प्रमाण का सामान्य लक्षण—जिसके द्वारा पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है। सम्यक््â निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है और संशय, विपर्यय आदि ज्ञान अयथार्थ। प्रमाण से केवल यथार्थ ज्ञान होता है। वस्तु का संशय, विपर्यय आदि से रहित जो निश्चित ज्ञान होता है, वह प्रमाण है। यह प्रमाण का व्युत्पत्तिलभ्य सामान्य अर्थ है। इसी व्युत्पत्ति का आश्रय लेकर सभी भारतीय दार्शनिकों ने प्रमा के करण अर्थात् साधकतम कारण को प्रमाण कहा है। प्रमाण शब्द ‘प्र’ उपसर्गपूर्वक ‘मा’ धातु के करण में ल्युट् प्रत्यय करने पर सिद्ध होता है अतएव प्रमा का करण अर्थात् साधन प्रमाण कहलाता है। जो वस्तु जैसी है उसको वैसा ही जानना प्रमा है अथवा यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहते हैं। करण का अर्थ है साधकतम। जो जिस कार्य का साधकतम अर्थात् अतिशयेन साधक या प्रकृष्ट उपकारक या कारण हो वह उस कार्य का कारण होता है। एक कार्य की सिद्धि में अनेक सहयोगी होते हैं किन्तु वे सभी करण नहीं कहलाते। फल की सिद्धि में जिसका व्यापार अत्यन्त रूप से साधक, प्रकृष्ट उपकारक होता है, वह करण कहलाता है। कलम से लिखने में हाथ और कलम दोनों चलते हैं किन्तु करण कलम ही होगा क्योंकि लिखने का निकटतम सम्बन्ध कमल से है, हाथ से उसके बाद इसलिए हाथ साधक और कलम साधकतम है।
प्रमा की करणता—प्रमाण के इस सामान्य लक्षण में किसी को भी विवाद नहीं है। विवाद है तो केवल प्रमा के करण के विषय में। बौद्ध सारूप्य (तदाकारता) और योग्यता को प्रमा का करण मानते हैं। नैयायिक—वैशेषिक इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष और ज्ञान को करण मानते हैं। सांख्य इन्द्रिय वृत्ति को करण के स्थान में रखते हैं। प्रभाकर ज्ञाता के व्यापार को करण मानता है तो मीमांसक इन्द्रिय को। ऐसी स्थिति में जैन केवल ज्ञान को ही प्रमा का करण मानते हैं।
जैनदर्शन की मान्यता है कि जानना या प्रमारूप क्रिया चेतन है और चेतन क्रिया में साधकतम कारण कोई अचेतन नहीं हो सकता अत: अव्यवहित रूप से प्रमा का जनक ज्ञान ही करण हो सकता है। न्याय—वैशेषिक दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमा के तीन करण माने गये हैं—इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष और ज्ञान, किन्तु इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ को प्रत्यक्ष प्रमा का करण मानना ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रिय और सन्निकर्ष स्वयं अचेतन तथा अज्ञान रूप हैं अत: वे अज्ञान की निवृत्तिरूप प्रमा के करण कैसे हो सकते हैं ? अज्ञान—निवृत्ति का विरोधी ज्ञान ही करण हो सकता है। जैसे कि अन्धकार की निवृत्ति में अन्धकार का विरोधी प्रकाश ही मुख्य करण होता है। प्रमिति या प्रमा अज्ञान—निवृत्ति रूप होती है अत: इस अज्ञान—निवृत्ति में अज्ञान के विरोधी ज्ञान को ही करण मानना उचित है।
जैनदर्शन सम्मत प्रमाण लक्षण—प्रमाण के लक्षण क्षेत्र में प्रमाण लक्षण की अनेक धाराएँ बहीं, तब जैन दार्शनिकों को भी प्रमाण की स्वमन्तव्यपोषक एक परिभाषा निश्चित करनी पड़ी। सर्वप्रथम आचार्य श्री समन्तभद्र ने ‘स्व’ और ‘पर’ को प्रकाशित करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने भी स्वामी श्री समन्तभद्र के इस प्रमाण लक्षण में ‘बाधविवर्जित’ पद जोड़कर स्वपरावभासक अबाधित ज्ञान को प्रमाण माना है।
आचार्य श्री समन्तभद्र और आचार्य श्री सिद्धसेन के उत्तरवर्ती श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी ‘जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमिति मात्र है, वह प्रमाण है।’ इस प्रकार प्रमाण शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए स्वपरावभासक ज्ञान को ही प्रमाण कहा है और इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष तथा मात्र ज्ञान को प्रमिति का करण (प्रमाण) मानने में दोष प्रदर्शित किये हैं।
इसके बाद जैन न्याय के प्रतिष्ठापक तार्किक विद्वान् श्री अकलंकदेव ने प्रमाण लक्षण में व्यवसायात्मक पद जोड़कर अपने और अर्थ को ग्रहण करने वाले व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) ज्ञान को प्रमाण कहा है। उन्होंने ही पुन: अनधिगतार्थग्राही अविसंवादि ज्ञान को प्रमाण बतलाया है।
आचार्य श्री अकलंकदेव के उत्तरवर्ती आचार्य श्री माणिक्यनन्दी ने ‘स्व और अपूर्व अर्थ अर्थात् जो किसी अन्य प्रमाण से नहीं जाना गया है, के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा है।’ आचार्य श्री माणिक्यनन्दी के प्रमाण लक्षण पर आचार्य श्री समन्तभद्र, श्री सिद्धसेन तथा श्री अकलंकदेव का स्पष्ट प्रभाव प्रतीत होता है क्योंकि इन्होंने अपने प्रमाण लक्षण द्वारा आचार्य श्री समन्तभद्र और श्री सिद्धसेन द्वारा स्थापित तथा श्री अकलंकदेव द्वारा विकसित प्रमाण लक्षण का समर्थन किया है। इन्होंने अपने सूत्र ग्रंथ ‘परीक्षामुख’ की रचना इन तीनों आचार्यों के दार्शनिक प्रकरणों का मन्थन करके ही की है। उत्तरकालीन आचार्यों ने भी प्राय: प्रमाण के इन्हीं लक्षणों को अपनाया है।
यही स्थिति श्वेताम्बर आचार्य वादिदेव सूरि की है। इन्होंने भी अपने सूत्र ग्रंथ ‘प्रमाण—नय तत्त्वालोक’ की रचना आचार्य श्री माणिक्यनन्दी के सूत्र ग्रंथ ‘परीक्षामुख’ को सामने रखकर की है। आचार्य वादिदेव सूरि ने स्व और पर को निश्चित रूप से जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा है। इस लक्षण में ‘स्व’ का अर्थ है ज्ञान और ‘पर’ का अर्थ है ज्ञान से भिन्न पदार्थ। तात्पर्य यह है कि वही ज्ञान प्रमाण माना जाता है जो अपने आपको और अपने से भिन्न दूसरे पदार्थों को भी यथार्थ तथा निश्चित रूप से जाने।
आचार्य श्री विद्यानन्दि ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण बतलाकर बाद में स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बतलाया है। इन्होंने प्रमाण के लक्षण में अनधिगत या अपूर्व विशेषण नहीं दिया है क्योंकि इनके अनुसार ज्ञान चाहे अपूर्व (अगृहीत) अर्थ को जाने या गृहीत अर्थ को, वह ‘स्व’ और ‘पर’ का निश्चय करने वाला होने से ही प्रमाण माना जाता है।
सन्मति टीकाकार श्री अभयदेव सूरि आचार्य श्री विद्यानन्दि की तरह स्वार्थ व्यवसायात्मक ज्ञान को ही प्रमाण कहते हैं। पर व्यवसायात्मक के स्थान पर ‘निर्णीत’ पद का प्रयोग करते हैं।
आचार्य श्री हेमचन्द्र ने अर्थ के सम्यक््â निर्णय को प्रमाण कहा है।
आचार्य श्री धर्मभूषण ने अपने ‘न्यायदीपिका’ ग्रंथ में आचार्य श्री विद्यानन्दि के द्वारा स्वीकृत सम्यग्ज्ञानत्व रूप प्रमाण के सामान्य लक्षण को ही अपनाया है और उसे अपनी पूर्वपरम्परानुसार सविकल्पक, अगृहीत—ग्राही एवं स्वार्थ व्यवसायात्मक सिद्ध किया है तथा धर्मकीर्ति, प्रभाकर भट्ट और नैयायिकों के प्रमाण लक्षणों की आलोचना की है।
इस प्रकार आचार्य श्री समन्तभद्र, श्री सिद्धसेन दिवाकर और श्री अकलंक देव का प्रमाण सामान्य लक्षण ही उत्तरवर्ती जैन तार्किकों के लिए आधार हुआ है। प्राय: उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने इसी आचार्यत्रयी की प्रमाण लक्षण सम्बन्धी विचारधारा को अपनाकर अपने—अपने प्रमाण लक्षणों का परिष्कार किया है।
