जैनदर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है। वस्तु के अनेक धर्मों में ऐसे धर्म हैं जो परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। जैसे—सत्त्व—असत्त्व, एकत्व—अनेकत्व, नित्यत्व—अनित्यत्व आदि। इन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों को लेकर ही नाना दार्शनिक पंथ खड़े हुए हैं। कोई वस्तु को सत् स्वरूप ही मानता है तो कोई असत्स्वरूप ही, कोई नित्य ही मानता है तो कोई अनित्य ही, कोई एक रूप ही मानता है तो कोई अनेक रूप ही। इस प्रकार केवल एक—एक धर्म को मानने वाले एकान्तवादियों का समन्वय करने के लिए नय मीमांसा का उपक्रम भगवान् महावीर ने किया था। उन्होंने प्रत्येक एकान्त को नय का विषय बतला कर और नयों की सापेक्षता स्वीकार करके अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा की थी। एकान्तों के समूह का नाम ही अनेकान्त है।
१. द्रव्य का लक्षण—यदि एकान्त न हों तो उनका समूह रूप अनेकान्त भी नहीं बन सकता अत: एकान्तों की निरपेक्षता विसंवाद की जड़ है और एकान्तों की सापेक्षता संवाद या समन्वय की जड़ है अत: पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा पदार्थ नियम से उत्पन्न होते और नाश को प्राप्त होते हैं किन्तु द्रव्य दृष्टि से न तो कभी पदार्थों का नाश होता है और न उत्पाद ही होता है, वे ध्रुव (नित्य) हैं। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य—तीनों मिलकर ही द्रव्य का लक्षण है। केवल द्रव्यार्थिक या केवल पर्यायार्थिक नय का जो विषय है वह द्रव्य का लक्षण नहीं है क्योंकि वस्तु न केवल उत्पाद, व्यय (अनित्य) रूप ही है, जैसा बौद्ध लोग मानते हैं और न केवल ध्रौव्य (नित्य) रूप ही है, जैसा सांख्य मानते हैं। अत: अलग—अलग दोनों नय मिथ्या हैं। इस तरह वस्तु के एक—एक अंश को ही पूर्ण सत्य मानने वाले एकान्तवादी दर्शनों का समन्वय करने के लिए जैनदर्शन में नय की मीमांसा की गयी है।
२. नयों का सम्यक्ज्ञान आवश्यक—सभी दर्शन अपनी—अपनी मान्यताओं का प्रतिपादन अपने—अपने अभिप्रायों के अनुसार करते हैं अत: जितने अभिप्राय हैं उतने ही नयवाद हैं। आचार्य श्री सिद्धसेन ने कहा है—‘जितने वचन मार्ग हैं अर्थात् अभिप्राय हैं, उतने ही नयवाद हैं उतने ही परसमय (मत) हैं। इन सभी मतों का समन्वय सापेक्ष नय योजना से ही सम्भव है। यदि प्रत्येक अभिप्राय को दूसरे अभिप्रायों से सापेक्ष रूप से जोड़ दिया जाय तो विसंवाद समाप्त हो जाता है। झगड़ा ‘ही’ का है। निरपेक्ष ‘ऐसा ही है’ यह कहना मिथ्या है अपेक्षा सहित ‘ऐसा भी है’ यह कहना सम्यक््â है। इस प्रकार जैनदर्शन में प्रतिपादित वस्तु स्वरूप को ठीक—ठीक समझने के लिए, इसका सापेक्ष निरूपण करने के लिए नयों का सम्यक््â परिज्ञान आवश्यक है।
३. स्याद्वाद और नयवाद जैनदर्शन की एक मौलिक देन—वस्तु न सर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही, न सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा अनित्य ही; किन्तु किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से असत्, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य। इस प्रकार वस्तु अनेकान्तात्मक है और अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन करने का नाम स्याद्वाद है तथा उस अनेकान्तात्मक वस्तु के विवक्षित किसी एक धर्म के सापेक्ष कथन का नाम नय है। स्याद्वाद और नय इन दोनों का कथन जैनेतर दर्शनों में नहीं है अत: स्याद्वाद और नयवाद भारतीय दर्शनों के क्षेत्र में जैनदर्शन की एक मौलिक देन है।
४. नय के समन्वय से ही वस्तु स्वरूप की सिद्धि—किसी भी विषय पर विचार करने के अनेक प्रकार या दृष्टिकोण होते हैं। यदि उनका ठीक प्रकार से समन्वय किया जाय, उनको सापेक्षता का रूप दिया जाय तो हम उस विषय में किसी एक सही निर्णय पर पहुँच सकते हैं। जैसे—किसी उद्यान में जाने के अनेक मार्ग होते हैं, कोई मार्ग पूर्व से जाता है तो कोई उत्तर से, कोई पश्चिम से जाता है तो कोई दक्षिण से किन्तु अन्दर जाकर वे सब मार्ग परस्पर मिल जाते हैं। इसी प्रकार एक ही वस्तु के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं; किन्तु उनका समन्वय होना भी जरूरी है। इस समन्वय के सिद्धान्त को ही स्याद्वाद, कथंचित्वाद, सापेक्षवाद या नयवाद कहा जाता है। इसी को नय मार्ग भी कह सकते हैं। इस नय मार्ग से ही विभिन्न मतों तथा विभिन्न विचारों का समन्वय किया जा सकता है। जो नय एक दूसरे के पूरक हैं, सहयोगी हैं वे ही सुनय कहे जाते हैं और वे ही कार्यकारी होते हैं और जो परस्पर एक दूसरे का विरोध करते हैं, निराकरण या निषेध करते हैं वे प्रतिद्वन्दी होने से दुर्नय हैं अतएव हानिकारक हैं। जो सुनय हैं उनका समन्वयवादी दृष्टिकोण रहता है और जो दुर्नय हैं उनसे समन्वय नहीं हो सकता और समन्वय न होने से वस्तु स्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती है।
इस विषय में आचार्य श्री समन्तभद्र ने, ‘जो ये नित्य—अनित्य, सत्—असत् आदि एकान्त रूप नय हैं, वे परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा न रखने के कारण अपने व दूसरे का विनाश अर्थात् अहित करने वाले हैं। वे न तो कहने वाले का भला करते हैं और न ही समझने वाले का भला करते हैं किन्तु वे ही नय परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा रखने के कारण अपना व दूसरों का उपकार करते हैं। वे ठीक प्रकार से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं और उस यथार्थ वस्तु स्वरूप को सुनने वाले भी आत्मकल्याण के मार्ग पर लग जाते हैं इसीलिए वे तत्त्व स्वरूप अथवा सुनय कहे जाते हैं।
