जैनाचार्यों ने इस जगत के स्वरूप को सुस्पष्ट करने के लिए चार अपेक्षाओं से कथन किया है। द्रव्य—अपेक्षा से पंचास्तिकाय का, काल—अपेक्षा से नव पदार्थ का और भाव—अपेक्षा से सप्त तत्त्व का। जीव के मुक्तिमार्ग में इन सबका सम्यग्ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है; अतएव इन्हें ‘प्रयोजनभूत’ भी कहा जाता है। भव्य जीवों को इन्हें रत्नमाला के समान धारण कर अपने हृदय की शोभा बढ़ानी चाहिए, जैसा कि मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ने कहा है—
अर्थ—इस प्रकार जिनमार्गरूपी समुद्र में से षड्द्रव्य रूपी रत्नों की माला भव्यों के कण्ठाभरण हेतु पूर्वाचार्यों ने प्रीतिपूर्वक बाहर निकाली है।
जैन आगम में इन सभी षड् द्रव्यादिकों का वर्णन ‘पूर्वगत’ कहलाता है, जिसका अभिप्राय है कि ये सभी पूर्व (अनादि परम्परा) से ही चले आ रहे हैं। इनका स्वरूप और कथन किसी ने नया नहीं किया है।
‘षड् द्रव्यात्मको लोक:’।
इसके जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल—ये छहों द्रव्य (जाति की अपेक्षा ६, संख्या की अपेक्षा अनन्तानंत) अनादिकाल से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। इनका उत्पत्ति—विनाश सर्वथा नहीं होता, मात्र अवस्था—परिवर्तन होता रहता है। ये सभी द्रव्य यद्यपि एक—दूसरे को अवगाहन देते हुए एक—दूसरे में प्रवेश करते रहते हैं, परस्पर मिल भी जाते हैं परन्तु फिर भी कभी भी कोई द्रव्य अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है। यथा—
‘‘अण्णोण्णं पविसंता िंदता ओगासमण्णमण्णस्स।
मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति।।’’
अर्थ—वे छहों द्रव्य एक—दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक—दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर (क्षीरनीरवत्) मिल जाते हैं तथापि अपने—अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।
यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है। इसे एक उदाहरण द्वारा हम इस प्रकार समझ सकते हैं—एक संगीत सभा हो रही है। ध्वनियन्त्र (माइक) के माध्यम से सभा में विविध वाद्ययन्त्रों और गायक/गायिका की भी आवाजें पूरी सभा में प्रसरित हो रही हैं। वहाँ वे सभी आवाजें ध्वनियन्त्र के एक पतले से तार में प्रवेश करके ही परस्पर एकमेक होकर ही सर्वत्र हो रही हैं; तथापि ध्यान से देखा जाए तो वे सभी आवाजें पृथक््â—पृथक््â ही हैं, कोई किसी से मिली नहीं हैं; इसीलिए प्रबुद्ध श्रोता उन्हें भलीभांति पहचानते भी हैं कि यह बाँसुरी है, यह ढोलक है, यह हारमोनियम है, इत्यादि।
इसी प्रकार इस लोक में भी सर्व द्रव्य एक—दूसरे में प्रवेश करते और परस्पर मिलते हुए भी दिखाई देते हैं, पर परमार्थ से सर्व द्रव्य स्वतन्त्र हैं, पृथक्—पृथक् हैं और कोई किसी में कथमपि नहीं मिलता है। जैन दर्शन के इस प्रतिपादन में सर्व द्रव्यों की स्वतन्त्रता का मंगल उद्घोष सुनाई देता है।
षड्द्रव्य, पंचास्तिकाय, नव पदार्थ और सप्त तत्त्व सम्बन्धी विवेचन को पढ़ते समय एक यह भी बात विशेष रूप से ध्यातव्य है कि उक्त सभी में सर्वप्रथम जीव को गिनाया गया है, जीव को ही सर्वप्रथम स्थान दिया गया है; क्योंकि उसे समझना सर्वप्रथम जरूरी है, वही हमारा मूलभूत श्रद्धेय, ज्ञेय, ध्येय है; शेष अन्य सभी को जानने का मूल प्रयोजन भी तो एक जीव को ही जानना है; जैसा कि आचार्य श्री रामसेन ने ‘तत्त्वानुशासन’ में स्पष्टतया लिखा है—
पुरुष पुद्गल: कालो धर्माधर्मौ तथाम्बरम्।
षड्विधं द्रव्यमाख्यातं तत्र ध्येयतम: पुमान्।।
सति हि ज्ञातरि ज्ञेयं ध्येयतां प्रतिपद्यते।
ततो ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मा ध्येयतम: स्मृत:।।
अर्थ—जीव, पुद्गल, काल, धर्म, अधर्म और आकाश—इस प्रकार द्रव्य के छह भेद कहे गये हैं। उन सबमें एक जीव ही ध्येयतम है। ज्ञाता के होने पर ही ज्ञेय ध्येयता को प्राप्त होता है इसलिए एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही ध्येयतम है।
श्री कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने भी अपने समयसारादि ग्रंथों में एक आत्मा को ही जानने की प्रबल प्रेरणा भव्य जीवों को प्रदान की है।
‘कार्तिकेयानुप्रेक्षा’ आदि ग्रंथों में भी इसी अपेक्षा से जीव को सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य और सर्व तत्त्वों में परमतत्त्व या अत्यन्त सारभूत कहा है। इतना ही नहीं, श्री कुन्दकुन्दादि आचार्यों ने तो अपने आध्यात्मिक ग्रंथों में यहाँ तक कह दिया है कि जो एक अपने आत्मा को जानता है, वह सब कुछ जानता है। समझ लो कि उसने द्वादशांगरूप सम्पूर्ण जिनवाणी को ही जान लिया है। यथा—
‘‘जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं।
अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं।।’’
‘जिसने आत्मा को जान लिया उसने सब कुछ जान लिया’—यह बात कोई भावुकता से भरकर यूँ ही नहीं कह दी गयी है; अपितु पूर्णतया युक्तिसंगत भी है। ‘जिसने आत्मा को जान लिया उसने सब जान लिया’—इस कथन को परमात्मप्रकाश, दोहा १/९९ की टीका में आचार्य श्री ब्रह्मदेवसूरि ने भलीभाँति ४ तर्कों द्वारा सिद्ध किया है, जो गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करने योग्य है। यथा—
१. सम्पूर्ण लोक में या सर्व ग्रंथों में सार एक आत्मा ही है अत: जिसने आत्मा को जाना उसने सब जान लिया।
२. आत्मा को जानने पर स्व और पर के भेद से विद्यमान सब कुछ जान लिया जाता है अत: जिसने आत्मा को जाना उसने सब जान लिया।
३. आत्मा को जानने पर श्रुतज्ञानरूप व्याप्तिज्ञान से सर्व लोकालोक जानने में आ जाता है अत: जिसने आत्मा को जाना उसने सब जान लिया।
४. आत्मा को जानने पर शीघ्र केवलज्ञान प्राप्त होता है जो लोकालोक को जानता है अत: जिसने आत्मा को जाना उसने सब जान लिया।
अत: हमें अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर एक अपने आत्मतत्त्व को ही भलीभांति जानने का पुरुषार्थ करना चाहिए। हमारी समस्त क्रियाओं का एक मात्र लक्ष्य (प्रयोजन) अपने आत्मा को जानना ही होना चाहिए। यहाँ तक कि स्वाध्याय करते समय भी, ग्रंथों के विभिन्न विषयों को पढ़ते, सुनते—समझते समय भी, एक अपने आत्मतत्त्व के श्रद्धान-ज्ञान- ध्यानरूप मूलभूत प्रयोजन का स्मरण सदैव रखना चाहिए।
जैन शास्त्रों में ‘आत्मा’ के अनेक पर्यायवाची या समानार्थक शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। सर्वप्रथम हमें उनको जान लेना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा भी आत्मा का स्वरूप—बोध स्पष्टतर होता है। संक्षेप में आत्मा के कुछ प्रमुख पर्यायवाची इस प्रकार हैं—
(१) जीव—आत्मा के लिए ‘जीव’ शब्द का प्रयोग सर्वाधिक किया गया है। आत्मा जीता था, जीता है और भविष्य में भी सदा काल जीता रहेगा अत: इसे जीव कहते हैं।
(२) ज्ञ—आत्मा सदा काल जानता है, आत्मा के अतिरिक्त संसार का कोई भी अन्य पदार्थ जानने का कार्य नहीं करता इसलिए आत्मा को ‘ज्ञ’ भी कहते हैं।
(३) ज्ञानी—आत्मा ज्ञान गुण का स्वामी है, उसमें ज्ञान गुण पाया जाता है, उसके अतिरिक्त संसार के किसी भी अन्य पदार्थ में ज्ञान गुण नहीं पाया जाता है इसलिए आत्मा को ‘ज्ञानी’ भी कहते हैं। यहाँ ‘ज्ञानी’ का अर्थ ‘विद्वान्’ नहीं है अपितु ‘ज्ञान गुण का स्वामी’ या ‘ज्ञान गुण से सहित’ है।
(४) ज्ञाता—आत्मा ज्ञान क्रिया का कर्ता है अत: ज्ञाता कहलाता है।
