विज्ञानमय सहज, सरल, सुन्दर एवं रस पूरित बनाने के लिए गहन तत्त्वज्ञान के साथ—साथ कला का ज्ञान होना अनिवार्य है। संसारी जीव प्रतिदिन के तनावपूर्ण व्यस्त जीवन को लालित्य कला के माध्यम से सहज—सरल—सुन्दर—सरसरूप बनाते हैं। संगीत आदि कला से तनाव, मानसिक रोग, शारीरिक रोग दूर होने के साथ मनोरंजन होता है एवं वातावरण परिशुद्ध होता है। इसलिये जब से मानव संस्कृति सभ्यता है तब से कला का प्रचलन सततरूप से प्रवाहमान है।
प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने के बाद ज्ञात होता है कि अति प्राचीन काल (चतुर्थ काल, सतयुग) में ऋषभनाथ भगवान ने गृहस्थावस्था में ब्राह्मी को अक्षर—लिपि—कला और सुन्दरी को अंक—लिपि—कला तथा भरत, बाहुबली आदि पुत्रों को अर्थशास्त्र, राजनीति, नाट्य आदि कलाओं का प्रशिक्षण दिया था। इसका वर्णन आदिपुराण में निम्न प्रकार पाया जाता है—
इत्युक्त्वा मुहुराशास्य विस्तीर्णे हेम पट्टके।
अधिवास्य स्वचित्तस्थां श्रुतदेवी सपर्यया।।१०३।।
विभु: करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम्।
उपादिशल्लिपि संख्यास्थानं चाजैरनुक्रमात्।।१०४।।
भगवान ऋषभदेव ने ऐसा कहकर तथा उन्हें बार—बार आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित किया, फिर दोनों हाथों से अ आ आदि वर्णमाला उन्हें लिपि (लिखने का) उपदेश दिया और अनुक्रम इकाई, दहाई आदि अंकों के द्वारा उन्हें संख्या के ज्ञान का भी उपदेश दिया। ऐसी प्रसिद्धि है कि भगवान् ने दाहिने हाथ से वर्णमाला और बायें हाथ से संख्या लिखी थी।
ततो भगवतो वक्त्रान्नि:सृतामक्षरावलीम्।
सिद्धं नम इति व्यक्तमङ्गलां सिद्धमातृकाम्।।१०५।।
आकारादिहकारान्तां शुद्धां मुक्तावलीमिव।
स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा भेदमुपेयुषीम्।।१०६।।
अयोगवाहपर्यन्तां सर्वविद्यासुसंतताम्।
संयोगाक्षरसंभूिंत नैकबीजाक्षरैश्चिताम्।।१०७।।
समवादीधरद् बाह्मी मेधाविन्यति सुन्दरी।
सुन्दरी गणितं स्थानक्रमै: सम्यगधारयत्।।१०८।।
तदन्तर जो भगवान के मुख से निकली हुई है, जिसमें ‘‘सिद्धं नम:’’ इस प्रकार का मंगलाचरण अत्यन्त स्पष्ट है, जिसका नाम सिद्धमातृका है, जो स्वर और व्यंजन के भेद से भेदों को प्राप्त है, जो समस्त विद्याओं में पायी जाती है, जिसमें अनेक संयुक्त अक्षरों की उत्पत्ति है, जो अनेक बीजाक्षरों से व्याप्त है और जो शुद्ध मोतियों की माला के समान है ऐसे अकार को आदि लेकर हकार पर्यंत तथा विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय इन अयोगवाह पर्यन्त समस्त शुद्ध अक्षरावली को बुद्धिमती ब्राह्मी पुत्री ने धारण किया और अतिशय सुन्दर सुन्दरी देवी ने इकाई, दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणितशास्त्र को अच्छी तरह धारण किया।
मानवीय सभ्यता संस्कृति एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए शिक्षा का योगदान सबसे महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार अशुद्ध सुवर्ण पाषाण अग्नि से संस्कारित होकर, विशुद्ध, चमकदार, मूल्यवान एवं बहुउपयोगी हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य शिक्षा द्वारा सुसंस्कृत होकर विशुद्ध, ज्ञानवान, तेजवान, चारित्रवान एवं बहुआयामी हो जाता है। नीतिकारों ने बताया है—
‘‘विद्या-विहीना पशुभि: समाना:’’
विद्या से हीन मनुष्य पशु के समान है। मनुष्य को पशु—स्तर से ऊपर उठाकर मानव, महामानव एवं भगवान् बनने के लिए विद्या की नितान्त आवश्यकता है।
भोगभूमिज मनुष्य स्व्यभाविक, अनुकूल परिस्थिति एवं सुलभ प्राप्त जीवनोपयोगी सामग्रियों के कारण जीवन क्षेत्र में विशेष संदर्भ नहीं करते थे। वे लोग स्वभावत: पूर्वजन्म के संस्कार से सदाचारी नीतिवान थे। उस समय में सामाजिक राष्ट्रीय संगठन भी नहीं था।