प्रमाण की प्रमाणता—जो पदार्थ जैसा है उसको उसी रूप में जानना ज्ञान की प्रमाणता है और अन्य रूप में जानना अप्रमाणता है। प्रमाणता और अप्रमाणता का यह भेद बाह्य पदार्थों की अपेक्षा समझना चाहिए। प्रत्येक ज्ञान अपने स्वरूप को वास्तविक ही जानता है। अत: स्व—रूप की अपेक्षा सभी ज्ञान प्रमाण होते हैं। बाह्य पदार्थों की अपेक्षा कोई ज्ञान प्रमाण होता है और कोई अप्रमाण। प्रमाणता की उत्पत्ति उन्हीं कारणों से होती है जिन कारणों से प्रमाण उत्पन्न होता है। अप्रमाणता भी इसी तरह अप्रमाण के कारणों से ही पैदा होती है।
प्रमाण की इस प्रमाणता और अप्रमाणता के विषय में प्राय: सभी दार्शनिकों में मतभेद पाया जाता है।
मीमांसक कुमारिल भट्ट ज्ञान की प्रमाणता को स्वत: और अप्रमाणता को परत: मानते हैं। इस प्रकार वे स्वत: प्रामाण्यवादी हैं। उनका कहना है—‘प्रमाण की अर्थ को जानने रूप शक्ति को अथवा अर्थ को जानने रूप क्रिया को प्रामाण्य कहते हैं।’ यह प्रामाण्य ज्ञान, ज्ञान मात्र को उत्पन्न करने वाली सामग्री से ही उत्पन्न होता है। उसके लिए उस सामग्री के अतिरिक्त अन्य किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी का नाम स्वत: प्रामाण्य है अर्थात् जहाँ ज्ञान तथा तद्गत प्रामाण्य दोनों का ग्रहण एक ही सामग्री से हो जाता है, उसे स्वत: प्रामाण्य कहा जाता है अथवा अर्थ को ज्यों का त्यों जान लेने की शक्ति का नाम प्रामाण्य है। यह शक्ति पदार्थों में स्वत: ही प्रकट होती है। वह उत्पादक कारणों के अधीन नहीं है। तात्पर्य यह है कि सब प्रमाणों का प्रामाण्य स्वत: ही होता है क्योंकि जो शक्ति स्वयं अविद्यमान है उसे कोई दूसरा उत्पन्न नहीं कर सकता। इसके विपरीत ज्ञानग्राहक और प्रामाण्यग्राहक सामग्री अलग—अलग होने पर परत: प्रामाण्य होता है।
मीमांसक मत में ज्ञान और प्रामाण्य दोनों की ग्राहक एक ही सामग्री ‘ज्ञाततान्यथानुपपत्तिप्रसूता अर्थापत्ति’ है। उनका अभिप्राय यह है कि ‘अयं घट:’ इस ज्ञान से घट में एक ‘ज्ञातता’ नामक धर्म उत्पन्न हुआ है इसलिए यह ‘अयं घट:’ इस ज्ञान से जन्य है अर्थात् उसका कारण ज्ञान है। इस ‘ज्ञातता’ धर्म की प्रतीति’ ज्ञातो मया घट:’ इस ज्ञान में होती है। यह ‘ज्ञातता’ धर्म अपने कारण ज्ञान के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता है इसलिए ‘ज्ञातता’ धर्म अपने कारण ज्ञान के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता है इसलिए ‘ज्ञातता’ की ‘अन्यथानुपपत्ति से प्रसूता अर्थापत्ति’ ही इस ज्ञातता धर्म की ग्राहिका है और जब
ज्ञाततान्यथानुपपत्ति प्रसूता अर्थापत्ति से ज्ञान का ग्रहण होता है तब उस ज्ञान में रहने वाले प्रामाण्य का ग्रहण भी उसी अर्थापत्ति से हो जाता है। इस प्रकार ज्ञानग्राहक और प्रामाण्यग्राहक सामग्री समान होने से स्वत: प्रामाण्य है।
न्याय वैशेषिक दर्शन का मत—
न्याय—वैशेषिक दर्शन प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को परत: मानते हैं अत: ये परत: प्रामाण्यवादी हैं। न्याय के परत: प्रामाण्यवाद में ज्ञान और प्रामाण्य दोनों की ग्राहक सामग्री अलग—अलग है। ज्ञानग्राहक सामग्री तो अनुव्यवसाय है और प्रामाण्य या अप्रामाण्य की ग्राहक सामग्री प्रवृत्ति का साफल्य या वैफल्यमूलक अनुमान है।
सांख्य और योग प्रामाण्य व अप्रामाण्य दोनों को स्वत: मानते हैं।
बौद्धदर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य के स्वतो ग्राह्यत्व और परतो ग्राह्यत्व के सम्बन्ध में दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं। अनेक बौद्ध विद्वान् अप्रामाण्य को स्वत: और प्रामाण्य को परत: मानते हैं। उनके अनुसार कोई भी ज्ञान तब तक अप्रमाण ही समझा जाता है जब तक उससे प्रेरित मनुष्य ज्ञात अर्थ को प्राप्त नहीं कर लेता। ज्ञान प्रमाण तभी समझा जाता है जब वह अर्थ का प्रापक हो जाता है। इस मत का संकेत माधवाचार्य के ‘सर्वदर्शन संग्रह’ में किया गया है।
परन्तु आचार्य शान्तरक्षित आदि बौद्ध विद्वानों की मान्यता इससे विपरीत है। वे अभ्यास—दशापन्न ज्ञान में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को स्वत: और अनभ्यास—दशापन्न ज्ञान में दोनों को परत: मानते हैं। ‘तत्त्व संग्रह’ में इस मत्ा का अनियम पक्ष के रूप में वर्णन किया गया है।
जैनदर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की उत्पत्ति तो परत: तथा ज्ञप्ति अभ्यास दशा में स्वत: और अनभ्यास दशा में परत: मानी गयी है।
जिन कारणों से ज्ञान की उत्पत्ति होती है उन कारणों के अतिरिक्त दूसरे कारणों से प्रमाणता का उत्पन्न होना परत: उत्पत्ति कहलाती है। जिन कारणों से ज्ञान का निश्चय होता है, उन्हीं कारणों से प्रमाणता का निश्चय होना ‘स्वत: ज्ञप्ति’ कहलाती है और दूसरे कारणों से निश्चय होना ‘परत: ज्ञप्ति’ कहलाती है।
परिचित अवस्था को अभ्यास दशा और अपरिचित अवस्था को अनभ्यास दशा कहते हैं। हम अपने गाँव के जलाशय, नदी, बावड़ी आदि से परिचित हैं। अत: उनकी ओर जाने पर जो जलज्ञान उत्पन्न होता है उसकी प्रमाणता तो स्वत: ही होती है; किन्तु अन्य अपरिचित ग्रामादिक में जाने पर ‘यहाँ जल होना चाहिए’ इस प्रकार जो जलज्ञान होगा, वह शीतल वायु के स्पर्श से, कमलों की सुगन्धि से या पानी भरकर आती हुई पनिहारिनों के देखने आदि परनिमित्तों से ही होगा अत: उस जलज्ञान की प्रमाणता अनभ्यास दशा में परत: मानी जाएगी।
तात्पर्य यह है कि विषय की परिचित दशा में ज्ञान की स्वत: प्रामाणिकता होती है। इसमें प्रथम ज्ञान की सच्चाई जानने के लिए विशेष कारणों की आवश्यकता नहीं होती। जैसे कोई व्यक्ति अपने मित्र के घर कई बार गया हुआ है। उससे भली—भाँति परिचित है। वह मित्र गृह को देखते ही नि:सन्देह उसमें प्रविष्ट हो जाता है। ‘यह मेरे मित्र का घर है’ ऐसा ज्ञान होने के समय ही उस ज्ञानगत सच्चाई का निश्चय नहीं होता तो वह उस घर में प्रविष्ट नहीं होता।
विषय की अपरिचित दशा में प्रामाण्य का निश्चय परत: होता है। ज्ञान की कारण सामग्री से जब उसकी सच्चाई का पता नहीं लगता तब विशेष कारणों की सहायता से उसकी प्रामाणिकता जानी जाती है, यही परत: प्रामाण्य है। पहले सुने हुए चिह्नों के आधार पर अपने मित्र के घर के पास पहुँच जाता है, फिर भी उसे यह सन्देह हो सकता है कि वह घर मेरे मित्र का है या किसी दूसरे का ? उस समय किसी जानकार व्यक्ति से पूछने पर प्रथम ज्ञान की सच्चाई मालूम हो जाती है। यहाँ ज्ञान की सच्चाई का पता दूसरे की सहायता से लगा इसलिए यह परत: प्रामाण्य है।
एक प्रमाणवादी चार्वाक सम्प्रदाय केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानता है इसीलिए वह परलोक आदि का निषेध करता है।
द्विप्रमाणवादी बौद्ध तथा वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं।
त्रिप्रमाणवादी सांख्य और योग प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम तथा आगम (शब्द)—इन तीन प्रमाणों को मानते हैं।
चतु:प्रमाणवादी नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान—इन चार प्रमाणों को मानते हैं।
पंच प्रमाणवादी प्रभाकर—मीमांसक प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति—इन पाँच प्रमाणों को मानते हैं।
षट् प्रमाणवादी कुमारिल भट्ट—मीमांसक तथा वेदान्ती प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणों को मानते हैं।
अष्ट प्रमाणवादी पौराणिक सम्प्रदाय प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव और ऐतिह्य—इन आठ प्रमाणों को मानता है।
जैनदर्शनसम्मत प्रमाणभेद—
