अहिंसा वह विराट, व्यापक व उदात्त भावना है, जिसमें विश्वकल्याण की सामर्थ्य निहित है। वह समस्त प्राणियों के प्रति अहिंसा के हृदय से सतत प्रवाहित होने वाला स्नेह निर्झर है। प्राणिमात्र के प्रति समदृष्टि है। एकता की प्रगाढ़ अनुभूति है।
जिजीविषा और सुखलिप्सा प्राणिमात्र की सहजवृत्ति है। अहिंसा, प्राणीमात्र की जिजीविषा और सुखैषणा की प्रवृत्ति को उतना ही महत्त्व प्रदान करता है, जितना स्वयं की जिजीविषा और सुखैषणा को। अहिंसा की नींव प्राणिमात्र के प्रति वही नैसर्गिक प्रीति है, जो प्राणी की अपनी आत्मा के प्रति होती है। अहिंसा अपनी आत्मा के प्रति जितना प्रेम करता है, उतना ही प्रेम उसे अन्य आत्माओं से होता है। उसमें समानता की अनुभूति इतनी तीव्र होती है कि परपीड़न आत्मपीड़न तुल्य कठिन हो जाता है। परत्व और ममत्व विगलित हो जाता है। विभाजक रेखायें टूट जाती हैं। सारी सृष्टि आत्मवत् हो जाती है। सर्वत्र सम्यग्दृष्टि व स्नेह की सरसता व्याप्त हो जाती है। यही अहिंसा की पूर्णावस्था है। यही वीतरागता है। प्राणिमात्र के विकास की चरम स्थिति भी यही है।
१. अहिंसा का महत्त्व—अहिंसा मानवीय गुणों का समुच्चय है। धर्मों का सार है। जीवन का सर्वस्व है। प्रेम प्रसार की परा-काष्ठा है। विकास की चरम परिणति है। आत्म विस्तार का चरम बिन्दु है। इस बिन्दु पर आकर मानव महामानव हो जाता है। आत्मा महात्मा हो जाती है। जैनदर्शन में इसीलिये अहिंसा को अतिशय महत्त्व प्रदान किया जाता है। जैन आचार—विचार सूत्ररूप से इसी अहिंसा दर्शन व अहिंसा आचरण में समाहित है। सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य शेष व्रत इसी अहिंसा के परिकर में बँधे हुये हैं। आचार्य समन्तभद्र ने अहिंसा को ही परमब्रह्म कहा है। अहिंसा के तत्त्वज्ञान का क्रमिक, सुव्यवस्थित, वैज्ञानिक तथा सर्वाङ्गीण विवेचन एवं परिपालन जैनसंस्कृति की मौलिक विशेषता है।
परपीड़न हिंसा है। मन—वचन—काय से प्राणीवध न करना, रागद्वेषादिरूप प्रवृत्ति न करना अहिंसा है। यह अहिंसा की निषेधात्मक व्याख्या है। प्राणों के दो भेद हैं-द्रव्यप्राण और भावप्राण। ५ इन्द्रिय, मन—वचन—काय बल, आयु और श्वासोच्छ्वास द्रव्यप्राण हैं। आत्मा ही शाश्वत ज्ञान—दर्शनरूप चेतना भाव—प्राण है। द्रव्यप्राणों का नाश होने पर भाव प्राणों का विनाश होता ही है किन्तु भाव प्राणों के विनाश के साथ द्रव्यप्राणों का विनाश अनिवार्य नहीं है।
२. हिंसा का मूल कारण—हिंसा का मूल कारण प्रमाद है। प्रमाद की उत्पत्ति के कारण हैं क्रोध, मान, माया और लोभ। इनसे अभिभूत होकर स्वपर के प्राणों का विघात हिंसा है। क्रोधादि के वशीभूत होकर अपने शरीर इन्द्रियादि का घात करना अथवा दूसरे के प्राणों का नाश करना हिंसा है। क्रोधादि के वशीभूत अपने परिणामों को कलुषित करना अथवा दूसरों के परिणामों को कलुषित करना हिंसा है।
प्राणियों के शरीर और आत्मा का विच्छेदन मात्र हिंसा नहीं है। हिंसा का सम्बन्ध हिंसक की भावनाओं से है। अनुदात्त भावनाओं की स्थिति ही हिंसा है। हिंसा हिंस्य प्राणी के जीवन—मरण से सम्बद्ध न होकर हिंसक की भावनाओं पर निर्भर है।
जड़ शरीर और चेतन आत्मा का पृथक्करण हिंसा है। हिंसा की इस व्याख्या में शंका की जा सकती है कि शरीर और आत्मा सदैव भिन्न हैं। उनका विच्छेदन औपचारिक है। निश्चय से जीव मरता नहीं और देह जड़ है। जड़ को मार देने से हिंसा नहीं हो सकती।
३. अहिंसा का तत्त्वज्ञान अति दुर्लभ—अहिंसा के तत्त्वज्ञान की इसी दुर्बोधता को हृदयंगम करके आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने लिखा है कि ‘‘अहिंसा का तत्त्वज्ञान अतीव गहन है और इसको न समझने वाले अज्ञों के लिये सद्गुरु ही शरण हैं, जिनको अनेकांत विद्या द्वारा प्रबोध प्राप्त हो चुका है।’’
द्रव्यार्थिकनय से यह सत्य है कि आत्मा और पुद्गल अनादिकाल से पृथक्—पृथक् हैं। पर्यायार्थिकनय से यह भी उतना ही सत्य है कि कर्मों के कारण आत्मा अनादिकाल से पुद्गल से संयुक्त है। आत्मा की इस अनादि अशुद्ध, अवस्था के कारण प्राणी जन्म मरण के बन्धनों से बँधा हुआ है। आचार्य श्री अमितगति का कथन है कि (द्रव्यार्थिक नय से कथंचित् भिन्न व पर्यायार्थिक नय से कथंचित् अभिन्न) भिन्नाभिन्न आत्मा के शरीर से पार्थकय होने पर अत्यन्त घोर पीड़ा होती है अतएव किसी जीव के शरीरघात होने पर हिंसा अवश्य होती है।
भिन्नाभिन्नस्य पुन: पीड़ा संजायतेतरां घोरां।
देहवियोगे यस्मात्तस्मात् निवारिता हिंसा।।
सम्पूर्ण सृष्टि दृश्यादृश्य असंख्य जीवराशि से समाकुल है। हमारी प्रत्येक शारीरिक प्रवृत्ति में हिंसा होती ही है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न सहज उद्भूत होता है कि अहिंसा का पालन सम्भव है क्या ?
