अंगुल तीन प्रकार का है-उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल। इनमें से जो अंगुल उपर्युक्त परिभाषा से सिद्ध किया गया है वह उत्सेध सूच्यंगुल है।।१०७।।
पाँच सौ उत्सेधांगुल प्रमाण अवसर्पिणी काल के प्रथम भरत चक्रवर्ती का एक अंगुल होता है और इसी का नाम प्रमाणांगुल है।।१०८।।
जिस-जिस काल में भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो-जो मनुष्य हुआ करते हैं, उस-उस काल में उन्हीं मनुष्यों के अंगुल का नाम आत्मांगुल है।।१०९।।
उत्सेधांगुल से देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकियों के शरीर की ऊँचाई का प्रमाण और चारों प्रकार के देवों के निवासस्थान व नगरादि का प्रमाण जाना जाता है।।११०।।
द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुंड या सरोवर, जगती और भरतादिक क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणांगुल से ही हुआ करता है।
झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भैरी, युग या शकट (गाड़ी), हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र, मनुष्यों के निवासस्थान व नगर और उद्यानादिकों की संख्या आत्मांगुल से समझना चाहिए।।११२-११३।।
जम्बूद्वीप पण्णत्ति उद्देश-१३, गाथा २५ से ३१ पृष्ठ २३७।
परमाणु आदिकों के क्रम से आकर जो अंगुल उत्पन्न हुआ है वह नाम से ‘सूच्यंगुल (उत्सेधसूच्यंगुल) निर्दिष्ट किया गया है। भरत और ऐरावत इन क्षेत्रों में जिस-जिस काल में जो मनुष्य होते हैं, उनके अंगुल नाम से आत्मांगुल कहे जाते हैं। उत्सेधांगुल से नारकी, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव, इन जीवों के शरीर का उत्सेध प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिए। तब कलश, भृंगार, दण्ड, धनुष, फलक या धनुष्फलक, शक्ति, तोमर, हलमूसल, रथ, शकट, युग, सिंहासन, चामर, आतपत्र तथा गृह व शयनादिकों का प्रमाण आत्मांगुल से कहा गया है। द्वीप, उदधि, शैल, जिनभवन, नदी, कुंड तथा क्षेत्रादिकों का प्रमाण प्रमाणांगुल से निर्दिष्ट किया गया है।
यहाँ पर यह विषय प्रमुख रूप से समझने का है कि उत्सेधांगुल से बड़ा प्रमाणांगुल होता है इसी से यह निश्चित हो जाता है कि उत्सेधांगुल से बने कोस से चार कोस का एक लघु योजन होता है और इस लघु योजन से पाँच सौ योजन बड़ा प्रमाण योजन होता है। जिसमें दो हजार कोस होते हैं, इसके बारे में आगे स्पष्ट किया जा रहा है।
त्रिलोकसार-प्रकाशक-श्री शांतिवीर दिगम्बर जैन संस्थान
श्री महावीर जी (राज.) श्री शिवसागर ग्रंथमाला का छठा पुष्प
प्रकाशन तिथि-वीर निर्वाण सं. २५०१, सन् १९७५
गाथा-१८, पृष्ठ २२
एक प्रमाणयोजनस्य पंचशतव्यवहारयोजनानि।
इयतां प्रमाणयोजनानां किम् इति त्रैराशिकविधिना व्यवहारयोजनं कर्तव्यं।
एक प्रमाण योजन में पाँच सौ व्यवहार योजन होते हैं। इतने प्रमाण योजनों का व्यवहार योजन क्या
है ? ऐसा त्रैराशिक विधि से व्यवहार योजन बनाना चाहिए।
त्रिलोकसार ग्रंथ की इस अट्ठारहवीं गाथा की टीका के अनुसार एक प्रमाण योजन में पाँच सौ व्यवहार योजन होते हैं यह स्पष्ट हो गया और एक व्यवहार योजन में चार कोस होते हैं अत: प्रमाणयोजन में दो हजार कोस हो गये यह स्पष्ट हो गया और द्वीप, समुद्र, नदी, क्षेत्र, पर्वत प्रमाण योजन से लेना है। यह बात ऊपर दिये गये प्रमाणों से स्पष्ट ही है।