(५) प्राणी—वास्तव में आत्मा दो प्रकार का है—संसारी और मुक्त। ‘प्राणी’ संसारी आत्मा का पर्यायवाची है क्योंकि संसारावस्था में यह आत्मा प्राणों से सहित अथवा प्राणों का धारक होता है। प्राण चार प्रकार के कहे गये हैं—इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास। इन्द्रियाँ पाँच होती हैं—स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण; बल तीन होते हैं—मनबल, वचनबल एवं कायबल तथा आयु और श्वासोच्छ्वास। इस प्रकार कुल मिलाकर प्राणों की सख्या दस भी कही जाती है। मुक्त आत्माएँ इन सर्व प्राणों से रहित होती हैं अत: उन्हें ‘प्राणी’ कहना ठीक नहीं है।
(६) शरीरी—शरीर सहित होने के कारण संसारी आत्मा को ‘शरीरी’ भी कहते हैं।
(७) देही—देह भी शरीर को ही कहते हैं। संसारी आत्मा सदा देह सहित रहता है अत: उसे ‘देही’ कहते हैं।
(८) जन्तु—चतुर्गतिरूप संसार में जन्म-मरण करते रहने के कारण संसारी आत्मा का एक पर्यायवाची नाम ‘जन्तु’ भी प्रचलित है।
(९) अग्र—‘अग्र’ शब्द का अर्थ है—गमन करना या जानना। आत्मा ही ऐसा पदार्थ है जो गमन (परिणमन) भी करता है और जानता भी है; अत: उसे अग्र कहते हैं। छहों द्रव्यों, सातों तत्त्वों और नवों पदार्थों में अग्र अर्थात् प्रधान होने से भी आत्मा को ‘अग्र’ कहा जाता है।
(१०) पुरुष—आत्मा का एक नाम पुरुष भी है। पुरु का अर्थ है—ज्ञान या चेतना। जो ज्ञान या चेतना में शयन करे, निवास करे, उसे पुरुष कहते हैं। आत्मा सदैव ज्ञान या चेतना में ही निवास करता है, कभी भी ज्ञानरहित नहीं होता अत: आत्मा को ‘पुरुष’ कहते हैं।
‘पुरुष’ शब्द का एक अन्य अर्थ यह भी किया गया है कि जो उत्तम गुणों में शयन करे, उनका भोग भोगे वह पुरुष है। आत्मा सदैव अपने ज्ञान-आनन्दादि उत्तम गुणों में शयन करता है अत: इस दृष्टि से भी आत्मा को पुरुष कहते हैं।
(११) पुमान्—‘पुरुष’ की भाँति ‘पुमान्’ का भी अर्थ ‘आत्मा’ ही होता है क्योंकि जो आत्मा को पवित्र करे वही तो ‘पुमान्’ है।
(१२) समय—‘समय’ शब्द के वैसे तो अनेक अर्थ होते हैं—काल, युद्ध, मत, अधिकार आदि, परन्तु समयसारादि अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों में ‘समय’ शब्द का प्रयोग आत्मा के अर्थ में किया गया है। तदनुसार ‘समय’ शब्द ‘सम् ± अय’ से बना है। ‘सम्’ का अर्थ है एक साथ और ‘अय्’ का अर्थ है जानना एवं परिणमन करना। विश्व के समस्त पदार्थों में से एक आत्मा ही ऐसा पदार्थ है जो एक साथ जानता एवं परिणमन करता है अत: आत्मा को ‘समय’ कहते हैं।
(१३) चेतन—जो पहले भी चेतता (जानता) था, अभी भी चेतता है और भविष्य में भी सदा चेतता रहेगा उसे चेतन कहते हैं और वह आत्मा ही है—
‘‘यदचेतत्तथा पूर्वं चेतिष्यति यदन्यथा।
चेततीत्थं यदत्राऽद्य तच्चिद्द्रव्यं समस्म्यहम्।।’’
‘जीव’ और ‘आत्मा’ शब्द की व्युत्पत्ति और उनका विशेष अभिप्राय
शास्त्रों में यद्यपि जीव के उपर्युक्त अनेक पर्यायवाची शब्द गिनाए गये हैं परन्तु प्रयोग, जीव और आत्मा—इन दो शब्दों का ही सर्वाधिक हुआ है अत: इन दो शब्दों को विशेषरूप से समझना आवश्यक है। ‘जीव’ शब्द की व्युत्पत्ति और अभिप्राय इस प्रकार बताया गया है कि जो जीता है, जीता था और भविष्य में भी जिएगा, वही जीव है। यथा—
‘‘णाणेिंह चदुिंह जीवदि जीविस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं।।’’
अर्थात् जो चार प्राणों से जीता है, जिएगा और पहले जीता था, वह जीव है। अथवा—
‘दशसु प्राणेषु यथोपात्तप्राणपर्यायेण त्रिषु कालेषु जीवनानुभवनात् जीवति, अजीवीत् जीविष्यति इति वा जीव:।’’
अर्थात् जो तीनों कालों में जीवन का अनुभवन करने वाला होने से पाँच इन्द्रिय, तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास—इन दस प्राणों में से अपनी पर्यायगत योग्यता के अनुसार गृहीत प्राणों से जीता है, जीता था और जिएगा; वह जीव है।
यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि संसारी जीव ही इन चार या दस प्राणों से जीता है, सिद्ध जीव नहीं; सिद्ध जीव तो अपने चैतन्य प्राणों से जीते हैं अतएव वृहद् द्रव्यसंग्रह आदि ग्रंथों में जीव की परिभाषा इस प्रकार लिखी गई है कि जो व्यवहार से इन्द्रियादि प्राणों से जीता है और निश्चय से अपने चैतन्य प्राणों से जीता है, वह जीव है। यथा—
‘‘तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउ आणपाणो य।
ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।।’’
‘आत्मा’ शब्द की व्युत्पत्ति और अभिप्राय यह है कि जो सदा ज्ञानादिरूप से गमन (परिणमन, परिवर्तन या उत्पाद-व्यय) करे, वह आत्मा है। ‘आत्मा’ शब्द संस्कृत की ‘अत्’ (अत सातत्यगमने) धातु से बना है, जिसके दो अर्थ होते हैं—गमन और ज्ञान। यहाँ दोनों ही अर्थ ग्राह्य हैं; जैसा कि वृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा ५७ की टीका में श्री ब्रह्मदेवसूरि ने स्पष्ट किया है—
‘‘अथात्मशब्दार्थ: कथ्यते—‘अत्’ धातु सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते। गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते ‘सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था’ इति वचनात्। तेन कारणेन यथासम्भवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते य:, स आत्मा भण्यते।’’
अर्थ—अब ‘आत्मा’ शब्द का अर्थ कहते हैं—‘अत्’ धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थ में है और ‘सब गमनार्थक धातुएँ ज्ञानात्मक अर्थ में होती हैं’—इस वचन से यहाँ पर ‘गमन’ शब्द से ज्ञान कहा जाता है। इस कारण जो यथासम्थव ज्ञान सुखादि गुणों में सर्व प्रकार वर्तता है, वह आत्मा है।
इसी प्रकार का भाव अन्यत्र भी अनेक स्थलों पर प्रगट किया गया है।
यद्यपि जीव और आत्मा वस्तुत: एकार्थवाची हैं, उन दोनों का स्वरूप एक ही है, उन दोनों के स्वरूप में किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं है; तथापि प्रयोग के स्तर पर इन दोनों शब्दों में एक महत्त्वपूर्ण अन्तर दिखाई देता है, जिसे समझना यहाँ अत्यन्त लाभदायक होगा।
‘जीव’ शब्द का प्रयोग तब किया जाता है, जब शास्त्रीय, सैद्धान्तिक या दार्शनिक चर्चा होती है किन्तु आत्मा शब्द का प्रयोग तब किया जाता है, जब आध्यात्मिक चर्चा हो रही हो। इसे हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जीव ज्ञान का विषय है, अध्ययन का विषय है; परन्तु आत्मा ध्यान का विषय है, अनुभूति का विषय है अथवा इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि जीव विश्वविद्यालयों का विषय है और आत्मा आश्रमों का।
वस्तुत: जीव तो हम सभी हैं पर आत्मा सिर्फ अपने जीव को, स्वयं को ही कहा जाता है। जिस प्रकार पुरुष तो बहुत हैं, सभी को पुरुष कहा जाता है लेकिन पति सिर्फ अपने ही पुरुष को कहा जाता है; स्त्रियाँ तो बहुत हैं, सभी को स्त्री कहा जाता है लेकिन पत्नी, सिर्फ अपनी ही स्त्री को कहा जाता है; मकान तो बहुत हैं, सभी को मकान कहा जाता है लेकिन घर सिर्फ अपने मकान को ही कहा जाता है; उसी प्रकार जीव तो अनन्त हैं, सभी को जीव कहा जाता है पर आत्मा केवल स्वयं को ही कहा जा सकता है; मैं अपने लिए आत्मा हूँ पर आपके लिए जीव। इसी प्रकार अपने लिए आत्मा हैं, पर मेरे लिए जीव।
‘आत्मा’ शब्द में निजता या अपनत्व का भाव समाविष्ट है; जैसा कि हम आत्मकथा, आत्मप्रशंसा, आत्मश्लाघा, आत्मरक्षा, आत्मनिन्दा, आत्मवंचना, आत्महत्या, आत्महित, आत्मतुष्टि आदि शब्दों के प्रयोगों में भी स्पष्टतया देखते हैं।