४. अहिंसा व्यक्ति की भावनाओं पर निर्भर है—यदि व्यक्ति सदय है, तो वह सदैव इस बात के लिये तत्पर रहेगा कि मेरी किसी भी प्रवृत्ति से प्राणीमात्र को पीड़ा न पहुँचे। प्राणीमात्र को पीड़ा न हो इस भावना से प्रेरित होकर जब व्यक्ति यत्नपूर्वक (प्रयत्नपूर्वक, सावधानीपूर्वक) प्रवृत्ति करता है, तब वह अहिंसा है। हिंसा का कारण प्रमाद है। अप्रमाद अहिंसा का आधार है।
प्रमाद की उत्पत्ति के कारण हैं कषाय-क्रोध,मान, माया और लोभ। क्रोधादि से अभिभूत होकर स्वपर के प्राणों का विघात हिंसा है। अपने तथा दूसरों के परिणामों को कलुषित करना भी ाEहसा है। कषायों का मूल है रागद्वेष। अज्ञान के वशीभूत होकर भी मनुष्य हिंसा में प्रवृत्त होते हैं।
चेतन सक्रिय है। इसकी सक्रियता जिससे प्रकट होती है, वे तीन द्वार हैं जिन्हें प्रवृत्ति कहते हैं। मन कुविचारों में प्रवृत्त होकर अपने सद्भावों की हिंसा करता है। दुर्वचन अपने और दूसरे के भावों की हिंसा करते हैं। शारीरिक क्रिया क्रोधादि से आविष्ट होकर स्व—पर द्रव्य हिंसा में प्रवृत्त होती है। इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना अहिंसा है। समिति और गुप्ति अहिंसा पालन के साधन हैं।
अहिंसा के लिये अहिंसा को ‘‘मेरे किसी कृत्य से किसी भी प्राणो को पीड़ा न हो’’ यह संकल्प रखना अनिवार्य है अन्यथा वे एकेन्द्रिय प्राणी जो अव्यक्त चेतना वाले हैं, जिनसे किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुँचती अहिंसा कहलायेंगे। अहिंसा का आधार सम्यक्त्व है, ज्ञान है। अज्ञानी परपीड़ा न करते हुए भी अहिंसा नहीं है। एकेन्द्रिय प्राणियों की भाँति व्यक्त चेतना वाले भी परपीड़ा न करते हुए भी अहिंसा नहीं हैं क्योंकि पर प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाने का संकल्प नहीं लिये हुये हैं।
५. सर्वजीव समभाव अहिंसा का विधेयात्मक स्वरूप है—मैत्री, करुणा, सेवा आदि उसकी विविध अभिव्यक्तियाँ हैं। अहिंसा के इस विधेयात्मक रूप में निषेधात्मक रूप स्वत: समाविष्ट है। जहाँ मैत्री भावना होगी, वहाँ व्यक्ति परपीड़न में उद्युत ही नहीं होगा। मैत्री, करुणा, सेवा आदि उदात्त भावनाओं से युक्त व्यक्ति—हिंसा—त्यागी ही होगा। अहिंसा में आत्मा के समस्त सद्गुण अन्तर्भूत हो जाते हैं। सम्यक्त्व, क्षमा, करुणा, अभय, समत्व, मैत्रीभाव अहिंसा के सोपान है।
आत्मा के प्रति श्रद्धान सम्यक्त्व है। आत्मश्रद्धानी व्यक्ति ही दया, क्षमा, प्रमोद, मैत्री, समता आदि गुणों का धारक हो सकता है। क्रोध का बाह्य कारण उपस्थित रहने पर भी चित्त में क्रोध की उत्पत्ति न होना क्षमा है। क्षमा सम्यक्त्व का अनुगमन करती है। क्रोध का वास्तविक कारण बाह्यदृष्टि है, अन्य वस्तुओं में रागद्वेष करना है। जहाँ आत्मदृष्टि जागृत हो जाती है पर वस्तुओं में रागद्वेष तिरोहित हो जाता है, वहां उन वस्तुओं, व्यक्तियों के सम्पर्क से अनुकूल—प्रतिकूल दुर्भाव नहीं जगते। यही स्थिति उत्तम क्षमा है। करुणा इसका अगला चरण है। भेदविज्ञान के कारण पर वस्तुओं में रागद्वेष न होने से क्रोध कषाय के आन्तरिक कारण का नष्ट हो जाना क्षमा है। अज्ञानी व्यक्ति का अपनी आत्मा की निर्मल वृत्ति को कलुषित करने की ओर प्रवृत्ति देखकर उनके प्रति करुणा दया है। उन्हें सन्मार्ग में प्रेरित करना करुणा का फल है। भीतिग्रस्तों को अभय का वरदान देना अहिंसा का कार्य है। प्राणीमात्र के प्रति समता की अनुभूति अहिंसा की आधारशिला है। प्राणियों के प्रति मैत्री भाव अहिंसा है। क्षमा, करुणा, अभय, समता, मैत्रीभाव अहिंसा की ही उत्तरोत्तर सीढ़ियाँ हैं।
१. अहिंसा केवल सैद्धान्तिक नहीं प्रयोगात्मक है—वह कोरा आदर्श नहीं, यथार्थ व्यवहार है। अहिंसा का आरम्भ होता है सम्यक्त्व से, पालन होता है संयम और अप्रमाद से, विकास होता है अभेदानुभूति से। सर्वजीव समभाव दृष्टि द्वारा अहिंसा का विराट्रूप व्यक्त होता है। अहिंसापथ पर अग्रसर होने के लिये गृहस्थधर्म व साधुधर्म रूप द्विविध सोपान निर्मित किये हैं। गृहस्थधर्म प्रथम सोपान है, जिसमें संकल्पी हिंसा का पूर्ण त्याग विहित है। शेष विरोधी, आरम्भी और उद्यमी हिंसा की मर्यादायें हैं। मुनि के लिये चारों ही प्रकार की हिंसा त्याज्य है। अणुव्रत और महाव्रत की व्यवस्था व्यावहारिकता का ही सुपरिणाम है।