(१) सहज प्राप्त जीवनोपयोगी सामग्रियों के कारण,
(२) सामाजिक राष्ट्रीय आदि संगठन के अभाव के कारण,
(३) स्वाभाविक नैतिक एवं सदाचार के कारण,
(४) जीवन क्षेत्र में विभिन्न संघर्षों के अभाव के कारण भोगभूमि काल में दूसरों से प्राप्त शिक्षा की विशेष आवश्यकता न होना स्वाभाविक भी था।
कर्मभूमि प्रवेश के प्राथमिक चरण में भोगभूमि की समस्त परिस्थिति परिवर्तित हो चली। उस समय में काल, परिस्थिति परिवर्तन के साथ—साथ सहज प्राप्त जीवनोपयोगी सामग्री ह्रास होती चली गई। स्वतन्त्रता पूर्ण, व्यक्तिगत जीवन समाप्त होकर सामाजिक जीवन क्रमश: वृिंद्धगत हो रहा था। इस परिस्थिति में मनुष्य को नैतिक, सदाचारी, ज्ञानी, संगठन प्रिय एवं युगानुकूल आगे अग्रसर होने के लिये शिक्षा की आवश्यकता नितान्त अनिवार्य थी। उस काल के इस भूखण्ड के महाज्ञानी, दूरदृष्टि सम्पन्न ऋषभदेव ने उपरोक्त दृष्टिकोण को लेकर शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार करने के लिए अपने घर (या परिवार) से ही प्रारम्भ किया, क्योंकि व्यक्ति से, परिवार से, समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। इसलिए व्यक्ति तथा परिवार को शिक्षित, सभ्य, नैतिक बनाना ही समाज एवं राष्ट्र को शिक्षित, नैतिक बनाना है।
भगवान आदिनाथ के दो पुत्रियाँ एवं सौ पुत्र थे। जब ब्राह्मी एवं सुन्दरी शैशव अवस्था का अतिक्रम करके कुमारी अवस्था में पदार्पण कर रही थीं तब ऋषभदेव ने दोनों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए योग्य पात्र समझकर दोनों को विद्या शिक्षा प्रदान की। ब्राह्म्ाी कुमारी को आदिनाथ ने ‘अ, आ’ आदि स्वर-व्यंजनात्मक वर्णमाला की पद्धति सिखाकर अक्षर विद्या सिखलायी। सुन्दरी को १, २ आदि संख्या के माध्यम से अंक विद्या सिखलायी। इसी प्रकार अत्यन्त ही प्राचीन काल से स्त्री शिक्षा के साथ—साथ अंकाक्षर विद्या प्रारम्भ हुई। वह काल आधुनिक भाषा में कहने पर प्रागैतिहासिक काल होगा जो कि ईसा पूर्व अनेक अरबों—खरबों वर्ष पहले है। कुछ आधुनिक विद्वानों का मत है कि अंकाक्षर विद्या कुछ हजार वर्ष पहले प्रारम्भ हुई। परन्तु जैन, बौद्ध, हिन्दू आदि वाङ्मय के अध्ययन से सिद्ध होता है कि अंकाक्षर विद्या का प्रारम्भ अत्यन्त ही प्राचीन काल में हुआ है।
वर्तमान संसार में प्राय: चार सौ प्रधान लिपियाँ प्रचलित हैं। आधुनिक विद्वानों के मतानुसार ईसा पू. १००वीं सदी में वर्णमालात्मक लिपियाँ प्रारम्भ हुईं। आधुनिक विद्वानों का मत है कि २५००० वर्ष पूर्व ‘क्रो. मेगनाल्’ मानव गुफा में रहते थे एवं गुफा की दीवारों में चित्र बनाते थे। इस चित्र के माध्यम से ही लिपियों का प्रारम्भिक सूत्रपात हुआ। १०,००० वर्ष पहले सभ्य मानव का विकास हुआ। एशिया के पश्चिमी तट पर ईसा पूर्व २००० में ‘सेमेटिक’ भाषा परिवार की एक अक्षरमालात्मक लिपि उत्पन्न हुई जो कि प्राचीनतम लिपि है। १००० वर्ष ईसा पूर्व में व्यंजनात्मक या वर्ण मालात्मक लिपिरूप ‘सेमेटिक लिपि’ परिवर्तित हो जाती है। प्राचीन ‘सुमेरी लिपि’ परिवर्तित होकर ईसा पूर्व ८०० में ब्राह्मी लिपिरूप में परिवर्तित हुई। इस ब्राह्मी लिपि से ही पूर्ण भारतीय एवं तिब्बती िंसहली आदि लिपियाँ उत्पन्न हुईं। आधुनिक विज्ञान के मतानुसार सर्वप्रथम चित्रलिपि हुई। उसके उपरान्त लिपि क्रम विकसित होकर भाव चित्रलिपि में परिणमन हुए। काल—क्रम से परिवर्तित संवर्द्धित होकर भाव चित्रलिपि ध्वनि संकेतरूप में परिणमन हो गई। अनेक काल परिवर्तन के बाद जो विशेष परिवर्तितरूप हुआ, वह अक्षरात्मक लिपि है। यह अक्षरात्मक लिपि ही सभ्य भाषा के लिए बीज स्वरूप है। समस्त साहित्यरूपी विशाल भवन इस अक्षरात्मक ईंट से निर्मित हुआ है। यह अकारात्मक लिपि ही संयुक्त होकर अन्तिम विकसित लिपि वर्णमालात्मक लिपि में परिवर्तित हो जाती है।
