
जैनागम में प्रत्येक तीर्थंकर के जीवन काल के पाँच प्रसिद्ध घटनास्थलों का वर्णन मिलता है। उन्हें पंचकल्याणक के नाम से कहा जाता है क्योंकि वे अवसर जगत् के लिये अत्यन्त कल्याण व मंगलकारी होते हैंं जो जन्म से ही तीर्थंकर प्रकृति लेकर उत्पन्न हुए हैं उनके तो पांच ही कल्याणक होते हैं परन्तु जिसने अन्तिम भव में ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया है उसके यथासम्भव चार व तीन व दो कल्याणक भी होते हैं, क्योंकि तीर्थंकर प्रकृति के बिना साधारण साधकों को वे नहीं होते। नवनिर्मित जिनबिम्ब की शुद्धि करने के लिये जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठ किये जाते हैं वह उसी प्रधान पंचकल्याणक की कल्पना है, जिसके आरोप द्वारा प्रतिमा में असली तीर्थंकर की स्थापना होती है।
जम्बूद्वीपपण्णत्ति में आचार्यश्री ने लिखा है—
गब्भावयारकाले जन्मणकाले तहेव णिक्खमणे।
केवलणाणुप्पण्णे परिणिव्वाणम्मि समयम्मि।।
श्री जिनदेव गर्भावतारकाल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल, केवलज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाण समय इन पांच स्थानों में पंच महाकल्याणकों को प्राप्त होकर महाऋद्धियुक्त सुरेन्द्र इन्द्रों से पूजित हैं।
(१) गर्भकल्याणक—भगवान् के गर्भ में आने से छह मास पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त १५ मास तक उनके जन्म स्थान में कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार ३-१/२ करोड़ रत्नों की वर्षा होती रहती है। दिक्कुमारी देवियाँ माता की परिचर्या व गर्भशोधन करती हैं। गर्भ वाले दिन से पूर्व रात्रि को माता को १६ उत्तम स्वप्न दिखते हैं, जिन से भगवान का अवतरण निश्चय कर माता-पिता प्रसन्न होते हैं।
(२) जन्मकल्याणक—भगवान का जन्म होने पर देव भवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घण्टे आदि बजने लगते हैं और इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं। जिससे उन्हें भगवान के जन्म का निश्चय हो जाता है। सभी इन्द्र व देव भगवान का जन्मोत्सव मनाने को बड़ी धूमधाम से पृथ्वी पर आते हैं। अहमिन्द्रजन अपने-अपने स्थान पर सात पग आगे जाकर भगवान को परोक्ष नमस्कार करते हैंं। दिक्कुमारी देवियाँ भगवान के जातकर्म करती हैं। कुबेर नगर की अद्भुत शोभा करता है। इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणी प्रसूतिगृह में जाती है, माता को मायामयी निद्रा से सुलाकर उसके पास एक मायामयी पुतला लिटा देती है और बालक भगवान को लाकर इन्द्र की गोद में दे देती है, जो उसका सौन्दर्य देखने के लिये हजार नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता। ऐरावत हाथी पर भगवान को लेकर इन्द्र सुमेरु पर्वत की ओर चलता है। वहाँ पहुँचकर पाण्डुक शिला पर भगवान का क्षीरसागर से देवों द्वारा लाये गये जल के १००८ कलशों द्वारा अभिषेक करता है। तदनन्तर बालक को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर नगर में देवों सहित महान उत्सव के साथ प्रवेश करता है। बालक को देवोपुनीत वस्त्राभूषण पहनाकर, ताण्डव नृत्य आदि अनेकों मायामयी आश्चर्यकारी लीलाएँ प्रगट कर देवलोक लौट जाता है।
