प्रश्न १. मोक्षमार्ग किसे कहते हैं और इसके कितने भेद हैं ?
उत्तर—सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता को मोक्षमार्ग कहते हैं । मोक्षमार्ग के दो भेद हैं— १. निश्चय मोक्षमार्ग—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की अभिन्न अवस्था। निवृत्ति, अभेद, वीतराग, साध्य, भूतार्थ ये सभी निश्चय मोक्षमार्ग के नाम हैं । २. व्यवहार मोक्षमार्ग—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की भिन्न/भेद रूप अवस्था। प्रवृत्ति, भेद, सराग, साधन और अभूतार्थ ये सभी व्यवहार मोक्षमार्ग के नाम है/ सम्यग्दर्शन ।
प्रश्न २. सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ?
उत्तर—विभिन्न दृष्टियों से सम्यग्दर्शन के विभिन्न लक्षण बताए गए हैं— १. सच्चे देव, शास्त्र और गुरुपर तीन मूढ़ता, छह अनायतन, आठ मद से रहित एवं आठ अंगों से सहित श्रद्धान करना । २. जीवादि सात तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धान करना । ३. स्व—पर पदार्थों का श्रद्धान करना । ४. शुद्ध आत्मा का श्रद्धान करना ।
प्रश्न ३. उत्पत्ति की अपेक्षा में सम्यग्दर्शन के कितने भेद हैं ?
उत्तर—उत्पत्ति की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं— १. निसर्गज सम्यग्दर्शन—दूसरों के उपदेश के बिना स्वत: ही पूर्वभव के संस्कार से उत्पन्न होता है । २. अधिगमज सम्यग्दर्शन—गुरुआदि के उपदेश पूर्वक जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है ।
प्रश्न ४. नयों की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के कितने भेद हैं ?
उत्तर—नयों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं— १. निश्चय सम्यग्दर्शन—पर पदार्थों से भिन्न शुद्ध आत्मा के श्रद्धान को निश्चय सम्यग्दर्शन कहते हैं । २. व्यवहार सम्यग्दर्शन—जीवादि सात तत्त्वों के श्रद्धान को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
प्रश्न ५. अन्तरंग निमित्त की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के कितने भेद हैं ?
उत्तर—अन्तरंग निमित्त की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के तीन भेद हैं— १. उपशम सम्यग्दर्शन—सम्यक्तव विरोधी दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति रूप तीन और चारित्रमोहनीय की अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम अर्थात् दबने पर जो श्रद्धान प्रकट होता है, उसे उपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं २. क्षयोपशम सम्यग्दर्शन—अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व इन ६ प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय व उपशम होने पर तथा सम्यक्त्वव के उदय में जो सम्यग्दर्शन होता है, उसे क्षयोपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं । ३. क्षायिक सम्यग्दर्शन—सम्यक्त्व विरोधी सात प्रकृतियों के अत्यन्त क्षय से जो श्रद्धान प्रकट होता है, उसे क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
प्रश्न ६. उपयोग की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के कितने भेद हैं ?
उत्तर—उपयोग की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं— १. सराग सम्यग्दर्शन—शुभोपयोग के साथ धर्मानुराग से प्रेरित होकर होने वाला श्रद्धान सराग सम्यग्दर्शन कहलाता है । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि गुणों की अभिव्यक्ति इसका प्रमुख लक्षण है । १. प्रशम—क्रोधादि कषायों के तीव्रता का अभाव। २. संवेग—संसार से भयभीत होना। ३. अनुकम्पा—प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव का होना। ४. आस्तिक्य—आत्मा, कर्म, कर्मफल, पुनर्जन्म आदि में आस्था का होना। २. वीतराग सम्यग्दर्शन—शुद्धोपयोग के साथ रहने वाला, राग रहित वीतराग चारित्र के साथ रहने वाले श्रद्धान को वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
प्रश्न ७. चारों अनुयोगों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप क्या है ?
उत्तर—चारों अनुयोगों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का स्वरूप निम्न है— १. प्रथमानुयोग—प्रथमानुयोग के ग्रंथों में वणिॅत महापरुषों के जीवन चरित्र पर यथावत् श्रद्धान। २. करणानुयोग—सप्त प्रकृतियों के उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम से होने वाला श्रद्धान। ३. चरणानुयोग—चारित्र विषयक ग्रंथों में वणिॅत मुनि धर्म एवं श्रावक धर्म पर यथावत् श्रद्धान रखना। ४. द्रव्यानुयोग—छह द्रव्य तथा सात तत्त्वों का यथावत् श्रद्धान रखना।
प्रश्न ८. सम्यग्दर्शन के दस भेद कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—सम्यग्दर्शन के दस भेद निम् हैं— १. आज्ञासम्यक्त्व—जनेन्द्र भगवान के उपदेश को आज्ञा मानकर स्वीकार करना । २. मार्ग सम्यक्त्व—मोक्षमार्ग की कल्याणकारी समझकर मार्ग पर श्रद्धान करना । ३. उपदेश सम्यक्त्व—६३ शलाका पुरुषों के जीवन चरित्र रूप उपदेश को सुनकर जो श्रद्धान उत्पन्न होता है । ४. सूत्र सम्यक्त्व—मुनियों के चारित्र निरुपक शास्त्रों को सुनकर उत्पन्न होने वाला श्रद्धान। ५. बीज सम्यक्त्व—करणानुयोग के ग्रंथों को सुनकर उत्पन्न होने वाला श्रद्धान। ६. संक्षेप सम्यक्त्व—जीवादि तत्त्वों को संक्षिप्त रूप से सुनकर होने वाला श्रद्धान। ७. विस्तार सम्यक्त्व—जीवादि तत्त्वों को विस्तार से सुनकर उत्पन्न होने वाला श्रद्धान। ८. अर्थ सम्यक्त्व—वचन विस्तार के बिना केवल अर्थ ग्रहण कर उत्पन्न होने वाला श्रद्धान। ९. अवगाढ़ सम्यक्त्व—श्रुतकेवली के सम्यक्त्व को अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं । १०. परम अवगाढ़ सम्यक्त्व—केवली भगवान के सम्यक्त्व को परम अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं ।
प्रश्न ९. सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के साधन कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के दो साधन हैं । अंतरंग साधन बहिरंग साधन सम्यक्त्व विरोधी कर्मों १. जातिस्मरण ४. जिनबिम्बदर्शन का उपशम, क्षय एवं २. वेदनानुभव ५. जिनमहिमादर्शन क्षयोपशम होना ३. धर्मश्रवण ६. देर्विद्धदर्शन
प्रश्न १०. सम्यग्दर्शन के स्वामी कौन—कौन से जीव हैं ?