जैनदर्शन में आचार्य श्री उमास्वामी जी ने सम्यग्ज्ञान को प्रमाण बतलाते हुए प्रमाण के दो भेद किये हैं-१. प्रत्यक्ष और २. परोक्ष। जैनदर्शन का यह प्रमाण भेद उनकी अपनी विशेष सूझ है। प्रमाण के इन प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेदों में ही उपरिनिर्दिष्ट अन्य दर्शनों द्वारा मान्य विभिन्न प्रमाण भेदों का अन्तर्भाव बड़ी सुगमता से किया जा सकता है। उपयोगिता की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु के भेद किये जाते हैं किन्तु भेद उतने ही होने चाहिए जितने अपना स्वरूप स्वतन्त्र रूप से असंकीर्ण रख सकें। महान् दार्शनिक आचार्य श्री समन्तभद्र ने सम्यग्ज्ञान रूप प्रमाण के अन्य प्रकार से भी दो भेद किये हैं—१. अक्रमभावि, २. क्रमभावि। केवलज्ञान या आप्त ज्ञान अक्रमभावी है और शेष मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ये चार क्रम भावि हैं। आप्त ज्ञान अक्रमभावि है और हम छद्मस्थों का प्रमाण ज्ञान क्रमभावी है।
विभिन्न दर्शनों द्वारा मान्य प्रत्यक्ष—परोक्ष लक्षण—जैनेतर दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष का लक्षण अनेक प्रकार से किया है। न्याय वैशेषिक दर्शन इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष कहता है। सांख्य दर्शन भी श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति को अथवा घट, पट आदि पदार्थों में चक्षु, श्रोत्रादि इन्द्रियों के सन्निकर्ष से उत्पन्न बुद्धि के व्यापार को प्रत्यक्ष मानता है।
मीमांसा दर्शन इन्द्रियों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने पर उत्पन्न होने वाली बुद्धि को प्रत्यक्ष मानता है।
बौद्ध दर्शन ने नाम, जाति आदि कल्पना से रहित निर्विकल्पक तथा भ्रान्तिरहित ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है। प्राय: सभी बौद्ध दार्शनिक विद्वानों ने निर्विकल्पक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष स्वीकार किया है।
न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान-न्यायदर्शन में प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद किए गये हैं—एक सविकल्पक और दूसरा निर्विकल्पक। जिसमें वस्तु के स्वरूप की प्रतीति के साथ उसके नाम, जाति आदि का भी भान होता है उसको सविकल्पक कहते हैं। जैसे घट, पट आदि की प्रतीति के साथ उनके नाम, जाति आदि का भी भान (ज्ञान) होता है। साधारणत: व्यवहार में आने वाले सभी ज्ञान सविकल्पक के उदाहरण हैं परन्तु जहाँ केवल वस्तु का स्वरूप प्रतीत होता है उसव्ाâे नाम, जाति आदि की प्रतीति नहीं होती है अर्थात् जिसमें विशेष्य—विशेषण भाव आदि की प्रतीति न हो, मात्र सामान्यावलोकन हो उसको निर्विकल्पक कहते हैं। इसी को ‘आलोचन मात्र’ भी कहा गया है।
ज्ञान की उत्पत्ति प्रक्रिया में सर्वप्रथम इस प्रकार का वस्तुमात्रावगाहि ज्ञान उत्पन्न होता है, इसको बौद्ध और जैनदर्शन दोनों ने स्वीकार किया है। जैनदर्शन, जो निर्विकल्पक को प्रत्यक्ष नहीं मानता है वह भी इस प्रकार के ज्ञान का अस्तित्व तो स्वीकार करता है इसको ‘दर्शन’ नाम से व्यवहृत करता है और इस ‘दर्शन’ को परोक्ष भी मानता है क्योंकि उसने परोक्ष ‘मतिज्ञान’ को भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है।
जैनदर्शन में आत्मा के चैतन्य गुण से सम्बन्ध रखने वाले परिणाम विशेष को उपयोग कहा गया है। उपयोग जीव का तद्भूत लक्षण है। यह उपयोग दो प्रकार का माना गया है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग पदार्थ को विकल्प सहित जानता है और दर्शनोपयोग या दर्शन पदार्थ को विकल्प रहित जानता है। ज्ञान को साकार और दर्शन को निराकार भी कहा गया है। ‘दर्शन’ का स्पष्ट विवेचन करते हुए जैनागमों में कहा गया है कि सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के विशेष अंश का ग्रहण न करके केवल सामान्य अंश का जो निर्विकल्पक रूप से ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं अर्थात् निर्विकल्पक रूप से जीव के द्वारा जो सामान्य विशेषात्मक पदार्थों की स्व—पर सत्ता का अवभासन होता है उसे ‘दर्शन’ कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि पदार्थों में सामान्य और विशेष दोनों ही धर्म एक साथ रहते हैं किन्तु सामान्य धर्म की अपेक्षा से जो स्व—पर सत्ता का अवभासन होता है उसको दर्शन कहते हैं। इसका शब्दों द्वारा प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। दर्शन पदार्थों का आकार रहित सामान्य रूप से सत्ता—मात्र का ग्रहण करता है। इसमें यह ‘काला’ है, यह ‘गोरा’ है, यह ‘छोटा’ है, यह ‘बड़ा’ है—इस प्रकार का विकल्प पैदा नहीं होता। ‘कुछ’ है इस प्रकार पदार्थ की सत्ता (मौजूदगी) मात्र प्रतिभासित होती है अर्थात् यह निर्विकल्पक होता है।
उक्त सविकल्पक और निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में से बौद्ध तथा वेदान्त दर्शन केवल निर्विकल्पक को ही प्रत्यक्ष मानता है तो जैनदर्शन केवल सविकल्पक को ही, जबकि न्याय—वैशेषिक आदि सभी वैदिक दर्शन सविकल्पक और निर्विकल्पक दोनों को ही प्रत्यक्ष मानते हैं।
न्याय-वैशेषिक मत में प्रत्यक्ष ज्ञान-न्याय—वैशेषिक मतानुसार प्रत्यक्ष के प्रकारान्तर से लौकिक और अलौकिक ये दो भेद भी माने गये हैं। अस्मदादि लौकिक पुरुषों का प्रत्यक्ष लौकिक प्रत्यक्ष है और वह इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि कारण सामग्री के होने पर ही सम्भव है परन्तु योगियों के प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि कारण सामग्री की आवश्यकता नहीं है। योगीजन अपनी योगज सामर्थ्य से इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के बिना भी भूत, भविष्यत्, सूक्ष्म व्यवहित, विप्रकृष्ट सभी वस्तुओं को ग्रहण कर सकते हैं। उनका यह ज्ञान यथार्थ और साक्षात्कारात्मक निर्विकल्पक होता है। इस प्रकार लौकिक और अलौकिक दोनों प्रकार के निर्विकल्पक ज्ञान और उनकी कारण सामग्री के विषय में प्राय: सभी निर्विकल्पकवादी एकमत हैं।
इस प्रकार न्याय, वैशेषिकादि प्राय: सभी वैदिक दर्शनों ने इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष माना है और इसी प्रकार इन्द्रियों से परे, जहाँ इन्द्रियों की पहुँच नहीं है, ऐसे ज्ञान को परोक्ष भी कहा है अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रियों के व्यापार से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है और जो इन्द्रियों के व्यापार से रहित है वह परोक्ष है। यहाँ ‘अक्ष’ शब्द का अर्थ इन्द्रिय लिया गया है किन्तु प्रत्यक्ष का यह लक्षण जैनदर्शन के अनुसार समीचीन नहीं है क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष लक्षण मानने पर इन्द्रियों में से चक्षुरिन्द्रिय पदार्थों से सम्बद्ध होकर (सटकर) उनके रूपादि का ज्ञान नहीं कराती किन्तु उनसे दूर स्थित होकर ही उनका ज्ञान कराती है। यह हम स्पष्ट ही देखते हैं इस प्रकार यह लक्षण अव्याप्ति दोष से दूषित सिद्ध होता है। इसी प्रकार उक्त लक्षण के मानने पर आप्त के प्रत्यक्ष ज्ञान का अभाव प्राप्त होता है क्योंकि आप्त के इन्द्रिय या इन्द्रियार्थ सन्निकर्षपूर्वक पदार्थज्ञान नहीं होता। यदि उसके भी इन्द्रियपूर्वक ही ज्ञान माना जाय तो उसको सर्वज्ञ वैâसे माना जा सकता है ? यदि यह कहा जाए कि उसको मानस प्रत्यक्ष होता है, उससे समस्त पदार्थों को जान लेता है, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि मन के प्रयत्न से ज्ञान की उत्पत्ति मानने पर भी सर्वज्ञत्व का अभाव ही सिद्ध होता है। यदि पुन: यह कहा जाए कि योगी प्रत्यक्ष नाम का एक अन्य दिव्यज्ञान है, उससे योगीजन इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के बिना भी भूत, भविष्यत् , सूक्ष्म, व्यवहित, विप्रकृष्ट आदि सभी वस्तुओं को जान सकते हैं तो भी उनमें प्रत्यक्षता नहीं बनती क्योंकि वह इन्द्रियों के निमित्त से नहीं होता है। जिसकी प्रवृत्ति प्रत्येक इन्द्रिय से होती है वह प्रत्यक्ष है। ऐसा सभी वैदिक दर्शनों ने स्वीकार भी किया है। इस प्रकार उक्त लक्षण निर्दोष सिद्ध नहीं होता है।