अहिंसा कायरता नहीं है, वीरता है, निर्भयता है। निर्भयता ही वीरता है। अहिंसा स्वयं निर्भय होता है। दूसरों को अहिंसा का अमृत वितरित करता है। शस्त्रोपजीवी क्षत्रिय भी निरर्थक हिंसा का त्याग कर देने पर अहिंसा है।
आत्मघात महापातक है, हिंसा है। जीवन में असफल व्यक्ति आत्मघात करते हैं। प्राणी स्वभावत: जिजीविषु है। आत्मघात करने वाले की जिजीविषा और अधिक तीव्र होती है, कारण वह अपने मनोनुकूल जीवन जीना चाहता है वैसा जीवन न मिलने पर निराशा में आत्मघात करता है, यह उसकी तीव्रतम जिजीविषा है। जिजीविषु व्यक्ति का जीवन नष्ट करना निश्चित ही हिंसा है। इसके अतिरिक्त आत्मघाती व्यक्ति अपने आत्मगुणों की भी हिंसा करता है।
समाधिमरण आत्मघात न होकर धार्मिक अनुष्ठान है। आत्मश्रद्धानी व्यक्ति शरीर को धर्म का साधन समझता है। धर्मसाधन के रूप में ही उसका रक्षण करता है किन्तु जब शरीर धर्मसाधन में असमर्थ हो जाता है अथवा बाधक बन जाता है उस स्थिति में शरीर का त्याग करना समाधिमरण है। यह आत्मघात नहीं है, इसमें आत्मिक गुणों का उत्कर्ष होता है।
२. विश्वशांति की स्थापना हेतु अहिंसा की आवश्यकता—अहिंसा को व्यावहारिक रूप देने में आज का मानव असफल हो रहा है, उस असफलता का कारण है अहिंसा के प्रति विश्वास की कमी। अहिंसा विश्वशांति की स्थापना के लिये सफल साधन हो सकता है या नहीं यह शंका उसे अहिंसा मार्ग पर चलने नहीं दे रही है। वस्तुत: अहिंसा समस्याओं के समाधान का साधन नहीं साध्य है। अहिंसा प्राप्ति जीवन का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को पा लेने पर शेष समस्यायें स्वत: सुलझ जाती है। यह नैतिक और आत्मिक बल है। असंख्य प्राणियों के निर्विघ्न जीवन की मंगलकामना है। क्रोध, अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, अरति, शोक, काम आदि दुर्भावनाओं का निषेध है।
अहिंसा के स्तवन में एक आचार्य की विनम्राञ्जलि है ‘‘जिसे संसार निरन्तर नमस्कार करता है, विनम्र अञ्जलि प्रदान करता है, वह तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट सम्पूर्ण संसार का मान्य धर्म अहिंसा है। इस अहिंसा धर्म के एक पार्श्व में स्याद्वाद और दूसरे पार्श्व में अनेकान्तरूप कल्पद्रुम स्थित है, मानो किसी सम्राट के दोनों ओर दो चामरधारी स्थित हों।
यं लोका असकृन्नमन्ति ददते यस्मै विनम्राञ्जिंल
मार्गस्तीर्थकृतां स विश्वजगतां धर्मोऽस्त्यिंहसाभिध:।
नित्यं चामरधारणमिव बुधा: यस्यैकपार्श्वे महान्
स्याद्वाद: परतो बभूवतु स्थानैकान्तकल्पद्रुम:।।
जैनधर्म के अनुयायी अहिंसाभावना के अनुरूप दैनिक क्रियाओं में ऐसी अनेक क्रियाएँ करते हैं, जो उनकी शुद्ध, अहिंसा जीवन शैली को प्रगट करती हैं। उन क्रियाओं में कुछ प्रमुख क्रियाओं का उल्लेख यहाँ आवश्यक है।
१. शाकाहार—आहार शुद्धि पर जैनधर्म अत्यधिक बल देता है। जैनधर्म में माँसाहार का कड़ा निषेध है। अण्डा, माँस, शराब आदि पदार्थों का सेवन, किसी भी मनुष्य को नहीं करना चाहिए। ‘म’ से प्रारम्भ होने वाले तीन मकार ‘मद्य—माँस—मधु’ गृहस्थ श्रावकों को अनिवार्य रूप से त्यागने योग्य हैं। जैनधर्म में शुद्ध शाकाहारी पदार्थों को भी उनकी कालावधि के बाद सेवन करने का निषेध है क्योंकि एक समय सीमा के बाद उनमें भी सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं; उनका सेवन करने से हिंसा तो होती ही है, स्वास्थ्य भी खराब होता है।
जमीन के भीतर उत्पन्न होने वाले प्याज—लहसुन आदि जमीकन्द पदार्थों का सेवन भी नहीं करना चाहिए क्योंकि उनमें अनन्त सूक्ष्मजीव रहते हैं, उनकी हिंसा होती है और इनका सेवन तामसिकता को बढ़ाता है। बाजार में बनी वस्तुओं को भी अच्छा नहीं माना जाता क्योंकि उनकी निर्माण विधि शुद्ध स्वच्छ नहीं होती और मिलावट का भय बना रहता है। इन सभी नियमों का पालन जिससे जितना भी बन सके, अपनी-अपनी क्षमता और विवेक के अनुसार करना ही चाहिए।
२. पानी छानना—जल, मनुष्य की अनिवार्य आवश्यकता है। यदि मनुष्य अशुद्ध जल पिएगा तो उसका जीवन संकट में आ जाएगा। जैनधर्म ने मनुष्यों से कहा कि पानी छान कर पीओ क्योंकि उसमें असंख्य जीव रहते हैं। पहले लोगों को विश्वास नहीं होता था कि पानी में जीव कहाँ से आये ? हजारों—लाखों वर्षों से जैनधर्म ने अपने इस विश्वास को नहीं छोड़ा और अपनी बात कहता रहा। अब जाकर आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित किया है कि एक बूँद जल में ३६,४५० जीव होते हैं। पानी विधिपूर्वक नहीं छानने से इन जीवों की हिंसा तो होती ही है, साथ ही इससे स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। एक पुरानी कहावत है—
