-गणिनी ज्ञानमती
अयोध्या में विराजमान भगवान ऋषभदेव के दर्शन मुझे ध्यान में हुए। कार्तिक कृ. त्रयोदशी-धनतेरस (२२ अक्टूबर १९९२) के दिन प्रात: ब्राह्ममुहूर्त में ध्यान करते हुए सहसा भगवान दिख गये। ध्यान समाप्त करके मेरे मन में भावना जाग्रत हुई कि ‘‘अयोध्या तीर्थ में जाकर प्रभु ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक कराना चाहिए।’’ मैंने यह भावना अपने निकट रहने वाली आर्यिका चंदनामती, पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर व ब्रह्मचारी रवीन्द्र कुमार से कही। मेरे विहार की चर्चा सुनते ही ये सब घबड़ा गये और बोले-माताजी! अब आपका स्वास्थ्य विहार के योग्य नहीं है, बहुत ही कमजोर हो गया है। किन्तु मैंने अपने मनोबल से यह निर्णय ले लिया और मार्ग की चर्चा करने लग गई। इन दिनों मैं जम्बूद्वीप–हस्तिनापुर स्थल पर थी। इधर-
‘श्री राम मंदिर और बाबरी मस्जिद’ विवाद के निमित्त से अनेक साधुगण मना कराने लगे एवं बड़ौत, दिल्ली, सरधना आदि के श्रावकगण आने लगे और कहने लगे-माताजी! अयोध्या जल रही है आप विहार का नाम न लें, किन्तु मैंने अपनी प्रबल भावना के अनुसार कुछ भी ध्यान न देते हुए हस्तिनापुर में ‘तेरहद्वीप जिनालय’ निर्माण की चर्चा चल रही थी, उसके विषय में माघ शुक्ला १३ को इस ‘जिनालय’ का शिलान्यास कराकर फाल्गुन कृष्णा पंचमी (११ फरवरी १९९३) को अयोध्या के दर्शनार्थ हस्तिनापुर से मंगल विहार कर दिया।
मार्ग में मुरादाबाद के बाद अहिच्छत्र तीर्थ पहुँची। वहाँ के अध्यक्ष प्रेमचंद जैन-मेरठ का आग्रह हुआ कि माताजी! यहाँ कोई नूतन रचना की प्रेरणा दीजिए। तभी मैंने वहाँ तीस चौबीसी भगवन्तों को विराजमान करने की प्रेरणा दी।
मेरे मन में कितने ही दिनों से चल रहा था कि ढाई द्वीप के पाँच भरत व पाँच ऐरावत क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन में चतुर्थकाल में हमेशा-हमेशा चौबीस तीर्थंकर होते आये हैं ऐसे अनंतानंत चौबीस-चौबीस तीर्थंकर हो चुके हैं और आगे अनंतों चौबीसी होती रहेंगी। उनमें पाँच भरत, पाँच ऐरावत के भूत, वर्तमान व भविष्यत् ऐसे त्रिकाल चौबीसी अर्थात् तीस चौबीसी के नाम उपलब्ध हैं।
इन तीस चौबीसी का मैंने विधान भी बनाया है। इनकी रचना अर्थात् तीस चौबीसी के ७२० भगवान कहीं न कहीं विराजमान होना चाहिए? ऐसी मेरी भावना मैंने यहाँ व्यक्त कर दी।
उसी दिन सभा में क्षुल्लक मोतीसागर जी व ब्र. रवीन्द्र कुमार ने तीस चौबीसी के सभी भगवन्तों के विराजमान कराने हेतु दातारों की स्वीकृतियाँ भी करा दी। मैंने भी कहा कि दश कमलों में १-१ कमल में ७२-७२ पांखुडी बनाकर उन-उन एक-एक कमलों में १-१ त्रिकाल चौबीसी विराजमान कराना है।
पुनश्च अयोध्या पहुँचने के पूर्व ही मैंने वहाँ रायगंज परिसर में बड़े भगवान के मंदिर के एक तरफ त्रिकाल चौबीसी के ७२ भगवान विराजमान की प्रेरणा दी थी। उसे भी मूर्तरूप देने का कार्य चल रहा था एवं भगवान ऋषभदेव के महामस्तकाभिषेक की भी वृहद् योजना चल रही थी।
‘‘भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक नहीं हैं प्रत्युत जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म सागरों वर्ष पूर्व-असंख्यातों वर्ष पूर्व अयोध्या में हुआ है, उन्हीं के वंश में नव लाख वर्ष पूर्व श्रीराम हुए हैं आदि…. एवं श्री ऋषभदेव के प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम से हमारे देश का नाम ‘भारतवर्ष’ है यह प्रचार-प्रसार भी तीव्रगति से चलाया जा रहा था।
आगे माघ शु. १२, वीर निर्वाण संवत् २५२० (ईसवी सन् १९९४) में त्रिकाल चौबीसी की ७२ प्रतिमाओं का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव एवं माघ शुक्ला १३ को प्रभु ऋषभदेव की ३१ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा का ‘महामस्तकाभिषेक’ राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ही प्रभावनापूर्ण सम्पन्न हुआ।
इस महोत्सव में राज्यपाल महामहिम मोतीलाल बोरा, मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह आदि नेताओं के आगमन भी हुए। पाँचवीं अनंतनाथ टोंक के निकट ‘राजकीय उद्यान’ का ‘ऋषभदेव उद्यान’ नामकरण होकर उसमें २१ फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा विराजमान हुई।
प्रतिष्ठा महोत्सव में मुख्यमंत्री मुलायम सिंह से चर्चा करके ब्र. रवीन्द्र कुमार ने तीन प्रस्ताव रखे थे। १. राजकीय उद्यान का नाम ऋषभदेव उद्यान, २. अवध विश्वविद्यालय में जैन चेयर-ऋषभदेव जैन पीठ की स्थापना, ३. नेत्र चिकित्सालय। इन तीनों की सभा में मुख्यमंत्री ने घोषणा करके शीघ्र ही क्रियान्वित कर दिया।
विश्वविद्यालय में जैन पीठ के लिए भवन के शिलान्यास हेतु ‘कुलपति श्री के.पी. नौटियाल’ ने मुझे आमंत्रित किया। पुन: वहाँ स्पेशल कन्वोकेशन (दीक्षान्त समारोह) रखकर मुझे ‘‘डी. लिट्.’’ की मानद उपाधि से सम्मानित भी किया था।
पुन: ऋषभदेव प्रभु के मंदिर के बायीं ओर श्री ऋषभदेव समवसरण रचना बनवाकर उसका पंचकल्याणक महोत्सव फाल्गुन कृष्णा पंचमी, सन् १९९५ को सम्पन्न हुआ।
विश्वविद्यालय में वह ऋषभदेव जैन पीठ का भवन भी बन गया है। उसके सामने के मुख्य गेट पर ऋषभदेव की पद्मासन प्रतिमा भी विराजमान हो गयी हैं और नेत्र चिकित्सालय भी चल रहा है। इसी मध्य सन् १९९४ के अयोध्या के हमारे वर्षायोग में ‘‘भारतीय संस्कृति के आद्यप्रणेता भगवान ऋषभदेव’’ के विषय पर जैन विद्वानों, डॉक्टर, प्रोपेâसर आदि का सेमिनार भी आयोजित हुआ था। इसी अयोध्या में बैठकर मैंने ‘‘ऋषभ जन्मभूमि अयोध्या’’ पुस्तक लिखी।
तभी श्री ऋषभदेव विधान भी बनाया है एवं भगवान का दीक्षा तीर्थ एवं केवलज्ञान तीर्थ प्रयाग में नूतन तीर्थ निर्माण की भी मैंने प्रेरणा दी थी।
मांगीतुंगी के दर्शन