जीव और आत्मा के अन्तर को हम गणित की भाषा में इस प्रकार भी प्रदर्शित कर सकते हैं कि—
जीव + अपनत्व · आत्मा।
आत्मा —अपनत्व · जीव।
न्यायशास्त्र की शब्दावली में हम जीव और आत्मा के अन्तर को इस प्रकार भी स्पष्ट कर सकते हैं कि आत्मा और जीव में व्याप्य—व्यापक सम्बन्ध है। आत्मा व्याप्य है जबकि जीव व्यापक। जो भी आत्मा है, उसको जीव कह सकते हैं परन्तु जो भी जीव हैं, उनको हम आत्मा नहीं कह सकते, आत्मा सिर्फ अपना जीव है। जिस प्रकार नीम और वृक्ष में व्याप्य—व्यापक सम्बन्ध है अत: जो भी नीम है उसे तो वृक्ष कहा जा सकता है परन्तु जो भी वृक्ष हैं, उन सबको नीम नहीं कहा जा सकता।
अब हम अपने मुख्य विषय पर आते हैं और आत्मा के स्वरूप को बिन्दुवार ढंग से संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। ध्यातव्य है कि प्रत्येक बिन्दु गहन चिन्तन—मनन की अपेक्षा रखता है—
(१) आत्मा सत्रूप है; उसे असत्रूप, अभावरूप, माया अथवा शून्यरूप नहीं माना जा सकता।
कुछ लोग (चार्वाक) कहते हैं कि वस्तुत: आत्मा नाम की कोई वस्तु ही नहीं है, वह तो असत् है, मात्र भूतचतुष्टय के मिश्रण से ही चैतन्य शक्ति की उत्पत्ति हो जाती है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार गुड़, जौ आदि वस्तुओं के संयोग से उनमें मादक शक्ति उत्पन्न हो जाती है; उसी प्रकार पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि—इन चार भूतों के संयोग से ही चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जो मृत्यु के समय इन चारों के संयोग के बिखर जाने से स्वयमेव नष्ट भी हो जाती है; अत: इन चारों भूतों से अतिरिक्त आत्मा नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है।
लेकिन उनकी मान्यता युक्तिसंगत नहीं है, शास्त्रों में विस्तारपूर्वक इस मत का निराकरण किया गया है। संक्षेप में उसका सार यह है कि चारों भूत अचेतन हैं और अनेक अचेतन मिल कर भी किसी तरह चेतन को उत्पन्न नहीं कर सकते। अचेतन से अचेतन की ही उत्पत्ति हो सकती है, चेतन की कदापि नहीं।
इस विषय में एक तर्क और भी दिया गया है कि भूतचतुष्टय को आप जीव की उत्पत्ति में उपादान कारण मानते हैं या निमित्त ? यदि उपादान कारण मानते हैं तो जीव में भी इन चार भूतों के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण पाए जाने चाहिए और फिर उस जीव को भी इन्द्रियगोचर होना चाहिए तथा यदि िनमित्त कारण मानते हैं तो उपादान कारण कोई दूसरा ही होगा और वह इनसे अलग जीव ही होगा।
(२) आत्मा एक नहीं है, अनन्तानन्त हैं। यद्यपि वे सभी स्वभाव से समान हैं अत: उन्हें ‘एक जैसे’ तो कहा जा सकता है पर पूरे विश्व में एक ही आत्मा है—ऐसा नहीं कह सकते। यदि सम्पूर्ण विश्व में एक ही आत्मा हो तो सभी जीवों को एक साथ दु:खी, सुखी, बद्ध, मुक्त आदि होना चाहिए किन्तु ऐसा नहीं होता है। जिस समय एक जीव सुखी होता है उसी समय दूसरा जीव दु:खी होता है; एक का जन्म होता है तो दूसरे का मरण होता है; एक आसक्त होता है दूसरा विरक्त होता है; एक मिथ्यादृष्टि होता है दूसरा सम्यग्दृष्टि होता है। सभी के सुख-दु:ख आदि के परिणाम अलग–अलग चलते हैं। इससे पता चलता है कि इस लोक में जीवों की संख्या तक नहीं, अनेक है और वे सभी जीव अपना—अपना पृथक्—पृथक् अस्तित्व धारण करते हैं। प्राय: सभी दर्शनों में (वेदान्त को छोड़कर) भी जीवों की संख्या एक नहीं, अनेक स्वीकार की गई है। सांख्य—योग, न्याय—वैशेषिक और मीमांसा दर्शन में तो अनेक—आत्मवाद को अनेक तर्कों द्वारा सिद्ध भी किया गया है।
(३) प्रत्येक आत्मा एक स्वतन्त्र परिपूर्ण सत्ता है, उसे ब्रह्म या ईश्वर आदि अन्य किसी का भी अंश नहीं माना जा सकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि हम सभी आत्माएँ वस्तुत: किसी एक ब्रह्म का अंश हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा एक होता है और सौ घड़ों में दिखाई पड़ने वाले सभी चन्द्रमा उसी एक मूल चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब होते हैं उसी प्रकार मूल आत्मा एक ब्रह्म है और हम सब उसके प्रतिबिम्ब या अंश हैं।
परन्तु ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा होता तो एक जीव के सुखी—दु:खी होने पर सभी जीवों को सुखी—दु:खी होना चाहिए, एक जीव मुक्त व पूर्ण सुखी हो जाए और अन्य जीव संसार में दु:खी रह जाएँ, ऐसा नहीं होना चाहिए, इत्यादि अनेक आपत्तियाँ आती हैं।
इस सम्बन्ध में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव विरचित ‘पंचास्तिकाय संग्रह’ की संस्कृत टीका का निम्नलिखित अंश (हिन्दी अनुवाद) भी ध्यानपूर्वक पठनीय है—
‘‘प्रश्न—जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा बहुत से जल के घड़ों में भिन्न—भिन्न रूप से दिखाई देता है वैसे ही एक ही जीव बहुत से शरीरों में भिन्न—भिन्न रूप से दिखाई देता है ?
उत्तर—बहुत से जल के घड़ों में तो वास्तव में चन्द्रकिरणों की उपाधि के निमित्त से जलरूप पुद्गल ही चन्द्राकार रूप से परिणत होता है, आकाशस्थ चन्द्रमा नहीं। जैसे कि देवदत्त के मुख का निमित्त पाकर नाना दर्पणों के पुद्गल ही नाना मुखाकार रूप से परिणमन कर जाते हैं, न कि देवदत्त का मुख स्वयं नाना रूप हो जाता है। यदि ऐसा हुआ होता तो दर्पणस्थ मुख—प्रतिबिम्बों को चैतन्यत्व प्राप्त हो जाता परन्तु ऐसा नहीं होता है। इसी प्रकार एक चन्द्रमा का नानारूप परिणमन नहीं समझना चाहिए। दूसरी बात यह भी तो है कि उपर्युक्त दृष्टान्तों में तो देवदत्त एवं चन्द्रमा दोनों प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं तभी उनका प्रतिबिम्ब दर्पण व जल में पड़ता है परन्तु ‘ब्रह्म’ नाम का कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष दिखाई ही नहीं देता जो कि चन्द्रमा की भाँति नानारूप होवे।’’
(४) प्रत्येक आत्मा स्वयं अपने सुख—दु:ख का कर्ता—भोक्ता है। कोई भी आत्मा किसी भी अन्य आत्मा के सुख—दु:ख से सुखी—दु:खी नहीं होता। इससे प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्रता भी सिद्ध होती है। यदि यह आत्मा स्वयं अपने सुख—दु:ख का कर्ता–भोक्ता न हो और कोई अन्य इसके सुख—दु:ख का कर्ता–भोक्ता हो तो यह आत्मा सदा पराधीन सिद्ध हो और कभी कोई आत्मा अपना दु:ख मिटाकर सुखी न हो सके।
(५) आत्मा वास्तव में अमूर्तिक सत्तारूप वस्तु है। उसमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि भौतिक वस्तुओं के गुण नहीं पाये जाते हैं। जो कुछ स्पर्श–रस—गन्ध—वर्णादिमान् है, वह सब पुद्गल है।
(६) आत्मा उपयोगमय है, चैतन्यमय है, ज्ञानदर्शनमय है; वह स्वभाव से निरन्तर जानने—देखने का ही कार्य करता है।
यह बिन्दु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, इसे विशेष सावधानीपूर्वक समझना चाहिए। आत्मा ज्ञानमय है अर्थात् ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, वह उसका अन्तस्तत्त्व है, बाह्य तत्त्व नहीं। ज्ञान कहीं बाहर से नहीं आता, उसे कोई दे या ले नहीं सकता।
इसी प्रकार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है अर्थात् वह सदा सब आत्माओं में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहता है, कोई भी आत्मा इससे पूर्णत: रहित नहीं हो सकता। यहाँ तक कि ज्ञानावरण कर्म का प्रबल उदय होने पर भी उसका कभी पूर्णरूप से अभाव नहीं होता। चाहे न्यूनरूप में ही रहे पर रहता अवश्य है, उसका कभी अभाव नहीं होता, मुक्तावस्था में भी उस ज्ञान का अभाव नहीं होता।