इसी का विश्लेषण करते हुए उन्होंने पुन: कहा है—‘वस्तु का स्वरूप यदि सर्वथा एकान्त रूप से सत् या असत् एक रूप या अनेक रूप, नित्य या अनित्य वक्तव्य माना जाय तो वस्तु के स्वरूप की सिद्धि ही नहीं हो सकती है और यदि वही वस्तु का स्वरूप किसी अपेक्षा से सत् तो दूसरी अपेक्षा से असत् किसी अपेक्षा से एक रूप तो दूसरी अपेक्षा से अनेक रूप, किसी अपेक्षा से नित्य तो दूसरी अपेक्षा से अनित्य, किसी अपेक्षा से वक्तव्य तो दूसरी अपेक्षा से अवक्तव्य माना जाय तो सब कथन बाधा रहित सिद्ध हो जाएगा।’
५. नय मिथ्या कैसे हो जाते हैं ?—यदि वस्तु का स्वरूप स्यात् (कथंचित् या किसी अपेक्षा से) सत्, स्यात् असत्, स्याद् एक, स्याद् अनेक, स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य, स्याद् वक्तव्य, स्याद् अवक्तव्य, इस तरह स्याद्ववाद सिद्धान्त के द्वारा कहा जावे तो सब नय सत्य हैं और सर्वथा एकान्त रूप से केवल सत् या असत् आदि रूप से कहा जाय तो वे ही नय मिथ्या हो जाते हैं।
इसी को उन्होंने और स्पष्ट किया है—‘प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्यादि चतुष्टय अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से सत् (भावरूप) है और वह द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से असत् (अभाव रूप) है। वह वस्तु ‘अखण्ड गुण समुदाय रूप है’ इस दृष्टि से एक है और वही ‘अनेक गुणों को रखने वाली है’’ इस दृष्टि से अनेक है। वह ‘अपने स्वरूप से कभी भी नष्ट नहीं होती है’ इस दृष्टि से नित्य है और वही ‘पर्यायों या अवस्थाओं के परिवर्तित होते रहने के कारण नाशवान् है; इस दृष्टि से अनित्य है। ‘वस्तु धर्मों को क्रम से कहे जा सकने की अपेक्षा से’ वह वक्तव्य है और ‘उन्हीं अनेक धर्मों को एक ही समय में एक ही साथ वचनों द्वारा नहीं कहा जा सकता है’ इस दृष्टि से अवक्तव्य है। यह सब कथन नयों के योग से सिद्ध होता है और यदि वही वस्तुस्वरूप सर्वथा सत् (भाव रूप) या सर्वथा असत् (अभाव रूप) आदि माना जावे तो यह सब मान्यता मिथ्या है और इसे ही दुर्नय कहा जाता है।’
६. नयवाद वस्तुपरीक्षण की कला सिखाता है—नय दृष्टि को छोड़कर सर्वथा एकान्त रूप में वस्तु व्यवस्था नहीं बन सकती। वस्तु के स्वरूप को जानने व देखने के विभिन्न व्यक्तियों के विभिन्न दृष्टिकोण होते हैं। वे अपने सीमित ज्ञान और बुद्धि के अनुसार वस्तु के विभिन्न गुणों का कथन करते हैं। जितने गुणों का वे कथन करते हैं वे सब गुण वस्तु में विद्यमान रहते हैं। उन गुणों को व्यक्ति अपनी इच्छा से वस्तु पर आरोपित नहीं करता। वस्तु के अनेक धर्मात्मक या गुणात्मक होने से उनके किसी प्रकार का विरोध नहीं है। एक ही वस्तु सत्—असत्, नित्य—अनित्य, एक—अनेक, सामान्य—विशेष आदि विरोधी गुणों से युक्त होती है। ये परस्पर विरोधी गुण वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को समझाने में सफल होते हैं। इनमें से किसी भी गुण का निषेध नहीं किया जा सकता। जो दर्शन वस्तु के किसी एक गुण का ही विधान करते हैं और उसी समय वस्तु के दूसरे गुण का निषेध या निराकरण करते हैं, वे एकान्तवादी दर्शन हैं। ये एकान्तवादी दर्शन एक ही नय को अपने विचार का आधार बनाते हैं। उनका दृष्टिकोण एकांगी होता है। वे भूल जाते हैं कि दूसरे दृष्टिकोण से विरोधी प्रतीत होने वाला विचार भी संगत हो सकता है। इसी कारण वे एकांगी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं और वस्तु के समग्र स्वरूप को स्पर्श नहीं कर पाते। वे सम्पूर्ण सत्य के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं अत: नयवाद अनेक दृष्टिकोणों से समन्वय करता हुआ वस्तु परीक्षण की कला सिखलाता है।
७. बौद्ध दर्शन के अनुसार वस्तु का स्वरूप—बौद्ध दर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर, अस्थायी और अनित्य है। यह अपने दृष्टिकोण को पूर्ण रूपेण सत्य मानता है, यह वस्तु के अनित्यत्व धर्म को स्वीकार करके द्रव्य की अपेक्षा पाये जाने वाले नित्यत्व धर्म का निषेध करता है।
८. वेदान्त, सांख्य, नैयायिक आदि दर्शनों की मान्यता—वेदान्त, सांख्य, नैयायिक आदि दर्शनों की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु स्थिर, स्थायी और नित्य है। ये भी अपने दृष्टिकोण को पूर्णत: सत्य मानते हैं और बौद्ध दर्शन की विचारधारा का खण्डन करते हैं। वस्तु के नित्यत्व धर्म को अंगीकार करके पर्याय की दृष्टि से उसमें विद्यमान अनित्यत्व धर्म का अपलाप करते हैं। इस प्रकार विश्व के ये सभी एकान्तवादी दर्शन अपने—अपने एकान्त पक्ष के प्रति आग्रहशील होकर एक दूसरे को मिथ्या कहते हैं। वे नहीं जानते हैं कि दूसरे को मिथ्यावादी कहने के कारण वे स्वयं ही मिथ्यावादी बन जाते हैं। अगर उन्होंने दूसरे को भी सच्चा माना होता तो वे स्वयं सच्चे हो जाते; किन्तु एकान्तवादिता का दुराग्रह उन्हें ऐसा होने से रोकता है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या उक्त सभी दर्शन या विचारधाराएँ पूर्ण सत्य हैं ? यदि पूर्ण सत्य हैं तो फिर उनका विरोध क्यों ? अत: ये विचारधाराएँ न तो पूर्णरूपेण सत्य हो सकती हैं और न पूर्णरूपेण मिथ्या। तब फिर वस्तु का वास्तविक स्वरूप क्या माना जाए ? जैनदर्शन ऐसे सभी प्रश्नों का समाधान अनेकान्त दृष्टि और उसके फलितवाद स्याद्वाद को उपस्थित करके समस्त एकान्तवादों के एकांगी दृष्टिकोणों को समाप्त कर देता है। वह परस्पर विरुद्ध प्रतिभासित होने वाले सभी वादों का निर्दोष समन्वय करता है क्योंकि विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने पर ही वस्तु का वास्तविक स्वरूप जाना जा सकता है।