जैनदर्शनसम्मत प्रत्यक्ष-परोक्ष लक्षण—प्रत्यक्ष प्रमाण—जैनदर्शन के प्रमुख आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने प्रत्यक्ष और परोक्ष का लक्षण करते हुए कहा है-‘पर अर्थात् इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि की अपेक्षा से रहित आत्म मात्र सापेक्ष पदार्थज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि पर साधनों की अपेक्षा से होने वाले पदार्थज्ञान को परोक्ष कहते हैं।
इसी प्रकार आचार्य श्री कुन्दकुन्द के भाष्यकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष का यही लक्षण किया है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द के पश्चात् आचार्य श्री उमास्वामी तथा उनके भाष्यकार श्री अकलंकदेव, श्री पूज्यपाद आदि ने भी प्रत्यक्ष और परोक्ष के व्युत्पत्तिपरक लक्षण किये हैं। ‘प्रत्यक्ष’ शब्द ‘प्रति’ और ‘अक्ष’ इन शब्दों के मेल से बना है। ‘अक्ष’ शब्द का अर्थ आत्मा और इन्द्रिय है किन्तु यहाँ ‘अक्ष’ शब्द का अर्थ आत्मा लिया गया है अत: जो ज्ञान इन्द्रियादि की अपेक्षा के बिना केवल आत्मा के प्रति ही नियत होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं।
इसी प्रकार ‘अक्ष’ व्याप् और ज्ञा-ये धातुएँ एकार्थवाचक हैं इसलिए ‘अक्ष’ का अर्थ आत्मा होता है। इस प्रकार क्षयोपशम वाले या आवरणरहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादि की अपेक्षा से न होकर केवल क्षयोपशम वाले या आवरण रहित आत्मा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है।
विचारणीय यह है कि इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष, जैसा कि जैनेतर दर्शन मानते हैं, नहीं माना जा सकता है; क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान से आत्मा में सर्वज्ञता नहीं आ सकती है, उसका अभाव हो जाएगा अतएव अतीन्द्रिय ज्ञान परनिरपेक्ष होने के कारण प्रत्यक्ष है। जो ज्ञान सर्वथा स्वावलम्बी है, स्वतन्त्र आत्मा के आश्रित है, पर निरपेक्ष है, जिसमें बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं है वह प्रत्यक्ष है और जिसमें इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि की अपेक्षा या आवश्यकता रहती है, वह परोक्ष है क्योंकि इन्द्रिय, मन, प्रकाश और गुरुपदेशादि पर कहे जाते हैं, इन पर अर्थात् बाह्य निमित्तों की अपेक्षा से ‘अक्ष’ अर्थात् आत्मा के जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे परोक्ष कहते हैं। आचार्य श्री कुन्दकुन्द और श्री उमास्वामी के उत्तरवर्ती आचार्यों ने तार्किक दृष्टि से भी प्रत्यक्ष और परोक्ष के लक्षण किये हैं।
आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार प्रत्यक्ष-परोक्ष लक्षण-आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने अपरोक्ष रूप से अर्थ को ग्रहण करने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष और इससे भिन्न ज्ञान को परोक्ष कहा है। इस लक्षण में ‘अपरोक्ष’ शब्द विशेष महत्त्व का है। नैयायिक ‘इन्द्रिय’ और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं। आचार्य श्री सिद्धसेन ने ‘अपरोक्ष’ शब्द के द्वारा उससे असहमति प्रकट की है। इन्द्रिय के माध्यम से होने वाला ज्ञान आत्मा (प्रमाता) के साक्षात् नहीं होता इसलिए वह प्रत्यक्ष नहीं है। ज्ञान की प्रत्यक्षता के लिए अर्थ और उसके बीच अव्यवधान होना जरूरी है। आचार्य श्री अकलंकदेव ने परमार्थत: स्पष्ट, साकार, द्रव्यपर्यायात्मक और सामान्य—विशेषात्मक अर्थ को जानने वाले और आत्मवेदी ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है।
इन्होंने लघीयस्त्रय में ‘विशद ज्ञान’ को भी प्रत्यक्ष कहा है अर्थात् जो ज्ञान परमार्थ रूप से विशद (निर्मल) और स्पष्ट होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्होंने आगे वैशद्य (विशदता या निर्मलता) का लक्षण करते हुए कहा है-अनुमानादि परोक्ष प्रमाणों की अपेक्षा पदार्थ के वर्ण, आकारादि के विशेष प्रतिभासन को वैशद्य कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि जिस ज्ञान में किसी अन्य ज्ञान की सहायता अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है। जिस तरह अनुमानादि परोक्षज्ञान अपनी उत्पत्ति में लिंगज्ञान, व्याप्तिस्मरण आदि की अपेक्षा रखते हैं। उस तरह प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्ति में किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता। यही अनुमानादि से प्रत्यक्ष में अतिरेक (अधिकता) है। दूसरे शब्दों में, अन्य ज्ञान के व्यवधान से रहित जो निर्मल, स्पष्ट और विशिष्ट ज्ञान होता है उसे विशदता या वैशद्य कहते हैं।
ज्ञान की इस विशदता या स्पष्टता को हम एक उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं—जैसे किसी एक बालक को उसके पिता ने अग्नि का ज्ञान शब्द द्वारा करा दिया। बालक ने शब्द (आगम) से अग्नि जान ली। इसके पश्चात् फिर धूम दिखाकर अग्नि का ज्ञान करा दिया। बालक ने अनुमान से अग्नि जान ली। तदनन्तर बालक के पिता ने जलता हुआ अंगारा उठा लिया और बालक के सामने रखकर कहा-देखो, यह अग्नि है। इस प्रकार यह प्रत्यक्ष से अग्नि का जानना कहलाया है। इस उदाहरण में पहले दो ज्ञानों की अपेक्षा अन्तिम ज्ञान अर्थात् प्रत्यक्ष द्वारा अग्नि का विशेष वर्ण, स्पर्श आदि का जो निर्मल ज्ञान होता है, बस यही ज्ञान की विशदता या स्पष्टता है। ऐसी विशदता जिस ज्ञान में पायी जाती है वह ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है।
आचार्य श्री अकलंक देव के अनुसार प्रत्यक्ष-परोक्ष लक्षण-इस प्रकार आचार्य श्री अकलंक देव की व्याख्या के अनुसार ‘विशद ज्ञान’ प्रत्यक्ष है। आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर के प्रत्यक्ष लक्षण के ‘अपरोक्ष’ पद के स्थान पर ‘विशद’ पद को लक्षण में स्थान देने का एक कारण है। आचार्य श्री अकलंकदेव की प्रमाण व्यवस्था में व्यवहारदृष्टि का भी आश्रयण है। इसके अनुसार प्रत्यक्ष के दो भेद होते हैं-मुख्य और सांव्यवहारिक। मुख्य प्रत्यक्ष वह है जो अपरोक्षतया अर्थ ग्रहण करे। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में अर्थ का ग्रहण इन्द्रिय के माध्यम से होता है, उसमें ‘अपरोक्षतया’ अर्थग्रहण’ लक्षण नहीं बनता इसलिए दोनों की संगति करने के लिए ‘विशद’ शब्द की योजना करनी पड़ी।