ज्ञान आत्मा का स्वभाव है अर्थात् वह दु:ख का कारण नहीं है, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं। जो जिसका स्वभाव हो, वह उसके दु:ख का कारण वैâसे हो सकता है ? ज्ञान के साथ यह संसारी आत्मा अपनी गलती से जो कषायभाव (राग—द्वेष) करता है, वे ही दु:ख के कारण होते हैं।
आत्मा ज्ञानमय है अर्थात् वह सदा सर्व पदार्थों का मात्र ज्ञाता ही होता है, कर्ता—भोक्ता आदि नहीं हो सकता।
ज्ञान आत्मा का स्वभाव है अर्थात् ज्ञान ही आत्मा का स्वभाव है, उसके अतिरिक्त जो मोह—राग—द्वेषादि होते हैं, वे उसके स्वभाव नहीं, विभाव हैं।
(७) प्रत्येक आत्मा में एक संकोच—विस्तार नाम की शक्ति होती है, जिससे वह धारण किये हुए अपने शरीर के अनुसार संकुचित या विस्तृत हो जाता है। चींटी के शरीर में चींटी जितना संकुच्िात हो जाता है और हाथी के शरीर में हाथी जितना विस्तृत।
जिस प्रकार दीपक का प्रकाश कक्ष के आकार के अनुसार संकुचित या विस्तृत हो जाता है उसी प्रकार आत्मा भी अपने शरीर के अनुसार सहज ही संकुचित या विस्तृत हो जाता है।
आत्मा में संकोच—विस्तार की यह शक्ति, हम सब स्वयं भी साक्षात् अनुभव करते हैं। बालक अवस्था से लेकर वृद्धावस्था तक शरीर में लघुता—दीर्घता या कृशता स्थूलता आदि होने पर आत्मा में भी वैसा ही संकोच—विस्तार सहज ही होता रहता है।
ध्यान रहे कि आत्मा छोटा—बड़ा नहीं होता, वह तो एक जैसा ही होता है किन्तु उसमें रबर जैसी संकोच—विस्तार की एक ऐसी शक्ति (Eत्aेूग्म्ग्ूब्) है जिससे वह प्राप्त शरीर के अनुसार संकुचित या विस्तृत हो जाता है।
मुक्तावस्था में आत्मा जब शरीर रहित हो जाता है तब उसका परिमाण अन्तिम शरीर के अनुरूप रहता है।
कुछ लोग आत्मा को अणु—परिमाण या वट कणिका मात्र आदि मानते हैं परन्तु वह युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि सभी प्राणियों को सुख—दु:खादि की अनुभूति सर्वात्म प्रदेशों से होती देखी जाती है। यदि आत्मा अणु परिमाण होता तो उसे शरीर के उसी भाग में होने वाली संवेदना का अनुभव हो पाएगा जिस भाग में वह रहेगा अत: आत्मा को अणु परिमाण मानना ठीक नहीं है।
इसी प्रकार कुछ लोग आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं, कहते हैं कि आत्मा आकाश की तरह अमूर्त द्रव्य है अत: आकाश की तरह सर्वव्यापक भी है परन्तु वह भी युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होता क्योंकि सभी को अपने ही शरीर में सुख—दु:खादि की प्रतीति होती है, उससे बाहर दूसरे के शरीर में और अन्यत्र कहीं किसी स्थान पर नहीं।
दरअसल आत्मा को सर्वलोकव्यापी कहने का एक समीचीन अभिप्राय यह हो सकता है कि वह सर्व लोक को जान सकता है अत: वह जानने की अपेक्षा सर्वव्यापक है, न कि आकार की अपेक्षा। इस सन्दर्भ में आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव का निम्नलिखित कथन ध्यान देने योग्य है—
‘‘आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं।
णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगदं।।’’
अर्थात् आत्मा ज्ञान प्रमाण है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण कहा गया है तथा ज्ञेय लोकालोक है इसलिए ज्ञान सर्वव्यापक है।
यदि वस्तुत: ही आत्मा सर्वव्यापक हो तो भोजनादि व्यवहार में भी संकर (मिश्रण) दोष आता है। यथा—एक व्यक्ति खाएगा तो सबको उसका रसास्वादन होना चाहिए।
आत्मा के स्वरूप को और अधिक स्पष्टता एवं सुगमता से समझने के लिए हमें आत्मा के नौ विशेष गुणों को भलीभाँति समझना चाहिए, जिनका विस्तृत विवेचन विशेष रूप से जैन ग्रंथों में ही पाया जाता है। वहाँ इन्हें जीव के नौ अधिकार भी कहा जाता है। संक्षेप में वे इस प्रकार हैं—
(१) जीवत्व—आत्मा सदा जीवित रहता है। संसार अवस्था में वह इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास—इन चार प्राणों से जीवित रहता है—यह व्यवहार है परन्तु निश्चय से वह सदा अपने चैतन्य प्राणों से जीवित रहता है, जिनका कभी भी, मुक्तावस्था में भी अभाव नहीं होता।
(२) उपयोगमयत्व—आत्मा उपयोगमय है। ‘उपयोग’ का अर्थ यहाँ पारिभाषिक रूप से ‘चेतना’ ही ग्राह्य है। चेतना या उपयोग दो प्रकार का है—दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग। इन दोनों के पुन: अनेक भेद—प्रभेद होते हैं, जैनाचार्यों ने इस उपयोग या चेतना को ही जीव या आत्मा का वास्तविक लक्षण कहा है क्योंकि यह संसारी (निगोदिया) से लेकर सिद्ध तक सभी जीवों में हर अवस्था में अनिवार्यत: पाया जाता है, कभी भी किसी भी जीव में इसका पूर्णत: अभाव नहीं होता तथा जीव से भिन्न अजीव पदार्थों में कदापि नहीं पाया जाता है। यथा—
‘उपयोगो लक्षणम्।
‘चेतनालक्षणो जीव:।’
(३) अमूर्तिकत्व—आत्मा स्वभाव से अमूर्तिक है; उसमें स्पर्श—रस—गन्ध—वर्ण आदि नहीं पाये जाते। यद्यपि संसारावस्था में कर्मबद्ध होने के कारण वह मूर्तिक भी कह दिया जाता है।
(४) कर्तृत्व—आत्मा निश्चय से अपने भावों का ही कर्ता है, अन्य के भावों का नहीं परन्तु व्यवहार से उसे पुद्गल कर्मों का कर्ता भी कहा जाता है।
(५) स्वदेहपरिमाणत्व—संसारावस्था में यह आत्मा सदैव अपने शरीर के बराबर रहता है, छोटे शरीर में छोटा और बड़े शरीर में बड़ा। यद्यपि आत्मा कोई छोटा—बड़ा नहीं होता तथापि उसमें एक ऐसी ही संकोच—विस्तारशक्ति पायी जाती है। मुक्तावस्था में यह आत्मा अपने अन्तिम शरीर के बराबर रहता है।
(६) भोक्तृत्व—आत्मा निश्चय से अपने शुद्धाशुद्ध भावों का और व्यवहार से पुद्गल कर्मों का भोक्ता है।
(७) संसारित्व—अनादिकाल से अशुद्धावस्था में यह आत्मा संसार में रहता है और निरन्तर परिभ्रमण करता रहता है—ऐसी अवस्था को संसारित्व कहते हैं।
(८) सिद्धत्व—पूर्ण शुद्धावस्था या मुक्तावस्था प्राप्त होने पर यह आत्मा सिद्ध हो जाता है। सर्वज्ञ, वीतराग और परम सुखी अवस्था में अनन्त काल तक रहता है: पुन: संसार में नहीं आता।
(९) ऊर्ध्वगमन स्वभावत्व—यह आत्मा यद्यपि संसारावस्था में कर्माधीन होने के कारण अधोगमन एवं तिर्यक््âगमन भी करता दिखाई देता है परन्तु इसका स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना ही है—अग्निशिखावत्।
आत्मा के इन नौ अधिकारों को आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने एक ही गाथा में कुशलतापूर्वक इस प्रकार समाहित करके प्रस्तुत किया है—
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगदी।।
आत्मा के इन नौ अधिकारों को भ्ालीभाँति समझ लेने पर आत्मा सम्बन्धी सर्व अज्ञान दूर हो जाता है।
अब हम आत्मा के भेद—प्रभेदों की भी संक्षेप में चर्चा करना चाहते हैं, ताकि आत्मा का स्वरूप कुछ और स्पष्ट हो सके।
आत्मा के भेद—प्रभेद की चर्चा जैन शास्त्रों में दो भिन्न—भिन्न दृष्टियों से उपलब्ध होती है—(१) शास्त्रीय दृष्टि से और (२) आध्यात्मिक दृष्टि से।
शास्त्रीय दृष्टि से जीव दो प्रकार के हैं—
संसारी और मुक्त। जो संसार में परिभ्रमण करते हैं, वे जीव संसारी हैं और जो उससे मुक्त हो गये हैं, वे शुद्ध—बुद्ध जीव मुक्त हैं। मुक्त जीवों के कोई और भेद प्रभेद नहीं हैं, क्योंकि वे सब एक से होते हैं परन्तु संसारी जीवों के पुन: दो भेद होते हैं—स्थावर और त्रस। स्थावर जीव मात्र एक इन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय) के धारक होते हैं अत: एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं और स्थावर जीव पाँच प्रकार के होते हैं—पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक।
