वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता आदि गुणों से अलंकृत जिनेन्द्र भगवान के मुखारबिन्द से निर्गत एवं गणधर देव द्वारा गुम्फित द्वादशांगगत सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति में तथा त्रिलोकसार आदि ग्रंथों में सूर्य, चन्द्र एवं राहु आदि ग्रहों का सांगोपांग वर्णन किया गया है तथा कल्याणवाद पूर्व में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारागणों के संचार, उत्पत्ति एवं विपरीत गति के शुभाशुभ फलों का तथा शुभाशुभ शकुनों के फलों का वर्णन किया गया है। विद्यानुवाद पूर्व में प्रगुंष्ठसेनादिक सात सौ अल्प विद्याओं, रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्याओं के साथ—साथ आठ महानिमित्तों का भी सांगोपांग वर्णन है।
जिन लक्षणों को देखकर भूत—भविष्यत् में घटित हुई अथवा घटित होने वाली घटनाओं का आभास प्राप्त होता है उसे निमित्त कहते हैं। कारक और सूचक के भेद से ये निमित्त दो प्रकार के हैं। जो किसी वस्तु को सम्पन्न करने में सहायक होते हैं, उन्हें कारक निमित्त कहते हैं, जैसे कुम्हार के निमित्त से घट और जुलाहे के निमित्त से पट निष्पन्न होता है, तथा जिससे किसी वस्तु या कार्य की सूचना मिलती है, उसे सूचक निमित्त कहते हैं, जैसे—सिगनल का झुकना गाड़ी आने का और ठण्डी हवा बरसात या तालाब की सूचक है। ज्योतिष शास्त्र में सूचक निमित्तों की विशेषता है, क्योंकि शुभ अशुभ प्रत्येक घटनाओं के घटित होने के पूर्व प्रकृति, शरीर, स्वभाव, वाणी आदि में कुछ न कुछ अच्छे—बुरे विकार अवश्य उत्पन्न होते हैं। ये शुभाशुभ विकार सूर्यादि ग्रह अथवा अन्य प्राकृतिक कारण किसी भी व्यक्ति का स्वयं इष्ट अनिष्ट नहीं करते अपितु इष्ट—अनिष्ट रूप में घटित होने वाली भावी घटनाओं को मात्र सूचना देते हैं, और जो ज्ञानी पुरुष इन संकेतों अथवा सूचनाओं के रहस्य को समझते हैं वे भूत—भावी शुभाशुभ घटनाओं को सरलतापूर्वक जान लेते हैं।
मध्य लोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, और इन सभी द्वीप समुद्रों में अलग—अलग सूर्य—चन्द्रादि ज्योतिष देवों का अवस्थान है, किन्तु जहाँ तक मनुष्यों का सञ्चार है वहाँ (अढ़ाई द्वीप) तक के सूर्य चन्द्रादि गमन शील हैं, आगे सर्वत्र अवस्थित हैं, यह सूर्य—चन्द्रादि ग्रहों का गमन घड़ी, घण्टा, दिन, माह, ऋतु, अयन एवं वर्ष आदि व्यवहार काल मात्र का द्योतक नहीं हैं, अपितु अंधकार में दीपक के प्रकाश सदृश मनुष्यों की भूत-भावि शुभाशुभ घटनाओं के भी द्योतक हैं। इन सूर्य—चन्द्रादि ग्रहों के उदय, अस्त तथा इनकी विपरीत चाल आदि को देखकर जो भावी सुख दु:ख एवं जन्म मरण आदि का ज्ञान होता है वह अन्तरिक्ष निमित्त ज्ञान कहलाता है।
जैनागम में ज्ञानावरण दर्शनावरण आदि आठ कर्म कहे गये हैं, इनमें मोहनीय कर्म के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भेद से दो भेद हैं, इस प्रकार मुख्य कर्म नौ हैं, इन्हीं कर्मों के फलों को सूचित करने वाले नव ग्रह अन्तरिक्ष में अवस्थित हैं। ये ग्रह किसी भी व्यक्ति के इष्टानिष्ट का सम्पादन नहीं करते मात्र मानव के शुभाशुभ कर्म फलों के अभिव्यञ्जक हैं।
इन ग्रहों में से कुछ ग्रहों का किरणें अमृतमय, कुछ की विषमय और कुछ ग्रहों की उभय मिश्रित किरणें होती हैं। सौम्य ग्रह आकाश में अपनी—अपनी गति विशेष के द्वारा जहाँ—जहाँ जाते हैं। वहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य एवं बुद्धि आदि पर अपनी अमृत किरणों द्वारा सौम्य प्रभाव डालते हैं, इसी प्रकार क्रूर ग्रह दुष्प्रभाव और उभय मिश्रित रश्मिग्रह मिश्रित प्रभाव डालते हैं। बालक—बालिकाओं की उत्पत्ति के समय भी उनके पूर्व संचित कर्मानुसार जिन जिन रश्मि वाले ग्रहों की प्रधानता रहती है, उसी से उसके सम्पूर्ण जीवन के शुभाशुभ का पर्यापेक्षण कर लिया जाता है। अमृतमय रश्मियों के प्रभाव से जातक कुशाग्रबुद्धि, सत्यवादी, अप्रमादी, जितेन्द्रिय, स्वाध्यायशील एवं सच्चरित्र होते हैं, विषमय रश्मियों के प्रभाव से विवेक शून्य, दुर्बुद्धि, व्यसनी, सेवावृत्ति एवं हीनाचरण वाले होते हैं तथा मिश्रित रश्मियों के प्रभाव से मिश्रित स्वभाव वाले होते हैं।
इन ग्रह रश्मियों का प्रभाव मात्र मानव पर ही नहीं पड़ता, अपितु अचेतन पदार्थो पर भी पड़ता है। ग्रहों की गति एवं स्थिति की विलक्षणता के कारण तथा स्थान—विशेष के कारण भिन्न—भिन्न क्षेत्र एवं भिन्न—भिन्न समय में उत्पन्न हुए व्यक्तियों के स्वभाव, आकृति आदि में भी विभिन्नता पाई जाती है। इसी प्रकार जड़—चेतन पदार्थों में उत्पन्न होने वाली विलक्षणताओं का प्रभाव सूर्यादि ग्रह एवं नक्षत्रों पर भी पड़ता है। जैसे—अकम्पनादि सात सौ मुनिराजों के ऊपर उपसर्ग आने से आकाश मंडल में श्रवण नक्षत्र का कम्पायमान होना।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन चारों के परस्पर एवं भिन्न—भिन्न सम्पर्क से भी इनमें शुभ—अशुभपना आता है—
