आचार्य श्री नेमिचंद सिद्धांतचक्रवर्ती ने गोम्मटसार में कहा है-
पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो।
कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं।।
अर्थात् जीव और कर्मों का अनादिकाल से संबंध चला आ रहा है। जैसे स्वर्णपाषाण पर स्वाभाविक रूप से किट्ट कालिमा लगी होती है और उसे पुरुषार्थपूर्वक हटाकर सोने को शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार से प्रकृति, शील या स्वभावरूप से जो कर्म जीवात्मा के साथ दूध-पानी के समान एकमेक जैसा संबंध बनाये हुए हैं उन्हें त्याग-तपस्या आदि पुरुषार्थों के द्वारा दूर करके आत्मा को शुद्ध भगवान आत्मा बनाया जा सकता है। जीव और पुद्गल का यद्यपि यह स्वाभाविक संबंध अनादिकाल से है, फिर भी दोनों में एक सैद्धान्तिक अन्तर भी है कि जीव तो स्वाभाविकरूप में अनादिकाल से अशुद्ध था और वह कर्म से छूट कर ही शुद्ध बनता है
किन्तु पुद्गल का परमाणु अपने रूप में सदैव शुद्ध ही रहता है वह तो द्वयणुक, त्रयणुक रूप स्कंध बनकर अशुद्ध होता है। इस परिभाषा के साथ-साथ यह भी जानना आवश्यक है कि पुद्गल के परमाणु तो शुद्ध से अशुद्ध और अशुद्ध से शुद्ध अवस्था को प्राप्त हुआ करते हैं किन्तु जीव एक बार पूर्ण शुद्ध होने के बाद कभी भी अशुद्ध नहीं होता है। भव्यात्माओं! जैन शास्त्रों में जीवात्मा की तीन श्रेणियां बताई गई हैं-
१. बहिरात्मा
२. अन्तरात्मा
३. परमात्मा।
इनमें से बहिरात्मा वे कहलाते हैं जो शरीर और आत्मा को बिल्कुल एकरूप मानकर शरीर में ही आत्मबुद्धि रखते हुए आत्म के रहस्य से पूर्ण अनभिज्ञ रहते हैं। जैसा कि छहढाला में कहा है-
मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव।
मेरे सुत तिय मैं सबलदीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण।।
अर्थात् समस्त पर पदार्थों को आत्मरूप समझकर उनमें ही सुख-दुःख का वेदन करना बहिरात्मा का लक्षण है। इस बहिरात्म अवस्था को छोड़ने से और स्व-पर का भेद विज्ञान करने से ही जीव अंतरात्मा बनते हैं।
छत्रचूड़ामणि में वर्णन आया है कि-
जब काष्ठांगार मंत्री ने राजा सत्यंधर के ऊपर आक्रमण कर दिया था और उनकी मृत्यु बिल्कुल निकट मंडरा रही थी, उस समय अपनी गर्भवती रानी विजया को उन्होंने एक विमान में बिठाकर उड़ा दिया। पतिवियोग के दुःख से व्याकुल विजया रानी को उस समय सत्यंधर राजा ने तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया था कि संसार में संयोग-वियोग आदि में जीव सुख-दुख का अनुभव करता है किन्तु विपत्ति के साथ धैय धारण करना ही उचित है। अतः हे प्रिये! इस संकट की घड़ी में तुम धैर्यपूर्वक अपनी एवं गर्भस्थ शिशु की रक्षा करो।
महानुभावों! विपत्ति के समय धर्म और धैर्य को कभी न छोड़कर तत्त्वज्ञान का ही चिन्तन करना चाहिए, वही धैर्य प्रदान कर सकता है। अन्तरात्मा जीव जब इसी प्रकार पुद्गल कर्मों को आत्मा से पृथक् समझकर शुद्धात्मतत्त्व पर श्रद्धान करने लगता है तब धीरे-धीरे परमात्मा बनने की श्रेणी में आगे बढ़ता है। कर्म के तीन भेद होते हैं-
१. भावकर्म
२. द्रव्यकर्म
३. नोकर्म।