(३) तपकल्याणक—कुछ काल तक राज्य विभूति का भोग कर लेने के पश्चात् किसी एक दिन कोई कारण पाकर भगवान को वैराग्य उत्पन्न होता है। उसी समय ब्रह्म स्वर्ग से लौकान्तिक देव भी आकर उनके वैराग्य की सराहना करते हैं। इन्द्र उनका अभिषेक करके उन्हें वस्त्राभूषण से अलंकृत करता है। कुबेर द्वारा निर्मित पालकी में भगवान स्वयं बैठ जाते हैं। इस पालकी को पहले तो मनुष्य अपने कन्धों पर लेकर कुछ दूर पृथ्वी पर चलते हैं और फिर देव लोग लेकर आकाशमार्ग से चलते हैं। तपोवन में पहुँच कर भगवान वस्त्रालंकार का त्याग कर केशों का लुंचन कर देते हैं और दिगम्बर मुद्रा धारण कर लेते हैंं । अन्य भी अनेकों राजा उनके साथ दीक्षा धारण करते हैं, इन्द्र उन केशों को मणिमय पिटारे में रखकर क्षीर सागर में क्षेपण करता है। दीक्षा स्थान तीर्थ बन जाता है। भगवान बेला तेला आदि के नियमपूर्वक ‘नम: सिद्धेभ्य’ कहकर स्वयं दीक्षा लेते हैं क्योंकि वे स्वयं जगतगुरू हैं। नियम पूरा होने पर आहारार्थ नगर में जाते हैं और यथाविधि आहार ग्रहण करते हैं। दातार के घर पंचाश्चर्य रत्नों की वर्षा होती है। आहार के बाद जंगल की ओर चले जाते हैं तथा तपस्या करते हैं।
(४) ज्ञानकल्याणक—यथाक्रम से तप, संयम आदि की साधना करते हुए ध्यान की श्रेणियों पर आरूढ़ होते हुए चार घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर भगवान को केवलज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी प्राप्त होती है तब पुष्पवृष्टि, दुन्दुभी शब्द, अशोक वृक्ष, चमर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्ण िंसहासन और दिव्यध्वनि ये आठ प्रातिहार्य प्रगट होते हैं। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण रचता है, जिसकी विचित्र रचना से जगत् चकित होता है। १२ सभाओं में यथास्थान देव, मनुष्य, तिर्यंच, मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका आदि सभी बैठकर भगवान के उपदेशामृत का पान कर जीवन सफल करते हैं।
भगवान का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है, भगवान के चरणों के नीचे देव लोग सहस्र दल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं और भगवान इनको भी न स्पर्श करके अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्म चक्र चलता है। बाजे, नगाड़े बजते हैं। पृथ्वी ईति, भीति रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओं के साथ आगे-आगे जय-जयकार करते चलते हैं। मार्ग में सुन्दर क्रीड़ा स्थान बनाये जाते हैं। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामण्डल, छत्र, चमर स्वत: साथ—साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इन्द्र प्रतिहार बनता है। अनेकों निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर विरोध भूल जाते हैं। अन्धे, बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाता है। हरिवंश पुराण में लिखा है—
मध्यदेशे जिनेशेन धर्मतीर्थे प्रवर्तिते।
सर्वेष्वपि च दिशेषु तीर्थ मोहोन्यवर्तते।।
मध्य देश में धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति के उपरान्त सम्पूर्ण देशों में विहार करके धर्म के विषय में अज्ञान भाव का निवारण किया था। त्रिलोकीनाथ ने धर्मक्षेत्र में सद्धर्मरूपी बीज बोने के साथ ही उसे धर्मवृष्टि के द्वारा सींचा। इस प्रकार दिव्य सन्देश जन-जन को दिया।
(५) निर्वाणकल्याणक—अन्तिम समय आने पर भगवान योग निरोध द्वारा ध्यान में निश्चलता कर चार अघातिया कर्मों का भी नाश कर देते हैं और निर्वाण धाम को प्राप्त होते हैं। देव लोग निर्वाणकल्याणक की पूजा करते हैं। भगवान का शरीर कपूर की भाँति उड़ जाता है। इन्द्र उस स्थान पर भगवान के लक्षणों से युक्त सिद्ध शिला का निर्माण करता है।
इस प्रकार पंचकल्याणक विधि के द्वारा ही मूर्ति को पूजनीय बनाते हैं। पद्मनन्दि स्वामी ने लिखा है—
ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न।
निष्फलं जीवतं तेषां धिक् च गृहाश्रमम्।।
प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवता गुरुदर्शनम्।
भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्म श्रुतिरुपासकै:।।
जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं और न ही स्तुति करते हैं उनका जीवन निष्फल है तथा उस गृहस्थाश्रम को धिक्कार है।