१. लिपि निर्माता—हिन्दू धर्म की अपेक्षा ‘ब्रह्मा’ ब्राह्मी लिपि का निर्माता है। प्राचीन मिस्र की अपेक्षा ‘थोत् देव’ लिपि का निर्माता है। बेबीलोन की अपेक्षा ‘नेवी देवता’ लिपि का निर्माता है। प्राचीन यहूदी की अपेक्षा पैगम्बर ‘मूसा’ लिपि का निर्माता था। इस्लाम धर्म की अपेक्षा ‘अल्लाह’ ने लिपि निर्माण करके आदम को समर्पण किया था। यूनानी लोग ‘हेर्मेस’ को लिपि का निर्माता मानते हैं। जैनधर्म की अपेक्षा आदिनाथ, आदिब्रह्मा, ऋषभदेव ने लिपि की शिक्षा पहले ब्राह्मी कुमारी को दी थी।
उपरोक्त आधुनिक शोध से एवं प्राचीन साहित्यों के मंथन से यह निष्कर्ष निकलता हैं कि प्रचलित सम्पूर्ण वर्णमालात्मक लिपि में ब्राह्मी लिपि सबसे प्राचीनतम लिपि है। लिपि विद्या से ही मानवीय संस्कृति एवं सभ्यता विशेष उन्नत हुई हैं।
आधुनिक गणितज्ञ एवं विद्वान् लोग मुक्त कंठ से स्वीकार करते हैं कि अनेक विद्या एवं गणित का प्रारम्भ सर्वप्रथम भारत में हुआ था। शून्य एवं १, २, ३ आदि ९ तक इकाई संख्याओं का आविष्कार भारत में हुआ था। इटली, ग्रीक आदि देशों में चित्र, संकेत लिपि में संख्या एवं गणित विद्या का प्रचलन था। भारतीय पद्धति के अनुसार जिस वृहत्तम संख्या को आधा लाइन में लिख सकते हैं उसको इटेलियन के अनुसार लिखने पर आठ—दस लाइन अथवा आधा—एक पृष्ठ लगेगा।
न बिना वाङ्मयात् किंचिदस्ति शास्त्रं कलापि वा।
ततो वाङ्मयमेवादौ वेधास्ताभ्यामुपादिशत्।।२०९।।
आ० पु० पर्व १६ पृ० ३५६
वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है इसलिए भगवान् वृषभदेव ने सबसे पहले उन पुत्रियों के लिये वाङ्मय का उपदेश दिया था।
सुमेधसावसंमोहादध्येषातां गुरोर्मुखात्।
वाग्देव्याविव निश्शेषं वाङ्मयं ग्रंथतोऽर्थत:।।२२०।।
अत्यन्त बुद्धिमती उन कन्याओं ने सरस्वती देवी के समान अपने पिता के मुख से संशय, विपर्यय आदि दोषों से रहित शब्द तथा अर्थरूप समस्त वाङ्मय का अध्ययन किया था।
पदविद्यामधिच्छन्दोविचििंत वागलंकृत्तिम्।
त्रयीं समुदितामेतां तद्विदो वाङ्मयं विदु:।।२२१।।
वाङ्मय के जानने वाले गणधरादि देव व्याकरण शास्त्र, छन्दशास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं।
तदा स्वायंभुवं नाम पदशास्त्रमभूत् महत्।
यत्तत्परशताध्यायैरतिगम्भीरमब्धिवत्।।२२२।।
उस समय स्वयम्भू अर्थात् भगवान् वृषभदेव का बनाया हुआ एक बहुत भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्ध हुआ था उसमें सौ से अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर था।
छन्दोविचितिमप्येवं नानाध्यायैरूपादिशत्।
उक्तात्युक्तादिभेदांश्च षड्िंवशतिमदीदृशत्।।२२३।।
इसी प्रकार उन्होंने अनेक अध्यायों में छन्दशास्त्र का भी उपदेश दिया था और उसके उक्ता, अत्युक्ता आदि छब्बीस भेद भी दिखलाये थे।
प्रस्तारं नष्टमुद्दिष्टमेकाद्वित्रिलघुक्रियाम्।
संख्यामथाधवयोगं च व्याजहार गिरांपति:।।२२४।।
अनेक विद्याओं के अधिपति भगवान् ने प्रस्तार, नष्ट, उदिष्ट, एकद्वित्रिलघुक्रिया, संख्या और अध्वयोग छन्दशास्त्र के छह प्रत्ययों का भी निरूपण किया था।
उपमादीनलंकारास्तन्मार्ग द्वयविस्तरम्।
दश प्राणानलंकारसंग्रहे विभुरभ्यधात्।।२२५।।
भगवान् ने अलंकारों का संग्रह करते समय अथवा अलंकार संग्रह ग्रंथ में उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकारों का कथन किया था, उनके शब्दालंकार और अर्थालंकाररूप दो मार्गों का विस्तार के साथ वर्णन किया था और माधुर्य, ओज आदि दस प्राण अर्थात् गुणों का भी निरूपण किया था।