आचार्य श्री अकलंकदेव ने अपने इस प्रत्यक्ष लक्षण द्वारा दार्शनिक जगत् की एक बहुत बड़ी समस्या का समाधान किया। समस्या थी इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष नहीं मानना। किसी भी जैनेतर दार्शनिक ने इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष नहीं माना, सब उसे प्रत्यक्ष ही मानते हैं किन्तु जैनदर्शन इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान को परोक्ष मानता है। जबकि इतर दार्शनिक उसे प्रत्यक्ष कहते थे। यह एक लोक व्यावहारिक समस्या थी। इसका समाधान इन्होंने बड़े सुन्दर तार्किक ढंग से किया। इन्होंने प्रत्यक्ष के दो भेद किये-१. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और २. पारमार्थिक या मुख्य प्रत्यक्ष। लोक में जिस इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है वह व्यवहार से तथा देशत: विशद (निर्मल) होने से उसे उन्होंने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार लोकव्यवहार का निर्वाह करने के लिए उन्होंने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कल्पना की, जो अपने ही अनोखे ढंग की थी। इससे इन्होंने इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले मतिज्ञान को परोक्ष की परिधि में से निकालकर तथा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष नाम देकर प्रत्यक्ष की परिधि में सम्मिलित कर दिया। इस अनूठी कल्पना से उक्त समस्या का पूर्ण समाधान हो गया। इस प्रकार आचार्य श्री अकलंक देव का यह प्रत्यक्ष लक्षण इतना लोकप्रिय हुआ कि इनके उत्तरवर्ती सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर जैनाचार्यों ने तथा जैनेतर दार्शनिकों ने इस लक्षण को बिना किसी विरोध के सहर्ष स्वीकार किया।
जिस प्रकार आचार्य श्री अकलंक देव ने ‘विशद ज्ञान’ को प्रत्यक्ष कहा है उसी प्रकार बौद्ध भी ‘विशद ज्ञान’ को प्रत्यक्ष कहते हैं किन्तु वे निर्विकल्पक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष की सीमा में रखते हैं।
यद्यपि आचार्य श्री सिद्धसेन के लक्षण में निर्दिष्ट ‘अपरोक्ष’ का वेदान्त के और आचार्य अकलंक के प्रत्यक्ष लक्षण में निर्दिष्ट ‘विशद’ का बौद्ध के प्रत्यक्षलक्षण से अधिक सामीप्य है, फिर भी उसके विषयग्राहक स्वरूप में मौलिक भेद है। वेदान्त के मतानुसार पदार्थ का प्रत्यक्ष अन्त:करण की वृत्ति के माध्यम से होता है। अन्त:करण दृश्यमान पदार्थ का आकार धारण करता है। आत्मा अपने शुद्ध साक्षी चैतन्य से उसे प्रकाशित करता है तब प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।
जैनदर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष में ज्ञान और ज्ञेय के बीच दूसरी कोई शक्ति नहीं होती।
बौद्ध प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक मानते हैं। जैनों के अनुसार निर्विकल्पक बोध निर्णायक नहीं होता इसलिए यह प्रत्यक्ष तो क्या प्रमाण ही नहीं बनता।
जैनदर्शन के अनुसार आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष तथा जिस ज्ञान में इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि पर साधनों की अपेक्षा होती है वह ज्ञान परोक्ष है। प्रत्यक्ष आत्मजन्य या आत्मीक ज्ञान है और परोक्ष इन्द्रियजन्य ज्ञान है, प्रत्यक्ष स्वाश्रित और परोक्ष पराश्रित, प्रत्यक्ष इन्द्रिय निरपेक्ष और परोक्ष इन्द्रिय सापेक्ष, प्रत्यक्ष आत्माधीन और परोक्ष इन्द्रियाधीन, प्रत्यक्ष आत्मविशुद्धि या आत्मनैर्मल्यजन्य और परोक्ष इन्द्रियनैर्मल्यजन्य ज्ञान है। इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष की ये परिभाषाएँ जैनदर्शन की भारतीय दर्शन को एक विशेष देन हैं।
प्रत्यक्ष के भेद—
उपरि विवेचित प्रत्यक्ष के दो भेद हैं—१. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, २. पारमार्थिक या मुख्य प्रत्यक्ष।
१. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष—इन्द्रिय और मन ही सहायता से होने वाले एकदेश निर्मल ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। सांव्यवहारिक शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी किया गया है-सम् अर्थात् समीचीन प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहार को संव्यवहार कहते हैं और उसमें होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक कहते हैं।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-१. इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और २. अनिन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष।
(१) इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष—स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण-इन पाँच इन्द्रियों और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। इसी को आचार्य श्री उमास्वामी ने मतिज्ञान कहा है।
(२) अनिन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष—अनिन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष जैसा कि इसके नाम से अभिव्यक्त होता है, अनिन्द्रिय अर्थात् केवल मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनिन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है।
इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष या मतिज्ञान को चार भागों में विभक्त किया गया है—१. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय और ४. धारणा।
१. अवग्रह—योग्य क्षेत्र में स्थित पदार्थ के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर सबसे पहले दर्शन होता है जो निर्विकल्पक अथवा निराकार होता है और दर्शन के बाद उस पदार्थ का जो प्रथम ग्रहण होता है, जो सविकल्पक अथवा साकार हुआ करता है उसे अवग्रह कहते हैं। जैसे-चक्षु इन्द्रिय द्वारा ‘यह शुक्ल रूप है’ ऐसा ग्रहण होना अवग्रह है। तात्पर्य यह है कि चक्षु आदि इन्द्रियों तथा घटादि पदार्थों का सम्पर्क होते ही प्रथम दर्शन होता है। यह दर्शन सत्ता मात्र या सामान्य (कुछ है) को ग्रहण करता है। पीछे वही दर्शन वस्तु के आकार आदि का निर्णय होने पर अवग्रह ज्ञान रूप परिणत हो जाता है। जैसे-‘यह मनुष्य है’ यह ज्ञान होना अवग्रह है। अवग्रह, ग्रहण, आलोचना और अवधारणा-ये एक ही अर्थ के वाचक शब्द हैं अर्थात् अवग्रह के पर्यायवाची हैं।
२ अवग्रह के भेद—अवग्रह के भी दो भेद हैं-१. व्यंजनावग्रह और २. अर्थावग्रह। अव्यक्त, अस्पष्ट या अप्रकट पदार्थ के ग्रहण को व्यंजनावग्रह कहते हैं और व्यक्त, स्पष्ट या प्रकट पदार्थ के ग्रहण को अर्थावग्रह कहते हैं अथवा जो प्राप्त अर्थ के विषय में होता है उसको व्यंजनावग्रह कहते हैं और जो अप्राप्त अर्थ के विषय में होता है उसको अर्थावग्रह कहते हैं। अर्थात् इन्द्रियों से प्राप्त (सम्बन्ध) अर्थ को व्यंजन कहते हैं और अप्राप्त (असम्बन्ध) अर्थ को अर्थ कहते हैं और इनके ज्ञान को क्रम से व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह कहते हैं। इस प्रकार व्यंजन शब्द का अर्थ ‘प्राप्ति’ भी किया गया है इसलिए इसका ऐसा अर्थ समझना चाहिए कि इन्द्रियों से सम्बन्ध होने पर भी जब तक प्रकट न हो तब तक उसे व्यंजन कहते हैं और प्रकट होने पर ‘अर्थ’ कहते हैं। इन दोनों का भेद एक दृष्टान्त के द्वारा स्पष्ट किया गया है जैसे—मिट्टी के नये अति सूक्ष्म सकोरे पर जल के दो—तीन बिन्दु डाले जायें तो तुरन्त ही सकोरा उन्हें सोख लेता है और वह गीला नहीं होता किन्तु बार—बार जलबिन्दु डालने पर एक समय ऐसा आता है कि वह सकोरा धीरे—धीरे गीला हो जाता है और वह गीला दिखाई देने लगता है। इससे पूर्व भी सकोरा में वे जलकण थे अवश्य किन्तु दृष्टि में आने लायक नहीं थे, उनकी मात्रा अति अल्प थी। जब जल की मात्रा बढ़ी और सकोरे की सोखने की शक्ति कम हुई तब कहीं आर्द्रता दिखाई देने लगी और जो जल सर्वप्रथम सकोरे में समा गया था वही अब उसके ऊपर के तल में इकट्ठा होने लगा और स्पष्ट दिखाई दिया। इसी तरह जब किसी सुषुप्त व्यक्ति को पुकारा जाता है तब यह शब्द उसके कान में गायब सा हो जाता है। दो—चार बार पुकारने से उसके कान में जब पौद्गलिक शब्दों की मात्रा काफी रूप में भर जाती है तब जलकणों से पहलेपहल आर्द्र होने वाले सकोरे की तरह उस सुषुप्त व्यक्ति के कान भी शब्दों से परिपूरित होकर उनको सामान्य रूप से जानने में समर्थ होते हैं कि ‘यह क्या है ?’ यही सामान्य ज्ञान है जो शब्द को पहलेपहल स्पष्टतया जानता है। इसके बाद विशेष ज्ञान का क्रम प्रारम्भ होता है इस तरह स्पर्श आदि इन्द्रियों में ग्रहण किया हुआ स्पर्श अथवा श्रोत्र आदि इन्द्रियों में आया हुआ शब्द अथवा गन्ध आदि दो चार छह क्षणों तक स्पष्ट नहीं होते किन्तु बार—बार ग्रहण करने पर स्पष्ट हो जाते हैं अत: स्पष्ट ग्रहण से पहले व्यंजनावग्रह होता है। पश्चात् अर्थावग्रह होता है किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि जैसे अवग्रह—ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होता है। वैसे ही अर्थावग्रह भी व्यंजनावग्रहपूर्वक ही हो क्योंकि अर्थावग्रह तो पाँचों ही इन्द्रियों और मन से होता है किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है। इन को छोड़कर शेष चार ही इन्द्रियों से होता है। आशय यह है कि जो इन्द्रियाँ अपने विषय को उससे सम्बद्ध या सट कर जानती हैं उन्हीं से व्यंजनावग्रह होता है। ऐसी इन्द्रियाँ केवल चार हैं—स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र। ये चारों इन्द्रियाँ अपने विषय से सम्बद्ध होने पर ही स्पर्श, रस, गन्ध और शब्द को ग्रहण करती हैं किन्तु चक्षु और मन अपने विषय से दूर रहकर ही उसे जानते हैं। तभी तो जो वस्तु आँख के अत्यन्त निकट होती है उसे वह नहीं जानती। जैसे—आँख में लगा हुआ अंजन। इसी से जैनदर्शन में चक्षु को अप्राप्यकारी माना है। चक्षु की अप्राप्यकारिता आगम और युक्ति से सिद्ध होती है। आगम से यथा-‘श्रोत्र स्पृष्ट शब्द को सुनता है और अस्पृष्ट शब्द को भी सुनता है, नेत्र अस्पृष्ट रूप को ही देखता है तथा घ्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियाँ क्रम से स्पृष्ट और अस्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्श को जानती हैं। युक्ति से चक्षु की अप्राप्यकारिता ‘आँख’ में लगे हुए अंजन के दृष्टान्त द्वारा ऊपर निर्दिष्ट कर दी गयी है।
३. दर्शन और अवग्रह में भेद—दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में दर्शन को अनाकार तथा सामान्यग्राही माना है तथा ज्ञान को साकार और विशेषग्राही माना है। पहले दर्शन होता है फिर ज्ञान होता है किन्तु दिगम्बर परम्परा केवलज्ञानी के दर्शन और ज्ञान एक साथ मानती है। आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है। श्री अकलंकदेव ने भी उसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि इन्द्रिय और अर्थ का योग होने पर सत्ता सामान्य का दर्शन होता है अर्थात् वे दर्शन का विषय बलता देते हैं। यही सन्मात्र दर्शन अनन्तर समय में ‘अर्थाकार विकल्पधी’ हो जाता है अर्थात् अर्थ के आकार का निर्णायक हो जाता है, वही अवग्रह है।
दर्शन और अवग्रह के भेद की चर्चा करते हुए श्री अकलंकदेव ‘तत्त्वार्थवार्तिक’ में कहते हैं—
‘चक्षु के द्वारा ‘कुछ है’ इस प्रकार के निराकार अवलोकन को दर्शन कहते हैं। जैसे-तत्काल जन्मे हुए बालक को आँख खोलते ही जो प्रथम अवलोकन होता है, जिसमें वस्तु के विशेष धर्मों का भान नहीं होता, वह दर्शन है, वैसे ही सभी को पहले दर्शन होता है उसके पश्चात् दो—तीन समय तक आँखें टिमटिमाने पर ‘यह रूप है’ इस प्रकार विशेषता को लिए हुए अवग्रह होता है, आँखे खोलते ही बाल शिशु को जो दर्शन होता है यदि वह अवग्रह का सजातीय होने से ज्ञान है तो वह मिथ्याज्ञान है अथवा सम्यग्ज्ञान है ? यदि मिथ्याज्ञान है तो वह संशय है या विपर्यय है अथवा अनध्यवसाय है ? वह संशय या विपर्यय ज्ञान तो हो नहीं सकता ; क्योंकि बच्चे की चेष्टाएँ सम्यग्ज्ञानमूलक देखी जाती हैं तथा प्रथम ही संशय और विपर्यय हो भी नहीं सकते। जब कोई सीप और चाँदी को देख लेता है, उसके पश्चात् ही उसे सामने पड़ी हुई वस्तु में सीप और चाँदी का भ्रम होता है तथा वह अनध्यवसाय भी नहीं है; क्योंकि उसे वस्तु मात्र का दर्शन हो रहा है अत: बच्चे का प्राथमिक अवलोकन मिथ्याज्ञान तो नहीं है और न सम्यग्ज्ञान ही है, क्योंकि उसमें वस्तु के आकार का बोध नहीं है। अत: यह मानना पड़ता है कि अवग्रह से पहले दर्शन होता है।
इस तरह अकलंकदेव ने अवग्रह और दर्शन में भेद सिद्ध करते हुए ‘कुछ है’ इस प्रकार से वस्तु मात्र के ग्राही को दर्शन और ‘वह रूप है’ इस प्रकार वस्तु विशेष के ग्राही को अवग्रह ज्ञान कहा है।
सभी जैनेतर दार्शनिक यह मानते हैं कि सबसे पहले इन्द्रिय और विषय का सन्निकर्ष होता है फिर निर्विकल्पक ज्ञान होता है। मीमांसक कुमारिल भट्ट लिखते हैं कि ‘सबसे प्रथम आलोचना ज्ञान होता है। वह निर्विकल्पक होता है, शुद्ध वस्तु से जन्य होता है तथा मूक शिशु के ज्ञान के सदृश होता है। आचार्य जिनभद्र ने भी अवग्रह की चर्चा करते हुए आलोचनपूर्वक अवग्रहज्ञान के होने की चर्चा की है और उन्होंने आलोचना ज्ञान को व्यंजनावग्रह माना है; क्योंकि इन्द्रिय और अर्थ का सम्बन्ध होने पर आलोचना ज्ञान होता है और तभी व्यंजनावग्रह माना गया है किन्तु यदि आलोचना ज्ञान में सामान्य अर्थ का ग्रहण होता है तो वह अर्थावग्रह से भिन्न नहीं है तथा अकलंकदेव की उक्त चर्चा में मूक शिशु के प्रथम दर्शन को अवग्रह से विलक्षण सिद्ध करके अवग्रह से पहले दर्शन की सत्ता सिद्ध की गयी है अत: कुमारिल के आलोचना ज्ञान को अकलंकदेव ने दर्शन माना है। इसी तरह बौद्धों के निर्विकल्पक ज्ञान को भी श्री अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष ज्ञान न मानकर दर्शन माना है। सारांश यह है कि जैनदर्शन में सविकल्पक ज्ञान से पहले किसी निर्विकल्पक ज्ञान का अस्तित्व नहीं माना गया, जबकि अन्य दर्शनों में माना गया अत: अकलंकदेव ने उसकी तुलना दर्शन से की क्योंकि जैनदर्शन में ज्ञान को दर्शनपूर्वक माना है तथा उसका विषय सत्ता—सामान्य है। श्री अकलंकदेव की इस मान्यता को भी उनके उत्तराधिकारी दोनों परम्पराओं के दार्शनिकों ने स्वीकार किया।
१.३.४ ईहा-अवग्रह के द्वारा होने वाला ज्ञान इतना कमजोर होता है कि इसके बाद संशय हो सकता है इसलिए संशयापन्न अवस्था को दूर करने के लिए या पिछले ज्ञान को व्यवस्थित करने के लिए जो ईहन, विचारणा या गवेषणा होती है वह ईहा ज्ञान है। अवग्रह से होने वाले ज्ञान के बाद उस पदार्थ को विशेष रूप से जानने के लिए जब यह शंका हुआ करती है कि यह मनुष्य तो है परन्तु दाक्षिणात्य है अथवा औदीच्य है ? तब उस शंका को दूर करने के लिए उसके वस्त्र आदि की तरफ दृष्टि देने से यह ज्ञान होता है कि यह दाक्षिणात्य होना चाहिए, इसी को ईहा कहते हैं।
आशय यह है कि अवग्रह से गृहीत अर्थ में विशेष जानने की आकांक्षा रूप ज्ञान को ईहा कहते हैं। जैसे-‘यह पुरुष है’ इस प्रकार यदि ‘पुरुष’ का अवग्रह ज्ञान हुआ तो ‘यह पुरुष’ किस देश का है, किस उम्र का है ? आदि जानने की आकांक्षा ईहा है। श्वेताम्बरीय मान्यता के अनुसार शब्द को सुनकर ‘यह शब्द होना चाहिए’ इस प्रकार की जिज्ञासा का होना ईहा है। ईहा ज्ञान संशय रूप नहीं है। एक वस्तु में परस्पर विरुद्ध अनेक अर्थों के ज्ञान का नाम संशय है। यह संशय अवग्रह के पश्चात् और ईहा से पहले होता है। संशय के दूर होने पर जब ज्ञान निश्चय के अभिमुख होता है तो उसी को ईहा कहते हैं। जैसे-पुरुष का अवग्रह होने पर यह दक्षिणात्य है अथवा औदीच्य है ? इत्यादि संशय होता है। इसके पश्चात् जब वह निश्चयोन्मुख होता है कि अमुक होना चाहिए, वह ईहा है।
