प्रत्येक संसारी प्राणी चाहे पशु हो या पक्षी, मनुष्य हो या देव, सभी में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है। जैसे बीज में वृक्ष होने की शक्ति विधमान है। उसे अच्छी जमीन में डालने से खाद, पानी, हवा आदि अनुकूल सामग्री के मिलने से उस बीज में से ही अंकुर निकल कर वृक्ष का रूप ले लेता है अथवा जैसे दूध में घी विद्यमान है। उसमें जामन डालकर दही बनाकर विलोना करने से घी निकल आता है वैसे ही आत्मा में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणों को विकसित करने से यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।
जैसे जल स्वभाव से शीतल है किंतु अग्नि के संसर्ग से गर्म हो जाता है तब यह अग्नि का काम कर जाता है। उसी प्रकार से यह संसारी आत्मा भी स्वाभाव से ज्ञान-दर्शनमय है, अनंतसुख, अनंतवीर्य आदि अनंत गुणों का भंडार है। स्वभाव से यह नारकी नहीं है, पशु नहीं है, मनुष्य नहीं है और न देव ही है। यह बालक नहीं है, वृद्ध नहीं है, न युवा ही है। यह स्त्री नहीं है,पुरुष नहीं है और न ही नपुंसक है। यह धनी-निर्धन, कुरूप-सुरूप नहीं है और न कर्मों के आधीन ही है। स्वभाव से यह कर्म बंधन से रहित है, शुद्ध है, सिद्ध है, निरंजन है और परमात्मा है।
फिर भी अनादिकाल से इसके साथ कर्मों का संबंध चला आ रहा है। यह संबंध सुवर्ण पाषाण के समान है जैसे कि सोने के पत्थर में कीट कालिमा खान से ही मिश्रित रहती है। पुन: अग्नि में तपाकर प्रयोग से उस पत्थर में से कीट कालिमा दूर कर सोना शुद्ध कर लिया जाता है वैसे ही इस संसारी आत्मा में लगे हुये कर्म मल को दूर करने के लिये आत्मा को रत्नत्रय और तपश्चरण से तपाकर शुद्ध परमात्मा बना लिया जाता है। जैसे जल का गर्म होना अग्नि के संयोग से हुआ है वैसे ही आत्मा के नर, नारकादि पर्यायों का होना कर्म के संयोग से हुआ है।
जिन-जिन महापुरुषों ने कर्मों के संबंध को आत्मा से अलग कर दिया है वो-वो ही महापुरुष सिद्ध, शुूद्ध परमात्मा कहलाए हैं और संसार में पूजे गये हैं। इस युग की आदि में भगवान ऋषभदेव ने यह मुक्ति का मार्ग प्रकट किया है। वे स्वयं इस मार्ग पर चले हैं तभी परमात्मा बने हैं। उसी मार्ग पर भरत सम्राट्, मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र, हनुमान, महावीर आदि अनेक महापुरुष चले हैं और उन सभी ने अपने आप को भगवान परमात्मा बना लिया है। यही कारण है कि आज इनको सभी संप्रदाय वाले बड़े आदर से पूजते हैं। इन सभी का ग्रहस्थ जीवन भी आदर्श रहा है इसीलिय आज सभी भारतवासी इनकी गौरव गाथा गाते रहते हैं।
अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के लिये तीन उपाय माने गये हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन्हें रत्नत्रय भी कहते हैं। इन तीनों का समुदाय ही मुक्ति का मार्ग है-कर्मों से छूटने का उपाय है। उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
आत्मा के अस्तित्व को, परलोक को कर्मों के बंध और मोक्ष को स्वीकार करना। जीवादि तत्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह प्रसंग, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य गुणों से जाना जाता है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन कषायों का मंद होना प्रशम भाव है। संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य होना संवेग है। प्राणी मात्र पर करुणा बुद्धि होना अनुकंपा है और जो नहीं दिख रहे हैं ऐसे आत्मा, परमात्मा, परलोक, कर्मबंध आदि के अस्तित्व को स्वीकार करना। सुमेरु पर्वत, राम, रावण आदि हो चुके हैं इत्यादि मानना आस्तिक्य है।
