उत्ताणट्ठियगोलकदलसरिसा सव्वजोइसविमाणा।
उविंर सुरनयराणि य जिणभवणजुदाणि रम्माणि१।।३३६।।
जब ज्योतिर्विमानों का स्वरूप निरूपण करते हैं—
गाथार्थ—सर्व ज्योतिर्विमान अर्धगोले के सदृश ऊपर को अर्थात् ऊर्ध्व मुखरूप से स्थित हैं तथा इन विमानों के ऊपर ज्योतिषी देवों की जिनचैत्यालयों से युक्त रमणीक नगरियाँ हैं।।३३६।।
विशेषार्थ—जिस प्रकार एक गोले के दो खण्ड करके उन्हें ऊर्ध्वमुख रखा जावे तो चौड़ाई का भाग ऊपर और गोलाई वाला सँकरा भाग नीचे रहता है; उसी प्रकार ऊर्ध्वमुख अर्धगोले के सदृश ज्योतिषी देवों के विमान स्थित हैं।
अथ तेषां विमानाव्यास बाहल्यं च गाथाद्वयेनाह—
जोयणमेक्कट्ठिकए छप्पण्णडदालचंदरविवासं।
सुक्कगुरिदरतियाणं कोसं किचूणकोस कोसद्धं।।३३७।।
कोसस्स तुरियमवरं तुरियहियकमेण जाव कोसोत्ति।
ताराणं रिक्खाणं कोसं बहलं तु बासद्धं।।३३८।।
दो गाथाओं द्वारा विमानों का व्यास और बाहल्य कहते हैं—
गाथार्थ—एक योजन के ६१ भाग करने पर उनमें से छप्पन भागों का जितना प्रमाण है, उतना व्यास चन्द्रमा के विमान का है और अड़तालीस भागों का जितना प्रमाण है उतना व्यास सूर्य के विमान का है। शुक्र, गुरु और अन्य तीन ग्रहों का व्यास क्रम से एक कोस, कुछ कम एक कोस और अर्ध, अर्ध कोस प्रमाण है। ताराओं का जघन्य व्यास एक कोस का चतुर्थ भाग अर्थात् पाव (१/४) कोस है। मध्यम व्यास १/४ कोस से कुछ अधिक लेकर कुछ कम एक कोस तक है तथा उत्कृष्ट व्यास (विस्तार) एक कोस प्रमाण है। नक्षत्रों का व्यास भी एक कोस प्रमाण है। सर्व ज्योतिर्विमानों का बाहुल्य (मोटाई) अपने-अपने व्यास के अर्ध प्रमाण है।।३३७, ३३८।।
विशेषार्थ—सर्व ज्योतिर्विमानों का व्यास और बाहुल्य निम्न प्रकार से हैं—
क्र. | ज्योतिर्बिम्बों के नाम | व्यास (विस्तार) योजनों में | बाहुल्य (मोटाई) योजनों में |
१. | चन्द्र विमान | ५६/६१ योजन | २८/६१ योजन |
२. | सूर्य | ४८/६१ योजन | २४/६१ योजन |
३. | शुक्र | १ कोस | १/२ कोस |
४. | गुरु | कुछ कम १ कोस |
कुछ कम १/२ कोस |
५. | बुध | आधा कोस | १/४ (पाव) कोस |
६. | मंगल | आधा कोस | १/४ (पाव) कोस |
७. | शनि | आधा कोस | १/४ (पाव) कोस |
८. | ताराओं का जघन्य
ताराओं का उत्कृष्ट |
पाव (१/४) कोस
१ कोस |
१/८ कोस
१/२ कोस |
९. | नक्षत्र विमान | १ कोस | १/२ कोस |
१०. | राहु विमान | कुछ कम १ | कुछ कम १/२ योजन |
११. | केतु विमान | कुछ कम १ योजन | कुछ कम १/२ योजन |
अथ राह्वरिष्टग्रहयोर्विमानव्यासं तत्कार्यं तदवस्थानं च गाथाद्वयेनाह—
राहुअरिट्ठविमाणा किचूणं जोयणं अधोगंता।
छम्मासे पव्वंते चंदरवी छादयंति कमे।।३३९।।
राहु, केतु विमानों का व्यास, उनके कार्य और उनका अवस्थान दो गाथाओं द्वारा कहा जाता है—
गाथार्थ—राहु और अरिष्ट (केतु) के विमानों का व्यास कुछ कम एक योजन प्रमाण है। इन दोनों के विमान चन्द्र सूर्य के विमानों के नीचे गमन करते हैं और दोनों छह माह बाद पर्व के अन्त में क्रम से चन्द्र और सूर्य को आच्छादित करते हैं।।३३९।।