उत्तर—संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्तक, भव्य, चारों गतियों के जीव सम्यग्दर्शन के स्वामी बन सकता हैं ।
प्रश्न ११. तीनों सम्यग्दर्शन का काल निम्न है—
उत्तर—तीनों सम्यग्दर्शन का काल निम्न है— सम्यग्दर्शन जघन्यकाल उत्कृष्टकाल उपशम अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त क्षयोपशम अन्तर्मुहूर्त ६६ सागर क्षायिक सादि अनंत नोट—क्षायिक सम्यग्दर्शन कर्मों के अभाव से हुआ है इसलिए सादि और कभी इसका अंत नहीं होगा इसलिए अनंत कहलाता है ।
प्रश्न १२. सम्यग्दृष्टि जीव कितने दोषों से रहित होता है ?
उत्तर—सम्यग्दृष्टि जीव २५ दोषों से रहित होता है । ३ मूढ़ता, ८ मद, ८ शंकादिदोष, ६ अनायतन।
प्रश्न १३. मूढ़ता किसे कहते हैं और कितनी होती हैं ?
उत्तर—विवेक रहित अज्ञानपूर्ण र्धािमक अंधविश्वास वाली क्रियाओं को मूढ़ता कहते हैं । मूढ़ता तीन होती हैं । १. लोकामूढ़ता—धर्मबुद्धि से नदी, तालाब में स्नान करना, पर्वत से गिरना, अग्नि में जलना आदि। २. देवमूढ़ता—वरदान (लौकिक इच्छा) की अभिलाषा से रागी—द्बेषी देवी—देवताओं की पूजा करना । ३. गुरुमूढ़ता—आरम्भ—परिग्रह से युक्तहिंसा आदि के कार्यों में संलग्न पाखण्डी साधुओं का सत्कार करना ।
प्रश्न १४. मद किसे कहते हैं और कितने होते हैं ?
उत्तर—क्षणिक भौतिक उपलब्धियों को लेकर अहंकार, घमण्ड, गर्व करना मद कहलाता है । निमित्तों की अपेक्षा मद के आठ भेद हैं । १. ज्ञानपद, २. पूजामद, ३. कुलमद (पितृपक्ष), ४. जातिमद (मातृपक्ष), ५. बलमद, ६. ऋद्धिमद, ७. तपमद, ८. रूपमद।
प्रश्न १५. अनायतन किसे कहते हैं और कितने होते हैं ?
उत्तर—दोषों के आधार को अनायतन कहते हैं । अनायतन ६ होते हैं । १. कुगुरु, २. कुगुरुसेवक, ३. कुदेव, ४. कुदेवसेवक, ५. कुधर्म, ६. कुधर्म सेवक।
प्रश्न १६. शंकादि आठ दोष कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—शंकादि आठ दोष निम्न हैं— १. शंका—जिनेन्द्र भगवान व्दारा कथित तत्त्व में शंका—संदेह करना । २. कांक्षा—धर्मसेवन का फल सांसारिक सुख चाहना। ३. विचिकित्सा—रत्नत्रयधारियों के शरीर से ग्लानि करना । ४. मूढ़दृष्टि—तत्त—कुतत्त्व की पहचान नहीं करना । ५. अनुपगूहन—धर्मात्माओं के दोषों को प्रकट करना । ६. अस्थितिकरण—धर्म से विचलित लोगों को धर्म में स्थित नहीं करना । ७. अवात्सल्य—सहर्धिमयों से व्देष—ईष्याॅ करना । ८. अप्रभावना—अपने खोटे आचरण से जिनमार्ग को कलंकित करना ।
प्रश्न १७. सम्यग्दर्शन के आठ अंग कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—सम्यग्दर्शन के आठ अंग निम्न हैं— अंग का नाम -स्वरूप -प्रतीक १. नि:शंकित अंग— मोक्षमार्ग एवें मोक्षमार्गियों पर —दायाँ पैर शंका नहीं करना । २. नि:कांक्षित अंग— लोक एवं परलोक सम्बन्धी भोगों —बायाँ पैर की चाह नहीं करना । ३निविॅर्चिकित्सा अंग— धामिॅ़क जनों के ग्लानिजनक शरीर —बायाँ पैर को देखकर घृणा नहीं करना । ४. अमूढ़दृष्टि अंग— लौकिक, प्रलोभन, चमत्कार आदि —पीठ से प्रभावित नहीं होना। ५. उपगूहन अंग— दूसरों के दोष तथा अपने गुणों को —नितम्ब छिपाना ६. स्थितिकरण अंग— धर्ममार्ग से विचलित व्यक्ति को —दायाँ हाथ सहारा देना। ७. वात्सल्य अंग— धर्मात्माओं के प्रति निष्कपट प्रेम —हृदय रखना। ८. प्रभावना अंग— जनकल्याण की भावना से अपने —मस्तिष्क आचरण से धर्म का प्रचार—प्रसार करना । प्रश्न १८. सम्यग्दर्शन के आठ गुण कौन—कौन से हैं ? उत्तर—सम्यग्दर्शन के आठ गुण निम्न हैं— १. संवेग—संसार के दु:खों से डरकर धर्म मार्ग में अनुराग करना । २. निर्वेग/निर्वेद—संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति रखना। ३. आत्मिंनदा—अपने दोषों का निंदा करना । ४. आत्मगर्हा—गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना । ५. उपशम—क्रोधादि विकारों का नियंत्रण होना। ६. भक्ति—पञ्चपरमेष्ठी की पूजा, विनय, भक्ति करना । ७. आस्तिक्य—आत्मा, कर्म, पूजा, विनय, भक्ति करना । ८. अनुकम्पा—प्राणीमात्र के प्रति दया भाव रखना।
