धर्मप्रिय बंधुओं!
यह हम सभी का महाभाग्य है कि ८४ लाख योनियों में भ्रमण करते हुए वर्तमान में हम जैनधर्म के अनुयायी बनकर भगवान ऋषभदेव आदि तीर्थंकर परम्परा के पूजक हैं। अत: हम सभी को इस जीवन में सतत जिनेन्द्र भक्ति के साथ पुण्यार्जन करते रहना परम आवश्यक है।
साथ ही आत्मकल्याण हेतु अभिषेक, पूजन आदि श्रावक के कर्तव्य और संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन हेतु दान का हमारे ग्रंथों में अत्यधिक महत्व बताया गया है। इन्हीं बातों के साथ अब हम सबके मध्य सर्वोच्च जैन साध्वी गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने शाश्वत तीर्थंकर जन्मभूमि महातीर्थ अयोध्या के नवविकास हेतु समाज को प्रेरित किया है।
अत: श्री दिगम्बर जैन अयोध्या तीर्थक्षेत्र कमेटी के अन्तर्गत इस शाश्वत तीर्थभूमि के विकास एवं नवनिर्माण की सुन्दर योजनाएॅँ बनायी गयी हैैं, जिसमें आप यथायोग्य तन-मन-धन न्यौछावर करके अपने जीवन को धन्य करें|
-जगद्गुरु पीठाधीश
स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी
(अध्यक्ष)
(१) अयोध्या अनंतानंत तीर्थंकरों की जन्मभूमि है, प्रत्येक काल में २४ तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में ही होता है।
(२) अयोध्या को प्रथम शाश्वत तीर्थ कहा गया है।
(३) अयोध्या की रचना इन्द्रों द्वारा की गई है।
(४) ‘‘अरिभि: योद्धुं न शक्या अयोध्या’’ अर्थात् कोई भी शत्रु, जिसे जीत न सके, उसे अयोध्या कहते हैं।
(५) अयोध्या के साकेता, विनीता, सुकोशला जैसे नाम भी शास्त्रोल्लेखित हैं।
(६) अयोध्या में इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव सहित ५ तीर्थंकर जन्मे हैं। भगवान ऋषभदेव करोड़ों-करोड़ वर्ष पूर्व हुए हैं।
(७) अयोध्या में अनंतों बार तीर्थंकरों के जन्म अवसरों पर सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर ने करोड़ों-करोड़ों रत्नों की वर्षा की है अत: यह रत्नगर्भा तीर्थभूमि कहलाती है।
(८) अयोध्या में ही इस युग के प्रथम राजा भगवान ऋषभदेव हुए हैं, जिन्होंने इस धरती पर शिक्षा का सूत्रपात किया।
(९) अयोध्या से ही असि (शस्त्र विद्या), मसि (लेखन विद्या), कृषि (खेती), विद्या (अध्ययन-अध्यापन), वाणिज्य (व्यापार) और शिल्प (कला) जैसी षट्क्रियाएँ भगवान ऋषभदेव द्वारा जीवन जीने के लिए सिखाई गई हैं।
(१०) अयोध्या में ही भगवान ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को अ, आ आदि अक्षर लिपि सिखाई, जो आज भी ब्राह्मी लिपि के नाम से सुप्रसिद्ध है और सुन्दरी पुत्री को १, २ आदि अंकलिपि सिखाई, जो आज भी गणित विद्या के रूप में हम सबके सामने विकसित है।
(११) अयोध्या ही भगवान ऋषभदेव के प्रथम पुत्र भगवान भरत चक्रवर्ती का जन्मस्थान है। इन्हीं ‘भरत’ के नाम से इस देश का नाम ‘भारत’ है।
(१२) अयोध्या से ही इक्ष्वाकुवंश की वृद्धि हुई है। भरत के प्रथम पुत्र अर्ककीर्ति के नाम से इस इक्ष्वाकुवंश को ही सूर्यवंश की संज्ञा प्राप्त हुई है। इसी के साथ ऋषभदेव भगवान के द्वितीय पुत्र बाहुबली के पुत्र सोमयश के नाम से चन्द्रवंश भी प्रसिद्ध हुआ। अत: अयोध्या से सूर्यवंश और चन्द्रवंश दोनों ही इक्ष्वाकुवंश की शाखाएँ प्रसिद्ध हुई हैं।
(१३) अयोध्या में ऋषभदेव भगवान के उपरांत इनके पुत्र भरत से शुभारंभ करके १४ लाख इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं ने लगातार राज्य करने के उपरांत दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त किया है और भगवान ऋषभदेव के समस्त १०१ पुत्र भी तपस्या करके मोक्ष गये हैं।
(१४) अयोध्या भगवान ऋषभदेव के अलावा भगवान अजितनाथ, भगवान अभिनंदननाथ, भगवान सुमतिनाथ और भगवान अनंतनाथ, इन तीर्थंकरों का भी जन्मस्थान है।
(१५) अयोध्या में युग की आदि में ८१ खण्ड (मंजिल) का ‘‘सर्वतोभद्र राजमहल’’ था, जिसमें भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ था। जबकि भगवान ऋषभदेव के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष अर्थात् ३००० फुट की मानी गयी है।
(१६) अयोध्या से ही प्रथम चक्रवर्ती भरत ने षट्खण्ड धरा पर विजय प्राप्त करके राज्य किया था।
(१७) अयोध्या में ही दशरथ पुत्र भगवान रामचन्द्र का जन्म हुआ, जिन्होंने अंत में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त किया। जैन आगम के अनुसार इनका जन्म इक्ष्वाकुवंशी परम्परा में लगभग ९ लाख वर्ष पूर्व हुआ है।
(१८) अयोध्या में ही सती सीता ने अपने अखण्ड शील के प्रभाव से अग्नि को सरोवर बनाया था और पृथ्वीमती आर्यिका माताजी के पास आर्यिका दीक्षा लेकर ६२ वर्षों तक घोर तपस्चर्या करके अंत में समाधिमरणपूर्वक स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त किया था।
(१९) अयोध्या से ही भोगभूमि के उपरांत कर्मभूमि की व्यवस्था प्रारंभ हुई और भगवान ऋषभदेव ने प्रजा को जीवन जीने की कला सिखाई।
(२०) अयोध्या में सौधर्म इन्द्र द्वारा सर्वप्रथम मध्य में एक जिनमंदिर और पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर इन चार दिशाओं में एक-एक जिनमंदिर का निर्माण किया गया था।