द्रव्य जैसे—आटे में शक्कर के सम्पर्क से मधुरता और विष के सम्पर्क से कटुता आ जाती है। क्षेत्र—मल, मूत्र, हड्डी, रक्त, आदि के सम्पर्क से क्षेत्र में अशुद्धता एवं महामहोत्सव, पूजा, प्रतिष्ठा, यज्ञ आदि के सम्पर्क से शुद्धता आ जाती है, उसी प्रकार अग्निदाह, अतिवृष्टि, सूर्य—चन्द्रादि ग्रहण के निमित्त काल में अशुद्धता और निर्वाण गमन एवं तीर्थकरादि महापुरुषों के जन्म आदि के कारण काल में शुद्धता आ जाती है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र एवं वार आदि के सम्पर्क से भी समय में शुद्धता—अशुद्धता आती है। जैसे—
१. मंगलवार को सप्तमी तिथि हो तो अमृत योग एवं मंगलवार को अश्विनी नक्षत्र हो तो सर्व कार्यों को सिद्ध करने वाला अमृतसिद्धि योग बनता है, किन्तु यदि सप्तमी मंगलवार को अश्विनी नक्षत्र होता है तो सर्व कार्यों का विनाशक विष योग बन जाता है।
२. ३, ८, १३ तिथि को बुधवार हो तो पाप योग बनता है, किन्तु यदि ३, ८, १३ तिथि बुधवार को मृगशिरा, श्रवण, पुष्य, जेष्ठा भरणी और अश्विनी नक्षत्र में से कोई एक नक्षत्र हो तो अमृतयोग बन जाता है। ३, ८, १३ तिथि को यदि गुरुवार हो तो भी अमृतयोग बन जाता है।
३. ४, ९, १४ तिथि सर्व कार्यों को विफल करने वाली रिक्ता तिथियाँ हैं, किन्तु इन्हें यदि शनिवार का योग प्राप्त हो जाय तो ये सर्व सिद्धिदा बन जाती हैं अर्थात् सर्वार्थसिद्धि योग बन जाता है।
४. सूर्य ग्रह जिस नक्षत्र पर हो उससे यदि चंद्रग्रह ४, ६, ९, १०, १३ एवं २० वें नक्षत्र पर हो तो जैन सिद्धान्तानुसार एक लाख दोषों को नाश करने वाला रवि योग होता है, किन्तु यदि सूर्य नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र सातवाँ हो तो भस्म योग और १५वां हो तो दण्ड योग बनता है जो सर्वथा त्याज्य है।
ऐसे सहस्रों उदाहरण हैं जिनसे समय (काल) की शुद्धता और अशुद्धता ज्ञात होती है। ज्योतिष शास्त्र में काल की इस शुद्धता का नाम शुभमुहूर्त और अशुभता का नाम अशुभमुहूर्त है जिनके निमित्त से भावी घटनाओं का संकेत प्राप्त हो जाता है। एक कार्य की पूर्णता अनेक कारणों से होती है, और उन कारणों के प्रति सजगता अर्थात् सचेष्ट रहना ही पुरुषार्थ है, यही पुरुषार्थ अर्थात् प्रयत्न कार्य की सफलता का मूल रहस्य है। जैसे—खेती करने वाला, कृषक खेत, खाद्य, जल एवं बीज आदि साधनों को जुटाते हुए साथ में समय का भी साधन जुटाता है, अर्थात् कौन सा धान्य बोने का और काटने का सर्वोत्तम मौसम कौन सा है, इसका भी ध्यान रखता है, उसी प्रकार बीज बोने या काटने के प्रारम्भ में भी उपयुक्ततम समय देखना अति आवश्यक है, क्योंकि खेती की सफलता में जैसे अनेक कारण सहायक हैं वैसे शुभमुहूर्त भी सहायक है।
जैन दर्शन ने काल को चक्ररूप से उद्घोषित किया है। अर्थात् जैसे गाड़ी के चाक में लगे हुये आरे ऊपर नीचे होते रहते हैं, वैसे ही काल रूपी चाक के प्रमुख छह आरे घूमते रहते हैं, इनमें तीन आरे शुभ, शुभतर और शुभतम हैं तथा तीन अशुभ, अशुभतर और अशुभतम हैं। काल की इस शुभता और अशुभता का मापदण्ड है प्रकृति और प्राणी। जैसे—उपर्युक्त तीनों शुभ कालों में तारतम्यता को लिए हुए प्रकृति का सौन्दर्य, सौम्यता, शान्तता, सुभिक्षता आदि क्रमश: वृद्धिगत हैं। मनुष्य के स्वभाव एवं सुख—दु:ख की हानि वृद्धि में भी इसी प्रकार परिवर्तन होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि समय एक सदृश नहीं रहता वह कभी शुद्ध कभी अशुद्ध होता रहता है और उसकी शुद्धता, अशुद्धता का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है, अत: समुचित जीवनयापन के लिए एवं कार्य सम्पादन के लिए अन्य अनेक साधनों के ज्ञान सदृश ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान एवं उसका सदुपयोग भी अति—आवश्यक है।
काल के सदृश सूर्य–चन्द्रादि ग्रह भी मानव जीवन के अभिव्यञ्जक हैं। इस ग्रह सम्बन्धी इस ज्योतिष शाखा के मूलत: तीन विभाग हैं।
१. भौतिक खण्ड—इसमें केवल सांसारिक सफलता, भौतिक समृद्धि और पारिवारिक स्थितियों का अध्ययन किया जाता है।
२. मानसिक खण्ड—इसमें मनुष्य की मानसिक शक्ति का विकास, विचार शक्ति का विकास, विद्याध्ययन की योग्यता एवं क्रिया तथा ज्ञान शक्ति के परस्पर संयोग—वियोग का अध्ययन किया जाता है।