प्रश्न १९. अतिचार किसे कहते हैं, सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार कौन से हैं ?
उत्तर—प्रतिज्ञा का आंशिक खण्डन होना अतिचार कहलाता है । सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं । १. शंका—वीतराग धर्म में शंका करना । २. कांक्षा—धर्माचरण से विषयभोगों की आकांक्षा रखना। ३. विचिकित्सा—मुनिजनों के शरीर से ग्लानि करना । ४. अन्यदृष्टिप्रशंसा—कुमार्गगामी व्यक्तियों की परोक्ष में मन से प्रशंसा करना । ५. अन्यदृष्टि संस्तव—कुमार्गगामी व्यक्तियों की परोक्ष में मन से प्रशंसा करना ।
प्रश्न २०. सम्यग्दर्शन की महिमा क्या है ?
उत्तर—सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल में प्रवेश करने के लिए प्रथम सीढ़ी है । सम्यग्दर्शन के माध्यम से ही ज्ञान और चारित्र सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं । सम्यक्त्व के प्रभाव से जीव नारकी, तिर्यञ्च, भवनत्रिकदेव, नपुंसक, स्त्रीपर्याय, नीचकुल, विकलांग, अल्पआयु, पञ्चस्थावर, विकलत्रय और दरिद्रता आदि पर्यायों में जन्म नहीं लेता है । नोट—सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व यदि नरकायु का बंध किया है तो प्रथम नरक में ही जन्म लेगा और तिर्यञ्चायु का बंध किया है तो भोगभूमि का तिर्यञ्च बनेगा। सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के प्रभाव से वैमानिक देवों में इन्द्र का पद, चक्रवर्ती पद, तीर्थंकर पद प्राप्त करता हुआ निर्वाण को भी प्राप्त करता है । सम्यग्ज्ञान
प्रश्न २१. सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं ? और उसके कितने भेद हैं ?
उत्तर—जो वस्तु जैसी है उसका उसी रूप में बोध कराने वाले ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं । सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं— १. परोक्ष सम्यग्ज्ञान—इन्द्रिय और मन के आलम्बन से होने वाला ज्ञान। २. प्रत्यक्ष सम्यग्ज्ञान—बिना किसी बाह्य आलम्बन के होने वाला ज्ञान। नोट—सम्यग्ज्ञान की विस्तार से चर्चा प्रमाण के अन्तर्गत की है।
प्रश्न २२. सम्यग्ज्ञान के आठ अंग कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—सम्यग्ज्ञान के आठ अंग निम्न हैं— १. शब्दाचार—मूलग्रंथ के शब्द, स्वर, व्यंजन और मात्राओं का शुद्ध उच्चारण पूर्वक पढ़ना। २. अर्थाचार—अर्थ समझकर ग्रंथ पढ़ना। ३. तदुभयाचार—अर्थ समझते हुए शुद्ध उच्चारण सहित पढ़ना। ४. कालाचार—शास्त्र पढ़ने योग्य काल में ही पढ़ना, अयोग्यकाल (सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, उल्कापात अग्निदाह) में सिद्धान्त ग्रंथ नहीं पढ़ना। ५. विनयाचार—द्रव्य, क्षेत्र आदि की शुद्धि के साथ विनयपूर्वक शास्त्र पढ़ना। ६. उपधानाचार—शास्त्र के मूल एवं अर्थ का बार—बार स्मरण करना, उसे विस्मृत नहीं होने देना। अथवा कुछ नियम संकल्प लेकर शास्त्र पढ़ना। ७. बहुमानाचार—ज्ञान के उपकरण एवं गुरुजन को आदर देना। ८. अनिह्नवाचार—जिस शास्त्र से अथवा गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है, उनका नाम नहीं छिपाना।
प्रश्न २३. सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए हमें क्या करना चाहिये ?