बौद्धादि अनित्यत्ववादी दर्शन यदि अनित्यत्व धर्म को सर्वथा एकान्त दृष्टि से स्वीकार न करके उसे सापेक्ष दृष्टि से अर्थात् पर्याय दृष्टि से स्वीकार करें और सांख्यादि नित्यत्ववादी दर्शन नित्यत्व धर्म को सर्वथा स्वीकार न करके उसे द्रव्य दृष्टि से स्वीकार करें तो कोई विवाद ही उपस्थित न होगा और इस प्रकार दोनों ही दृष्टिकोण सापेक्ष रूप से सत्य सिद्ध होंगे। नयवाद एक दृष्टिकोण को मानकर दूसरे दृष्टिकोण का निराकरण नहीं करता, बल्कि सभी दृष्टिकोणों का समन्वय करके सत्य को ग्रहण करता है।
१. जैनदर्शन में वस्तु का स्वरूप—जैनदर्शन में वस्तु के परस्पर विरोधी अनेक धर्मों का कथन करने के लिए ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘स्यात्’ शब्द का अर्थ ‘शायद’ नहीं है, जैसा कि साधारण बोलचाल की भाषा में इसका अर्थ लिया जाता है। इसका गूढ़ अर्थ है ‘कथंचित्’ या ‘अपेक्षा’ या ‘दृष्टिकोण’। इस ‘स्यात्’ शब्द का प्रयोग नयों के साथ करने पर वे नय अभीष्ट अर्थ के साधक होते हैं। वे दुराग्रह को दूर करके दृष्टि को विशाल और हृदय को उदार बनाते हैं। वे वस्तु के विविध रूपों का विश्लेषण हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं क्योंकि ‘स्यात्’ पद से लांछित नयों के द्वारा अपेक्षापूर्वक वस्तु के किसी एक धर्म का कथन करने पर उसके दूसरे धर्मों का लोप नहीं होता।
आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने भगवान विमलनाथ की स्तुति के परिप्रेक्ष्य में कहा है—हे भगवन् ! जिस प्रकार सिद्ध अर्थात् सुसंस्कृत पारद आदि रसों के संयोग से लौह आदि धातुएँ स्वर्ण बनकर अभीष्ट फल प्रदान करने वाली बन जाती हैं उसी प्रकार आपके द्वारा उपदिष्ट द्रव्यार्थिक आदि नय ‘स्यात्’ पद से चिह्नित होकर मनोवांछित फल देने वाले हैं, वस्तु के यथार्थ स्वरूप के सापेक्ष निरूपण द्वारा मुमुक्षुजनों को मिथ्या अथवा एकान्तमार्ग से हटाकर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कराते हैं इसीलिए आत्महित चाहने वाले गणधरादि देव आपको नमस्कार करते हैं।
२. समन्वयवादी दृष्टिकोण से तत्त्व की सिद्धि—इस प्रकार ‘स्यात्’ पद अंकित इन सापेक्ष नयों से विभिन्न दृष्टियों का समन्वय होता है। एकान्त का निरसन होकर अनेकान्त का समर्थन होता है। एकान्त दृष्टि कहती है कि तत्त्व ‘ऐसा ही है’ और अनेकान्त दृष्टि कहती है कि ‘तत्त्व ऐसा भी है।’ इस प्रकार के समन्वयवादी दृष्टिकोण से तत्त्व की सिद्धि होती है। यह दृष्टिकोण ‘भी’ और ‘ही’ के समुचित प्रयोग का निर्देश करता है, जिससे वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होता है।
वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक है। उसको द्योतित करने वाला यह ‘स्यात्’ पद है। नयों के साथ इसका प्रयोग किये बिना वस्तु एक धर्म रूप ही सिद्ध होती है, जो वस्तु का स्वरूप नहीं है। जैसे-वस्तु ‘स्यात् नित्यम्’, ‘स्यात् अनित्यम्’ इन दो नय रूप वाक्यों ने यह सिद्ध कर दिया कि वस्तु द्रव्यार्थिक नय से नित्य है और वही वस्तु पर्यायार्थिक नय से अनित्य है या सामान्य की अपेक्षा से नित्य है तो विशेष की अपेक्षा से अनित्य है, यही वस्तु का स्वरूप है। यदि ‘स्यात्’ पद का प्रयोग न किया जाय तो वस्तु सर्वथा नित्य ही या सर्वथा अनित्य ही सिद्ध होगी, जो सर्वथा एकान्त रूप ही है, अत: वह वस्तु का स्वरूप नहीं है। वस्तु सदा अपने स्वरूप (ध्रौव्यत्व) से रहकर भी परिणमन किया करती है इसलिए वह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य, उभय स्वरूप है। यही उसका निर्बाध लक्षण है, जो नयों के समन्वयवादी दृष्टिकोण से सिद्ध होता है। सत् या वस्तु स्वरूप के विषय में प्राय: सभी जैनेतर दर्शनों में बड़ा भारी मतभेद है। जैनदर्शन ने इन सभी मतों की समीक्षा करते हुए उनमें नयों के समन्वयवादी दृष्टिकोण से समन्वय स्थापित किया है।
१. अन्य दर्शनों के अनुसार सत् का स्वरूप—वेदान्त (औपनिषद् शाज्र्र मत) दर्शन सम्पूर्ण सत् पदार्थ (ब्रह्म) को केवल नित्य (ध्रुव) ही मानता है तो बौद्धदर्शन ‘सर्व क्षणिकं सत्वात्’ कहकर सत् को निरन्वय क्षणिक अर्थात् मात्र उत्पाद विनाशशील मानता है।
सांख्यदर्शन चेतन तत्त्व रूप सत् को तो केवल ध्रुव अर्थात् कूटस्थ नित्य और प्रकृति तत्त्व रूप सत् को परिणामि नित्य मानता है।
न्याय—वैशेषिक दर्शन अनेक सत् पदार्थों में से परमाणु, काल, आकाश, आत्मा आदि कुछ सत् तत्त्वों को कूटस्थ नित्य और घट—पट, दीपक आदि कुछ सत् पदार्थों को मात्र उत्पाद, व्ययशील अर्थात् अनित्य मानता है, परन्तु जैनदर्शन का सत् (वस्तु) के स्वरूप से सम्बन्ध रखने वाला मन्तव्य उक्त सभी मतों से भिन्न है। वह सत् या पदार्थ के सम्बन्ध में प्रचलित उक्त मान्यताओं या धारणाओं की समीक्षा करते हुए पदार्थ या सत् को न तो सर्वथा नित्य ही कहता है और न सर्वथा अनित्य ही। कारण द्रव्य को सर्वथा नित्य मानने से अर्थ क्रियाकारित्व का विरोध आएगा और वस्तु निष्क्रिय सिद्ध हो जाएगी। कार्य द्रव्य की अपेक्षा सर्वथा अनित्य मानने से भी वस्तु–उच्छेद का प्रसंग आएगा। अपनी जाति का त्याग किये बिना नवीन पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है, पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है और अनादि पारिणामिक स्वभाव रूप से अन्वय बना रहना ध्रौव्य है। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सत् या द्रव्य के निज रूप हैं।