३. आध्यात्मिक खण्ड—इसमें मनुष्य की आध्यात्मिक प्रवृत्ति, ज्ञान, ध्यान, तपस्या, योग, वैराग्य, सिद्धि, असिद्धि एवं मोक्ष आदि का अध्ययन किया जाता है। जैसे नग्न दिगम्बरत्व श्रमण की दीक्षा का योग कारक ग्रह शनि है, बलवान शनि यदि गुरु के साथ हो या गुरु को देखता हो अथवा चन्द्र और सूर्य का प्रत्यक्ष अथवा दृष्टि (अप्रत्यक्ष) सम्बन्ध शनि या राहू से हो, अथवा बलवान शनि की गुरु, चन्द्र और लग्न पर दृष्टि हो तथा गुरु नवम भाव में हो अथवा दशम भावपति, मंगल या शनि के नवांश में हो तथा शनि से दृष्ट और चन्द्र से युक्त हो तो प्रबल आध्यात्मिक सन्यास योग बनता है। मानव के जीवन विकास के लिए जैसे अन्य अन्य साधनों का एवं तज्जन्य ज्ञान होना आवश्यक है। उसी प्रकार उसकी जन्मपत्री आदि का ज्ञान भी उसके जीवन विकास के लिए अत्यावश्यक है।
मन्त्र शब्द मन् धातु से ष्ट्रन् (त्र) प्रत्यय लगा कर बना है। जिसके द्वारा आत्मा का आदेश—निजानुभव जाना जाय आत्मादेश पर विचार किया जाय अथवा परमपद में स्थित पंच परमेष्ठियों का एवं शासन देवों का सत्कार किया जाय उसे मन्त्र कहते हैं। ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यञ्जन बीज संज्ञक हैं और अ आ इ आदि स्वर शक्ति रूप हैं, अत: बीज और शक्ति दोनों के संयोग से बीज मन्त्रों की निष्पत्ति होती है।
ये सब स्वर—व्यञ्जन मातृका वर्ण कहलाते हैं, इन वर्णों में सृष्टि, स्थिति और संहार रूप तीनों शक्तियाँ पाई जाती हैं, इसीलिये ये मन्त्र विधिपूर्वक जाप्य करने वाले के लौकिक एवं अभ्युदय सुखों की सृष्टि करते हैं। बाधक कारणों का उच्चाटन आदि करके प्राप्त हुये सुख साधनों में अथवा आत्मसाधना में स्थिर रखते हैं, और अशुभ कर्मों का तथा अष्ट कर्मों का संहार करते हैं। प्रत्येक बीजाक्षरों में अनेक प्रकार की शक्तियाँ निहित हैं, किन्तु इन श्ाक्तियों की जागृति में पूर्ण विधि विधान का ज्ञान अति आवश्यक है। सुसिद्ध, सिद्ध, साध्य और शत्रु के भेद से मन्त्र चार प्रकार के होते हैं, जो मन्त्र और जपने वालों के नाम के स्वर—व्यंजनों को जोड़कर उसमें चार का भाग देकर निकाले जाते हैं। इस प्रक्रिया से शोधन किया हुआ यदि सुसिद्धि दायक भी मंत्र है, किन्तु यदि अशुभ मुहूर्त में प्रारम्भ कर लिया जायेगा तो भी अभीष्ट फल प्राप्ति नहीं होती। जैसे—ज्येष्ठ मास में किया हुआ जप मरण और आषाढ़ मास में किया हुआ जप बुद्धि नाश में कारण पड़ता है, इत्यादि।
जैनागम में णमोकार मंत्र महामन्त्र है, अन्य सभी मन्त्र इसी महामन्त्र से नि:सृत हैं, अत: मन्त्र शास्त्र भी श्रद्धास्पद एवं आत्मकल्याण में साधक हैं।
भगवान आदिनाथ ने गार्हस्थ्य अवस्था में अपनी ब्राह्मी कन्या को सर्वप्रथम स्वर—व्यंजन और सुन्दरी कन्या को अंक सिखाये थे, इसलिए जैनागम में दोनों विद्याओं का समादर सदृश है। गोल, त्रिकोन, चौकोन एवं षट्कोनादि रेखाओं से वेष्टित बीजाक्षरों द्वारा जो यन्त्र बनाये जाते हैं वे प्राय: सभी जिन मन्दिरों में उपलब्ध हैं और उन यन्त्रों पर उतनी ही श्रद्धा है जितनी भगवान् की मूर्ति पर है।
जिस प्रकार स्वर—व्यंजनों से मन्त्र और यन्त्र बनते हैं उसी प्रकार संख्या से भी यन्त्र बनते हैं। समस्त अंकों में नौ का अंक प्रधान है। भूवलय आदि ग्रंथों में इसकी महिमा महान कही है। रत्नहार की मध्यवर्ती प्रधान मणि के समान ही गणित का यह अंग प्रधान है। यह अंक समस्त विद्याओं का साधक, विश्व का रक्षक एवं छद्मस्थ की बुद्धि के अगम्य है। ३, ६ और ९ इन तीनों की बनावट तीन लोक की द्योतक है, इसीलिए ३ और ६ नौ अंक के पूरक हैं। इन तीनों में परस्पर अति मित्रता है। ३ और ६ का पहाड़ा ३, ६ और ९ को छोड़कर अन्य किसी अंक को ग्रहण नहीं करता, और विश्व व्याप्त होने से ९ का पहाड़ा तो अपने नवांक को छोड़कर अन्य किसी भी अंक को आत्मसात् करता ही नहीं।
क्षायिक लब्धियाँ ९ ही क्यों हैं ? लोक ३ ही क्यों ? तीर्थंकर २४ नारायण ९, प्रतिनारायण ९, बलदेव ९, शलाका पुरुष ६३ (· ९) ही क्यों ? २७ (· ९) श्वासोछ्वास में कायोत्सर्ग ९ ही क्यों ? माला में १०८ (· ९) दाने क्यों ? भगवान में १००८ (· ९) साधु में १०८ (· ९) और आर्यिका में १०५ (· ६) ही क्यों ? इसी प्रकार ६ माह का अयन, १२ माह का वर्ष, ३० दिन का माह, २४ घंटे का दिन रात, ६० मिनट का घंटा और ६० सेकेण्ड का मिनट आदि ही क्यों ? जीव के भ्रमण की ८४ लाख (· १२ · ३) योनियां क्यों ? फेरे ७ ही क्यों ? तथा कषायें २५ (· ७) ही क्यों ? जगत् में ऐसे प्राय: अनेक पदार्थ इसी प्रकार कोई न कोई संख्याओं से बद्ध हैं, वे कुछ न कुछ रहस्य को लिये हुए ही हैं।