उत्तर—निरन्तर शास्त्रों का अभ्यास, सत्संगति में शास्त्र चर्चा, वार्ता करते हुए अपने ज्ञान को निरन्तर बढ़ाते हुए हेयोपादेय का ज्ञान करके भेद ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। सम्यक्चारित्र
प्रश्न २४. सम्यक्चारित्र किसे कहते हैं और इसके कितने भेद हैं ?
उत्तर—अशुभकार्यों से अर्थात् पाप कार्यों से हटाकर शुभकार्यों में लगना चारित्र कहलाता है । चारित्र के दो भेद हैं । १. एकदेश चारित्र, २. सकल चारित्र।
प्रश्न २५. श्रावक किसे कहते हैं और श्रावक के कितने भेद हैं ?
उत्तर—एकदेश चारित्र श्रावकों का होता है ।
प्रश्न २६. श्रावक किसे कहते हैं और श्रावक के कितने भेद हैं ?
उत्तर—जो श्रद्धावान, विवेकवान और क्रियावान होता है, उसे श्रावक कहते हैं । श्रावक के तीन भेद हैं । १. पाक्षिक श्रावक—मध्यत्याग, मधुत्याग, मांसत्याग, पाँच उदुम्बर फल त्याग, अभक्ष्यत्याग, रात्रिभोजन का त्याग, पञ्चपरमेष्ठी की पूजा, जीवदया आदि का पालन करने वाला पाक्षिक श्रावक कहलाता है । २. नैष्ठिक श्रावक—जो निष्ठापूर्वक श्रावक धर्म का पालन करता है, वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है । ३. साधक श्रावक—सल्लेखना की साधना में संलग्न श्रावक साधक श्रावक कहलाता है । अभक्ष्य त्याग
प्रश्न २७. अभक्ष्य किसे कहते हैं और अभक्ष्य कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर—जो पदार्थ खाने योग्य नहीं होते उसे अभक्ष्य कहते हैं । अभक्ष्य पदार्थ पाँच प्रकार के होते हैं । १. त्रसहिंसाकारक—जिस पदार्थ के खाने से त्रस जीवों का घात होता है, उसे त्रस हिंसाकारक अभक्ष्य कहते हैं । जैसे—मांसभक्षण, अण्डा, होटल का भोजन, घुनाअन्न, फूल गोभी, विदेशी टॉफी, बजारु आइसक्रीम, वकॅ, अमर्यादित अचार एवं मुरब्बा आदि। २. बहुस्थावर हिंसाकारक—जिस पदार्थ के खाने से बहुतस्थावर जीवों का घात होता है, उसे बहुस्थावर हिंसाकारक अभक्ष्य कहते हैं । जैसे—जमीकन्द (आलू, घुंईया, मूली, गाजर, शकरकन्द) तुच्छफल आदि। ३. प्रमादकारक—जिस पदार्थ का सेवन करने से प्रमाद—आलस्य अथवा बुरी भावनायें पैदा होती हैं, उसे प्रमादकारक अभक्ष्य कहते हैं । जैसे—शराब, भांग, चरस, कोकीन, धूम्रपान, गुटका, गांजा, अफीम आदि नशीले पदार्थ। ४. अनिष्टकारक—जो पदार्थ भक्ष्य होने पर भी रुग्णावस्था में हितकारी (पथ्य) नहीं होते वे अनिष्टकारक अभक्ष्य हैं । जैसे—खांसी में खटाई, मिठाई खाना, बुखार होने पर हलवा खाना, सर्दी होने पर ठंडी वस्तु खाना इत्यादि। ५. अनुपसेव्य—जिस पदार्थ को खाना अपने समाज तथा धर्म वाले बुरा समझते हैं, उसे अनुपसेव्य अभक्ष्य कहते हैं । जैसे—स्वमूत्र, गौमूत्र, शंखभस्म, हाथीदांत आदि।
प्रश्न २८.चरणानुयोग में वर्णित २२ अभक्ष्य पदार्थ कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—२२ अभक्ष्य पदार्थ निम्न हैं— ओला घोलबाड़ा, निशिभोजन, बहुबीजा बैगन सन्धान। बड़ पीपल ऊमर कठूमर, पाकर फल या होय अजान।। कन्दमूल, माटी विष आमिष, मधु मक्खन अरु मदिरापान। फल अतितुच्छ तुषार चलितरस, ये बाईस अभक्ष्य बखान।। शब्दार्थ—घोलबड़ा—दहीबड़ा। चना, मूंग, उड़द आदि दालों के साथ दही या छाछ मिलाकर खाने से व्दीदल कहलाता है । इसको खाने से मुख में लार के सम्पकॅ मात्र से ही सम्मूच्र्छॅन त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाने से महाहिंसा का पाप लगता है । संधान—अमर्यादित अचार। आमिष—मांस। तुषार—बफॅ।
प्रश्न २९. रात्रिभोजन क्यों नहीं करना चाहिए ?