पानी पीओ छानकर, जीव जन्तु बच जायें।
लोग कहें धर्मात्मा, रोग निकट निंह आयें।।
यदि जीवों की हिंसा से बचना चाहते हो तो पानी को विधिपूर्वक छानकर ही प्रत्येक कार्य में उपयोग लेना चाहिए।
३. रात्रि भोजन त्याग—जैनधर्म में रात्रि भोजन का निषेध है। जैनधर्म के अनुसार सूर्य की किरणों से वातावरण शुद्ध रहता है और सूर्यास्त के बाद रात्रि में अनेक जीव उत्पन्न होते हैं, जो वातावरण को अशुद्ध करते हैं। रात्रि में भोजन बनाने और खाने से बहुत हिंसा होती है। साथ ही रात्रि में पाचन क्रिया मन्द होने से, भोजन करने से स्वास्थ्य पर भी गलत प्रभाव पड़ता है; अत: रात्रि में भोजन न बनाना चाहिए और न ही करना चाहिए।
रात्रि में अन्न ग्रहण करना खाने के प्रति अत्यधिक आसक्ति को दर्शाता है। जैन परम्परा में तो सभी आचार शास्त्र रात्रि भोजन का कड़ा निषेध करते ही हैं साथ ही वैदिक परम्परा में भी रात्रि के भोजन को उचित नहीं माना गया है। महाभारत में लिखा है—
‘‘श्वभ्रद्वाराणि चत्वारि प्रथमं रात्रिभोजनम्।’’
तथा
ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वर्जयंति सुमेधस:।
तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते।।
अर्थात् रात्रि भोजन नरक का प्रथम द्वार है तथा जो रात्रि में आहार नहीं करते उन्हें महीनें में १५ दिन के उपवास का फल मिल जाता है।
स्कन्द पुराण के अनुसार दिन में भोजन करने वाला तीर्थयात्रा के जैसा फल पा लेता है-
‘‘अनस्तभोजिनो नित्यं तीर्थ यात्रा फलं भजेत्’’।।
इस प्रकार रात्रि का भोजन सिर्फ धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अहिंसा के अनुकूल नहीं है।
४. लोकोपकारी कार्य—जीव कल्याण और समाज सेवा की भावना से अहिंसा धर्म के लिए अनेक लोकोपकारी कार्य करने चाहिए। जैसे-निर्धनों को वस्त्र आदि देना, जनता की सेवार्थ चिकित्सालय खोलना, धर्मशाला बनवाना, शिक्षा के लिए विद्यालय खोलना, गोशाला तथा पशु—पक्षी चिकित्सालय का सञ्चालन करना, समाज में व्यसन मुक्ति हेतु कार्य करना, आदि आदि। जैनधर्म के अनुयायी, इन सब कार्यों को जीव—दया की दृष्टि से करते हैं। उनके ये कार्य सिर्फ जैनों के लिए ही नहीं हैं, वरन् सभी मनुष्यों के लिए हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या जाति के हों। सहृदय अहिंसा भावना वाला गृहस्थ मनुष्य, मानव सहित सभी जीवों के हित के लिए जितना कर सकता है, उतना कार्य अवश्य करना चाहिए। नि:स्वार्थभाव से किए गए इन कार्यों से सामाजिक सौहाई बढ़ता है और सम्पूर्ण विश्व शान्ति की ओर बढ़ता है।
इस प्रकार और भी अनेक नियम व कार्य हैं, ज्ाो जैनधर्म की अहिंसाभावना को प्रगट करते हैं। यहाँ अहिंसा सिर्फ सिद्धान्त के रूप में ही नहीं बल्कि प्रयोगिक रूप में भी स्पष्ट दिखलाई देती है।
जैनधर्म ने सापेक्ष चिन्तन पर जोर दिया है। हम कभी किसी भी घटना या प्रतिस्थिति को सिर्फ अपनी ही दृष्टि से न सोचें; दूसरों के सम्यक््â दृष्टिकोण का भी ख्याल रखें, हो सकता है कि वह सही हो। इसे जैनधर्म का ‘अनेकान्त—चिन्तन’ कहते हैं। जैनदर्शन के अनुसार ‘हिंसा’ का मूलकारण ‘एकान्त—चिन्तन’ ही है। जैनदर्शन ‘मेरा सो खरा’ वाली नीति पर विश्वास नहीं करता। उसे तो ‘खरा सो मेरा’ वाली ही नीति ही पसन्द है और यही उसका अनैकान्तिक दृष्टिकोण है। सत्य अनेकान्त स्वरूप ही है। अपने अलावा दूसरों के सम्यक््â विचारों का भी चिन्तन करना और वस्तु में गर्भित अनन्त और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का विचार करना,यह चिन्तन में अनेकान्त है, इसे ‘मानसिक अहिंसा’ का नाम दिया गया है।
जैनदर्शन के अनुसार ‘‘जो वस्तु तत् (जैसी) है, वही अतत् (वैसी नहीं) है; जो एक है, वही अनेक है; जो सत् है, वही असत् है; जो नित्य है, वही अनित्य है; इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व को उत्पन्न करने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का एक साथ प्रकाशन होना, अनेकान्त है।’’
वचनों का संसार भी अद्भुत है। हम वचनों को भी सापेक्ष बनाकर उन्हें शुद्ध कर सकते हैं। एकांङ्गी या मिथ्या वचनों का प्रयोग अशान्ति पैâलाता है इसीलिए वाणी की पवित्रता व सत्यता बहुत जरूरी है अत: जैनधर्म वाणी में स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रयोग की बात कहता है।