मानव जीवन के उत्थान, पतन एवं शत्रुता-मित्रता आदि में जैसे अन्य पदार्थ, स्थान, काल, व्यक्ति, राशियाँ एवं ग्रह आदि कारण पड़ते हैं, उसी प्रकार अंक भी कारण पड़ते हैं, इसीलिए १५ का यंत्र, २१ का, ३४ का, ८१ का एवं १७० आदि के भिन्न—यन्त्र भिन्न—भिन्न कार्योत्पादक होते हैं तथा व्यक्तियों के नाम अंक अथवा जन्म तारीख आदि के अंकों से शत्रु मित्र भी बन जाते हैं, क्योंकि राशि एवं ग्रहों के सदृश अंकों में भी परस्पर में शत्रुता मित्रता है।
यह भी एक अपूर्व विद्या है, विद्वानों ने इसका भी विस्तृत वर्णन किया है। छोटे—छोटे ग्रामों में जहाँ वैद्य, डाक्टर एवं अस्पतालों आदि का अभाव है, वहाँ आधाशीशी, एकातरा, तिजारी आदि अनेक रोगों का उपचार इसी तन्त्र विद्या के बल से कर लिया जाता है। इतना ही नहीं, इस विद्या के प्रयोग से व्यापार आदि में भी लाभ होता है। जैसे–पुष्य नक्षत्र में निर्गुण्डी और सफेद सरसों गृह या दुकान के द्वार पर रखने से क्रय—विक्रय अच्छा होता है। मेघा नक्षत्र में लाई हुई पीपल की जड़ पास रखकर सोवे तो स्वप्न नहीं आते। तीनों उत्तरा नक्षत्रों में उत्तर दिशा से सफेद चिरचिटे की जड़ को लाकर सिर पर रखे तो नियम से विजय प्राप्त होती है इत्यादि।
रोगी मनुष्य को रोग निवृत्ति के लिए औषधि जितनी आवश्यक है, संसारी प्राणी को सुख शांति से जीवन यापन हेतु ज्योतिष, मंत्र, यंत्र एवं तन्त्र विद्या का ज्ञान भी उतना ही आवश्यक है। जिस प्रकार धन पतन का कारण नहीं है, अपितु उसका दुरुपयोग पतन का कारण है, उसी प्रकार ये उपर्युक्त विद्याएँ हानिप्रद नहीं है, मात्र इनका दुरुपयोग हानिप्रद है।
आज हमारा ध्यान भारतीय संस्कृति की ओर जाता है तो हमें गौरव का अनुभव होता है कि कोई समय था जब भारतीय संस्कृति का विश्व व्यापी साम्राज्य था और समस्त संसार इसकी मान्यताओं, सिद्धांतों एवं परम्पराओं का अनुकरण कर स्वयं को गौरवशाली अनुभव करता था। आज स्थिति खेदजनक है कि अपने ही धर्म के अनुयायी इसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। इस प्रगतिशील वैज्ञानिक युग में पूजा—पाठ, जप—तप आदि धार्मिक कर्मकाण्डों का अनुकरण करना अन्धविश्वास और पिछड़ेपन की निशानी माना जाने लगा है। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों से आकर्षित व्यक्तियों को गहराई से जानना चाहिये कि आधुनिक विज्ञान ने स्थूल जगत में ही अपने अन्वेषण किये हैं। उनके यन्त्र एवं उपकरण स्थूल वस्तुओं की गतिविधियों का ही पता चला सकते हैं। सूक्ष्म जगत में उनका प्रवेश नहीं है। सूक्ष्म जगत में अनेक शक्तियों के भण्डार भरे पड़े हैं। जिन ऋषि मुनियों ने भारतीय संस्कृत्िा की मान्यताओं, सिद्धान्तों, उपासनाओं, कर्मकाण्डों आदि पद्धतियों का निर्माण किया था वे निश्चित ही उच्चकोटि के वैज्ञानिक थे। उनकी ज्ञानज्योति में स्पष्ट झलकता था कि स्थूल जगत की अपेक्षा सूक्ष्म जगत में अधिक शक्ति सन्निहित होती है तथा उसका विकास कर मनुष्य प्रत्येक क्षेत्र में चमत्कारी सफलता प्राप्त कर सकता है। धार्मिक साधनाएँ सूक्ष्म शक्तियों के विकास में सहायक होती हैं। सूक्ष्म शक्ति को विकसित एवं तेजपुंज बनाने के लिये पूजा—पाठ, उपासना, जप—तप, ध्यान—योग आदि विधि विधानों की व्यवस्था की गई। मंत्रयोग का भी यही आधार है।
मन्त्रयोग को हम शब्दविज्ञान अथवा ध्वनिविज्ञान भी कह सकते हैं। शब्द की शक्ति पर विचार करने पर हमारा ध्यान भारतीय मन्त्रशास्त्र पर जाता है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथ मन्त्रों की महिमा से भरे पड़े हैं। जब हम मन्त्र शब्द के अर्थ पर विचार करते हैं तो कुछ ऋषि—मुनियों एवं विद्वानों द्वारा बताये गये अर्थ को समझना पर्याप्त होगा। दस से बीस वर्णों के संग्रह को मन्त्र कहा जाता है। मन्त्र में ध्वनियाँ होती हैं और ध्वनियों के समूह को मन्त्र कहा जाता है। व्याकरण की दृष्टि से मन्त्र शब्द ‘मन्’ धातु (दिवादि ज्ञान) से ‘ष्ट्रन’ (त्र) प्रत्यय लगकर बनाया जाता है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है ‘मन्यते ज्ञायते आत्मादेशो अनेन इति मन्त्र:’ अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेश का निजानुभव किया जाय वह मन्त्र है। दूसरी प्रकार तनादिगणीय (तनादि अवबोधे ूद ण्दहेग््ी) ‘मन्’ धातु से ‘ष्ट्रन’ प्रत्यय लगाकर मन्त्र शब्द बनता है। इसका व्युत्पत्ति के अनुसार ‘‘मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन स मन्त्र:’’ अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेशो पर विचार किया जावे वह मन्त्र है। तीसरे प्रकार से सम्मानार्थक ‘मन्’ धातु से ‘ष्ट्रन’ प्रत्यय लगकर मन्त्र शब्द बनता है। इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ ‘‘मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिता: आत्मान: वा यक्षादि शासन देवता अनेन इति मंत्र:’’ अर्थात् जिसके द्वारा परमपद में स्थित पंच उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासन देवों का सत्कार किया जावे वह मन्त्र है। दिगम्बर जैनाचार्य श्री समन्तभद्राचार्य ने मन्त्र व्याकरण में बताया है कि ‘‘मन्त्र्यन्ते गुप्तं भाष्यन्ते मन्त्र विद्भिरिति मन्त्रा:’’ मन्त्र विदों द्वारा गुप्तरूप से बोला जावे उसे मन्त्र जानना। ‘मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्यज्योति प्रगट होती है उन ध्वनियों के समुदाय को मन्त्र कहा जाता है। मन्त्रों का बार—बार उच्चारण किसी सोते हुए को बार—बार जगाने के समान है। यह प्रक्रिया इसी के तुल्य है, जिस प्रकार किन्हीं दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध लगा दिया जावे। साधक की विचार शक्ति ‘स्विच’ का काम करती है और मन्त्रशक्ति विद्युत लहर का। जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता मान्त्रिक के समक्ष अपना आत्मसमर्पण कर देता है और उस देवता की सारी शक्ति उस मान्त्रिक में आ जाती है, अत: मन्त्र अपने आप में देव है। उच्चकोटि के मन्त्र का पूजन—अर्चन करने के लिए यन्त्र होता है। मन्त्र देव है तो यन्त्र देव गृह है ऐसा माना जाता है। मन्त्रविदों का कहना है कि तपोधन ऋषि—मुनियों द्वारा जो रेखाकृति बनाई जाती है, मनोरथ पूर्ण करने की जो शक्ति बीजाक्षरों में है उसे स्वयं ही मन्त्र सामर्थ्य से रेखाकृतियों (यन्त्रों) में भर देते हैं। मंत्र और मंत्र देवता इन दोनों का शरीर यंत्र कल्प में होता है, कारण यन्त्र इन मन्त्र और मन्त्र देवता का शरीर होता है।
यन्त्रमन्त्रमयं प्रोक्तं, मन्त्रात्मा देवता एव हि।
देहात्मनो यथा भेदो, यन्त्र देवतयोस्तथा।।
मन्त्र—यन्त्र की स्थापना के बाद उनके विधि—विधान और क्रम के लिए तन्त्र अर्थात् शास्त्र की रचना होती है। शास्त्र के अर्थ में तन्त्र को न लेकर उसे मन्त्र—यन्त्र के समकक्ष अर्थ में समझना होगा। किसी विशेष समय में किसी वस्तु विशेष को विधिपूर्वक लाकर उपयोग करना तन्त्र शास्त्र के अन्तर्गत आता है। अर्थात् दिन, पक्ष, नक्षत्र, माह, लग्न आदि का ध्यान रखकर किसी वस्तु को विधिपूर्वक लाना तथा उद्देश्यानुसार उपयोग करना उसे तन्त्र विद्या कहा जाता है। तन्त्रविद्या में मन्त्रसाधना की आवश्यकता नहीं होती। यदि फिर भी उससे सम्बन्धित कोई मन्त्र हो तब उसे सिद्ध कर लेने में तन्त्र अधिक गुणकारी हो जाता है। तन्त्रौषधि भी अपने आप में देव मानी जाती है। अत: मन्त्र—यन्त्र जितना गुणकारी है उतनी ही तंत्र विद्या भी गुणकारी है। आचार्यों ने मन्त्र को देव, यन्त्र को उसका शरीर तथा तंत्र को उसकी प्रिय वस्तु माना है।
आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में कुछ उदाहरणों द्वारा यह समझेंगे कि भारतीय मन्त्रविद्या मात्र कपोल कल्पना नहीं, अपितु इसके पीछे ठोस वैज्ञानिक सिद्धान्त काम करते हैं। मन्त्र में शब्द होते हैं और शब्दों के घर्षण में सूक्ष्म—शक्ति होती है। स्थूल शरीर में कुछ भी शक्ति नहीं है वरन् हमारे सूक्ष्म शरीर (आत्मा) में अनेक प्रकार की शक्तियाँ विद्यमान हैं। जिनको मन्त्र की सूक्ष्म शक्ति से जगाकर हम असाधारण कार्यों का भी सम्पादन कर सकते हैं। यह नियम है कि सूक्ष्म जगत में सूक्ष्म की ही पहुँच सम्भव हो सकती है, स्थूल वस्तुओं का प्रवेश वहाँ निषिद्ध है। मंत्रों का आधार जब शब्दों का उच्चारण होता है तो उससे कम्पन्न उत्पन्न होते हैं। वह कम्पन इथर के माध्यम से विश्व की यात्रा में अनुकूल कम्पनों के साथ मिलते हैं, अनुकूलता में एकता का सिद्धान्त है। उन कम्पनों का पुंज बन जाता है और अपने केन्द्र तक (साधक) लौटते लौटते अपनी काफी शक्ति बढ़ा लेते हैं और यह कार्य इतनी तीव्र गति से होता है कि साधक को इसका अनुभव भी नहीं हो पाता कि शब्दों के उच्चारण मात्र से वैâसे चमत्कार उत्पन्न हो रहे हैं। संसार में शब्दों के अनेक चमत्कार प्रत्यक्षरूप से देखने को मिलते हैं। मेघ मल्हार से वर्षा की जाती है, दीपकराग से बुझे हुए दीपक जलाये जाते हैं। ढोल अथवा थाली बजाकर मंत्र पढ़ते हुए सर्प, बिच्छु आदि का जहर उतारा जाता है।
आज से २४ वर्ष पूर्व लखनऊ के वैज्ञानिक श्री सी. टी. एम. िंसह ने स्लाइडों के माध्यम से यह सिद्ध किया कि संगीत की स्वर लहरी सुनाकर गायों एवं भैसों से अपेक्षाकृत अधिक दूध प्राप्त होता है। कटक और दिल्ली के कृषि अनुसंधान केन्द्रों में भी ऐसे ही परीक्षण किये गये हैं जिनसे पेड़ पौधों की उत्पादन शक्ति पर संगीत के प्रभाव का मूल्यांकन किया गया है। विदेशों में भी ऐसे ही परीक्षणों का पता चला है कि राग–रागनियों से गन्ने, धान और नारियल आदि की खेती प्रभावित होती है।
