‘हाँ, देखिये, पूर्वाचार्यों के शब्दों में।
महान् ग्रंथराज तत्त्वार्थसूत्र की ७ वीं अध्याय के भाष्यकार श्री अकलंकदेव कहते हैं-
आस्रवतत्त्व के दो भेद हैं-पुण्यास्रव और पापास्रव। उसमें से पुण्यास्रव का व्याख्यान करना चाहिये क्योंकि वह प्रधान है। वह प्रधान क्यों है ? क्योंकि मोक्ष उस पुण्यास्रवपूर्वक होता है।’ सो ही-
‘तत्र पुण्यास्रवो व्याख्येय: प्रधानत्वात् तत्पूर्वकत्वात् मोक्षस्य।१
‘पुन: यदि ऐसा बात है तो कहिये, किनके द्वारा की गईं वे क्रियायें उस पुण्य के लिए आस्रव हो जाती हैं ?
‘व्रतियों के द्वारा की जाने वाली वे विशेष क्रियायें पुण्य का आस्रव होती हैं।’
‘तो वह व्रत क्या है ? उसके कितने भेद हैं ?’’ ‘सुनिये’
हिंसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्।।१।।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से विरक्त होना व्रत है।
अर्थात् चारित्र मोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम के निमित्त से औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक चारित्र के प्रगट होने से जो विरक्त अवस्था होती है उसी का नाम व्रत है। यह उपशमचारित्र ग्यारहवें गुणस्थान में संपूर्ण चारित्रमोह के उपशम से प्रगट होता है। क्षायिकचारित्र बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में प्रगट होता है। यह संपूर्ण मोहनीय के क्षय से होता है इसका नाम यथाख्यातचारित्र भी है तथा क्षायोपशमिक- चारित्र छठे गुणस्थान से दशवें तक रहता है। इसे सरागचारित्र भी कहते हैं और उपशम, क्षायिक को वीतरागचारित्र कहते हैं एवं एकदेश व्रतों को धारण करने वाले देशव्रती कहलाते हैं।
‘यही करना चाहिए अथवा ऐसा ही करना चाहिये।’ इस प्रकार से अभिप्रायपूर्वक किया गया नियम व्रत कहलाता है।
इन पाँचों व्रतों में अहिंसाव्रत प्रधान है इसलिये उसे आदि में रखा है। इतर जो सत्य आदि व्रत हैं वे सब इसके परिपालन हेतु ही हैं। जैसे कि खेत की रक्षा के लिए बाढ़ लगाई जाती है वैसे ही ये सर्व व्रत अहिंसाव्रत की रक्षा के लिये ही पाले जाते हैं।
‘हिंसादि पापों से निवृत्त होना व्रत है अत: आपने इन्हें आस्रव के प्रकरण में व्यर्थ ही लिया है। आपको इन्हें संवर में अंतर्भूत करना चाहिये ?’
‘आपका ऐसा तर्क ठीक नहीं है, ये व्रत संवर में गर्भित नहीं किये जा सकते क्योंकि परिस्पंदन रूप हैं अर्थात् इनमें क्रियायें देखी जाती हैं। जो असत्य, चोरी आदि का त्याग करते हैं वे पुन: सत्य बोलते हैं और दी हुई योग्य वस्तु को ग्रहण भी करते हैं तथा गुप्ति आदि लक्षण जो संवर है जो कि नवमी अध्याय में कहा गया है उसके लिए ये परिकर्म साधन सामग्री हैं। जो साधु इन व्रत परिकर्म को कर लेते हैं वे ही सुखपूर्वक संवर कर सकते हैं अर्थात् उनके ही गुप्ति, समिति, धर्म, अनुपे्रक्षा और परीषहजय इत्यादि द्वारा कर्मों का आना रुक जाता है।
इन पाँचों पापों से एकदेशविरत होने को अणुव्रत और सर्वत: पूर्णरूप से विरत होने को महाव्रत कहते हैं।
(यहाँ पर विचार की बात यह है कि इन व्रतों को श्री अकलंकदेव ने मोक्ष के लिए कारण कहा है। जैसा कि प्रारंभ की पंक्ति ही ध्यान देने योग्य है। ‘पुण्यास्रव का यहाँ व्याख्यान करना है चूँकि वह प्रधान है और वह प्रधान भी इसलिये है कि मोक्ष के लिये कारण है। इससे जो ‘पुण्यास्रव को विष्ठा या बंध के लिये ही एकांत से कारण कहते हैं उन्हें अपनी श्रद्धा सही कर लेनी चाहिये। जो सर्वथा बंध का ही कारण है वह मोक्ष का कारण भला वैâसे कहा जा सकता है और अकलंकदेव असत्य प्रलाप करने वाले हैं’ ऐसा भी मानना असंभव है। यहां तो इस सप्तम अध्याय में कहे गये ये पाँच व्रत, सात शील व सल्लेखना सभी व्रत पुण्यास्रव के लिए कारण होते हैं और वह पुण्यास्रव मोक्ष का कारण स्पष्ट ही माना गया है।
अतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षाव्रत में मुनियों आदि को चतुर्विध दान देने का विधान है ही है। अन्यत्र श्री समंतभद्र स्वामी ने इस चतुर्थ शिक्षाव्रत को ‘वैयावृत्य’ नाम देकर उसमें दान के चार भेद करके जिनपूजन का विधान भी उसी में किया है अत: व्रत, पूजा, दान, उपवास आदि मोक्ष के कारण हैं ऐसा श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन है। उन व्रत आदि को ग्रहण करने से ही यह जीव संसार समुद्र से पार हो सकता है अन्यथा नहीं, यह दृढ़ नियम है क्योंकि इन व्रतों के बिना वीतराग चारित्र का मिलना सर्वथा असंभव है अत: अपने योग्य श्रावक व्रतों का पालन अत्यावश्यक है।)