रागद्वेष आदि परिणामों को भावकर्म कहते हैं। ज्ञानावरण आदि आठ कर्म और इनके भेद-प्रभेदरूप १४८ कर्मप्रकृतियों को द्रव्यकर्म कहते हैं तथा औदारिक आदि शरीर नोकर्म कहे जाते हैं। इन तीनों प्रकार के कर्मों से आत्मा मलिन है किन्तु इसी मलिन, विनश्वर शरीर से निर्मल, अविनश्वर, आत्मतत्त्व की प्राप्ति करने हेतु ही मानव जीवन में पुरुषार्थ किया जाता है। सांसारिक दृष्टि से मनुष्य एवं तिर्यंचों की अकालमृत्यु संभव है किन्तु देव-नारकियों की अकालमृत्यु नहीं होती है।
जैसा कि धवला में कहा है-
विसवेयणरत्तक्खय भयसत्थग्गहणसंकिलेसेहिं।
उस्सासाहाराणं णिरोहदो छिज्जदे आऊ।।
अर्थात् विष खाने से, अत्यधिक वेदना से, रक्त के क्षय हो जाने से, आकस्मिक भयावह स्थिति पैदा हो जाने से, शस्त्र लगने से, अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामों से और स्वासोच्छ्वास के निरोध हो जाने से अकाल में मरण होता है। ऐसा मरण न तो भोगभूमि के मनुष्यों के होता है और न देव-नारकियों के है, वे तो अपनी पूरी आयु भोगकर ही मरते हैं
तथा कर्मभूमि के मनुष्य-पशु उपर्युक्त किन्हीं कारणों से अकालमृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं। अन्तरात्मा जीव शरीर और आत्मा को भिन्न समझते हुए अकालमृत्यु के कारणों से सदैव बचने का प्रयास करता है, राग-द्वेष आदि से भी दूर रहता है तभी वह सम्यग्दर्शन में दृढ़ रह सकता है। जैसा कि कहा भी है-
रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनो जलम् ।
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं तत्तत्वं नेतरो जनः।।
अर्थात् जिसका मन राग द्वेष आदि कल्लोल-तरंगों से विचलित नहीं होता है वही आत्मतत्त्व को देख सकता है। यद्यपि वीतराग निर्विकल्पसमाधि में लीन होने वाले महामुनियों के लिए ही रागद्वेष को पूर्णरूप से त्याग कर पाना संभव है, फिर भी सरागी मुनि एवं गृहस्थजन जब तक इनसे पूरी तरह छूट नहीं पाते, तब तक उन्हें अपने परिणामों को शुभरूप में परिवर्तित करने की प्रेरणा दी गई है।
देखो! आपके घर में यदि दो नालियाँ हैं। उनमें एक से गन्दा पानी आ रहा है एवं दूसरी से गंगा का निर्मल जल आ रहा है तो पहली नाली जो गंदा पानी लाती है उसे बंद करने का आप प्रथम प्रयास करेंगे, उसके बाद यदि गंगाजल की आवश्यकता नहीं है तो उस नाली को भी बंद करेंगे। अब आपको देखना यह है कि शुभ और अशुभ कर्मों का आगमन किन कारण् से होता है? इसका उत्तर है कि आत्मा में कर्मों के आने के द्वार को आश्रव कहते हैं पुनः यह आश्रव शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है। शुभ कर्मों के आने को शुभ आश्रव एवं अशुभ कर्मों के आने को अशुभ आश्रव कहते हैं। यूं तो इस जीव के प्रतिक्षण कषायों के कारण, इन्द्रियविषयों के कारण एवं अव्रत आदि पाप क्रियाओं से अशुभ कर्मों का आश्रव तो होता ही रहता है, उन्हें सच्चे देव शास्त्र गुरु की भक्ति, पूजन, स्वाध्याय, दान आदि धार्मिक क्रियाओं के द्वारा शुभ रूप में परिणत करना चाहिए।