ग्राहम और नील नामक दो वैज्ञानिकों ने आस्ट्रेलिया के मेलबोन नगर की एक भारी भीड़ वाली सड़क पर शब्दशक्ति का वैज्ञानिक प्रयोग किया और सार्वजनिक प्रदर्शन में सफल रहे। परीक्षण का माध्यम भी एक निर्जीव कार जिसे अपने इशारों पर नचाना चाहते थे और यह सिद्ध करना चाहते थे कि शब्दशक्ति की सहायता से बिना किसी चालक के कार चल सकती है। हजारों की संख्या में लोगों ने देखा कि संचालक के कार स्टार्ट करते ही कार चलना प्रारम्भ हो गई और ‘गो’ के सुनते ही गति पकड़ ली। लोग देखते ही रहे कि निर्जीव कार के भी कान होते हैं। जैसे—थोड़ी दूर जाकर संचालक ने ‘हाल्ट’ का आदेश दिया तो वह कार तुरन्त रुक गई। यह कोई हाथ की सफाई का काम नहीं था, वरन् इसके पीछे विज्ञान का एक निश्चित सिद्धान्त काम कर रहा था। ग्राहम के हाथ में एक छोटा ट्रांजिस्टर था जिसका काम यह था कि आदेशकर्त्ता की ध्वनि को एक निश्चित प्रâीक्वेन्सी पर विद्युतशक्ति के द्वारा कार में ‘डेशबोर्ड’ के नीचे लगे ‘नियन्त्रण कक्ष’ तक पहुँचा दे। उसके आगे ‘कार रेडियो’ नाम का एक दूसरा यंत्र लगा हुआ था इस यंत्र से जब शब्द की विद्युत चुम्बकीय तरंगें टकरातीं तो कार के सभी पुर्जे अपने आप संचालित होने लगते थे। लोगों ने चमत्कार की संज्ञा दी पर वास्तव में यह शब्द शक्ति का विकसित प्रयोग था जिसे आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्तों का आधार प्राप्त था।
इस प्रकार और भी कई आधुनिक विज्ञान के प्रयोग शब्द शक्ति के सम्बन्ध में हैं जो प्राचीन शास्त्रों में वर्णित शब्दशक्ति का समर्थन करते हैं। प्रâांस की एक प्रसिद्ध महिला वैज्ञानिक फिनोिंलग ने शब्द विज्ञान पर परीक्षण किये थे और उसने सिद्ध किया था कि शब्द के साथ मन और हृदय का सम्बन्ध रहता है। यह शब्द तरंगों के जिस चमत्कारित प्रभाव का वर्णन वैज्ञानिक परीक्षणों से किया गया है उनका संचालन विद्युतशक्ति के द्वारा होता है।
आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में शब्द की सामर्थ्य को सभी भौतिक शक्तियों से बढ़कर सूक्ष्म और विभेदन क्षमतावाली पाया तथा इसी बात की निश्चित जानकारी हमारे ऋषि—मुनियों के दिव्य—ज्ञान में झलकती थी जिसके कारण उन्होंने मंत्रविद्या, यंत्रविद्या तथा तंत्रविद्या का विकास किया जिस पर कई ग्रंथों की रचना हुई। उन मंत्र तंत्रों के ग्रंथों की विषयगत व्यापकता बड़ी दर्शनीय है।
भारतीय मंत्र शास्त्र की इस विशाल परम्परा में जैनधर्म में मंत्र, यंत्र एवं तंत्र से सम्बन्धित शास्त्र प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। जैनदर्शन की प्रत्येक विद्या का प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से सम्बन्ध भगवान महावीर की वाणी से जुड़ा हुआ है। विद्यानुवाद पूर्व नामक पूर्व में मंत्र, यंत्र, तंत्र का निमित्त आदि का विस्तृत वर्णन पाया जाता है उसी के आधार से वर्तमान में उपलब्ध मंत्र साहित्य निर्मित है।
शान्तिक मन्त्र—जिन मंत्रों के द्वारा भयंकर आधि, व्याधि, व्यन्तर—भूत—पिशाचों की पीड़ा, क्रूरग्रह, जंगम स्थावर विष बाधा, अतिवृष्टि, दुर्भिक्षादि ईतियों और चोर आदि का भय शांत हो जावे वे शांतिक मंत्र हैं।
पौष्टिक मंत्र—जिन मंत्रों के द्वारा धन, धान्य, सौभाग्य, यशकीर्ति तथा संतान आदि की प्राप्ति होती है।
वश्याकर्षण—जिन मंत्रों के द्वारा मनुष्य, पशु—पक्षी, देवी—देवता आदि वशीभूत किये जा सकें।
मोहनमंत्र—जिन मंत्रों के द्वारा प्राणी मात्र को मोहित किया जा सके।
स्तम्भनमंत्र—जिन मंत्रों के द्वारा मनुष्य, पशु—पक्षी, भूत—प्रेत आदि को निष्क्रिय कर स्तम्भित किया जा सके।
विद्वेषणमंत्र—जिन मंत्रों के द्वारा किसी दो व्यक्तियों के मध्य वैमनस्य उत्पन्न कर दिया जावे।
उच्चाटनमंत्र—जिन मंत्रों के द्वारा प्राणीमात्र को अपने स्थान से भ्रष्ट किया जा सके।
मारणमंत्र—जिन मंत्रों के द्वारा किसी आततायी का प्राण हरण कर लिया जावे।
लक्ष्मी की अनिवार्यता को प्रत्येक व्यक्ति अनुभव करता है, क्योंकि संसार का प्रत्येक कार्य इसी के सहयोग से सम्पन्न होता है यह जीवन की प्रथम आवश्यकता है। व्यक्ति ही नहीं समाज और राष्ट्र का उत्थान और पतन इसी पर निर्भर करता है। स्वामि एलाचार्य ने अपने कुरलकाव्य ग्रंथ में कहा भी है—
तुच्छोऽपि गुरुतां याति विश्रुतिञ्चाप्यविश्रुत:।
धनेन मनुजो ह्येवं शक्ति: क्वान्यत्र दृश्यते।।