यदि यह कहा जाए कि ईहा ज्ञान में विशेष का निश्चय नहीं होता और संशय भी अनिश्चयात्मक है, ऐसी अवस्था में दोनों में क्या भेद है ? इसका समाधान किया गया है कि संशय पहले होता है और ईहा बाद में उत्पन्न होती है अतएव दोनों भिन्न—भिन्न हैं। इसके अतिरिक्त संशय में दोनों पलड़े बराबर होते हैं, दक्षिणी और पश्चिमी की दोनों कोटियाँ तुल्य बल वाली होती हैं, ईहा में एक पलड़ा भारी हो जाता है। यह ‘दक्षिणी होना चाहिए’ इस प्रकार का ज्ञान एक ओर को झुका रहता है अतएव संशय और ईहा दोनों एक नहीं हैं।
ईहा, ऊहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं अर्थात् ईहा शब्द के पर्यायवाची हैं।
५. अवाय—विशेष धर्मों को जानकर यथार्थ वस्तु का निर्णय होना अवाय है अथवा अवग्रह तथा ईहा के द्वारा जाने हुए पदार्थ के विषय में ‘यह समीचीन है’ अथवा ‘असमीचीन है’ इस तरह से गुण—दोषों का विचार करने के लिए जो निश्चय रूप ज्ञान की प्रवृत्ति होती है उसको अपाय या अवाय कहते हैं। जैसे—‘यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए’ इतना ज्ञान ईहा द्वारा हो चुका था, उसमें विशेष का निश्चय होना अर्थात् उस मनुष्य के निकट आ जाने पर उसकी बातचीत (बोलचाल) के सुनने पर यह दृढ़ निश्चय होता है कि यह ‘दक्षिणात्य ही है’ इस प्रकार के ज्ञान को अपाय कहते हैं। अपाय, अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध और अपनुत्त-ये सभी शब्द एक अर्थ के वाचक हैं अर्थात् अवाय शब्द के पर्यायवाची हैं।
यहाँ अवाय और अपाय दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है। श्वेताम्बर सम्मत तत्त्वार्थ सूत्र में ‘अपाय’ शब्द का प्रयोग है और दिगम्बरसम्मत तत्त्वार्थ सूत्र में ‘अवाय’ शब्द का प्रयोग है। आचार्य श्री अकलंकदेव ने अपने राजवार्तिक में यह चर्चा की है कि यह अपाय शब्द है अथवा अवाय ? इसका समाधान करते हुए उन्होंने कहा है कि दोनों ही शब्द ठीक हैं, एक के प्रयोग से दूसरे का ग्रहण स्वयं हो जाता है। जैसे जब ‘यह दक्षिणात्य नहीं है’ इस तरह यह शब्द अपाय अर्थात् निषेध करता है तो ‘यह उत्तरीय है’ यह अवाय अर्थात् ज्ञान करता है और जब ‘यह उत्तरीय है’ यह ज्ञान करता है तब ‘यह दक्षिणात्य नहीं है’ यह अपाय अर्थात् निषेध करता है।
६. धारणा—अवाय से निर्णीत वस्तु को कालान्तर में न भूलने में जो ज्ञान कारण है उसे धारणा कहते हैं। जैसे अवाय से यह निश्चय हो गया था कि ‘यह दक्षिणात्य ही है’ इसको कालान्तर में न भूलने में जो ज्ञान कारण होता है उसे धारणा कहते हैं। धारणा का मतलब प्रतिपत्ति है अर्थात् अपने योग्य पदार्थ का जो बोध हुआ है, उसका अधिक काल तक स्थिर रहना धारणा है। यह धारणा ही स्मृति आदि ज्ञानों की जननी है। जिस पदार्थ का धारणा ज्ञान नहीं होता उसका कालान्तर में स्मरण भी सम्भव नहीं है। धारणा का अर्थ संस्कार भी है। यह ज्ञान हृदय—पटल पर इस प्रकार अंकित हो जाता है कि कालान्तर में भी वह जाग्रत हो सकता है।
धारणा, प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम और अवबोध ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं अर्थात् धारणा शब्द के पर्यायवाची हैं।
ये अवग्रह आदि चारों ज्ञान इसी क्रम से होते हैं। इनकी उत्पत्ति में कोई व्यतिक्रम नहीं होता; क्योंकि अदृष्ट का अवग्रह नहीं होता, अनवगृहीत में सन्देह नहीं होता, सन्देह हुए बिना ईहा नहीं होती, ईहा के बिना अवाय नहीं होता और अवाय के बिना धारणा नहीं होती किन्तु जैसे कमल के सौ पत्तों को ऊपर नीचे रखकर सुई से छेदने पर ऐसी प्रतीति होती है कि सारे पत्ते एक ही समय में छेदे गये। यद्यपि वहाँ काल भेद है किन्तु अत्यन्त सूक्ष्म होने से हमारी दृष्टि में नहीं आता, वैसे ही अभ्यस्त विषय में यद्यपि केवल अवाय ज्ञान की ही प्रतीति होती है फिर भी उससे पहले अवग्रह और ईहा ज्ञान बड़ी द्रुतगति से हो जाते हैं, इससे उनकी प्रतीति नहीं होती। आशय यह है कि पहले दर्शन, फिर अवग्रह, फिर सन्देह, फिर ईहा, फिर अवाय और तदनन्तर धारणा ज्ञान उत्पन्न होता है। यही अनुभव का क्रम है। यदि इस क्रम को स्वीकार न किया जाय तो किसी भी पदार्थ का ज्ञान होना असम्भव है; क्योंकि जब तक दर्शन के द्वारा पदार्थ की सत्ता का आभास नहीं हो तब तक मनुष्यत्व आदि अवान्तर सामान्य ज्ञात नहीं होंगे, अवान्तर सामान्य के ज्ञान बिना ‘यह दक्षिणी होना चाहिए’ इस प्रकार का सन्देह उत्पन्न नहीं होगा, सन्देह के बिना ‘यह दक्षिणी होना चाहिए’ इस प्रकार का ईहा ज्ञान नहीं होगा, इसी प्रकार अगले ज्ञानों का भी अभाव हो जाएगा अत: दर्शन, अवग्रह आदि का उक्त क्रम ही मानना युक्ति और अनुभव से संगत है।
यहाँ यह जानना भी आवश्यक है कि यह कोई नियम नहीं कि इनमें से पहला ज्ञान होने पर आगे के सभी ज्ञान होते ही हैं। कभी केवल अवग्रह ही होकर रह जाता है, कभी अवग्रह और ईहा ही होते हैं, कभी—कभी अवग्रह, ईहा और अवाय ज्ञान ही होते हैं और कभी धारणा तक होते हैं। ये सभी ज्ञान एक चैतन्य के ही विशेष हैं किन्तु ये सब क्रम से होते हैं तथा इनका विषय भी एक दूसरे से अपूर्व है अत: ये सब आपस में भिन्न—भिन्न माने जाते हैं।
ये अवग्रह आदि ज्ञान बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त, ध्रुव और इनसे उलटे एक या अल्प, एकविध या अल्पविध, अक्षिप्र, नि:सृत, उक्त तथा अध्रुव, इन बारह प्रकार के पदार्थों को ग्रहण करते हैं अर्थात् इन बारह प्रकार के पदार्थों का अवग्रह, ईहादि रूप ज्ञान होता है।
१. बहु—एक साथ एक पदार्थ का बहुत अवग्रहादि ज्ञान होना। जैसे—गेहूँ की राशि देखने से बहुत से गेहुँओं का ज्ञान होना।
२. बहुविध—बहुत प्रकार के पदार्थों का अवग्रहादि ज्ञान होना। जैसे—गेहूँ, चना, चावल आदि कई पदार्थों का ज्ञान होना।
३. क्षिप्र—शीघ्रता से पदार्थ का ज्ञान होना अथवा शीघ्र पदार्थ को क्षिप्र कहते हैं। जैसे—तेजी से बहता हुआ जलप्रवाह।
४. अनि:सृत—अप्रकट पदार्थ का ज्ञान। जैसे—जल में डूबा हुआ हाथी आदि अथवा एक प्रदेश के ज्ञान से सर्व का ज्ञान होना। जैसे बाहर निकली हुई हाथी की सूंड को देखकर जल में डूबे हुए पूरे हाथी का ज्ञान होना।
५. अनुक्त—वचन से कहे बिना अभिप्राय से जान लेना। जैसे—मुख की आकृति तथा हाथ आदि के इशारे से प्यासे या भूखे मनुष्य का ज्ञान होना।
६. ध्रुव—स्थिर पदार्थ को धु्रव कहते हैं। जैसे-पर्वतादि अथवा बहुत काल तक जैसे का तैसा निश्चल ज्ञान होते रहना।
७. एक—अल्प अथवा एक पदार्थ का ज्ञान। जैसे-एक गेहूँ या एक चने का ज्ञान होना।
८. एकविध—एक प्रकार के या एक ही जाति के पदार्थों का ज्ञान होना। जैसे—एक सदृश गेहुँओं का ज्ञान होना।
९. अक्षिप्र—चिरग्रहण-किसी पदार्थ को धीरे—धीरे बहुत समय तक जानना अथवा मन्द पदार्थ को अक्षिप्र कहते हैं। जैसे-कछुआ, धीरे—धीरे चलने वाला घोड़ा, मनुष्यादि।
१०. नि:सृत—बाहर निकले हुए प्रकट पदार्थों का ज्ञान होना।
११. उक्त—कहने पर ज्ञान होना।
१२. अध्रुव—जो क्षण—क्षण हीन अधिक होता रहे उसे अध्रुव ज्ञान कहते हैं अथवा चंचल रूप में पदार्थों को जानना अध्रुव ज्ञान है। जैसे-विद्युत आदि का ज्ञान।
उक्त बारह प्रकार के विषयों का पाँच इन्द्रिय और मन से अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञान होता है तथा ऊपर कहे हुए बहु आदिक बारह भेद पदार्थ के हैं अर्थात् बहु आदि विशेषण विशिष्ट पदार्थ के ही अवग्रह आदि ज्ञान होते हैं।