विशेषार्थ—राहु और केतु दोनों के विमानों का व्यास कुछ कम एक-एक योजन प्रमाण है। राहु का विमान चन्द्र विमान के नीचे और केतु का विमान सूर्य विमान के नीचे गमन करता है। प्रत्येक छह माह बाद पर्व के अन्त में अर्थात् क्रम से पूर्णिमा और अमावस्या के अन्त में राहु चन्द्रमा को और केतु सूर्य को आच्छादित करता है, इसी का नाम ग्रहण है।
राहुअरिट्ठविमाणधयादुवरि पमाणअंगुलचउक्कं।
गंतूण ससिविमाणा सूरविमाणा कमे होंति।।३४०।।
गाथार्थ—राहु और केतु विमानों की ध्वजादण्ड से चार प्रमाणांगुल ऊपर जाकर क्रम से चन्द्र का विमान और सूर्य का विमान है।।३४०।।
विशेषार्थ—राहु विमान की ध्जा दण्ड से चार प्रमाणांगुल ऊपर चन्द्रमा का विमान है और केतु विमान की ध्वजा से चार प्रमाणांगुल ऊपर सूर्य का विमान है।
एगट्ठिभाग जोयणस्स ससिमंडलं तु छप्पण्णं।
रविमंडलं तु अडदालीसं एगट्ठिभागाणं१।।९७।।
सुक्कस्स हवदि कोसं कोसं देसूणयं विहप्फदिणो।
सेसाणं तु गहाणं तह मंडलमद्धगाउदियं।।९८।।
गाउदचउत्थभागो णायव्वा सव्वडहरियों तारा।
साहिय तह मज्झिमया उक्कस्सा अद्धगाउदिया।।९९।।
गाथार्थ—चन्द्रमण्डल का (उपरिम तलविस्तार) योजन के इकसठ भागों में से छप्पन भाग (५६/६१) तथा सूर्यमण्डल का उन इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग प्रमाण है।।।९७।।
शुक्र के विमानतल का विस्तार एक कोश, बृहस्पति के विमान तल का कुछ कम एक कोश तथा शेष ग्रहों के मण्डल का विस्तार अर्धकोश प्रमाण है।।९८।।
सब लघु ताराओं का विस्तार एक कोश के चतुर्थ भाग प्रमाण, मध्यम ताराओं का एक कोश के चतुर्थ भाग से कुछ अधिक तथा उत्कृष्ट ताराओं का अर्धकोश प्रमाण है।।९९।।
चन्द्रमण्डलों की प्ररूपणा—
गंतूणं सीदि-जुदं, अट्ठसया जोयणाणि चित्ताए।
उवरिम्मि मंडलाइं, चंदाणं होंति गयणम्मि१।।३६।।
अर्थ—चित्रा पृथिवी से आठ सौ अस्सी (८८०) योजन ऊपर जाकर आकाश में चन्द्रों के मण्डल (विमान) हैं।।३६।।
एक्कट्ठी-भाग-कदे, जोयणए ताण होदि छप्पण्णा।
उवरिम-तलाण रुंदं, तदद्ध-बहलं पि पत्तेक्कं।।३९।।
अर्थ—एक योजन के इकसठ भाग करने पर उनमें से छप्पन भागों का जितना प्रमाण है, उतना विस्तार उन चन्द्र विमानों में से प्रत्येक चन्द्र विमान के उपरिम तल का है और बाहल्य इससे आधा है।।३९।।
उत्ताणावट्ठिद-गोलकद्ध सरिसाणि रवि-मणिमयािंण।
ताणं पुह पुह बारस-सहस्स-उण्हयर-किरणािंण।।६६।।
। १२००० ।
अर्थ—सूर्यों के मणिमय विमान ऊर्ध्व अवस्थित अर्धगोलक सदृश हैं। उनकी पृथक््â-पृथक््â बारहहजार (१२०००) किरणें उष्णतर होती हैं।।६६।।
एक्कट्ठी-भाग-कदे, जोयणए ताण होंति अडदालं।
उवरिम-तलाण रुंदं, तदद्ध-बहलं पि पत्तेक्कं।।६८।।
४८/६१ २४/६१
अर्थ—एक योजन के इकसठ (६१) भाग करने पर उनमें से अड़तालीस (४८) भागों का जितना प्रमाण है उतना विस्तार उन सूर्य विमानों में से प्रत्येक सूर्य बिम्ब के उपरिम तल का है और बाहल्य इससे आधा होता है।।६८।।