उत्तर—सूर्य की किरणों में (Ultravolate) अल्ट्रावायलेट एवं (Infrared) इन्प्ररेड नाम की किरणें रहती हैं । इन किरणों के कारण दिन में सूक्ष्मजीवों की उत्पत्ति नहीं होती है । सूर्यास्त होते ही रात्रि में जीवों की उत्पत्ति प्रारम्भ हो जाती है । यदि रात्रि में भोजन करते हैं तो उन जीवों का घात (हिंसा) होता है । पेट में भोजन के साथ छोटे—छोटे जीव चले जाते हैं और अनेक प्रकार की बीमारियाँ जन्म ले लेती हैं । अत: अहिंसा धर्म का पालन करने के साथ—साथ आरोग्य लाभ की दृष्टि से भी रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए। षट् आवश्यक कतॅव्य
प्रश्न ३०. श्रावक के षट् आवश्यक कतॅव्य कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—श्रावक के षट् आवश्यक कतॅव्य निम्न हैं— १. देवपूजा—मन, वचन, काय से जिनेन्द्र भगवान के गुणों का चिन्तन-मनन करना देवपूजा कहलाती है । २. गुरु उपासना—मोक्षमार्ग के साधक गुरुओं का उपदेश सुनना, भक्ति पूर्वक उनकी सेवा करना गुरु उपासना है । ३. स्वाध्याय—श्री जिनेन्द्र कथित ग्रंथों का पढ़ना—पढ़ाना, सुनना—सुनाना, पूछना—बताना, चर्चा करना एवं चिन्तन मनन करना स्वाध्याय है । ४. संयम—अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रण में रखना संयम कहलाता है । ५. तप—अपनी इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है । ६. दान—मोक्षमार्ग की साधना में संलग्न जीवों के लिए स्व और पर कल्याण की भावना से योग्य द्रव्य का त्याग करना दान कहलाता है । दान के चार भेद हैं—१. आहार दान, २. उपकरणदान/ज्ञानदान, ३. औषधि दान, ४. अभयदान अथवा आवास दान।
प्रश्न ३१. नैष्ठिक श्रावक क कितने पद हैं ?
उत्तर—नैष्ठिक श्रावक के ११ पद हैं । इन्हें ही श्रावक की ग्यारह प्रतिमायें कहते हैं । १. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा, ५. सचित्तत्याग प्रतिमा, ६. रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा, ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, ८. आरम्भत्याग प्रतिमा, ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा, १०. अनुमतित्याग प्रतिमा, ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा।
प्रश्न ३२. दर्शन प्रतिमा किसे कहते हैं ।
उत्तर—पच्चीस दोषों से रहित सम्यक्त्व का पालन करते हुये संसार, शरीर भोगों से विरक्त होकर पञ्च परमेष्ठी के चरणों में अनुरक्त रहना दर्शन प्रतिमा कहलाती है ।
प्रश्न ३३. दर्शन प्रतिमाधारी का आचरण किस प्रकार होता है?
उत्तर—दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक सदाचार का पालन करने वाला, न्याय—नाीतिपूर्वक व्यापार—कृषि करने वाला, अभक्ष्य त्याग, रात्रिभोजन त्याग करने वाला, होटल के़ भोजन त्याग करने वाला प्रतिदिन देवदर्शन करने वाला होता है ।
प्रश्न ३४. व्रत प्रतिमा किसे कहते हैं ?
उत्तर—दर्शन प्रतिमा का पालन करते हुए नि:शल्य होकर पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का पालन करना व्रत प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारी श्रावक व्रती कहलाने लगता है ।
प्रश्न ३५. अणुव्रत किसे कहते हैं और कितने होते हैं ?
उत्तर—हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों का स्थूलरूप से त्याग करना अणुव्रत कहलाता है- अणुव्रत पाँच होते हैं । १. अहिंसाणुव्रत—संकल्पूर्वक त्रस जीवों का घात मन, वचन, काय से नहीं करना और निष्प्रयोजन स्थावर जीवों की हिंसा भी नहीं करना । २. सत्याणुव्रत—स्थूल झूठ का त्याग सत्याणुव्रत कहलाता है । ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जिससे किसी को आपत्ति आ जाए। ३. अचौर्याणुव्रत—स्थूल रूप से चोरी का त्याग करना अचौर्याणुव्रत कहलाता है । ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत—अपनी विवाहित स्त्री के अतिरिक्त सभी स्त्रियों के प्रति माँ, बहिन और बेटी का व्यवहार रखना ब्रह्मचर्यव्रत कहलाता है । इसे स्वदारसंतोषव्रत भी कहते हैं । ५. परिग्रह परिमाणाणुव्रत—अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप धन—धान्यादि पदार्थों की सीमा तय करके शेष का त्याग करना परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहलाता है ।
प्रश्न ३६. अतिचार किसे कहते हैं ?