२. प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील हैं—प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है और उसमें वह परिवर्तन प्रतिसमय होता रहता है। उदाहरणार्थ—एक नन्हे शिशु को लिया जा सकता है। इस शिशु में प्रति क्षण परिवर्तन हो रहा है अत: कुछ समय बाद वह युवा होता है और तदनन्तर वृद्ध। शैशव से युवकत्व और युवकत्व से वृद्धत्व की प्राप्ति तत्क्षण ही नहीं हो जाती है। ये दोनों अवस्थाएँ प्रतिक्षण होने वाला सूक्ष्म परिवर्तन का ही परिणाम है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रतिक्षण होने वाला यह परिवर्तन इतना सूक्ष्म होता है कि हम उसे देखने में असमर्थ हैं, पर इस परिवर्तन के होने पर भी उस शिशु में एकरूपता बनी रहती है, जिसके फलस्वरूप वह अपनी युवा और वृद्ध अवस्था में भी पहचाना जाता है। यदि द्रव्य को त्रिलक्षणात्मक न मानकर केवल नित्य मानें तो उसमें कूटस्थ नित्यता आ जाएगी और किसी भी प्रकार का परिणमन नहीं हो सकेगा तथा यदि अनित्य मान लिया जाय तो आत्मा के सर्वथा क्षणिक होने से पूर्व में ज्ञात किये गये पदार्थों का स्मरण आदि व्यापार भी नहीं बन सकेगा।
३. जैनदर्शन के अनुसार सत् का स्वरूप—इस प्रकार जैनदर्शन के अनुसार सत् (वस्तु) पूर्णरूप से केवल कूटस्थ नित्य या केवल निरन्वय विनाशी या उसका अमुक भाग कूटस्थ नित्य और अमुक भाग परिणामि नित्य अथवा उसका कोई भाग तो मात्र नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य नहीं हो सकता। इसके अनुसार चाहे चेतन हो या जड़, मूर्त हो या अमूर्त, सूक्ष्म हो या स्थूल, सभी सत् कहलाने वाली वस्तुएँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रिरूप हैं, नित्यानित्य स्वभाव वाली हैं।
जैनदर्शन में वस्तु के एकान्तरूप नित्यरूप और अनित्यत्व की समीक्षा की गयी है। विश्व में न कोई वस्तु सर्वथा नित्य है और न कोई सर्वथा अनित्य, दोनों सम स्वभाव हैं। पुद्गल से लेकर आकाश पर्यन्त सभी वस्तुओं का स्वरूप एक सा है अर्थात् वे नित्यानित्य स्वभाव वाली हैं। ऐसा नहीं है कि आकाश और आत्मा आदि पदार्थ सर्वथा नित्य हों और पुद्गल आदि पदार्थ सर्वथा अनित्य। जैसा कि न्याय वैशेषिक आदि मानते हैं। द्रव्य दृष्टि से प्रत्येक वस्तु नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य। जिस प्रकार आकाश द्रव्य रूप से नित्य है उसी प्रकार पुद्गल भी नित्य है और जिस प्रकार पुद्गल पर्याय रूप से अनित्य है उसी प्रकार आकाश भी अनित्य है। चूँकि प्रत्येक सत् उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यात्मक है अतएव पुद्गल, आकाश और आत्मा आदि पदार्थ भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप हैं, उनमें भी प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय की धारा चल रही है पर इस धारा के चलने पर भी उनका स्वभाव कभी नष्ट नहीं होता। जिस समय दीपक के तेज परमाणु तम रूप पर्याय में परिवर्तित होते हैं, उस समय तेज परमाणुओं का व्यय होता है और तम रूप पर्याय का उत्पाद होता है तथा दोनों अवस्थाओं में द्रव्य रूप दीपक विद्यमान रहता हैं इसलिए द्रव्य या स्वस्वरूप की अपेक्षा दीपक नित्य है और पर्याय या परिवर्तित अवस्थाओं की अपेक्षा अनित्य है। इसी प्रकार आकाश भी नित्यानित्य स्वरूप है; क्योंकि जिस समय आकाश में रहने वाले जीव-पुद्गल आकाश के एक प्रदेश को छोड़कर दूसरे प्रदेश के साथ संयुक्त होते हैं उस समय आकाश में पूर्व प्रदेशों से जीव—पुद्गलों के विभाग या अलग होने की अपेक्षा से आकाश में व्यय और उत्तर प्रदेशों के साथ संयोग होने से उत्पाद तथा पूर्वोत्तर दोनों पर्यायों में आकाश द्रव्य के विद्यमान रहने से ध्रौव्य अवस्था पाई जाती है इसलिए द्रव्य या स्व स्वरूप की अपेक्षा से आकाश नित्य है और पर्याय या परिवर्तित अवस्थाओं की अपेक्षा से अनित्य है। इसी प्रकार आत्मा भी नित्यानित्यात्मक है। यदि आत्मा को सर्वथा नित्य माना जाय, वह सदा एकरस रहे, उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन न माना जाय तो पुण्य—पाप, बन्ध—मोक्ष, शुभाशुभ कर्मों की फल प्राप्ति आदि सब निरर्थक हो जाएँगे। ये शिक्षालय, ये देवालय आदि आत्मा पर कोई भी शिक्षा या पवित्रता का संस्कार नहीं डाल सकेंगे। एक आदमी की गाली से दूसरे का मुँह लाल हो जाता है, उसे क्रोध आ जाता है, साधु की संगति से शान्ति लाभ होता है, इत्यादि सभी परिवर्तन असम्भव हो जाएँगे। नर से नारायण बनने की बात कल्पना मात्र ही रह जाएगी और यदि आत्मा को सर्वथा अनित्य या परिवर्तनशील ही माना जाय अर्थात् जो प्रथम क्षण में है वह द्वितीयादि क्षणों में नहीं रहता, सर्वथा क्षणिक है, इस प्रकार आत्मा का स्वरूप माना जाय तो जगत् का लेन—देन, गुरु—शिष्य, पिता—पुत्र आदि का प्रसिद्ध व्यवहार ही नहीं बन सकेगा। सब यही कहेंगे, किसको दिया ? किसने दिया ? जिसको दिया वह तो गया, जिसने दिया वह भी नहीं है, कहने वाला भी नया ही होगा क्योंकि आत्मा को सर्वथा क्षणिक और सदा परिवर्तनशील जो माना गया है अत: तर्क और अनुभव हमें यही बताता है कि अवस्थाओं में परिवर्तन होने पर भी उन सभी अवस्थाओं का सूत्रधार एक द्रव्य स्थिर अवश्य है, जिसमें ये सभी रंग—बिरंगे परिवर्तन होते रहते हैं। ‘मैं वही हूँ’ ‘मैं बचपन में स्कूल में पढ़ता था’ आदि ज्ञान इस बात के साक्षी हैं कि अनेक अवस्थाओं में ‘मैं’ का वाच्य एक धारा प्रवाही द्रव्य अवश्य है और वह है ‘आत्मा’। इसी प्रकार अचेतन जगत् में परिवर्तन होकर भी परिवर्तन का आधार परमाणु स्थिर बना रहता है। वस्तुत: परमाणु ही एक द्रव्य है। परमाणुओं के समुदाय से बने हुए स्कन्ध कितने ही परिवर्तित हो जाएँ पर वे परमाणुत्व को नष्ट नहीं कर सकते। एक कपड़ा है, उसमें आग लगा दीजिए, राख हो जाएगा। राख को पानी में डाल दीजिए, घुलकर पानी बन जाएगी, पानी सूखकर भाप बन जाएगा, फिर खेत में पहुँचकर गेहूँ बन जाएगा पर उसका एक भी अणु जगत् से नष्ट हो सकता भले ही वह एक स्कन्ध के हटकर दूसरे में जा मिले। इस प्रकार यह उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यवाद या परिणामवाद जगत् के कण—कण में व्याप्त है। प्रतिक्षण इस परिणाम या परिणमन या परिवर्तन के होते हुए भी वस्तु में एकरूपता प्रवाहित रहती है। कोई भी वस्तु इस त्रिलक्षण स्वभाव का अतिक्रमण नहीं करती; क्योंकि सब पर स्याद्वाद, अनेकान्तवाद या नयवाद की छाप लगी हुई है। कोई भी वस्तु स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती किन्तु जैनदर्शन की इस मान्यता को स्वीकार न करने वाले न्याय वैशेषिक आकाश आदि पदार्थों को केवल नित्य और दीपक आदि को केवल अनित्य ही स्वीकार करते हैं।
जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु का स्वभाव द्रव्य पर्यायरूप है। उसमें प्रतिक्षण उत्पाद—व्यय—ध्रौव्य यह त्रिरूप पाया जाता है। जो उत्पाद—व्यय—ध्रौव्य इस त्रिरूप से युक्त या तदात्मक है, वह सत् है और जो सत् है वही द्रव्य या वस्तु का लक्षण है।
प्रत्येक वस्तु में दो अंश हैं, एक अंश ऐसा है जो तीनों कालों में शाश्वत है और दूसरा अंश सदा अशाश्वत है। शाश्वत अंश के कारण हर एक वस्तु ध्रौव्यात्मक (नित्य) है और अशाश्वत अंश के कारण उत्पाद—व्ययात्मक (अनित्य) है। इन दोनों में से किसी एक की ओर ही दृष्टि जाने से और दूसरे की ओर न जाने से वस्तु केवल नित्य या केवल अनित्य ही मालूम होती है; किन्तु दोनों अंशों की ओर दृष्टि देने से वस्तु का पूर्णरूप या यथार्थ स्वरूप मालूम किया जा सकता है।
१. सत् का नित्यत्व—उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यात्मक होना ही वस्तु मात्र का स्वरूप है, यही स्वरूप सत् कहलाता है। सत् स्वरूप नित्य है अर्थात् वह तीनों कालों में एक सा अवस्थित रहता है। ऐसा नहीं है कि किसी वस्तु मात्र में उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य कभी हों और कभी न हों। प्रत्येक समय में उत्पादादि तीनों अंश अवश्य होते हैं। यही सत् का नित्यत्व है। चूँकि सत् का कभी विनाश नहीं होता और असत् की कभी उत्पत्ति नहीं होती। यह जैनदर्शन की द्रव्य या तत्त्व व्यवस्था का मूल सिद्धान्त है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने स्पष्ट कहा है—किसी भाव (सत्) का विनाश नहीं होता और अभाव (असत्) का उत्पाद नहीं होता। सभी भाव (सत्) अपने गुण और पर्यायों में उपजते और विनशते रहते हैं।
२. भगवत् गीता के अनुसार सत्-असत् का स्वरूप—गीता में भी यही भाव अभिव्यक्त है—असत् का कभी भाव (उत्पाद या उत्पत्ति) नहीं होता है और सत् का कभी अभाव (व्यय या विनाश) नहीं होता है।
लोक में जितने सत् हैं, वे मौलिक सत् हैं उनकी संख्या में कभी भी हेर-फेर नहीं होता, न कोई नया सत् कभी उत्पन्न हुआ था, न होता है और न होगा। इसी तरह किसी विद्यमान सत् का न कभी नाश हुआ था, न होता है और न होगा। समस्त सत् गिने हुए हैं। प्रत्येक सत् अपने में परिपूर्ण स्वतन्त्र और मौलिक है।
३. जैनदर्शन इस विषय में क्या कहता है ?—प्रत्येक सत् प्रतिक्षण अपनी वर्तमान पर्याय को छोड़कर नवीन पर्याय को धारण करता हुआ वर्तमान को भूत तथा भविष्यत् को वर्तमान बनाता हुआ आगे चला जा रहा है। चेतन हो या अचेतन, प्रत्येक सत् इस परिणाम चक्र पर चढ़ा हुआ है। यह उसका निज स्वभाव है कि वह प्रतिसमय पूर्व को छोड़कर अपूर्व को ग्रहण करे। यह पर्याय परम्परा अनादिकाल से चल रही है। कभी भी यह न रुकी थी और न रुकेगी। जिस प्रकार आधुनिक भौतिकवादियों ने पदार्थ को सतत गतिशील माना है और उसमें दो विरोधी धर्मों का समागम मानकर उसे अविराम गतिमय कहा है, ठीक यही बात जैनदर्शन के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से ध्वनित होती है। पदार्थ में उत्पाद और व्यय इन दो विरोधी शक्तियों का समागम है जिसके कारण पदार्थ निरन्तर उत्पाद और व्यय के चक्र पर घूम रहा है। उत्पाद शक्ति जैसे ही नवीन पर्याय को उत्पन्न करती है तो व्यय शक्ति उसी समय पूर्व का नाश कर देती है। इस अनिवार्य परिवर्तन के होते हुए भी कभी द्रव्य का अत्यन्त विनाश नहीं होता। वह ध्रौव्यत्वेन विद्यमान रहता है। चेतन या अचेतन द्रव्य में अपनी जाति को न छोड़ते हुए जो पर्यायान्तर या किसी नवीन पर्याय की उत्पत्ति होती है, वह उत्पाद है। जैसे—मिट्टी के पिण्ड का घट पर्याय रूप से उत्पन्न होना उत्पाद है। पूर्व पिण्ड रूप पर्याय का नाश होना व्यय है अर्थात् घट की उत्पत्ति होने पर पिण्ड रूप आकृति का नाश होना व्यय है। अनादि काल से चले आ रहे अपने पारिणामिक स्वभाव रूप से न व्यय होता है और न उत्पाद होता है; किन्तु वह स्थिर रहता है, इसी का नाम ध्रुव है। जैसे—पिण्ड और घट दोनों अवस्थाओं में मिट्टीपना ध्रुव है। पिण्ड और घटादि अवस्थाओं में मिट्टी का अन्वय बना रहता है इसलिए एक मिट्टी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव है। इन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को स्पष्ट करने के लिए एक और उदाहरण दिया जा सकता है। जैसे—कोयला जलकर राख हो जाता है। इसमें कोयला रूप पर्याय का व्यय होता है और क्षार रूप पर्याय का उत्पाद होता है; किन्तु दोनों अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्य का अस्तित्व अचल रहता है। उसके पुद्गल तत्त्व का कभी भी विनाश नहीं होता, यही उसकी ध्रौव्यता है। इसी प्रकार सोने के कड़े को तोड़कर जंजीर बनाई गयी तो इसमें कड़े रूप पर्याय का विनाश और उसी क्षण जंजीर रूप पर्याय का उत्पाद हुआ; किन्तु स्वर्ण द्रव्य कड़े और जंजीर दोनों अवस्थाओं में बना रहा, वह कहीं भी नहीं चला गया, उसकी सत्ता दोनों अवस्थाओं में है, यही ध्रौव्यता है।