वैशेषिकादि दर्शनों का मत-इस विषय में वैशेषिकादि दर्शनों का मत है कि चक्षु आदि इन्द्रियाँ पदार्थों के केवल रूपादि गुणों को ही ग्रहण करती हैं, पदार्थों को नहीं क्योंकि इन्द्रियों का सन्निकर्ष रूपादि गुणों के साथ ही होता है अत: वे उन्हीं को ग्रहण करती हैं किन्तु जैनदर्शन इस मान्यता से सहमत नहीं है। उसके अनुसार चक्षु आदि इन्द्रियों का सम्बन्ध पदार्थों के साथ ही होता है, केवल रूपादि गुणों के साथ नहीं होता अत: चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा होने वाले अवग्रहादि मात्र रूपादि गुणों को ही नहीं जानते किन्तु उन गुणों के द्वारा द्रव्य को ग्रहण करते हैं क्योंकि गुण और गुणी (द्रव्य) में कथंचित् अभेद होने से गुण का ग्रहण होने पर गुणी (द्रव्य) का भी ग्रहण उस रूप में ही हो जाता है। किसी ऐसे इन्द्रिय ज्ञान की कल्पना नहीं की जा सकती, जो द्रव्य को छोड़कर मात्र गुण को या गुण को छोड़कर मात्र द्रव्य को ग्रहण करता हो।
मति ज्ञान के भेद-इस प्रकार ऊपर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत मतिज्ञान के भेद—प्रभेदों का वर्णन किया गया है। यदि इन भेद—प्रभेदों पर अलग—अलग रूप से विचार किया जावे तो ये सब भेद ३३६ होते हैं। जैसे—यह बारह प्रकार के पदार्थों का ज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप होता है अत: ये समस्त भेद मिलकर १२ x ४ = ४८ होते हैं और इनमें प्रत्येक ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा होता है अत: ४८ x ६ = २८८ भेद हुए। ये २८८ भेद अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के हैं क्योंकि ये सभी पाँच इन्द्रिय और मन से होते हैं किन्तु व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से उत्पन्न नहीं होता, केवल चार इन्द्रियों से ही होता है क्योंकि चक्षु और मन पदार्थ को दूर से ही ग्रहण करते हैं, उनसे सम्बद्ध या सटकर नहीं ग्रहण करते हैं। इस प्रकार व्यंजनावग्रह के बहु आदि बारह विषयों की अपेक्षा १२ x ४ = ४८ भेद होते हैं। इन सबको मिलाने से २८८ + ४८ = ३३६ भेद मतिज्ञान के होते हैं अर्थात् मतिज्ञान ३३६ प्रकार से पदार्थों को ग्रहण करता है, उनको जानता है।
जो ज्ञान मतिज्ञान पूर्वक उत्पन्न होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है क्योंकि ‘सुदंमई पुव्वं’ (श्रुतं मतिपूर्वम्) श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, ऐसा वचन है अर्थात् मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन लेकर जो अन्य अर्थ का ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है। श्रुत, आप्तवचन, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। श्रुत शब्द कुशल शब्द के समान जगत्स्वार्थवृत्ति (लक्षणा विशेष) है। जैसे-कुश काटने रूप क्रिया का आश्रय करके सिद्ध किया गया कुशल शब्द (उक्त अर्थ को छोड़कर) सब जगह ‘पर्यवदात’ या ‘दक्ष’ अर्थ में आता है उसी प्रकार श्रुत शब्द भी श्रवण क्रिया को लेकर सिद्ध होता हुआ रूढ़िवश किसी ज्ञान विशेष में रहता है न कि केवल श्रवण से उत्पन्न ज्ञान में ही। सूत्र में आये हुए ‘पूर्व’ शब्द का अर्थ कारण है इसलिए श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है अर्थात् मतिज्ञान के निमित्त से श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। मतिज्ञान हुए बिना श्रुतज्ञान नहीं हो सकता, फिर भी मतिज्ञान को श्रुतज्ञान का निमित्त कारण मानना चाहिए, उपादान कारण नहीं क्योंकि उसका असली निमित्त कारण तो श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम ही है।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में अन्तर-सर्वप्रथम पाँच इन्द्रिय और मन, इनमें से किसी एक के निमित्त से किसी भी विद्यमान वस्तु का मतिज्ञान होता है। इसके बाद इस मतिज्ञानपूर्वक उस ज्ञात हुई वस्तु के विषय में या उसके सम्बन्ध से अन्य वस्तु के विषय में जो विशेष चिन्तन और मनन प्रारम्भ होता है, उसे ही श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे-चक्षु से आम के फल को देखना, यह मतिज्ञान है। इस आम्रफलविषयक चाक्षुष मतिज्ञान के होने के बाद उसके विषय में मन से उसकी आकृति, रूप, रस, गन्ध आदि पर विचार कर यह ज्ञात होता है कि यह बनारसी या लखनवी आम होना चाहिए। इस प्रकार के विकल्पों का होना श्रुतज्ञान है। आशय यह है कि किसी भी पदार्थ को देखना यह चक्षु इन्द्रिय का कार्य है और यह मतिज्ञान है तथा उसके गुण—दोषों, उसकी उपयोगिता—अनुपयोगिता आदि पर विचार करना यह मन का कार्य है, यही श्रुतज्ञान का विषय है। मन का विषय श्रुत है और श्रुत का अर्थ शब्द, संकेत आदि के माध्यम से होने वाला ज्ञान है। यहाँ मन का विषय जो श्रुत बताया है उससे मतलब भावश्रुत का है, जो श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से द्रव्य श्रुत के अनुसार विचार रूप से तत्त्वार्थ का परिच्छेदक आत्मपरिणति विशेष ज्ञानरूप हुआ करता है। जैसे किसी ने धर्मद्रव्य का उच्चारण किया, उसको सुनते ही पहले शास्त्र में बांचे हुए अथवा किसी के उपदेश से जाने हुए गतिहेतुक धर्म द्रव्य का बोध हो जाता है, यही मन का विषय है। इसी प्रकार सम्पूर्ण तत्त्वार्थ और द्वादशांग के समस्त विषयों का विचार करना मन का कार्य है या किसी भी विषय का विचार करना ही इसका विषय है। अर्थावग्रह के अनन्तर जो मतिज्ञान होता है उसको भी उपचार से श्रुतज्ञान कहते हैं; क्योंकि वह मन के बिना नहीं होता अतएव वह भी मन का ही विषय है। श्रुत का मनन या चिन्तनात्मक जितना भी ज्ञान होता है उसकी गणना श्रुतज्ञान में है। श्रुतज्ञान को मतिज्ञानपूर्वक माना जाता है। इन दोनों का कारण—कार्य सम्बन्ध है, मतिज्ञान कारण और श्रुतज्ञान कार्य है।
मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान का विषय महान् है; क्योंकि उसमें जिन विषयों का वर्णन किया गया है अथवा उसके द्वारा जिन विषयों का ज्ञान होता है वे ज्ञेय (प्रमेय) रूप विषय अनन्त हैं तथा उसका प्रणयन या निरूपण सर्वज्ञ के द्वारा हुआ है, उसका विषय अतिशय महान् है इसलिए उसके एक—एक अर्थ को लेकर अधिकारों की रचना की गयी है और तत्तत् अधिकारों के प्रकरण की समाप्ति की अपेक्षा से उसके अंग और उपांग रूप में नाना भेद हो गये हैं।
मतिज्ञान केवल वर्तमानकाल सम्बन्धी पदार्थों को जानता है जबकि श्रुतज्ञान भूत, भविष्यत्, वर्तमान काल सम्बन्धी पदार्थों को जानता है।
मतिज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान अधिक विशुद्ध है। मतिज्ञान इन्द्रियनिमित्तक हो अथवा अनिन्द्रियनिमित्तक, आत्मा की ज्ञस्वभावता के कारण वह पारिणामिक है परन्तु श्रुतज्ञान ऐसा नहीं है; क्योंकि वह आप्त के उपदेश से मतिज्ञानपूर्वक हुआ करता है।
जैसे मतिज्ञान की उत्पत्ति में इन्द्रियाँ साक्षात् निमित्त होती हैं वैसे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में साक्षात् निमित्त नहीं होतीं इसलिए श्रुतज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रियों से न मानकर मन से ही मानी गयी है तथापि स्पर्शन आदि इन्द्रियों के निमित्त से मतिज्ञान होने के बाद जो श्रुतज्ञान होता है उसमें परम्परा से वे स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ निमित्त मानी गयी हैं इसलिए मतिज्ञान के समान श्रुतज्ञान की उत्पत्ति भी पाँच इन्द्रिय और मन के निमित्त से कही जाती है पर यह कथन औपचारिक है।
इस प्रकार श्रुत का मनन या चिन्तनात्मक जितना भी ज्ञान होता है वह तो श्रुतज्ञान है ही किन्तु उसके साथ उस जाति का जो अन्य ज्ञान होता है उसे भी श्रुतज्ञान मानना चाहिए। श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक ऐसे जो दो भेद किये गये हैं वे इसी आधार से किये गये हैं। अंगबाह्य और अङ्गप्रविष्ट ये भी श्रुत के दो भेद हैं। इनमें अंगबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के आचाराङ्ग आदि बारह भेद हैं। श्रुतज्ञान का विशेष वर्णन धवलादि ग्रंथों से जानना चाहिए।