अयोध्या में ही आर्यिका श्रेयांसमती माताजी जो मांगीतुंगी में विराजमान थीं। उनके अनेकों पत्र आने लगे कि-माताजी! आप यहाँ आकर भगवान मुनिसुव्रत एवं २४ तीर्थंकर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न करावें चूँकि इस तीर्थ विकास के प्रेरणास्रोत पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज एवं आर्यिका श्री अरहमती माताजी तो चले गये हैं। आपको ससंघ आकर एवं ब्रह्मचारी रवीन्द्र कुमार को आगे होकर मांगीतुंंगी के भगवन्तों की प्रतिष्ठा कराना ही है।
अयोध्या से विहार करके मेरा वर्षायोग १९९५ का हस्तिनापुर में हो गया। चातुर्मास में भगवान के प्रचार-प्रसार की योजनाएँ बनाते हुए भी मैंने पंचवर्षीय जम्बूद्वीप महोत्सव कराकर ‘षट्खण्डागम ग्रंथ’ की संस्कृत टीका का लेखन कार्य महत्वपूर्ण प्रारंभ किया था।
तीर्थयात्रा के मध्य टीका लेखन (२७ नवम्बर १९९५ से ४ अप्रैल २००७ तक)
हस्तिनापुर तीर्थ पर जम्बूद्वीप महामहोत्सव के समय शरद्पूर्णिमा १९९५ को षट्खण्डागम ग्रंथ की संस्कृत टीका प्रारंभ कर मांगीतुंगी तीर्थ पर स्थित आर्यिकारत्न श्री श्रेयांसमती माताजी की अत्यधिक प्रेरणा एवं क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के अतीव आग्रह से मगसिर शु. पंचमी, (२७ नम्बर १९९५) को हस्तिनापुर से मांगीतुंगी की ओर मैंने मंगल विहार किया।
मार्ग में अनेक तीर्थ वंदना, धर्मप्रभावना करते हुए वैशाख शु. ९, शनिवार (२७ अप्रैल १९९६) को मांगीतुंगी क्षेत्र पर मेरा मंगल प्रवेश हुआ।
ज्येष्ठ शु. २ से षष्ठी, (दिनाँक १९ मई से २३ मई) तक मुनि श्री रयणसागरजी महाराज ससंघ, आर्यिका श्री श्रेयांसमती माताजी ससंघ एवं मेरे ससंघ सानिध्य में २१ फुट उत्तुंग भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ, चौबीस तीर्थंकर प्रतिमा, सहस्रकूट प्रतिमा आदि का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव सानंद सम्पन्न हुआ। वहीं १९९६ के चातुर्मास के मध्य मांगीतुंगी पर्वत पर श्री ऋषभदेव की १०८ फुट उत्तुंग प्रतिमा निर्माण की मैंने घोषणा की।
वहाँ से कार्तिक शु. पंचमी, (१५ नवम्बर १९९६) को मंगल विहार कर अहमदाबाद, उदयपुर आदि होते हुए चैत्र कृ. ६ (३० मार्च १९९७) को मेरा दिल्ली में आगमन हुआ। यहाँ भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती वर्ष घोषित करके मैंने १९९७ के चातुर्मास में चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान आदि अनेक धर्मानुष्ठान सम्पन्न कराए हैं।
पुन: कार्तिक शु. ५, (५ नवम्बर) को दिल्ली से विहार कर मैं हस्तिनापुर आ गई, यहाँ १९९८ के चातुर्मास में भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन आदि अनेक कार्यक्रम हुए हैं।
अनंतर दिल्ली आकर सन् १९९९ का चातुर्मास कनाट प्लेस, नई दिल्ली एवं सन् २००० का चातुर्मास ऋषभदेव कमल मंदिर, प्रीतविहार-दिल्ली में हुआ है। इनके मध्य ‘‘श्री ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव’’ आदि अनेक धर्मप्रभावना के कार्य सम्पन्न हुए हैं।
पुन: दिल्ली से कार्तिक शु. ५, (१ नवम्बर सन् २०००) को भगवान ऋषभदेव दीक्षा भूमि प्रयाग की ओर विहार करके १ जनवरी २००१ को नवतीर्थ ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली’’ पर मैं पहुंँची। वहाँ नव तीर्थ निर्माण, प्रतिष्ठा, महाकुंभ मस्तकाभिषेक आदि कार्यक्रम व कौशाम्बी-प्रभासगिरी में पंचकल्याणक सम्पन्न हुए।
वहाँ से पुनरपि विहार कर दिल्ली आकर मेरे सानिध्य में २००१ के चातुर्मास में भगवान महावीर स्वामी के छब्बीस-सौवें जन्मकल्याणक महोत्सव के अन्तर्गत ‘‘छब्बीस विश्व शांति महावीर विधान’’ आदि अनुष्ठान हुए हैं।
अनंतर माघ शु. ८ (२० फरवरी २००२) को दिल्ली से भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर (जि.-नालंदा) की ओर मेरा मंगल विहार हुआ। मध्य में तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली प्रयाग में २००२ का चातुर्मास करके कार्तिक शु. ६, (१० नवम्बर) को वहाँ से विहारकर वाराणसी, आरा, पटना होते हुए पौष कृ. १०, रविवार (२९ दिसम्बर २००२) को कुण्डलपुर पहुँची, वहाँ पर ‘‘नंद्यावर्त महल’’ नवतीर्थ का निर्माण एवं विशाल पंचकल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ।
पुन: पावापुरी, राजगृही, सम्मेदशिखर आदि की यात्रा करके २००३ व २००४ के चातुर्मास कुण्डलपुर में सम्पन्न किये।
तत्पश्चात् वहाँ से विहार कर भगवान पाश्र्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी (भेलूपुर) में भगवान पाश्र्वनाथ के २८८१वें जन्मजयंती महोत्सव वर्ष का उद्घाटन कराकर सारनाथ (सिंहपुरी) में भगवान श्रेयांसनाथ का पंचकल्याणक, अयोध्या में प्रभु ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक, टिकैतनगर (जि.-बाराबंकी, उ.प्र.) में पंचकल्याणक, अहिच्छत्र तीर्थ के दर्शन, महाभिषेक आदि धर्मप्रभावना के साथ-साथ ज्येष्ठ कृ. दूज, २५ मई २००५ को हस्तिनापुर तीर्थ पर मैंने मंगल प्रवेश किया है।
यहाँ ईस्वी सन् २००५ एवं २००६ के चातुर्मास में अनेक धर्मप्रभावना के कार्य सम्पन्न हुए हैं। इस मध्य संस्कृत टीका लेखन करते हुए सन् २००७ में वैशाख कृ. द्वितीया (४ अप्रैल २००७) को टीका पूर्ण करके अपने जीवन में आध्यात्मिक कलशारोहण किया एवं वैशाख शुक्ला पूर्णिमा को तेरहद्वीप जिनालय के जिनबिम्बों की राष्ट्रीय स्तर पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पूर्ण होकर जिनालय के शिखर पर स्वर्णिम कलशारोहण, ऐसे दो कलशारोहण हुए हैं।
तीर्थयात्रा के मध्य विभिन्न तीर्थ दर्शन एवं अनेक महोत्सवों का संक्षेप में विवरण
२७ नवम्बर १९९५ से २५ मई २००५ तक यात्रा के मध्य १. उत्तरप्रदेश, २. दिल्ली, ३. हरियाणा, ४. राजस्थान, ५. मध्यप्रदेश,
६. महाराष्ट्र, ७. गुजरात से वापसी दिल्ली-हस्तिनापुर आकर पुनश्च प्रयाग-इलाहाबाद जाकर वापस आकर दिल्ली से पुन: ८. बिहार प्रदेश और ९. झारखण्ड ऐसे नव प्रदेशों के विहार-भ्रमण में लगभग दस हजार किलोमीटर की यात्रा हुई है।
सिद्धक्षेत्र की यात्रा