अन्यत्र और प्रमाण-तत्त्वार्थवार्तिक
अध्याय ३, सूत्र ३८ की टीका में-
अष्टौ यवमध्यानानि एकमंगुलमुत्सेधाख्यम्।
एतेन नारकतैर्यग्योनानां देवमनुष्याणामकृत्रिम-
जिनालयप्रतिमानां च देहोत्सेधो मातव्य:।
तदेव पंचशतगुणितं प्रमाणांगुल भवति।
एतदेव चावसर्पिण्यां प्रथमचक्रधरस्यात्मांगुलं भवति।
तदानीं तेन ग्रामनगरादिप्रमाण परिच्छेदो ज्ञेय:।
इतरेषु युगेषु मनुष्याणां यद्यदात्मांगुल तेन तेन तदा
ग्रामनगरादि प्रमाणापरिच्छेदो ज्ञेय:।
यत्प्रमाणांगुलं तेन द्वीपसमुद्रजगति-वेदिका पर्वत विमान
नरकप्रस्ताराद्यकृत्रिमद्रव्यायामविष्कम्भादिपरिच्छेदावसेय:।
स्वयं ही विद्यानंद स्वामी ने श्लोकवार्तिक में ४८/६१ योजन सूर्यविमान को महायोजन मानकर उसे लघुयोजन बनाने के लिए पाँच सौ से गुणा करके कुछ अधिक ३९३ संख्या निकाली है। श्लोकवार्तिक अध्याय-३, सूत्र १३ की टीका-
अष्टचत्वारिंशयोजनैकषष्टिभागत्वात् प्रमाणयोजनापेक्षया
सातिरेक त्रिनवतिशतत्रयप्रमाणत्वा-दुत्सेधयोजनापेक्षय
दूरोदयत्वाच्च स्वाभिमुखलंबीद्वप्रतिभाससिद्धे:।
अर्थ-बड़े माने गये प्रमाण योजन की अपेक्षा एक योजन के इकसठ भाग प्रमाण सूर्य है चूँकि चार कोस के छोटे योजन से पाँच सौ गुणा बड़ा योजन होता है अत: अड़तालीस को पाँच सौ से गुणा करने पर और इकसठ का भाग देने से ३९३ (२७/६१) प्रमाण छोटे योजन से सूर्य होता है।
यहाँ तक महायोजन में दो हजार कोस होते हैं यह बात बताई गई।
भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही उपलब्ध सारा विश्व है इसके प्रमाण-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ३, सूत्र २७-२८।
भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभ्याम्।।२७।।
अर्थ-छहों कालों से युक्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के द्वारा भरत और ऐरावत क्षेत्रों में जीवों के अनुभव आदि की बढ़ती और न्यूनता होती रहती है।
ताभ्यामपरा भूमयोवस्थिता:।।२८।।
अर्थ-भरत और ऐरावत के सिवाय अन्य क्षेत्र एक ही अवस्था में रहते हैं, उनमें काल का परिवर्तन नहीं होता।
भरत-ऐरावत के आर्य खण्डों के अतिरिक्त अन्यत्र षट्काल परिवर्तन नहीं है-तिलोयपण्णत्ति पृ. ३५५।
‘‘‘पाँच म्लेच्छ खण्ड और विद्याधर की श्रेणियों में (विजयार्ध पर्वत पर) अवसर्पिणी काल में से चतुर्थ काल के प्रारंभ से अन्त तक हानि रूप परिवर्तन होता रहता है। उत्सर्पिणी काल में से तृतीय काल के आदि से अंत तक वृद्धि रूप परिवर्तन होता है। यहाँ अन्य कालों की प्रवृत्ति नहीं है।
हैमवत क्षेत्र, हरिक्षेत्र, देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक क्षेत्र एवं हैरण्वत क्षेत्र में भोगभूमि है। पूर्व विदेह एवं पश्चिम विदेह में शाश्वत कर्मभूमि है जहाँ चतुर्थ काल के प्रारंभ जैसी व्यवस्था ही सदाकाल रहती है। यह बात तत्त्वार्थसूत्र, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि सभी ग्रंथों में उल्लिखित है। इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि एशिया आदि छहों महाद्वीपों में भारत जैसी पंचमकाल के सदृश व्यवस्थाएँ दिख रही हैं इसीलिए निश्चित होता है कि भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही सारा विश्व है।