स्याद्वाद का अर्थ है कि सापेक्ष अर्थात् किसी अपेक्षा से कथन करना। जैसे, मैं कहूँ कि ‘मैं पुत्र हूँ’ तो यहाँ संशयपूर्ण वचन होगा परन्तु यदि मैं कहूँ कि ‘मैं माता—पिता की अपेक्षा पुत्र हूँ’ तो यह वचन अधिक शुद्ध वचन होगा तथा किसी को संशय नहीं होगा और न ही संघर्ष होगा अत: यदि शुद्ध बोलें और हित—मित—प्रिय वचन बोलें तो सभी को अच्छा लगता है। ऐसा नहीं बोलें जिससे दूसरों को दु:ख पहुँचता हो, उससे हिंसा होती है।
जैनधर्म के अनुसार वचनों की अहिंसा का व्यावहारिक जीवन में भी प्रयोग किया जाना चाहिए अर्थात् हिंसक शब्दों का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए। जैसे-‘सब्जी या फल काट दो’ कहने की अपेक्षा ‘सब्जी या फल बना दो या सुधार दो’ कहना अहिंसा वचन है। ‘काटना’ शब्द हिंसक है अत: इसके कहने से हिंसा का वातावरण बनता है। अगर सिर्फ इतना है कि सोचने और कहने का अन्दाज अलग—अलग है। इसी प्रकार मनुष्यों के वैचारिक स्तर में भी अन्तर हो जाता है।
किसी भी प्राणी को नहीं मारना, उसे दु:ख नहीं पहुँचाना, यह सामान्य अर्थ में अहिंसा है। व्यापक अर्थ में मन—वचन—काय और कृत, कारित, अनुमोदना से प्राणीमात्र को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाना या उनके प्राणों का घात न करना, अहिंसा है। मन, वचन और काय (शरीर) में से किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीव की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है; ऐसे जीवन को निरन्तर धारण करना ही अहिंसा है।
अहिंसा का यह सैद्धान्तिक और नैतिक आधार जैनधर्म दर्शन में उपलब्ध है। अहिंसा का क्षेत्र सीमित नहीं है। अहिंसा का सम्बन्ध अन्तरंग और बहिरंग दोनों रूपों में हैं। प्राणीमात्र को मन, वचन और काय से किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाना, उसका दिल नहीं दु:खाना, यह तो बहिरंग अहिंसा है और राग—द्वेष से निवृत्त होकर साम्यभाव में स्थिर होना, अन्तरंग अहिंसा है। इतनी व्यापक परिभाषा हमें पूर्व से लेकर पश्चिम तक कहीं भी देखने को नहीं मिलती। कोई भी कार्य या क्रिया, जो राग—द्वेष भाव से की जाती है, वह अहिंसा की श्रेणी में नहीं आती है। वस्तुत: अन्तरंग में आंशिक साम्यता आए बिना अहिंसा की शुरुआत हो ही नहीं सकती।
कहा जाता है कि चारों तरफ हिंसा बढ़ रही है। सम्पूर्ण विश्व में रोजमर्रा की जिन्दगी में हिंसा प्रभावी हो रही है। इस सन्दर्भ में क्या कभी यह विचार किया कि वास्तव में हिंसा कितनी बढ़ रही है ? क्या बाह्य हिंसा की मात्रा बाह्य अहिंसा से अधिक हो गई है ? सामान्यत: मनुष्य चौबीस घण्टे किसी न किसी को सिर्फ मारने—मारने का काम नहीं कर सकता। यह घटना कभी—कभी ही होती है। अधिकांश समय मनुष्य शान्ति से किसी को कष्ट पहुँचाए बिना ही व्यतीत करता है। दंगे—फसाद भी कोई वर्ष भर तो चलते नहीं हैं। कभी—कभी अचानक इस प्रकार की घटनाएँ होती हैं। ऐसी घटनाएँ ज्यादा भी हों तो भी उन दिनों की संख्या कहीं ज्यादा ही निकलेगी, जिन दिनों में ऐसी घटना या बातें नहीं होती हैं।
बात स्पष्ट है कि हिंसक प्रवृत्ति की प्रधानता वाला मनुष्य या समाज भी सतत हिंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता क्योंकि हिंसा प्राणीमात्र का स्वभाव नहीं अपितु विभाव है। मनुष्य का मूलस्वभाव तो अहिंसा है। जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता है किन्तु कभी अग्नि आदि के संयोग से वह गर्म हो जाता है। उष्णता, जल का स्वभाव नहीं है इसलिए अग्नि का निमित्त हट जाने पर कुछ समय बाद वह पुन: स्वत: शीतलता की ओर बढ़ता है और वहाँ पहुँचकर सदा स्वत: वैसा ही बना रहता है।
यद्यपि तथाकथित कुछ मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि हिंसा भी मनुष्य का स्वभाव है परन्तु यह उनके सोचने का अपना तरीका है। उनके हिंसा—अहिंसा के कारणों को खोजने के मापदण्ड भिन्न हैं तथापि धर्म की यह मान्यता है कि मनुष्य में सिर्फ शरीर और मन ही नहीं है बल्कि मनुष्य में एक आत्मा भी वास करती है और उस आत्मा का स्वभाव, अहिंसा, क्षमा, शान्ति, और करुणा है।
१. मानसिक अहिंसा—हिंसा की व्याख्या करते समय प्रात: यह समझा जाता है कि यदि किसी की जान ली जा रही है, उसे दु:ख पहुँचाया जा रहा है तो हिंसा हो रही है और यदि ऐसी घटनाएँ नहीं हो रही हैं तो अहिंसा है किन्तु यह स्थूल व्याख्या है। हमारे जीवन में बाह्य हिंसा से अधिक मानसिक हिंसा होती है। वास्तव में तो लगभग ९९ प्रतिशत बाह्य हिंसा के पीछे मानसिक हिंसा ही कारण होती है इसीलिए मानसिक हिंसा से बचने के लिए सदा सौहार्दभाव, स्वस्थ चिन्तन बढ़ाते रहना चाहिए।