अथानन्तर ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों की पदज्ञान (व्याकरणज्ञान) रूपी दीपिका से प्रकाशित हुई समस्त विद्यायें और कलायें अपने आप ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो गयी थीं। इस प्रकार गुरु अथवा पिता के अनुग्रह से जिसने समस्त विद्याएँ पढ़ ली हैं ऐसी वे दोनों पुत्रियाँ सरस्वती देवी के अवतार लेने के लिये पात्रता को प्राप्त हुई थीं। वे इतनी अधिक ज्ञानवती हो गयी थीं कि साक्षात् सरस्वती भी उनमें अवतार ले सकती थीं।
पुरुष शिक्षा
पुत्राणां च यथाम्नायं विनया दानपूर्णकम्।
शास्त्राणि ब्याजहारैवमानुपूर्व्या जगद्गुरु:।।१२८।।
जगद्गुरु भगवान् वृषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार अनेक शास्त्र पढ़ाये।
भरतायार्थं शास्त्रं च भरतं च ससंग्रहम्।
अध्यायैरतिविस्तीर्णै: स्फुटीकृत्य जगौ गुरु:।।१२९।।
भगवान ने भरत पुत्र के लिये अत्यन्त विस्तृत बड़े—बड़े अध्यायों से स्पष्ट कर अर्थशास्त्र और संग्रह (प्रकरण) सहित नृत्यशास्त्र पढ़ाया था।
विभुवृषभसेनाय गीतवाद्यर्थं संग्रहम्।
गंधर्व-शास्त्रमाचख्यौ यत्राध्याया: परश्शतम्।।१२०।।
स्वामी वृषभदेव ने अपने पुत्र वृषभसेन के लिए जिसमें गाना, बजाना आदि अनेक पदार्थों का संग्रह है और जिसमें सौ से भी अधिक अध्याय हैं, ऐसे गन्धर्व शास्त्र का व्याख्यान किया था।
अनन्तर्विजयायाख्यद् विद्यां चित्रकलाश्रिताम्।
नानाध्यायाशताकीर्णां सकला: कला।।१२१।।
अनन्त विजय पुत्र के लिए नाना प्रकार के सैकड़ों अध्यायों से भरी हुई चित्रकला सम्बन्धी विद्या का उपदेश दिया और लक्ष्मी या शोभासहित समस्त कलाओं का निरूपण किया।
विश्वकर्ममतं चास्मै वास्सुविद्यामुपादिशत्।
अध्यायविस्तरस्तत्र बहुभेदोऽवधारित:।।१२२।।
इसी अनन्तविजय पुत्र के लिये उन्होंने सूत्रधार की विद्या तथा मकान बनाने की विद्या का उपदेश दिया। उस विद्या के प्रतिपादक शास्त्रों में अनेक अध्यायों का विस्तार था उसके अनेक भेद थे।
कामनीतिमथ स्त्रीणां पुरुषाणां च लक्षणम्।
आयुर्वेदं धनुर्वेदं तन्त्रं चारवेभगोचरम्।।१२३।।
तथा रत्नपरीक्षां च बाहुबल्यारब्यसूनवे।
व्याचरब्यौ बहुधाम्नातैर ध्यायैरतिविस्तृतै:।।१२४।।
बाहुबली पुत्र के लिये उन्होंने कामनीति, स्त्री—पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा—हाथी आदि के लक्षण जानने के तन्त्र और रत्न परीक्षा आदि के शास्त्र अनेक प्रकार के बड़े—बड़े अध्यायों के द्वारा सिखलाए।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रं लोकोपकारि यात्।
तत्सर्वमादिकर्त्तासौ स्वा: समन्वशिषत् प्रजा:।।१२५।।
इस विषय में अधिक कहने से क्या प्रयोजन है ? संक्षेप में इतना ही बस है कि लोक का उपकार करने वाले जो—जो शास्त्र थे भगवान आदिनाथ ने वे सब अपने पुत्रों को सिखलाये थे।
(१) लिखित, (२) पठित, (३) गणित, (४) वैधके, (५) नृत्य, (६) वक्तव्य, (७) वाथा, (८) वचन, (९) नाटक, (१०) अलंकार, (११) दर्शन, (१२) ध्यान, (१३) धर्मकथा, (१४) अर्थकला, (१५) काम, (१६) वाटकला, (१७) वृद्धिकला, (१८) शोचकला, (१९) व्यापार कला, (२०) नेपथ्य कला, (२१) विलास, (२२) नीति, (२३) शकुन, (२४) क्रीडन, (२५) वितन्यात् , (२६) हस्तताप, (२७) द्यूतकला, (२८) कुसुमकला, (२९) इन्द्रजाल, (३०) विनयकला, (३१) स्नेह, (३२) पानक, (३३) संयोग कला, (३४) हास्य, (३५) सौभाग्य (३६) प्रयोग, (३७) गन्धर्व, (३८) वस्तु, (३९) वाणिज्य, (४०) रत्न, (४१) पात्र, (४२) देशक, (४३) भाषक, (४४) विधाक, (४५) विनय, (४६) अग्नु, (४७) दाध, (४८) समस्त, (४९) वर्ण, (५०) हस्थि, (५१) अष्टक, (५२) पुरुष, (५३) नारी, (५४) भोज्य, (५५) पक्ष, (५६) भूमि, (५७) लेषं, (५८) कष्ट, (५९) वृष, (६०) छद्म, (६१) सद्म, (६२) हरल, (६३) उत्तर, (६४) प्रतिउत्तर, (६५) शरीर, (६६) सत्त्व, (६७) साध, (६८) धैर्य, (६९) पत्रच्छेद, (७०) चित्र, (७१) भाण, (७२) इर्या।