यहाँ एक विशेष ध्यान देने की बात यह है कि बहुत से लोग पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति का अनाप—शनाप दोहन करते हैं, जो ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने से पर्यावरण तो प्रदूषित या असन्तुलित होता ही है, जीव िंहसा भी बहुत होती है क्योंकि ये पाँचों स्वयं भी जीव हैं और उनके अन्दर भी असंख्य जीव रहते हैं।
त्रस जीव चार प्रकार के होते हैं—
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। स्पर्शन और रसना—इन दो इन्द्रियों के धारक जीव को द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं; जैसे—कृमि, लट, सीप, शंख, गण्डोला आदि। स्पर्शन, रसना और घ्राण—इन तीन इन्द्रियों के धारक जीव को त्रीन्द्रिय जीव कहते हैं; जैसे—चींटी, जूँ, खटमल, दीमक, झल्ली, झींगुर आदि। स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु—इन चार इन्द्रियों के धारक जीव को चतुरिन्द्रिय जीव कहते हैं; जैसे—मक्खी, मच्छर, भ्रमर, पतंगा, टिड्डी, ततैया आदि। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण—इन पाँचों इन्द्रियों के धारक जीव को पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं; जैसे—गाय, भैंस, चिड़िया, कबूतर, शेर, बन्दर, देव, मनुष्य आदि।
पंचेन्द्रिय जीवों को भी पुन: चार प्रकार से समझना चाहिए—
(१) नारकी—ये सभी अधोलोक में स्थित नरकभूमियों में निवास करते हैं और सदैव अपनी अशुभ क्रियाओं और मलिन परिणामों से महादु:खी रहते हैं।
(२) तिर्यंच—समस्त पशु, पक्षी, वृक्ष आदि। ये भी वध, बन्धन, छेदन, भेदन आदि के अपार दु:ख सहते हैं और किसी से कह भी नहीं सकते।
(३) मनुष्य—हम, आप आदि। हम सभी लोक के मध्य भाग में निवास करते हैं।
(४) देव—ये प्राय: स्वर्गों में निवास करते हैं और चार प्रकार के होते हैं—भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक।
जीव के उक्त समस्त भेद-प्रभेदों को संक्षेप में निम्नलिखित सारिणी से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है—
जीव
संसारी जीव मुक्त (सिद्धजीव)
स्थावर (एकेन्द्रिय) त्रस
(१) पृथ्वीकायिक (१) द्वीन्द्रिय (कृमि आदि)
(२) जलकायिक (२) त्रीन्द्रिय (चींटी आदि)
(३) अग्निकायिक (३) चतुरिन्द्रिय (भ्रमर आदि)
(४) वायुकायिक (४) पंचेन्द्रिय (मनुष्य आदि)
(५) वनस्पतिकायिक (क) नारकी
(ख) तिर्यंच
(ग) मनुष्य
(घ) देव
यहाँ यह सर्वथा नहीं भूलना चाहिए कि उक्त सभी जीव स्वभाव की दृष्टि से एक जैसे हैं, समान हैं, उनमें छोटे—बड़े आदि का कोई अन्तर नहीं है; मात्र बाह्य अवस्था या पर्यायदृष्टि से ही जीव के इतने भेद—प्रभेद समझाए गए हैं।
शास्त्रीय दृष्टि से उक्त सर्व भेद—प्रभेदों को भलीभाँति समझ लेने के बाद अब आध्यात्मिक दृष्टि से भी आत्मा के भेद—प्रभेद समझना उपयोगी है।
आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा के भेद—प्रभेदों का वर्णन मुख्य रूप से आचार्य कुन्दकुन्द कृत नियमसार (गाथा १४९—१५०), मोक्षपाहुड (गाथा ४—८), रयणसार (गाथा १४), कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा १९३—१९४), और मुनिराज योगीन्दु देव कृत परमात्मप्रकाश (दोहा १/१३—१५) व योगसार (दोहा ७—८) आदि में मिलता है। इनके अतिरिक्त अन्य भी प्राय: सभी आध्यात्मिक ग्रंथों में ऐसा ही मिलता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा तीन प्रकार का है—
(१) बहिरात्मा—जो शरीरादि बाह्य पदार्थों को ही आत्मा मानता है, वह बहिरात्मा है। यह मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है।
(२) अन्तरात्मा—जो शरीर—आत्मा के अन्तर को भलीभाँति पहचान लेता है, वह अन्तरात्मा है। यह सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है।
(३) परमात्मा—जो वीतराग—सर्वज्ञ या शुद्ध—बुद्ध है, वह परमात्मा है। परमात्मा दो प्रकार का है—सकल और निकल। जो ‘कल’ अर्थात् शरीर से सहित हैं, वे अरहन्त भगवान सकल परमात्मा हैं और जो शरीर से भी रहित हो चुके हैं, वे सिद्ध भगवान निकल परमात्मा हैं।
इनमें से बहिरात्म अवस्था सर्वथा हेय है, अन्तरात्म अवस्था एकदेश उपादेय है और परमात्म अवस्था पूर्ण उपादेय है।
बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा—वस्तुत: आत्मा के इन तीन भेदों के वर्णन में आत्मा के उत्थान की सम्पूर्ण प्रक्रिया भी समझा दी गई है। यह आत्मा अनादिकाल से शरीरादि बाह्य पदार्थों में एकत्व-ममत्व करने के कारण अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है। बाद में जब यह तत्त्वज्ञान के द्वारा सर्व बाह्य पदार्थों को अपने से भिन्न जानता है और अन्तर में विद्यमान ज्ञानस्वभावी निज तत्त्व को ही अपना मानता है तब अन्तरात्मा बनता है। इसके बाद यह अन्तरात्मा भी और अधिक पुरुषार्थ करता हुआ शनै:-शनै: अपने राग—द्वेषादि सर्व विकारी भावों को पूर्णत: नष्ट कर देता है तो परमात्मा कहलाता है। प्ाहले सकल परमात्मा बनता है और बाद में शरीर से भी रहित हो जाने के कारण निकल परमात्मा कहलाता है।
आत्मा की उक्त तीन अवस्थाओं को हम संक्षेप में केवल इन दो अवस्थाओं के रूप में भी सरलतया समझ सकते हैं—
१. अशुद्धता (मलिनात्मा), और २. शुद्धात्मा।
अनादिकाल से यह आत्मा मोह—राग—द्वेषादि सहित होने के कारण अशुद्धात्मा या मलिनात्मा कहलाता है। जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण अपने जन्मकाल से ही किट्ट कालिमा सहित होने से अशुद्ध होता है और बाद में स्वर्णकार, अग्नि आदि उचित निमित्तों का संयोग पाकर शनै:—शनै: अपने मोह, राग, द्वेषादि सहित होने से अशुद्ध रहता है और बाद में सद्गुरु, सत्शास्त्र आदि से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कर, शनै:—शनै: अपने मोह राग द्वेषादि का त्याग करता हुआ शुद्ध होने लगता है और अन्त में अपने सर्व रागादि विकारों का पूर्णत: त्याग कर पूर्ण शुद्ध हो जाता है।
चूँकि स्वर्ण पाषाण अचेतन है अत: उसे अशुद्धावस्था में दु:ख और शुद्धावस्था में सुख का अनुभव नहीं होता परन्तु आत्मा चेतन है अत: उसे अशुद्धावस्था में अत्यन्त दु:ख और शुद्धावस्था में परम सुख का अनुभव भी होता है।
अशुद्धावस्था में यह आत्मा अपनी गलती से निरन्तर परपदार्थों को इष्टानिष्ट मान कर उनसे राग—द्वेष करता है और यही इसके सर्व दु:खों का मूल कारण है। इसी से यह अनादिकाल से इस संसार में जन्म-मरणादिक दु:ख सहता हुआ भटक रहा है। अब यदि इसे समीचीन तत्त्वज्ञान हो जाए तो यह कहीं भी राग—द्वेष न करे और और पूर्ण सुखी हो जाए।
स्वर्ण—पाषाण को शुद्ध करने हेतु स्वर्णकार, अग्नि, गन्धक आदि अनेक बाह्य पदार्थों की आवश्यकता होती है, परन्तु आत्मा को शुद्ध करने हेतु परमार्थ से किसी बाह्य पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती, सद्गुरु और सत्शास्त्र भी मात्र मार्गदर्शक के रूप में निमित्त मात्र होते हैं।
आत्मा को शुद्ध करने के लिए सर्वप्रथम तो आत्मा के ज्ञानादि असली स्वभावों का और रागादि विभावों का अन्तर जानना अत्यन्त आवश्यक है। जब तक यह आत्मा अपने ज्ञान स्वभाव में और रागादि विभावों में भेद/अन्तर नहीं जानता है तब तक अज्ञानी ही रहता है और आत्मा की शुद्धता के मार्ग में बिल्कुल आगे नहीं बढ़ सकता है।