वीतराग सर्वज्ञ देव द्वारा प्रतिपादित आगम जिनागम है उसके प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ऐसे भेद हो जाते हैं इन्हें चार वेद भी कहते हैं। इनको पढ़ना-पढ़ाना सम्यग्ज्ञान है। प्रथमानुयोग में ऋषभदेव, रामचंद्र आदि महापुरुषों का इतिहास रहता है।
करणानुयोग में तीनों लोकों का सविस्तृत विवेचन रहता है। मनुष्य आदि गतियों का विवेचन रहता है। चरणानुयोग में मुनि और गृहस्थ की चर्याबताई जाती है और द्रव्यानुयोग में जीव पुद्गल आदि द्रव्यों का विवेचन रहता है। कर्मबंध का, उनके कारणों का, मोक्ष का और मोक्ष के कारणों का वर्णन रहता है। इन वेदों के अभ्यास से जो ज्ञान होता है वह अमृत के समान है। श्रीकुंदकुंददेव ने कहा है कि ‘जिनेंद्रदेव’ के वचन औषधि के समान हैं, ये विषय सुखों का विवेचन कराने वाले हैं, अमृत-स्वरूप हैं, जन्म, जरा और मरण रूप व्याधि को नष्ट करने वाले हैं।
सम्यकचारित्र के दो भेद हैं-सकल चारित्र और विकल चारित्र। जो गृह, स्त्री, पुत्र आदि को छोड़कर मुनिदीक्षा ले लेते हैं। वे हिंसा,झूठ,चोरी,अब्रह्म और परिग्रह इन पांचों पापों को पूर्णरूप से त्याग कर देते हैं। उनके ही सकल चारित्र होता है। इन मुनियों की चर्या सर्वथा निर्दोष रहती है। ये किंचित् मात्र भी आरंभ नहीं करते हैं, दिगम्बर मुद्रा धारण करते हैं, जो कि इनकी निर्विकारता की कसौटी है। स्तोमात्र के त्यागी होते हैं पूर्णतया ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते हैं। तिलतुष मात्र परिग्रह नहीं रखते हैं अत: इनके पास लंगोटी भी नहीं रहती है। यह उनके अपरिग्रह की चरमसीमा है। ऐसे ये मुनि लोक में शहर में सर्वत्र विचरण करते हुये आबाल गोपाल के द्वारा पूज्य होते हैं। सभी लोग इन पर विश्वास करते हैं और इन्हें अपना गुरू मानते हैं।
जब तक मुनि का यह वेष ग्रहण करना शक्य नहीं होता है तब तक विकल चारित्र पाला जाता है। इसका पालन गृहस्थ करते हैं। हिंसा,झूठ,चोरी,अब्रह्म और परिग्रह इन पापों का एकदेश त्याग करना अणुव्रत कहलाता है।
मन, वचन, काय से दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवों का घात नहीं करना, न दूसरे से करवाना और न करते हुए को अनुमति देना यह अिंहसा अणुव्रत है। इस व्रत को पालन करने वाला गृहस्थ पानी भी छान कर पीता है, रात्रि में भोजन नहीं करता है। मद्य,मांस और मधु का सेवन भी नहीं करता है।
स्वयं असत्य नहीं बोलना, न दूसरे से बुलवाना, न अन्य को अनुमति देना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना जो दूसरों को पीड़ा करने वाला या घात करने वाला हो, इसे सत्य अणुव्रत कहते हैं।
बिना दी हुई पराई वस्तु को न स्वयं लेना, न दूसरों को उठाकर देना, न चोरी कराना और न चोरी करते हुये को अच्छा कहना अचौर्य अणुव्रत है।
अपनी स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों को माता, बहन और पुत्री के समान देखना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। कोई-कोई गृहस्थ भी स्त्रीमात्र का त्याग कर पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत पालन करते हैं।