‘‘अर्थात् धन संसार के अन्य द्रव्यों में अद्भुत द्रव्य है जिसकी प्राप्ति से भिखारी भी प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है।’’ जिस घर में लक्ष्मी का निवास नहीं होता वहीं दु:ख, दारिद्र, कलह, मनमुटाव, निराशा, असंतोष व विभिन्न प्रकार की समस्याएँ एवं उलझने उत्पन्न होती रहती हैं। धन का अभाव दुर्भाग्य का सूचक माना गया है। जैनाचार्यों द्वारा विरचित मंत्र शास्त्रों में पौष्टिक मंत्रों के अन्तर्गत धन प्राप्ति सम्बन्धी अनेक मंत्र, यंत्र, तंत्रों का प्रतिपादन किया गया है उनकी जानकारी गुरुमुख (किन्हीं जानकार गुरुजनों) से प्राप्त कर उनकी साधना के द्वारा अपने जीवन को सम्पन्न बनाया जा सकता है। लक्ष्मी प्राप्ति प्रकरण में अनेकविध मंत्र और यंत्रों का वर्णन जैन साहित्य में प्राप्त होता है।
इतने सारे मंत्र—यंत्र और तंत्रों को पढ़ने के बाद यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब ये सभी मंत्र—यंत्र एवं तंत्र लक्ष्मी प्राप्ति में सहायक हैं और उसी के लिये लिखे गये हैं तो क्या एक मंत्र, एक यंत्र अथवा एक तंत्र से कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है ? इतने सारे मंत्र लिखने की क्या आवश्यकता थी ? इस सम्बन्ध में आचार्यों ने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा कि हर मंत्र हर किसी व्यक्ति को लाभ नहीं पहुचा सकता। जो मंत्र एक व्यक्ति को लाभ पहुंचा सकता है उसी से दूसरे व्यक्ति को हानि भी हो सकती है। मल्लिषेणाचार्य ने बताया है कि ‘‘बुद्धिमान पुरुष (मान्त्रिक) मंत्र और मंत्री (साधक) अंशों को जानकर ही मन्त्र बतावे, अन्यथा साधक की साधना व्यर्थ जाती है।’’
अत: मन्त्र साधना के पूर्व साधक अपने नाम राशि के अनुसार सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध एवं अरि (शत्रु) को जानकर अर्थात् अंशक परीक्षा कर मंत्र साधना का प्रयत्न करें ऐसा आचार्यों ने उल्लेख किया है। ‘‘भैरव पद्मावती कल्प’’ के अनुसार अंशक परीक्षा में मंत्र और मंत्री (साधक) के नाम अनुसार व्यंजन और स्वरों को पृथक््â—पृथक््â करके उपर मन्त्र के और नीचे साधक नाम के अक्षरों को रखे। मन्त्री (साधक) के नाम के अक्षरों से मन्त्र के अक्षरों को (ऋ ऋ ऌ ऌ की छोड़कर) गिनकर जोड़ देवे और उनको चार का भाग देवे फिर आय (भागफल) में भाग देकर निकले हुए शेष को बुद्धिमान आदि में एक पंक्ति में रखे। यदि वह एक हो तो सिद्ध, दो हो तो साध्य, तीन हो तो सुसिद्ध और चार अथवा शून्य हो तो शत्रु जानना। इसमें से बुद्धिमान सिद्ध और सुसिद्ध मन्त्र को ग्रहण कर ले और साध्य तथा शत्रु को छोड़ देवे, क्योंकि सिद्ध और सुसिद्ध फल देते हैं तथा साध्य और शत्रु हानि करते हैं।
आचार्य महावीर कीर्ति स्मृति ग्रंथ में अंशक परीक्षा में निम्न कथन पाया जाता है—
‘‘जिस मन्त्र की साधना करना हो उस मन्त्र के अक्षरों को तीन गुना करके अपने नाम के (साधक के नाम के) अक्षरों की संख्या उसमें मिला दे तथा उस संख्या को १२ से भाग देवें। शेष जो बचे उसका फल इस प्रकार होगा।
५, ९ शेष बचे तो मंत्र सिद्ध होगा।
६, १० शेष बचे तो मंत्र देरी से सिद्ध होगा।
७, ११ शेष बचे तो मंत्र अच्छा है।
८, १२ शेष बचे तो मंत्र सिद्ध नहीं होगा।
मल्लिषेण सूरि ने मन्त्र एवं साधक के नाम के अक्षरों के स्वर व्यंजन अनुस्वार आदि को पृथक््â पृथक््â कर जोड़ने का विधान बताया है तथा चार का भाग देने को कहा है। महावीर कीर्ति स्मृति ग्रंथ के अनुसार स्वर एवं व्यंजन आदि को पृथक््â करने का विधान नहीं है, किन्तु मन्त्र के अक्षरों को जोड़कर तीन का गुणा करने पर तथा साधक अक्षरों को जोड़कर कुल संख्या में १२ का भाग देने को बताया है। दोनों के अंशक परीक्षा करने की विधि में काफी अन्तर है।
१. स्थान शुद्ध और पवित्र होना चाहिए—तीर्थभूमि, मन्दिर, वन प्रदेश, पर्वत का ऊँचा स्थान, नदी का किनारा। घर में एकान्त स्थान जहाँ आवाज न पहुँचे, ऐसी जगह उपासना गृह रखने का विधान बताया है।
२. प्रतिमाजी के सम्मुख अथवा चित्र के सम्मुख साधना करने का विधान है।
३. साधना का समय एवं जप संख्या निर्धारित होती है उसमें फेरफार नहीं करने का विधान बताया है।
४. वस्त्र धुला हुआ शुद्ध एवं मन्त्र विधि के रङ्गानुसार लेने का विधान है।
५. धूप, दीप अवश्य रखना चाहिए ऐसा विधान बताया है।
६. मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण न अतिशीघ्र न अति धीरे, मध्यम गति से जप करने का विधान बताया गया है।
७. मंत्र की उपासना, ध्यान, पूजन, जप आदि को श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक करने का निर्देश दिया हुआ है।
८. दिशा, काल, मुद्रा, आसन, वर्ण, माला, मंडल, पल्लव और दीपनादि मंत्रानुसार जानकर ही साधना करने का विधान बताया है।
विशेष—जिन मंत्रों के साथ मंत्र नहीं दिये हुए हैं सिर्फ अंक ही दर्शाये गये हैं उनके बारे में सिद्ध करने का विधान निम्नानुसार है