प्राचीन काल में विभिन्न प्रकार की कलाएँ अपनी चरम सीमा पर पहुँची थीं। कलाओं का प्रचार—प्रसार, शिक्षा आदि भारतवर्ष में प्राचीन काल में बहुत ही उन्नत प्रकार का होता था। विशेष करके बालिकाएँ, महिलायें, संगीत, चित्र, नृत्य आदि कलाओं में विशेष रुचि लेती थीं और पारंगत भी थीं। कुछ कुमारिकायें युद्ध—विद्या, अस्त्र—शिक्षा, अश्वारोहण आदि कलाओं में भी दक्ष थीं। बालक, युवक, पुरुष लोग विशेष करके युद्ध विद्या, मल्ल—युद्ध, रथ—चालन, रत्न परीक्षा आदि में दक्षता प्राप्ति के साथ—साथ नृत्य, संगीत आदि ललित कलाओं में भी दक्षता प्राप्त करते थे। वर्तमान में प्राचीन सम्पूर्ण कलाओं का प्रचार—प्रसार शिक्षा आदि प्रभाव के साथ—साथ उनकी परिभाषा भी लोपप्राय: हो गयी है। इसीलिये उनकी परिभाषा प्राप्त करना भी कष्ट साध्य है। अत: यहाँ पर कतिपय कलाओं के बारे में ही वर्णन किया जा रहा है—
१. लिखित—भाषा को जिस माध्यम से अनेक प्रकार, फलक, पत्र, कागज आदि में लिपिबद्ध किया जाता है उस कला को लिखित कला या लिपि कला कहते हैं। जो लिपि अपने देश में आमतौर से चलती है उसे अनुवृत्त व्ाâहते हैं। लोग अपने—अपने संकेतानुसार जिसकी कल्पना कर लेते हैं उसे विकृत कहते हैं। प्रत्यंग आदि वर्णों में जिसका प्रयोग होता है उसे सामायिक कहते हैं और वर्णों के बदले पुष्पादि पदार्थ रखकर जो लिपि का ज्ञान किया जाता है उसे नैमित्तिक कहते हैं।
२. नृत्य कला—नृत्य के तीन भेद हैं तथा इसके अन्य अनेक अवान्तर भेद हैं।
३. नाटक—गीत, नृत्य और वादित्र इन तीनों का एक साथ होना नाटक कहलाता है। शृंगार, हास्य, करुणा, वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र, वीभत्स और शान्त ये नौ रस होते हैं।
४. संगीत—जो कण्ठ, सिर और उरस्थल इन तीनों स्थानों से अभिव्यक्त होता था तथा नीचे लिखे सात स्वरों में समवेत रहता था। षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद ये सात स्वर कहलाते हैं। जो द्रुत, मध्य और विलम्बित इन तीनों लयों से सहित था तथा अस्त्र और चतुरस इन ताल की दो योनियों को धारण करता था। स्थायी, संचारी, आरोही और अवरोही इन चार प्रकार के पदों में स्थित था। प्रातिपादिक तिड़न्त, उपसर्ग और निपातों में संस्कार को प्राप्त संस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी यह तीन प्रकार की भाषा जिसमें स्थित थी। धवैती, आर्षभी, षड्ज—षड्जा, उदीच्या, निषादिनी, गान्धारी, षड्ज कैकशी और षड्ज मध्यमा ये आठ जातियाँ हैं अथवा गान्धारोदीच्या, मध्यमपंचमी, गान्धार पञ्चमी, रक्तगान्धारी, मध्यमा, आन्ध्री, मध्यमोदीच्या, कर्माखी, नन्दिनी और वैशिक ये दस जातियाँ हैं। संगीत इन आठ अथवा दस जातियों से युक्त था। प्रसन्नादि प्रसन्नान्त, मध्य प्रसाद और प्रसन्नाधवसान ये चार स्थायी पद के अलंकार हैं। निर्वृत, प्रस्थित, बिन्दु प्रेखोलित, तार—मन्द्र और प्रसन्न ये छ: संचारी पद के अलंकार हैं। आरोही पद का प्रसन्नादि नाम का एक ही अलंकार है और अवरोही पद के प्रसन्नात तथा कुहर ये दो अलंकार हैं। इस तरह तेरह अलंकार हैं सो इन सब लक्षणों से सहित उत्तम संगीत है।
५. वाद्य कला—तन्त्री अर्थात् वीणा से उत्पन्न होने वाले तत, मृदंग से उत्पन्न होने वाला अवनद्ध, बाँसुरी से उत्पन्न होने वाला शुषिर और ताल से उत्पन्न होने वाला घन ये चार प्रकार के वाद्य हैं। ये सभी वाद्य नाना भेदों से सहित हैं।