इस मध्य १. सिद्धवरकूट, २. ऊन (पावागिरी), ३. मांगीतुंगी, ४. पावागढ़, ५. तारंगा, ६. मथुरा, ७. गुलजारबाग (पटना),
८. पावापुरी, ९. राजगृही, १०. गुणावां, ११. सम्मेदशिखर ऐसे ११ सिद्धक्षेत्रों की वंदना हुई है। शिखरजी में चोपड़ाकुण्ड पर बैठकर भी मैंने टीका लिखी है।
तीर्थंकर जन्मभूमि यात्रा
ऐसे ही १. कौशाम्बी, २. कंपिलाजी, ३. शौरीपुर, ४. वाराणसी, ५. सिंहपुरी (सारनाथ), ६. चन्द्रपुरी, ७. कुण्डलपुर,
८. राजगृही, ९. अयोध्या, १०. रत्नपुरी (रौनाही) और ११. हस्तिनापुर ऐसे ११ जन्मभूमियों की वंदनाएँ की हैं।
प्रयाग-दीक्षा भूमि, केवलज्ञानभूमि तथा अहिच्छत्र-केवलज्ञान भूमि के दर्शन किए हैं।
इन तीर्थों पर बैठकर टीका लिखते हुए मुझे ऐसा लगता था कि मानो भगवान की वाणी के कुछ अमृत-कण ही इसमें आ रहे हैं। उन क्षणों में मुझे एक अद्भुत आनंद का अनुभव होता था। वास्तव में भगवन्तों की (शौरीपुर, कुण्डलपुर छोड़कर) सभी जन्मभूमियों में उनके केवलज्ञान कल्याणक में समवसरण की रचना हुई है और भगवान की दिव्यध्वनि से असंख्य जीवों ने धर्मामृत का पान किया है। उन तीर्थों की वंदना और वहाँ-वहाँ बैठकर टीका लेखन एक सुखद संयोग ही रहा है। इसी प्रकार दिल्ली, जयपुर, इंदौर, अहमदाबाद, उदयपुर, मेरठ आदि शहरों में अनेक प्रभावना के कार्यक्रम हुए हैं।
अतिशय क्षेत्र दर्शन
१. तिजारा, २. पद्मपुरी, ३. महावीरजी, ४. केशवरायपाटन, ५. चांदखेड़ी, ६. चमत्कारजी (सवाईमाधोपुर), ७. जयपुर-खानिया में चूलगिरि, ८. अंकलेश्वर (गुजरात), ९. महुआ, १०. अणिंदा पाश्र्वनाथ, ११. त्रिलोकपुर (जिला-बाराबंकी, उ.प्र.)आदि अतिशय क्षेत्रों के दर्शन किए है।
बृहत् पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव
सन् १९९६ में मांगीतुुंंगी सिद्धक्षेत्र, सन् १९९७ में प्रीतविहार, दिल्ली, सन् १९९८ में कमलानगर-मेरठ (उ.प्र.), सन् २००० में लालकिला मैदान-दिल्ली एवं सतघरा मंदिर-दिल्ली, सन् २००१ में प्रयाग-इलाहाबाद एवं प्रभासगिरी (कौशाम्बी) में, सन् २००३ में कुण्डलपुर (जिला-नालंदा), पावापुरी एवं राजगृही, सन् २००५ में सारनाथ (सिंहपुरी, काशी), सन् २००५ में ही टिकैतनगर (जिला बाराबंकी-उ.प्र.), पुन: सन् २००७ में हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर तेरहद्वीप जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा ऐसी १४ प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न हुई हैं। इसी मध्य लघु पंचकल्याणक अनेक हुए हैं।
चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान का अनुष्ठान
अक्टूबर १९९७ में दिल्ली में रिंग रोड पर विशाल पांडाल में एक साथ चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान बनाये गये। ३००० से अधिक श्रावक-श्राविकाओं ने कंकण बंधन कर केशरिया परिधान में पूजन विधान का अनुष्ठान किया तथा १० से १५ हजार लोग प्रतिदिन विधान को सुनकर एवं भक्ति करके आनंद लेते थे।
समय-समय पर तीन लोक, जम्बूद्वीप, इन्द्रध्वज, सिद्धचक्र, सर्वतोभद्र, कल्पद्रुम आदि अनेक विधान आदि होते रहे हैं तथा शांतिविधान, गणधरवलय विधान आदि सहस्रों लघु विधान हुए हैं।
भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार
९ अप्रैल सन् १९९८ में भारत की राजधानी दिल्ली से ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ का प्रवर्तन भारत के प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के करकमलों से हुआ।
जिसका सारे भारत में भ्रमण होकर यह समवसरण ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली’’ प्रयाग जैन तीर्थ पर स्थापित किया गया है। सन् २००३ में कुण्डलपुर से भगवान महावीर ज्योति रथ का भ्रमण कराया गया है।
भगवान ऋषभदेव कुलपति सम्मेलन
अक्टूबर १९९८ में हस्तिनापुर में ‘‘भगवान ऋषभदेव कुलपति सम्मेलन’’ हुआ। इसमें भारत के विश्वविद्यालयों के कुलपति महोदयों ने आकर जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के गुणगान किये। लगभग १०० से अधिक प्रोपेâसर, विद्वत्गण आदि आये।
वैशाख में मेरी आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती के समय सन् २००६ में जम्बूद्वीप स्थल पर ‘‘भट्टारक सम्मेलन’’ सम्पन्न हुआ है। इस सम्मेलन में १२ भट्टारक दक्षिण भारत से आए थे। वाराणसी, फैजाबाद (अयोध्या), मेरठ आदि में विश्वविद्यालयों में प्रवचन एवं अनेक शहरों में, जेल में भी प्रवचन आदि हुए हैं। समय-समय पर अनेक विद्वानों की संगोष्ठी, शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर आदि हुए हैं।
अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव
४ फरवरी २००० में दिल्ली में ‘‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव’’ मनाया गया। इसमें अष्टापद-कैलाशपर्वत की रचना करके १००८ निर्वाणलाडू चढ़ाये गये एवं त्रिकाल चौबीसी के ७२ रत्नों के जिनबिम्बों की एवं श्री ऋषभदेव की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई।
इस निर्वाण महोत्सव का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने किया है।
कैलाश मानसरोवर यात्रा
अक्टूबर २००० में वर्षायोग के मध्य प्रीतविहार-दिल्ली की जैन समाज ने विशाल कैलाश मानसरोवर पर्वत बनवाकर त्रिकाल चौबीसी भगवन्तों को विराजमान कराया, लाखों भक्तों ने कैलाश मानसरोवर यात्रा करके भगवान ऋषभदेव का जयघोष किया है।
महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव
सन २००१ में प्रयाग-इलाहाबाद में भगवान ऋषभदेव का १००८ कुंभों से महाकुंभ मस्तकाभिषेक महोत्सव सम्पन्न हुआ है। प्रयाग में महाकुंभनगर में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित ‘‘नवम धर्म संसद’’ में श्री रामचंद्र की जन्मभूमि अयोध्या में ही उनसे पूर्व जनमे प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव पर मेरे द्वारा प्रवचन हुए। पुनश्च कुंडलपुर, अयोध्या, हस्तिनापुर में भी महाकुंभ मस्तकाभिषेक हुए हैं।