अत: सर्वप्रथम ज्ञानादि स्वभावों और रागादि विभावों के अन्तर को भलीभाँति पहचानना चाहिए। तदनन्तर रागादि विभावों को अशुचि, अध्रुव, दु:खरूप एवं दु:ख का कारण आदि जानकर उनसे निवृत्त होने का पुरुषार्थ करना चाहिए। यही आत्मशुद्धि का समीचीन मार्ग है, अन्य कोई नहीं। यही कहा भी है—
आत्मावबोधतो नूनमात्मा शुद्ध्यति नान्यत:।
अन्यत: शुद्धिमिच्छन्तो विपरीतदृशोऽखिल:।।
स्पृश्यते शोध्यते नात्मा मलिनेनामलेन वा।
परद्रव्यबहिर्भूत: परद्रव्येण सर्वथा।।
अर्थात् वास्तव में आत्मा आत्मज्ञान से ही शुद्ध होता है, किसी अन्य से नहीं। जो लोग किसी अन्य चीज से आत्मशुद्धि चाहते हैं वे सब विपरीत दृष्टि (मिथ्यादृष्टि) हैं। आत्मा परद्रव्य से बहिर्भूत है अत: किसी भी प्रकार के परद्रव्य से—चाहे वह मलिन हो या निर्मल—स्पर्शित और शुद्ध नहीं किया जा सकता।
कुछ लोग समझते हैं कि अमुक तीर्थादि में जाकर स्नानादि करने से आत्मा शुद्ध होता है परन्तु वस्तुत: ऐसा नहीं है। स्नानादि से चर्ममल (बाह्य मैल) तो कदाचित् दूर हो सकता है पर कर्ममल कदापि नहीं। कर्ममल धोने के लिए तो आत्मारूपी नदी में सम्यग्ज्ञानरूपी जल से ही स्नान करना होता है।
वही ‘महाभारत’ में भी कहा है—
आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा, सत्यावहा शीलतटा दयोर्मि:।
तत्रावगाहं कुरु पाण्डुपुत्र ! न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा।।
अर्थात् आत्मा को सदैव पवित्र ज्ञानजल से स्नान कराओ ताकि जन्मान्तरों में भी निर्मलता प्राप्त हो जाए।
इसी प्रकार आचार्य श्री अमितगति ने भी कहा है कि जो लोग आत्मशुद्धि के लिए अपने निर्मल आत्मतीर्थ को छोड़कर अन्य तीर्थ की ओर देखते हैं वे मानो पवित्र सरोवर को छोड़कर गन्दे नाले में स्नान करते हैं अतएव सदा मलिन ही रहते हैं। यथा—
स्वतीर्थमलं हित्वा शुद्धयेऽन्यद् भजन्ति ये।
ते मन्ये मलिना: स्नान्ति सर: संत्यज्य पल्वले।।
सारांश यह है कि आत्मशुद्धि का उपाय परमार्थ से एक आत्मानुभूति ही है, अन्य कुछ नहीं। आत्मानुभूति से ही आत्मशुद्धि का प्रारम्भ होता है, आत्मानुभूति से ही आत्मशुद्धि की वृद्धि होती है और आत्मानुभूति की पूर्णता से ही आत्मशुद्धि की पूर्णता भी होती है।
आत्मशुद्धि में आत्मानुभूति की महत्त्वपूर्ण भूमिका का निरूपण ऊपर किया जा चुका है। यही कारण है कि शास्त्रों में आत्मा की अनुभूति करने की प्रबल प्रेरणा दी गई है। कहा गया है कि सच्ची सुख—शान्ति आत्मानुभूति से पहले वैâसे भी प्राप्त नहीं हो सकती। सच्ची सुख—शान्ति तो दूर, आत्मानुभूति हुए बिना तो कोई व्यक्ति भले ही आत्मा के बारे में कितनी ही विस्तारपूर्वक जानकारी रखता हो, आत्मज्ञानी भी नहीं कहला सकता। आत्मानुभूति से पहले होने वाली उसकी सारी जानकारी और सारी सुख—शान्ति वास्तव में मात्र ऊपरी—ऊपरी ही है।
दरअसल, आत्मा के बारे में जानना अलग बात है और आत्मा को जानना अलग बात है। आत्मानुभूति के बिना हम आत्मा के बारे में तो बहुत कुछ जान लेते हैं—शास्त्रों या गुरुओं के माध्यम से, पर आत्मा को यथार्थ जानना तो आत्मानुभूति से ही सम्भव है अत: शास्त्रों में आत्मानुभूति पर बहुत अधिक जोर दिया गया है। आत्मानुभूति होने पर ही जीव को सच्चा आत्मज्ञान हुआ कहा जाता है और तभी उसे सच्ची सुख—शान्ति प्राप्त होती है; अत: वैâसे भी कोटि उपाय करके भी जीवन में आत्मानुभूति अवश्य करनी चाहिए। आत्मानुभूति करके ही हम अध्यात्मविद्या का प्रथम पाठ पढ़े हुए कहला सकते हैं।
आत्मानुभूति की प्रेरणा देते हुए ‘समयसार’ की आत्मख्याति टीका में तो मुहावरे की भाषा में यहाँ तक कह दिया गया है कि हे भाई ! तुम वैâसे भी करके, मरकर भी आत्मानुभूति करो, तभी तुम्हारे मोहादि विकारों का सही रूप में विनाश होगा। यथा—
‘‘अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन्, अनुभव भव मूर्ते: पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्।
पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन, त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।।
अर्थ—अरे, वैâसे भी मरकर भी तत्त्व के कौतूहली बन कर, एक मुहूर्त के लिए शरीरादि के पड़ोसी बनकर उन शरीरादि से सर्वथा पृथक््â अपने आत्मा का शीघ्र अनुभव करो ताकि तुम्हारा शरीरादि पर पदार्थों से मोह छूट जाए।
इस आत्मानुभूति को जीवन में कभी एक बार कुछ क्षणों के लिए ही कर लेना पर्याप्त नहीं है अपितु जितना अधिक हो सके उतना बारम्बार उसका आनन्द लेना चाहिए। जब तक हमारा उपयोग पूरी तरह आत्मा में ही लीन न हो जाए, सदा—सदा के लिए आत्मा में ही मग्न न हो जाए, कभी बाहर आने की सम्भावना ही न रहे; तब तक आत्मानुभूति को वृद्धिंगत करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। शास्त्रों में तो इस आत्मानुभूति को सदा काल निरन्तर करने का उपदेश दिया गया है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव लिखते हैं—
‘‘एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि।
एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं।।’’
अर्थात् सदैव इस आत्मा में ही रत रहो, इस आत्मा में ही तृप्त रहो; इसी से तुम्हें उत्तम सुख की प्राप्ति होगी।
‘भगवद्गीता’ में भी इसी प्रकार कहा गया है—
‘‘यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।’’
अर्थात् जो मनुष्य आत्मा में ही रति करता है, आत्मा में ही तृप्त होता है और आत्मा में ही सन्तुष्ट होता है; उसे कुछ भी कार्य करना शेष नहीं है।
आत्मानुभूति पर जोर देते हुए शास्त्रों में यहाँ तक कहा गया है कि आत्मानुभूति ही सर्व धर्म का मूल है और इसी से धर्म का प्रारम्भ होता है, इसके बिना नहीं। आत्मानुभूति के बिना कोई कितनी ही बाह्य धर्म क्रियाएँ करे, उसे धर्म और धर्मजन्य फल प्राप्त नहीं होता। जो जीव, आत्मा को अनुभव करके जानता है, समझ लीजिए कि उसने सब कुछ जान लिया, सम्पूर्ण शास्त्र जान लिए सारा लोकालोक ही जान लिया, वह एक दृष्टि से मुक्त ही हो गया किन्तु जिसने आत्मा का अनुभव नहीं किया, वह दुनिया भर की विद्याओं या सर्व शास्त्रों का पण्डित होते हुए भी अज्ञानी ही है अत: आत्मा की अनुभूति जीवन की सबसे पहली और अनिवार्य आवश्यकता है, व्यक्ति को लाख कार्य छोड़कर भी, कोटि उपाय करके भी आत्मा का अनुभव अवश्य करना चाहिए। जब तक आत्मा का अनुभव नहीं होगा तब तक सच्चे सुख के मार्ग पर जरा भी आगे नहीं बढ़ा जा सकेगा।
आत्मा की इस अनुभूति का क्या उपाय है अथवा यह किस प्रकार होती है-इस पर भी आध्यात्मिक ग्रंथों में सुन्दर प्रकाश डाला गया है। उसमें सर्वप्रथम तो दृढ़तापूर्वक यह कहा गया है कि यह आत्मानुभूति किसी भी बाह्य साधन या शरीरादि की क्रियाओं के आलम्बन से कदापि सम्भव नहीं है अपितु मात्र एक अपने ज्ञानस्वभाव के ही आलम्बन से सम्भव है।
आत्मा की अनुभूति के लिए साधक को इस प्रकार की भावना करनी चाहिए कि जो ज्ञाता-द्रष्टा है, वही मैं हूँ, शेष सभी भाव मुझसे सर्वथा भिन्न हैं।
भिन्नता की ऐसी सम्यक््â भावना ही वस्तुत: आत्मानुभूति का सही उपाय है। भिन्नता की यह भावना क्रम—क्रमपूर्वक भी आगे बढ़ाई जा सकती है। जैसे सर्वप्रथम इस स्थूल शरीर से स्वयं को भिन्न देखना, उसके बाद सूक्ष्म शरीरों से भी स्वयं को भिन्न देखना और उसके बाद रागादि भावकर्मों से भी स्वयं को भिन्न देखना।