सिर्फ अंक वाले यन्त्र हैं—उन्हें उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख कर चौकी पर भूर्ज पत्र रखकर अथवा कागज रखकर धूप, दीप के साथ कम से कम साढ़े बारह हजार यंत्र अष्टगन्ध से लिखकर तथा आटे की गोलियाँ कर नदी अथवा तालाब में बहा देने से सिद्ध होने का विधान बताया है। बाद में जिस उपयोग के लिये लिखा है उस उपयोग में लेने से फल प्राप्ति की आशा है।
तन्त्र विद्या में—एक दिन पूर्व शाम को उस पे़ड को न्योता देकर अर्थात् पूजनकर निमन्त्रण दे आने तथा दूसरे दिन उसे बिना लोहे के हथियार के काटने का विधान है। साथ ही घर लाकर पंचामृत से शुद्धि कर फलफूल नैवेद्य समर्पण करके तन्त्रानुसार फल प्राप्ति का विधान बताया है।
रविपुष्य योग—में घर अथवा दुकान के द्वार पर सफेद सरसों और निर्गुण्डी को बांधी जाय तो क्रय विक्रय बहुत होता है अर्थात् व्यापार बहुत होता है।
रविपुष्य योग—में कच्चा कपूर, सोवीरांजन, पातालतुम्ब, सफेदगिरी का मूल तथा पाताल गुगल के धुएं से काजल बनाकर स्वयं की आंख में अंजन करना तथा पीपल के सोलह पत्ते आंखों पर बांधना जिससे जिस स्थान पर सम्पत्ति हो उस स्थान पर ज्वाला दिखती है तथा जितने स्थान पर ज्वाला दिखती है उतने ही स्थान पर सम्पत्ति होती है।
पुष्यार्क योग—में सफेद आक जिसकी जड़ गणेशाकार होती है लाकर द्रव्य में रखने से अष्टसिद्धि तथा नवनिधि प्राप्त होती है।
रोहिणी नक्षत्र—में बिल्व (बेल) वृक्ष का बांधा बायें हाथ पर बांधने से दारिद्र दूर होता है।
उत्तराषाढ़ा नक्षत्र—में दक्षिण मुख करके डमरा मूल (डमरानुमूल) लाकर गद्दी के नीचे रखने से उद्योग व्यापार अच्छा चलता है।
चित्रा नक्षत्र—में सफेद आक का बांधा लाकर अपने पास रखने से मन में सोचे हुए कार्य की सिद्धि होती हैं
भरणी नक्षत्र—में दर्थ का बांधा लाकर श्री रोकड़ की तिजोरी अथवा रुपयों की थैली में रखने से व्यापार में वृद्धि होती है।
रोहिणी नक्षत्र—में बिल्व पत्ता (बिलीनुपांदडु) तीन पत्तेवाला लाकर पूजनकर कवच में बन्द कर हाथ पर बांधने से दरिद्रता का नाश होता है। लक्ष्मी प्राप्ति होती है।
विशाखा नक्षत्र—में बेर का पत्ता (बोरडीनु पानु) लाकर कवच में रख हाथ पर बांधने से व्यापार अच्छा चलता है।
मघा नक्षत्र—में बड़ के नीचे दूसरा बड़ का पौधा जो कि बड़ बीज के द्वारा स्वत: ही उगा हुआ हो उसे पहले दिन विधिपूर्वक आमंत्रण देकर दूसरे दिन (मघा नक्षत्र में) वहां जाकर अपनी छाया उस पर नहीं पड़े इस प्रकार खड़े होकर पूजन कर पूर्वाभिमुख होकर उस छोटे से बड़ के पौधे को हाथ से उखाड़ कर घर लाना। शुद्ध जल से अभिषेक कर धूप, दीप, फल, फूल द्वारा पूजाकर तांबे के डिब्बे में रखने से अष्टसिद्धि तथा सभी प्रकार की सुख समृद्धि होती है धनिष्ठा नक्षत्र में नारियल का पत्ता लाकर अपने पास रखने से धन की वृद्धि होती है। रोहिणी नक्षत्र में जिस बड़ वृक्ष की बड़वाई (बड़ की शाखाओं से पतली—पतली धागानुमा निकलने वाली पृथ्वी की ओर जाकर पृथ्वी में प्रवेश कर एक नये बड़ का रूप धारण करती हैं) बढ़कर तालाब नदी के जल तक पहुँच गई हो उसे विधिपूर्वक हाथ से तोड़ कर घर लाना तथा उसकी अंगूठी (गोलाकार) बनाकर तांबे के डिब्बे में रखना, चांवल, कुमकुम, ताम्बुल, धूप, दीप से पूजा कर तिजोरी अथवा नगदी की जगह रखने से क्रय विक्रय अच्छा होता है।
पुष्य नक्षत्र—और गुरुवार हो उस दिन महुए की कोमल डाल पत्ते सहित विधिपूर्वक लाकर विधिपूर्वक रिंग (गोल) आकार बनाकर गल्ले के नीचे रखने से व्यापार अच्छा चलता है।
जैन मन्त्र शास्त्र की एक विशाल परम्परा है जिसके स्वरूप को आचार्यों ने अष्ट विधाओं में विभक्त कर मानव के प्रत्येक क्षेत्र को सहज एवं सुखमय बनाने का मार्ग सुझाया है। इसे केवल कल्पना नहीं, किन्तु आयुर्वेद के चिकित्साशास्त्रों से भी प्रमाणित हैं कि मंत्र तंत्र से अनेक प्रकार की आधि—व्याधि से मुक्ति दिलाकर मानव के जीवन को प्रशस्त किया जा सकता है। वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा शब्द की ध्वनि तरङ्गों की भौतिक उपलब्धियों के उदाहरणों पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय तो मंत्र शक्ति के रहस्यों पर आस्था और विश्वास अधिक बढ़ सकता है। जिस अदम्य साहस और परिश्रम से भौतिक विज्ञान के आचार्यों ने शब्द विज्ञान के रहस्यों को प्रगट करके नयी आस्थाएँ बनायी हैं, उसी प्रकार मंत्र साधना के आचार्यों का भी कर्तव्य होगा कि वह इस क्षेत्र में हर प्रकार के प्रयोग करे तथा तथ्यों का विश्लेषण कर लुप्त प्राय: विधि विधानों को विकसित करे ताकि वैज्ञानिक युग में मंत्रशक्ति पर डूबते हुए विश्वास को पुन: उभारा ही नहीं जा सके अपितु मानव जीवन को प्रशस्त किया जा सके।