विश्वशान्ति महावीर विधानानुष्ठान
सन् २००१ में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में विशाल पांडाल में एक साथ २६ मंडल विधान सुमेरु पर्वत के आकार के बनाये गए। प्रत्येक मंडल पर २६०० मंत्रपूर्वक रत्न चढ़ाये गये। यह विशाल पूजानुष्ठान भगवान महावीर स्वामी के छब्बीस सौवें जन्मकल्याणक महोत्सव के उपलक्ष्य में कराया गया है। इसमें सम्पूर्ण विश्व की शांति की कामना की गई।
महामहोत्सव
सन् १९९६ में गोम्मटगिरि तीर्थ का दशाब्दी महोत्सव मनाया गया। सन् २००१ में प्रयाग-महाकुंभ नगर में श्री ऋषभदेव पांडाल में भगवान ऋषभदेव का निर्वाणलाडू चढ़ाकर निर्वाण महामहोत्सव मनाया गया। सन् २००५ में भगवान पाश्र्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी भेलूपुर में पौष कृ.११ को भगवान पाश्र्वनाथ का २८८१ वां जन्मकल्याणक महोत्सव का उद्घाटन किया गया। यह महोत्सव तीन वर्ष तक दिल्ली आदि सारे भारत में मनाया गया पुनः सन् २००८ मेें अहिच्छत्र में इसका समापन किया गया।
सन् २००५ अक्टूबर में हस्तिनापुर में चतुर्थ जंबूद्वीप महामहोत्सव, २००६ में वैशाख कृष्णा दूज को मेरा (गणिनी ज्ञानमती माता जी का) आर्यिका दीक्षा स्वर्णजयंती महोत्सव आदि कार्यक्रम विशाल स्तर पर संपन्न हुए हैं।
नवतीर्थ निर्माण
इस मध्य मांगीतुंगी में सहस्रकूट कमल मंदिर, १०८ फुट उत्तुंग श्री ऋषभदेव प्रतिमा निर्माण घोषणा, दिल्ली-प्रीतविहार में कमल मंदिर, मेरठ में कमलों पर २४ तीर्थंकर, २० तीर्थंकर, प्रयाग में तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली नवतीर्थ निर्माण, कुण्डलपुर में नंद्यावर्त महल नवतीर्थ निर्माण, सनावद (म.प्र.) में णमोकार धाम, अहिच्छत्र में ७२-७२ पांखुड़ियों के दस कमलों पर तीस चौबीसी प्रतिमा विराजमान, खेरवाड़ा में (केशरिया जी के निकट) कैलाश पर्वत की रचना, सम्मेदशिखर, पावापुरी, गुणावां, राजगृही में नवमंदिर निर्माण व मानस्तंभ निर्माण, पिड़ावा (राजस्थान) में समवसरण रचना, माधोराजपुरा (राज.) आर्यिका दीक्षा भूमि में नूतन तीर्थ रचना आदि अनेक भव्य निर्माण भी सम्पन्न हुए हैं।
राजनेता आदि के आगमन
इस मध्य प्रतिष्ठा महोत्सव, महायज्ञविधानानुष्ठान आदि कार्यक्रमों में अनेक राजनेता आये हैं। दिल्ली में १९९७ में भारत गणतंत्र शासन के पूर्व राष्ट्रपति श्री शंकरदयाल शर्मा, पावापुरी (बिहार प्रांत) में मई २००३ में महामहिम राष्ट्रपति श्री ए.पी.जे. अब्दुलकलाम, दिल्ली में सन् १९९८ में एवं २००० में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी, अहमदाबाद में गुजरात के राज्यपाल श्री कृष्णपाल सिंह, प्रयाग में राज्यपाल आचार्य श्री विष्णुकांत जी शास्त्री, कुण्डलपुर (जिला-नालंदा) में राज्यपाल श्री विनोदचंद पाण्डेय एवं श्री एम.रामा जोयिस आए हैं। मांगीतुंगी में १९९६ में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री श्री मनोहर जोशी, अहमदाबाद में १९९७ में गुजरात के मुख्यमंत्री श्री शंकरसिंह वाघेला, दिल्ली में १९९७ में दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंहवर्मा, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह, सन् २००० में मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित, टिवैâतनगर (जि.-बाराबंकी) उ.प्र. में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव आये हैं। इसी प्रकार समय-समय पर रेलमंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री आदि अनेक नेतागण भी आते रहे हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री श्यामल कुमार सेन, न्यायमूर्ति श्री सुधीर नारायण, न्यायमूर्ति श्री एम.सी. जैन (इलाहाबाद), न्यायमूर्ति श्री मिलापचंद जैन (लोकायुक्त-राजस्थान) आदि आये हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. श्री पी.रामचंद्रराव, राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय-फैजाबाद के कुलपति डॉ. एस.वी. सिंह, दिल्ली के लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ के कुलपति प्रो. वाचस्पति उपाध्याय आदि भी समय-समय पर आकर धर्मचर्चा करते हुए लाभान्वित हुए हैं।
सन् १९९८ में कुलपति सम्मेलन में बाईस कुलपति आये हैं एवं अनेक प्रोेफेसर, विद्वद्गण आये हैं।
इसी प्रकार अंतर्राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष-विश्वहिन्दू परिषद-श्रीयुत अशोक सिंघल, सांसद एवं विधिवेत्ता श्री एल.एम. सिंघवी, वित्त राज्यमंत्री श्री वी. धनंजय कुमार जैन, श्री वीरेन्द्र हेगड़े, श्री कल्लप्पा आवाड़े, साहू श्री अशोक कुमार जैन, श्री देवकुमार सिंह कासलीवाल आदि महानुभाव आकर धर्मप्रभावना में भाग लेकर प्रसन्न हुए हैं।
यात्रा के मध्य टीका लेखन कार्य
अक्टूबर १९९५ से अप्रैल २००७ तक ९ प्रदेशों के भ्रमण में दश हजार किमी. की यात्रा के मध्य अनेक तीर्थों की यात्रा, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, विधानानुष्ठान आदि सभी महामहोत्सवों में मेरी प्रेरणा एवं मेरा ससंघ सानिध्य रहते हुए भी मेरा संस्कृत टीका का लेखनकार्य निर्विघ्नतया होता रहा है।
भगवान महावीर स्वामी के शासन में दिगम्बर जैन महामुनि श्री धरसेनाचार्य से ज्ञान प्राप्तकर श्री पुष्पदंताचार्य एवं श्रीभूतबलि आचार्य ने ‘‘षट्खण्डागम’’ ग्रंथ की रचना की है। इसमें छह खण्ड हैंं-१. जीवस्थान २. क्षुद्रकबंध ३. बंधस्वामित्व ४. वेदनाखण्ड ५. वर्गणाखण्ड एवं ६. महाबंध।
जीवस्थान-प्रथम खण्ड
श्री वीरसेनाचार्य द्वारा रचित उन ग्रंथों की प्राकृत-संस्कृत मिश्र ‘‘धवला’’ नाम की टीका के आधार से मैंने हस्तिनापुर तीर्थ पर वीर नि. संवत् २५२१ आश्विन शुक्ला पूर्णिमा-शरत् पूर्णिमा को ८ अक्टूबर सन् १९९५ में-
सिद्धान् सिद्ध्यर्थमानम्य, सर्वांस्त्रैलोक्यमूर्धगान्।
इष्ट: सर्वक्रियान्तेऽसौ, शान्तीशो हृदि धार्यते।।१।।