६. वक्तव्यकला—वक्तव्य नाम की कला है। इसका दूसरा नाम उक्ति कौशल हैं स्थान, स्वर, संस्कार, विन्यास, काकु, समुदाय, विराम, सामान्य निहित, सामानार्थत्व और भाषा ये जातियाँ कही गयी हैं। इनमें से उरस्थल, कण्ठ और मूर्च्छा के भेद से स्थान तीन प्रकार का माना गया है। स्वर के षड्ज आदि सात भेद पहले कह ही आए हैं। लक्षण और उद्देश्य अथवा लक्षणा और अभिधा की अपेक्षा संस्कार दो प्रकार का कहा गया है। पदवाक्य और महावाक्य आदि के विभाग सहित जो कथन है वह विन्यास कहलाता है। सापेक्ष और निरपेक्ष की अपेक्षा काकु दो भेदों से सहित है। गद्य, पद्य और मिश्र अर्थात् चम्पू की अपेक्षा समुदाय तीन प्रकार का कहा गया है। किसी विषय का संक्षेप में उल्लेख करना विराम कहलाता है। एकार्थक अर्थात् पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना सामान्यनिहित कहा गया है। एक शब्द के द्वारा बहुत अर्थ का प्रतिपादन करना समानार्थता है। आर्य, लक्षण और मलेच्छ के नियम से भाषा तीन प्रकार की कही गयी है। इनके सिवाय जिसका पद्यरूप व्यवहार होता है उसे लेख कहते हैं। ये सब जातियाँ कहलाती हैं। व्यक्तवाक्, लोकवाक् और मार्ग व्यवहार ये मातृकायें कहलाती हैं। इन सब भेदों के भी अनेक भेद हैं जिसे विद्यजन जानते हैं। इन सबसे सहित जो भाषण, चातुर्य है उसे वक्तव्यकला कहते हैं।
७. चित्रकला—नाना शुष्क और वर्जित के भेद से शुष्क चित्र दो प्रकार का कहा गया है तथा चन्दनादि के द्रव्य से उत्पन्न होने वाला आद्रचित्र अनेक प्रकार का है। कृत्रिम और अकृत्रिम रंगों के द्वारा पृथ्वी, जल तथा वस्त्र आदि के ऊपर इनकी रचना होती है। यह अनेक रंगों के सम्बन्ध से संयुक्त होता है।
८. पुस्तकर्म—क्षय, उपचय और सक्रम के भेद से पुस्तकर्म तीन प्रकार का होता है। लकड़ी आदि को छीलकर जो खिलौना आदि बनाया जाता है उसे क्षयजन्य पुस्तकर्म कहते हैं। ऊपर से मिट्टी आदि लगाकर जो खिलौने बनाये जाते हैं उसे उपचयजन्य पुस्तकर्म कहते हैं तथा जो प्रतिबिम्ब अर्थात् साँचे आदि गढ़कर बनाए जाते हैं उसे संक्रमजन्य पुस्तकर्म कहते हैं। यह पुस्तकर्म यन्त्र, निर्यन्त्र, सच्छिद्र तथा निश्छिद्र आदि के भेदों से सहित हैं अर्थात् कोई खिलौने यन्त्र चलित होते हैं और कोई बिना यन्त्र के होते हैं। कोई छिद्र सहित होते हैं कोई छिद्र रहित।
९. पत्रच्छेद—पत्रच्छेद के तीन भेद हैं—बुष्किम, छिन्न, अछिन्न सूई अथवा दन्त आदि के द्वारा जो बनाया जाता है उसे बुष्किम कहते हैं। जो वैंâची से काटकर बनाया जाता है तथा जो अन्य अवयवों के सम्बन्ध से युक्त होता है उसे छिन्न कहते हैं। जो वैंâची आदि से काटकर बनाया जाता है तथा जो अन्य अवयवों के सम्बन्ध से रहित होता है उसे अछिन्न कहते हैं। यह पत्रच्छेद क्रिया पत्र, वस्त्र तथा सुवर्णादि के ऊपर की जाती हैं तथा स्थिर और चंचल दोनों प्रकार की होती है।
१०. माला निर्माण की कला—आर्द्र, शुष्क, तदुन्मुक्त और मिश्र के भेद से माला निर्माण की कला चार प्रकार की है। इसमें से गीले अर्थात् ताजे पुष्पादि से जो माला बनायी जाती है उसे आर्द्र कहते हैं। सूखे पत्र आदि से जो माला बनायी जाती है उसे शुष्क कहते हैं। चावलों के सींक अथवा जवाँ से जो बनाई जाती है उसे शुष्क कहते हैं। चावलों वâे सींक अथवा जवाँ से जो बनाई जाती है उसे तदुज्झित कहते हैं और जो उक्त तीनों चीजों के मेल से बनता है उसे मिश्र कहते हैं। यह माल्यकर्म रणप्रबोधन, व्यह—संयोग आदि भेदों से सहित होता है।
११. सुगन्धित पदार्थ निर्माणकला—योनिद्रव्य, अधिष्ठान, रस, वीर्य, कल्पना परिक्रम, गुण—दोष, विज्ञान तथा कौशल ये गन्ध योजना अर्थात् सुगन्धित पदार्थ निर्माणकला के अंग हैं। जिनसे सुगन्धित पदार्थ का निर्माण होता है ऐसे तगर आदि योनिद्रव्य हैं। जो धूपबत्ती आदि का आश्रय है उसे अधिष्ठान कहते हैं। कषायला, मधुर, चरपरा, कड़वा और खट्टा यह पाँच प्रकार का रस है। जिसका सुगन्धित द्रव्य में खासकर निश्चित करना पड़ता है। पदार्थों की जो शीतलता अथवा उष्णता है वह दो प्रकार का वीर्य है। अनुकूल—प्रतिकूल पदार्थों का मिलाना कल्पना है। तेल आदि पदार्थों का शोधना तथा धोना आदि परिकर्म कहलाता है। गुण अथवा दोष को जानना सो गुण—दोष विज्ञान है और परकीय तथा स्वकीय वस्तु की विशिष्टता जानना कौशल है। यह गन्ध योजना की कला स्वतन्त्र और अनुगत के भेद से सहित है।