४. प्रत्येक पदार्थ भी परिवर्तनशील है—तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील है और उसमें यह परिवर्तन प्रतिसमय होता रहता है। विशेषता यह है कि द्रव्य में इस प्रकार का परिवर्तन होने पर भी वह सदा अपने स्वरूप की अपेक्षा से बराबर विद्यमान रहता है। जैसे—दूध कुछ समय बाद दही रूप में परिणम जाता है और फिर दही का मट्ठा बना लिया जाता है। यहाँ यद्यपि दूध से दही और दही से मट्ठा ये तीन भिन्न—भिन्न अवस्थाएँ दिखाई देती हैं पर हैं ये तीनों एक गोरस की ही। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में अवस्था भेद के होने पर भी उसका अन्वय पाया जाता है इसलिए वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप सिद्ध होता है। प्रत्येक द्रव्य उत्पाद—व्यय—ध्रौव्य की त्रिपुटी में वर्तमान हो रहा है। यह उसका सामान्य स्वभाव है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि एक ही द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप वैâसे हो सकता है ? कदाचित् काल भेद से उसे उत्पाद, व्यय रूप मान भी लिया जाए; क्योंकि जिसका उत्पाद होता है उसका कालान्तर में नाश अवश्य होता है तथापि ऐसी अवस्था में वह ध्रौव्य रूप नहीं हो सकता है; क्योंकि जिसका उत्पाद और व्यय होता है उसे ध्रौव्य स्वभाव मानने में विरोध आता है ?
५. अवस्था भेद से द्रव्य में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीनों हैं—इसका समाधान है कि अवस्था भेद से द्रव्य में ये तीनों उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य माने गये हैं। जिस काल द्रव्य में पूर्व अवस्था नाश को प्राप्त होती है उसी समय उसकी नयी अवस्था उत्पन्न होती है। फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वय स्वभाव बराबर बना रहता है इसलिए प्रत्येक द्रव्य उक्त त्रिपदी युक्त है, त्रयात्मक है। द्रव्य की इस त्रयात्मकता को एक उदाहण द्वारा बड़े सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है—एक राजा के पास एक स्वर्ण घट है। राजकुमार उसे तुड़वाकर मुकुट बनवाना चाहता है और राजकुमारी को वह स्वर्ण कलश ही अत्यधिक प्रिय है; क्योंकि वह उसमें पानी भरकर उससे खेलती है; किन्तु राजा को स्वर्ण ही प्रिय है, चाहे वह कलश रूप में हो चाहे मुकुट रूप में। इस प्रकार एक कलश को लेकर तीनों व्यक्तियों के तीन प्रकार के मनोभाव हैं, जो निर्बाध हैं।
घट की इच्छुक राजकुमारी स्वर्ण की घट पर्याय का नाश होने पर दु:खी होती है, मुकुट का इच्छुक राजकुमार स्वर्ण की मुकुट पर्याय की उत्पत्ति होने पर हर्षित होता है और मात्र स्वर्ण का इच्छुक राजा घट पर्याय का नाश और मुकुट पर्याय की उत्पत्ति होने पर न तो दुखी होता है और न हर्षित ही होता है; किन्तु मध्यस्थ रहता है। इन तीनों व्यक्तियों का एक स्वर्ण घट के आश्रय से होने वाला यह कार्य अहेतुक नहीं हो सकता। इससे सिद्ध होता है कि स्वर्ण की घट पर्याय का नाश और मुकुट पर्याय की उत्पत्ति होने पर भी स्वर्ण का न तो नाश होता है और न उत्पाद ही। स्वर्ण तो घट, मुकुट आदि प्रत्येक अवस्था में स्वर्ण ही बना रहता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु त्रयात्मक ही है।
एक दूसरे उदाहरण द्वारा भी इसी विषय को स्पष्ट किया गया है—जिसने दूध पीने का व्रत लिया है वह दही नहीं खाता, जिसने दही खाने का व्रत लिया है वह दूध नहीं पीता और जिसने गोरस के सेवन नहीं करने का व्रत लिया है वह दूध और दही दोनों का उपयोग नहीं करता। इससे सिद्ध है कि वस्तु त्रयात्मक है, युगपत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों रूपों से युक्त है।
६. सम्पूर्ण वस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है—एक ही वस्तु में प्रतीति का नानापन उस वस्तु के विनाश, उत्पाद और स्थिति (ध्रौव्य) का साधक जान पड़ता है। जो दूध रूप से नाश को प्राप्त हो रहा है वही दधिरूप से उत्पद्यमान और गोरस रूप से विद्यमान (ध्रौव्य) है; क्योंकि दूध और दही दोनों ही गोरस रूप हैं। गोरस की एकता होते हुए भी जो दधिरूप है वह दुग्ध रूप नहीं, जो दुग्ध रूप है वह दधिरूप नहीं; ऐसा व्रतियों के द्वारा द्रव्य—पर्याय की विभिन्न प्रतीतिवश भेद किया जाता है। यदि प्रतीति में त्रिरूपता न हो तो एक के ग्रहण में दूसरे का त्याग नहीं बनता।
इस तरह वस्तु तत्त्व के त्रयात्मक साधन द्वारा उसका प्रस्तुत नित्य—अनित्य और उभय साधन भी विरोध को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि एक ही वस्तु में स्थिरता के व्यवस्थापन द्वारा कथंचित् नित्यत्व और नाशोत्पाद के प्रतिष्ठापन द्वारा कथंचित् अनित्यत्व सिद्ध होता है और इसलिए यह ठीक ही कहा जाता है कि सम्पूर्ण वस्तु समूह कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है।