इस प्रकार मंगलाचरण लिखकर ‘सिद्धान्तचिंतामणि’’ नाम से संस्कृत टीका लिखना प्रारंभ किया।
प्रथम खण्ड की टीका को मैंने मांगीतुंगी यात्रा के मध्य लिखते हुए माधोराजपुरा (राजस्थान) में वीर नि. सं. २५२३, फाल्गुन कृ. १३ (दिनाँक ७-३-१९९७) को पूर्ण किया। इस प्रथम खण्ड में छह ग्रंथ हैं और सूत्र संख्या २३७५ है।
क्षुद्रकबंध-द्वितीय खण्ड
इस क्षुद्रकबंध की टीका मैंने पद्मपुरा-अतिशय क्षेत्र पर वीर नि. सं. २५२३, फाल्गुन शु. प्रतिपदा को (दिनाँक १०-३-१९९७) को प्रारंभ करके वीर नि. सं. २५२४, मार्गशीर्ष शु. १३ (दिनाँक १२-१२-१९९७) को हस्तिनापुर में पूर्ण किया। इसमें एक ग्रंथ है, सूत्र संख्या १५९४ है।
बंधस्वामित्वविचय-तृतीय खण्ड
इसकी टीका मैंने हस्तिनापुर में मार्गशीर्ष शु. १३ (दि. १२-१२-१९९७) को प्रारंभ की। पुन: ऋषभदेव कमल मंदिर प्रीतविहार, दिल्ली में वीर नि. सं. २५२५, द्वि. ज्येष्ठ शु. ५, श्रुतपंचमी के दिन दिनाँक १८-६-१९९९ को पूर्ण की है। इसमें एक ग्रंथ है एवं सूत्र संख्या ३२४ है।
वेदना खण्ड-चतुर्थ खण्ड
मैंने जयसिंहपुरा, नई दिल्ली, अग्रवाल दि. जैन मंदिर में वीर नि. सं. २५२५, आश्विन शु. १५-शरत् पूर्णिमा (दिनाँक २४-१०-१९९९) को प्रारंभ की। पुन: प्रयाग, शौरीपुर, कुण्डलपुर, पावापुरी, सम्मेदशिखर आदि तीर्थों की यात्रा व तीर्थ विकास आदि कार्यों के मध्य वीर नि. सं. २५३०, मार्गशीर्ष शु. १३ (दिनाँक ६-१२-२००३) में राजगृही तीर्थ पर पूर्ण की है। इसमें चार ग्रंथ हैं एवं सूत्र संख्या १५२५ है।
वर्गणा खण्ड-पंचम खण्ड
इस ग्रंथ की टीका को मैंने वीर नि. सं. २५३०, पौष कृ. ११ (दि. १९-१२-२००३) को कुण्डलपुर (जि.-नालंदा) में प्रारंभ किया। पुन: पावापुरी, वाराणसी, अयोध्या, अहिच्छत्र आदि यात्रा करते हुए हस्तिनापुर आकर वीर नि. सं. २५३३, वैशाख कृ. २ (दिनाँक ४-४-२००७) में भगवान पाश्र्वनाथ के गर्भकल्याणक के पवित्र दिन एवं अपनी आर्यिका दीक्षा तिथि के दिन पूर्ण किया है। इसमें चार गं्रथ हैं एवं सूत्र संख्या १०२३ है।
वर्तमान में ‘धवला’ नाम से प्रसिद्ध इन षट्खण्डागम के पाँच खण्डों में हिन्दी अनुवाद सहित १६ पुस्तवेंâ प्रकाशित हैं। मैंने भी इन्हें १६ पुस्तकों में विभक्त किया है। इन गं्रथों में कुल सूत्र ६८४१ हैं। मेरे द्वारा लिखित पेज ३११५ हैं।
त्रित्रिपंचद्विवीराब्दे, वैशाखे द्वितयेऽसिते।
हस्तिनागपुरे तीर्थे, टीकेयं परिपूर्यते।।७।।
श्रीशान्तिनाथतीर्थेशं, नत्वात्यन्तिकशान्तये।
वन्द्यन्ते सर्वसिद्धाश्चा-प्यन्ते शुद्धात्मसिद्धये।।१०।।
इस टीका के प्रारंभ में मैंने सिद्धों की वंदना करके भगवान शांतिनाथ को हृदय में विराजमान किया था। पुन: टीका के समापन में भगवान शांतिनाथ को नमस्कार करके अनंत सिद्धों की वंदना की है।
इस ग्रंथ की पूर्णता के बाद वीर नि. सं. २५३३, वैशाख शु. ११ से पूर्णिमा तक बृहत् स्तर पर तेरहद्वीप जिनालय के जिनबिम्बों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के मध्य वैशाख शुक्ला १४, दिनाँक १-५-२००७ को ‘षट्खण्डागम श्रुत महोत्सव’’ मनाकर इन सोलहों ग्रंथों की सभी भक्तों ने पूजा की है।
श्री ऋषभदेव चरितम्
इन्हीं ११ वर्षों के मध्य वी.नि.सं. २५२४, मार्गशीर्ष शु. १२ (११-१२-१९९७) को हस्तिनापुर में ‘श्रीऋषभदेवचरित’ को संस्कृत में लिखना प्रारंभ किया एवं वी.नि.सं. २५२६, शरद्पूर्णिमा (२४-१०-१९९९) को जयसिंहपुरा, नई दिल्ली में पूर्ण किया।
विश्वशांति महावीर विधान
भगवान महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव के अवसर पर वी. नि.सं. २५२६ को कार्तिक कृ. अमावस्या को मैंने प्रीतविहार, दिल्ली में ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ लिखना प्रारंभ किया। पुन: प्रयाग की ओर मंगल विहार करके मार्ग में ही लिखते हुए २६०० मंत्रों सहित इस विधान को प्रयाग (इलाहाबाद) पहुँचकर उसी दिन वी. नि. सं. २५२७, पौष शु. ६, दिनाँक १-१-२००१ को मात्र ६६ दिन में पूर्ण किया है।
इस प्रकार षट्खण्डागम टीका लेखन के मध्य ये दो और महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गये हैं।
अष्टादशमहाभाषा, लघुसप्तशतान्विता।
द्वादशांगमयी देवी, सा चित्ताब्जेऽवतार्यते।।
मेरी प्रेरणा से त्रिकाल चौबीसी विराजमान
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में इस अवसर्पिणी में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव हुए हैं एवं अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी हुए हैं। शाश्वत-अनादिनिधन जैनधर्म में इससे पूर्व भी उत्सर्पिणी काल में व आगे आने वाले चतुर्थकाल में चौबीस तीर्थंकर हो चुके हैं और होवेंगे। अत: ‘‘न भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक हैं न ऋषभदेव’’, इसी विषय को अच्छी तरह दिखलाने के लिए मैंने चार तीर्थों के विकास में वहाँ-वहाँ त्रिकाल चौबीसी विराजमान करायी हैं।
सर्वप्रथम अयोध्या में बहत्तर (७२) पांखुड़ी के एक कमल में त्रिकाल चौबीसी की प्रतिष्ठा सन् १९९४ में करायी है। पुन: प्रयाग तीर्थ पर वैâलाश पर्वत पर त्रिकाल चौबीसी के ७२ भगवान विराजमान हुए हैं। २००१ में इनका पंचकल्याणक हुआ है एवं गुफा में तथा पर्वत के ऊपर विराजमान भगवान ऋषभदेव का महाकुंभ मस्तकाभिषेक भी सम्पन्न हुआ है।
दिल्ली राजधानी में अंतर्राष्ट्रीय भगवान ऋषभदेव निर्वाण महामहोत्सव के मंगल अवसर पर कैलाशपर्वत पर ७२ रत्न प्रतिमाओं को विराजमान कराया था। वहीं पर्वत हस्तिनापुर में लाकर स्थापित किया है।
अनंतर कुण्डलपुर में भगवान महावीर की जन्मभूमि में तीन मंजिल का सुंदर मंदिर बनवाकर उसमें एक-एक मंजिल में चौबीस-चौबीस ऐसे त्रिकाल चौबीसी के ७२ भगवान विराजमान हुए हैं। इनकी प्रतिष्ठा सन् २००३ में सम्पन्न हुई है।
इसी प्रकार अहिच्छत्र तीर्थ पर सन् १९९३ में प्रेरणा दी थी। उसी के अनुसार दश कमलों पर ७२-७२ पांखुड़ियों पर तीन-तीन चौबीसी विराजमान हैं। ये ढाईद्वीप के ५ भरत व ५ ऐरावत क्षेत्रों की हैं।