इस प्रकार जब यह जीव स्वयं को सम्पूर्ण पर पदार्थों और अपने रागादि विकारी भावों से भी भिन्न मात्र एक चैतन्य रूप जानता है, अनुभव करता है, तब उसकी इसी अवस्था को आत्मानुभूति की अवस्था कहते हैं। आत्मानुभूति के काल में हमारा ज्ञान मात्र आत्मा को ही जानता है, अन्य किसी भी बाह्य पदार्थ को नहीं जानता, इन्द्रिय—मन का व्यापार भी उस समय रुक जाता है अत: इसे आत्मलीनता भी कहते हैं। यह आत्मलीनता यद्यपि प्रारम्भ में बहुत ही कम समय के लिए होती है परन्तु अभ्यास करते—करते इसका काल बढ़ता चला जाता है, जो अन्त में पूर्ण हो जाता है।
आत्मानुभूति को स्वसंवेदनज्ञान, आत्मदर्शन, परमात्मदर्शन, आत्मज्ञान, आत्मध्यान, आत्मसमाधि, आत्मरसपान, आत्मोपलब्धि, तत्त्वोपलब्धि, शुद्धोपयोग, निर्विकल्प आत्मभावना आदि अनेक नामों से जाना जाता है।
आत्मानुभूति को ही आत्मप्राप्ति अर्थात् आत्मा की प्राप्ति भी कहा जाता है, परन्तु ध्यान रहे कि आत्मा हमसे स्वयं से भिन्न कोई अलग वस्तु नहीं है जिसकी हमें आत्मानुभूति के काल में प्राप्ति होती हो। वस्तुत: आत्मा को जानना या अनुभवना ही आत्मा की प्राप्ति है। अनादिकाल से हम स्वयं आत्मा होते हुए भी उसको जानते नहीं थे और अब जान गए हैं—इसी का अर्थ है आत्मा की प्राप्ति होना। जिस प्रकार किसी व्यक्ति के घर में धन हो पर उसे पता न हो तो वह निर्धनवत् जीवनयापन करता है तथा पता चल जाने पर कहा जाता है कि अब उसे धन की प्राप्ति हो गई है; उसी प्रकार आत्मा तो सदा ही है, स्वयं ही है, प्राप्त ही है परन्तु जब तक उसका ज्ञान नहीं होता तब तक हम दु:खी रहते हैं और ज्ञान होने पर सुखी हो जाते हैं तो कहा जाता है कि अब हमें आत्मा की प्राप्ति हो गई है। शास्त्रों में भी जब ऐसा उपदेश दिया जाता है कि हे भव्य जीवों! तुम आत्मा की प्राप्ति करो तो उसका अभिप्राय मात्र यही होता है कि तुम आत्मा को जानो, उसका अनुभव करो।
इस प्रकार यह भलीभांति स्पष्ट है कि भेदविज्ञान ही आत्मा की अनुभूति या प्राप्ति का असली उपाय है अत: आत्मानुभूति के अभिलाषी को भेदविज्ञान पर विशेष ध्यान देना चाहिए। शास्त्रों में भेदविज्ञान के गीत अनेक आचार्यों द्वारा बारम्बार गाये गये हैं। यथा आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं—
भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया ।
तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठिते।।
भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा: ये किल केचन।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।।
अर्थात् जब तक हमारा ज्ञान सर्व परपदार्थों से छूटकर अपने आत्मस्वरूप में ही पूरी तरह लीन न हो जाये तब तक हमें निरन्तर भेदविज्ञान की भावना करनी चाहिए। जितने भी जीव आज तक सिद्ध हुए हैं, वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं तथा जितने भी जीव इस संसार में बद्ध (बँधे हुए) हैं, वे सब एक भेदविज्ञान की कमी से ही बद्ध हैं।
पं. बनारसीदासजी ने भी भेदविज्ञान के सन्दर्भ में एक सुन्दर दोहा लिखा है—
‘‘भेदज्ञान साबू भयो, समरस निर्मल नीर।
धोबी अन्तर आतमा, धोवे निजगुण चीर।।’’
अर्थात् ज्ञानी आत्मा भेदज्ञानरूपी साबुन से समतारूपी जल के साथ अपने आत्मगुण रूपी वस्त्रों को निर्मल करते हैं।
दरअसल, आत्मानुभूति आत्मज्ञानपूर्वक ही होती है, आत्मज्ञान के बिना नहीं होती। जिसे अभी आत्मा के स्वरूप का समीचीन ज्ञान ही नहीं हुआ है उसे लाख कोशिश करने पर भी आत्मानुभूति नहीं हो सकती। यही कारण है कि यहाँ भेदविज्ञान पर इतना अधिक जोर दिया गया है।
ध्यातव्य है कि यहाँ भेदविज्ञान का अभिप्राय मात्र स्व और पर पदार्थों का भेद जान लेना ही नहीं है अपितु आत्मा में विद्यमान स्वभाव—विभाव परिणति का भी भेद पहचान लेना है; क्योंकि आत्मा परपदार्थों से तो भिन्न है ही, परमार्थत: अपने रागादि विभावों से भी भिन्न ही है। जिस प्रकार गर्म चाशनी (चीनी का घोल) में विद्यमान मधुरता और उष्णता एक साथ रहते हुए भी भिन्न—भिन्न हैं, ज्ञानादि आत्मा का अपना स्वभाव है और रागादि परपदार्थों के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। वे आत्मा के अपने मूल स्वभाव नहीं हैं।
इस प्रकार सर्वप्रथम तो आत्मा के स्वरूप का समीचीन ज्ञान होना चाहिए, आत्मा के स्वभाव और विभाव की भी सच्ची पहचान होनी चाहिए और उसके बाद तीव्र रुचि के द्वारा अपने उपयोग को अन्य सर्व भावों से हटाकर आत्मोन्मुख करना चाहिए तभी निर्विकल्प आत्मानुभूति सम्भव है। इसके अतिरिक्त आत्मानुभूति का अन्य कोई उपाय नहीं है।
आत्मानुभूति के काल में साधक को आत्मा का स्वसंवेदन इस प्रकार होता है—
‘‘अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदाऽरूवी।
ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि।।’’
अर्थात् मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ , दर्शन—ज्ञानमय हूँ, सदा अरूपी हूँ, अन्य कोई परभाव परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है।
देखो आत्मानुभूति की महिमा ! यद्यपि यह आत्मा अभी अशुद्ध है, रागादि सहित है, शरीरादि सहित है, मूर्तिक है, परोक्ष भी है; तथापि स्वयं को सर्व शरीरादि एवं रागादि भावों से भिन्न शुद्ध—बुद्ध अमूर्तिक रूप में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा अनुभव करता है और यही तो सच्चा मोक्षमार्ग है।
इस प्रकार समस्त परपदार्थों और अपने रागादि विभावों से भी भिन्न आत्मा के स्वभाव को भलीभाँति पहचान कर उसका निर्विकल्प अनुभव करना ही आत्मानुभूति है, वास्तविक सुख—शान्ति का मार्ग है।
आत्मा के स्वरूप को भलीभाँति समझने के लिए यह भी जानना अत्यन्त आवश्यक है कि उसकी मुक्तावस्था में वैâसी स्थिति रहती है।
दार्शनिकों में इस विषय में भी पर्याप्त मतभेद पाया जाता है। यथा—कुछ लोग कहते हैं कि उसका अभाव हो जाता है, कुछ कहते हैं कि वह जड़वत् हो जाता है, कुछ कहते हैं कि उसके ज्ञानादि का अत्यधिक उच्छेद हो जाता है, कुछ कहते हैं कि वह एक अद्वैत ब्रह्म में मिल जाता है, कुछ कहते हैं कि वह ईश्वर या भगवान् के पास जाकर चिरकाल तक उनकी सेवा शुश्रूषा करता रहता है, कुछ कहते हैं कि एक निश्चित समय के बाद पुन: इस संसार में आकर जन्म—मरण करना प्रारम्भ कर देता है, इत्यादि।
परन्तु उक्त प्रकार के सभी विचार युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होते हैं अत: जैन ग्रंथों में उनका सयुक्तिक निराकरण किया गया है। यथा—
आत्मा को एक अनादिनिधन स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध किया जा चुका है अत: स्पष्ट है कि उसका सर्वथा अभाव कदापि नहीं हो सकता, मात्र अवस्था परिवर्तन होता है। आधुनिक विज्ञान भी यह भलीभाँति सिद्ध कर चुका है कि किसी भी मूलभूत सत् वस्तु का कभी पूर्ण नाश नहीं हो सकता।
आत्मा का जड़ हो जाना भी असम्भव है क्योंकि जगत् में अनादिकाल से ही दो प्रकार के मूलभूत तत्त्व हैं—१. चेतन और २. अचेतन (जड़)। चेतन कभी भी अचेतन नहीं हो सकता और अचेतन कभाr भी चेतन नहीं हो सकता। चाहे कुछ भी हो पर कोई द्रव्य/तत्त्व कभी भी अपना मूल स्वभाव नहीं छोड़ता। हाँ, यदि जड़वत् हो जाने का अर्थ संसारावस्था में पाये जाने वाले राग-द्वेषादि सर्व विकल्पों से रहित हो जाना है तो इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं।
इसी प्रकार ज्ञानादि गुण तो जीव या आत्मा के मूलभूत स्वभाव हैं, उनका अभाव वैâसे हो सकता है ? यदि ज्ञानादि गुणों का ही अभाव हो जाएगा तो आत्मा गुणी है, उसका भी अभाव सिद्ध होगा। उष्णतादि गुणों से रहित अग्नि और मधुरतादि गुणों से रहित चीनी का अस्तित्व कहाँ और वैâसे सिद्ध हो सकता है ?