७. महर्षि पतंजलि के अनुसार वस्तुस्वरूप—वस्तु के उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यत्व अथवा नित्यत्व अनित्यत्व का कथन महर्षि पतंजलि ने भी किया है। उन्होंने लिखा है—‘द्रव्य नित्य है और प्रकृति अर्थात् अवस्था अनित्य है। स्वर्ण का एक आकार पिण्ड है, उसका विनाश कर माला बनाई जाती है, माला का विनाश कर कड़े बनाये जाते हैं, कड़ों को तोड़कर स्वस्तिक बनाये जाते हैं। फिर घूम—फिर कर स्वर्ण पिण्ड हो जाता है। फिर उसके विवक्षित आकार खदिर के अंगार के समान दो कुण्डल हो जाते हैं। इस प्रकार एक के बाद दूसरा आकार होता रहता है; परन्तु द्रव्य वही रहता है। आकार का नाश करने से एक मात्र द्रव्य ही शेष रहता है।
८. मीमांसक के अनुसार वस्तुस्वरूप—कुमारिल भट्ट मीमांसक ने भी जैन दर्शन की उक्त त्रयात्मकता का उल्लेख करते हुए कहा है—‘जब सोने के एक प्याले को तोड़कर माला बनाई जाती है तब प्याला चाहने वाले को शोक होता है, माला चाहने वाले को हर्ष होता है और सोने का इच्छुक मध्यस्थ रहता है। इससे वस्तु के त्रयात्मक होने की सूचना मिलती है। उत्पाद, स्थिति और व्यय के अभाव में तीन प्रकार की बुद्धि नहीं हो सकती क्योंकि प्याले का नाश हुए बिना शोक नहीं हो सकता, माला की उत्पत्ति हुए बिना हर्ष नहीं हो सकता और सोने के स्थायित्व के बिना माध्यस्थ भाव नहीं हो सकता अत: वस्तु सामान्य से नित्य है।
ये दोनों उल्लेख यद्यपि सामान्यत: जैनदर्शन के अनुकूल प्रतीत होते हैं, पर इनमें जैनदर्शन से मौलिक अन्तर है। ये मुख्यत: नैयायिक दर्शन के दृष्टिकोण को ही स्पष्ट करते हैं। नैयायिक दर्शन का मन्तव्य है कि कारण द्रव्य सर्वथा नित्य है और कार्य द्रव्य सर्वथा अनित्य। इन दोनों उल्लेखों का भी यही भाव प्रतीत होता है। महर्षि पतंजलि तो द्रव्य की नित्यता और पर्याय की अनित्यता स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं; किन्तु जैनदर्शन का दृष्टिकोण किसी एक को सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य मानने का नहीं है। दृष्टि भेद से वही द्रव्य नित्य है और वही अनित्य है।
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये द्रव्य की अवस्था में हैं। द्रव्य इनमें व्याप्त कर स्थित है इसलिए द्रव्य कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है। दृष्टि या अपेक्षा भेद से द्रव्य में एक साथ ही एक ही समय में नित्यानित्यात्मकता पाई जाती है। इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
जैनेतर दार्शनिकों को यह शंका बराबर बनी रहती है कि जैनदर्शन की नित्यानित्यात्मकता एक ही समय में कैसे बन सकती है? ये दोनों परस्पर विरोधी धर्म एक ही द्रव्य में एक ही साथ, एक ही समय में कैसे रह सकते हैं ?
इसका बहुत ही सुन्दर सयुक्तिक समाधान आचार्य श्री उमास्वामी ने किया है—अर्पित (विवक्षित) या मुख्यता और अनर्पित (अविवक्षित) या गौणता की अपेक्षा से एक वस्तु में एक ही साथ, एक ही समय में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दो धर्मों की सिद्धि बराबर हो जाती है, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
उक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि मुख्य गौण की विवक्षा भेद से एक ही वस्तु में नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनेक धर्म रहते हैं। वस्तु अनेक धर्मात्मक है अत: उसमें मुख्य और गौण रूप से नाना धर्म एक साथ रह सकते हैं, उनमें एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं आता है और वस्तु स्वरूप की सिद्धि हो जाती है। जिस समय जिस धर्म की विवक्षा होती है उस समय वह धर्म मुख्य या प्रधान हो जाता है और अन्य धर्म गौण हो जाते हैं। वक्ता यदि द्रव्यार्थिक नय या द्रव्यदृष्टि से वस्तु का प्रतिपादन करता है तो नित्यता विवक्षित या मुख्य रहती है और अनित्यता अविवक्षित या गौण हो जाती है तथा यदि पर्यायार्थिक नय या पर्याय दृष्टि से प्रतिपादन करता है तो अनित्यता विवक्षित या मुख्य रहती है और नित्यता अविवक्षित या गौण हो जाती है। जिस समय किसी पदार्थ को द्रव्य या स्वरूप की अपेक्षा से नित्य कहा जा रहा है उसी समय वह पदार्थ पर्याय की अपेक्षा से अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले नित्यत्व अनित्यत्व आदि धर्मों की सत्ता स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं आता है। जो वस्तु एक दृष्टि से अस्तिरूप, एकरूप और नित्यरूप है वही वस्तु दूसरी दृष्टि से नास्ति रूप, अनेक रूप और अनित्य रूप भी है।
इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक और उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है—एक बहुत बड़ा दार्शनिक विद्वान् था, जो निरन्तर चिन्तन, मनन और अध्ययन में संलग्न रहा करता था। उसे बाहर की, यहाँ तक कि अपनी गृहस्थी और अपने खाने-पीने की भी कोई चिन्ता नहीं रहती थी। एक कमरे में बन्द रहा करता था, किसी से मिलता-जुलता भी नहीं था। एक दिन उसकी पत्नी ने झुँझलाकर पूछा—क्या मामला है ? इतना एकान्तवास और ज्ञानार्जन करके क्या किया ? और क्या करोगे ? दार्शनिक ने सौम्यभाव से कहा—अच्छा प्रिये ! आओ! चलो, आज घूमने चलें, वहीं तुम्हारे इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर देंगे। दोनों चल दिये घूमने। घूमते-घूमते पहुँचे गंगा किनारे। गंगा किनारे खड़े होकर दार्शनिक ने पूछा-प्रिये! बताओ कि हम दोनों इस पार हैं या उस पार ? वह बोली—इस पार। उसने फिर पूछा—प्रिये ! जरा सोचो और बताओ कि हम दोनों इस पार हैं या उस पार ? वह बोली—इसमें सोचना—विचारना क्या है ? यह तो स्पष्ट ही दिख रहा है कि हम लोग इस पार हैं। वह बोला-अच्छा! आओ, बैठो इस नौका में, चलो चलें उस पार। पहुँचे उस पार। दार्शनिक ने फिर वही पूछा—प्रिये! अच्छा! अब बताओ ? हम दोनों इस पार