उत्तर—अज्ञान अथवा प्रमादवश व्रतों का आंशिक रूप से खण्डित (टूट) हो जाना अतिचार है ।
प्रश्न ३७. अिंहसाणुव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. छेदन—दुर्भावना पूर्वक पालतू पशु—पक्षियों के अंग—उपांगों का छेदन करना । २. बंधन—पालतू पशु—पक्षियों को इस तरह बंधन में रखना कि हिलडुल भी न सकें। ३. पीड़न—हन्टर, चाबुक, छड़ी आदि से पिटाई करना । ४. अन्नपान निरोध—अपने आश्रित जीवों को समय पर भोजन पान, वेतन वगैरह नहीं देना। ५. अतिभारारोपण—पशुओं एवं नौकरों से शक्ति से अधिक कार्य लेना।
प्रश्न ३८. सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. परिवाद—किसी की निन्दा अथवा किसी को गाली देना। २. रहोभ्याख्यान—किसी की गुप्त बातों को प्रकट कर देना। ३. पैशन्य—चुगली करना । ४. कूटलेखन क्रिया—नकली दस्तावेज तैयार करवाना। ५. न्यासापहार—दूसरों को धरोहर हड़प जाना।
प्रश्न ३९. अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. स्तेनप्रयोग—चोरों के लिए चोरी की प्रेरणा देना। २. चौरार्थादान—चोरी का माल खरीदना। ३. विलोप—राजकीय नियमों का उल्लंघन करना । ४. हीनाधिक विनिमान—माप—तौल के साधन छोटे—बड़े रखना। ५. प्रतिरूपक व्यवहार—मिलावट करना ।
प्रश्न ४०. ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. अन्यविवाहकरण—दूसरों के विवाह के मुखिया बनना। २. अनंगक्रीड़ा—विकृत, उच्छृंखल यौनाचार में रुचि रखना। ३. विटत्व—काम सम्बन्धी कुचेष्टा करना । ४. कामतीव्राभिलाषा—काम—वासना सम्बन्धी तीव्र लालसा। ५. इत्वरिकागमन—चरित्रहीन स्त्री—पुरुषों की संगति करना ।
प्रश्न ४१. परिग्रह परिमाणाणुव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—परिग्रह परिमाणाणुव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. अतिवाहन—अधिक लाभ कमाने की इच्छा से वाहन अथवा पशु अधिक रखना। २. अतिसंग्रह—अधिक लाभ कमाने की इच्छा से वस्तुओं का अधिक संग्रह करना । ३. अतिविस्मय—अपने अधिक लाभ में हषिॅत होना एवं दूसरों के लाभ को सुनकर विषाद करना । ४. अतिलोभ—अत्यधिक लाभ की आकांक्षा रखना। ५. अतिभार वाहन—लोभ के वशीभूत होकर किसी पर न्याय—नाीति से अधिक भार लादना।
प्रश्न ४२. गुणव्रत किसे कहते हैं और कितने होते हैं ?
उत्तर—जो अणुव्रतों की वृद्धि में सहायक होते हैं उन्हें गुणव्रत कहते हैं । गुणव्रत तीन होते हैं । १. दिग्व्रत—सूक्ष्मपापों से बचने के लिए दशों दिशाओं की सीमा बनाकर उससे बाहर नहीं जाना। २. देशव्रत—दिग्व्रत में ली हुई मर्यादा को घड़ी—घंटा दिन आदि तक नगर, मुहल्ला, चौराहा आदि की सीमा बनाना देशव्रत कहलाता है । ३. अनर्थदण्डविरतिव्रत—निष्प्रयोजन पाप के कार्यों से विरक्त होना अनथॅदण्डविरति व्रत कहलाता है । अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं— १. पापोपदेश—खोटे व्यापार आदि पाप क्रियाओं का उपदेश देना। २.हिंसादान—िंहसक अस्त्र—शास्त्रों का आदन—प्रदान करना । ३. अपध्यान—निष्प्रयोजन किसी के जन्म—मरण, हार—जीत, लाभ—हानि का चिन्तन करना । ४. प्रमादचर्या—निष्प्रयोजन पृथ्वी खोदना, पानी बहाना, बिजली—पंखा चलाना आदि। ५. दु:श्रुति—चित्त को कलुषित करने वाले अश्लील साहित्य को पढ़ना, गीत—नाटक सिनेमा देखना।
प्रश्न ४३. दिग्व्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—दिग्व्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. ऊध्र्वव्यतिक्रम—अज्ञान अथवा प्रमादवश ऊपर की सीमा का उल्लंघन करना । २. अधोव्यतिक्रम—अज्ञान अथवा प्रमाद के वश नीचे की सीमा का उल्लघंन् करना । ३. तिर्यग्व्यतिक्रम—अज्ञान अथवा प्रमाद के वश तिर्यग् सीमा का उल्लंघन करना । ४. क्षेत्रवृद्धि—लोभ के कारण सीमा की वृद्धि कर लेना। ५. विस्मरण—निर्धारित सीमा को भूल जाना।
प्रश्न ४४. देशव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—देशव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. अनायन—सीमा के बाहर की वस्तु किसी से बुलवाना। २. प्रेष्यप्रयोग—सीमा के बाहर क्षेत्र में किसी को भेजकर कार्य करवाना। ३. शब्दानुपात—सीमा के बाहर क्षेत्र में खंसी, चुटकी, ताली, फोन आदि करके बुलवाना। ४. रूपानुपात—सीमा के बाहर अपना रूप, शरीर, हाथ, वस्त्र आदि दिखाकर इशारा करना । ५. पुद्गलक्षेप—सीमा के बाहर कंकड़, पत्थर आदि फैककर कार्य करवाना।
प्रश्न ४५. अनर्थदण्डविरति व्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—अनर्थदण्डविरति व्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. कन्दर्प—राग की अधिकता होने से हास्य मिश्रित अशिष्ट वचन बोलना। २. कौत्कुच्य—हास्य, अशिष्य वचन के साथ कुचेष्टा करना । ३. मौखर्य—धृष्टता पूर्वक बहुत बकवास करना । ४. असमीक्ष्याधिकरण—बिना विचारे अधिक कार्य करना । ५. उपभोग—परिभोगानर्थक्य—अधिक भोग—उपभोग की सामग्री का संग्रह करना ।
प्रश्न ४६. शिक्षाव्रत किसे कहते हैं और कितने होते हैं ?