कमलों पर व कमलदलों पर भगवान विराजमान हैं
कुण्डलपुर में नव कमलों पर नवग्रहशांतिकर नव भगवान विराजमान कराये हैं। हस्तिनापुर में बीस कमलों पर विदेह क्षेत्र के विद्यमान बीस तीर्थंकर भगवत्रान व नव कमलों में नवग्रह शांतिकारक नव भगवान विराजमान हैं। मांगीतुंगी में प्राचीन मंदिर में १०८ पांखुड़ी के एक कमल में १-१ पांखुड़ी में १०-१० ऐसे १००८ भगवान विराजमान कराये हैं।
भारत गणतंत्र के राष्ट्रपति जी का पदार्पण
हस्तिनापुर तीर्थ पर जम्बूद्वीप में पौष कृ. १० (२१ दिसम्बर २००८) के दिन तत्कालीन भारत की सर्वोच्च नागरिक महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील का आगमन हुआ। उन्होंने पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का मंगल आशीर्वाद प्राप्त करके अतीव प्रसन्नता की अनुभूति करते हुए नवनिर्मित तेरहद्वीप की स्वर्णिम रचना का दर्शन किया तथा महाभारतकालीन हस्तिनापुर का ऐतिहासिक परिचय भी प्राप्त किया।
तीन भगवान, तीन लोक प्रतिष्ठा एवं रजत जयंती महोत्सव
ईसवी सन् २०१० में जम्बूद्वीप स्थल पर ३१-३१ फुट भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ की प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, तीन लोक रचना का निर्माण उनमें विराजमान भगवन्तों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई, जम्बूद्वीप रचना का रजत जयंती महोत्सव ऐसे तीन महान कार्य सम्पन्न हुए। फाल्गुन शु. प्रतिपदा से पंचमी तक यह महोत्सव सम्पन्न हुआ।
इसी मध्य संघस्थ ब्रह्मचारिणी आस्था व ब्र. चन्द्रिका को फाल्गुन शुक्ला ३ को आर्यिका दीक्षा देकर आर्यिका सुव्रतमती व आर्यिका सुदृढ़मती नाम दिया।
तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय में जिनचैत्यालय
तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद के ‘‘कुलाधिपति’’ श्री सुरेश जैन ने मेरी प्रेरणा से विश्वविद्यालय में चैत्यालय बनाकर भगवान विराजमान हेतु मुझे आमंत्रित किया एवं वहाँ पर चैत्र शुक्ला एकादशी में भगवान विराजमान हुए। पुन: स्पेशल कन्वोकेशन (दीक्षान्त् समारोह) करके मुझे विश्वविद्यालय की ‘डी.लिट्.’ की मानद उपाधि एवं आर्यिका चन्दनामती को ‘पी.एच.डी.’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
भगवान महावीर के शासन की प्रभावना
भगवान महावीर स्वामी का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव सन् २००१ में राष्ट्रीय स्तर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में वर्ष भर मनाया गया। इसी संदर्भ में मेरा ससंघ कुण्डलपुर भगवान महावीर की जन्मभूमि की ओर विहार हुआ। वहाँ ‘नंद्यावर्त तीर्थ’ का सुंदर निर्माण हुआ है और भगवान महावीर स्वामी के शासन की बहुत ही प्रभावना हुई है।
भगवान पार्श्वनाथ का तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव
इसी विहार के मध्य वाराणसी में आकर भगवान पाश्र्वनाथ के जन्मकल्याणक के अवसर पर मैंने भगवान के तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव की घोषणा की थी। भगवान पाश्र्वनाथ को जन्म लेकर २८८० वर्ष हो गये हैं। मध्य में सम्मेदशिखर वर्ष घोषणा आदि के माध्यम से तीन वर्ष तक पाश्र्वनाथ के प्रचार-प्रसार को करते हुए अहिच्छत्र तीर्थ पर जाकर भगवान पाश्र्वनाथ एवं तीस चौबीसी का महामस्तकाभिषेक कराकर सन् २००८ में भगवान पाश्र्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्स्व का समापन घोषित किया गया।
भगवान शांतिनाथ की प्रभावना
हस्तिनापुर तीर्थ पर जम्बूद्वीप में पौष कृ. १० (२१ दिसम्बर २००८) के दिन तत्कालीन भारत की सर्वोच्च नागरिक महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील का आगमन हुआ। पुन: इस वर्ष पूरे भारत में दिगम्बर जैन समाज ने सर्वत्र शांति मंत्र के करोड़ों जाप्य किये-कराये एवं शांति विधान भी हजारों-हजारों भक्तों ने किये हैं।
विश्वशांति कलश यात्रा रथ प्रवर्तन
सोनागिरि सिद्धक्षेत्र (म.प्र.) में मेरे ससंघ सान्निध्य में ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी को भगवान शांतिनाथ के जन्म, दीक्षा एवं निर्वाणकल्याणक के पावन तिथि में सन् २०१५ में मेरे मांगीतुंगी आते हुए मार्ग में प्रथम ‘‘विश्वशांति कलश रथ’’ में भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा विराजमान करके अभिषेक पूजा-विधिपूर्वक श्री सुरेशचंद जैन-कुलाधिपति (तीर्थंकर महावीर विश्विश्वविद्यालय-मुरादाबाद) की अध्यक्षता में रथ प्रवर्तन का उद्घाटन किया गया। मेरे ससंघ सान्निध्य में शिवपुरी (म.प्र.) आदि एक दो स्थानों में प्रभावना होते हुए पुनश्च इंदौर से ‘सर सेठ हुकुमचंद जैन’ के प्रांगण से श्री प्रदीप कासलीवाल के नेतृत्व में मध्यप्रदेश के भ्रमण हेतु रथ का प्रवर्तन प्रारंभ हुआ है।
इसी प्रकार द्वितीय रथ का प्रवर्तन मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र से हुआ है।
रथ भ्रमण में सहयोग प्रदान करने वाले विद्वान्- ब्र. अध्यात्म जैन-जम्बूद्वीप, पं. विजय कुमार जैन-जम्बूद्वीप, डॉ. जीवन प्रकाश जैन-जम्बूद्वीप, पं. नरेश कुमार जैन-जम्बूद्वीप, पं. भरत काला-मुम्बई, पं. प्रवीणचंद जैन-जम्बूद्वीप, पं. सतेन्द्र कुमार जैन-तिवरी, पं. वीरेन्द्र कुमार जैन-जम्बूद्वीप, पं. सुरेश जैन मारोरा-इंदौर।
एक दृष्टि में : भारतवर्षीय विश्वशांति कलश यात्रा रथ के ७ महीने
-प्रथम रथ-
प्रान्तीय रथ प्रवर्तन शुभारंभ समापन
मध्यप्रदेश प्रान्तीय प्रवर्तन ३० जून २०१५, इंदौर ५ अगस्त २०१५, भिण्ड
दिल्ली प्रान्तीय प्रवर्तन ११ अगस्त २०१५, दि. जैन ११ सितम्बर २०१५, पश्चिम विहार (दिल्ली)
लाल मंदिर, चांदनी चौक, दिल्ली
हरियाणा प्रान्तीय प्रवर्तन १३ सितम्बर २०१५, सोनीपत ३० सितम्बर २०१५, गुड़गाँवा
पश्चिमी उत्तरप्रदेश प्रान्तीय प्रवर्तन १ अक्टूबर २०१५, हस्तिनापुर २१ अक्टूबर २०१५, बिजनौर