१२. रत्न—वङ्का अर्थात् हीरा, मोती, वैडूर्य (नीलम), सुवर्ण, रजतायुध तथा वस्त्र—शंखादि रत्नों के लक्षण हैं।
१३. आस्वाद्य विज्ञान—भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और चुष्य के भेद से भोजन सम्बन्धी पदार्थों के पाँच भेद हैं। इनमें से जो स्वाद के लिये खाया जाये उसे भक्ष्य कहते हैं। यह कृत्रिम और अकृत्रिम के भेद से दो प्रकार का होता है। जो क्षुधा निवृत्ति के लिये खाया जाता है उसे भोज्य कहते हैं। इनके भी मुख्य और साधक की अपेक्षा दो भेद हैं—भोजन, रोटी आदि मुख्य भोज्य हैं और लस्सी, दाल, शाक आदि साधक भोज्य हैं। शीतयोग (शर्बत) जल और मद्य (मधुर रस) के भेद से पेय तीन प्रकार का कहा गया है। इन सबका ज्ञान होना आस्वाद्य विज्ञान है।
१४. वस्त्र रंगना—वस्त्र पर धागे से कढ़ाई का काम करना तथा वस्त्र को अनेक रंग विरंग से रंगित करना वस्त्र कला है।
१५. शिल्प कला—लोहा, हाथी दाँत आदि लाख, क्षार, पत्थर तथा सूत आदि से विभिन्न प्रकार के सुन्दर उपकरणों का निर्माण करना शिल्प कला कहलाती हैं।
१६. गणित कला—मेय, देश, तुला और काल के भेद से मान चार प्रकार का है। प्रस्थ आदि के भेद से मेय के अनेक भेद हैं। वितस्ति, हाथ (फीट, मीटर, गज आदि) देशमान हैंं। पल, छटाँक, सेर, ग्राम, किलोग्राम, मन, टन आदि तुलामान हैं। समय, घड़ी, घण्टा, सेकिण्ड, मिनट, दिन, सप्ताह, महीना, वर्ष आदि कालमान हैं। वह मान आरोह, परीणाह तिर्यंक गौरव और क्रिया से उत्पन्न होता है। यह सब गणित कला में गर्भित है।
१७. भूति कला—बेल बूटा खिंचने की कला को भूतिकला कहते हैं।
१८. निधि ज्ञान कला—गड़े हुए धन, दौलत, रुपया, चाँदी, रत्न आदि का ज्ञान करना निधिज्ञान—कला है।
१९. व्यापार कला—विभिन्न प्रकार के क्रय-विक्रय वाणिज्य आदि के ज्ञान को व्यापार कला कहते हैं।
२०. जीव—विज्ञान कला—विभिन्न प्रकार के जीवों का शोध—बोध करना जीव विज्ञान कला है।
२१. चिकित्सा—विज्ञान कला—मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की चिकित्सा को चिकित्सा विज्ञान कला कहते हैं।
२२. विमोहन कला—विमोहन अर्थात् मूर्छा को विमोहन कला कहते हैं—(१) मायाकृत, (२) पीड़ा अथवा इन्द्रजालकृत, (३) मन्त्र तथा औषधि द्वारा विमोहन किया जाता है।
२३. वादकला—मिथ्यादृष्टि, पाखण्डी, अज्ञानी, स्वार्थान्ध द्वारा प्रतिपादित कल्पित मिथ्या मतों को तर्क, युक्ति द्वारा स्याद्वाद, अनेकान्त द्वारा निरसन करना वाद कला कहलाती है।
२४. क्रीड़ा कला—चेष्टा, उपकरण, वाणी और कला व्यासंग के भेद से क्रीड़ा चार प्रकार की है। (१) शरीर से उत्पन्न होने वाली क्रीड़ा चेष्टा है। (२) गेंद आदि से खेलना उपकरण है। (३) नाना प्रकार के सुभाषित नीतिवाक्य आदि कहना वाणी क्रीड़ा हैं। (४) विनोद प्रिय क्रीड़ा करना कला—व्यासंग क्रीड़ा है।
२५. लोकज्ञता कला—आश्रित और आश्रय के भेद से लोक दो प्रकार का है। जीव और अजीव आश्रित है तथा पृथ्वी आदि उसके आश्रय हैं। इस लोक में जीव की विभिन्न अवस्था, गति, योनि में जन्म लेना, वृद्धि होना आदि लोकज्ञता कला है। विश्व के अन्तर्गत पृथ्वी, द्वीप, समुद्र, ग्रह, नक्षत्र आदि को जानना भी लोकज्ञता कला हैं।
२६. संवाहन कला—संवाहन कला दो प्रकार की है—एक कर्मसंश्रया और दूसरी शच्योपचारिका। (१) त्वचा, (२) माँस, (३) अस्थि, (४) मन। इन चारों को सुख पहुँचाने के कारण कर्मसंश्रया के चार भेद हैं—
(१) त्वचा संवाहन—जिस वाहन से केवल त्वचा को सुख मिलता है उसे त्वचा संवाहन कहते हैं। इसको मृदु अथवा सुकुमार कहते हैं।
(२) माँस संवाहन—जिससे चर्म अथवा माँस को सुख प्राप्त होता है उसे माँस संवाहन कला कहते हैं। यह मध्यम कला है।
(३) अस्थि संवाहन कला—जिससे त्वचा, माँस और अस्थि को सुख मिलता है उसको अस्थि संवाहन कला कहते हैं। यह प्रकृष्ट (श्रेष्ठ) कहलाता है।