हैं या उस पार ? उसने फिर वही उत्तर दिया—इस पार। तब वह बोला—अरे ! जब हम दोनों वहाँ थे, तब कह रहीं थीं कि ‘इस पार’ और जब हम दोनों यहाँ हैं, तब भी वही कह रही हो, ‘इस पार’। क्या बात है ? समझी कुछ। वास्तव में यह न ‘इस पार’ है न ‘उस पार’ किन्तु विचार करने पर उस पार की अपेक्षा यह पार ‘इस पार’ है और इस पार की अपेक्षा वह पार भी ‘इस पार’ है। इस प्रकार ‘यह पार’ इस पार भी है और उस पार भी है तथा वह पार भी इस पार भी है और उस पार भी है। एक ही व्यक्ति, एक ही साथ, एक ही समय में पिता भी है, पुत्र भी है, भाई भी है, भतीजा भी है, मामा भी है, भानजा भी है, श्वसुर भी है, जामाता भी है, छोटा भी है, बड़ा भी है। अपने पुत्र की अपेक्षा पिता है और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है। अपने भाई की अपेक्षा भाई है और अपने पिता के भाई की अपेक्षा भतीजा है। अपने भानजे की अपेक्षा मामा है और अपने मामा की अपेक्षा भानजा है। अपने जामाता की अपेक्षा श्वसुर है जो अपने श्वसुर की अपेक्षा जामाता है। अपने से बड़े की अपेक्षा छोटा है तो अपने से छोटे की अपेक्षा बड़ा है।
१. अनेकान्तात्मक वस्तु की निर्विरोध सिद्धि—इस तरह ये सब विरोधी प्रतीत होने वाले सम्बन्ध एक ही व्यक्ति में सम्बन्धी भेद से रहते हैं, इनमें कोई विरोध नहीं आता है। इसी तरह वस्तु धर्मों की भी व्यवस्था है। न कोई वस्तु सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत्, न सर्र्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य, न सर्वथा एक है और न सर्वथा अनेक किन्तु विवक्षा या अपेक्षा भेद से सत् भी है और असत् भी है, नित्य भी है और अनित्य भी है, एक भी है और अनेक भी। इस तरह अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक वस्तु की निर्विरोध सिद्धि होती है। वस्तु के अनेक धर्मात्मक होने पर भी ज्ञाता किसी एक धर्म की मुख्यता से ही वस्तु को ग्रहण करता है। जैसे—व्यक्ति में अनेक सम्बन्धों के होते हुए भी प्रत्येक सम्बन्धी अपनी दृष्टि से ही उसे पुकारता है। उसका पिता उसे पुत्र कहकर पुकारता है तो उसका पुत्र उसे पिता कहकर पुकारता है किन्तु व्यक्ति न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही। यदि वह केवल पिता ही हो तो अपने पुत्र की तरह अपने पिता का भी पिता कहलाएगा या यदि वह केवल पुत्र ही हो तो अपने पिता की तरह अपने पुत्र का भी पुत्र कहलाएगा अत: व्यक्ति पिता भी है और पुत्र भी है इसमें कोई विरोध नहीं। इस प्रकार पिता—पुत्र, मामा—भानजा, चाचा—भतीजा, श्वसुर—जामाता, छोटा—बड़ा आदि आपेक्षिक धर्मों की तरह एक ही द्रव्य में नित्यत्व—अनित्यत्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों के एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं आता है। वस्तु जिस प्रकार नित्य है उसी प्रकार अनित्य भी है। एक दृष्टि से नित्य है तो दूसरी दृष्टि से अनित्य।
२. वस्तु के वस्तुत्व और नयों के समन्वयवादी दृष्टिकोण से लाभ—वस्तु का वस्तुत्व दो बातों पर कायम है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप को अपनाये हुए है और अपने से भिन्न अनन्त वस्तुओं के स्वरूप को नहीं अपनाये हुए है, तभी उसका वस्तुत्व कायम है। यदि ऐसा नहीं माना जाएगा तो वह वस्तु ही नहीं रहेगी। जैसे यदि घट अपने स्वरूप को न अपनाए तो वह गधे के सींग की तरह अवस्तु कहलाएगा। अपने स्वरूप को अपनाकर भी यदि वह अपने से भिन्न पट आदि वस्तुओं के स्वरूप को भी अपनाये तो घट—पट में कोई भेद ही नहीं रहेगा। अत: घट घट ही है, घट पट नहीं है। इन दो बातों पर ही घट का अस्तित्व बनता है। इसे ही कहते हैं, घट है भी और नहीं भी है। अपने स्वरूप से है और अपने से भिन्न स्वरूप से नहीं है। इसी तरह घट नित्य भी है और अनित्य भी है। घट मिट्टी से बना है। घट फूटने पर भी मिट्टी तो रहेगी ही अत: अपने मूल कारण मिट्टी द्रव्य के नित्य होने से घट नित्य है और घट पर्याय तो नित्य नहीं है, घट के फूटते ही वह मिट जाती है अत: घट पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। त्रैकालिक अन्वयरूप परिणाम की अपेक्षा नित्य है और प्रतिसमय होने वाली पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। इससे वस्तु की परिणामी नित्यता सिद्ध होती है किन्तु इन दोनों धर्मों का वस्तु में एक साथ कथन नहीं किया जा सकता है, उनका क्रम से कथन करना पड़ता है इसलिए जिस समय जिस धर्म का कथन किया जाता है उस समय उसको स्वीकार करने वाली दृष्टि मुख्य हो जाती है और इससे विरोधी धर्म को स्वीकार करने वाली दृष्टि गौण हो जाती है। इस प्रकार मुख्यता और गौणता के विवक्षा भेद से एक ही वस्तु में, एक ही साथ और एक ही समय में परस्पर विरोधी मालूम पड़ने वाले धर्मों के अस्तित्व की सिद्धि भली—भाँति हो जाती है। जैनदर्शन के अनुसार यही सत् या वस्तु का यथार्थ स्वरूप है, जो नयों की सापेक्षता या समन्वयवादी दृष्टिकोण से सिद्ध होता है।
नयों के समन्वयवादी दृष्टिकोण द्वारा यह तो विभिन्न दार्शनिक पक्षों का समन्वय है, इसी प्रकार नयों के इस समन्वयवादी दृष्टिकोण का प्रयोग यदि लौकिक जीवन जगत् के व्यवहारों में भी किया जाय तो हमारे दैनिक जीवन व्यवहारों में पद—पद पर पैदा होने वाले विवाद, मतभेद, संघर्ष और गृहकलह समाप्त होकर हमारा वर्तमान जीवन सुखी और शान्त हो सकता है। और तो क्या, यदि आज के विश्व की वर्तमान समस्याओं के समाधान के लिए भी इस समन्वयवादिता का प्रयोग किया जाय तो विश्व के सभी राष्ट्रों की तनावपूर्ण समस्याओं का समाधान सहज ही हो सकता है।