दिल्ली प्रान्तीय प्रवर्तन २३ अक्टूबर २०१५, ३ नवम्बर २०१५, द्वारिका
बिहारी कालोनी
उत्तरप्रदेश-नोएडा, गाजियाबाद प्रवर्तन ४ नवम्बर २०१५, नोएडा ६ नवम्बर २०१५, गाजियाबाद
पूर्वांचल प्रान्तीय प्रवर्तन १५ नवम्बर २०१५, कलकत्ता १६ दिसम्बर २०१५, आरा
(प. बंगाल, आसाम, नागालैण्ड,
झारखंड, बिहार आदि)
उत्तरप्रदेश-अवध प्रान्तीय प्रवर्तन १८ दिसम्बर २०१५, बनारस ३१ दिसम्बर २०१५, मुरादाबाद
राजस्थान प्रान्तीय प्रवर्तन ३ जनवरी २०१६, जयपुर २९ जनवरी २०१६, अजमेर
उत्तरप्रदेश-आगरा मण्डल प्रवर्तन ३१ जनवरी २०१६, आगरा ७ फरवरी २०१६, फिरोजाबाद
-द्वितीय रथ-
गुजरात प्रान्तीय प्रवर्तन १८ अक्टूबर २०१५, सूरत १७ दिसम्बर २०१५, वापी
महाराष्ट्र प्रान्तीय प्रवर्तन १८ दिसम्बर २०१५, मुम्बई ८ फरवरी २०१६, सटाणा
मूर्ति निर्माण का संक्षिप्त इतिहास
वर्षायोग १९९६ में मांगीतुंगी में-
शरदपूर्णिमा के पूर्व दिन आश्विन शुक्ला की चतुर्दशी की रात्रि में मैं लगभग २ बजे से ध्यान कर रही थीं। सहसा ब्रह्ममुहूर्त में मेरे मन में आया कि यदि यहाँ पर्वत पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके कोई पर्वत मिलता है। तब भगवान ऋषभदेव के नाम से १०८ फुट की प्रतिमा का निर्माण हो तो हम सभी के लिए व सारे भारत ही क्या विश्व के लिए भी महामांगलिक होगा।
चूँकि पहले दक्षिण दिशा की ओर मुख करके १२० की भगवान मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा हेतु प्रयास करने से अनेक हानियाँ हुई थीं।
मेरी घोषणा के अनंतर उसी दिन सभी प्रतिष्ठित श्रावकों ने श्री १०८ फुट मूर्ति निर्माण कमेटी का गठन करके ब्र. रवीन्द्र कुमार को अध्यक्ष जयचंद कासलीवाल, विधायक को कार्याध्यक्ष एवं पन्नालाल जैन पापड़ीवाल को महामंत्री बनाकर ट्रस्ट को बनाकर ‘नासिक’ से उसका रजिस्ट्रेशन कराना, पुन: वन विभाग पहाड़ को लेने आदि का पुरुषार्थ प्रारंभ हुआ।
१. प्रेरणा एवं घोषणा- आश्विन शु. १५ (शरदपूर्णिमा), वी. नि. सं. २५२२, विक्रम सं. २०५३
२६ अक्टूबर १९९६, शनिवार
द्वारा-पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी
२. शिलापूजन- फाल्गुन वदी ५, वी. नि. सं. २५२८, विक्रम सं. २०५८
३ मार्च २००२, रविवार
नोट- ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन (स्वामीजी) एवं अनेक राजनेताओं की उपस्थिति में संघपति श्री महावीर प्रसाद जैन-श्रीमती कुसुमलता जैन, साउथ एक्स., दिल्ली परिवार द्वारा। विशेष उपस्थित-श्री कमलचंद जैन एवं प्रेमचंद जैन, खारीबावली-दिल्ली आदि।
४. अंतर्राष्ट्रीय पंचकल्याणक- माघ शु. ३ से १०, वी. नि. सं. २५४२, विक्रम सं. २०७२
११ से १७ फरवरी २०१६, गुरुवार से बुधवार
५. प्रथम महामस्तकाभिषेक- माघ शु. एकादशी, वी. नि. सं. २५४२, विक्रम सं. २०७२
१८ फरवरी २०१६, गुरुवार
६. गिनीज वल्र्ड रिकॉर्ड- फाल्गुन कृ. द्वादशी, वी. नि. सं. २५४२, विक्रम सं. २०७२
६ मार्च २०१६, रविवार
नोट – इस दिन महोत्सव के समापन अवसर पर गिनीज वल्र्ड रिकार्ड (लंदन) के अधिकारियों ने स्वयं मांगीतुंगी पधारकर भगवान ऋषभदेव को विश्व की सबसे ऊँची जैन प्रतिमा (११३ फुट) के रूप में अपने रिकॉर्ड में दर्ज किया और पूज्य माताजी के करकमलों में सर्टिफिकेट प्रदान किया।
विशेष सहयोग
आर्यिका चंदनामती एवं प्रथम पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर ने दिल्ली, हस्तिनापुर आदि रहते हुए भी केवल एक लक्ष्य बड़ी मूर्ति के निर्माण में दातारों को विशेषरूप से जोड़ने का प्रयास किया है और धनराशि भी हस्तिनापुर से मांगीतुंगी भिजवाते रहे हैं। ब्र. रवीन्द्र कुमार स्वयं एवं अनिल जैन-दिल्ली (कार्याध्यक्ष), नरेश जैन बंसल-दिल्ली को साथ में ले लेकर प्राय: हर महीने एक बार, कभी दो बार, कभी तीन-तीन बार भी मांगीतुंगी आकर कार्य को मूर्तरूप देते रहे हैं। डॉ. पन्नालाल पापड़ीवाल एवं इंजी. सी. आर.पाटिल अधिकतम मांगीतुंगी रहकर कार्य को संभालते रहे हैं। मैं समझती हूँ कि इन भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा के निर्माण में व महामहोत्सव में भारत ही क्या विदेश के भी पूरी दिगम्बर जैन समाज का किन्हीं का धन से, किन्हीं का मन से व किन्हीं का तन से सहयोग रहा ही रहा है।
महामहोत्सव एक दृष्टि में
१०८ फीट उत्तुंग श्री ऋषभदेव की प्रतिमा के नेत्र बनाकर माघ कृ. १, रविवार (दि. २४-१-२०१६) को पुष्य नक्षत्र में शिल्पी ने प्रतिमा को पूर्ण किया है।
श्री ऋषभदेव उद्यान के निकट इन्द्रध्वज पांडाल में पौष शु. १० को झण्डारोहण करके-पौष शु. पूर्णिमा भगवान ऋषभदेव की योगनिरोध तिथि से (दि. २३-१-२०१६) ऋषभदेव विधान (वृहत्) प्रारंभ होकर माघ कृ. १४ (दि. ७-२-२०१६) तक विधानपूर्ण एवं पूर्णाहुति।
माघ कृ. अमावस्या से माघ शु. २ तक शांति विधान, कल्याणमंदिर विधान, वास्तु विधान आदि।
२८ एकड़ के परिसर में मध्य में ‘सर्वतोभद्र महल’ नाम से विशेष कलाकृति से सहित २९० फीट चौड़ा, ४१० फीट लम्बा पांडाल बनाया गया। इसमें ९० फीट चौड़ा, १४४ फीट लम्बा एवं ५ फीट ऊँचा मंच बनाया गया। इसके मध्य तीन वेदी थीं। जिनकी चौड़ाई ११ फीट एवं ऊँचाई ९ फीट थी।
माघ शु. ३ से फाल्गुन कृ. १२ (दि. ११ फरवरी से ६ मार्च २०१६) २५ दिन तक कार्यक्रम-
माघ शु. ३, दिनाँक-११-२-२०१६ को झण्डारोहण
माघ शु. ५ (दि. १२-२-२०१६) यागमण्डल विधान
माघ शु. ६ से १० (दि. १३ से १७-२-२०१६) तक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव
प्रतिष्ठा महोत्सव में ७ प्रतिष्ठाचार्य रहे हैं-
१. बाल ब्र. पं. विजय कुमार जैन निवासी जम्बूद्वीप–हस्तिनापुर, २. पं. नरेश कुमार जैन नि. जम्बूद्वीप–हस्तिनापुर, ३. पं. दीपक जैन उपाध्याय, सांगली (महाराष्ट्र), ४. पं. प्रदीप जैन-मुम्बई, ५. पं. वृषभसेन जैन उपाध्याय, मालगांव (महा.), ६. पं. सतेन्द्र जैन-तिवरी-जबलपुर (म.प्र.), ७. पं. सम्मेद जैन, साजणी (महा.)