अपने मन में किसी के अहित का विचार करना मानसिक हिंसा तो है ही; किसी दूसरे के मन को दु:ख पहुँचाना भी मानसिक हिंसा का ही एक रूप है। किसी व्यक्ति, परिवार, समाज या समग्र राष्ट्र को दु:खी करने के उद्देश्य से उनके अहित का चिन्तन करना और योजनाएँ बनाना भी मानसिक हिंसा है। जैनदर्शन में मान्यता है कि किसी को तकलीफ पहुँचाना तो दूर, इसके बारे में मन में बुरा ख्याल आना भी हिंसा है। उदाहरण के रूप में हमने किसी को मारने का विचार किया किन्तु मारा नहीं तो भी हमें हिंसा का दोष अवश्य लगेगा। कई बार फिल्म या सीरियल देखते समय खलनायक या अन्य किसी के अनिष्ट का चिन्तन करके हम व्यर्थ ही मानसिक हिंसा के भागी बन जाते हैं।
अनेक घटनाओं में यह देखा जाता है कि हिंसा का सतत चिन्तन करते रहने के कारण मनुष्य का मानसिक सन्तुलन खराब हो जाता है और वह बड़ी—बड़ी हिंसक घटनाओं को अंजाम देने लगता है इसीलिए मानसिक रूप से अहिंसा भावना को विशेष महत्त्व दिया गया है। मनुष्य जब मन से शान्त रहेगा, हिंसक विचार नहीं करेगा तो बाह्य हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठेगा। मानसिक और वैचारिक शान्ति हमारे अहिंसा व्यवहार का प्रमुख कारण है। मन में राग—द्वेष रूप विचारों को नहीं आने देना और क्षमा, समता, शान्ति आदि अहिंसा विचारधारा को अपने में सतत प्रवाहित होने देना ही मानसिक अहिंसा है।
२. वाचिक अहिंसा—हिंसा का द्वितीय स्तर वाचिक हिंसा है। सर्वप्रथम मनुष्य हिंसा का विचार मन में लाता है फिर अपने वचनों के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति करता है। कई बार जनसभाओं में ऐसे—ऐसे भाषण दिए जाते हैं कि जनसमुदाय भड़क जाता है और हिंसा पर उतारू हो जाता है, यह वाचिक हिंसा का एक रूप है। अपने वचनों के माध्यम से ऐसे शब्दों का प्रयोग करना, जिससे किसी व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र की शान्ति भंग हो या उन्हें दु:ख पहुँचे, वाचिक हिंसा है। व्यावहारिक रूप में गाली देना, किसी की निन्दा करना, अपशब्दों का प्रयोग करना, यह सब वाचिक हिंसा है और ऐसा नहीं करना वाचिक अहिंसा है।
कई बार लोगों को अनावश्यक बड़बड़ाने या व्यर्थ का अधिक बोलने की आदत होती है, उनसे अनायास ही वाचिक हिंसा होती रहती है; अत: वाणी पर संयम रखना ही वाचिक अहिंसा है। किसी महापुरुष ने कहा है कि अनावश्यक बोलो ही मत; जरूरत पड़े तो कम बोलो; वह भी बहुत विचारपूर्वक नाप—तोल कर बोलो; जो भी बोलो, हित—मित—प्रिय बोलो। संयमित वचनों से हमारा व्यक्तित्व निखरता है।
३. कायिक अहिंसा—मनुष्य का मन पर संयम नहीं रहता तो वह मानसिक हिंसा करता है, उससे आगे वचनों पर संयम नहीं रहता तो वह वाचिक हिंसा करता है और इसके बाद वह कायिक हिंसा पर उतर आता है। अपने शरीर की क्रियाओं के द्वारा किसी भी प्राणी का अहित करना, कायिक हिंसा है। स्वयं हाथ—पैर चलाकर किसी की जान लेना, उसे तकलीफ पहुँचाना, अंगों के इशारों से किसी दूसरे को हिंसा की अनुमति या आदेश देना या फिर क्रोध में आकर स्वयं के अंगों का घात करना, कायिक हिंसा है।
अनेक स्थितियों में मनुष्य जाने अनजाने भी कायिक हिंसा का दोषी बनता है। इसे अनर्थदण्ड कहा गया है। पार्क या बगीचों में रास्ते पर चलते—फिरते निष्प्रयोजन (Unnecessary) पेड़—पौधों अथवा फूलों को तोड़ना, टहनियाँ या पत्ते तोड़ना, चलते समय पैरों के नीचे छोटे—छोटे निर्दोष जीवों का ख्याल न करना, घास—फूस को कुचलना, उन पर मल—मूत्र त्यागना, बैठे बैठे हाथ—पाँव चलाना, नदी—तालाब के किनारे बैठकर उसमें पत्थर या कूड़ा—करकट फेंकना इत्यादि अनेक उदाहरण हैं, जब हम अनायास अकारण और निष्प्रयोजन ही कायिक हिंसा करते हैं, जबकि मन में हिंसा की भावना नहीं रहती है। यहाँ प्रमाद हिंसा का कारण बनता है। इससे पर्यावरण भी बिगड़ता है तथा इस पर हमारी आदतों से बुरा असर पड़ता है। मन—वचन—काय की अहिंसा का पालन करके हम पर्यावरण को भी सन्तुलित रख सकते हैं। मानसिक और वैचारिक प्रदूषण, शोर—शराबे का प्रदूषण और हमारी असंयमित क्रियाओं से अन्य सभी किस्म के प्रदूषण, हमारे वातावरण को दूषित बना देते हैं, जिससे शान्ति भंग होती है, पर्यावरण असन्तुलित होता है। अहिंसा के द्वारा हम इसे सन्तुलित बना सकते हैं।