अन्तरात्मा जीव किस प्रकार से छोटा सा निमित्त पाकर भी परमात्मा बनने की ओर अग्रसर हो जाता है इसका साक्षात् उदाहरण देखिये- चम्पापुर नगरी के उद्यान में एक महामुनिराज गर्मी के दिनों में एक मास का उपवास ग्रहण कर ध्यान में लीन थे। भीषण गर्मी के कारण पित्त की अधिकता हो जाने से उन्हें प्यास की बाधा सताने लगी, जिससे ध्यान में विघ्न उपस्थित होने लगा। मुनिराज की तपस्या से गंगा देवी का आसन कम्पित हुआ, उसने अवधिज्ञान से मुनि की स्थिति जान ली और वह घड़े में शुद्ध गंगाजल लेकर उनके सम्मुख प्रगट होकर बोली- भगवन्! इस जल के द्वारा आप अपनी प्यास बुझाइये ताकि ध्यान निर्विघ्नतया हो सके।
मुनि ने देवी के शब्द सुनकर कहा- हे देवी! पहली बात तो मैंने एक माह का उपवास ग्रहण कर रखा है। जिसे आकुलता होने पर भी तोड़ नहीं सकता। दूसरी बात, दिगम्बर जैन साधु देवी-देवताओं के हाथ से आहार ग्रहण नहीं करते हैं इसलिए आपसे मैं जल ग्रहण नहीं कर सकता। मुनि की द्वितीय बात सुनकर देवी के मन में दुःख हुआ कि धातु-उपधातु से रहित हम देवों के वैक्रियिक पवित्र शरीर से ये साधु आहार क्यों नहीं ले सकते? उसने विदेहक्षेत्र में जाकर सीमंधर स्वामी तीर्थंकर से इसका समाधान प्राप्त किया कि जिन मनुष्यों में तपस्या करके मोक्ष जाने की योग्यता मौजूद हैं उनसे ही ये साधुजन आहार लेते हैं।
तब गंगादेवी के मन में सहज ही भावना उत्पन्न हुई कि मैं आहार नहीं दे सकती तो न सही, अन्य प्रकार से गुरु की वैयावृत्ति तो कर सकती हूँ। तत्क्षण ही उसने अपनी विक्रिया से आकाश में चारों तरफ बादल छा दिये और धीमी-धीमी फुहारों को लाने वाली वर्षा शुरू कर दी। मौसम बदलते ही मुनिराज के पास ठंडी-ठंडी हवा पहुँची और प्यास की बाधा शांत होते ही वे धर्मध्यानरूपी वैराग्य भावनाओं को भाते हुए शुक्लध्यान में पहुँच गये। क्षण भर में चार घातिया कर्मों का नाशकर केवली भगवान बन गये और गन्धकुटी में उनकी दिव्यध्वनि खिरने लगी। देखो! एक देवी द्वारा की गई योग्य परिचर्या से मुनिराज को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
इस उदाहरण से सभी को गुरु वैयावृत्ति का पाठ सीखना चाहिए। जैसे पहलवान को देखकर साधारण व्यक्ति के अन्दर भी पहलवान बनने की भावना जागृत होती है, सेना में भर्ती होने वाले सैनिकों को देखकर दूसरों में भी वीरत्वशक्ति उत्पन्न होती है, वैसे ही त्यागी महामुनियों की साधना देखकर अपने अन्दर भी त्याग की भावना प्रगट होनी चाहिए। इस भव में किया गया त्याग का अभ्यास भी धीरे-धीरे किसी न किसी भव में मोक्ष तक प्राप्त कराने में सहायक बनता है।
श्री देवसेन आचार्य ने इसलिए कहा है-
वरिस सहस्सेण पुरा, जं कम्मं हणइ तेण कायेण।
तं कम्मं वरिसेण हु, णिज्जरयइ हीणसंहणणे।।
अर्थात् चतुर्थ काल में जिस शरीर के द्वारा एक हजार वर्षों में जो कर्म नष्ट किये जाते थे, इस काल में हीन संहनन के द्वारा उन कर्मों को एक वर्ष की तपस्या के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। अतः यह बात सहज सिद्ध हो जाती है कि आज हम लोगों के लिए चतुर्थकाल की अपेक्षा पंचमकाल श्रेष्ठ है क्योंकि आत्मतत्त्व का सार इस काल में प्राप्त हुआ है। अतएव अनादिकाल से चली आ रही बहिरात्म अवस्था को छोड़कर अन्तरात्मपने को प्राप्त कर आत्मा और शरीर की भिन्नता का अनुभव करते हुए वैराग्य और ध्यान का सतत अभ्यास करना चाहिए।