उत्तर—जिन व्रतों का पालन करने से मुनि, र्आियका बनने की शिक्षा प्राप्त होती है, उन व्रतों को शिक्षाव्रत कहते हैं । शिक्षाव्रत चार होते हैं । १. सामायिकशिक्षाव्रत—समताभाव धारण करना सामायिक है । पाँचों पापों का त्याग कर परमात्मस्वरूप का चिन्तन करना सामायिक है । २. प्रोषधोपवासशिक्षाव्रत—पर्व के दिनों में अर्थात् अष्टमी, चतुर्दशी को समस्त आरम्भ कार्यों का त्याग करके उपवास करते हुए धर्मध्यान करना प्रोषधोपवास है । ३. भोगोपभोगपरिमाणशिक्षाव्रत—भोग एवं उपभोग की वस्तुओं में परिमाण करके राग भाव कम करना । अ. भोग—जो वस्तु एक बार भोगने में आए। जैसे—भोजन, पानी आदि। ब. उपभोग—जो वस्तु बार—बार भोगने में आए। जैसे—वस्त्र, आभूषण, यान आदि। ४. अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत—अतिथि—साधु पुरुषों को संयम की आराधना के लिए आहार, औषधि, उपकरण एवं वसतिका का दान करना अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत कहलाता है ।
प्रश्न ४७. सामायिक शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—सामायिक शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. मन: दुष्प्रणिधान—सामायिक करते हुए मन में अशुभ संकल्प विकल्प करना । २. वचनदुष्प्रणिधान—सामायिक पाठ आदि का अशुद्ध उच्चारण करना । ३. कायदुष्प्रणिधान—सामायिक में हाथ, पैर, हिलाना, यहाँ—वहाँ देखना। ४. अनादर—सामायिक के प्रति आदरभाव नहीं होना। ५. समृत्यनुपस्थान—सामायिक का समय ही भूल जाना आदि।
प्रश्न ४८. प्रोषधोवपास शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—प्रौषधोपवास शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. अप्रत्यवेक्षित अप्रर्मािजत उत्सर्ग—बिना देखी, बिना शोधी हुई जमीन में मलमूत्र का त्याग करना । २. अप्रत्यवेक्षित अप्रर्मािजत आदान—बिना देखे—बिना शोधे उपकरण आदि ग्रहण करना । ३. अप्रत्यवेक्षित अप्रर्मािजत संस्तरोपक्रमण—बिना देखी, बिना शोधी भूमि पर चटाई, बिस्तर आदि बिछाना। ४. अनादर—उपवास के कारण भूख आदि से पीड़ित होने पर सामायिक, स्वाध्याय आदि में उत्साह ना होना। ५. समृत्यनुपस्थान—आवश्यक क्रियाओं को भूल जाना।
प्रश्न ४९. भोगोपभोग परिमाणशिक्षाव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—भोगोपभोग परिमाणशिक्षाव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. सचित्त आहार—सचेतन हरे फल, पत्र आदि खाना। २. सचित्त सम्बन्धाहार—सचित्त पदार्थों से ढ़के हुए एवं सचित्त पत्र आदि में रखे हुए आहार को ग्रहण करना । ३. सचित्त सम्मिश्राहार—सचित्त पदार्थ से मिले हुए पदार्थ खाना। ४. अभिषव आहार—इन्द्रियों को मद उत्पन्न करने वाले गरिष्ठ पदार्थ खाना। ५. दु:पक्वाहार—अधिक पके, कच्चे, जले हुए पदार्थ खाना।
प्रश्न ५०. अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार कौन—कौन से हैं ?
उत्तर—अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत के पाँच अतिचार निम्न हैं— १. सचित्त निक्षेप—सचित्त कमल में पत्ते आदि पर रखा आहार देना। २. सचित्तापिधान—सचित्त कमल पत्र आदि से ढका आहार देना। ३. परव्यपदेश—स्वयं न देकर दूसरों से दिलवाना अथवा दूसरे के द्रव्य का दान करना । ४. मात्सर्य—दूसरे दाताओं से ईष्र्या रखना। ५. कालातिक्रम—आहार के काल का उल्लंघन कर देना।
प्रश्न ५१. सामायिक प्रतिमा क्या है ?
उत्तर—तीनों संध्याओं में नियम पूर्वक सामायिक करना सामायिक प्रतिमा है । शत्रु—मित्र, लाभ—हानि, जीवन—मरण में समता रखने को सामायिक कहते हैं । सामायिक में संसार, शरीर, भोगों की क्षणभंगुरता का चिंतन करें, बारह भावनाओं एवं सोलहकारण भावनाओं का चिंतन करें, पञ्चनमस्कार मंत्र आदि का जाप करें।
प्रश्न ५२. प्रोषधोपवास प्रतिमा करें।
उत्तर—पर्व के दिनों में नियम से प्रोषधोपवास करना प्रोषधोपवास प्रतिमा है ।
प्रश्न ५३. सचित्तत्याग प्रतिमा क्या है ?
उत्तर—कच्ची अवस्था में फल, सब्जी, पानी सचित्त कहलाते हैं अर्थात् इनको अग्नि आदि से संस्कारित करके अर्थात् अतित्त करके ही ग्रहण करना सचित्तत्याग प्रतिमा है ।
प्रश्न ५४. रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा क्या है ?
उत्तर—चारों प्रकार का आहार मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से रात्रि में ग्रहण नहीं करना रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा कहलाती है । इस प्रतिमा का दूसरा नाम दिवामैथुन त्याग भी है क्योंकि यह दिन में काम वासना का पूर्ण त्याग कर देता है ।
प्रश्न ५५. ब्रह्मचर्य प्रतिमा क्या है ?