हिंसा के अनेक प्रकार हैं। विविध माध्यमों से, विविध तरीकों से हिंसा होती है। जैन परम्परा में स्थूलरूप से हिंसा के चार भेद इस प्रकार माने गऐ हैं—
१. संकल्पी हिंसा—संकल्पपूर्वक किसी प्राणी को पीड़ा देना या उसका वध करना ‘संकल्पी हिंसा’ है। आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगों, जाति विरोधी हमलों और माँसभक्षण आदि के लिए किया गया शिकार इत्यादि प्रवृत्तियों में होने वाली हिंसा इस परिभाषा में आती है। धार्मिक अनुष्ठानों का बहाना लेकर अथवा देवी—देवताओं के समक्ष की जाने वाली बलि आदि प्रथाएँ भी संकल्पी हिंसा के अन्तर्गत ही हैं।
२. आरम्भी हिंसा—घर गृहस्थी एवं अपने जीवन के आवश्यक कार्यों में, जैसे-भोजन बनाने, नहाने–धोने, वस्तुओं को रखने—उठाने, चलने—फिरने, उठने—बैठने इत्यादि कार्यों में अपरिहार्यरूप से जो जीवघात होता है, वह ‘आरम्भी हिंसा’ है।
३. उद्योगी हिंसा—आजीविका उपार्जन के लिए नौकरी, कृषिकार्य और उद्योग—व्यापार आदि कार्यों में अपरिहार्यरूप से जो जीव—हिंसा होती है, वह सब ‘उद्योगी हिंसा’ की श्रेणी में आती है किन्तु अहिंसा का समर्थक मनुष्य वही व्यापार करेगा, जिसमें कम से कम जीवघात हो और अन्य का शोषण न हो।
४. विरोधी हिंसा—राष्ट्र—धर्म—समाज या अपने कुटुम्ब—परिवार स्वजन आदि पर आये संकट को दूर करने या उनकी रक्षा या आत्मरक्षा करते हुए किसी आक्रमणकारी की हिंसा न चाहते हुए भी हो जाती है, वह ‘विरोधी हिंसा’ कहलाती है क्योंकि यहाँ उद्देश्य रक्षामात्र था, उन्हें मारना नहीं।
इन चार प्रकार की हिंसा में से गृहस्थ मनुष्य, जो साधु या संन्यासी नहीं है, वह प्रथम संकल्पी हिंसा का पूर्णरूप से त्याग करता है। शेष तीन हिंसा उसके गृहस्थ सामाजिक जीवन में होती तो अवश्य है और वहाँ भी वह हिंसा से बचने का प्रयास करता है किन्तु मजबूरीवश हिंसा हो जाती है।
यदि गृहस्थ जीवन है तो हिंसा किसी न किसी रूप में अवश्य होगी, फिर पूर्ण अहिंसा वैâसे सम्भव है ? यह आज का सामान्य प्रश्न है। शास्त्रों में साधु—संन्यासियों के लिए सम्पूर्ण अहिंसा के लिए अहिंसा महाव्रत का वर्णन है। गृहस्थ के लिए पूर्ण अहिंसा सम्भव नहीं है, इस कारण उसके लिए व्यवहारिक अहिंसा का मार्ग है ‘हिंसा का अल्पीकरण’ अर्थात् यथासम्भव कम से कम हिंसा हो। तात्पर्य यह है कि जीने के लिए जो बहुत जरूरी नहीं, वैसी हिंसा का त्याग किया जा सकता है।
इस दृष्टि से हम हिंसा को दो स्तरों में विभाजित कर सकते हैं—१. सार्थक हिंसा और २. निरर्थक हिंसा
१. सार्थक हिंसा—इनसे तात्पर्य है—प्रयोजनमूलक आवश्यक हिंसा, जिसके बिना हम जी नहीं सकते। जैसे, पौधों या वृक्षों से भोजन—सामग्री लेना आदि। दूसरी अनर्थक अथवा निरर्थक हिंसा का तात्पर्य है-निष्प्रयोजन हिंसा। जैसे, हमारे जीवन में भी अनेक प्रकार की ऐसी हिंसाएँ होती हैं, जिनको छोड़ने से हमारी कोई हानि नहीं होती। व्यर्थ की हिंसा से हमारा जीवन भरा पड़ा है; अत: यदि गृहस्थ पूर्ण हिंसा का त्यागी नहीं हो सकता तो हिंसा छोड़ने का प्रारम्भ तो अनावश्यक हिंसा को छोड़कर किया ही जा सकता है। जो-जो आवश्यक नहीं, उसे छोड़ते चले जाएँ, इसके बाद जो अति आवश्यक बचेगा, वही जीवन का यथार्थ होगा, सार्थक हिंसा होगी।
खाने के लिए वृक्ष से पके हुए फल तोड़ना अपराध नहीं है किन्तु उसके लिए पूरी डाल तोड़ लेना या पूरा वृक्ष काट डालना अपराध है। यही सार्थक हिंसा और निरर्थक हिंसा में भेद है।
आज हिंसा के भयंकर दुष्परिणाम सभी के सामने हैं। परमाणु बमों के प्रयोग से हिरोशिमा और नागासाकी की जो हालत हुई, वह किसी से छिपी नहीं है। आज भी उस युद्ध के परिणाम की तस्वीरें देख लें तो दिल दहल उठता है। प्रश्न उठता है अस्तित्व की कीमत पर इतनी हिंसा क्यों ? जब मनुष्य ही नहीं रहेगा तो किसका राज्य रहेगा और किसकी सत्ता रहेगी ? अपने अहं और अनियन्त्रित आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अपनी शक्तियों का दुरुपयोग इस कदर कर रहा है कि उसकी हिंसा से न परिवार सुरक्षित है, न समाज, न राष्ट्र और न ही विश्व।
आतंकवाद, साम्प्रदायिक दंगे, व्यक्तिगत और अन्याय सम्पत्ति के लिए होने वाले संघर्ष और राज्य, भाषा एवं धर्म को लेकर होने वाली हिंसा तथा विविध राजनैतिक हिंसाएँ क्या मानव जीवन के हित में हैं ? उत्तर होगा-नहीं, तो फिर यह सब व्यर्थ में क्यों और किसलिए की जाती हैं ?
