वसुदेव का पुत्र तथा कृष्ण का छोटा भाई था। एक ब्रह्मणी की कन्या से सम्बन्ध जुड़ा ही था कि मध्य में ही दीक्षा धारण करली। तब इसके ससुर ने इनके सरपर क्रोध से प्रेरित होकर आग जला दी। उस उपसर्ग को जीत मोक्ष को प्राप्त कर लिया।
आराधना कथा कोष के अनुसार- नेमिनाथ भगवान के जन्म से पवित्र हुई प्रसिद्ध द्वारका के अर्धचक्री वासुदेव की रानी गन्धर्वसेना से गजकुमार का जन्म हुआ था। गजकुमार बड़ा वीर था। उसके प्रताप को सुनकर ही शत्रुओं की विस्तृत मानरूपी बेल भस्म हो जाती है।
पोदनपुर के राजा अपरजितने तब बड़ा सिर उङ्गा रखा था। वासुदवे ने उसे अपने काबू में लाने के लिए अनेक यत्न किये। पर वह किसी तरह इनके हाथ न पड़ा । तब इन्होने शहर में यह डोंडी पिटवाई कि जो मेरे शत्रु अपराजित को पकड़ लाकर मेरे सामने उपस्थित करेगा, उसे उसका मनचाहा वर मिलेगा। गजकुमार डोंडी सुनकर पिता के पास गया और हाथ जोड़कर उसने स्वयं अपराजित पर चढ़ाई करने की प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना मंजूर हुई । वह सेना लेकर अपराजित पर जा चढ़ा । दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ अन्त में विजयलक्ष्मी ने गजकुमार का साथ दिया । अपराजित को पकड़ लाकर उसने पिता के सामने उपस्थित कर दिया। गजकुमार की इस वीरता को देखकर वासुदेव बहुत खुश हुए। उन्होने उसकी इच्छा नुसार वर देकर उसे संतुष्ट किया। ऐसे बहुत कम अच्छे पुरूष निकलते हैं जो मनचाहा वर लाभकर सदाचारी और संतोषी बने रहे। गजकुमार की भी यही दशा हुई । उसने मन चाहा वर पिजाजी से लाभकर अन्याय की ओर कदम बढ़ाया। वह पापी जबरदस्ती अच्छे-२ घरों की सती स्त्रीयों की इज्जत लेने लगा। वह ठहरा राजकुमार , उसे कौन रोक सकता था। जो रोकने की हिम्मत करता तो वह उसकी आंखो का कांटा होकर खटकने लगता फिर गजकुमार उसे जड़मूल से उखाड़कर फेकने का यत्न करता । अस काम को, उस दुराचार को धिक्कार है जिसके वश हो मूर्खजनो को लज्जा और भय भी नहीं रहता है।
इसी तरह गजकुमार ने अनेक अच्छी-२ कुनीन स्त्रीयों की इज्जत ले डाली । पर इसके दबदबे से किसी ने चूं नक न किया। एक पांसुल सेठ की सुरति नामकी स्त्री पर इसकी नजर पड़ी और इसने उसे खराब भी कर दिया। यह देख पांसुल का हृदय क्रोधाग्नि से जलने लगा। वह बेचारा इसका कुछ कर नही सकता था। इसलिए उसे भी चुपचाप घर में बैठे रह जान पड़ा। एक दिन भगवान नेमिनाथ भव्य जनों के पुण्योदय से द्वारका में आये। बलभड वासुदेव और भी बहुत से राजे-महाराजे बड़े आनन्द के साथ भगवान की पूजा करने गये। खूब भक्ति भाव से उन्होने स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले भगवान की पूजा स्तुति की, उनका ध्यान स्मरण किया। बाद ग्रहस्थ और मुनि धर्म का भगवान के द्वारा उन्होने उपदेश सुना जो कि अनेक सुखो का देने वाला है । उपदेश सुनकर सभी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने बार-२ भगवान की स्तुति की साक्षात् सर्वज्ञ भगवान का दिया धर्मोपदेश सुनकर कैसे आनन्द या खुशी न होगी । भगवान के उपदेश का गजकुमार के हृदय पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा । वह अपने किये पाप कर्मो पर बहुत पछताया । संसार से उसे बड़ी घृणा हुई। वह उसी समय भगवान के पास दीक्षा ले लिया, जो संसार के भटकने को मिटाने वाली है। दीक्षा लेकर गजकुमार मुनि विहार कर गये । अनेक देशों और नगरों में बिहार करते, भव्य जीवों को धर्मोपदेश द्वारा शांति लाभ कराते अन्त में वे गिरनार पर्वत के जंगल में आये। उन्हे अपनी आयु बहुत थोड़ी जान पड़ी । इसलिए वे प्रायोपगमन संयास लेकर आत्म-चिन्तवन करने लगे। तब इनकी ध्यानमुद्रा बड़ी निश्चल और देखने योग्य थी।
इनके सन्यास का हाथ पांसुल सेङ्ग को जान पड़ा , जिसकी स्त्री को गजकुमार ने अपने दुराचारीपने की दशा में खराब किया था। सेठ को अपना बदला चुकाने का बड़ा अच्छा मौका हाथ लग गया। वह क्रोध से भर्राता हुआ गजकुमार मुनि के पास पहुंचा और उनके सब सन्धिस्थानों में लोहे के बड़े-२ कीले लेकर चलता बना। गजकुमार मुनि पर उपद्रव तो बड़ा ही दु:सह हुआ, वे जनतल के अच्छे अभ्यासी थे, इसलिए उन्होने इस घोर कष्ट को एक तिनके के चुभने के बराबर भी न गिन बड़ी शान्ति और धीरता के साथ शरीर छोड़ा । यहां से ये स्वर्ग में गये । अब चिरकाल तक वे सुख भोगेंगे । अहा महापुरूष का चरित बड़ा ही अचंशा पैदा करने वाला होता है। कहां तो गजकुमार मुनि को ऐसा दु:सह कष्ट कहां सुख देने वाली पुण्य समाधि। इसका कारण सच्चा तत्वज्ञान का अभ्यास करना सबके लिए आवश्यक है। गजकुमार अपनी दुबुद्धि को छोड़कर पवित्र बुद्धि के धारक बड़े भारी सहनशील योगी हो गये वे हमें भी सुबुद्धि शांति प्रदान करे । हम भी कर्तव्यों के लिए कष्ट सहने में समर्थ हो।