उत्तर—मन, वचन, काय से स्त्री मात्र के संसर्ग का त्याग करना ब्रह्मचर्य प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारी श्रावक शरीर की अशुचिता को समझते हुए काम प्रवृत्तियों को सर्वथा परित्याग कर देता है ।
प्रश्न ५६. आरम्भ त्याग प्रतिमा क्या है ?
उत्तर—आजीविका के साधनभूत समस्त प्रकार के व्यापार, नौकरी, कृषि, मकान, धर्मशाला, मंदिर निर्माण के कार्य को भी नहीं करता। पूर्व संचित धन से ही अपने जीवन का निर्वाह करना आरम्भ त्याग प्रतिमा है ।
प्रश्न ५७. परिग्रह त्याग प्रतिमा क्या है ?
उत्तर—पूजन के बर्तन, शौच उपकरण एवं वस्त्रों के अलावा समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग करना परिग्रह त्याग प्रतिमा है ।
प्रश्न ५८. अनुमति त्याग प्रतिमा क्या है ?
उत्तर—इस प्रतिमा का धारी श्रावक गृह में परिवार के मध्य में रहता हुआ भी घर—गृहस्थी के किसी भी कार्य में अपनी सहमति नहीं देता है । घर अथवा चैत्यालय में रहता हुआ स्वाध्याय, सामायिक, चिन्तन आदि में अपना समय व्यतीत करता है ।
प्रश्न ५९. उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा किसे कहते हैं ?
उत्तर—अपने उद्देश्य से तैयार किये गये भोजन के ग्रहण को त्याग करना उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है । इस प्रतिमा का धारी श्रावक पूर्ण रूप से गृह का त्याग कर मुनियों के समूह में जाकर व्रतों को ग्रहण कर तपस्या करता हुआ भिक्षावृत्ति से आहार ग्रहण करता है । इस प्रतिमा के धारी दो प्रकार के जीव हैं । १. क्षुल्लक, २. ऐलक। क्षुल्लक लंगोट के साथ एक खण्ड चादर रखते हैं । भोजन कटोरे में करते हैं । केशलोंच करने का नियम नहीं है । पैदल ही चलते हैं । ऐलक करपात्र में ही आहार ग्रहण करते हैं । केशलोंच भी करते हैं । मात्र लंगोट धारण करते हैं ।
प्रश्न ६०. कौन से प्रतिमाधारी श्रावक जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट कहलाते हैं ?
उत्तर—प्रथम प्रतिमा से छटवीं प्रतिमा तक के जघन्य श्रावक, सातवीं प्रतिमा से नवमीं तक मध्यम श्रावक एवं दसवीं एवं ग्यारहवीं प्रतिमा वाले उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं ।
प्रश्न ६१. ग्यारह प्रतिमाधारी स्त्रियों को क्या कहते हैं ?
उत्तर—ग्यारह प्रतिमाधारी स्त्रियों को क्षुल्लिका कहते हैं, यह एक सपेद साड़ी और खण्डवस्त्र रखती हैं । शेष चर्या क्षुल्लकवत् है ।
प्रश्न ६२. साधक श्रावक किसे कहते हैं ।
उत्तर—जीवन के अंत में मरणकाल सम्मुख उपस्थित होने पर भोजनादि का त्याग करके कषाय आदि को कृष करते हुए शरीर का त्याग करने वाला साधक श्रावक कहलता है । श्रमणाचार
प्रश्न ६३. सकल चारित्र किसे कहते हैं और कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर—पाँचों पापों का मन, वचन, काय, कृत, कारित और अनुमोदना से जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना सकल चारित्र है । मुनिराजों का सकल चारित्र १३ प्रकार का होता है । १. पाँच महाव्रत, २. पाँच सतिति, ३. तीन गुप्ति नोट—इनका वर्णन परमेष्ठी प्रकरण में साधु परमेष्ठी के अन्तर्गत किया जा चुका है ।
प्रश्न ६४. चर्तुिवध संघ क्या है, उनकी विनय किस प्रकार करना चाहिए ?
उत्तर—अरिहन्त भगवान द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्ग पर चलने वाले मुनि, श्रावक (ऐलक, क्षुल्लक, ब्रह्मचारी, सद्गृहस्थ) श्राविका (क्षुल्लिका, ब्रह्मचारिणी) के समूह को चर्तुिवध संघ कहते हैं । मुनियों को नमोऽस्तु कहकर नमस्कार करना चाहिए। र्आियकाओं के लिए वंदामि बोलकर नमस्कार करें। ऐलक जी, क्षुल्लक जी को इच्छामि बोलकर नमस्कार करें। प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी भाई बहिनों को वंदना कहें एवं अन्य भाई बहिनों को जय जिनेन्द्र कहें।
प्रश्न ६५. उत्कृष्ट संयम धारण करने वाली स्त्रियाँ क्या कहलाती हैं ?
उत्तर—उत्कृष्ट संयम धारण करने वाली स्त्रियां कहलाती हैं । र्आियकाएँ निर्वस्त्र नहीं रहती हैंं अपितु एक सपेद साड़ी धारण करती हैं । बैठकर करपात्र में ही आहार ग्रहण करती हैं । आयिकाओं को उपचार से महाव्रती कहा जाता है । किन्तु इनका पञ्चम गुणस्थान ही होता है