दरअसल कुछ लोग ज्ञानादि को ही दु:खों का कारण समझते हैं अत: मुक्तावस्था में उनका अभाव कहते हैं परन्तु वस्तुत: ज्ञानादि तो आत्मा के स्वभाव हैं जो दु:ख का कारण कदापि नहीं हो सकते। हमें भ्रम से ऐसा लगता है कि ज्ञानादि दु:ख के कारण हैं, जबकि दु:ख के असली कारण तो रागादि ही हैं। वर्तमान में हमारे जीवन में ज्ञानादि और रागादि दोनों एक साथ रहते हैं अत: हमें ऐसा भ्रम हो जाता है कि ज्ञानादि दु:ख के कारण हैं। उदाहरणार्थ—हमारे किसी रिश्तेदार की मृत्यु हो जाए अथवा हमारी जेब कट जाए तो हमें जब तक उसका ज्ञान नहीं होता तब तक दु:ख नहीं होता और जैसे ही ज्ञान होता है तो दु:ख हो जाता है अत: हमें लगता है कि यह ज्ञान ही दु:ख का कारण है, यदि ज्ञान ही नहीं तो दु:ख भी नहीं होता; परन्तु यहाँ भी वस्तुत: दु:ख का कारण ज्ञान नहीं है, राग है। हमें अपने रिश्तेदार से अथवा जेब में रखे रुपये से राग था अतएव दु:ख हुआ है। यदि राग नहीं होता तो दु:ख नहीं होता।
विचारणीय है कि यदि ज्ञान ही दु:ख का कारण हो तो ज्ञान तो सदा एक सा होता है, फिर दु:ख एक सा क्यों नहीं होता। कभी कम और कभी ज्यादा क्यों होता है ? अथवा ज्ञान तो अनेक लोगों को होता है, सभी को दु:ख एक सा क्यों नहीं होता, किसी को कम और किसी को ज्यादा क्यों होता है ? अथवा ज्ञान तो बाद में भी जीवन भर बना रहता है पर हमारा वह दु:ख कम क्यों हो जाता है ? अत: स्पष्ट है कि दु:ख का कारण ज्ञान नहीं, राग है। यदि अधिक राग हो तो अधिक दु:ख होता है और कम राग हो तो कम दु:ख होता है तथा जब जिसे जितना राग होता है तभी उसे ही उतना ही दु:ख होता है। इस प्रकार दु:ख की व्याप्ति राग के साथ ही घटित होती है, ज्ञान के साथ नहीं।
अत: मुक्तावस्था में ज्ञानादि गुणों का अभाव नहीं माना जा सकता, मात्र रागादि विकारी भावों का ही अभाव मानना चाहिए। मुक्तावस्था तो जीव की पूर्ण शुद्धावस्था का नाम है अत: वहाँ उसकी सर्व अशुद्धता—मलिनता का तो नाश माना जा सकता है परन्तु जीव/आत्मा नामक मूलभूत वस्तु का ही अथवा उसके ज्ञानादि स्वाभाविक गुणों का ही अभाव मानना तो कथमपि उचित नहीं है।
इसी प्रकार मुक्तावस्था में यह जीव किसी एक परमब्रह्म या परमशक्ति में जाकर मिल जाता है—यह बात भी युक्तिसंगत सिद्ध नहीं होती क्योंकि किसी भी वस्तु का अन्य वस्तु में मिल जाना उसका नाश होना ही तो है। किसी में मिल जाना और अभाव हो जाना—इन दोनों बातों में कोई अन्तर नहीं है। प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व सदा पूर्ण और स्वतन्त्र होता है, आंशिक और परतन्त्र नहीं। जीव किसी का कोई अंश नहीं है—यह हम पहले भी भलीभाँति सिद्ध कर चुके हैं अत: मुक्तावस्था में जीव का किसी एक परमब्रह्म में मिल जाना भी सही नहीं माना जा सकता है। मुक्तावस्था में तो यह जीव पूर्ण स्वतन्त्र और अपने ज्ञान, आनन्दादि स्वाभाविक गुणों से सम्पन्न रूप में स्थित रहता है।
मुक्त जीव किसी ईश्वर/परमब्रह्म के पास जाकर चिरकाल तक उनकी सेवा-शुश्रूषा करता रहता है—यह कथन भी हास्यास्पद ही है क्योंकि इससे मुक्तावस्था में भी जीव की पराधीनता सिद्ध होती है और ‘पराधीन सपने हु सुख नांही’—यह बात बच्चा-बच्चा अच्छी तरह जानता है।
मुक्तावस्था तो पूर्ण स्वाधीन एवं सुखस्वरूप होती है। यदि वहाँ भी किसी की पराधीनता शेष रही तो वह सुखरूप अवस्था वैâसे कही जा सकती है ? वह तो दु:खरूप ही सिद्ध हुई।
इसी प्रकार मुक्तात्माओं का कुछ काल बाद पुन: संसार में आकर जन्म—मरण करना भी समीचीन सिद्ध नहीं होता है क्योंकि जो एक बार पूर्ण शुद्ध हो गया, समस्त रागादि विकारों और जन्म—मरणादि दु:खों से रहित हो गया, वह पुन: क्यों और वैâसे अशुद्ध होगा—यह समझ में नहीं आता। समस्त रागादि विकारों से पूर्णत: रहित हो चुका जीव पुन: वैâसे, किससे राग—द्वेष करेगा ? अत: ऐसा होना तो असम्भव है तथा यदि यूँ ही पुन: संसार में आकर जन्म—मरण धारण करना पड़े तो मुक्त होने का क्या लाभ/अर्थ हुआ ? मुक्तावस्था तो शाश्वत सुखरूप अवस्था का ही नाम है तथा यदि अन्य कोई व्यक्ति या वस्तु मुक्तात्माओं को पुन: संसार में लाकर जन्म—मरण करवाता हो तो भी मुक्तात्माएँ पराधीन हो गईं; अत: ऐसा मानना भी समीचीन सिद्ध नहीं होता।
मोक्ष तो आत्मा की समस्त विकारों से रहित पूर्ण शुद्ध—बुद्ध एवं शाश्वत अवस्था का नाम है, जहाँ जीव की सम्पूर्ण परतन्त्रताएँ और सर्व विभाव सर्वथा नष्ट हो जाते हैं तथा एक बार शुद्ध हुआ जीव पुन: कभी भी संसार में आकर जन्म मरण धारण नहीं करता। जिस प्रकार स्वर्ण एक बार पूर्ण शुद्ध स्वर्ण हो जाने पर पुन: अशुद्ध स्वर्ण नहीं बनता, धान से चावल बनने के बाद वह चावल पुन: धान नहीं बनता, दूध से घी बनने के बाद वह घी पुन: दूध नहीं बनता, तिल से तेल बनने के बाद वह तेल पुन: तिल नहीं बनता उसी प्रकार संसारी जीव मुक्त हो जाने पर पुन: कभी भी संसारी नहीं बनता।
यहाँ एक और प्रश्न है कि मुक्त जीव किस आकार में और कहाँ निवास करते हैं ? तथा अनन्तकाल तक वे क्या करते रहते हैं, वहाँ उनका क्या कर्त्तव्य रहता है ?
उत्तर—संसारी जीवों का आकार अपने—अपने शरीर के अनुरूप होता है। मुक्त जीव के शरीर नहीं होता तथापि वह अपने अन्तिम शरीर के आकार में रहता है। उसी प्रकार जिस प्रकार कि साँचे में डाली गई वस्तु साँचे के हट जाने के बाद भी साँचे के आकार में अवस्थित रह जाती है।
मुक्त जीवों का निवास स्थान लोक का सर्वोपरि भाग कहा गया है क्योंकि आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन है। संसारावस्था में आत्मा कर्माधीन होने के कारण अधोगमन और तिर्यक््âगमन भी करती है परन्तु मुक्तावस्था में सर्व कर्म रहित हो जाने से और अपने सर्व स्वभाव प्रकट हो जाने से ऊर्ध्वगमन ही करती है और इसीलिए लोक के सर्वोपरि भाग में जाकर निवास करती है। अधिकांश जैनेतर दर्शनों में भी मुक्त जीवों की स्थिति लोक के अग्र भाग में ही मानी गई है।
मुक्त जीव कृतकृत्य हो चुके हैं, वे जगत् का कोई कार्य नहीं करते। पूर्ण ज्ञानी हो जाने पर वे सम्पूर्ण लोक को जानते—देखते तो हैं परन्तु किसी परमाणु मात्र का भी कुछ परिवर्तनादि नहीं करते। जगत् के किसी भी पदार्थ के प्रति िंकचित् भी इष्ट—अनिष्ट भाव उन्हें उत्पन्न नहीं होता। सर्व पदार्थ अपने—अपने हिसाब से परिणमित होते रहते हैं और वे अत्यन्त सहज भाव से उनके ज्ञाता—द्रष्टा मात्र बने रहते हैं। मात्र जानना—देखना और अपने आत्मोत्पन्न स्वाभाविक सुख का भोग करना ही मुक्त जीवों का कर्त्तव्य है।