धन, धान्य, मकान, दुकान आदि चल-अचल संपत्ति का और दासी-दास आदि चेतन वस्तुओं का परिमाण करके उससे अधिक में इच्छा का त्याग कर देना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है।
अिंहसाव्रत के पालन करने वाले स्वस्थ और अधिक आयु वाले होते हैं। परलोक में सुखी और संपन्न होते हैं। सत्यव्रती का सभी लोग विश्वास करते हैं, उसे वचन सिद्धि हो जाती है। अचौर्यव्रती के नव निधियां प्रगट हो जाती हैं। ब्रह्मचर्य अणुव्रती भी सुदर्शनसेठ, सती सीता आदि के समान लोक में पूजे जााते हैं। और परिग्रह का परिमाण करने वालों के धन-धान्य की वृद्धि होती चली जाती है। इन पांच अणुव्रतों के ये प्रत्यक्ष फल आंखों से देखे जाते हैं। परलोक में तो अणुव्रती को नियम से स्वर्ग की विपुल संपत्ति प्राप्त होती है।
यह नियम है कि अणुव्रती और महाव्रती नरकगति, तिर्यंचगति और मनुष्यगति में नहीं जा सकते हैं नियम से देव ही होते हैं। महाव्रती तो उसी भव से मोक्ष भी जा सकते हैं किंतु आज के युग में यहाँ से मोक्ष प्राप्ति न होने से आज के महाव्रती देवपद ही प्राप्त करते हैं। और तो क्या, ये अणुव्रती स्त्री और नपुंसक भी नहीं हो सकते हैंं। देवों में भी उत्तम ऋद्धि के धारक देव होते हैं।
विकल चारित्र के पांच अणुव्रत के सिवाय तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत भेद भी होते हैं जिससे यह विकल चारित्र बारह भेद रूप हो जाता है।
यह सम्यग्दृष्टि गृहस्थ सर्वप्रथम मद्य,मांस,मधु,बड़,पीपर,पाकर और कठूमर इन आठों का त्याग कर देता है। ये गृहस्थ के आठ मूलगुण कहलाते हैं।
जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यासेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन कहलाते हैं। ये सातों ही नरक के द्वार हैं। इनमें से किसी एक का सेवन करने वाले अन्य व्यसनों से बच नहीं पाते हैं अत: जो गृहस्थ इन व्यसनों का त्याग कर देता है वह इस लोक में सर्वमान्य, सुखी, समृद्धिशाली और यशस्वी होता है तथा परलोक में देव के असाधारण वैभव को भोगता है।
इस गृहस्थ धर्म को पालन करने वाला मनुष्य देवों के दिव्य सुखों को भोगकर पुन: मनुष्य होकर मुनि बनकर निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
जो भव्य जीव अपनी आत्मा को पूर्ण सुखी, शाश्वत परमात्मा बनाना चाहते हैं उनका कर्तव्य है कि वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ पहले अपनी शक्ति के अनुसार अणुव्रत ग्रहण करें, पुन: शक्ति और वैराग्य हो तो महाव्रत ले लेवें तथा जिन्हें चारों गतियों में घूमने में ही आनंद आ रहा है, जो कर्मों के बंधन से छुटकारा पाकर स्वतंत्र होना नहीं चाहते हैं, उनके लिये तो सदा संसार का मार्ग खुला ही है।
भगवान महावीर ने भी तीर्थंकर बनने के दशवें भव पूर्व सिंह की पर्याय में मुनि के मुख से धर्मोपदेश सुनकर इन्हीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के एकदेश रूप अणुव्रतों को धारण किया था, पुन: देव पर्याय के दिव्य सुखों को भोगकर आठवें भव में सोलहकारण भावना रूप विशेष पुरुषार्थ से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था। वहाँ से पुन: स्वर्ग में जाकर इन्द्र के वैभव का अनुभव कर अनंतर दशवें भव में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला की कुक्षि से अवतार लेकर वर्द्धमान कहलाए थे। उन तीर्थंकर भगवान के जीवन से प्रेरणा लेकर हमें भी अपनी आत्मा को परमात्मा भगवान् महावीर बनाने का संकल्प करना चाहिये