इन विद्वानों में से दो विद्वान् सर्वतोभद्र मण्डप में विराजित ७०० प्रतिमाओं के ऊपर विधिविधान करते थे। दो विद्वान् ऋषभगिरि मांगीतुंगी पर्वत पर विराजमान विशालकाय १०८ फुट उत्तुंग खड्गासन भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा पर कल्याणक क्रियाएँ सम्पन्न करते रहे हैं एवं दो विद्वान् शांतिनाथ उद्यान में विराजमान सवा पाँच फुट पद्मासन श्री शांतिनाथ प्रतिमा पर क्रियाएं करते रहे हैं।
इसी मध्य माघ शु. ६, दि. १३-२-२०१६ को मध्यान्ह में श्री अमित शाह (राष्ट्रीय अध्यक्ष-भाजपा) का आगमन हुआ है।
माघ शु. ९ (दि. १६-२-२०१६) की मुख्य सभा में श्री देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री (महाराष्ट्र) मुख्य अतिथि रहे हैं।
पंचकल्याणक महामहोत्सव में सर्वतोभद्र महल पांडाल में २५००० श्रद्धालुजनों के मध्य ५००० इन्द्र-इन्द्राणी केशरिया परिधान में प्रतिदिन २७ पांडुकशिला पर २७ भगवन्तों को विराजमान करके पंचामृत अभिषेक एवं शांतिधारा करते थे। यह दृश्य अभूतपूर्व रहा है।
माघ शु. १० (दिनाँक १७-२-२०१६)
१. पंचकल्याणक महामहोत्सव समिति द्वारा-
महोत्सव में उपस्थित सभी दिगम्बर जैन आचार्य, एलाचार्य, उपाध्याय, मुनियों एवं आर्यिकाओं के पाद प्रक्षाल, अघ्र्य समर्पण एवं उनके करकमलों में शास्त्र भेंट, जपमाला भेंट।
२. सप्तम पट्टाचार्य श्री १०८ अनेकांतसागर जी महाराज एवं अन्य सभी आचार्यों ने मंच पर गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं आर्यिका श्री चंदनामती माताजी को पिच्छी, कमण्डलु एवं शास्त्र भेंट करके सम्मानित किया। कर्मयोगी पीठाधीश श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी को लवंगमाला आदि से विशेष सम्मानित किया।
३. दक्षिण भारत जैन सभा द्वारा- दिव्यावदान समारोह
सभा के कार्यकर्ताओं ने पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी को एवं आर्यिका श्री चंदनामती माताजी को प्रशस्ति भेंट करके, स्वामी रवीन्द्रकीर्ति को सम्मानित करके, अन्य विशिष्ट कार्यकर्ताओं का भी सम्मान किया।
४. रात्रि में सर्वतोभद्र महल (विशाल पांडाल) के सामने ऋषभगिरि पर्वत पर विराजमान १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की समस्त भक्तों ने घृत दीपकों एवं ५००० से अधिक विद्युत् दीपकों से महाआरती की, जिसका गोल्डन बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड में नाम दर्ज हुआ। इस मंगल अवसर पर धर्माधिकारी डॉ. वीरेन्द्र जैन हेगड़े भी सपरिवार आरती में सम्मिलित हुए। अनंतर साधु संघ की भी आरती की गई।
१०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक प्रारंभ-माघ शु. ११ (दिनाँक-१८-२-२०१६)
ऋषभगिरि पर्वत पर विराजमान १०८ फुट उत्तुंग खड्गासन भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक-
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘सिद्धिकलश’, ‘अमृत कलश’ एवं ‘हीरक कलश’ को विशेष मंत्रों से मंत्रित कर पीठाधीश के करकमलों में दिए, पुन: पीठाधीश श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी ने उन सौभाग्यशाली भक्तों के साथ नवनिर्मित मचान (प्लेटफार्म) पर जाकर भगवान का प्रथम महामस्तकाभिषेक प्रारंभ किया, उस समय का दृश्य एक अभूतपूर्व रहा है। पुन: पूर्व निर्धारित क्रमानुसार सौधर्मेन्द्र-इन्द्राणी आदि ने प्रथम महामस्तकाभिषेक किया है।
मध्यान्ह में पांडाल में तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री सुरेश जैन द्वारा स्वामीजी को ‘मैनेजमेंट गुरु’ की उपाधि से अलंकृत कर विशेष सम्मान किया गया।
पुनश्च माघ शुक्ला द्वादशी से लेकर यह महामस्तकाभिषेक लगातार १ वर्ष तक चलता रहा है।
अनंतर नवग्रह शांतिकर नव जिनप्रतिमाओं का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराकर माघ शुक्ला १०, वीर नि. संवत् २५४३ के दिन यह महामस्तकाभिषेक महाशांतिधारापूर्वक पूर्ण किया गया है। इसी दिन महामस्तकाभिषेक समापन की घोषणा हुई है।
प्रथम प्रतिष्ठापना महामहोत्सव एवं पंचकल्याणक
माघ शुक्ला ३ से १० तक मांगीतुंगी में मूर्ति निर्माण कमेटी द्वारा निर्मापित नूतन स्थल ‘ऋषभदेवपुरम्’ में नवग्रहशांति जिनप्रतिमाओं का पंचकल्याणक महोत्सव हुआ एवं एक वर्ष तक चल रहे भगवान ऋषभदेव का महामस्तकाभिषेक समापन किया गया।
समापन समारोह में कुलाधिपति श्री सुरेश जैन (तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय-मुरादाबाद) की अध्यक्षता में अंतिम महाशांतिधारा करने का सौभाग्य श्री विद्याप्रकाश जैन-संजय जैन, अजय जैन दीवान परिवार-सूरत वालों ने प्राप्त किया है।
मेरा मंगल यात्रा हेतु विहार व पुनरागमन
फाल्गुन शु.९, वीर सं. २५४३, ६ मार्च २०१७ को मेरा मंगल विहार कचनेर, पैठण, गजपंथा आदि क्षेत्रों की ओर हुआ। उसी मध्य मुम्बई में आचार्यश्री नेमिसागर जी महाराज द्वारा बनाये गये पोदनपुर बोरीवली तीर्थ के दर्शन हेतु मुम्बई में हुआ। वहाँ भगवान ऋषभदेव-भरत-बाहुबली का महामस्तकाभिषेक, रत्नों की चौबीसी प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि कार्यक्रम सम्पन्न हुए।
भक्तों के विशेष आग्रह से मुम्बई में वर्षायोग हुआ। वहाँ पर वर्षायोग के मध्य भाण्डुप के जैनम् हॉल में एवं मुम्बई के प्रसिद्ध नेस्को एक्जीविशन हॉल में भी अनेक धर्मप्रभावना के वृहत् आयोजन सम्पन्न हुए हैं। जो कि अतिशय महत्वपूर्ण रहे हैं।
इस प्रकार ईसवी सन् १९९२ से लेकर सन् २०१७ तक ये पच्चीस वर्ष ‘भगवान ऋषभदेवमय’ रहे हैं। आगे भी भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान शांतिनाथ, भगवान महावीर तक जैन शासन की प्रभावना के कार्य होते रहें। सभी दिगम्बर जैन समाज के भक्तगण जैनधर्म की प्रभावना में अपने जीवन को समर्पित करते रहें, यही मेरी भावना है।
।।जैनं जयतु शासनम्।।
पंचमकाल में पहला स्वर्णिम अवसर आया है,
विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा हमने पाया है।।टेक.।।
इक सौ आठ है फुट की प्रभुवर ऋषभदेव की प्रतिमा।
है आश्चर्य इस धरती का, अनुपम है इसकी गरिमा।।
गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी ने बताया है।
विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा हमने पाया है।।१।।
कर्मठता की मूरत हैं, स्वामी रवीन्द्रकीर्ति जी।
जन जन के संग करते हैं, माता की इच्छा पूर्ती।
हर जैनी ने इस निर्माण में द्रव्य लगाया है।
विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा हमने पाया है।।२।।
हम सबके धन धन्य नयन हैं, इस निर्माण को लखकर।
धन्य धरा अम्बर भी धन्य जिनधर्म ध्वजा फहराकर।।
चलो ‘‘चंदनामती’’ प्रभू ने सबको बुलाया है।
विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा हमने पाया है।।३।।