हम अपने संसाधनों के विकास के लिए निरन्तर वृक्षों को काट रहे हैं, पर्वतों को उखाड़ रहे हैं, जंगलों को नष्ट कर रहे हैं, प्रकृति का उपयोग करने की जगह उसका दोहन कर रहे हैं। यह कार्य सम्पूर्ण विश्व में चल रहा है। पहले हम इस विषय पर चिन्तन करना अनावश्यक समझते थे किन्तु अब उसके दुष्परिणाम प्राकृतिक प्रकोप, मानसून असन्तुलन, ओजोन छिद्र और ग्लोबल वाा\मग के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। आज हम इस विषय पर सोचने लगे हैं, ये सब वे कार्य हैं जिन्हें हम हिंसा मानते ही नहीं थे।
पर्यावरण को सन्तुलित रखने वाले जानवरों और पशु—पक्षियों को भोजन की वस्तु बनाया जा रहा है, जीभ के स्वाद के लिए निरीह, मूक जीवों का कत्ल किया जा रहा है। मांस निर्यात हेतु रोज नये नये कत्लखाने खुल रहे हैं। यहाँ प्रश्न है, इतने विशाल स्तर पर होने वाली जीविंहसा तथा जीवों के करुण क्रन्दन और चीखों का असर हमारे पर्यावरण पर पड़े बिना वैâसे रह सकता है ? टाइम्स ऑफ इण्डिया के सम्पादकीय पृष्ठ पर एक ब्रिटिश रिसर्च के परिणाम प्रकाशित हुए हैं, जिसमें यह सिद्ध किया गया है कि ग्लोबल वाा\मग (निरन्तर बढ़ते हुए तापमान) के लिए ये बूचड़खाने और माँसाहार जिम्मेदार हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिकी के तीन प्राध्यापकों डॉ. मदनमोहन बजाज, डॉ. इब्राहीम तथा डॉ. विजयराज िंसह ने स्पष्ट गणितीय वैज्ञानिक गवेषणाओं के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दुनिया भर में होने वाली समस्त प्राकृतिक आपदाओं सूखा, बाढ़, भूकम्प, चक्रवात का कारण हिंसा और हत्याएँ हैं।
गरीबों का शोषण एवं गर्भपात जैसी हिंसा से भी हम पाप के भागीदार तो बन ही रहे हैं, साथ ही अपने पर्यावरण को प्रदूषित करके वातावरण को हिंसक बना रहे हैं, जिसका सीधा असर मनुष्य की सुख—शान्ति पर पड़ता है। मनुष्य जैसा खाएगा, वैसा ही सोचेगा।
बहुत पुरानी कहावत है—‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन।’ मनुष्य अण्डा—माँस खाएगा, मद्यपान करेगा तो उसकी मानसिक प्रवृत्ति भी हिंसक होगी। मनुष्य से ही परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व निर्मित होता है। मनुष्य का चरित्र गिरेगा तो वह हिंसक होगा फिर इसका प्रभाव परिवार, समाज, राष्ट्र एवं सम्पूर्ण विश्व पर भी पड़ेगा तथा जब विश्व हिंसक बनेगा तो उसका प्रभाव मानव जीवन और उसके अस्तित्व पर भी अवश्य पड़ेगा।
मानव की अस्मिता को सुरक्षित रखने के लिए हर हाल में हमें उसके मूलधर्म ‘अहिंसा’ की चेतना को जीवित रखना होगा क्योंकि अहिंसा रहेगी तो अस्तित्व रहेगा; अन्यथा विनाश को कोई रोक नहीं सकेगा।
हिंसा और उसके दुष्परिणामों को देखकर यह बात अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर की जाने लगी है कि यह विश्व प्राकृतिक दृष्टि से अखण्ड है। प्रत्येक जीवधारी उस अखण्डता का एक अविभाजित भाग है। किसी भी एक भाग को कष्ट होगा तो उसक सूक्ष्म दुष्प्रभाव सभी जीवधारियों पर पड़ेगा। अभी पर्यावरण के स्तर पर यह बात स्वीकार की जाने लगी है। विश्व की इस आन्तरिक व्यवस्था को अभी तक सिर्फ अध्यात्म समझ रहा था किन्तु विज्ञान भी इस तथ्य को समझने लगा है।
अहिंसा की दृष्टि सभी जीवधारियों को समान दृष्टि से देखती है। आज अहिंसा के स्वर को मात्र शास्त्रों के आधार पर प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता, उसके लिए हमें अनेक तर्क जुटाने होंगे। इस काम में विज्ञान हमारी मदद कर सकता है।