(४) मन संवाहन कला—स्पर्श, माँस, अस्थि के साथ—साथ सुमधुर संगीत से मन प्रसन्न हो जाना उसको मन संवाहन कला कहते हैं। इस संवाहन में निम्नलिखित दोष भी हैं—(१) शरीर के रोम को उद्वर्त्तन करना, जिस स्थानों में माँस नहीं है वहाँ अधिक दबाना, केशाकर्षण, अद्भुत भ्रष्ट प्राप्त, अमार्ग प्रयात, अतिभुग्नक, अदेशाहत, अत्यर्थ और अवसुप्रप्रतीपक। जो इन दोषों से रहित है योग्य देश में प्रयुक्त हैं तथा अभिप्राय को जानकर किया गया है, ऐसा सुकुमार स्ांवाहन अत्यन्त शोभास्पद होता है। जो संवाहन क्रिया अनेक कारण अर्थात् आसनों से की जाती है वह चित्त को सुख देने वाली शय्योपचारिका नामक क्रिया जाननी चाहिये। अंग-प्रत्यंग से सम्बन्ध रखने वाली कला को मन संवाहन कला कहते हैं।
२७. वेष कौशल कला—स्नान करना, सिर के बाल गूँथना तथा उन्हें सुगन्धित आदि करना यह शरीर संस्कार वेष कौशल नाम की कला है।
२८. पठित कला—विभिन्न भाषाओं में लिखित साहित्यों का अध्ययन करना पठित कला है।
२९. वचन कला—विभिन्न भाषाओं के हितकर मनमोहक—प्रीतिकर वचन बोलना वचन कला है।
३०. अलंकार कला—विभिन्न छन्द, राग—रागिनी से गाना (गीत), निर्माण करना अलंकार कला है अथवा विभिन्न प्रकार के हार, नूपुर, कुण्डल, किरीट आदि बनाने को अलंकार कला भी कह सकते हैं अथवा सुन्दर रूप सजावट करना, अलंकृत करना आदि को अलंकार कला कहते हैं।
इसी प्रकार अन्य कलाओं के संदर्भ में जानना चाहिए।
सुन्दर मनोहर चातुर्यपूर्ण कार्य करने को भी कला कहते हैं। जल वाय्यग्नि संयोग निरोधैश्च क्रिया कला।
जल, वायु और अग्नि के संयोग से उत्पन्न वाष्प के निरोध से अनेक क्रियाओं का करना ‘कला’ है।
(१) ब्राह्मी, (२) खरोष्ठी, (३) पुष्करसारी, (४) अङ्गलिपि, (५) वङ्गलिपि, (६) मगधलिपि, (७) मंङ्गल्यलिपि, (८) अंगलीयलिपि, (९) शकारलिपि, (१०) ब्रह्मवलिलिपि, (११) पारूष्यलिपि, (१२) द्राविड़लिपि, (१३) किरातलिपि, (१४) दाक्षिण्यलिपि, (१५) उग्रलिपि, (१६) संख्यालिपि, (१७) अनुलोपलिपि, (१८) अवमूर्धलिपि, (१९) दरदलिपि, (२०) खाष्यलिपि, (२१) चीनलिपि, (२२) लूनलिपि, (२३) हूनलिपि, (२४) मध्याक्षरविस्तरलिपि, (२५) पुष्पलिपि, (२६) देवलिपि, (२७) नागलिपि, (२८) यक्षलिपि, (२९) गन्धर्वलिपि, (३०) किन्नरलिपि, (३१) महोरगलिपि, (३२) असुरलिपि, (३३) अन्तरिक्षदेवलिपि, (३४) मृगचक्रलिपि, (३५) वायसरूतलिपि, (३६) भौमदेवलिपि, (३७) गरुड़लिपि, (३८) उत्तरकुरुद्वीपलिपि, (३९) अपरगोदानीयलिपि, (४०) पूर्वविदेहलिपि, (४१) उत्क्षेपलिपि, (४२) निक्षेपलिपि, (४३) विक्षेपलिपि, (४४) प्रक्षेपलिपि, (४५) सागरलिपि, (४६) वङ्कालिपि, (४७) लेखप्रतिलेखलिपि, (४८) अनपद्रुतलिपि, (४९) शास्त्रावर्तलिपि, (५०) गणनावर्तलिपि, (५१) उत्पेक्षावर्तलिपि, (५२) निक्षेपावर्तलिपि, (५३) पादावर्तलिपि, (५४) द्विरूत्तरपदसंधिलिपि यावद्दशोत्तरपदसंधिलिपि, (५५) अध्याहारिणी—लिपि, (५६) सर्वरूतसंग्रणीलिपि, (५७) विद्यानुलोभाविमिक्षितलिपि, (५८) ऋषितपस्तप्तालिपि (ऋषियों के तप से तपी हुई लिपि) (५९) रोचमाना लिपि (देखने में सुन्दर लगने वाली लिपि) (६०) धरणीप्रेक्षणीलिपि, (६१) गगनप्रेक्षणीलिपि, (६२) सर्वोषधिनिष्यन्दा, (६३) सर्वसारसंग्रहणीलिपि तथा (६४) सर्वभूतरूपग्रहणीलिपि। इस प्रकार ये चौंसठ लिपियाँ होती हैं।
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो गया कि भारत विश्व का आध्यात्मिक गुरु तो रहा ही, साथ ही समस्त विद्याओं और कलाओं की उद्गम स्थली भी भारत ही है। इस युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षर विद्या, अंक विद्या तथा विविध विद्यायें करोड़ों वर्ष पहले ही भारत में प्रदान कर, इस देश को विश्व गुरु के रूप में प्रतिष्ठिापित कर इस देश की ध्वल कीर्ति समस्त विश्व में पैâलायी।